Post – 2019-10-29

#इतिहास_की_जानकारी और #इतिहास_का_बोध (14)
एशियाटिक सोसायटी का लक्ष्य

भारत में जिस चरण पर कंपनी का प्रवेश हुआ उससे पहले भारत की दशा क्या थी, इसका चित्रण विल द्यूराँ ने निम्न शब्दों में किया है:
Nearly every kind of manufacture or product known to the civilized world – nearly every kind of creation of Man’s brain and hand, existing anywhere, and prized either for its utility or beauty – had long, long been produced in India. India was a far greater industrial and manufacturing nation than any in Europe or than any other in Asia. Her textile goods-the fine products of her looms, in cotton, wool, linen and silk-were famous over the civilized world; so were her exquisite jewelry and her precious stones cut in every lovely form; so were her pottery, porcelains, ceramics of every kind, quality, color and beautiful shape; so were her fine works in metal-iron, steel, silver and gold. She had great architecture-equal in beauty to any in the world. She had great engineering works. She had great merchants, great businessmen, great bankers and financiers. Not only was she the greatest ship-building nation, but she had great commerce and trade by land and sea which extended to all known civilized countries. Such was the India which the British found when they came. The case for India, 7
आरंभ में कंपनी भारत में खरीदे हुए माल को इंग्लैंड में पाँच गुनी कीमत पर बेचती थी। और फिर उसका इरादा बदला, क्यों न भारत पर ही कब्जा कर ले:
It was this wealth that the East India Company proposed to appropriate. Already in 1686 its Directors declared their intention to “establish ….a large, well-grounded, sure English -dominion in India for all time to come.” 8

जिस चरण पर विलियम जोंस का प्रवेश हुआ, उस समय तक बंगाल के उद्योग धंधों को नष्ट किया जा चुका था. जितने भाग पर कब्जा हो चुका था, उसमें लूटने के लिए अब मालगुजारी ही रह गई थी। जरूरत थी, यह पता लगाने की कि इसकी खनिज संपदा क्या है, वानस्पतिक संपदा क्या है, भारत के भीतर और भारत के बाहर किन-किन राज्यों को किस तरह कब्जे में किया जा सकता है।

उनका अध्ययन करना, उनकी कमजोरियों को समझना, जिस भाग पर कब्जा हो था उसकी अपनी कमजोरियों और शक्तियों को पहचानना, उसके कार्यक्रम का हिस्सा बन सकता था।

एशियाटिक सोसाइटी की स्थापना ब्रिटेन के इन्हीं उद्देश्यों की पूर्ति को ध्यान में रख कर, जरूरी अनुसंधान के लिए की गई, जिसका खाका जोंस ने अपने पहले व्याख्यान में खींचा था और सदस्यों काे इस दिशा में प्रोत्साहित करते हुए कहा था, …and you may not be displeased to follow occasionally the streams of Asiatic learning a little beyond its natural boundary और स्पष्ट किया था कि हमारा लक्ष्य साफ होना चाहिए, यही सोचकर उन्होंने ओरिएंटल, जिसका लोग अक्सर प्रयोग करते थे, की जगह एशियाटिक का चयन किया है।

यदि सौ साल पहले कंपनी का लक्ष्य भारत में एक बड़ा और स्थायी राज्य कायम करने का था, तो इस बीच की सफलताओं ने इसकी लालसा को उत्तेजित करके इस आकांक्षा को एशिया विजय तक पहुँचा दिया था और जोंस इस योजना के फलीभूत होने के सपने देख रहे थे। इन देशों को एक पर एक जीतते जाना कितना आसान था। कुछ समय बाद ही बर्मा और अफगानिस्तान का मोर्चा बिना किसी पूर्व योजना के नहीं खुला था।
भाषा, साहित्य, दर्शन और विधि-विधान का अध्ययन उनके दिमाग की बनावट को समझने और उसे नियंत्रित करने के लिए जरूरी था :If now it be asked, what are the intended objects of our inquiries within these spacious limits , we answer, MAN and NATURE; whatever is performed by the one, or produced by the other. Human knowledge has elegantly analysed according to the three great faculties of mind, memory, reason and imagination which we find constantly employed in arranging and retaining, comparing and distinguishing, combining and diversifying the ideas which we receive through our senses or acquire by reflection, hence the three main branches of learning are history, science and art.

नहीं, इतना ही पर्याप्त न था, उन देशों के लोग और विद्वान जो कुछ अपनी भौगोलिक, सामाजिक और धार्मिक सीमाओं में जानते हैं, उन्हें जानने और उनका इतना आधिकारिक ज्ञान रखने के लिए अपने मोर्चे स्वयं तय करने के लिए उकसाया जा रहा था, कि वे उन उन देशों, समाजों का जो कुछ अनोखा है, जो कुछ ग्राह्य हो उसे ग्रहण करके, उसमें अपना जोड़कर उनके ऊपर धाक जमाई जा सके और उनके विशेषज्ञों को भी अपने औजार के रूप में काम लाया जा सके:
You will investigate whatever is rare in the stupendous fabric of nature; will correct the geography of Asia by new discoveries; will trace the annals and even traditions of those nations, who from time to time have peopled or desolated it; and will bring to light the various forms of government, with their institutions civil and religious; you will examine their improvements and methods in arithmetic and geometry, in trigonometry, mensuration, mechanics, optics, astronomy, and general physics; their system of morality, grammar, rhetoric, the dialectic; their skill of surgery and medicine, and their advancement, whatever it may be in anatomy and chemistry.

हमने अपनी पड़ताल में पाया था कि विलियम जोंस असाधारण प्रतिभा के व्यक्ति थे, उनका ज्ञान सराहनीय था, जिसमें और कुछ जोड़ा जा सकता है तो यह कि उनके द्वारा अपनी और यूरोपीय श्रेष्ठता के बचाव के लिए ऐसे तर्क काम मे लाए जा सकते थे जिनकी विश्वसनीयता सुलझे दिमाग के लोगों के बीच भले नगण्य हो, परंतु अपने लक्ष्य को हासिल करने के लिए जिनको हथियार के रूप में काम मेे लाया जा सकता था और वह स्वयं ला रहे थे, जब कि वह उनमें विश्वास नहीं करते थे जो ऊपर उद्धृत वाक्य के एक अंश the annals and even traditions of those nations से समझा जा सकता है। इसके दो तरह के अर्थ लगाए जा सकते हैं जिनके विस्तार में जाना नहीं चाहेंगे।

अब यदि इस पृष्ठभूमि में इस बात पर ध्यान दें कि वह वस्तुस्थिति की पूरी जानकारी से पहले से ही एक निर्णय पर पहुंच चुके थे, कि उन्होंने भारत में पहुंच कर अपना फैसला पहले सुनाया, जानकारी बाद में जुटानी आरंभ की, तो इस कड़वे यथार्थ पर ध्यान गए बिना नहीं रह सकता है कि वह एक न्यायाधीश थे, न्याय प्रक्रिया पर उन्होंने निबंध लिखे थे फिर भी उन्होंने निर्णय प्रक्रिया को उलट क्यों दिया? कोई भी निर्णय वह अपनी पड़ताल पूरी करने से पहले नहीं कर सकते थे। इसे कदाचार कहते हैं। इस प्रक्रिया से न्याय संभव नहीं, परंतु परंतु अन्याय की हिमायत करते हुए उसे ही न्याय सिद्ध करने का काम किया जा सकता था।

हम पहले इस बात का संकेत कर आए हैं कि इतने लंबे समय तक वह यूरोप के संवेदनशील लोगों को आत्मग्लानि में पड़े रहने नहीं देना चाहते थे। वह भारत को यूरोप की जरूरत के अनुसार देखना और दिखाना चाहते थे इसलिए जहाँ वह भारत के प्रति उदार दिखाई देते हैं वहां भी केवल इतने ही उदार हो सकते थे, जितना उनकी अपनी परंपरा को विशेषतः ग्रीस को भारत का ऋणी न सिद्ध होना पड़े।

वह कृपालु भाव से भारत की कुछ अच्छाइयों को देखने को तैयार थे। इसलिए, हम उन्हें यह रियायत दे सकते हैं कि उनका पक्का विश्वास था कि वह पहली नजर में जिस नतीजे पर पहुँचे हैं, वह सही है। कमी है तो सबूतों की; वे मिल कर रहेंगे। छानबीन आरंभ की अरब से, यह सिद्ध करने के लिए कि इस्लाम से पहले अरबों का भारतीयों से और भारतीयों का अरबों से कोई संबंध नहीं था, परन्तु अपने अध्ययन के दौरान यह पा कर कि भारतीय धर्म और विश्वास का उस पर गहरा प्रभाव था, पहले तो इसे नकारते रहे, पर बाद में और कोई चारा न रह जाने पर यह मानने को बाध्य हुए कि यह भी उस स्रोत से आया होगा जिससे भारत में इसका प्रवेश हुआ।

यहाँ वह अपने ही जाल में फँस गए थे। जहाँ वह उस जननी भाषा की तलाश कर रहे थे वहाँ उस लुप्त धर्म और विश्वास के भी चिन्ह पाए जाने चाहिए थे, ग्रीस और रोम में भी उसे पहुँचना चाहिए था जिसकी जानकारी जोंस को नहीं थी। पर विलियम जोन्स निरुत्तर हो सकते थे, हार नहीं सकते थे।

ओलिवर गोल्डस्मिथ के नाटक She Stoops to Conquer की याद आती है जिसका पहली बार लंदन में मंचन 1773 में हुआ था और जिसे जोन्स ने देखा भी होगा। नाटक एक कॉमेडी था और अतिसुधी भारतीय विद्वानों ने उनके लेखन को उसी रूप में ग्रहण किया, यह ट्रैजिओ कॉमेडी था इसे हम बता रहे हैं जिसकी कोई सुनता ही नहींं।

Post – 2019-10-28

जिस जमीं को जमीं समझता था
कल यह पाया कि आसमान में है
जिसकी ऊँचाइयों से डरता था
मेरी जमीं के पायदान में है।।

Post – 2019-10-28

इतने सारे रवीन्द्र नाथ
आप को पता होगा टैगोर ने सर की उपाधि जलियां वाला बाग की घटना के बाद लौटा दी पर उस बिभीषिका का अनुमान न हो। विल द्यूराँ के शब्दों में हम इसे नीचे देने से पहले उनकी बराबरी में आने के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार (ध्यान रहे, टैगोर ने नोबेल प्राइज वापस न की थी),लौटा दिया था। किसी को दुविधा न रह जाय इसलिए सीताराम येचुरी ने हाल ही इसको दुहरा भी दिया था। जो लोग मोदी को मामूली नेता मानते हैं उन्हें याद रखना चाहिए कि वह एक झटके में सैकड़ों टैगोर पैदा करने का कारनामा कर चुके हैं।
अब आप उस त्रासदी का हाल पढ़ सकते हैं:

Post – 2019-10-27

#इतिहास_की_जानकारी और #इतिहास_का_बोध(14)
पुनरवलोकन
[किसी भी कारण विषय से हट जाने पर उस पर वापस आना कितना कठिन होता है। आगे की धारा ही सूख जाती है। तीन दिन से लगातार कोशिश के बाद:
दिवाली के दिन राह पर आ गए

अभी तक हम जो कुछ देख आए हैं उसे सार रूप में दोहराते हुए ही इस कड़ी को आगे बढ़ाया जा सकता है। हमने विलियम जोंस के विषय में अपनी बात जिस तरह रखी है उसे पढ़ते हुए, तनिक भी शिथिलता बरती जाए तो, लगेगा भारत से बाहर संस्कृत की जड़ों की तलाश करते हुए वह ढोंग रच रहे थे। यह उनके प्रति अन्याय होगा।
वह इंग्लैड में रहते हुए ही तीन बातों के विषय में पूरी तरह आश्वस्त प्रतीत होते हैं:
1. यूरोप के लोग भारतीयों की संतान नहीं हो सकते और न ही यूरोप पर कभी भारत का शासन था।
2. भारत में संस्कृत बोलचाल की भाषा न तो है न कभी थी, यह कुछ शिक्षित ब्राह्मणों की भाषा है, अतः यह भाषा उनके साथ कहीं अन्यत्र से भारत में पहुँची होगी।
3. फारसी भाषा पर उनका बहुत अच्छा अधिकार था और संस्कृत से जिस तरह समानता की बातें की जा रही थीं, लातिन और ग्रीक से उस तरह की समानता, उन्होंने फारसी सीखते समय स्वयं ही अनुभव की होगी, अतः यह मान बैठे थे कि ऐसा केंद्र जहां से संस्कृत भाषा का प्रसार हुआ हो फारस हो सकता है।
इस प्राक्कल्पना का सिद्धांत रूप में प्रतिपादन करने के लिए संस्कृत का कामचलाऊ ज्ञान अपेक्षित था। मन में पहले से रहा होगा कि भारत पहुंच कर, संस्कृत की जानकारी हासिल करके, वह इस समस्या का वारा न्यारा कर देंगे और अपने तीसरे व्याख्यान में उन्होंने ऐसा ही किया भी।
उन्होंने इसका जो खाका अपने दिमाग में बनाया था, या भाषाओं के जिस परिमंडल की कल्पना की थी, उसके केंद्र की भाषा से ही परिमंडल की भाषाएँ शक्ल ले सकती थीं, अर्थात् फारस में ही वह जननी भाषा हो सकती थी जिससे एक ओर लातिन और ग्रीक और दूसरी ओर संस्कृत पैदा हो सकें।
भारत में पहुँचने और संस्कृत सीखने के क्रम में पुराना खाका गड़बड़ा गया।
उन्होंने पाया संस्कृत को ब्राह्मण देववाणी कहते हैं अर्थात् देवताओं की भाषा। इसने आदम की कहानी को जाग्रत कर दिया। आदम तो संस्कृत नहीं बोलते रहे होंगे, लेकिन हो सकता है वह भाषा संस्कृत और हिब्रू के बीच की, सभी तरह से संपन्न और पूर्ण भाषा रही हो जिससे संस्कृत हिब्रू अरबी सभी निकली हों।
हमें यह प्रस्ताव दूर की कौड़ी प्रतीत हो सकता है क्योंकि यह विश्वास नहीं होता कि वह भाषा के पिछले चरण को इतने पीछे ले जा सकते थे। परंतु पौराणिकता में विश्वास के उस युग में, और जिस उलझन में विलियम जोंस पड़ गए थे, उसमें, ऐसा मान लेना बहुत स्वाभाविक था। उन्हें दूसरा कोई रास्ता दिखाई नहीं दे रहा था।
मन में यह विश्वास पैदा होना एक बात है, किंतु तर्कों और प्रमाणों से इसे
सिद्ध कर पाना इतना कठिन था कि इस का प्रस्ताव करते हुए वह हमें हास्यास्पद प्रतीत होते हैं।
हिंदुओं के विषय में सरसरी नजर डालने पर इस नतीजे पर पहुंचते हैं, कि प्राचीन पारसियों, इथोपियाइयों, मिस्रियों से; फिनिशियनों, यूनानियों, और तुस्कानो से; सीथियनों या गॉथों और केल्टो से; न्यू चीनियों जापानियों और पेरू वासियों से अनंत काल से आत्मीयता थी। यह मानने का कोई कारण ही नहीं है की भारत में इनमें से किसी ने अपना उपनिवेश आई एम किया था या भारत में इनमें से किसी को हिंदुओं ने अपना उपनिवेश बनाया था। इसलिए हम पूरे और चित्र के साथ यह नतीजा निकाल सकते हैं यह सभी किसी ऐसे देश से निकल कर वहां पहुंचे जो इनके बीच में पढ़ता था। वह देश कौन सा था इसी की जांच करना हमारे अगले व्याख्यान का विषय होगा। Of these cursory observations on the Hindus, … this is the result: that they had an immemorial affinity with the old Persians, Etheiopeans, and Egyptians; the Phoenicians, Greeks, and Tuscans; and Scythians or Goths, and Celts; the Chinese, Japanese and Peruvians; whence , as no reason appears for believing that they were a colony from any one of those nations, or any of those nations from them, we may fairly conclude that they all proceeded from some central country, to investigate which it will be the object of my future discourses.
बीटीसी जानकारी के बल पर उन्होंने बचते हुए टिप्पणी की थी कि स्टेटस संस्कृत, लातिन और ग्रीक में यू से निकटता है, “कोई भाषाशास्त्री क्या माने बिना रह ही नहीं सकता सभी एक ही स्रोत से , शायद आज अस्तित्व ही नहीं रह गया है, निकली भाषाएं हैं। that no philologer could examine them all three, without believing them to have sprung from some common source, which, perhaps, no longer exists; (Third Anniversary Discourse).
समस्या सुलझने की जगह अधिक जटिल हो गई थी, परंतु भाषा-शास्त्र की समस्या सुलझाने के लिए अब पौराणिक दृष्टि भी सेवा में उपस्थित थी इसलिए जोंस को भरोसा था कि इसे वह बाद में निपटा अवश्य लेंगे।
भाषा यह वह थी जो अपनी पूर्णता के साथ आदम के साथ उतरी थी और वही महाप्लावन से पहले अपनी शुद्धता में बोली जाती थी। बाद में यह नोआ की संतानों के साथ पूरी दुनिया में फैली। उसी मूल से सभी भाषाएँ निकली हैं। नोआ की संतानों की भाषा आरंभ में इतनी अलग न रही होगी। समाधान यही बचता था, पर परंतु अभी उसका नाम ले नही सकते थे ।
अब जहाँ तक चीन और जापान का प्रश्न है विलियम जोन्स को पक्का पता था कि इनमें भाषा और सभ्यता भारत से ही पहुंची है: Believe, by Menu, the son of Brahma, we find the following curious passage: “Many families of the military class, having gradually abandoned the ordinances of the Veda, and the company of Brahmens, lived in a state of degradation, as the people of Pundraca and Odra, those of Dravira and Camboja, the Yavanas and Sacas, the pāradas and the Pahlavas, the Chinas and some other nations”
मुझे मालूम है इससे आपको संतोष नहीं हुआ होगा, इसलिए दोबारा समझने का प्रयत्न कीजिए:
…now the ancestor of that military tribe, whom Hindus call Chandravansa, or the Children of the Moon, was according to their Purānas or legends, BUDH, or the genius of planet Mercury, from whom, in the fifth degree descended a prince named DRUHYA; whom his father YAYATI sent in exile to the east of Hindustan, with this imprecation, “may thy progeny be ignorant of the Veda.” This name of the banished king could not be pronounce by the Chinese; and, though I dare not conjecture, that the last syllable of it has been changed into YAO, was the fifth in descent from FO-HI, or at least the fifth mortal in the first imperial dynasty; that all the Chinese history before him is considered, by the Chinese themselves as poetical or fabulous; his father TI-CO, like the Indian king YAYĀTI, was the first prince who married several women, and that FO-HI, the head of the race appeared, say the Chinese. In a province of the west, and held his court in the territory of Chin, where the rovers, mentioned by the Indian legislator, are supposed to have settled. Another circumstance in the parallel is very remarkable: according to father DE PREMARE, in his tract on Chinese mythology, the mother of FO-HI was the daughter of the Heaven, surname flower-loving, and as the nymph was walking alone on the bank of a river, with a similar name, she found herself on a sudden encircles by a rainbow; soon after which she became pregnant, and at the end of twelve years was delivered of a son radiant as herself, who, among other titles, had that of SŪI, or the Star of the Year. Now in the mythological system of the Hindus, the nymph Rohinī, who presides over the fourth lunar mansion, was the favourite mistress of Soma, of the SOMA, or the MOON, among whose numerous epithets, we find Cumudanāyaca or Delighting in a species of water flower,that blossoms at night; and their offspring was BUDH, regent planet, and called also, from the name of his parents, RAUHINEYA or SAUMYA: …they seem to have a family likeness. The GOD BUDHA, say Indians, married ILA, whose father was preserved in a miraculous ark from an universal deluge.
जहाँ तक जापानियों की बात है:
And it is reasonable to believe that the people of Japan, who were originally Hindus of the martial class and advanced farther eastward than China, have, like them, insensibly changed their features and characters by intermarriages with various Tartarian tribes, whom they found loosely scattered over their isles.
इसी समझदारी मान्य बनाने थे विलियम जोंस सर विलियम जोन्स और ऐतिहासिक और तुलनात्मक भाषा विज्ञान के जनक। जन्मदाता उद्विग्न, संतान विक्षिप्त, परंतु उस चालाकी के साथ जिसके लिए शेक्सपियर ने मेथड इन मैडनेस मुहावरे का आविष्कार किया था।
आज की शाम जुगनुओं के नाम
जो अँधेरों से ठान लेते हैं ।#इतिहास_की_जानकारी और #इतिहास_का_बोध

Post – 2019-10-26

यूँ भी आते परिन्दों से फड़कते हुए शेर
कहूँ, ‘रुको’, तो वे कहते हैं कि ‘लानत है तुझे।।’

Post – 2019-10-26

मरने के लिए मैने क्या वक्त चुना यारो
तुम मुझपर और दुनिया तुम सब पर हँस रही है।

Post – 2019-10-26

क्या कहें? किससे? कौन सुनता है?
अपने से खुद सवाल करता हूँ।
बेनियाजी पर आप के साहब
मिले फुर्सत तो गौर करता हूँ।

Post – 2019-10-26

जी में तो मेरे आया, उस शोख को समझाऊँ
यह भूल हुई होती, जिंदा न रहा होता।।

Post – 2019-10-25

देखिए हाल क्या है गुलशन का!

मेरी चिंता के केंद्र में है भारत की #मानसिक_गुलामी। आक्रोश उस बौद्धिक नपुंसकता पर आता है, जिसमें अपने को बौद्धिक समझने वाले अपनी हैसियत के अनुसार इसके आढ़ती, वितरक और खुदरा व्यापारी के रूप में काम करते दिखाई देते हैं, क्योंकि इसमें मुनाफा सबसे अधिक है। श्रम नहीं करना पड़ता, श्रम करने की जिम्मेदारी उन देशों की है, जो हमें गुलाम रखना चाहते थे, या रखना चाहते हैं। वे स्वयं भी कुछ कर सकते है, इसका विश्वास ही नहीं। इनकी पीड़ा उनके सत्ता से बाहर कर दिए जाने की है जिसके होने से इनको भी अपने कुछ होने का एहसास हुआ करता था।

फेसबुक पर लिखने का फैसला इस प्रलोभन में किया था कि इस पर लिखा हुआ वायरस के प्रभाव से मुक्त रहेगा। समकालीन घटनाओं और गतिविधियों पर लिखने की सोच भी नहीं सकता था, क्योंकि उनके लिए एक अलग तरह की तैयारी की जरूरत होती है। यहां तक कि उसकी भाषा, मुहावरे, और शैली सभी में भिन्नता होती है। उस अनुशासन से गुजरे बिना कोई व्यक्ति मात्र की इच्छा से वैसा लेखन नहीं कर सकता ।

इसके अतिरिक्त, अपने लेखन के लिए उनका दबाव भी अलग होता है। यथार्थ को वे ही अधिक निकटता से जानते हैं और उनकी संचार क्षमता अन्य लेखकों की तुलना में अधिक होती है। दुनिया के 4 ऐसे पत्रकारों को मैं जानता हूं जिन्होंने किसी दार्शनिक की तुलना में अपने पाठकों को अधिक गहराई से प्रभावित किया है और उनमें से तीन ने तो दुनिया को बदला भी है। इनमें मूर्धन्य है लायड गैरिसन, दूसरे हैं कार्ल मार्क्स, तीसरे हैं मोहनदास करमचंद गांधी और चौथे हैं हॉब्सबाम। मेरे पास तैयारी के लिए न तो समय था, न योग्यता, न ही पत्रकारिता की दुनिया में अपनी जगह बनाना चाहता था, न लिखना चाहा।

ऐसा लेखन जिसे राजनीतिक भी कहा जा सकता है, पहली बार फेसबुक पर उस समय करना जरूरी लगा कि मुझे नागरी प्रचारिणी सभा और साहित्य सम्मेलन पर कब्जा करके उन्हें नष्ट करने वालों के इतिहास पता था। उनकी रक्षा के लिए मैं कुछ नहीं कर सकता था, परंतु एकमात्र बच रही राष्ट्र का गौरव समझी जाने वाली संस्था पर,उन्हीं लोगों के द्वारा प्रहार किया जा रहा है, जिनको उसने सम्मानित किया था, वह भी पर्याप्त कारण के बिना, इसलिए मुझे उनकी आलोचना करने का कार्यभार निभाना पड़ा था। उसके विस्तार में न जाएंगे।

मेरी जानकारी में मेरे मित्रों के साथ मेरा संबंध व्यक्तिगत स्तर पर पारस्परिक सम्मान का है और वैचारिक स्तर पर घोर विरोध का। चिंता के केंद्र में एक ही विषय रहता है। हमारे देश और समाज का हित किस तरीके से हो सकता है। इसे समझना जरूरी है।

मान लीजिए आपकी मां को उदर-विकार है।आप कहते हैं कि इसके लिए देसी दवा ठीक रहेगी। दूसरे पश्चिमी वैज्ञानिक सफलता के इतने कायल हैं कि वह ठान लेते हैं कि एलोपैथिक ही काम करेगी। एलोपैथिक उपचार के बेकार हो जाने के बाद भी, वे पश्चिमी, (ईसाई) झाड़फूँक के लिए तो तैयार हो जाते हैं परंतु आयुर्वेदिक चिकित्सा का निरंतर विरोध करते हैं। आप इस इस चरण पर देसी दवा पिला देते हैं, और मां स्वस्थ हो जाती है, इसे देखकर भी वे मानने के लिए तैयार नहीं कि इस चिकित्सा से स्थाई लाभ हुआ है। वे उसी मां को चारपाई से उठ कर चलते, हंसते ,बोलते देख कर भी विश्वास नहीं कर पाते कि यह उसके लिए आगे भी हितकर है। इसके साथ या जोड़ दिया जाए कि यह आदर्श स्थिति है मातृ- भक्ति की।

परंतु यदि किसी घटनावश आपको पता चले कि आपके वे भाई जो एलोपैथी के मुरीद थे उनका ध्यान मां को नीरोग रखने से अधिक उस दवा से मिलने वाले कमीशन पर था जिसे वे पूरे परिवार से वसूल कर रहे थे, तो झटका लगेगा। ग्लानि होगी। जानते हुए भी विश्वास नहीं होगा कि कोई ऐसा भी कर सकता है।

इसका प्रमाण मुझे दो अवसरों पर मिला। पहली बार हड़प्पा सभ्यता और वैदिक साहित्य लिखने के बाद, जब मैंने यह उम्मीद की थी कि सही इतिहास जानने के बाद हमारे प्रतिष्ठित विद्वान अपना दृष्टिकोण बदल लेंगे। उनके पास किसी चीज का जवाब नहीं था, किसी स्थापना का खंडन नहीं कर सकते थे, इसलिए उन्होंने जो हथकंडे अपनाए उनसे पता चला कि इससे पहले किन तरीकों से उनसे एक खास तरह का इतिहास लिखवाया जा रहा था।

दूसरी बार 4 साल पहले जब कलबुर्गी की हत्या होने पर। यदि किसी को उह हत्या में किसी प्रकार की शिथिलता के लिए जिम्मेदार मानना ही था, तो उस समय उस राज्य की कांग्रेस सरकार को मान सकते थे। उसे दोष देने की जगह पुरस्कार वापसी अभियान चलाते हुए यह उम्मीद पाली गई कि इससे असाधारण जनमत वाली केंद्रीय सरकार भी गिराई गिराई जा सकती है । शेखचिल्ली के सपनों के बारे में सुना था, देखने का अवसर पहली बार मिला और इसलिए विरोध करने के लिए मैंने पहली बार राजनीतिक विश्लेषण करते हुए इस मूर्खता को उजागर करने का संकल्प लिया।

जिस व्यक्ति से यह सिलसिला आरंभ हुआ था उसके विषय में मैंने जो धारणा बना रखी थी वह यह कि वह आत्मविज्ञापन के लिए कुछ भी कर सकता है।

परंतु मेरा ऐसा सोचना गलत था। अभी 1 हफ्ते पहले एक प्रामाणिक स्रोत से पता चला कि किसी दूसरे व्यक्ति ने हत्या की सूचना देते हुए उसे यह सुझाया था कि कलबुर्गी साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त विद्वान थे इसलिए अकादमी पुरस्कार-प्राप्त साहित्यकार होने के नाते अपना विरोध दर्ज करते हुए उसे अपना पुरस्कार वापस कर देना चाहिए। इसके उत्तर में उसने कहा था, यह तो बहुत बेतुकी बात है। जिस व्यक्ति ने यह सुझाव रखा था, उसकी कोई साहित्यिक हैसियत नहीं, फिर भी, ऐसा करना गलत है,, यह जानते और मानते हुए भी, उसने इसकी घोषणा की और उसके बाद जिनके सामने यह प्रस्ताव पहुंचा सभी की पहली प्रतिक्रिया यही थी, फिर भी सिलसिला जारी रहा।

यहाँ मैंने इस सवाल को इसलिए उठाया कि हमारा बौद्धिक नेतृत्व जिनके हाथ में है, वे यह जानते हुए कि कोई काम गलत है मामूली से मामूली बहकावे में आकर उसे कर ही नहीं सकते हैं, एक एक कर सभी उससे जुड़ते हुए यह भ्रांति पैदा कर सकते हैं, कि वे इस हत्या को केन्द्र सरकार द्वारा स्वतंत्र विचार का दमन मानते हुए इल विश्वास विरोध कर रहे हैं कि इस तरीके से वे व्यवस्था को बदल सकते हैं।

दुनिया के किसी देश को क्या झुंड की मानसिकता (HERD INSTINCT) से ग्रस्त ऐसा बदहवास बुद्धिजीवी वर्ग मिला होगा जो हमें मिला है, और वह, आए दिन, जिस तरह का तूफान खड़ा करता रहता है उससे उस देश और समाज का कितना नुकसान हो सकता है, जिसको दूसरों से अधिक प्यार करने के दावे वह करता रहता है! गलतियाँ किसी से हो सकती हैं, पर यह जानते हुए कि यह गलत है, अपने तुर्रे और तमगे दिखाते हुए इकट्ठा होने वालों की इतनी विशाल भीड़ इतिहास का अजूबा है जैसा न पहले हुआ न अन्यत्र कहीं हो सकता है, पर भारत के विषय में यह दावा नहीं किया जा सकता।