Post – 2019-09-29

रामकथा की परंपरा (29)
लंकाविजय

लंका का शाब्दिक अर्थ है द्बीप। लक्का, मलक्का उसी के उच्चारभेद हैं। यदि कोई किसी नदी के द्वीप (दीयर)को लंका कहे तो मुझे हैरानी न होगी, जैसे चक और चकिया (जिसके चारों ओर पानी हो) के लिए इसका प्रयोग देखकर) । गोरखपुर जनपद में उसका एक अधिक सुलझा स्थान नाम राप्ती के किनारे है चारपानी। इसी नाम का प्राचीन स्थल है चौपानीमंडो (It is situated in Belan river valley in modern Allahabad district of Uttar Pradesh state, India. A three phase sequence of palaeolithic, Mesolithic and Neolithic is attributed by archaeologists. विकीपीडिया) इन्हे कोई लंका माने तो इन गाँववालों को भले आपत्ति हो, मुझे न होगी।

यदि लंका और हाल में श्री लंका के लिए यह संज्ञा रुढ़ है तो अर्थतः अनेक द्वीपों के बीच वह लंका तो वही हो सकती है जिसे कुछ दिन पहले तक अंग्रेजी में सीलोन कहा जाता था। यदि रामसेतु के विषय में हमारी पीछे की व्याख्या सही है, अर्थात् मूंगे की दीवार के ऊपर मरम्मत करते हुए एक राजमार्ग बनाया गया था और यह लोह युग के महापाषाणी शिल्पियों के द्वारा बनाया गया था, और राम की पहल पर बनाया गया था, तो इतना प्रयत्न करने के बाद भी यदि राम श्रीलंका में प्रवेश न करते तो उनकी बुद्धि पर तो तरस आता ही, अपनी बुद्धि पर भी तरस आता।

हम यह सुझा आए हों कि सीता के हरण की कहानी, मायामृग की कहानी, सोने की लंका के दहन की कहानी, सीता की खोज ये सभी ऋग्वेद के आख्यानों से प्रेरित हैं। राम को ऐतिहासिक कहानी में अपनी पत्नी के साथ निर्वासन मिला भी हो तो अपहरण की कहानी उतनी ही गढी हुई है जितनी सीता का रामद्वारा परित्याग।

क्या इसके पीछे वर्षा की अनिश्चितता के कारण किसी समूह का यह विश्वास हो सकता है कि यदि वे चारों ओर से समुद्र से घिरे हुए देश में पहुंच जाएँ तो उन्हें जल संकट का सामना नहीं करना पड़ेगा? आप ध्यान दें कि श्रीलंका में प्रवेश करने और उसके अंतिम छोर तक पहुंचने से पहले उन्हें इस बात का भान भी नहीं हो सकता था कि लंका समुद्र से घिरा हुआ है। मैं तार्किक औचित्य का उल्लंघन कर गया, और इस तर्क को निरस्त करता हूँ फिर भी लंका की अपनी परंपरा के अनुसार भी राम ने लंका में प्रवेश किया था और उनसे जुड़े हुए अनेक स्थान ब्राह्मणवादी प्रभाव से मुक्त श्रीलंका में आज तक सुरक्षित है और उन्हें इस रूप में याद किया जाता है।

एक दूसरा पक्ष । यद्यपि बौद्ध साहित्य में बौद्ध धर्म से पहले श्रीलंका के निवासियों को यक्ष-रक्ष के रूप में ही चित्रित किया गया है, परंतु अशोक अपने पुत्र और पुत्री ( महेंद्र और संघमित्रा को) हैवानों के बीच नहीं भेज सकते थे। उन्होंने अपने पुत्र और पुत्री को सिंहल में तब भेजा था जब वहाँ एक राज-व्यवस्था कायम थी और यह कृषि के आधार के बिना संभव न था। संघमित्रा महान मौर्य सम्राट अशोक की पुत्री थी जिसे अशोक ने अपने पुत्र महेन्द्र के साथ श्रीलंका (सिंहलद्वीप तथा ताम्रपर्णी के नाम से भी ज्ञात) में बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए भेजा था।

हम इस तथ्य को रेखांकित करना चाहते हैं कि बौद्ध धर्म के प्रवेश से पहले दक्षिण भारत की तरह श्री लंका के अनेक जनों ने किन्हीं कारणों से कृषि कर्म न अपनाया हो, परंतु एक भाग ऐसा था जो कृषि कर्म से जुड़ा हुआ था और जिसके कारण ही श्रीलंका में सभ्यता का प्रचार हो चुका था। यह काया-पलट कब हुआ, कैसे हुआ यह एक रहस्य ही बना रह जाएगा, यदि हम बौद्ध मत के प्रवेश से पहले के प्रेरणा स्रोत की तलाश न कर सके। लौटने पर केवल राम और उनके द्वारा कृषिकर्म का प्रचार और प्रसार ही देखने को मिलता है।

आज श्रीलंका में तमिल भाषी जनों की प्रभावशाली उपस्थिति है। श्रीलंका की भाषा पर तमिल का प्रभाव नहीं दिखाई देता। महेंद्र और संघमित्रा जिस साहित्य और संदेश के साथ श्रीलंका में पहुंचे थे वह पाली में निबद्ध था और इसके कारण श्रीलंका में पाली भाषा का प्रभाव पड़ा। मुझे यह बात उलझन में डालती रही है कि कन्नड़ का प्रभाव श्रीलंका के नामों पर कैसे पड़ा, पाली के प्रभाव का निषेध करते हुए जिस बोली का प्रभाव कन्नड पर है उस बोली के लोगों की ही प्रमुखता राम के साथ प्रवेश करने वालों मे भी माननी होगी।

राम के निर्वासन की निश्चित भौगोलिक पहचान नासिक या महाराष्ट्र की है यहीं से महापाषाणी संस्कृति का दक्षिण भारत में प्रसार देखने में आता है। इससे आगे ही कन्नड क्षेत्र में उनको सीता या कृषिभूमि (सीता) के अन्वेषी मिलते हैं और संभव है श्रीलंका में कृषि और सभ्यता के प्रसार में उनकी विशेष भूमिका रही हो।

Post – 2019-09-28

रामकथा की परंपरा (28)
कई तरह के रामसेतु

रामसेतु कई हैं। एक जिसका निर्माण राम के अकेले बल-बूते पर, कृषिकर्म के प्रसार के माध्यम से करते हैं। दूसरा वह जिसे रामसेतु कहा जाता है और जिसको ले कर कई तरह के अतिवैज्ञानिक और अवैज्ञानिक दावे किए जाते हैं और जिससे राजनीति और भूगर्भ-विज्ञान के बीच भी एक काल्पनिक सेतु बनता है। इसके प्रभाव में बहुत सारे लोग आ जाते हैं, जिनमें से कुछ खासे जानकार होते हैं। हम इसकी चर्चा अंत में करेंगे।

राम आश्रय की तलाश में कई ऋषियों के पास जाते हैं, मतंग को छोड़ कर ये सभी बाद में घुसाए गए और ऋग्वेद से लिए गए हैं। ऋग्वेद के शरभ (पारावतं यत् पुरु सम्भृतं वसु अपावृणोः शरभाय ऋषिबन्धवे।। 8.100.6) के नाम को शरभंग कर दिया गया है, वसिष्ठ का दन्त्य तालव्य हो कर वशिष्ठ बन गया है। उनके साथ विश्वामित्र, गोतम, भरद्वाज, अत्रि, अगस्त्य सभी ऋग्वेद से लिए गए हैं और जाबालि छान्दोग्य उपनिषद से। जाबालि चित्रकूट में राम-भरत संवाद में (रा.2.108) भौतिकवादी सोच के प्रवक्ता के रूप प्रस्तुत किए गए है जिससे राम के द्वारा बुद्ध और बौद्ध मत की भर्त्सना कराई जा सके, और अन्तःक्षेप करने वालों को इस बात का भी ज्ञान या ध्यान नहीं कि बुद्ध राम के बहुत बाद पैदा हुए। जाबालि को ही इसके लिए इस कारण चुना गया क्योंकि उनके गुरु के नाम में भी गोतम आता था।

फिर भी जिन ऋषियों के पास राम को आश्रय के लिए पहुँचा दिखाया गया है उनको हम सभ्य समाज से जुड़े एकान्त सेवियों का प्रतिनिधि मान सकते हैं, परंतु इनमें से किसी में इतना साहस नहीं कि राम को आश्रय देने का खतरा मोल ले सकें। वे वर्णवादी/पुरुषवादी मूल्यों का उपदेश दे सकते हैं (दुःशीलः कामवृत्तो वा धनैः वा परिवर्जितम्, स्त्रीणां आर्य शवभावानां परमं दैवतं पतिः। , और इसीलिए उनके पास राम को भेजा गया है, पर वे उन्हें आश्रय नहीं दे सकते। उल्टे राम से कहा जाता है: एष पंथा महर्षीणां फलानि आहरतो वने। अनेन तु वनं दुर्गं गन्तुं राघव ते क्षमम्। और अब निरुपाय राम उन्हें राम राम बोल कर अरण्य में प्रवेश करते हैं:
इतीः इतिः प्रांजलिभिः तपस्विभिः द्विजैः कृतस्वस्त्ययनः परंतपः।
वन सभार्यः प्रविवेश राघवः सलक्ष्मणः सूर्य इवाभ्रमंडलम्।।

राम की सुरक्षा उन लोगों के सौहार्द पर निर्भर करती है जिनके बीच उन्हें रहना है। अकेला व्यक्ति जो स्वयं अपनी सुरक्षा के लिए इधर उधर भटक रहा है शस्त्र बल से राक्षसों का संहार कर देगा, यह तो असंभव को संभव करने का कारोबार करने वाले ही सोच सकते हैं। परंतु होता तो वही है जो संभव है।

हम यह मान सकते हैं की पिछड़े हुए जन धनुष-बाण से शिकार नहीं करते थे। वे शिकार, फँसाते या घात लगा कर पकड़ा करते थे। कृषि पूर्व के चरणों से बकरी आदि के जो अस्थि अवशेष मिलते हैं वे शावकों के हैं। इसके पीछे यही कारण हो सकता है।

यदि यह मान भी लें कि वन्य जन धनुर्विद्या से परिचित थे तो भी राम लोह युग की उपज हैं, और इस मायने में अपने अविकसित शिलीमुख (पत्थर की नोक वाले), रुरुशीर्ष्ण (सींग की नोक वाले) बाणों का प्रयोग करके शिकार करने वालों की तुलना में उन्हें अपने लोहाग्र शायकों (एक ही आघात में धराशायी कर देने वाले) बाणों का कुछ लाभ मिल सकता था। अपने आखेट का वनचरों से साझा करके वह उनसे आसानी से आत्मीयता और सम्मान दोनों प्राप्त कर सकते थे।

वह इतने शराग्र लेकर नहीं चल सकते थे कि लंबे समय तक काम आ सकें इसलिए यह संभव है कि महापाषाणी जनों के भी संपर्क में रहे हों। हम कल्पना के आधार पर जो चित्र बना रहे हैं उसमें आदिम जनों को प्रथम संपर्क में ही न तो वह कृषि के लिए प्रेरित कर सकते थे न ही स्वयं किसी पैमाने पर कुछ उगा कर इसका उदाहरण प्रस्तुत कर सकते थे।

संपर्क साधने, उनकी भाषा सीखने, उनसे मेलजोल बढ़ाने के बाद ही यह संभावना पैदा हो सकती थी कि वह उन्हें इस दिशा में प्रोत्साहित करें और इसमें समय लगा होगा। परंतु यह तय है कि भाषा के ज्ञान और गहन संपर्क के बाद ही वह उनकी वर्जनाओं को शिथिल कर सकते थे और खेती के लिए प्रेरित कर सकते थे।

एक बार इससे लाभान्वित हो जाने के बाद वे स्वयं नई उपजाऊ, समतल, जल की उपलब्धता वाली भूमि की तलाश करते हुए आर्थिक काया-पलट के प्रवर्तक भी हो सकते थे और राम के प्रति विशाल क्षेत्र के जनों की निष्ठा प्रगाढ हो सकती थी। केवल शस्त्र के बल पर, वह कितना भी उन्नत क्यों न हो, यह सम्मान, सहयोग और समर्थन प्राप्त नहीं किया जा सकता था जो मिथकीय भाषा में वानर, भालु, गीध, शबर, मतंग जनों के बीच उन्हें प्राप्त हुआ दिखाई देता है।

टोटमी नामों में कुछ आज तक वचे रह गए हैे, जैसे काक, जो कश्मीर में अधिक आसानी से पहचाने जा सकते हैं, परन्तु ये पूरे उत्तर भारत में फैले हुए थे, यह काकोरी, काकीनाडा आदि नामों से समझा जा सकता है। वानर-भालु नाम सांकेतिक हैं, संख्या बहुत अधिक रही हो सकती है। वानर, वन और वनराय की समीपता के कारण इस टोटम से जुड़े लोगों की मानवीय पहचान बाँदा और बाँद्रा जैसे नामों में भी आसान नहीं है। गीधनी और गिद्धौर जैसे नामों और इनकी नृत्यशैली गिद्दा को शायद ही किसी ने जनजातीय पहचान का अवशेष माना हो। मेरे अपने जन्मस्थान में और उसके आस पास चार-पाँच सौ साल पहले आदिम जनों का निवास था जिन्हें बचपन में हम थारू के रूप में जानते रहे हैं, परंतु ग्राम नामों में भरवलिया (भर), बनरहिया (वानर), अकोल्ही (कोल), मुंडियारी (मुंडा), भलुआन (भालू), बघौरा (बाघ), आदि नामों से पता चलता है कि थारू (स्थविर) अनेक जनों का सामूहिक नाम है जो समान विचारधारा अपनाने से पड़ा। नृतत्वविदों को इन पर काम करना चाहिए पर काम करने की सूझ के लिए जरूरी है कि वे पश्चिमी वैचारिक लबादे को फाड़कर बाहर आएँ । हम यहाँ केवल इतना ही कह सकते हैं कि कृषिकर्म अपनाने वाले ये महापाषाणी जनों से अलग थे।

वह भारी जनसमर्थन शस्त्रबल से नहीं प्राप्त किया जा सकता जिसमें लोग राम से मंत्रमुग्ध होकर उनके भक्त बन जाते हैं। यह कोई ऐसी ही पहल हो सकती है जिससे वे लोग लाभान्वित हुए हों और यह है आहार संग्रह और शिकार और मछियारी पर जीवन यापन करने वालों के बीच खेती-बारी का प्रचार। यह निश्चित है कि खेती अपनाने वाले ये लोग महापाषाणी जनों से लाभान्वित हुए हों क्योंकि उन्हें पाषाणशिल्प और धातुविद्या दोनों का ज्ञान था और खेती करने वालों को औजारों की जरूरत थी। दोनों में लेन-देन अनिवार्य था।

रामसेतु
यह अलगाव और इसके बाद भी दोनों की अंतर्निर्भरता रामसेतु के संदर्भ में पूरी तरह स्पष्ट हो जाती है जहाँ उनका प्रतिनिधित्व नल और नील करते हैं और उन्हें जादुई दक्षता का अधिकारी माना जाता है।

इसमें सन्देह नहीं कि रामसेतु मूँगे की भित्ति ( (coral reef) है, और लाख वर्ष से अधिक पुरानी है। कुछ उत्साही इसके साथ रामसेतु नाम जुड़े होने के कारण राम को ऐतिहासिक काल से उठा पर भू-भौतिक काल में पहुँचा देते हैं जब न आदमी था न आदम। अपने पूर्वाग्रह को यथार्थ बनाने के लिए व्यग्र लोग खोपडी से बाहर जा कर सोचते हैं।

एक दूसरे ‘वैज्ञानिक परीक्षण’ के अनुसार जिसे विश्वसनीय बनाने के लिए नासा का नाम लिया जाता है, भले उसमें नासा में काम करने वाले श्रद्धालु भारतीयों का हाथ हो, इस सेतु की ऊपरी सतह को मानव निर्मित सिद्ध किया जाता है और इसमें जिन पत्थरों को उपयोग किया गया है वे आज से सात हजार साल पुराने हैं और इस तर्क से राम का समय 5000 ई.पू. मानना होगा। निष्कर्ष विज्ञान सम्मत है। इसका विरोध कौन कर सकता है। यह एक बौद्धिक आपात काल है जिसमें खोपड़ी से बाहर से आने वाला ज्ञान विज्ञान बन कर विज्ञान को उसके अधिकार क्षेत्र से बाहर कर देता है।

राम के अनेक अर्थ हैं, इनमें से कुछ हैं, प्रीतिकर, हितकर, आसान, सुंदर, सीधा, सफेद, काला। रामरज (रंगाई के काम आने वाली पीली मिट्टी), रामरस, (नमक), तक विविध प्रयोग लोक-चेतना में राम के प्रति श्रद्धा को प्रमाणित करते हैं। रामसेतु का अर्थ सुगम सेतु भी हो सकता है।

राम सेतु को बहुत पहले से राम निर्मित माना जाता था। इस शृंखला को आदम का पुल कहने वाले भी इसे जानते थे। इन दबावों के बीच विश्वास और विज्ञान के बीच एक सेतु बनाने की बाध्यता पैदा होती है।

यदि ऊपरी पत्थर सात हजार साल पुराने हैं तो ये भी मूँगे के स्तरीभूत पत्थर हुए। कहें सात हजार साल पहले इनके जीव निष्प्राण हो गए थे, इसका अश्मीभवन आरंभ हो गया था। ऐसी चट्टानें जब तक नम रहती हैं तब तक इनको टांगे से उससे भी सुथरे रूप में काटा जा सकता है जैसे हरी लकड़ी को काटा जाता है, पर बाहर निकलने पर हवा और धूप के प्रभाव से सूख जाने के बाद ये बज्राश्म की तरह अभेद्य और कठोर हो जाती हैं। यदि इनका काल निर्धारण जैव द्रव्य के निष्प्राण होने के आधार पर किया गया हो तो यह राम के जीवन काल को 1000-1400 ई.पू. मानने में बाधक नहीं होता।

रहा रामसेतु के ऊपरी स्तर के मानव निर्मित होने का विश्वास और इसका वैज्ञानिक आधार तो हम इसे जिस रूप में समझ पाते हैं वह विषय के आधिकारिक ज्ञान के अभाव में एक संभावना ही हो सकती है। समुद्र का जलस्तर तब जो भी रहा हो, दीवार चौड़ाई में बढ़ सकती थी पर जल के स्तर से ऊपर नहीं जा सकती थी न अपने पूरे प्रसार में इसकी सतह समान रही हो सकती है। उतार चढ़ाव को समतल बनाने के लिए इंजानियरों की जरूरत हो सकती थी और महापाषाणी कौशल का यहाँ उपयोग हुआ लगता है। रामसेतु केवल कोरल रीफ नहीं कोरल रीफ के ऊपर बना सेतु है, यह मानने का पर्याप्त आधार है।

Post – 2019-09-27

रामकथा की परंपरा (27)
दक्षिण भारत में कृषि

दक्षिण भारत में खेती के प्रसार में महापाषाणी संस्कृति ने पहल किया हो सकता है? विद्वानों का तो यही मानना है, परंतु मुझे इस पर कुछ संदेह है। कारण:
1. तकनीकी विशेषज्ञता रखने वाले खेती नहीं किया करते। उसकी ओर उनकी प्रवृत्ति नहीं होती। खेती करने वाले अपनी तकनीकी जरूरतें स्वयं पूरी नहीं कर पाते। इसके लिए वे दूसरों पर निर्भर करते हैं। ये दोनों पूर्णकालिक काम हैं, परन्तु इनकी अंतर्निर्भरता इतनी गहरी है कि एक के बिना दूसरे की उन्नति नहीं हो सकती, इसलिए एक ही सांस्कृतिक परिदृश्य में दोनों के अवशेष देख कर यह नहीं समझ लेना चाहिए कि दोनों काम एस ही समुदाय करता था।

2. पुरातत्वज्ञों का दिमाग ठोस चीजों की तलाश करते करते इतना इकहरा और ठोस हो जाता है कि वे सांस्कृतिक बहुसूत्रता की समझ खो देते हैं। दूसरे पक्षों को देखते हुए भी अनदेखी करते हैं।

3. तकनीकी विशेषज्ञता का हाल यह है कि कुम्हार लोहार का काम नहीं सँभाल सकता, लोहार सोनार का और सोनार जौहरी का काम नहीं संभाल सकता, इसे वे पुरातत्वविद जानते हैं पर इकहरे निष्कर्ष पर पहुँचने की जल्दी में इसे भूल जाते हैं, और यही नासमझी महापाषाणी संस्कृति के मामले में भी देखने में आती है।

4. जैसा कि हम कह आए हैं, कृषि से जुड़े प्राकृतिक विनाश से क्षुब्ध जनों ने कृषि कर्म को वर्जित मान लिया था और इन्होंने ही लाचारी में कृषिकर्मियों को विविध प्रकार की सेवाएं देते हुए कृषि-आधारित अर्थ-व्यवस्था में अपने लिए जगह बनाई थी।

5. भारत की समाज व्यवस्था उतनी सतही नहीं है जितनी हमारे इतिहासकार, समाजशास्त्री, नृतत्वविद और भाषाविज्ञानी पश्चिमी प्राधिकारवादी सोच के कारण समझते रहे हैं। ब्राह्मण किसी को शूद्र नहीं बना सकता था क्योंकि वह उसमें वे विशेष योग्यताएं नहीं पैदा कर सकता था।

6. अपना काम आसान बनाने के लिए हमने जिस लेखक के ब्लॉग का सहारा लिया थी उसी के अनुसार आज भी कुछ ऐसे जन हैं जिनमें महापाषाणी प्रवृत्तियां पाई जाती हैं: Even today, a living megalithic culture endures among some tribes such as the Gonds of central India and the Khasis of Meghalaya. यह पिछड़े इसलिए रह गए इन्होंने समय रहते कृषि कर्म नहीं अपनाया।

7. यदि इनका दूर दूर तक हड़प्पा सभ्यता से कोई संबंध रहा हो तो हड़प्पा के कर्मियों और धातु कर्मियों को हम उनकी इसी सीमा में बँधा पाते हैं। उनमें कोई खेती नहीं करता।

8. महापाषाणी स्थलों से खेती के काम आने वाले कोई औजार नहीं पाए गए हैं।

9. इससे हम यह नतीजा निकालते हैं कृषि का प्रसार और महापाषाण का प्रचार एक ही समुदाय के द्वारा नहीं हुआ और इसके बाद भी दोनों के काल में समानता के कारण महापाषाणी जनों को इसका श्रेय दे दिया जाता है।

ऐसी दशा में दो तथ्यों की अनदेखी नहीं की जा सकती। एक तो यह कि कृषि का प्रसार दक्षिण भारत में एकाएक इतनी तेजी से होता है, कि इसे एक आंदोलन कहा जा सकता है। जैसा सभी आंदोलनों के साथ होता है, इसका प्रेरक और उन्नायक कोई एक व्यक्ति होता है जिसके विचारों को सही औ र लाभकारी पा कर बहुत तेजी से बहुत सारे लोग उस पहल से जुड़ जाते हैं और फिर यह ठीक उसी तरह जैसे याज्ञवल्क्य, बुद्ध और महावीर तथा बाद के अनेक बौद्धिक नेताओं ने सामाजिक दृष्टिकोण को बदलने में युगांतरकारी भूमिका निभाते दिखाई देते हैं।

ठीक यही भूमिका राम की दक्षिण भारत में कृषि के प्रसार में लगती है क्योकि इस प्रसार का दूसरा काल-गत साम्य राम के वनवास और उनके दक्षिण भारत में विचरण से दिखाई देता है।

यदि हम ऊपर गिनाई गई आपत्तियों की अनदेखी कर के यह मान भी लें कि महापाषाणी संस्कृति के निर्माता खेती भी कर सकते थे, तो हमें इस प्रश्न का उत्तर नहीं मिलेगा कि वे इतनी तेजी से पूरे दक्षिण भारत में है फैल कैसे गए, जब कि राम के दक्षिण भारत मे विचरण ही नहीं, समुद्र पार करके श्रीलंका में भी पहुँचने का एक अर्धविस्मृत यथार्थ कथा रूप में रामायण में उपलब्ध है और उसमें राम कृषि कथा के नायक हैं या बन गए हैं।

दो

निर्वासन के बाद राम की मुख्य समस्या सुरक्षा की है। वह ऐसे परिवेश में रहना चाहते हैं जिसमें उनके आसपास कुछ दूसरे, उनसे सहानुभूति रखने वाले लोग हों, जिनके कारण उन पर खुला आक्रमण न हो सके।

प्राचीन भारत में सत्ता पर अधिकार जताने वाले जिन लोगों को निर्वासित किया जाता था, उन को मौत के घाट उतारने का भी प्रयास किया जाता था परंतु इस बात का ध्यान रखा जाता था कि उनके विनाश में राजसत्ता का कोई हाथ न दिखाई दे। इसकी आवृत्ति अकबर द्वारा अपने अभिभावक के रूप में सत्ता पर कायम बैरमखान को रास्ते से हटाने में देखी जा सकती है।

योजना यह होती थी कि या तो उन पर आघात उनको अकेला पाकर किया जाए या सर्वविदित हो तो लगे यह एक दुर्घटना थी। इसके दाँव-पेंच महाभारत में बहुत स्पष्ट हैं। रामायण में भी यह इतने ही खरे रूप में चित्रित था, परंतु बाद में इसे विदित कारणों से ढक दिया गया है फिर भी इस आवरण को हटा कर इस कुचक्र को साफ पढ़ा जा सकता है।

पत्नी के साथ निर्वासित व्यक्ति छिप कर ही सही, कहीं टिक कर रहना चाहेगा, लगातार स्थान बदलता हुआ भागता नहीं फिरेगा । राम भरद्वाज आश्रम का चुनाव करते हैं। भारद्वाज यह संकट मोल नहीं लेना चाहते। वह राम को सलाह देते हैं कि उनके लिए सबसे अच्छी जगह चित्रकूट है।

इसका पता लगने पर भरत सेना के साथ पहुंचकर – [इयं ते महती सेना शंका जनयतीव मे (निषाद); एतद् आचक्ष्व सर्वं मे न मे शुध्यते मनः (भरद्वाज); आवां हन्तुं समभ्येति कैकेय्या भरतो सुतः (ळक्ष्मण)] – उन्हें मनाने के बहाने पहुँच जाते हैं। यह एक छिपा संदेश है कि यहाँ रहने में न तुम्हारी भलाई है न उनकी जिनके बीच रहकर तुम सुरक्षित रहना चाहते हो उनकी। राम तो इस चाल को समझ कर सही निर्णय लेते हैं, भरत लौट जाते हैं परंतु उसके बाद वहां रहने वालों को अकेला पाकर सताया जाने लगता है:
त्वं यदाप्रभृति ह्यास्मिन आश्रमे तात वर्तसे। तदाप्रभृति रक्षांसि विप्रकुर्वन्ति तापसान्।।
(तात जब तक तुम यहाँ रहोगे तब तक राक्षस तपस्वियों को उत्पीड़ित करते रहेंगे)
बदली गई कहानी में तो राम अकेले दम पर राक्षसों का संहार करने के लिए अवतार लेते हैं और यहाँ उनकी उपस्थिति में राक्षस (?) आतंक मचा रहे हैं और उनसे जिनके धर्म की हानि हो रही थी वे समझाते हैं कि तुम्हारे यहाँ रहने के कारण ये उपद्रव हो रहे हैं।

आतंक ऐसा है कि वे निर्भीक होकर अपनी बात कह नहीं पाते। इशारों में बात करते हैं (नयनैः भृकुटाभिश्च रामं निर्दश्य शंकिताः। अन्योन्यं उपजल्पन्तः शनैः चक्रुः मिथः कथा)। एक एक करके पलायन करने लगते हैं और जब राम इसका कारण जानना चाहते हैं तो कोई उनसे बात करने का साहस नहीं जुटा पाता। केवल एक बूढ़ा ऋषि राम पर तरस खाता है (अथ ऋषिः जरया बृद्धः तपसा , जरां गतः। वेपमान इवोवाच रामं भूतदयापरम् ) और वही बताता है कि यह सब तुम्हारे कारण हो रहा है, अगर थो़ड़ी भी अक्ल हो तो तुम भी यहां से रफूचक्कर हो जाओ: ( दर्शयन्ति हि दुष्टास्ते त्यक्ष्याम इममाश्रमम्। सह अस्माभि: इतो गच्छ यदि बुद्धिः प्रवर्तते)। इसके बाद राम को जगह-जगह भटकना पड़ता है। यह है वह परिस्थिति जिसमें राम को छिपते हुए, पर साथ ही अपने आस पास सहानुभूति रखने वालों का एक दुर्ग बनाते हुए, एक स्थान से दूसरे को खिसकते हुए दक्षिण भारत के एक बड़े भूभाग में भटकना पड़ता है।

Post – 2019-09-26

वही दिल है कि कल तक थे हजारों लोग बाशिन्दा
गजब है डाक्टर अब सिर्फ मुझसे फीस माँगे है।

Post – 2019-09-26

हम किसी के न कोई और आसपास ही है
अनन्य होने की जिद भी नहीं, पर शर्त तो है।

Post – 2019-09-25

#रामकथा_की_परंपरा(26)
राम वनगमन

रामायण की कहानी में बहुत सारी मिलावट दूसरी शताब्दी ई.पू. से चौथी शताब्दी के बीच की गई, इसलिए अपने वर्तमान रूप में यह विश्वसनीय नहीं है।

कहानी के जिस सत्य से इन्कार नहीं किया जा सकता वह यह कि अयोध्या के राजा दशरथ ने ढलती उम्र में विवाह किया था। नव विवाहिता प्रकृत नियम से पति को समग्रतः पाने की आकांक्षा में अपनी सौतों और उनकी संतानों को मिटा देना और यह संभव न होने पर उनको और उनकी संतानों को उत्पीड़ित और अपमानित करने को तत्पर रहती है। उसी तरह का आचरण यह नई पत्नी भी करती है।

अपने पुत्र को राजा बनाने और उसके राज्य को अकंटक बनाने के लिए वह राज्य के उत्तराधिकारी बड़े पुत्र को उसकी पत्नी के साथ निर्वासित करा देती है। राजकुमार को निर्वासित अवस्था में वह रास्ते से हटाने का भी प्रयत्न करती है।

रामायण को रूपांतरित करते हुए इन कवियों ने इस कटु यथार्थ पर परदा डालते हुए – पितृभक्ति, भ्रातृप्रम, सपत्नी सख्य, सभी विमाताओं द्वारा सभी संतानों को अपनी संतान जैसा स्नेह का आदर्श लादने का भी प्रयत्न किया जिसने संयुक्त परिवार को बिखरने से बचाने में इसने एक भूमिका निभाई हो सकती है।

निर्वासित राजकुमार अयोध्या छोड़ कर किधर जाता है, इसको लेकर दो मत हैं । रामायण के अनुसार वह दक्षिण को जाता है, चित्रकूट में निवास करता है, वहां से भी पलायन करने को विवश होता है और दक्षिण भारत में भटकता रहता है।

दूसरी के अनुसार वह उत्तर की ओर जाता है। दशरथ जातक और उत्तररामचरित दोनों में इसी को चुना गया है। उत्तर जाने की कहानी के पीछे बुद्ध के अपने किसी पूर्व जन्म में राम पंडित होकर जन्म लेना रहा लगता है। उत्तर रामचरित में संभव है इसका कारण नेपाल की तराई में भैसालोटन के पास वाल्मीकि आश्रम होने की मान्यता हो, पर इससे आगे इसका कोई आधार नहीं।

दशरथ जातक से केवल यह सिद्ध होता है कि बौद्ध परंपरा में भी राम को एक असाधारण सूझबूझ वाला ऐतिहासिक चरित्र माना जाता था और साथ ही इनका काल बुद्ध से बहुत पहले माना जाता रहा है।

यहाँ दो प्रश्न पैदा होते है, यह किस काल की या बुद्ध से कितने पहले की घटना है? दूसरे राम क्या सचमुच श्रीलंका तक भी गए थे? इस मामले में रामायण हमारी कोई मदद नहीं करता। हम आज इन दोनों में से पहले का ही समाधान तलाशने का प्रयत्न करेंगे।

यह सर्वविदित है कि दक्षिण भारत में सभ्यता का प्रचार उत्तर भारत की प्रेरणा और प्रभाव से हुआ और इसके बाद भी अनेक द्रविड़-भाषी समुदाय आज तक वनचर अवस्था में रह रहे हैं। इसी का दूसरा पक्ष यह कि दक्षिण भारत में खेती महापाषाणी समुदायों के प्रवेश के साथ आरंभ हुई। इस विषय पर प्रकाशित एक बलॉग के निम्न वाक्यों पर ध्यान दें:
1. Megaliths are spread across the Indian subcontinent, though the bulk of them are found in peninsular India, concentrated in the states of Maharashtra (mainly in Vidarbha), Karnataka, Tamil Nadu, Kerala, Andhra Pradesh and Telangana. इस क्षेत्र की नई रूपरेखा तैयार करके यह कहा जा सकता है कि ये लगभग उसी भूभाग में फैले हैं जिनमें राम सीता की तलाश में भटकते फिरते हैं।

2. In India, archaeologists trace the majority of the megaliths to the Iron Age (1500 BC to 500 BC). कालक्रम की दृष्टि से यह उसी कालखंड में पड़ता है जिसमें रघु के दिग्विजय के संदर्भ में हम कस्सियों की असीरिया में उपस्थिति में चिन्हित कर आए है। इसी में उपनिषद काल को रखा जा सकता है और अपनी हाल की खुदाइयों और उनके विवेचन के बाद बी.बी, लाल राम के काल के विषय में पहुँचे हैं।

3. Based on archaeo-botanical research, Mukund Kajale of University College London posited that megalithic people carried out agricultural activity in both the rabi and kharif seasons. A large variety of grains such as rice, wheat, kodo, millet, barley lentil, black gram, horse gram, common pea, pigeon pea and Indian jujube have been recovered from habitations, showing that the subcontinent has displayed remarkable gastronomic continuity over three millennia. इसमें कालानुसार इन अनाजों का अध्ययन न करके उन अनाजों को भी शामिल कर लिया गया है जिन्हें उन्होंने स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार बाद में अपनाया। इसलिए इससे यह पता नहीं चलता कि मूलतः वे किन अनाजों की खेती करते रहे। महापाषाणी समाधि स्थलों से पता चलता है कि उनका मुख्य आहार चावल था क्योंकि Paddy husk has been found in burial sites, further proof of the megalithic peoples’ commitment towards ensuring their dead a comfortable afterlife.

4. According to Korisettar, the collapse of trade gave rise to a change in the urban character of the Harappan civilization. The Harappans then diffused eastwards and came into contact with the early agricultural settlements in the Gangetic plain and moved southwards, and gradually reverted to a more primitive way of life. This is indicated by the smaller, but greater number of settlements found after 1800 BC, compared to earlier sites. यह आधी खोपड़ी की सोच है। यदि सभ्यता का ध्वंस हो गया तो लोग पूर्व की ओर क्यों भागे? इसका अर्थ कोई प्राकृतिक आपदा है जिससे वह भूभाग अधिक प्रभावित था जिससे उनको भागना पड़ा और जिधर भागे वह उससे कम प्रभावित था। अब इस आपदा से नष्ट नागर सभ्यता को पुनः कृषि की ओर लौटना पड़ता है। इसकी पुष्टि विदेघ माथव (विदेह माधव) की उस कथा से होता है जिसमें विदेह को सदानीरा के पार इसलिए बसना पड़ता है कि उससे पश्चिम मे पहले से कोशल बसे हुए थे।

5. Megaliths in peninsular India are more strongly associated with a characteristic wheel-made pottery type known as Black and Red Ware, which is found across sites. BRW culture was contemporaneous with the Painted Grey Ware culture present in the Ganga valley (1300-600 BC), a proto-urban culture associated with Hastinapur of the Mahabharata by noted archaeologist B.B. Lal. पात्रों की दृष्टि से भी यह उसी काल खंड भूभाग की पुष्टि करता है जिसे हम अन्य कसौटियों से जाँच चुके हैं। यह याद दिलाना जरूरी है कि सभी अध्ययनों में कुछ ऊपर नीचे (+ ओर –
) की गुंजायश रहती है। (Exploring India’s megalithic culture, a riddle set in stone, Updated: 03 Jul 2016, 05:43 PM ISTRajat Ubhaykar,

इस चर्चा में हम केवल राम की कालसीमा का निर्धारण कर सके हैं। उनकी क्रांतिकारी भूमिका को, जिसकी चर्चा हम कल करेंगे, को समझने के लिए इस पृष्ठभूमि का ज्ञान जरूरी है। इतना ही संकेत पर्याप्त है कि दक्षिण भारत को सभ्य बनाने में गंगा घाटी की निर्णायक भूमिका है, जिसके अग्रदूत राम हैं।

Post – 2019-09-24

#रामकथा_की_परंपरा(25)
#अश्वमेध

रघुकुल के राजाओं का एक गुण सबसे ऊपर है, वे शत्रु विजय ही नहीं, दिग्विजय के आदी रहे हैं। दूसरा गुण है दानशीलता – वे शत्रुओं से जीत कर जो कुछ लाते थे उसे और अपने खजाने में जो जमा रहता था उसे भी अश्वमेध यज्ञ करके ब्राह्मणों को दान दे दिया करते थे।

इनके साथ एक दुर्गुण भी जुड़ा था, उन्हें अपनी तारीफ सुनने की आदत थी। इस आदत के कारण ही वे अपने प्रशंसकों को प्रसन्न करने के लिए किसी सीमा तक गिर सकते थे, कोई भी अपराध कर सकते थे, उनकी उनसे भी बढ़ कर प्रशंसा कर सकते थे जो भूखे पेट रह सकते परंतु प्रशंसा के बिना रह ही नहीं सकते थे।

विश्वास नहीं होता! सोचिए, जब राजा का खजाना खाली हो जाता होगा तो राजकर्मियों को, सैनिकों को, वेतन कैसे मिलता रहा होगा? दो तरीके थे। एक जनता पर पहले से अधिक कर लगाकर खजाने की भरपाई और उस अंतराल में यह छूट कि वे अपनी जरूरतें पूरी करने के लिए मनमानी वसूली करते रहें।

ऐसे राजाओं के शासन में वे देश भी जिन पर वे विजय प्राप्त करते थे, कंगाल हो जाते थे, ऐसे ही राज-अनुमोदित उत्पीड़न के शिकार हो जाया करते थे, और उनका अपना राज्य भी उसी तरह तबाह हो जाता था। ऐसे में उन्हें प्रजा वत्सल नहीं कहा जा सकता, ब्राह्मणपालक कहा जाए तो कोई हानि नहीं। यह सत्य से परे और ब्राह्मणों की अभावजन्य दुर्लालसा को ही प्रकट कर सकता है।

यहां मैं एक साथ उन दोनों जातियों का मनोविश्लेषण करना चाहता हूं जो भारत की सर्वाधिक व्याधिग्रस्त जातियां हैं, रूढिवादी ब्राह्मण और रूढिवादी क्षत्रिय। इन वर्णों के शेष लोग और इनसे बाहर के लोग, भारत में जितने आधुनिक और सामाजिक न्याय के पक्षपाती रहे हैं, उतना दुनिया में कोई नहीं रहा।

अवसर मिलता है, तो मैं इन दोनों के अवचेतन को कुरेदते हुए, उन ग्रंथियों को जाग्रत और उनसे मुक्त करना चाहता हूं, जिसके बिना हमारा पूरा सामान स्वस्थ नहीं हो सकता।

सबसे बड़ी बात यह है कि ये सभी दिवास्वप्न हैं जिन्हें लगातार दुहरा कर अश्मीभूत मान्यता में बदल दिया गया है। प्रखर आलोचना ही जीवाश्म को जीवंत बना सकती है। उसकी जीवंतता से भारतीय समाज का भविष्य जुड़ा है। विचार करे तो हम पाएँगे कि ऊंची जातियां मनोवैज्ञानिक रुप में भारतीय समाज की सबसे पिछड़ी जातियां हैं, राष्ट्रीय एकात्मता में बाधक तत्वों मे से एक हैं, यद्यपि एकमात्र नहीं।

तथ्यांकन से झूठ का भी पता चलता है और प्रचारित मूल्यों की विसंगतियां भी प्रकट होती हैं। इसे समझने के लिए एक प्रश्न का सामना करेंः

साकेत के राजा महान दिग्विजेता थे। इतने बड़े कि उनके पड़ोस में ही काशी एक राज्य के रूप में उससे लंबे समय से बचा रहा, और साकेत या उत्तर कोशल से आगे उनके राज्य का विस्तार नहीं हो सका। कुछ गड़बड़ तो है ही।

इसके लिए हमें अश्वमेध के इतिहास को समझना होगाः

अश्वमेध का सबसे पुराना वर्णन भारत में ऋग्वेद 1.162 और 1.163 सूक्तों में और बेबीलोनियां में (W.F. Albright and P.E. Durant, The Journal of American Oriental Society, Vol. 54,p.p. 107-28, cited by A.Keith, Babylon and India, Kuppuswami Memorial Volume, Madras.1947, p.p 62-72, Quoted in The Vedic Harappans, New Delhi, ।995, p.70.) मिलता है, अर्थात् यह अनुष्ठान भी भाषा के साथ दूर दूर तक फैल गया था:
The horse sacrifice, it is registered, was probably of Indo Iranian, not Indo European origin. this suggestion is unquestionably valid in a certain measure. We know that, on arrival at the Strymon, Xerxes had white horses Sacrificed by the magicians. We know from the Greek literature of the sacrifices at Rhodes and on Mount Taygetus jn Arcadia . Festus Gives information of the animal sacrifice horse at Rome and with a ritual of vegetative charrecter. …
The closest parallel in Mesopotamia to this offering in a ritual text from Asur (Assur) the southern capital of Assyria, Which is interpreted to refer to the offering of horse which is to be hitched to the great chariot of god Murdoch. The ritual seems to have been originally connected with the offering of an ass and may be assigned to the period from 2100-1800 BC, an earlier date being precluded by the importance of Babylon which prior to the First Dynasty was of negligible importance.

कीथ ने भारतीय और असारियाई रीतिविधान की बारीकियों में समानता का भी वर्णन किया है। यह उस जमाने के अध्ययन है जब तथ्यों को तोड़ मरोड़ कर, मोटी समझ को ताक पर कर रख कर भी भारत पर आक्रमण या भारत में आर्य भाषाओं के प्रवेश के लिए प्रमाण गढ़े जा रहे थे। हड़प्पा और वैदिक की अभिन्नता सिद्ध हो जाने के बाद हम कह सकते हैं कि सबसे प्राचीन प्रमाण भारत में पाए जाते हैं और इसकी रूपरेखा को समझना इतिहास के एक युग की समस्याओं को समझने जैसा है।

हम यह स्वीकार करते हैं भारत में घोड़ा प्राचीन काल से था, और गधे की तुलना में उसका कद भी बड़ा था। परंतु वह भार वहन की दृष्टि से अधिक उपयुक्त नहीं था। अश्व के नाम पर जिस प्राणी को सबसे पहले पालतू बनाया गया था वह भारवहन के प्रयोजन से किया गया था । वह रासभ या गधा था। आज तक भार वहन की दृष्टि से सबसे उपयुक्त गधे और खच्चर को ही माना जाता है। इसलिए यदि असीरिया में भी अश्वमेध के बलिपशु के रूप में गधे की बलि दी जाती रही तो यह आश्चर्य की बात नहीं। आरंभ में भारत में भी यही होता था। ऋग्वेद के अश्वसूक्तों का अश्व गधा है।

आश्चर्य इस बात पर अवश्य हो सकता है कि किसी भारतीय अध्येता ने उसी अध्यवसाय से पश्चिमी प्रस्ताव की जांच क्यों नहीं की और क्यों अपने साहित्य की सामग्री का विश्लेषण नहीं किया।

दिग्विजय और अश्वमेध एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। घोड़े को सभी तरह के भूषणों से सजा कर एक व्यक्ति पताका के साथ बढ़ता है। जिसका साहस न हो, वह राजा का करद बन जाए, साहस हो तो घोड़े को रोक ले ।उस दशा में उसे युद्ध करना पड़ेगा। काशी कोशल का कभी करद नहीं रहा, इसलिए इस अश्वमेध का संदर्भ बदल कर इसको समझना होगा।

अश्व को अलंकृत करके कुछ रक्षकों के साथ आगे भेजना संभवतः व्यापारी सार्थों द्वारा आकस्मिक भारी प्रहार से बचने के लिए, खतरे का पूर्वानुमान करने और फिर पूरी तैयारी से प्रहार करने की योजना का अंग था। एक भिन्न प्रसंग में ऋग्वेद में एक अग्रिम दस्ते, हिरावल दस्ते – प्रगर्धिनी सेना – का हवाला है। यह ऐसी ही प्रगर्धिनी सेना का अंग था।

संभवतः यहीं से आरंभ हुआ अश्वमेध।अश्वमेध करने वाले राजाओं को चक्रवर्ती का नाम देना गलत है। यह एक निश्चित दिशा में किसी विशेष प्रयोजन से अपनी पूरी शक्ति के साथ किसी लक्ष्य को प्राप्त करने का संकल्प मात्र था। इसके बाद ही हम विश्वविजय को, और विश्वजित यज्ञ के रहस्य को समझ सकते हैं।

विख्यात है कि विदेशी, विद्रोही समुदायों के बीच अपने सुरक्षित अड्डे या स्वर्ग बसाकर रहने वाले इंद्रों पर जब संकट आता था तो वे अपने गृह देश से सहायता की गुहार करते थे और उनकी पुकार पर दल बल के साथ बढ़ने वालों में इन युयुत्सु कोशलों या कुशिकों की प्रधान भूमिका थी।

इस सीमा में ही हम रघु के दिग्विजय को समझ सकते हैं, और उनकी कौशिक या कुशिक पहचान को कस्सियों (कस्साइट्स) में अंकित पा सकते हैं। रघु का अश्वमेध या दिग्विजय इस सीमित अर्थ में ऐतिहासिक महत्त्व प्राप्त कर लेता है।The Kassites (/ˈkæsaɪts/) were people of the ancient Near East, who controlled Babylonia after the fall of the Old Babylonian Empire c. 1531 BC and until c. 1155 BC (short chronology). The endonym of the Kassites was probably Galzu, although they have also been referred to by the names Kaššu, Kassi, Kasi or Kashi. और यदि हमारा अनुमान सही है तो इससे रघु के वंशज राम की कालावधि समझने में मदद मिल सकती है। यह ठीक उपनिषद काल में आती है।

Post – 2019-09-23

#राम_ की_वंशधरता

कालिदास ने अपने महाकाव्य का नाम रघुवंश रखा। वंशक्रम तलाशते हुए वह वैवस्वत मनु के वंश मे श्रेष्ठ आचार वाले दिलीप का उल्लेख करते हैं जिनके पुत्र रघु हैं। इस तरह रघुवंश की कथा दिलीप से आरंभ होती है।

राम रघुवर हैं, रघुवीर हैं, रघुराज हैं, रघुकुलतिलक हैं, रघुनाथ हैं, राघव हैं, राघवेंद्र है। दाशरथी नाम तक किताबी है, लोक-व्यवहार में नहीं आता। रघु के पुत्र अज, अज के दशरथ और उनके राम जिनके साथ उपनाम चंद्र जुड़ा करता है। विवस्वान से कुल का आरंभ है. इसलिए सूर्यवंशी। इसका दूसरा अर्थ आदि पुरुष के विषय में जानकारी स्पष्ट नहीं, इसलिए महिमामंडन के लिए दैवी पहचान। यह मनु पर भी लागू होता है और सूर्यवंश पर भी।

रामायण बालकांड सर्ग 70 में जो वंश-परिचय दिया गया है वह प्रयत्न-लब्ध है – इक्ष्वाकु> कुक्षि> बाण> अनरण्य> पृथु> त्रिशंकु> धुंधुमार> युवनाश्व> मांधाता> सुसंधि> ध्रुवसंधि /*प्रसेनजित। ध्रुवसंधि> भरत> असित> सगर> असमत> अंशुमान> दिलीप> भगीरथ>ककुस्थ >रघु >कल्माषपाद >शंखण >सुदर्शन >अग्निवर्ण >मरु >प्रशुश्रुक >अम्बरीष >नहुष >ययाति >नाभाक >अज>दशरथ > राम ।

इसके विषय में जो बात पूरे विश्वास से कही जा सकती है वह यह कि यह उसी घालमेल के दौरान तैयार की गयी जिसमें मूल कथा को विस्तृत और विकृत किया गया था। इसे वर्तमान रूप में विश्वसनीय नहीं माना जा सकता।

कालिदास के रघुवंश में रघु दिलीप के पुत्र हैं, इसमें प्रपौत्र। कालिदास के अनुसार अज रघु के पुत्र हैं, रामायण की वंशावली में दोनो के बीच दस पीढ़ियाँ गुजर जाती है। कुशल है कि दशरथ दोनों में अज के ही पुत्र हैं।

ऐसा नहीं कि रामायण में दिए नाम निराधार या काल्पनिक हैं, इनमें से कुछ – इक्ष्वाकु, सगर – का बिना किसी क्रम के पूर्वज के रूप में रघुवंश में भी नाम आया है, परंतु रामायण से उसे कल्पना से जोड़ा गया है, इसलिए वह बेतरतीब है।

ऐसी दशा में सबसे भरोसे की वंशधरता यही रह जाती है कि दिलीप और रघु सहित सभी ऐक्ष्वाकु हैं और इसलिए सोमयाजी और सोमपायी हैं, और इस तर्क से चन्द्रवंशी।

दूसरी भरोसे की पहचान यह कि वह सक/कस (शक्र/कौशिक) हैं। योद्धा के रूप में विख्यात थे और इनकी ओर कोई आँख उठा कर देखने का साहस नहीं कर सकता था। इनकी ही नगरी अयोध्या हो सकती।

प्रसेनजित (प्रसेनदि) यदि इसी वंश के राजा थे, तो वह राम के पूर्वज नहीं हो सकते, क्योंकि वह बुद्ध से कुछ ही पहले हुए थे। साक्य उनके अधीन और उनके करद थे, जिन्हें किसी को मृत्युदंड देने का अधिकार नहीं था।

राम उनसे कम से कम पाँच शताब्दी पीछे ठहरते हैं। जनक और अश्वपति को ध्यान में रखते हुए उनको उपनिषद काल में रखना होगा। यद्यपि यह हैरानी की बात है कि उपनिषदों में दशरथ का नाम नहीं मिलता। कारण संभव है यह हो कि वह सचमुच रूढ़िवादी रहे हों और कर्मकांडीय यज्ञ को व्यर्थ मानकर आत्मचिंतन के उस आंदोलन से न जुड़े हों।

कसों/कुशों की महिमा की स्वीकृति कश्यप ऋषि और उनकी प्रजापति की भूमिका में और काश्यप, कछवाहा, कुशवाहा जैसे उपनामों और कासी, कोसल, कोसी, कुशीनगर, कश्मीर आदि के नामों में देखी जा सकती है। इसके सक/शक रूप सकलडीहा, साकल, शाकल्य – पाणिनि से पूर्ववर्ती एक वैयाकरण, ऋग्वेद का पदपाठ तैयार करने वाले; शाकपूणि – यास्क से पूर्ववर्ती वैयाकरण, (सकलेजा, सकलानी?), सक्खर, सुक्कुर जैसे नामों में पहचाना जा सकता है।

ये जन भारत से लेकर मध्य एसिया तक फैले पाए जाते हैं। भारत में इनका प्रवेश, अनुमानतः विगत हिमयुगीन प्रकोप से बचने के लिए हुआ था। आपदा कितनी भी बड़ी हो, आत्मरक्षा के लिए पलायन करने वाले कुछ ही लोग होते हैं, शेष को अपनी आपदाओं को झेलते हुए ही जीना-मरना पड़ता है।

तत्कालीन परिस्थितियों में भारतीय भूभाग में विचरने वालों को इनसे कैसे निबटना पड़ा यह पता नहीं, पर ज्ञात इतिहास में मध्येसिया के शक भारत में आक्रामकों के रूप में ही जाने जाते रहे हैं। यह पासा हड़प्पा सभ्यता या उस दूसरी बड़ी त्रासदी के बाद पलटा लगता है जब भारतीय आत्मरक्षा में अपने क्षेत्र में सिकुड़ कर रहने और बाहर निकलने से डरने लगे। अपने सुरक्षित क्षेत्र से बाहर जाने को वर्जित कर दिया गया।

महाभारत इसी दौर के अनुभव पर रचा गया आख्यान है, जिसमें उत्तर कुरु, बाह्लीक (बख्तर), उत्तर मद्र, तुषार (तुखार), सिंतास्ता, अन्द्रानोवो आदि में बस्तियाँ बसा कर रहने वाले भारतीय व्यापारी, इस दुर्भिक्ष से त्रस्त और उत्पीड़ित होकर अपने देश की ओर पलायन करते हैं, और अपने संबंधियों से अपना अधिकार या गुजारे की शरण माँगते हैं।

राहुल सांकृत्यायन शकों/ कशों के भारत से लेकर मध्येसिया तक के प्रसार को देख इस बात के ही कायल नहीं हो गए थे कि भारत पर आर्यों का हमला हुआ था (हाथ कंगन को आरसी क्या!) और उनका सारा लेखन इसी को दुहराता रहा। वह यह निष्कर्ष भी निकाल बैठे थे कि जिन आर्यों ने भारत पर आक्रमण किया था, वे शकार्य थे। ऐसा उन्होंने यह जानते हुए सोचा कि भारत में सक/खस आज भी आदिम अवस्था में हैं।

कश को दो रूपों में पहचाना जा सकता है, एक कज़्ज़ाक (कज़ाकिस्तान, जहाँ सिंताश्ता (सिंधियों का क्षेत्र) और आंद्रोनोवो (नव आंध्र या गुजरात के अंधवृष्णिक जनों का क्षेत्र) था। जिस दौर में इन क्षेत्रों में कज़्ज़ाको का इतिहास आरंभ होता है ठीक उसी काल में भारत की ओर पलायन के पुरातात्विक प्रमाण हैं जिसे उलट कर आर्यों के भारत की ओर बढ़ने और बीच के उन स्थलों से हो कर गुजरते दिखाया जाता रहा है (पार्पोला, सरियानिदि) जहां पहले से बसे भारतीयों को स्वयं भी भागना पड़ा था।
The emergence of Cossacks is dated to the 14th or 15th centuries, when two connected groups emerged, the Zaporozhian Sich of the Dnieper and the Don Cossack Host.

जानकारी और पुस्तकालयों तक पहुँचने की शक्ति इतनी कम है, कि इसकी पड़ताल नहीं कर सकता कि ऊपर के दोनों के अतिरिक्त जो तीसरा वर्ग उन मालिकों का था जो ‘अश्वपति’ थे, ‘दुर्ग’ बना कर रहते थे, अश्वव्यापार में संलग्न थे और वे अपने को कश कहते थे और जो उस आपदा में भी अपना बचाव कर सके थे, और ‘आर्य’ या मानक भाषा इन्हीं की थी और उसका प्रभाव बाद में भी कायम रहा।

दूसरा साम्य कुषाणों से बैठता है जिनके विषय में निम्न जानकारी उपयोगी लगती है:
“The Scythians (pronounced ‘SIH-thee-uns’) were a group of ancient tribes of nomadic warriors who originally lived in what is now southern Siberia. Their culture flourished from around 900 BC to around 200 BC, by which time they had extended their influence all over Central Asia – from China to the northern Black Sea.”

The Greek historian Herodotus, in his Histories (Book 4, 5th century BC), wrote: ‘None who attacks them can escape, and none can catch them if they desire not to be found.’ (British Museum Blog 1917, 30 May 2017)

शक, जिन्हें सीथियन समझ लिया जाता है, वे सीथियों में मिल गए थे, उन्हें यूचियों ने मध्येसिया से भगा दिया था। उन्होंने दक्षिण की ओर भागते हुए सकस्थान (सीस्तान) पर अधिकार किया था। कुषाणों में दोनों के तत्व मिल गए थे। पर कुषाण राजा कनिष्क ने शक संवत चलाया था। इससे फिर कश और शक का वही घालमेल दिखाई देता है जो भारत में।

इस लंबी चर्चा में हमें इसलिए उतरना पड़ा कि हम उनकी वंशावली समझ सकें। हमने पाया कि वे भारत में जब भी जहाँ से भी आए हों, भारतीय जातीय स्मृति में वे यहाँ अनादि काल से हैं जो राम की पैतृकता को विवस्वान के पुत्र मनु से जोड़ता है और मध्येसिया के कश, कज्ज, शक उस शौर्य को दर्शाते हैं जो इनकी प्रकृति थी। सूर्यवंश सूर्य से उत्पन्न न था, न हो सकता था, परंतु शौर्य के लिए विख्यात था इसका साहित्य गवाह है। अविजेय, अयोध्या उन्हीं की राजधानी हो सकती थी।्र

Post – 2019-09-22

#रामकथा_की_परंपरा(23)
नई मर्यादा के जनक

इंद्र की उत्पत्ति पर विचार करते हुए हमने पाया उनका एक नाम कौशिक है, जिससे कुशिकों से उनका संबंध दिखाई देता है। इससे आगे बढ़कर हमने कभी सोचा ही नहीं कि कुशिकों का वंशागत संबंध कश जनों से हो सकता है।

इंद्र का एक दूसरा नाम शक्र है। शक्र का अर्थ हम, जैसा कि नीचे की ऋचा में (कोष्ठक में दिए सायण भाष्य) देख सकते हैं, शक्तिशाली करते रहे।
तं इत् सखित्वं ईमहे (प्राप्नुमः) तं राये (धनार्थं) तं सुवीर्ये (शोभनसामर्थ्यनिमित्तं) ।
स शक्र (शक्तिमान्) उत नः शकत् (रक्षणे शक्तोऽभूत) इन्द्रः वसु दयमानः(प्रयच्छन्) ।। 1.10.6

ग्रिफिथ ने अपने अनुवाद में सावधानी बरतते हुए शक्र को विशेषण नहीं संज्ञा ही माना है:
Him, him we seek for friendship, him for riches and heroic might.For Indra, he is Sakra, he shall aid us while he gives us wealth.
परंतु वह इस झमेले में नहीं पड़े हैं कि इन्द्र को यह संज्ञा क्यों मिली।

ठीक इसी की आवृत्ति हमें कोसल और साकेत में मिलती है। एक कस से दूसरी सक से। यहाँ याद दिला दें कि भोजपुरी और अवधी में ऊष्म ध्वनि केवल ‘स’ है। तालव्य ध्वनि अर्धमागधी की है और मूर्धन्य ‘ष’ कौरवी की। अतः सही उच्चारण कोसल, कासी, कस और सक है। कस और सक एक ही हैं, अक्षरों के फेर-बदल (वर्णविपर्यय) से दो हो गए – लखनऊ/नखलऊ, देहली/डेल्ही की तरह। यह परिवर्तन या दुहरी पहचान बहुत पुरानी है इसलिए इन्द्र और अवध (अवधी का क्षेत्र?)की दो संज्ञाए हैं। यह भारतीय इतिहास को समझने में बहुत मददगार हो सकता है।

आज खस जनों में कुछ पूर्वोत्तर में खसिया की पहाड़ियों में सिमटे रह गए हैं। संभवत ये वे हैं जिन्होंने अंत तक कृषिकर्म से परहेज किया, परन्तु उन्हीं के बीच कुछ ऐसे दूरदर्शी लोग भी थे जिन्होंने खेती की पहल की थी या आरंभिक अवस्था में ही खेती अपना ली थी। यह अंतिम संभावना मात्र इस तथ्य पर आधारित एक खयाल है कि खेती गंगा घाटी से आरंभ हुई थी और इसमें हिमालय की तलहटी से लेकर छत्तीसगढ़ तक के भूभाग में कस/सक जनों की पुरानी उपस्थिति की गहरी छाप देखने को मिलती है – कोसी, कासी, कसया(कुसीनारा), कसौली, उत्तरी कोसल, दक्खिनी कोसल। साक्य जन जिनमें बुद्ध ने जन्म लिया था कुछ विलंब से कृषि कर्म में प्रवृत्त हुआ था। कोलियों (कृषिकर्म अपनाने वाले कोलों) से उनका वैवाहिक संबंध उनकी जनजातीय पृष्ठभूमि को प्रकट करता है।

जिसे हम आर्य या कृषिकर्मी और इसलिए सुसंस्कृत समाज कहते हैं वह एक दिन में न तो बना, न ही इसके दरवाजे दूसरों के लिए कभी सदा के लिए बंद हो गए। शर्त यह थी कि वे कृषिकर्मी बन कर ही प्रवेश कर सकते थे। इनका प्रवेश क्षत्रियत्व के दावे के साथ ही होता रहा और हमारी जानकारी में सबसे बाद दाखिल होने वालों में कुर्मी और सैंथवार हैं।

संभव है इस प्रवेश द्वार के कारण वर्णवाद से सबसे अधिक लाभान्वित होते हुए भी इसके सबसे कटु आलोचक और इससे विद्रोह करने वाले क्षत्रिय ही रहे हैं जिसे राम स्वयं चरितार्थ करते हैं। गो-ब्राह्मण-प्रतिपालक की उद्भावना में गो को ब्राह्मण के साथ इसलिए घसीट लिया जाता है कि इस प्रतिबंध से मुक्ति मिल सके कि वेद न जानने वाला ब्राह्मण पुत्र पूज्य नहीे हो सकता, वह शूद्र होता है। इस गो-ब्राह्मण साम्य से मात्र ब्राह्मण पुत्र होने के कारण वह समादृत हो जाता है।

राम के लीपापोती से बदले चरित्र में भी ब्राह्मण और ऋषिगण राम के सम्मुख झुकते हैं और राम एक ओर तो वर्णमर्यादा के धनुष को तोड़ते हैं, लांछिता और परित्यक्ता ऋषि पत्नी को सम्मान दोता हैं, अज्ञात-कुल-शीला से विवाह करते हैं और दूसरी ओर सबसे गर्हित समझे जाने वाले निषाद (निषाद पंचमो वर्णः, अर्थात् शूद्र से भी गया बीता) को गले लगाते हैं, गीध, बानर. भालु, मतंग टोटेम वाले आदिम जनों से सख्य करते हैं, सबर जन जो लगभग नरभक्षी थे, उनकी एक स्त्री का जूठा बेर भी खाते हैं। अपने इसी मानवतावादी चरित्र के कारण राम अपने जीवनकाल में ही एक अलौकिक पुरुष, एक लीजेंड बन गए थे। कहें वह पुरुषोत्तम तो थे, परन्तु वर्णमर्यादा के रक्षक के रूप में नहीं भंजक के रूप में थे और उनके इसी आचरण ने उन्हें जनमानस में लोकोत्तर मानवतावादी और अवतार पुरुष बना दिया था और इस तरह विष्णु, पूषा और इंन्द्र के बहुत सारे मिथक इस लोकोत्तर चरित्र पर आरोपित हो गए थे। (अधूरा)