Post – 2015-11-10

हम भी एक मोटी समझ रखते हैं

तुम अपने को मार्क्सवादी भी कहते हो और मार्क्सवादियों को ही अपना निशाना बनाते हो। तुम्हें विश्वासघाती माने या कुलघाती, चुनाव तुम पर छोड़ता हूँ। और कभी सोचा भी है कि हमारा साथ छोड कर एक ऐसी राजनीति का साथ दे रहे हो जो मार्क्सवाद विरोधी है सबसे अधिक गालियां मार्क्स को वे ही देते हैं. जातपांत को, कहो वर्णवाद को वही आगे बढ़ाते हैं. समाज को बांटने का काम उनका ही है, हम लोग तो समाज को जोड़ने का काम करते हैं और मुझे ही तुम्हारी उल्टी सीधी सुननी पड़ती है। गलत कह रहा हूं?”
“तुम गलत कह ही नहीं सकते। जिस दिन गलत कहने की हिम्मत जुटा लोगे उसी दिन आदमी की तरह बात करने लगोगे।“
“मैं आदमी की तरह बात नहीं कर रहा हूँ?”
“तुम माउथपीस की तरह बात कर रहे हो। जिसे तुम मार्क्सवाद विरोधी कह रहे हो वह तुम्हारी नहीं, उस मुस्लिम लीग का विरोध करता आया है, जिसकी प्रतिक्रिया में उसका जन्म हुआ था, और जिसका कार्यभार तुमने अपना लिया है।“
“तुम्हारे और उस संगठन के बीच कुछ गहरी समानताएँ हैं, यह तो जानते होगे?”
“हमारी उससे क्या समानता हो सकती है? हम तो उसे फूटी आँखों भी देखना नहीं चाहते।“
“गलत कह दिया। कहना चाहिए था कि हम तो अपनी आँख तक फोड़ सकते हैं कि उसे देखना न पड़े। गरज कि तुममें वह नफरत है जिसका आरोपण तुम उस पर करते हो। वे तुम्हारा विरोध करते हैं, तुमसे नफरत नहीं कर सकते, क्योंकि वे विचारो की भिन्नता और स्वतन्त्रता में विश्वास करते हैं तुम नहीं।“
“विचारों की स्वतन्त्रता ही पर तो उनका हमला है.
“विचारों की स्वतन्त्रता पर नहीं, गालियां देने की स्वतन्त्रता पर। हमला भो वे ज़बान से करते हैं कभी कभी वह तरीका भी अपना लेते हैं जो तुम हड़ताल के मौके पर काम में लाते रहे हो। ग़रज़ की इसे भी उन्होंने तुमसे सीखा।“
“और वह जो हत्याएं हुई हैं, जिन को लेकर माहौल गर्म है।“
“वे न उनके किसी सदस्य् द्वारा हुई हैं, न उनके शासित राज्य में।“
“किया तो किसी हिन्दू ने ही।“
“तो उसका विरोध भी तो हिन्दू ही कर रहे हैं। तुम हिन्दू नहीं हो क्या? विरोध करने से रोका क्या? देखो तुम किसी भी संगठन से जुड़े हिन्दू के अपकृत्य को उनके सर मढ़ रहे हो तो किसी भी संगठन से जुड़े हिन्दू के सुकृत के श्रेय से भी वंचित न करो और फर्क करना है तो होश हवास में रह कर करो। अपनी नफ़रत के कारन घालमेल मत करो।“
“विरोध का विरोध तो कर रहे हैं न?”
“विरोध का विरोध नहीं विरोध के तरीके का विरोध और वह भी तार्किक और न्यायोचित तरीके से। इस तरह का घालमेल वे नहीं करते, नफ़रत तुममे है तुम उसे फैलाते हो एक हिन्दू के किये के लिए उससे नफ़रत और फिर हिन्दू नाम जहां जहां दिखाई दिया उससे नफरत। वे ऐसा नही करते। ज़बान तक उनकी मीठी मिलेगी, किसी से अधिक शालीन, कड़वी है तो तुम्हारी. नफ़रत से भरी। तुम बिना गाली के बात ही नहीं करते. असहिष्णुता तुममे अधिक है।
“शिष्टाचार सीखना चाहो तो उनसे सीख सकते हो. वे कम पढ़े लिखे हैं. क़ायदे से अपना पक्ष नहीं रख पाते. तुम्हारे पास वाग्विदों की सेना है. तुम अपने गलत को भी सही साबित करते आये हो. पर सभ्य तुमसे अधिक वे हैं.”
“तुम्हे हो क्या गया है, यार?”
“मैंने कहा था न बौद्धिक का काम सताए हुए का पक्ष लेना है। मैं उनका पक्ष ले रहा हूँ. जवाब तुम्हे देना है। गालियां देने चलोगे तो वे तर्क से टकरा कर तुम्हारे ऊपर जा गिरेंगी. सत्य के पक्ष में हूँ इसलिए तुम्हारे वाग्विदों की पूरी फ़ौज़ को अकेले चुनौती देता हूँ। तर्क और प्रमाण के साथ आओ और मुझे गलत साबित करो। गलत साबित हो गया तो भी मेरी जीत होगी क्योंकि गलती समझ में आ जाएगी और सुधार कर लूँगा।”
“छोडो वह बात। तुम तैश में आगये हो। हाँ, समानता की क्या बात कर रहे थे तुम। वह बताओ।“
“तुम्हारी पार्टी का और उसका जन्म एक ही साल में हुआ था, 1925 में। एक ही ऐतिहासिक परिस्थिति से, एक ही विक्षोभ के भीतर से। दोनों में ऐसे लोग थे जो कांग्रेस से जुड़े रहे थे, इसलिए विदेशी शासन से मुक्ति चाहते थे और कुछ समय तक कांग्रेस के अधिवेशनों में भाग भी लेते रहे थे। दोनों ने कांग्रेस द्वारा तैयार की गई ज़मीन में अपनी अलग खेती शुरू की थी। दोनों जात-पांत विरोधी थे परन्तु देानों में सवर्ण ही लगातार हावी रहे।“
“नहीं, कम्युनिस्ट पार्टी के बारे में ऐसा नहीं कह सकते।“
“मैं क्या कहूँगा। मेरे पास तो अध्ययन भी कम है, अक्ल भी कम। यह तो बाबा साहब ने अनुभव किया था।“
“बाबा साहब की वजह दूसरी थी। वह समझते थे कि दलित समाज की पेट की भूख उतनी ही प्रबल है जितनी आत्मा की भूख। उसे एक धर्मव्यवस्था चाहिए जिसमें वह इसकी पूर्ति कर सके। इसलिए उन्होंने सोच-विचार कर बौद्धमत को अपने अनुकूल पाया था। हमारे यहाँ ईश्वर के लिए जगह नहीं थी।“
“यह अर्धसत्य है। तुम्हारे संगठन में सभी नहीं तो लगभग-सभी कुलीन थे। दबे पिछड़ों को अपनी फ़ौज में भरती करना चाहते थे पर उनके साथ नहीं थे वर्ना बाबा साहेब को अपनी और लाने का प्रयत्न करते. समझाने का प्रयत्न करते की ऊंची जातियां ही नहीं उनका ईश्वर भी दलितों को दबा कर रखता है। नाम सर्वहारा का लो या अल्पहारा का, उनके सपने कुलीनतान्त्रिक थे। जीवनशैली अभिजनवादी थी। उनके निजी जीवन और सार्वजनिक चेहरे में सीधा विरोध था। कभी मौका मिले तो पढ़ना ध्यान से राज थापर की वह किताब। धुन्ध छँट जाएगी।“
वह हँसने लगा, “तुम समझते हो मैंने पढ़ा नहीं है।“
“पढ़ा तो हजम नहीं कर सके। उसकी किसी ने आलोचना भी नहीं की। रास नहीं आती थी तो उसे भूल भी गए। ऐसा न होता तो तुम भी मान लेते कि तुम्हारी पार्टी के खाने के दाँत और थे, दिखाने के दाँत और ।“
“तुम डिस्टार्ट कर रहे हो।“
“इसीलिए तो कह रहा हूँ कि जिस किताब को तुम भी पढ़ चुके हो, उसकी ही एक इबारत को देखो तो सहीः
I understood little of it myself moving naturally and effortlessly, almost sleepwalking, towards the communists, who were as much part of the social elite of Bombay at the time as anyone else. P. 6.
“आरएसएस मोटे तौर पर बाहर भीतर एक समान थी और इसलिए अधिक अरक्षित।“
“अरक्षित। तुम यह क्यों भूल जाते हो कि ब्रितानी शासन में उस पर कभी कोई रोक-टोक नहीं लगी जब कि हमारे संगठन को भूमिगत रहना पड़ता था।“
“वह इसलिए कि वे शान्तिप्रेमी थे, तुम उपद्रवी। उनकी जड़ें भारत में थीं, तुम्हारी बाहर। वे अपनी समझ से काम कर रहे थे। तुम दूसरों के सिखाने पर। सच तो यह है कि कम्युनिस्ट पार्टी के पीछे भी ब्रितानी बुद्धि ही काम कर रही थी। वहाँ जो भी पढ़ने जाता वह मुसलमान हुआ तो कट्टर लीगी बन कर आता था और हिन्दू हुआ तो कच्चा पक्का कम्युनिस्ट।
“हाँ, तो समानता की बात तो रही गई। दोनों को बहुत अनुशासित दल माना जाता रहा है जिसका अर्थ है दोनों से जुड़ने वाले सोचना बन्द कर देते हैं और फैसला मानने की आदत डाल लेते हैं। उनकी स्वतन्त्रता उसी सीमा तक रहती है जिस सीमा तक सिखाए को भूल जाने के कारण उसे दुहराते समय अपनी इबारतें गढ़ने को लाचार होते हैं।
“परन्तु दोनों में जो सबसे बड़ा अन्तर है वह यह कि वे खंडित मानवता की बात करते हैं और तुम महामानवता के सपने दिखाते हो इसलिए हमारे सर्वोत्तम प्रतिभा सम्पन्न तरुण तुम्हारी ओर आकर्षित होते रहे हैं, जब कि उनके साथ मोटी समझ के लोगों का समूह था। वे गूंगे थे तुम वाचाल।
“परन्तु देश का जितना अहित तुमने किया है उसका शतांश भी उन्होंने नहीं किया होगा।

Post – 2015-11-09

कहीं नहीं हैं कहीं भी नहीं लहू के निशान

भई मैं तो यह देख कर दंग रह जाता हूँ कि मोदी को बचाने के लिए तुम सारा इल्जाम अपने माथे पर ले लेते हो, ऐसी वफादारी तो गुलामों में ही देखी जाती है।
मैं हँसने लगा,”मैंने कहा था न कितनी भी कोशिश करूँ, कोई नतीजा नहीं निकलना। यहाँ तक कि गालियों की भाषा में बात करने की आदत भी नहीं छुड़ा सकता।
यह बताओ, दंगे भड़काएँगे राजनीति करने वाले, भड़काने वाली भाषा में बात करेंगे राजनीति करने वाले और समाज में बढ़ती असहिष्णुता की जिम्मेदारी होगी साहित्यकारों और चिन्तकों की। इससे बेतुकी बात क्या हो सकती है?
दंगे भड़काने वाले शिक्षित हैं या अशिक्षित/”
“कहने को तो हैं शिक्षित ही।”
“कहने भर को शिक्षित रंगरूट निकालने वाली शिक्षा प्रणाली ने अपना काम सही किया?”
वह थोड़ा चकराया।
“यह उसी छात्र राजनीति का नतीजा है जिसमे छात्र अपना काम, अर्थात अध्ययन छोड़ कर राजनीति करते हैं। तुम कहते हो संसदीय प्रणाली के प्रशिक्षण के लिए छात्र राजनीति जरूरी है, और उस राजनीति के कारण वे बाहर निकल कर न संसद में संसदीय भाषा का प्रयोग करते हैं न बाहर शिष्ट व्यवहार। तुम स्वयं राजनीति करते हो और अपने छात्रों के भविष्य को विकृत करते हुए अपना काडर तैयार करते हो। इसमें पहली कमी बौद्धिक वर्ग के कारण आई है, शिक्षा प्रणाली को आन्दोलन-प्रणाली में बदलने से आई है या नहीं। उसी का उपयोग राजनीतिक करते हैं जो सदा से सत्ता के लिए हिंसा, झूठ, फरेब, चुगलखोरी का सहारा लेते हैं। हम अपने काम की जिम्मेदारी लें और अपनी जमीन पर खड़े हो कर अपनी लड़ाई लड़ें तो इस विकृति से बचा जा सकता है या नहीं? देखो, हमारा मोर्चा अधिक निर्णायक है, राजनीतिक भविष्य का निर्णय भी वही करता है।”
“ये जो अमुक स्वामी और अमुक साध्वी जहरीली बातें करती हैं वह हमने सिखाई हैं?”
“वे राजनीतिक भी नहीं हैं, समाज के सबसे गैर ज़िम्मेदार लोग हैं यह मैं दो दशक पहले बता चुका हूँ और इसके लिए भाजपा को चेतावनी भी दे चुका हूँ. वे न जीना जानते हैं, न अपना घर सम्भालना जानते हैं, न बोलना जानते हैं न सीधी राह चलना जानते हैं. मोदी ने उन्हें सिरे से किनारे दरकिनार किया है इसलिए बौखलाए ऊटपटांग बकते हैं. उन्हें दरकिनार किया जा सकता हैं पर तुम्हें?
“जहर तो तुमने उससे अधिक बोए हैं, पर इसका तुम्हें पता ही नहीं। उनके विषय में मैंने कुछ पंक्तियाँ तुम्हें पढ़ने को दी थीं। तुमने पढ़ा भी था पर भूल गए। आक्टोपस वाली उपमा तुम्हें याद है, न हो तो 17 अक्तूबर को उसे फेसबुक पर भी डाल दिया था। पृ.212 के अन्तिम पैराग्राफ को फिर से पढ़ो तो समझ में आ जाएगा कि बौद्धिक राजनीतिक से बहुत आगे तक देखता है। राजनीतिक उसके पीछे चले तो उसे लाभ होगा और साहित्यकार का गौरव भी बढ़ेगा। यही बात प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन में प्रेमचन्द ने अपने भाषण में कही थी, परन्तु तुम्हारी समझ उल्टी थी। वह लेखक को राजनीतिक के पीछे हाँकता रहा। परिणाम, साहित्य न समाज के काम का रहा, न चेतना के विकास में सहायक हो सका, न ही राजनीति को मदद पहुँचा सका, जो इसके वश का भी नहीं था। उल्टे प्रगतिषीलता की ऐसी विकृत समझ को बढ़ावा देता रहा जिससे जनभावना को ठेस पहुँचती रही। हम कभी इस दुर्भाग्यपूर्ण मोड़ पर चर्चा करेंगे जब कम्युनिस्ट पार्टी मुस्लिम लीग का मुखौटा बन गई और इसकी गतिविधियाँ मुस्लिम लीग की योजनाओं के अनुसार चलती रहीं और उसे इसका पता ही न चला। वास्तव में कम्युनिस्ट पार्टी का अन्त तो उसी समय हो गया था जब उसने मुस्लिम लीग से हाथ मिलाया और यह हाथ लगातार पर्दे के पीछे मिला ही रहा।“
“तुम कहाँ से इतनी वाहियात बातें ढूँढ़ लाते हो भाई।“
“मेरी जानकारी बहुत कम है, परन्तु इस बात को तो लगभग सभी कम्युनिस्ट जानते हैं कि उन्होंने धर्म के आधार पर राष्ट्रीयता की अवधारणा का समर्थन किया था और विभाजन के सवाल पर जनमतसंग्रह के समर्थक थे। यदि तुम्हें नहीं पता तो मैं एक कम्युनिस्ट कार्ड होल्डर राज थापर की कष्टकथा की कुछ पंक्तियों की ओर ध्यान दिला सकता हूँ:
Sleeping, walking, dreaming, I was tormented by the precipitous edge that Jinnah had brought to the country to. And when Mohan, communist and dedicated, produced a string of defences for the term, day in and day out, I found myself wanting to throw things at him and everyone else for not being able to see that self determination could not be based on religion; culture and religion were not synonymous terms….
… And of all people, Mohan, who then I though had devoured all the basic writings of Marxism, how could he hold, support and supply Jinnah with intellectual arguments he so urgently needed?
Raj Thapar: All These Years: A Memoir, Penguin Books, 1991, p. 8
“प्यारे भाई यह भूल तो तुम्हारी पार्टी मान भी चुकी है पर भूलें मान कर भूलें करते जाना जुम्हारी अदा में शामिल है।“
“मुहावरा है नाम में क्या रखा है। पर नाम में बहुत कुछ रखा है। सारे गोरखधन्धे अच्छे और पवित्र नामों की आड़ में ही किए जाते हैं। नाम है कम्युनिस्ट पार्टी, कार्यभार है मुस्लिम लीग का। मुस्लिम लीग तभी तक जिन्दा रह सकती है जब तब उसकी प्रतिरोधी कोई हिन्दू पार्टी हो। इसलिए हिन्दू साम्प्रदायिकता को साम्प्रदायिकता विरोध के नाम पर उत्तेजित करते रहना तुम्हारी जरूरत है और सांप्रदायिक तनाव और असहिष्णुता को बढाने में तुम्हारी भूमिका सबसे अधिक है। धर्मनिरपेक्षता मुस्लिम साम्प्रदायिकता का दूसरा नाम है जैसे खुराफातियों के कई उपनाम होते हैं उसी तरह। वर्ना आरएसएस तो कभी का किनारे लग गया होता। उसे नया जीवन तुम्हारी असहिष्णुता ने दिया है। उत्तेजना भड़काने का जितना सुनियोजित और सिलसिलेवार काम तुमने किया है वैसा तो किसी ने किया ही नहीं।
11/8/2015 10:41:09 PM

Post – 2015-11-08

लेखक का दायित्व

“मैं कल उस व्यक्ति की या कहो उन व्यक्तियों को लेकर कयास भिड़ाता रहा जिनका नाम लिए बिना तुमने इशारे किए थे। तुम्हारी कथा का खलनायक अमुक तो नहीं?” उसने उसका नाम लेते हुए पूछा।
मैंने हँसते हुए जवाद दिया, नाम में क्या रखा है। मेरा लक्ष्य उसको आहत करना नहीं अपितु उन पहलुओं को रखना था, जिनसे घृणा की मनोव्याधि को समझा जा सके। परन्तु जिसे तुम खलनायक कह रहे हो, वह खलनायक नहीं एक मनोरोगी है। रोगी से सहानुभूति जताई जा सकती है उसकी व्यथा को बढ़ाया नहीं जा सकता। अपने को अपनी हैसियत से बड़ा दिखाने और बनने की आतुरता के कारण उसके व्यवहार में एक विकृति आ गई और इसके कारण उसका कई लोगों से झगड़ा हुआ, लोगों ने काफी हाउस की उस साप्ताहिक मिलन गोष्ठी से किनारा कसना शुरू कर दिया और अन्ततः आना बन्द कर दिया और फिर तो उसे भी आना बन्द करना ही था। बड़ा लेखक बनने और अपना सारा समय लेखन में लगाने के लिए उसने एक अच्छे खासे पद से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ली थी और हस्र यह कि इस कुंठा में उसने आगे लिखना भी छोड़ दिया। यदि उस शनिवारी गोष्ठी को एक संस्था मानो तो एक व्यक्ति की अनपेक्षित महत्वाकांक्षा ने उस संस्था को नष्ट कर दिया। साथ ही उस पारिवारिकता को भी क्षति पहुँचाई जो लेखकों के बीच बनी हुई थी। इसलिए जब मैं कह रहा था कि अपनी यशलिप्सा की भूख में ये उस संस्था को ही नष्ट करने पर उतारू हैं तो मेरी नजर में वह गोष्ठी भी थी। मुझे लगता था कि वे ऐसा बिना सोचे समझे कर रहे हैं, पर कुछ विलम्ब से समझ में आया कि उनके पीछे दूसरी शक्तियाँ हैं और ये उनके इशारे पर काम कर रहे हैं तो क्षोभ भी हुआ। इनमें कोई ऐसा नहीं है जो सोच समझ कर देश में अराजकता फैलाना चाहे । चाह ही नहीं सकते, परन्तु जो कर रहे हैं वह सफल हो तो अराजकता ही फैलेगी। इसका भी बोध नहीं है। बौद्धिक स्तर यह है कि अपनी करनी के परिणामों तक का पता नहीं और लालसा यह कि सभी उनके बताए मार्ग पर चलें । इसकी विफलता से इनको जितनी ग्लानि होगी उसकी भी वे कल्पना नहीं कर सकते। यह होगी मोदी की उपेक्षा और चुप्पी के कारण और लम्बी कवायद के बाद इनकी थकान के कारण। इसीलिए ये मोदी की चुप्पी से डरते हैं, उसी को बार बार तोड़ने की चुनौती देते हैं।“
“देखो चुप्पी-उप्पी की बात न करो। कह तो वे भी सकते हैं कि हमारे सवालों का जवाब मोदी के पास नहीं है इसलिए उनकी बोलती बन्द है।“
“वे हौवा खड़ा कर सकते हैं, परन्तु कह नहीं सकते। अभी दो दिन पहले ही तो तुमने माना था कि उन्होंने कहा कुछ नहीं, आन्दोलन खड़ा कर दिया, आन्दोलन को उचित ठहराने के लिए जो मांगें रखीं वे भी पूरी हो गईं तो आन्दोलन का विस्तार कर दिया, परन्तु नई माँग क्या है यह बताया नहीं । क्या तुम नहीं मानते कि शोर मचा कर भी कुछ कहा नहीं जा सकता है, चुप रह कर भी बहुत कुछ कहा जा सकता है।
“तुम हाहाकार मचाते हो तो सौ डेढ़ सौ की ही भीड़ जुटा पाते हो, डंका बजाते हो कि अब हमारी संख्या इतनी हो गई। यह तक नहीं सोचते कि सवा अरब की जनसंख्या वाले देश में, इतनी प्रचंड समस्या पर, कितने कम लोग तुम्हारे साथ हैं। आम लोग साथ होते तो यह संख्या इतनी नगण्य न होती। तुम सैकड़ों से सन्तुष्ट हो, जब कि इसे कई करोड़ तक जाना चाहिए था। कांग्रेस को जिस बेरहमी से जनता ने नकारा था, क्या उसने तुम्हें उससे भी अधिक निष्ठुरता से हाशिए पर डाल दिया, क्योंकि तुम कभी उसके हुए ही नहीं। उसके लिए कुछ लिखा ही नहीं। तुम अपने लिए (आत्माभिव्यक्ति के नाम पर), गैरजिम्मेदारी से (लेखकीय स्वतन्त्रता के नाम पर) लिखते रहे और अपने मुखौटों की परिधि तक सिमटे रह गए। कुछ हजार या लाख के बीच। करोड़ तक भी नहीं पहुंच पाए। लिखा समाज को यह बताते हुए कि यह आपका, आपके लिए, आपके हिरावल दस्ते द्वारा लिखा साहित्य है और लिखते रहे अन्तर्राष्ट्रीय बाजार की अपेक्षाओं को ध्यान में रख कर विष्वविख्यात होने की ललक में अपनी ही साहित्य परंपरा, समाज और मूल्य दृष्टि से मुँह फेर कर। तुम्हें तो यह भी पता नहीं कि हमारा समाज क्या है, तुम्हारा अपना काम क्या है।“
“यदि पता नही, तो तुम्हीं बतादो।“
“लेखक का काम लिखना है। उसका हथियार कलम है, भाषा है। उसे जो करना है अपने हथियार से करना है। उसका काम है अपने कार्यक्षेत्र की सीमारेखा को पहचानना। लेखक का काम है चालू राजनीति से अगल रहना। अपनी स्वायत्तता और सम्मान की रक्षा करना। परन्तु सबसे जरूरी काम है अपने समाज को समझना और उसका विश्वास अर्जित करना।“
“लेखक राजनीति से दूर रहे, राजनीतिक समस्याओं से दूर रहे, छात्र राजनीति से दूर रहे, वह धर्मग्रन्थ पढ़े, यह कहना चाहते हो। पता है इसके बाद लेखक क्या बन जाएगा?”
“क्या बन जाएगा?”
अजागलस्तन, बकरी के गले की चूँची। और तुम राजनीति से दूर रहने की बात कैसे कर सकते हो। हर तीसरे वाक्य पर तो तुम्हें मोदी दिखाई देने लगता है?“
तुम्हारे दिमाग में भूसा भरा है इसलिए कोई बात समझ ही नहीं पाते। राजनीतिक औजार और राजनीतिक समझ में अन्तर होता है। राजनीति पढ़ना, उसकी व्याख्या करना, अपने विवेचन में किसी को सही या गलत ठहराना, राजनीति नहीं बौद्धिक दायित्व है। और मोदी मेरे लिए एक पृष्ठभूमि है जिसमें ही आज की समस्याओं पर अपने समाज से अपने विचार बाँट सकता हूँ। यह नाम तो आगे भी आता रहेगा। हां वह जो धर्मशास्त्र पढने पढाने की बात कर रहे थे, उससे भी डरने की जरूरत नहीं। हमारे जैसे देश में तो धर्मशास्त्र एक विषय भी हो सकता है जिसमें सभी धर्मों-ग्रन्थों से परिचित कराया जा सके। धर्मग्रन्थ पढ़ने से धार्मिकता बढ़े यह जरूरी नहीं पर कट्टरता अवश्य कम हो सकती है। कट्टर लोग अपना धर्मग्रन्थ तक नहीं जानते, अपने साहित्य तक से परिचित नहीं होते। मैं यह काम किसी जुलूस में शामिल हो कर नहीं कर रहा हूँ, कलम से ही कर रहा हूँ।
“जैसे मैं अकेला मार्क्सवादी हूँ और दूसरों को भाववादी या अवसरवादी कम्युनिस्ट मानता हूँ, उसी तरह मैं अकेला ऐसा लेखक हूँ जो अपने समाज को समझना, उस तक पहुँचना चाहता है और पहुँचने के रास्ते निकालने के प्रयत्न में है, दूसरे सभी समाज से कटे और पश्चिमी समाज को अपने समाज पर आरोपित करके उसकी झिल्ली से समाज को देखना और समझना चाहते हैं इसलिए जो अपने को यथार्थवादी लेखक मानते हैं उन्हें भी भाववादी कलाबाज मानता हूँ।“
“मैं समझा नहीं अपने समाज को समझने से तुम्हारा मतलब क्या है?”
अपने समाज को समझने का पहला कदम है यह समझना कि समाज के अशिक्षित लोगों के पास भी अपना दिमाग होता है और वे उसी के काम लेते हैं। उनको बेवकूफ समझना और अपने को इतना चालाक समझना कि यहाँ-वहाँ की तमाम बातों का घालमेल करके उनके दिमाग में उतारा जा सकता है, परले दर्जे की मूर्खता है। समाज मिलावट से परहेज करता है।“
“चलो, और दूसरा?”
दूसरा यह कि हमारा समाज अपने देश में रहता है जिसकी अपनी कलादृष्टि, अपनी कला परंपरा, अपना इतिहास, अपना पुराण रहा है और वह जैसे अपनी जमीन से जुड़ा होता है वैसे ही इनसे भी जुड़ा होता है। इनको समझे बिना उसकी मनोरचना तक को नहीं समझा जा सकता जिस तक अपनी बात पहुँचानी है।“
“और कुछ?”
“बौद्धिक का काम है अपनी भूमिका को पहचानना।“
“भूमिका मतलब?”
“बौद्धिक की दो भूमिकाएँ हैं। एक रम्य और बोधगम्य शैली में समाजशिक्षा जिसे कान्तासम्मित उपदेश कहा गया है और दूसरा जो भी उसी से जुड़ा है, चिकित्सक की भूमिका। इन दोनों के माध्यम से ही वह लोकमंगल कर सकता है।“
“यदि समाज में असहिष्णुता का विस्तार हुआ है, तो इसका अर्थ यह नहीं है कि सरकार ने अपना काम नहीं किया। इसका अर्थ है, साहित्यकारों और कलाकारों ने लम्बे समय से अपना काम किया ही नहीं। यह जो तुम शोर मचाते हो कि अमुक की हत्या हो गई अमुक को धमकी दी गई अमुक के आयोजन में विघ्न डाला गया, उसके लिए तुम जिम्मेदार हो। सरकार नहीं। तुम खुद अपने निकम्मेपन को सरकारों पर डाल रहे हो और वह भी उस सरकार पर जो वहाँ है ही नहीं । ये जितनी हत्याये हुई हैं उनके लिए हम सभी जिम्मेदार हैं क्योंकि हम यह तक नहीं जानते कि अपने समाज से बात किस भाषा में और किस शैली में किन मर्यादाओं में रह कर की जाती है जिससे उसका ज्ञान बढ़े, वह सीखे, उत्तेजित न हो। उत्तेजना तुम फैलाओ और असहिष्णुता के विस्तार की जिम्मेदारी सरकार पर डाल दो यह ठीक नहीं। सरकार का काम अघटनीय के घटित हो जाने के बाद आता है और यदि वह उसमें शिथिल दीखे तभी उसको उसके लिए जिम्मेदार माना जा सकता है।
11/8/2015 11:51:39 AM

Post – 2015-11-07

घृणा की जड़ें

“तुम्हे जिस व्यक्ति में गुण ही गुण दिखाई देते हैं, उससे बहुत सारे लोग घृणा करते हैं, यह तो तुम भी मानते हो. फिर कुछ तो ऐसी बुराइयां होगी जिनके कारण घृणा करते हैं, तुम उसकी तारीफ करते हुए उन दुर्गुणो को क्यो भूल जाते हो। उनको सामने रख कर मूल्यांकन होना चाहिए न?”
“मूल्यांकन के लिए गुण-दोष विचार तो जरूरी है ही, परन्तु यह समझ भी जरूरी है कि गुण-दोष होता क्या है।“
“मतलब?”
“मतलब गुण-दोष सभी कालों और सभी समाजों में एक ही नहीं होते, ये समाज-सापेक्ष्य होते हैं. यही स्थिति सभी सामाजिक आदर्शों और मूल्यों की है. अब यदि हम इन सबकी समीक्षा में जाएं तो विषयान्तर होगा, परन्तु यह समझो कि कुछ सभ्यताओं में रक्त की शुद्धता का इतना प्रबल आग्रह था कि रक्तदोष से बचने के लिए वे सगी बहन से विवाह को उचित मानते थे। जैसे मिस्र के राजा लोग। फिर उसके कुछ दोष प्रतिरोध क्षमता में ह्रास आदि के रूप में प्रकट हुए तो इसमें कुछ सुधार कर के दूधबराव करते हुए अपनी बहनों से विवाह को अधिक अच्छा माना जाता रहा। मुस्लिम समाज ने इसे अपनाया परन्तु इसका धर्म से कोई संबन्ध नहीं है। श्रीलंका में और दक्षिण भारत में भी यह प्रचलित था. इसके प्रभाव से दक्षिण गए ब्राह्मणों ने समायोजन करते हुए अन्य प्राचीन विधान रखते हुए इतनी रियायत की कि ममेरी बहन से विवाह को श्रेयस्कर मानने लगे. दक्षिणभारतीय शास्त्रकारों के विधान में इसे स्वीकृति मिली तो अब विरल मामलों में उत्तर भारत में भी प्रचलित हुआ। ये सभी चाहें तो दूसरों में प्रचलित पद्धति को निन्दनीय मान सकते हैं. कबीर की वह उक्ति तो तुम्हें याद होगी ‘मुसलमान के पीर औलिया मुर्गा मुर्गी खाई, खाला केरी बेटी ब्याहैं घरहि में करें सगाई’. तो यहां निजी खान पान और विवाह की रीति को ही निन्दनीय ठकराया गया है. सामाजिक तालमेल में कमी हो तो इसी को सामाजिक घृणा में बदला जा सकता और उस समाज को गर्हित सिद्ध किया जा सकता है, जिसकी सामाजिक रीतियां तुम्हारी अपनी रीतियों से भिन्न पड़ती हों।
“तो पहली बात तो यह कि घृणा के लिए किसी व्यक्ति या समाज में किसी दोष का होना जरूरी नहीं, यहाँ तक कि उसके किसी गुण या श्रेष्ठता से चिढ़ घृणा का रूप ले सकती है और इसको बढ़ने दिया जाय तो यह हत्या और रक्तपात का रूप ले सकता है।“
“क्या बकते हो!”
“ऐसे किस्से तो तुमने सुने ही होंगे जिसमें एक छात्र अपने ही दोस्त की जान इसलिए ले बैठा क्योंकि वह अधिक मेधावी था या उसके रहते वह औवल नहीं आ सकता था।

मैं अपना व्यक्तिगत अनुभव सुनाता हूं । मेरा एक मित्र है जिसने दो तीन अच्छे उपन्यास लिखे हैं। वह मुझसे घृणा करता है मेरा जिक्र आए तो चुगली शुरू कर देगा. मैं ऐसा नहीं कर सकता क्योंकि धृणा मेरी समझ से हमारी आत्मिक सड़ाध से पैदा होती है। यह एक तरह का घाव है जो हमारे भीतर रिस रहा है और इसका मवाद जुगुप्सा और भाव या निन्दागान के रूप में बह कर बाहर निकल रहा है यह हमें ही गर्हित बना देता है परन्तु मवाद के बाहर निकलने के बाद जैसे थोड़ी राहत मिलती है उसी तरह की राहत निन्दकों को मिलती है मुझे उनपर क्रोध नहीं तरस आता है परन्तु मेरे प्रयत्न से वह घाव भरेगा नहीं और विषाक्त होगा।“
“तुम कोई दृष्टान्त देने जा रहे थे और लगे सिद्धान्त बघारने.”
“इस कहानी में कई पात्र हैं और उनकी बड़ी रोचक प्रतिक्रियाएं हैं. विष्णु प्रभाकर जी दिल्ली की हिन्दी अकादमी और साहित्य अकादमी दोनों में निर्णायक पोजीशन में थे। मैं आज तक उन पदों का नाम नहीं जानता कि उसे क्या कहा जाता है. दो मित्र साहित्य अकादमी पुरस्कार के लिए प्रयत्नशील, वे प्रयत्नपूर्वक प्रभाकर जी के आजू बाजू बैठते. एक संयत और शालीन परन्तु दूसरा मुखर ही नहीं अतिमुखर। विष्णु जी को आलोचकों में नामवर जी और कहानीकारों में राजेन्द्र यादबव से गहरी शिकायत थी कि इनके कारण उनको वह स्वीकृति नहीं मिली जिसके वह अधिकारी थे। यह एक पीड़ा थी जो जब तब आह की तरह उभर आती थी.
अतिमुखर प्रतिसपर्धी इन दोनों का किसी न किसी बहाने प्रसंग लाकर उनका नाम लेकर गालियाँ दिया करता था। विष्णु जी उससे अति प्रसन्न। मैं शनीचरी विजिटर था। जिस साल उसका प्रयत्न जोरों पर था उस साल दुर्भाग्य से हड़प्पा सम्यता और वैदिक साहित्य की चर्चा थी। अपनी अतृप्त यशलिप्सा के अतिरिक्त विष्णु जी में अनेक दुर्लभ गुण थे और मैं आवारा मसीहा के लेखक के रूप में उनका बहुत आदर करता था परन्तु उनके साहित्य अकादमियों से जुड़े होने के कारण मैं उन्हें अपनी पुस्तक उपहार स्वरूप भी नहीं देता था और उसी मेज पर बैठे हुए भी निर्णायक दूरी बनाए रखता था। रहबर जी से पता चला कि मेरी पुस्तक पुरस्कृत होने वाली थी और उसे विष्णु जी ने वीटो का प्रयोग करके रोक दिया और इसे दूसरे नम्बर की पुस्तक को दिया गया। सूचना मेरे लिए आश्चर्यजनक थी क्योंकि मुझे यह विश्वास ही न था कि वह कहीं प्रतिस्पर्धा तक में है। रहबर जी ने यह बात विष्णु जी से किसी कुढ़न के कारण तो नहीं कही इसलिए मैंने एक मित्र के साथ एकान्त में विष्णु जी से पूछा तो उन्होंने बताया कि बात सही है। मैंने मजा लेते हुए कहा, पहले मध्येशिया के इतिहास पर राहुल जी को और संस्कृति के चार अध्याय पर दिनकर जी को तो मिला था। उन्होंने कहा, मेरे रहते ऐसा नहीं होगा। मेरे संबन्ध न पहले निकटता के थे न इसके बाद दूरी के हुए, क्योंकि पुरस्कार को मैं महत्व देता ही नहीं। आगया तो ले भी लिया। उसके लिए किसी तरह का प्रयत्न या उसके न मिलने पर खिन्नता मुझे अपमानजनक अवश्य लगती रही।
हम सभी एक ही झुंड में बैठते थे चाहे मेजें दो तीन सटानी पड़ें। जिस व्यक्ति की बात कर रहा हूं वह पहले मेरे साथ बड़ी शिष्टता और शालीनता से पेश आता था। इसके बाद उस व्यक्ति के व्यवहार में एकाएक नाटकीय परिवर्तन हुआ. वह मुझे आते देख कर उपहास भरे स्वर में साथ बैठे मित्रों को मेरी ओर इंगित करता हँस कर कहता लो हड़प्पा से सीधे चले आ रहे हैं। उसकी ओर से उपहास का यह वाक्य मुझे विनोद वाक्य प्रतीत होता और मैं हँसता हुआ पास पहुँच कर सबसे हाथ मिलाता और बैठ जाता। कई बार के प्रयत्न के बाद जब उसे लगा कि मुझ पर उसकी कटूक्ति का कोई असर ही नहीं हो रहा है,
एक दिन अकारण, मेरी ओर मुड़ कर कुछ गरूर के साथ बोला, मेरी किताबें आप के सारे लेखन से भारी ही पड़ेगी। यह स्वर भी मुझे बुरा लगा और बिना किस प्रसंग के यह तुलना भी। मैंने हँसते हुए ही उत्तर दिया, देखो इसमें तो सन्देह ही नहीं तुम्हारा लेखन भारी पड़ेगा, नीचे दब जायेगा, पलड़ा तो हमारा ही उूपर रहेगा न। इस बात का मलाल रहा कि क्या इस पर केवल हँस कर नहीं रहा जा सकता था।
कुछ कहना मुझे छोटापन लगा।
इस समस्या के एक और आसंग की ओर तुम्हारा ध्यान दिला दूँ। एक दूसरे मित्र साथ बैठे काफी पी रहे थे. वह विष्णु जी को गालियाँ देने लगे। मैंने मना किया तो भंड़ककर और गालियाँ । कारण व्यक्तिगत न था, वह किसी विभाग में हिन्दी निदेशक के पद पर थे और एक दो बार विष्णु जी शिकायत कर चुके थे कि अरे भाई हमें तो आपके यहां कभी बुलाया ही नहीं जाता। वह सलाहकार समितियों में उपस्थिति चाहते थे . परन्तु यहां वह कारण भी न था। पुरस्कार की प्रतिस्पर्धा में कभी रहे नहीं। विष्णु जी अपनी प्रशंसा में पिछली घटनाएँ सुनाते रहते थे, यह बात बुरी लगती थी। इसका विरोध आमने सामने रह कर वह नही कर पाते थे इसलिए उनकी खिन्नता उग्र रूप लेकर बाहर निकल रही थी और गालियों का रूप ले ले रही थी।
उनकी गालियों का दौर पूरा हो गया तो मैंने कहा, हम सभी लिखते पढ़ते हैं। बिरादरी कहो या परिवार यही तो है अपना। मान लो इस परिवार के बूढ़े को अपनी कामना के अनुसार महत्व न मिलने की टीस बनी रह गई हो और वह ऐसी चीजों में रस लेने लगा हो, मान लो वह हमारा पिता या दादा हो, तो क्या हम उसे गालियाँ देंगे? इस पहलू की ओर ध्यान जाने पर वही आवेग ग्लानि में बदल गया। अब जो उनका नया व्यवहार प्रभाकर जी के साथ आरंभ हुआ तो विष्णुप्रभाकर उनके इतने मुरीद कि उन्होंने अपने खर्चे से एक आयोजन करके उनका जन्मदिन मनाया। स्वयं विष्णाु जी ने एक सात्विक जीवन जिया था और अपने को उच्च आदर्शों के अनुसार ढालते हुए आन के साथ जिन्दगी बिताई थी इसे तो कोई इन्कार कर ही नहीं सकता।
“तुम मुझे बोर क्यों कर रहे थे।“
“इसके बिना तुम्हारे सवाल का जवाब पूरा हो नहीं सकता था। देखो तो ये सभी बहुत अच्छे लोग हैं। परफेक्ट नहीं हैं, न कोई होता है। लेखक भी अच्छे आदमी भी अच्छे. उस मुंहजोर को भी बुरा कोई न कहेगा यद्यपि उसकी इस लत के कारण कई लोगों से उसके झगड़े हुए, एक बार पिटा भी और इस विफलता के बाद उसने रचनात्मक लेखन सदा के लिए छोड़ दिया। इस परिदृश्य में आकांक्षा, प्रयत्न, विफलता, ईष्या, अहंकार, हृदय परिवर्तन के सारे नमूने मिल जायेंगे और घृणा के दुष्परिणाम भी घृणा करने वाले को ही भोगने पड़ते हैं, इसका नमूना भी।
जरूरी नहीं कि जिससे घृणा किया जाता हो, दोष उसमें ही हो। वह निर्दोष ही होता है, यह भी नहीं।
11/7/2015 5:39:44 PM

Post – 2015-11-06

“आखिर तुम चाहते क्या हो?
“तुम सच जानना चाहते हो कि मैं क्या चाहता हूँ?”
“इसीलिये तो पूछ रहा हूँ वर्ना पूछता क्यों?”
“बता दूँ और तुम इस बात के क़ायल भी हो जाओ तो उसका पालन कर पाओगे?”
“पहले जवाब तो दो.”
“खैर मैं चाहता हूँ हम लोग अपना काम करें. दूसरों को अपना काम करने दें. इसे तुम इस तरह भी समझ सकते हो कि दूसरे अपना काम हमसे अच्छी तरह जानते हैं. उनका काम हम अपने हाथ में ले लें तो उनके काम में बाधा डालेंगे. हमारे पास न वह दक्षता है न साधन जो उन कामों के लिए ज़रूरी है. इसलिए हम उस काम को भोंडे ढंग से करेंगे. इससे देश और समाज को और अंततः हमें भी, क्षति पहुंचेगी.”
“तुम फिर गोलमटोल बातें करने लगे.”
“देखो हमारे देश शासन जिस तरह से चलता आया है उसमें जो सबसे बड़ी और गोचर गिरावट है वह यह कि लोग अपना काम नहीं करते. दूसरों का काम करने को झट तैयार हो जाते हैं, इससे उनके के अधिकारक्षेत्र का विस्तार होता है. इसका प्रधान कारण यह हो सकता है कि शासन अपना काम नहीं कर रहा था, पूरे देश पर कब्जा जमाने पर लगा हुआ था. संस्थाएं अपना काम नहीं कर रही थीं. जिनको काम कराना होता था वे उनसे काम करवाते थे. इस स्थिति को बदलना एक चुनौती है और यह एक दिन में पूरा नहीं होगा. आज भी स्थिति में बहुत कम सुधार हुआ है. निकम्मापन और भ्रष्टाचार का समानांतर विस्तार हुआ. राज्य के अंग भी अनंग होने की प्रक्रिया में आगये. उच्च संस्थाएं भी इस व्याधि से बची नहीं. न्यायपालिका का कार्यपालिका में हस्तक्षेप, विधायिका का कार्यपालिका में दखल कार्यपालिका का न्यायपालिका को अपने दबाव में रखने की कोशिश, मीडिया का सत्ता को दबाव में रखने की कोशिश, राजनेताओं का नाटक करना, अभिनेताओं का राजनेता बनने की कोशश, किसी से छिपी नहीं है. ऐसे में कार्यपालिका का चरमरा जाना और शांति व्यवस्था का उससे प्रभावित होना टाला ही नहीं जा सकता. इस बिगड़ी हालत के लिए जो मुख्य रूप से जिम्मेदार है उसका नाम लेना ज़रूरी नहीं, परन्तु उनके साथ खड़े हो कर उस व्यक्ति के खिलाफ लड़ना जिसने पहली बार लक्ष्य किया की समस्या सुशासन की है, आधुनिकीकरण की है, उस राष्ट्रिय पूंजी के अपने देश में निवेश की है जो विदेशों में लग रही है, वहां रोज़गार दे रही है, अपने देश के श्रमिकों की कार्यदक्षता बढ़ाने और उसे उन्नत औज़ारों से लैस करने की है, उस देश में आत्मविश्वास पैदा करने की हैं जिसका मनोबल और आत्मविश्वास इतना गिर चुका है की वह सोचता है कि उसके किये कुछ संभव ही नही, उन सामानों का उत्पादन देश में करने का वातावरण तैयार करने की है जिनकी खरीद में बड़े पैमाने पर कमीशन चलता और गंगोत्री से ही प्रशासन की गंगा प्रदूषित होकर भ्रष्टाचार के लिए नैतिक औचित्य देते हुए पूरे राष्ट्र की प्रतिरोध क्षमता को नष्ट कर चुकी है. विचित्र लगता है की वह व्यक्ति जो असाधारण दृढ़ता से अपने प्रत्येक वादे को पूरा करने के दुर्धर्ष संघर्ष में जुटा है उसको चुनौती दी जाती है कि हम तुम्हे काम नही करने देंगे, और फिर पूछा जाता है अब नतीजा तो दिखाओ.
“चाहता हूँ कुछ कहने या करने से पहले हम सोच लिया करें, समझ कर लिया करें कि क्या यह हमारा काम है? क्या यह ज़रूरी है? क्या हम इसे सही तरीके से कर पाएंगे, इसके परिणाम क्या होंगे? क्या इनमे से किसी बात से असहमत हो?
“नहीं यहां तक तो ठीक है.”
“फिर यह बताओ हम हैं कौन?”
“लिखने पढ़नेवाले, सोचने विचारने वाले लोग हैं.”
“हम अपना काम कर रहे हैं या सक्रिय राजनीति कर रहे है.”
“क्या हम अपने अधिकारों की रक्षा के लिए आंदोलन भी नही कर सकते?”
“कर सकते हैं. हम लिखने-पढने के अलावा भी बहुत से काम करते हैं. अधिकारों के लिए आंदोलन तो और भी ज़रूरी है. लेकिन एक छोटी सी कड़ी गायब है।“
“बताओ बताओ मैं भी तो जानूं.”
“मैं राजनीति से वाकिफ नहीं हूं, इसलिए पूछ रहा हूं. यह बताओ, पहले कोई मांग रखी जाती है और उसके पूरा न होने पर आन्दोलन किया जाता है या पहले आन्देलन शुरू कर दिया जाता है और उसके बाद मांग रखी जाती है?”
“हां यहां तो कुछ चूक हुई लगती है.”
“प्रथम ग्रासे मक्षिका पातः. चूक हुई लगती है, हुई नहीं?”
“चलो यही सही. आन्दोलन की मांगें पूरी हो गई, जश्न भी मना लिया कि अकादमी को बाध्य कर दिया. मांग पूरी होने के बाद आन्दोलन समाप्त हो जाता है या जारी रहता है?”
वह सिर खुजलाने लगा. सिर खुजलाने से भी विचार पैदा होते हैं. कुछ देर खुजलाने के बाद पैदा हो गया, “देखो इस आंदोलन में दो मुद्दे हैं. एक तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और दूसरी है साम्प्रदायिक घृणा का प्रसार.”
“दो मत कहो, तीन कहो. क्योंकि इन दोनों का साहित्य अकादेमी से कोई सम्बन्ध नही है. आंदोलन अकादमी के खिलाफ शुरू हुआ था और अकादमी के भूल मानने पर उसकी अपेक्षाएं पूरी हो गईं.”
“हाँ तीन भी कह सकते हैं.”
“तो ये तीन आंदोलन थे जो जुड़ कर एक हो गए. देखो विकास के नियम में कुछ जीव टूट कर अपने विखंडन से एक से बहु हो जाते हैं. बहुतों को जुड़ कर एक बनने का नियम नहीं है. यह ह्रास का नियम हो सकता है जिसमे एक जीव दूसरे या कई पर आ गिरे और चपेट में कई की जान चली जाय, जैसे भगदड़ में या दूसरी दुर्घटनाओं में होता है.”
“वह फिर सिर खुजलाने लगा. इस बार उत्तर निकलने में देर हो रही थी. फिर भी निकल तो आया ही. “तुम कुतर्क कर रहे हो. एक ही आंदोलन में कई मांगे भी हो सकती है. कुछ के पूरा होने से आंशिक विजय प्राप्त होते है और बाकी के लिए आंदोलन जारी रहता है.”
“बात तो यह भी पते की है. यह बताओ किसी चरण पर यह बताया गया कि हमारी ये मांगें हैं और यह किया जाय तो आंदोलन समाप्त हो जाएगा?”
“किया नही गया है पर सरकार उन लोगों पर तो रोक लगा सकती है जो अनाप शनाप बक कर सामाजिक माहौल को बिगाड़ते हैं,”
“क्या यह उनकी अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर हमला नहीं होगा?”
“अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का यह मतलब तो नहीं की कोई अपने भाषण से उत्तेजना फैलाता रहे. यह तो वैसे भी अपराध है.”
तुम ठीक कहते हो. देखो तुमने जवाब मांगा था और मैं उलटे तुमसे सवाल करता चला गया. जवाब तो देना ही होगा.
“देखो, मैं फिर दुहरा दूँ, हमारे सामने यह स्पष्ट होना चाहिए कि हम क्या कर रहे हैं, क्यों कर रहे हैं और इसका परिणाम क्या होगा। हमने अभी जो चर्चा की उससे साफ है कि सब कुछ बिना सोचे समझ बिना किसी योजना के बाजी मारने की जल्दी में, हम पीछे न रहा जांय की हड़बड़ी में शुरू हो गया. इसे आंदोलन नहीं हंगामा कहते हैं. बौद्धिकों को हंगामे बाज़ी शोभा नही देती. इसमें शामिल होने वालों में सबके अलग घाव हैं जो सोचते बिचारते उठ जाते हैं. मैंने बहुत पहले कहा था की बहुत पढ़ा लिखा आदमी वज्रा मूर्ख होता है क्योंकि वह किताबों में समाधान ढूँढता है, अर्थात दूसरों के विचारों से अधिक निर्देशित होता है. सचाई पर उसकी नज़र नही जाती. पर एक सुलझे दिमाग के अनपढ़ को सचाई का सामना करना पड़ता है. पढ़े लिखे आदमी को वह भी मूर्ख समझता है.
लेकिन एक बात इन सभी में पा सकते हो. ये सभी बहुत पहले से मोदी से नफ़रत करते हैं. उसे खतरनाक मानते हैं. घृणा करने वाला किसी को समझ नही सकता और यह समझ नहीं सकता की मोदी में जो दृष्टि, संकल्प, समर्पणभाव और सहिष्णुता है, वह भारत के किसी राजनेता में थी ही नहीं. ये. संख्या गिन रहे हैं. इंतज़ार कर रहे हैं. दबाव डाल रहे हैं और इस मुगालते में हैं की यह दबाव इतना बढ़ जाएगा की शासन कठोर से कठोर कदम उठाने के लिए विवश हो जाएगा और तब यह विस्फोटन जनक्षोभ में परिणत हो जायेगा और ऐसा निर्णायक दौर आरम्भ हो जाएगा कि शासन चरमरा जायेगा. सरकार गिर जाएगी और फिर से वह दौर आरम्भ हो जाएगा जिस में देश का जो भी हो इनकी बन आएगी.
सरकार गिरे या संभली रहे परन्तु ये अपनी ओर से अराजकता कि स्थिति पैदा कर रहे हैं और इसलिए उनका काम कर रहे हैं जिनको हमारे देश में अराजकता फ़ैलने से, शासन चरमराने से फायदा हो सकता है. वे इस देश में भी हो सकते हैं बाहर भी हो सकते है. एक बात तय है कि ये अपना काम नहीं कर रहे हैं और दूसरी यह कि ये अच्छा काम नहीं कर रहे हैं.

बुरे काम का बुरा नतीजा

Post – 2015-11-05

भुलक्कड़पन

“यार, मुझे गलत मत समझो. तुम से बात करता हूँ तो सचमुच क़ायल हो जाता हूँ. पर जब रोज़ ब रोज़ विभिन्न क्षेत्रो के लोगों को एक स्वर में एक ही बात दुहराते देखता हूँ तो तुम्हारे ऊपर ही संदेह होने लगता है.”
“यह तो मनोचिकित्सा से जुड़ी समस्या है. इसका इलाज मेरे पास नहीं है. इसके लिए तुम चाहो तो किसी साईकेट्रिस्ट से सलाह ले सकते हो. लेकिन वह बेचारा भी भुलक्कड़पन, मिर्गी और अल्ज़ीमर के बीच अंतर तो बता सकता है, भुलक्कड़पन के भेद, प्रभेद और लक्षण तो बता सकता है, पर वह भी तुम्हारा इलाज़ नहीं कर सकता. जो मनोरोगी अपनी बीमारी पर ही गर्व करने लगे उसे कोई नहीं बचा सकता.
“तुम मेरी बात के क़ायल नहीं होते. सच यह है कि जब कोई उत्तर नहीं सूझता तो चुप लगा जाते हो. ऐसा न होता तो तुम अपनी मूर्खता को युगसत्य बनाने के लिए रोज़ वही बात किसी न किसी बहाने दुहराते नहीं.
“तुम भूलते नहीं हो तुम उन सवालों से घबरा जाते हो जो मैं उठा चुका हूँ और फिर भी अपने को सही साबित करना चाहते हो और इस उम्मीद में कोई बहाना लेकर आ जाते हो, कि मैं कोई न कोई ऎसी चूक करूँ जिससे तुम सही सिद्ध हो जाओ.
“यदि यही तुम्हारा लक्ष्य है, अपने को सही साबित करना, तो बताओ वह अपराध जिसे मैं करूँ तो तुम जीत जाओ. दोस्तों ने दोस्ती बचाने के किये कितनी क़ुर्बानियाँ दी हैं. यार आधी शताब्दी का साथ है, मैं तुम्हारे लिए कुछ भी कर सकता हूँ. पर जान भी दे दूँ तो तुम बच सकोगे क्या. मैं बहुत मामूली आदमी हूँ. महाकाल के रथ के सामने एक तिनके से भी तुच्छ. काल ने तुम्हे व्यर्थ मान लिया है, चीत्कार करते हुए रसातल को जाना है तुम्हे. जिन संगठनों से जुड़े हो उनसे पूछो कब तक बचे रहेंगे. वे आश्वस्त हों की उनके दिन फिर सकते हैं तो मुझसे बहस करो. तुम्हारे लिए तो मैं ज़िन्दगी तक हार सकता हूँ बहस हारना तो बहुत छोटी बात है.”
“तुम तो बात बात पर भाषण देना शुरू कर देते हो. मैं तो यह देखकर हैरान था कि शाहरुख़ जैसे बड़े कलाकार को भी असुरक्षा अनुभव होने लगी है. जानते हो उसके कितने करोड़ फैन हैं? इस से आंदोलनकारियों की ताक़त कितनी बढ़ी है?”
“तुम फैन का मतलब जानते हो.”
“जानता हूँ. वे जो उस पर जान देते हैं.”
“फैन का मतलब होता है फैनेटिक. पागल. तुम ठीक कहते हो. वे पागलपन में जान दे सकते हैं पर यह नहीं समझ सकते कि कलाकारी और सोच-समझ दोनों एक ही चीज़ नही है.”.
“सवाल कला कि समझ का नही है. असुरक्षा की भावना का है.”
“असुरक्षा की भावना तो है. इतना पैसा जो है. असुरक्षा की भावना तो अम्बानी को भी है. दोनों ने जेडप्लस की सुरक्षा की मांग की थी. शायद कांग्रेस सरकार ने दे भी दी थी.”
“तुम दूसरी तरफ खींच रहे हो. मैं सामाजिक असुरक्षा की बात कर रहा हूँ.”
“समाज की समझ है शाहरुख़ को?”
“कमाल करते हो यार.”
“देखो वह अपनी फिल्मों में जो डायलॉग बोलता है वह किसी और का लिखा होता. तुम्हे पहले यह पता लगाना चाहिए था की यह डायलग किसका लिखा हुआ था.”
वह खीझ में हँसता है तो देखते ही बनता है.
“और सुनो. जहां तक समाज को समझने का सवाल है, वह समाज से इतनी दूर रहता है कि वह अपने उन सुरक्षा कर्मियों के भी हाल चाल नही जनता जो उसकी जान की रखवाली करते हैं. एक बात का और पता लगाना कि वह हिन्दी जानता है या नही. किसी ने बताया था कि वह जो डायलॉग बोलता है वह उसे रोमन अक्षरो में लिख कर दिए जाते हैं. इस मामले में ज़रूर वह सोनिया जी और राहुल जी की बाराबरी में आता है. उन्ही की तरह जनता से कटा हुआ और मजमेबाज़ी से खुश.”
उससे कुछ बोलते नहीं बन रहा था.
“और यह जो भावना वाली बात कर रहे हो न यह वह चीज़ है जो न हो तो आदमी रोबोट बन जाता हैं. लेकिन अधिक हो तो कोई पागलपन में जान लेने और देने पर उतारू हो जाता हैं.”
उसने कुछ कहना चाहा, मगर मैंने उसे बोलने ही नही दिया, “देखो जिनको आग भड़कानी होती है वे पहले भावना भड़काते हैं. और यह भावना भड़काने का खतरनाक खेल खेला जा रहा है. मैंने किसी दिन इन लेखकों को मज़माबाज कहा था. उन्हें इस बात पर ज़रूर खुशी होनी चाहिए कि करोडों जिसके पीछे पागल रहते हैं वह भी हमारे हाथ आगया. अब हमारी ताक़त बढ़ गई. पर उन्हें यह पता नहीं कि वे जो कह रहे हैं कि असुरक्षा बढ़ गई है वह किस जुमले का अनुवाद है क्योंकि ये उस भुलक्कड़पन के तुमसे बड़े रोगी है. ये अभी चार दिन पहले तक का इतिहास भूल जाते हैं. १९४७ से पहले असुरक्षा बढ़ गई है को “इस्लाम खतरे में” के रूप में प्रचारित किया जाता था और इस्लाम इतने खतरे में पड़ जाता था कि मरता क्या न करता वाली कहावत से प्रेरित होकर नारए तकबीर अल्लाहु अकबर करते हुए दंगे भड़का दिए जाते थे.
“और सुनो, जिनको इतिहास भूल जाता है वे भविष्य का भी सत्यानाश कर देते हैं. इन दोनों के बीच बहुत गहरा सम्बन्ध है. अभी मैं कल हे एम्नेसिआ यानी भुलक्कड़पन पर इंटरनेट पर ही एक शोध निबंध पढ़ रहा था. उसकी कुछ पंक्तियाँ मैं मूल में ही सुनाना चाहूंगा.
amnesia. Amnesia also refers to an inability to recall information that is stored in memory. In simple terms, amnesia is the loss of memory. ..
People with amnesia also find it hard to imagine the future, because our constructions of future scenarios are closely linked to our recollections of past experiences. Researchers from Washington University in St. Louis used advanced brain imaging techniques to show that remembering the past and envisioning the future may go hand-in-hand, with each process sparking strikingly similar patterns of activity within precisely the same broad network of brain regions.
“ये नहीं जानते कि ये किस आग को भड़काने पर तुले है. अगर जान बूझ कर ऐसा कर रहे हैं तो ये समाजद्रोही भी हैं और देशद्रोही भी. कल इन्हीं में से किसी सरफिर ने आरएसएस की तुलना इस्लामिक स्टेट से कर दी. इतने गैर ज़िम्मेदार हैं ये लोग.
“मुझे इनसे भी बड़ी चिंता इस बात कि है कि महामहिम भी इनकी चिंता में शामिल हो हो गए है. जल्दी-जल्दी उन्हें तीन बार चिंतित होना पड़ा बिना किसी नई अप्रिय घटना के घटे. व्यंजना में इसके अर्थ अनेक हैं पर एक अर्थ यह भी है कि उन्हें अपना अतीत तो याद है पर वर्तमान?
महामहिम की चिंता से सोनिया जी इतनी उत्साहित हैं की महामहिम के दर्शन करने पहुँच गईं. कांग्रेस और उसकी खुली लूट में शामिल लोगों का एक ही मक़सद है देश को पिछड़ा रखना, मध्यकालीन मानसिकता को प्रोत्साहन देना, विकास के मार्ग को अवरुद्ध करना और सत्ता से बाहर होने पर देश का बेड़ा गर्क करना. मैं मोदी की परिपक्वता का इसलिए क़ायल हूँ कि उन्हे पता है कि तुम भारत को पश्चिम एशिया बनाना चाहते हो और वह भारत को भारत बनाये रखने के लिए यहां के सबसे प्रभावशाली हथियार उपेक्षा और मौन का इतनी शालीनता से निर्वाह कर रहे हैं. वर्तमान को इतिहास की और नहीं भविष्य की और ले जाने के लिए प्राण-पण से प्रयत्न कर रहे हैं. इस मोदी को देश का आम आदमी जानता है, यहाँ का बुद्धिजीवी नहीं. यह मेरी समझ है. मैं किसी व्यक्ति के साथ नहीं देश और समाज के साथ हूँ और देश और समाज की चिंता जिनके लिए सर्वोपरि है उनके साथ हूँ. ज़रूरी नहीं कि तुम भी इसके क़ायल हो जाओ, परन्तु अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में मेरा भी कुछ हिस्सा है यह तो मानोगे ही.
11/5/2015 6:27:40 AM

Post – 2015-11-05

इतिहास के दावेदार

“तुम जानते हो, कुछ लोग तुम्हे मोदी का भक्त समझते हैं.”
“आगे ऐसा कोई आदमी टकर जाय तो उसे मेरा नाम बता देना. हो सकता है वह पहले से मेरा भक्त हो, न हुआ तो आगे हो जाएगा.”
“बुरा मत मानना. तुम मोदी की वकालत तो करते हो.”
“जो न्याय का साथ देगा वह अन्याय का विरोध करेगा. लेखक की पक्षधरता का यही अर्थ है. दुखी, उत्पीड़ित, अपमानित के प्रति सहानुभूति ही उसे उत्पीड़ित करने वाले का विरोध और सताए हुए का साथ देने को प्रेरित करती है. सत्य के प्रति निष्ठा उसे असत्य का विरोध करने को बाध्य करती है.”
“तुम, तुम…” वह गुस्से से हकलाने लगा.
मैंने कहा, “इस समय तुम मेरी बात समझ न पाओगे, इसलिए मैं तुम्हे एक दूसरे सताए हुए आदमी की पीड़ा सुनाता हूँ. उसका नाम था फ्रेडरिक नीत्शे. नाम सुना है उसका?”
“वही न जिसके दर्शन का नतीजा नाज़ीवाद था?”
“नाज़ीवाद उसके दर्शन पर प्रहार था. जीवित मिलता तो हिटलर सबसे पहले उसे गैस चैम्बर में भेजता, पर देखो उसका दुर्भाग्य कि तुम भी उसे नाज़ीवाद का जनक मानते हो. अफवाह में कितनी ताक़त होती है, इसका यह नमूना है.”
“क्या यह अफवाह है की उसने ही सुपरमैन याने अतिमानव की अवधारणा दी थी और उसके कारण हिटलर ने जितने यहूदियों को मौत के घाट उतारा उनसे अधिक जर्मन मूल के बीमार, अपंग, असहाय, कमज़ोर जनों को मौत के घाट उतारा था.
“सुपरमैन की अवधारणा एक अफवाह का विकृत रूप थी, लेकिन नाज़ियों ने जिस क्रूर, अनैतिक, जघन्य अतिमानव को अपना स्वप्न बनाया उसमे तो मानवता का ही सर्वनाश हो जाता. सामने आता एक शक्तिशाली नरपशु, जिसका कुछ सम्बन्ध विकासवाद की मूर्खतापूर्ण समझ से जोड़ा जा सकता है, पर सीधा जैव विकास से भी नही.
“विकासवाद से तो सम्बन्ध है ही. उसमें तो माइट इस राइट और सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट का सिद्धांत चलता ही है. कम से कम इसकी तो पूरी समझ थी नाज़ियों को.”
नही थी, भाई. फिटेस्ट का अर्थ आकार, शक्ति या बुद्धिबल में सबसे बड़ा नही है. समायोजन क्षमता में दूसरों से आगे है. इसका अर्थ है नई परिस्थियों के अनुसार अपने को ढालना. ऐसे गुणों का विकास जो हमें बचे रख सकें. इसमें अकड़ और अहंकार की तुलना में लोच और नम्रता अधिक समझदारी सिद्ध होती है. ऐसे ही प्राणियों को प्रकृति बचे रहने का अवसर देती है. डायनोसर ख़त्म हो जाते है तिलचट्टे बचे रह जाते हैं. इसे ही कविता की भाषा में नेचुरल सिलेक्शन या प्राकृतिक वरण कहा दार्शनिको ने. नाज़ियों में अहंकार था, अकड़ थी, इसलिए उन्हें तो प्रकृति के नियम से ही नष्ट होना था इससे पहले वे कितना विनाश कर गए या कर सकते थे यह दूसरी बात है.
खैर, नीत्शे तो बहुत सात्विक और साधक स्वभाव का था. उसके आदर्श बहुत ऊँच थे लेकिन एक बार सुपरमैन की अफवाह से उसका नाम जुड़ जाने के बाद यह इस तरह प्रचारित हुआ कि टॉलस्टॉय ने भी उसे रुग्ण मानसिकता का मान लिया. जानते हो न नीत्शे के विषय में उनका कथन:
Nietzsche was stupid and abnormal.
“एब्नार्मल तो कह सकते हो उसे. पर उसकी सनक एक निर्भीक, आत्मविश्वासी साधक की थी और एक अफवाह ने उसको कहा से कहाँ पहुंचा दिया. इतिहास के पादलखाने में.”
“तुम बार बार किस अफवाह की बात कर रहे हो? साफ़ क्यों नहीं बताते?”
देखो, नीत्शे ने महामानव की कल्पना की थी जो उच्च मानवीय गुणों से लैस हो. उसका मानना था की कोई भी व्यक्ति श्रम, अध्यवसाय, सुनियोजित और अडिग कर्मठता के बल पर असाधारण ऊंचाई तक पहुँच सकता है. इसे तुम उसकी संभावनाओं का शिखर कह सकते हो. वह स्वयं अपने विषय में ऐसा ही ख्याल रखता था. याद करो चोटियों से चोटियों पर पाँव रखते हुए चलने का मुहावरा. और जानते हो अपने बारे में इस नाचीज़ का भी ख़याल कुछ ऐसा ही है. एक शेर अर्ज़ करूँ.”
“फँस गए हैं तो सुनना ही पडेगा.”
‘आसमानों पर कदम रखता हुआ चलता है.
तुमने भगवान को देखा कभी आते जाते.’
शेर तो सचमुच किसी सिरफिरे का ही लगता है पर खुद अपने ही मुंह मियां मिट्ठू बनना.
दर्पोक्तियाँ एक चीत्कार होती है, अपने न समझे जाने की अकुलाहट की अभिव्यक्ति जो अकेले पड़ जाने के बाद भी आत्मबल को ज़िंदा रखती है. यही अकुलाहट नीत्शे में भी थी. जानते हो वह कहता था मुझे समझने वाले तीसरी सहस्राब्दी में पैदा होंगे. अपनी बराबरी का किसी को गिनता ही न था. उसकी कुछ दर्पोक्तियां सुनाऊँ. अंग्रज़ी में ही सुनाऊंगा :
It seems to me that to take a book of mine into his hands is one of the rarest distinctions that anyone can confer upon himself.
“रहने दो यार तुम उसकी बात नहीं कर रहे, उसके बहाने अपनी बात कर रहे हो.”
ज़र्रानवाज़ी के लिए शुक्रिया.
“तो नीत्शे जिनको महामानव मानता था वह उन जैसे लोग थे जिनके प्रति उसके मन में अपार श्रद्धा थी. ये थे गैलिआनी, गेटे, मोंटेन, हेनरी बेली. पहले पहल तो वह शोपेन्हावर का अँधा भक्त था. उसी में माधयम से भारतीय दर्शन से भी प्रेरित. दस स्पेक जरथुस्त्र उसी प्रभाव की रचना है.”
“क्या उसका परिवार नाज़ी विचारों का नही था?”.
तुम शायद उसकी बहन एलिज़ाबेथ नीत्शे की बात कर रहे हो जिससे वह नफरत करता था क्योंकि वह यहूदियों से घृणा कराती थी, नाज़ी संगठन से जुडी थी और हिटलर का हाथ पकड़ा था. नीत्शे उसे “vengeful anti-semitic goose” कहता था.
“फिर वह अतिमानव वाली अवधारणा उसके नाम से कैसे जुडी? तुम बार बार जिस अफवाह की बात कर रहे थे वह क्या है?”
“बात दर असल ये है की एक पत्रिका के कार्टून में उसकी पुस्तक Ubermenschen अर्थात अद्वितीय के अंग्रेजी अनुवादकों ने Ubermensch शीर्षक दे दिया और आज की भाषा में कहें तो यह वायरल हो गया. कार्टून यह रहा.
Ubermensch

“एक बात और, एलिज़ाबेथ भी नाज़ी दल में उसके मरने के बहुत बाद में पहुंची थी. अपने अंतिम दिनों में नीत्शे ने अपनी माँ से भी मिलने से इंकार कर दिया था. पर अफवाहों की ताक़त तर्क और प्रमाणों पर भारी पड़ती है. लोगों को इनमे रस आने लगता है. ये रुकने का नाम नहीं लेतीं.
नीत्शे नस्लवाद का कटु आलोचक था. उसकी मान्यता थी की व्यक्ति की उच्चतम संभावनाएं उसी में छिपी हैं – थिंग-इन-इटसेल्फ – उसका प्रिय मुहावरा था. उसका मानना था कि महत्वकांक्षी व्यक्ति को अथक भाव से छोटी छोटी चीज़ों पर काम करते हुए उनमे पूर्ण सिद्धि प्राप्त करनी चाहिए और फिर उन अनुभवों को संयोजित करते हुए महान कृति प्रस्तुत करनी चाहिए.”
“तुमने तो पूरी तस्वीर ही उलट दी.”
“ऐसा कोई इरादा नहीं था पर एक बात जानते हो उसकी सबसे बड़ी महत्वाकांक्षा माली बनने की थी. ऐसे आदमी को निराधार दुष्प्रचार के कारण कैसी अपकीर्ति से गुज़रना पड़ा.
“एक दूसरी कहानी इसमें जोड़ें: वाल्तेयर को तो जानते ही हो.
“वाल्तेयर कहाँ से आ घुसा नीत्शे में.”
“सुनो तो सही. एक आदमी के ऊपर गंभीर आरोप लगा. उसको फांसी दे दी गई. बाद में वाल्तेयर को अपनी खोज से पता चला की वह निरपराध था. वाल्तेयर ने अपने प्रमाणों के साथ मुक़दमे की फिर से सुनवाई करवाई. लोगो को अजीब लग रहा था. उसे फांसी तो बहुत पहले दी जा चुकी थी. अब मुक़दमे से कोई फायदा? वाल्तेयर ने कहाँ मैं उसके प्राण तो नहीं बचा सकता पर उसके नाम को उस अपयश से तो बचा सकता हूँ. मुक़दमा तो जीतना ही था.”
“तो यह होती है एक बौद्धिक की भूमिका. जिन पर अफवाहों और दुष्प्रचारों से प्रहार किया जा रहा हो उसके साथ खड़ा होना भी अन्याय के खिलाफ लड़ना ही है.”
“क्या इतने थोड़े से लोगों की नज़र से गुज़रने वाला यह लेख नीत्शे को उस कलंक से बचा पायेगा?” “भरोसा तो नही है पर हम अफवाहों के दबाव में न आकर प्रत्येक अभियोग और आरोप के प्रमाणों की मांग और जांच तो कर ही सकते है. नीत्शे की भविष्यवाणी ग़लत तो नहीं लगती. आखिर ये इबारतें हम तीसरी सहस्राब्दी में ही तो लिख और पढ़ रहे हैं. (THE CONSOLATIONS OF PHILOSOPHY by Alain de Botton)

Post – 2015-11-04

इतिहास के दावेदार

“तुम जानते हो, कुछ लोग तुम्हे मोदी का भक्त समझते हैं.”
“आगे ऐसा कोई आदमी टकर जाय तो उसे मेरा नाम बता देना. हो सकता है वह पहले से मेरा भक्त हो, न हुआ तो आगे हो जाएगा.”
“बुरा मत मानना. तुम मोदी की वकालत तो करते हो.”
“जो न्याय का साथ देगा वह अन्याय का विरोध करेगा. लेखक की पक्षधरता का यही अर्थ है. दुखी, उत्पीड़ित, अपमानित के प्रति सहानुभूति ही उसे उत्पीड़ित करने वाले का विरोध और सताए हुए का साथ देने को प्रेरित करती है. सत्य के प्रति निष्ठा उसे असत्य का विरोध करने को बाध्य करती है.”
“तुम, तुम…” वह गुस्से से हकलाने लगा.
मैंने कहा, “इस समय तुम मेरी बात समझ न पाओगे, इसलिए मैं तुम्हे एक दूसरे सताए हुए आदमी की पीड़ा सुनाता हूँ. उसका नाम था फ्रेडरिक नीत्शे. नाम सुना है उसका?”
“वही न जिसके दर्शन का नतीजा नाज़ीवाद था?”
“नाज़ीवाद उसके दर्शन पर प्रहार था. जीवित मिलता तो हिटलर सबसे पहले उसे गैस चैम्बर में भेजता, पर देखो उसका दुर्भाग्य कि तुम भी उसे नाज़ीवाद का जनक मानते हो. अफवाह में कितनी ताक़त होती है, इसका यह नमूना है.”
“क्या यह अफवाह है की उसने ही सुपरमैन याने अतिमानव की अवधारणा दी थी और उसके कारण हिटलर ने जितने यहूदियों को मौत के घाट उतारा उनसे अधिक जर्मन मूल के बीमार, अपंग, असहाय, कमज़ोर जनों को मौत के घाट उतारा था.
“सुपरमैन की अवधारणा एक अफवाह का विकृत रूप थी, लेकिन नाज़ियों ने जिस क्रूर, अनैतिक, जघन्य अतिमानव को अपना स्वप्न बनाया उसमे तो मानवता का ही सर्वनाश हो जाता. सामने आता एक शक्तिशाली नरपशु, जिसका कुछ सम्बन्ध विकासवाद की मूर्खतापूर्ण समझ से जोड़ा जा सकता है, पर सीधा जैव विकास से भी नही.
“विकासवाद से तो सम्बन्ध है ही. उसमें तो माइट इस राइट और सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट का सिद्धांत चलता ही है. कम से कम इसकी तो पूरी समझ थी नाज़ियों को.”
नही थी, भाई. फिटेस्ट का अर्थ आकार, शक्ति या बुद्धिबल में सबसे बड़ा नही है. समायोजन क्षमता में दूसरों से आगे है. इसका अर्थ है नई परिस्थियों के अनुसार अपने को ढालना. ऐसे गुणों का विकास जो हमें बचे रख सकें. इसमें अकड़ और अहंकार की तुलना में लोच और नम्रता अधिक समझदारी सिद्ध होती है. ऐसे ही प्राणियों को प्रकृति बचे रहने का अवसर देती है. डायनोसर ख़त्म हो जाते है तिलचट्टे बचे रह जाते हैं. इसे ही कविता की भाषा में नेचुरल सिलेक्शन या प्राकृतिक वरण कहा दार्शनिको ने. नाज़ियों में अहंकार था, अकड़ थी, इसलिए उन्हें तो प्रकृति के नियम से ही नष्ट होना था इससे पहले वे कितना विनाश कर गए या कर सकते थे यह दूसरी बात है.
खैर, नीत्शे तो बहुत सात्विक और साधक स्वभाव का था. उसके आदर्श बहुत ऊँच थे लेकिन एक बार सुपरमैन की अफवाह से उसका नाम जुड़ जाने के बाद यह इस तरह प्रचारित हुआ कि टॉलस्टॉय ने भी उसे रुग्ण मानसिकता का मान लिया. जानते हो न नीत्शे के विषय में उनका कथन:
Nietzsche was stupid and abnormal.
“एब्नार्मल तो कह सकते हो उसे. पर उसकी सनक एक निर्भीक, आत्मविश्वासी साधक की थी और एक अफवाह ने उसको कहा से कहाँ पहुंचा दिया. इतिहास के पादलखाने में.”
“तुम बार बार किस अफवाह की बात कर रहे हो? साफ़ क्यों नहीं बताते?”
देखो, नीत्शे ने महामानव की कल्पना की थी जो उच्च मानवीय गुणों से लैस हो. उसका मानना था की कोई भी व्यक्ति श्रम, अध्यवसाय, सुनियोजित और अडिग कर्मठता के बल पर असाधारण ऊंचाई तक पहुँच सकता है. इसे तुम उसकी संभावनाओं का शिखर कह सकते हो. वह स्वयं अपने विषय में ऐसा ही ख्याल रखता था. याद करो चोटियों से चोटियों पर पाँव रखते हुए चलने का मुहावरा. और जानते हो अपने बारे में इस नाचीज़ का भी ख़याल कुछ ऐसा ही है. एक शेर अर्ज़ करूँ.”
“फँस गए हैं तो सुनना ही पडेगा.”
‘आसमानों पर कदम रखता हुआ चलता है.
तुमने भगवान को देखा कभी आते जाते.’
शेर तो सचमुच किसी सिरफिरे का ही लगता है पर खुद अपने ही मुंह मियां मिट्ठू बनना.
दर्पोक्तियाँ एक चीत्कार होती है, अपने न समझे जाने की अकुलाहट की अभिव्यक्ति जो अकेले पड़ जाने के बाद भी आत्मबल को ज़िंदा रखती है. यही अकुलाहट नीत्शे में भी थी. जानते हो वह कहता था मुझे समझने वाले तीसरी सहस्राब्दी में पैदा होंगे. अपनी बराबरी का किसी को गिनता ही न था. उसकी कुछ दर्पोक्तियां सुनाऊँ. अंग्रज़ी में ही सुनाऊंगा :
It seems to me that to take a book of mine into his hands is one of the rarest distinctions that anyone can confer upon himself.
“रहने दो यार तुम उसकी बात नहीं कर रहे, उसके बहाने अपनी बात कर रहे हो.”
ज़र्रानवाज़ी के लिए शुक्रिया.
“तो नीत्शे जिनको महामानव मानता था वह उन जैसे लोग थे जिनके प्रति उसके मन में अपार श्रद्धा थी. ये थे गैलिआनी, गेटे, मोंटेन, हेनरी बेली. पहले पहल तो वह शोपेन्हावर का अँधा भक्त था. उसी में माधयम से भारतीय दर्शन से भी प्रेरित. दस स्पेक जरथुस्त्र उसी प्रभाव की रचना है.”
“क्या उसका परिवार नाज़ी विचारों का नही था?”.
तुम शायद उसकी बहन एलिज़ाबेथ नीत्शे की बात कर रहे हो जिससे वह नफरत करता था क्योंकि वह यहूदियों से घृणा कराती थी, नाज़ी संगठन से जुडी थी और हिटलर का हाथ पकड़ा था. नीत्शे उसे “vengeful anti-semitic goose” कहता था.
“फिर वह अतिमानव वाली अवधारणा उसके नाम से कैसे जुडी? तुम बार बार जिस अफवाह की बात कर रहे थे वह क्या है?”
“बात दर असल ये है की एक पत्रिका के कार्टून में उसकी पुस्तक Ubermenschen अर्थात अद्वितीय के अंग्रेजी अनुवादकों ने Ubermensch शीर्षक दे दिया और आज की भाषा में कहें तो यह वायरल हो गया. कार्टून यह रहा.
Ubermensch

“एक बात और, एलिज़ाबेथ भी नाज़ी दल में उसके मरने के बहुत बाद में पहुंची थी. अपने अंतिम दिनों में नीत्शे ने अपनी माँ से भी मिलने से इंकार कर दिया था. पर अफवाहों की ताक़त तर्क और प्रमाणों पर भारी पड़ती है. लोगों को इनमे रस आने लगता है. ये रुकने का नाम नहीं लेतीं.
नीत्शे नस्लवाद का कटु आलोचक था. उसकी मान्यता थी की व्यक्ति की उच्चतम संभावनाएं उसी में छिपी हैं – थिंग-इन-इटसेल्फ – उसका प्रिय मुहावरा था. उसका मानना था कि महत्वकांक्षी व्यक्ति को अथक भाव से छोटी छोटी चीज़ों पर काम करते हुए उनमे पूर्ण सिद्धि प्राप्त करनी चाहिए और फिर उन अनुभवों को संयोजित करते हुए महान कृति प्रस्तुत करनी चाहिए.”
“तुमने तो पूरी तस्वीर ही उलट दी.”
“ऐसा कोई इरादा नहीं था पर एक बात जानते हो उसकी सबसे बड़ी महत्वाकांक्षा माली बनने की थी. ऐसे आदमी को निराधार दुष्प्रचार के कारण कैसी अपकीर्ति से गुज़रना पड़ा.
“एक दूसरी कहानी इसमें जोड़ें: वाल्तेयर को तो जानते ही हो.
“वाल्तेयर कहाँ से आ घुसा नीत्शे में.”
“सुनो तो सही. एक आदमी के ऊपर गंभीर आरोप लगा. उसको फांसी दे दी गई. बाद में वाल्तेयर को अपनी खोज से पता चला की वह निरपराध था. वाल्तेयर ने अपने प्रमाणों के साथ मुक़दमे की फिर से सुनवाई करवाई. लोगो को अजीब लग रहा था. उसे फांसी तो बहुत पहले दी जा चुकी थी. अब मुक़दमे से कोई फायदा? वाल्तेयर ने कहाँ मैं उसके प्राण तो नहीं बचा सकता पर उसके नाम को उस अपयश से तो बचा सकता हूँ. मुक़दमा तो जीतना ही था.”
“तो यह होती है एक बौद्धिक की भूमिका. जिन पर अफवाहों और दुष्प्रचारों से प्रहार किया जा रहा हो उसके साथ खड़ा होना भी अन्याय के खिलाफ लड़ना ही है.”
“क्या इतने थोड़े से लोगों की नज़र से गुज़रने वाला यह लेख नीत्शे को उस कलंक से बचा पायेगा?” “भरोसा तो नही है पर हम अफवाहों के दबाव में न आकर प्रत्येक अभियोग और आरोप के प्रमाणों की मांग और जांच तो कर ही सकते है. नीत्शे की भविष्यवाणी ग़लत तो नहीं लगती. आखिर ये इबारतें हम तीसरी सहस्राब्दी में ही तो लिख और पढ़ रहे हैं. (THE CONSOLATIONS OF PHILOSOPHY by Alain de Botton)

Post – 2015-11-03

त्रिकालदर्शी

“तुम एक दिन कह रहे थे, ‘इतिहासकार त्रिकालदर्शी होता है. ऋषि हो जाता है’. कहा था या नही?”
“कहा तो था.”
“आज भी मानते हो?”
“न मानने का कोई कारण नहीं.”
“तो यह देखो इतिहासकार क्या कहते है?” उसने हिन्दू का सम्पादकीय और समाचार वृत्त मेरे सामने कर दिया. इसमे अनेक जाने माने, अनेक कुर्सियों को तोड़ कर अनेक संभावनाओं की तलाश में देश-विदेश भटकते लोगों का नाम बड़े आदर से लिया गया था, जो कभी इतिहास पढ़ाया करते थे, प्राइमरी स्कूल के बच्चों से लेकर विश्वविद्यालय के छात्रों तक के लिए इतिहास के रूप में पढाई जाने वाली किताबें लिखा करते थे. बच्चे उन किताबों को छोड़ कर दूसरी कोई किताब पढ़ न सकें, इसका भी इंतज़ाम कर लिया था. ये वे लोग थे, जिन्होंने आई सी एच आर को चलाया और उसके प्रोजेक्टों में काम किया था और जिनका नाम देश से लेकर विदेशों तक फैला था. इनको लग रहा था कि आज से बुरे दिन उन्होंने देखे ही नहीं. हो सकता है इतिहास की किताबों में कहीं पढ़ा भी न हो, क्योंकि देखने और पढ़ने का उनका तरीका दूसरों से कुछ अलग था.
सो उसने अख़बार मेरे सामने पटकते हुए कहा, “देखो ये इतिहासकार क्या कहते है?”
अखबार दो तीन दिन पुराना था, इसलिए लगा वह अपनी मनवाने की तैयारी के साथ आया था. मैंने पूछा ” इनमें इतिहासकार कौन है?”
वह हंसने लगा, “अब ऊँट आया पहाड़ के नीचे. मैं बताऊंगा ये कौन हैं?”
“बड़े लोग हैं, मैं भी जानता हूँ. पर इनमे इतिहासकार कौन है?” मैंने फिर दुहराया.
“तुम सीधे कहो कि ये इतिहासकार नही हैं.”
“यही तो कह रहा हूँ. और यह मैं नहीं कहता, ये बेचारे खुद कहते हैं कि ये धंधेबाज इतिहासकार हैं, प्रोफेशनल हिस्टोरियन. कहते हैं या नहीं?”
“कहते हैं. कहते इसलिए हैं कि ज़िंदगी भर इतिहास ही पढ़ाया है. प्रोफेसर रहे है हिस्ट्री के.”
“तो यह कहो कि इतिहास पढ़ाते रहे हैं. इतिहासकार क्यों कह दिया. जो आदमी ज़िन्दगी भर हिंदी साहित्य पढ़ाता रहा हो उसे साहित्यकार, आलोचक मान लोगे? जो फलसफा पढ़ाता रहा हो उसे फिलॉसफर मान लोगे. हद करते हो यार!”
“फिर तुम्ही बताओ कौन है इतिहासकार?”
“दूर-दूर तह कोई दिखाई नही देता. जो है उसे मैं खुद नहीं देख पाता. नाम लेना शिष्टाचार के विरुद्ध है, पर तुम देखना चाहो तो देख सकते हो.”
वह कयास भिड़ाने लगा, फिर छातीफाड़ हँसी से लोटपोट हो गया. संभला तो बोला, “भई, कल एक बिल्ला बनवाकर लाऊंगा. तुम छाती पर लगा लेना, उस पर लिखा होगा, “रास्ता छोडो. इतिहासकार आ रहा है.”
“निहायत अहमक आदमी हो. सोचा भी तो बिल्ले की बात. पूरा सूट नहीं बनवा सकते?”
उसने हाथ मिलाया. चलो यही सही.
मैंने समझाने का प्रयास किया, “सच कहूँ तो ये ऊँचे घरों के सुशिक्षित, परन्तु कामचलाऊ प्रतिभा के लोग हैं, जैसा कि सुविधाजीवी परिवारों के बच्चे होते हैं. पारिवारिक हैसियत का लाभ मिला है. पहुँच ऊंची है. इन्हे अंग्रेजी तो आती है पर इतिहास नही आता. इतिहास की परिभाषा तक नहीं जानते. इतिहासकार के कार्यभार तक को नहीं जानते. पढ़ रखा है. किताबों की कमी कभी हुई ही नहीं. घर में ही इतनी कि खिलौनों से ऊबे किताबों में पहुंचे. पर ज्ञान भी स्वभाव के अनुसार आत्मसात होता है. इनमे आत्मरति और द्रव्यादान-लोभ इतना प्रबल रहा है कि वर्तमान में भी केवल यह देख पाते हैं कि कहाँ-कहाँ से क्या-क्या, किस जुगत से, जोड़ा, कमाया और जुगाया जा सकता है. वैभव इनके पास प्रभूत मिलेगा. इनके व्यक्तिगत सान्निध्य में आने वाला इनके स्नेह और अनुग्रह से अभिभूत हो जाता है. ये गुण महिमा बढ़ाने में उपयोगी होते है.
“ये इतिहास के तथ्यों से अवगत हैं परन्तु उनका उपयोग ईमानदारी से नही करते. इसका असर समझ पर पड़ता है. पक्षपात से विज़न मलिन हो जाता है – भाप से धुंधलाये शीशे या चश्मे की तरह. इसके लिए अवलिप्त बुद्धि का प्रयोग किया जा सकता है. गलत सिद्ध होने से घबराते हैं. वकीलों जैसी स्थिति है. सत्य और न्याय की रक्षा नहीं, जीत एकमात्र कसौटी है. लफ़्फ़ाज़ी और आत्मविज्ञापन पर अधिक भरोसा करते हैं.
“सत्ता से जुड़े लोग, चाहे वह राजसत्ता हो या धर्मसत्ता, सफलता चाहते हैं, सत्य की प्रतिष्ठा नहीं. वे पक्षधर होते हैं, अतः समदर्शी और तत्वदर्शी नहीं हो सकते. कम्युनिस्ट विचारधारा में तो प्रतिबद्धता पर, पक्षधरता पर वैसे ही ज़ोर दिया जाता रहा है. पक्षधर लोग तत्वद्रष्टा नही हो सकते. इतिहासकार जैसा कि तुमने याद रखा ऋषि होता है. दार्शनिक होता है वह. पूरी दुनिया में ऐसे द्रष्टा लम्बे समय बाद ही मिलते हैं. हम केवल यही कर सकते हैं कि निष्पक्ष होकर विचार करें और गलतियों का आभास मिलते ही उन्हें सुधार लें. इतिहासकार कहलाने के लिए इतना भी पर्याप्त है, परन्तु ये ऐसा नहीं करते.”
वह मेरी बात सुन तो रहा था, पर कुछ अनमनेपन से. मेरी बात समझने का दिखावा करते हुए, पर छूट भागने की सुरंग तलाशते हुए, मैं तरंग में था, “इन्होने तो इतिहास को भी गाली बना कर रख दिया. उन गालियों को ही युगसत्य बताकर उसकी ऎसी आदत डालते रहे कि तुम्हारे तथाकथित बुद्धिजीवियों को गाली बनाए जा चुके इतिहास क़े बिना मज़ा ही नहीं आता. ऐसा इतिहास जो गालियों को अनुचित और अवांछित बताये, वह सच हो सकता है, इसका इन्हे भरोसा ही नहीं होता, इसलिए विरोध करने पर वे तन कर कहते हैं, ‘इसमें गलत क्या है.” दुर्भाग्य से जो कम जानता है वह अपनी जानकारी पर बड़ी दृढ़ता से जमा रहता है. हारिल की लकड़ी छूटी तो ज़मीन पर आ गिरेगा.
“रोज़ी रोटी के लिए इतिहास चुनने वाले बंधुआ पाठकों के मन में भले यह इतिहास उतार दिया गया हो, परन्तु इतिहास में जिनकी सहज रूचि है, उन्हें इनसे क्षोभ हो, उनमे से कुछ के मन में उग्र आक्रोश हो तो उसका जवाबदेह कौन है. उसे सनकी कह कर केवल उसे दोष देना समस्या का समाधान नहीं है.”
मै रुका तो उसने ज़बान खोली, “जानते हो मैं चुप क्यों था.”
“क्यों.”
“मै सोच रहा था तुम थक जाओगे तो अपने आप थक कर बैठ जाओगे.”
मै हतप्रभ नही हुआ, “तुम घबरा रहे थे न? पर इतना तो समझ में आ ही गया होगा कि जो इतिहास को गालियों में बदल सकते है वे वे हैं, और जो गालियों को इतिहास मान सकते है वह तुम और तुम जैसे लोग हैं, जिन्हे कुर्सिया दिखाई देती है, पर सचाई नही. वे शांति के माहौल में भी अपने लेखन से उत्तेजना फ़ैलाने का प्रयत्न करते रहे है, वे उत्तेजित माहौल में इतनी देर तक बैठे रहे, यही आश्चर्य की बात है.
“थोड़ा ठहर कर मैंने पूछा, “जानते हो, किसी भी अन्य शाखा का कोई विद्वान अपने को पेशेवर (पेशेवर समाजशास्त्री, पेशेवर अर्थशास्त्री आदि) नहीं कहता. पहले ये भी नही कहते थे. इन्होने अपने को पेशेवर इतिहासकार कब से और क्यों लिखना आरम्भ किया?”
वह नहीं जानता था. मैने बताया “1987 से.”
“१९८७ से क्यों? उसमे ऎसी क्या खास बात थी.”
“उस साल एक किताब प्रकाशित हुई थी. एक ऐसे आदमी की जो अपने को आज तक इतिहासकार नही कहता.”
“क्या खास बात थी उस किताब में.”
“उसमें पन्ने पन्ने पर ऐसे सवाल उठाए गए थे जो देश देशान्तर के ऐसे इतिहास लेखको के उस काल पर समस्त लेखन को कचरे की ढेर बना देते थे.”
“मैं समझा नहीं. तुम पहेलियों में बात करते हो. उदहारण देकर बात करो.”
“मैं उसके एक मुद्दे की बात करूँ. लिखा था ऋग्वेद में रथ के हवाले गोरु के हवालों से अधिक बार और अधिक निर्णायक रूप में आए हैं. परिवहन के उन सभी साधनों का हवाला है जिनका भाप के इंजिन से पहले दुनिया में उपयोग होता था. नदियों को यात्रा पथ बताया गया है, फिर यह समाज चरवाहों का समाज हुआ या उन्नत अर्थव्यवस्था और अंतर्देशीय व अंतर्राष्ट्रीय व्यापार करने वाले समाज का? यह हड़प्पा सभ्यता का नाश करने वालों का साहित्य है या हड़प्पा भ्यता का अपना साहित्य? तुम समझ रहे हो मेरा मतलब? दिल्ली से नेहरू विश्वविद्यालय तक तहलका मच गया था. उस किताब को पढ़ने वाले छात्र जब सवाल करने लगे तो इसका खंडन करने की जगह यह बताया जाने लगा की ‘किसकी बात करते हो तुम, वह तो साहित्यकार हैं. पेशेवर इतिहासकार हैं ही नही.”
“तुम किस किताब की बात कर रहे हो?”
“यह न पूछो तो ही अच्छा. पर यह बताओ ऐसे लोगों को तुम इतिहासकार कह सकते हो? ये इतिहास का पेशा करने वाले लोग हैं. इतिहासकार के पास दृष्टि होती है इनके पास कुर्सी रही है.”
“लेकिन एक बात तो मानोगे. अध्यापक बहुत अच्छे हैं”.
“वाक्कुशल हैं. अपनी बातों से मुग्ध कर देते हैं. अपनी गलत बातों को इस तरह रख लेते हैं की सुनने वाले को लगे यही सही है. पर अपने छात्रों को जान बूझ कर गलत इतिहास पढ़ाने वालों को अच्छा अध्यापक कह सकते हो? ये तो इतिहास के चार्ल्स शोभराज हैं. मशहूर वह भी कम नहीं है मगर वह अपनी सही जगह पर है, ये गलत जगह पर.
तुम कहोगे साहित्य और कला के भी चार्ल्स शोभराज होते है.
मैंने कहा, “तुम्हारे मुंह घी शक्कर!”

Post – 2015-11-02

तानाशाही के खतरे वाली जो बात तुम कर रहे थे वह तो सचमुच सम्भव लगती है. इस आदमी में तानाशाही प्रवृत्ति कूट कूट कर भरी है. उसका चेहरा नहीं देखते. बोलता है तो लगता बुलडॉग भौक रहा है पंजे मारता हुआ.”
मैंने कुछ खिन्न स्वर में कहा, “तुम्हे तुम्हारी पार्टी ने संस्कार में यही दिया? इससे आगे बढ़ने का मंत्र तक नही सिखाया?”
उसका चेहरा देखने लायक था.
मैं उसपर सवार हो गया. “देखो, तुम किसी व्यक्ति का अपमान नहीं कर रहे हो. अपने देश के प्रधान मन्त्री का अपमान कर रहे हो. उस जनता का अपमान कर रहे हो जिसने उसे सर माथे चढ़ा लिया. और अपना भी अपमान कर रहे हो क्योंकि तुम उस देश के नागरिक हो जिसका प्रधान मन्त्री वैसा है जैसा तुमने बनाना और दिखाना चाहा.”
“गलती हो गई भाई. माफ़ भी करो.
“गलती नही हुई है यह तुम्हारी आदत का हिस्सा बन गया है वरना यह बात तुम्हे कल ही समझ में आ गई होती, और इस गलती की नौबत न आती. बुरा मत मानना, साम्यवाद की लोरी सुनाते-सुनाते तुम्हे ऐसा घोल पिलाया जाता रहा की तुम आदमी से भेड़िये में तब्दील हो गए. तुम्हे अविजेय बनाने के लिए असरदार नारेबाजी और हंगमेबाज़ी की आदत डाली जाती रही. तुम्हारा सबसे प्रबुद्ध वर्ग तो मज़दूर वर्ग है. सर्वहारा. उसकी भाषा तुम्हारे सुशिक्षित प्रतिबद्ध वर्ग की आदर्श भाषा बन गई. वह समादृत संबंधों के स्वजनों परिजनों के अंग-उपांग का नाम लेकर प्रजनन प्रक्रिया से जुड़े शब्दों का प्रयोग गाली के रूप में अपने कथन को प्रभावशाली बनाने के लिए करता है, तुमने गालियों का स्तर थोड़ा ऊपर कर दिया. तुमको किसी ने बताया नही कि यह फासिस्टों और नाज़ियों की भाषा है और इसी धज में तुम्हे लम्बी ज़बान और छोटे दिमाग के साथ फासिज़्म से लड़ने को खड़ा कर दिया गया जब कि तुम्हे यह बताया तक नहीं गया कि फासिज़्म है क्या बला, किन परिस्थितियों में पैदा होता है, वह अपने भीतर से ही कितना खोखला होता है. बताया सिर्फ यह गया कि अन्य गालियों की तरह फासिज़्म भी एक गाली है. जिसकी ज़बान बंद करनी हो उसे फासिस्ट कह दो और डंका बजाओ. अब तुम्हे अपने भेड़िये से लम्बी जंग लड़नी होगी दुबारा आदमी बनने के लिए.”
वह अब फूटा तब फूटा की स्थिति में था. मैं आवेश में बोल तो गया पर ग्लानि मुझे भी थी. दोष उसका तो न था. एक ज़माने में मैं यह भाषा भले न बोलता था, पर मुझे यह बुरी क़तई नहीं लगती थी. आधा गांव के कुछ चरित्रों की भाषा आज भी गलत नहीं लगाती. प्रश्न औचित्य का है. कुछ देर तक हम चुप बैठे रहे. जब चुप्पी भारी पड़ने लगी तो बात उसे ही शुरू करनी पड़ी, “मैंने कुछ शख्त बात कह दी, उसका खेद है, लेकिन यह तो मानोगे ही की उसमें तानाशाही प्रवृत्ति है.”
“भले मानस, खेद हुआ और ज़बान संभाली तो कम से कम ‘उनमे’ तो कहा होता. चलो माफ़ किया. एक दिन में हुआ भी तो कितना सुधार होगा.
“रही बात तानाशाही प्रवृत्ति की तो यह प्रवृत्ति तो मुझमें भी है. तुम मेरे लिखने-पढने के कमरे को देखो तो बस केआस नज़र आएगा. चीज़े बिखरी हुई हैं. जो अपनी किताबें और कागज़ संभाल नही पाता वह भी सोचता है कि अगर मौका मिले तो मैं दुनिया को इस तरह चलाऊँ. तानाशाह होना सभी चाहते हैं. कम से कम वे जो अपने घर परिवार को किसी आदर्श संस्था के रूप में चलाना चाहते हैं, छोटे मोटे तानाशाह ही बने रहते हैं. तानाशाही इतनी बुरी चीज़ नही है. हाँ दुरुस्त भी नहीं है. तानाशाह तो गांधी जी भी बनना चाहते थे और सच कहो तो जब तक उनकी चली तानाशाह ही बने रहे. नेहरू ने तो अपनी तानाशाही आकांक्षाओं के बारे में एक लेख, माडर्न रिव्यू में एक लेख चाणक्य के नाम से लिखा था. बाद में किसी ने पूछा, क्या अब भी आप में वह प्रवृत्ति है, तो कहा, “मैंने पहले ही इसे भांप लिया था इसलिए बच गया.’ बचे वह भी नही पर कोशिश करते रहे. वह प्रवृत्ति उनमे बनी रही, इंद्रा जी में उभर आई पर इस प्रवृत्ति से लड़ने की कोशिश वह भी करती थीं, केवल कभी कभी. संजय में यह ज़बरदस्त थी. मूर्खता की हद तक. मेंनका में भी उतनी ही प्रबल है. जो लोग निर्माण करना चाहते हैं वे जो कुछ जिस तरह बनाना चाहते हैं उसमे बाधा न पड़े, सभी एक लय में, तालमेल से काम करें, उस सपने को साकार करने को जो महत्वाकांक्षी व्यक्ति को तानाशाह बनाती है. फिल्म का डायरेक्टर, टीम का कप्तान, ऑर्केस्ट्रा का संचालक, सेना का नायक सभी तानाशाह ही होते है. तानाशाही प्रवृत्ति का मूल यही है. और तुम को तो ऐसा सोचना भी नहीं चाहिए. तुम लोग तो स्वयं तानाशाही के पक्षधर हो.”
“अरे भई वह तानाशाही किसी व्यक्ति की नहीं होती.”
मैं हंसने लगा तो वह सकपका गया.
“पहले इस कटु सत्य को समझो कि मोदी एक विषेष ऐतिहासिक परिस्थिति की उपज है। इतिहास पुरुष है। उसे भारतीय जन समाज ने 2013 में तानाशाह के रूप में…”
“2013 में नहीं, 2014 में और तानाशाह के रूप में नहीं, भावी प्रधानमन्त्री के रूप में। तानाशाह वह खुद बनना चाहता है। जब तुम इतनी मामूली बातें भी नहीं समझ पाते तो …
मैंने उसे वाक्य पूरा करने ही नहीं दिया, “2014 में निर्वाचन हुआ और जनता पार्टी जीती। जनता ने तो 2013 में ही उपलब्ध तानाशाहों में से किसी एक को चुनना आरंभ कर दिया था – अडवानी को इतने नम्बर, राहुल को इतने, सोनिया को इतने, नीतीश को इतने और मोदी को इ-त-ने। एक बार नहीं, बार बार मोदी को इ-त-ने नम्बर मिलते रहे। जब किसी एक व्यक्ति को केन्द्र में रख कर पूरा चुनाव हो तो जीत या हार किसी दल की नहीं होती, तानाशाह की होती है।
“जनता का विश्वास कांग्रेस के कारनामों के कारण लोकतन्त्र से उठ गया था। वह तानाशाह चुन रही थी और मोदी को चुन लिया था। कर्मकांड 2014 में पूरा हुआ। कांग्रेस 2013 में मान चुकी थी कि वह हार गई और जल्दी जल्दी जो जर जमीन हथियाया जा सकता था उसे हथियाने पर जुट गई थी फिर भी एक आखिरी बाज़ी उसने लगाई, सबको भोजन का अधिकार. समाज ने समझा ‘सब कुछ खा जाने का अधिकार.’ उसने कांग्रेस को यह बता दिया कि देश-हित तुम्हारी प्राथमिकता नही. उसने उसे हराया नहीं धक्के देकर बाहर कर दिया, यह देश का बहुत बड़ा दुर्भाग्य है परन्तु इसके लिए ज़िम्मेदार कौन है,”
अकेली ऎसी पार्टी जिसका देशव्यापी जनाधार था, जो ही विकल्प बन सकती थी, उसने अपना नैतिक औचित्य खो दिया. वह हारी नही. लोकतंत्र में हार-जीत होती रहती है. कांग्रेस का सफाया हो गया फिर भी प्रबल शक्ति बन कर सत्ता में आई क्योंकि जिस विकल्प ने उसे सत्ता से बाहर किया था वह धँस गया. कोई दूसरा विकल्प ही न था. इस बार कांग्रेस हारी नही है, अपनी भ्रष्टता के कारण अपना नैतिक अधिकार खोकर धंस गई है और अब नेहरू परिवार से बाहर आकर भी अपने मलबे संभाल नही सकती. दुखद स्थिति है, पर है. क्या किया जा सकता है.
इसमें आशा की किरण एक ही है कि लोगों ने भले तानाशाह चुना हो, इस व्यक्ति को लोकतंत्र में इतना अडिग विश्वास है कि यह अपना विकल्प स्वयं पैदा करेगा. पर वह विकल्प या विपक्ष विकास की नीतियों से संचालित होगा, जाति और धर्म से नही.
“और जानते हो यह भी मोदी के कारण नही होगा, इतिहास के कारण होगा. पूंजीवादी विकास के कारण होगा. तानाशाही पूंजीवाद को रास नही आती. तानाशाही मध्यकालीन मनोवृत्ति है. मोदी को इसकी समझ है दूसरों को नही. वह बार बार इसकी याद दिलाते हैं कि यह लोकतंत्र की महिमा है की एक चाय बेचने वाला देश का प्रधानमंत्री बन गया. यह भारत में उभरते पूंजीवादी दबाव की भी महिमा है या नहीं?
“जनता ने भले तानाशाह चुना हो वह तानाशाह लोकतान्त्रिक बने रहने कि लिए संघर्ष कर रहा है, दुश्मनो और सगों दोनों से एक साथ लड़ता हुआ.”
11/2/2015 7:21:49 AM