रामकथा की परंपरा (28)
कई तरह के रामसेतु
रामसेतु कई हैं। एक जिसका निर्माण राम के अकेले बल-बूते पर, कृषिकर्म के प्रसार के माध्यम से करते हैं। दूसरा वह जिसे रामसेतु कहा जाता है और जिसको ले कर कई तरह के अतिवैज्ञानिक और अवैज्ञानिक दावे किए जाते हैं और जिससे राजनीति और भूगर्भ-विज्ञान के बीच भी एक काल्पनिक सेतु बनता है। इसके प्रभाव में बहुत सारे लोग आ जाते हैं, जिनमें से कुछ खासे जानकार होते हैं। हम इसकी चर्चा अंत में करेंगे।
राम आश्रय की तलाश में कई ऋषियों के पास जाते हैं, मतंग को छोड़ कर ये सभी बाद में घुसाए गए और ऋग्वेद से लिए गए हैं। ऋग्वेद के शरभ (पारावतं यत् पुरु सम्भृतं वसु अपावृणोः शरभाय ऋषिबन्धवे।। 8.100.6) के नाम को शरभंग कर दिया गया है, वसिष्ठ का दन्त्य तालव्य हो कर वशिष्ठ बन गया है। उनके साथ विश्वामित्र, गोतम, भरद्वाज, अत्रि, अगस्त्य सभी ऋग्वेद से लिए गए हैं और जाबालि छान्दोग्य उपनिषद से। जाबालि चित्रकूट में राम-भरत संवाद में (रा.2.108) भौतिकवादी सोच के प्रवक्ता के रूप प्रस्तुत किए गए है जिससे राम के द्वारा बुद्ध और बौद्ध मत की भर्त्सना कराई जा सके, और अन्तःक्षेप करने वालों को इस बात का भी ज्ञान या ध्यान नहीं कि बुद्ध राम के बहुत बाद पैदा हुए। जाबालि को ही इसके लिए इस कारण चुना गया क्योंकि उनके गुरु के नाम में भी गोतम आता था।
फिर भी जिन ऋषियों के पास राम को आश्रय के लिए पहुँचा दिखाया गया है उनको हम सभ्य समाज से जुड़े एकान्त सेवियों का प्रतिनिधि मान सकते हैं, परंतु इनमें से किसी में इतना साहस नहीं कि राम को आश्रय देने का खतरा मोल ले सकें। वे वर्णवादी/पुरुषवादी मूल्यों का उपदेश दे सकते हैं (दुःशीलः कामवृत्तो वा धनैः वा परिवर्जितम्, स्त्रीणां आर्य शवभावानां परमं दैवतं पतिः। , और इसीलिए उनके पास राम को भेजा गया है, पर वे उन्हें आश्रय नहीं दे सकते। उल्टे राम से कहा जाता है: एष पंथा महर्षीणां फलानि आहरतो वने। अनेन तु वनं दुर्गं गन्तुं राघव ते क्षमम्। और अब निरुपाय राम उन्हें राम राम बोल कर अरण्य में प्रवेश करते हैं:
इतीः इतिः प्रांजलिभिः तपस्विभिः द्विजैः कृतस्वस्त्ययनः परंतपः।
वन सभार्यः प्रविवेश राघवः सलक्ष्मणः सूर्य इवाभ्रमंडलम्।।
राम की सुरक्षा उन लोगों के सौहार्द पर निर्भर करती है जिनके बीच उन्हें रहना है। अकेला व्यक्ति जो स्वयं अपनी सुरक्षा के लिए इधर उधर भटक रहा है शस्त्र बल से राक्षसों का संहार कर देगा, यह तो असंभव को संभव करने का कारोबार करने वाले ही सोच सकते हैं। परंतु होता तो वही है जो संभव है।
हम यह मान सकते हैं की पिछड़े हुए जन धनुष-बाण से शिकार नहीं करते थे। वे शिकार, फँसाते या घात लगा कर पकड़ा करते थे। कृषि पूर्व के चरणों से बकरी आदि के जो अस्थि अवशेष मिलते हैं वे शावकों के हैं। इसके पीछे यही कारण हो सकता है।
यदि यह मान भी लें कि वन्य जन धनुर्विद्या से परिचित थे तो भी राम लोह युग की उपज हैं, और इस मायने में अपने अविकसित शिलीमुख (पत्थर की नोक वाले), रुरुशीर्ष्ण (सींग की नोक वाले) बाणों का प्रयोग करके शिकार करने वालों की तुलना में उन्हें अपने लोहाग्र शायकों (एक ही आघात में धराशायी कर देने वाले) बाणों का कुछ लाभ मिल सकता था। अपने आखेट का वनचरों से साझा करके वह उनसे आसानी से आत्मीयता और सम्मान दोनों प्राप्त कर सकते थे।
वह इतने शराग्र लेकर नहीं चल सकते थे कि लंबे समय तक काम आ सकें इसलिए यह संभव है कि महापाषाणी जनों के भी संपर्क में रहे हों। हम कल्पना के आधार पर जो चित्र बना रहे हैं उसमें आदिम जनों को प्रथम संपर्क में ही न तो वह कृषि के लिए प्रेरित कर सकते थे न ही स्वयं किसी पैमाने पर कुछ उगा कर इसका उदाहरण प्रस्तुत कर सकते थे।
संपर्क साधने, उनकी भाषा सीखने, उनसे मेलजोल बढ़ाने के बाद ही यह संभावना पैदा हो सकती थी कि वह उन्हें इस दिशा में प्रोत्साहित करें और इसमें समय लगा होगा। परंतु यह तय है कि भाषा के ज्ञान और गहन संपर्क के बाद ही वह उनकी वर्जनाओं को शिथिल कर सकते थे और खेती के लिए प्रेरित कर सकते थे।
एक बार इससे लाभान्वित हो जाने के बाद वे स्वयं नई उपजाऊ, समतल, जल की उपलब्धता वाली भूमि की तलाश करते हुए आर्थिक काया-पलट के प्रवर्तक भी हो सकते थे और राम के प्रति विशाल क्षेत्र के जनों की निष्ठा प्रगाढ हो सकती थी। केवल शस्त्र के बल पर, वह कितना भी उन्नत क्यों न हो, यह सम्मान, सहयोग और समर्थन प्राप्त नहीं किया जा सकता था जो मिथकीय भाषा में वानर, भालु, गीध, शबर, मतंग जनों के बीच उन्हें प्राप्त हुआ दिखाई देता है।
टोटमी नामों में कुछ आज तक वचे रह गए हैे, जैसे काक, जो कश्मीर में अधिक आसानी से पहचाने जा सकते हैं, परन्तु ये पूरे उत्तर भारत में फैले हुए थे, यह काकोरी, काकीनाडा आदि नामों से समझा जा सकता है। वानर-भालु नाम सांकेतिक हैं, संख्या बहुत अधिक रही हो सकती है। वानर, वन और वनराय की समीपता के कारण इस टोटम से जुड़े लोगों की मानवीय पहचान बाँदा और बाँद्रा जैसे नामों में भी आसान नहीं है। गीधनी और गिद्धौर जैसे नामों और इनकी नृत्यशैली गिद्दा को शायद ही किसी ने जनजातीय पहचान का अवशेष माना हो। मेरे अपने जन्मस्थान में और उसके आस पास चार-पाँच सौ साल पहले आदिम जनों का निवास था जिन्हें बचपन में हम थारू के रूप में जानते रहे हैं, परंतु ग्राम नामों में भरवलिया (भर), बनरहिया (वानर), अकोल्ही (कोल), मुंडियारी (मुंडा), भलुआन (भालू), बघौरा (बाघ), आदि नामों से पता चलता है कि थारू (स्थविर) अनेक जनों का सामूहिक नाम है जो समान विचारधारा अपनाने से पड़ा। नृतत्वविदों को इन पर काम करना चाहिए पर काम करने की सूझ के लिए जरूरी है कि वे पश्चिमी वैचारिक लबादे को फाड़कर बाहर आएँ । हम यहाँ केवल इतना ही कह सकते हैं कि कृषिकर्म अपनाने वाले ये महापाषाणी जनों से अलग थे।
वह भारी जनसमर्थन शस्त्रबल से नहीं प्राप्त किया जा सकता जिसमें लोग राम से मंत्रमुग्ध होकर उनके भक्त बन जाते हैं। यह कोई ऐसी ही पहल हो सकती है जिससे वे लोग लाभान्वित हुए हों और यह है आहार संग्रह और शिकार और मछियारी पर जीवन यापन करने वालों के बीच खेती-बारी का प्रचार। यह निश्चित है कि खेती अपनाने वाले ये लोग महापाषाणी जनों से लाभान्वित हुए हों क्योंकि उन्हें पाषाणशिल्प और धातुविद्या दोनों का ज्ञान था और खेती करने वालों को औजारों की जरूरत थी। दोनों में लेन-देन अनिवार्य था।
रामसेतु
यह अलगाव और इसके बाद भी दोनों की अंतर्निर्भरता रामसेतु के संदर्भ में पूरी तरह स्पष्ट हो जाती है जहाँ उनका प्रतिनिधित्व नल और नील करते हैं और उन्हें जादुई दक्षता का अधिकारी माना जाता है।
इसमें सन्देह नहीं कि रामसेतु मूँगे की भित्ति ( (coral reef) है, और लाख वर्ष से अधिक पुरानी है। कुछ उत्साही इसके साथ रामसेतु नाम जुड़े होने के कारण राम को ऐतिहासिक काल से उठा पर भू-भौतिक काल में पहुँचा देते हैं जब न आदमी था न आदम। अपने पूर्वाग्रह को यथार्थ बनाने के लिए व्यग्र लोग खोपडी से बाहर जा कर सोचते हैं।
एक दूसरे ‘वैज्ञानिक परीक्षण’ के अनुसार जिसे विश्वसनीय बनाने के लिए नासा का नाम लिया जाता है, भले उसमें नासा में काम करने वाले श्रद्धालु भारतीयों का हाथ हो, इस सेतु की ऊपरी सतह को मानव निर्मित सिद्ध किया जाता है और इसमें जिन पत्थरों को उपयोग किया गया है वे आज से सात हजार साल पुराने हैं और इस तर्क से राम का समय 5000 ई.पू. मानना होगा। निष्कर्ष विज्ञान सम्मत है। इसका विरोध कौन कर सकता है। यह एक बौद्धिक आपात काल है जिसमें खोपड़ी से बाहर से आने वाला ज्ञान विज्ञान बन कर विज्ञान को उसके अधिकार क्षेत्र से बाहर कर देता है।
राम के अनेक अर्थ हैं, इनमें से कुछ हैं, प्रीतिकर, हितकर, आसान, सुंदर, सीधा, सफेद, काला। रामरज (रंगाई के काम आने वाली पीली मिट्टी), रामरस, (नमक), तक विविध प्रयोग लोक-चेतना में राम के प्रति श्रद्धा को प्रमाणित करते हैं। रामसेतु का अर्थ सुगम सेतु भी हो सकता है।
राम सेतु को बहुत पहले से राम निर्मित माना जाता था। इस शृंखला को आदम का पुल कहने वाले भी इसे जानते थे। इन दबावों के बीच विश्वास और विज्ञान के बीच एक सेतु बनाने की बाध्यता पैदा होती है।
यदि ऊपरी पत्थर सात हजार साल पुराने हैं तो ये भी मूँगे के स्तरीभूत पत्थर हुए। कहें सात हजार साल पहले इनके जीव निष्प्राण हो गए थे, इसका अश्मीभवन आरंभ हो गया था। ऐसी चट्टानें जब तक नम रहती हैं तब तक इनको टांगे से उससे भी सुथरे रूप में काटा जा सकता है जैसे हरी लकड़ी को काटा जाता है, पर बाहर निकलने पर हवा और धूप के प्रभाव से सूख जाने के बाद ये बज्राश्म की तरह अभेद्य और कठोर हो जाती हैं। यदि इनका काल निर्धारण जैव द्रव्य के निष्प्राण होने के आधार पर किया गया हो तो यह राम के जीवन काल को 1000-1400 ई.पू. मानने में बाधक नहीं होता।
रहा रामसेतु के ऊपरी स्तर के मानव निर्मित होने का विश्वास और इसका वैज्ञानिक आधार तो हम इसे जिस रूप में समझ पाते हैं वह विषय के आधिकारिक ज्ञान के अभाव में एक संभावना ही हो सकती है। समुद्र का जलस्तर तब जो भी रहा हो, दीवार चौड़ाई में बढ़ सकती थी पर जल के स्तर से ऊपर नहीं जा सकती थी न अपने पूरे प्रसार में इसकी सतह समान रही हो सकती है। उतार चढ़ाव को समतल बनाने के लिए इंजानियरों की जरूरत हो सकती थी और महापाषाणी कौशल का यहाँ उपयोग हुआ लगता है। रामसेतु केवल कोरल रीफ नहीं कोरल रीफ के ऊपर बना सेतु है, यह मानने का पर्याप्त आधार है।