Post – 2017-02-27

हिन्दुत्व के प्रति घृणा का इतिहास – ४३

विजेता और व्यापारी के पीछे पीछे पुरोधा भी जाता है, यह सनातन नियम है। ईस्ट इंडिया कंपनी के नौकर चाकर आए तो उनको धर्मोपदेश देने वाले पादरी भी आने ही थे। आ ही गए तो सद्धर्म के प्रचार की आकांक्षा भी पैदा होनी ही थी। परन्तु आरंभिक दौर में जहां दूसरे मिशनरियों की सक्रियता अधिक देखने में आती है,
अंग्रेजी चर्च सक्रिय नहीं दिखाई देता। इसकी विस्तारवादी महत्वाकांक्षाएं 1757 के बाद हुई लगती हैं, ऐसा मेरा अनुमान है। उनकी गतिविधियों की मुझे अच्छी जानकारी नहीं है. फिर भी यह तो सच है ही कि कंपनी ने अपने व्यापारिक हित को ध्यान में रख कर पर अंकुष लगा रखा था और इसके विपरीत अपने अध्येताओं का दल भारत को समझने – इसके साहित्य, संस्कृति, मूल्यव्यवस्था, इतिहास के अध्ययन पर लगा रखा था।

इसके पीछे एक सोची समझी चाल थी जिसका संकेत करना इसलिए जरूरी लगता है कि इसको समझने का प्रयत्न नहीं किया गया और हम इससे मुदित पुलकित होते रहे, कि उन्होंने हमारे लिए क्या कुछ नहीं किया और इस तरंग में जब तक अपने को कोसते रहे कि हम ही इतने कृतघ्न ठहरे कि उनके उन अध्ययनों और सर्वेक्षणों के लिए उनका आभार तक नहीं मानते जो उनसे पहले कभी हुए ही नहीं थे और मान लेते हैं कि वे न आए होते तो वे अध्ययन हुए ही न होते, जिसका प्रतिवाद अपनी वर्तमान मौजवादी प्रवृत्ति को देखते हुए और पहले के इतिहास पर गौर करते हुए, मैं भी नहीं कर सकता परन्तु यह मानता हूं कि भूराजस्व के दोहन से उत्साहित वे यह पता लगाने का प्रयत्न कर रहे थे कि इस विषाल देश की अन्य संपदाएं क्या हैं, उनका कैसे दोहन किया जा सकता है, इसके समाज को उसकी शक्तियों और दुर्बलताओं को कितना अधिक समझा जा सकता है कि उसे शतरंज की गोटों की तरह चलाया और उनके आक्रोश को अपनी ओर आने की जगह एक दूसरे की ओर मा़ेड़ कर उनको नियन्त्रित किया जा सके।

हम यहां इतना ही कह सकते हैं कि धर्मप्रचार को नियन्त्रित करते हुए भारतविद्या पर ध्यान देना किसी तरह की सदाषयता नहीं, एक चतुराई थी और इसको न समझ पाने के लिए या सही ढंग से रेखांकित न कर पाने के लिए अपने अध्येताओं को जितना भी दोष दें, अपना बहुत कुछ गंवाने के बाद भी उनकी समझदारी की प्रषंसा करनी पड़ती है।

अभिमुखता में अंतर आने मात्र से परिणाम कितने भिन्न हो सकते हैं इसका एक उदाहरण यह है कि प्राच्यवाद को बढ़ावा तो सोची समझी नीति के कारण दिया गया था, परन्तु हम कोई काम जिस इरादे से करते हैं, परिणाम उसके अनुरूप ही नहीं आते हैं, और जहां परिणाम अनुकूल होते भी हैं, वहां भी उससे ठीक उल्टे परिणाम उसी क्रिया से निकलते हैं। भारतविद्या या प्राच्यवाद से एक नई समस्या पैदा हो गई। एक बार प्राचीन कृतियों से परिचित होने के बाद प्राच्यवादी ईसाई मूल्यों की तुलना में हिन्दू मूल्यों और आदर्शों से इतने प्रभावित हो गए थे कि धर्म प्रचार के लिए आतुर मिशनरियों की भर्त्सना गाली की चुटीली भाषा में कहें तो ‘ये उल्लू के पट्ठे और कूड़मग्ज’ हैं कहते हुए (these bigotted and ignorant missionries) करने लगे थे! ऐसे कथन नीतिगत नहीं हो सकते, ये मैकनाटन के शब्द हैं जो फौजी अफसर थे और लगता है वी.के. सिंह की तरह गोली की भाषा में बात करते थे और अफगान युद्ध में गोली के ही शिकार भी हुए थे।

मिषनरियों के लिए यह अकल्पनीय था और वे इन प्रतिबन्धों से बहुत क्षुब्ध थे। जैसा कि एक डेनिश मूल के पादरी Swartz ने Dr . Gaskin, Secretary of the Society for promoting Christian Knowledge, Tanjore को लिखे अपने एक पत्र में शिकायत की थी कि जब उसने आदिवासियों के बीच अपने धर्मान्तरण कार्य का ब्यौरा देते हुए हिन्दुओं के धर्मान्तरण के समर्थन का प्रस्ताव रखा तोः
Mr. Montgomerie Campbell gave his decided vote against the clause, and reprobated the idea of converting the Gentoos.

उन्होंने अपने लोकोपकारी कार्यो मिसाल देते हुए यह बताया कि धर्मप्रचार कितना जरूरी है, इसके बावजूद:
It is asserted that a missionary is a disgrace to any country….
But Mr. Montgomerie Campbell says, that the Christians are profligate to a proverb…
It is asserted, that the inhabitants of the country would suffer by missionaries…
मिशनरियों में इस बात से खासी बेचैनी थी. उनका कहना था कि यदि यही हाल रहा तो कम्पनी के गोरे कर्मचारी हिन्दू हो जायेंगे. समस्या हिन्दुओं को दीक्षित करने की जगह यूरोपियनों को सुधारकर ईसाइयत में आस्थावान बनाए रखने की होती जा रही थीः
… Should a reformation take place amongst the Europeans, it would be the greatest blessing to the country.
कुछ के बारे में, जैसे H.H. Wilson के बारे में बहुत बाद तक यह मिथ्या आरोप लगता रहा कि वह जनेऊ भी पहनता है. उनको शिकायत थी कि कम्पनी धर्म बेचकर पैसा कमाने पर लगी हुई है. इसी चिन्ता से कातर होकर चाल्स ग्रांट ने जिसने माल्दा में रेशम के कारोबार से खासी दौलत कमाई थी और जिसे गवर्नर जनरल लार्ड कार्नवालिस ने कंपनी के प्रबन्धन में भी स्थान दिलाया था।

चाल्र्सग्रांट के सिल्क कारोबार पर ध्यान दें तो यह मुख्य रूप से अफीम के बदले सिल्क का कारोबार सिद्ध होगा और यदि यह लार्ड कार्नवालिस के संपर्क में आया था और ईस्ट इंडिया कंपनी में भी डाइरेक्टर के पद तक उठा था तो इसलिए कि कूटनीतिक बाध्यताओं के कारण कंपनी कुछ समय तक सीधे अफीम का व्यापार न करके बिचैलियों के माध्यम से यह काम करती रही थी।

एक सज्जन ने अफीम के इस कारोबार से किसी डाॅक्युमेंटरी के आधार पर राममोहन राय को भी अफीम के कारोबार से जोड़ दिया था परन्तु मेरी जानकारी के अनुसार भूराजस्व विभाग में क्लर्क थे, न कि किसी और उन्होंने महाजनी या कहें सूद पर पैसा चलाने से पैसा कमाया था, न कि अफीम के कारोबार में। अफीम का कारोबार कंपनी या उसके विष्वस्त अंग्रेजों के हाथ में, हिसी हिन्दुस्तानी को यह सुयोग या दुर्योग प्राप्त न था। यही हाल नील और चाय के उत्पादन और विपणन का था। उत्पादक, मजदूर, नौकर भारतीय, मालिक अंग्रेज।

चाल्र्स ग्रांट धार्मिक प्रकृति का था या कहें नषे और अपराध के कारोबार का नैतिक आवरण उग्र धार्मिकता होती है, इसलिए धर्म को लेकर उसकी सक्रियता समझ में आती है। सुदूर दक्षिण में स्वात्र्ज से उसका मैत्री संबंध भी अफीम के कारोबार से जुड़े थे या नहीं इसका कोई साक्ष्य हमारे पास नहीं है परन्तु हमारी जानकारी खासी सतही है और बहुत सी सूचनाएं इधर उधर से जुटाई होती हैं, इसलिए मेरे ज्ञान पर भरोसा करना धोखा खाना है, मेरी दृष्टि अवष्य अलग है और उसके विषय में मुझे कोई भ्रम नहीं। भरोसा भी उसी पर है।

चाल्र्स ग्रांट ने धर्म की ग्लानि से दुखी हो कर कंपनी के अधिकार क्षेत्र में आने वाले भारत का दौरा करते हुए इसका अध्ययन किया था और वाद में जब वह कंपनी के डाइरेक्टर पद तक पहुंचा तो और ब्रिटिश संसद का सदस्य बना तो नीतिगत परिवर्तन तो होना ही था!

इंग्लॅण्ड को भेजी जानेवाली पादरियों की रपटों से इंग्लैंड में भी कम्पनी की नीति को लेकर खासी बेचैनी थी और लगता है कम्पनी के डाइरेक्टरों में भी कुछ चिंता पैदा हुई थी, ग्रांट के डाइरेक्टर बनने के बाद यह चिन्ता जोर पकड़नी ही थी। फिर भी प्राच्यवादी अपने रुख पर अड़े हुए थे और मिशनरियों के साथ तो लोकतंत्र को प्रभावित करने वाला ईसाई जनमत भी था। लगभग दस साल का लंबा विवाद चला। दोनों अपना पक्ष पुस्तिकाओं और परचों के माध्यम से पेष करते रहे! इसे पैम्फलेट वॉर के रूप में जाना जाता है, मगर आप इस नाम से इन्टरनेट छानने चलें तो हाथ कुछ न आएगा। कम से कम मेरे हाथ न लगा। मिशनरियों में, जैसे बकनान, जिसको ग्रांट ने ही बुलाया था, का मानना था कि परमात्मा ने कम्पनी के साम्राज्य के बहाने ईसाइयत के प्रचार का अवसर प्रदान किया है(God had given the Company dominion over India for the specific purpose of India’s Christianisation) और इसे धर्मान्तरण का अभियान न चला कर इस अवसर को व्यर्थ किया जा रहा है और विल्बरफोर्से की समझ से Our religion is sublime, pure and beneficent. Theirs is mean, licentious and cruel. और मेरी तुच्छ समझ से दोनों में से कोई गलत नहीं था. दोनों एक ही संकुल या वस्तुस्थिति को दो भिन्न कोणों और ऊध्र्वताओं से देख रहे थे. इसको लेकर ब्रिटिश संसद में भी बहस चली और इसका परिणाम था १८१३ का चार्टर ऐक्ट, जिससे मिशनरियों को धर्म प्रचार और धर्मान्तरण की ऐसी खुली छूट जिसमे वे रास्ता रोक कर हिन्दू देवियों, देवताओं को खुल कर गालियां देते हुए हिंदुओं को अपमानित करने लगे, इसका परिणाम था राममोहन रॉय का, जो इससे पहले पहले सर्वधर्म समन्वयवादी थे, आत्मनिरीक्षण, ईसाइयत की अतक्र्यताओं की खुलकर आलोचना और हिन्दू आस्था की जड़ों की तलाश और ब्रह्मसमाज की स्थापना, और समाज को आधुनिक बनाने के लिए संस्कृत की जगह इंग्लिश शिक्षा का समर्थन।

Post – 2017-02-27

हिन्दुत्व के प्रति घृणा का इतिहास – ४३

विजेता और व्यापारी के पीछे पीछे पुरोधा भी जाता है, यह सनातन नियम है। अतः ईस्ट इंडिया कंपनी के नौकर चाकर आए तो उनको धर्मोपदेश देने वाले पादरी भी आने ही थे। आ ही गए तो सद्धर्म के प्रचार की आकांक्षा भी पैदा होनी ही थी, परन्तु आरंभिक दौर में जहां दूसरे मिशनरियों की सक्रियता अधिक देखने में आती है, अंग्रेजी चर्च सक्रिय नहीं दिखाई देता। इसकी विस्तारवादी महत्वाकांक्षाएं 1757 के बाद हुई लगती हैं, ऐसा मेरा अनुमान है। उनकी गतिविधियों की मुझे अच्ची जानकारी नहीं है। फिर भी यह तो सच है ही कि कंपनी ने अपने व्यापारिक हित को ध्यान में रख कर इनको दबा रखा था।

अभिमुखता में अंतर आने मात्र से परिणाम कितने भिन्न हो सकते हैं इसका एक उदाहरण यह है कि प्राच्यवाद को बढ़ावा तो परितोषवादी नीति के कारण दिया गया था, परन्तु इससे एक नई समस्या पैदा हो गई थी। एक बार प्राचीन कृतियों से परिचित होने के बाद प्राच्यवादी ईसाई मूल्यों की तुलना में हिन्दू मूल्यों और आदर्शों से इतने प्रभावित हो गए थे कि धर्म प्रचार के लिए आतुर मिशनरियों की भर्त्सना गाली की चुटीली भाषा में कहें तो ‘ये उल्लू के पट्ठे और कूड़मग्ज’ हैं कहते हुए (these bigotted and ignorant missionries) करने लगे थे! ऐसे कथन नीतिगत नहीं हो सकते, ये Macknotten के शब्द हैं जो फौजी अफसर थे और लगता है गोली की भाषा में बात करते थे और अफ़ग़ान युद्ध में गोली के ही शिकार हुए थे।

फिर भी कंपनी की नीति बहुत स्पष्ट थी. भारतीय समाज में धर्म प्रचार के विपरीत थी। जैसा कि एक डेनिश पादरी ने अपने एक पत्र में शिकायत भरे स्वर में निवेदन किया थाः
Mr. Montgomerie Campbell gave his decided vote against the clause, and reprobated the idea of converting the Gentoos.

अपने लोकोपकारी कार्यो की वकालत करते हुए खेद प्रकट किया था कि इसके बावजूद:
It is asserted that a missionary is a disgrace to any country.
But Mr. Montgomerie Campbell says, that the Christians are profligate to a proverb.
It is asserted, that the inhabitants of the country would suffer by missionaries.
मिशनरियों में इस बात से खासी बेचैनी थी. उनका कहना था कि यदि यही हाल रहा तो कम्पनी के गोरे कर्मचारी हिन्दू हो जायेंगे. समस्या हिन्दुओं को दीक्षित करने की जगह यूरोपियों को सुधारकर ईसाइयत में आस्थावान बनाए रखने की होती जा रही थी
… Should a reformation take place amongst the Europeans, it would be the greatest blessing to the country.

कुछ के बारे में, जैसे H.H. Wilson के बारे में बहुत बाद तक यह मिथ्या आरोप लगता रहा कि वह जनेऊ भी पहनता है. उनको शिकायत थी कि कम्पनी धर्म बेचकर पैसा कमाने पर लगी हुई है. इसी चिन्ता से कातर होकर चाल्स ग्रांट ने जिसने माल्दा में रेशम के कारोबार से खासी दौदत कमाई थी और जिसे लार्ड हिन्दुत्व के प्रति घृणा का इतिहास – ४३

चाल्र्सग्रांट के सिल्क कारोबार पर ध्यान दें यह मुख्य रूप से अफीम के बदले सिल्क का कारोबार सिद्ध होगा और यदि यह लार्ड कार्नवालिस के संपर्क में आया था और ईस्टइंडिया कंपनी में भी डाइरेक्टर के पद तक उठा था तो इसलि कि कूटनीतिक बाध्यताओं के कारण कंपनी कुछ समय तक सीधे अफीम का व्यापार न करके बिचैनियों के माध्यम से यह काम करती रही थी पर मेरी जानकारी के अनुसार राममोहन राय भूराजस्व विभाग में क्लर्क के और उन्होंने महाजनी या कहें सूद पर पैसा चलाने से पैसा कमाया था, न कि अफीम के कारोबार में किसी शामिल हो कर।

इंग्लॅण्ड को भेजी जानेवाली पादरियों की रपटों से इंग्लैंड में भी कम्पनी की नीति को लेकर खासी बेचैनी थी और लगता है कम्पनी के डाइरेक्टरों में भी कुछ चिंता पैदा हुई थी फिर भी प्राच्यवादी अपने रुख पर अड़े हुए थे और मिशनरियों के साथ तो अवाम था. लंबी बहसबाजी चलती रही, पक्ष विपक्ष में तर्क और सफाई पुस्तिकाओं और परचो के माध्यम से दी जाती रही ! इसे पैम्फलेट वॉर के रूप में जाना जाता है मगर आप इस नाम से इन्टरनेट छानने चलें तो हाथ कुछ न आएगा। कम से कम मेरे हाथ न लगा।

मिशनरियों में, जैसे बकनान का मानना था कि परमात्मा ने कम्पनी के साम्राज्य के बहाने ईसाइयत के प्रचार का अवसर प्रदान किया है और इसे व्यर्थ किया जा रहा है (God had given the Company dominion over India for the specific purpose of India’s Christianisation) और विल्बरफोर्से की समझ से Our religion is sublime, pure and beneficent. Theirs is mean, licentious and cruel.। मेरी तुच्छ समझ से दोनों में से कोई ग़लत नहीं था। दोनों एक ही संकुल या वस्तुस्थिति को दो भिन्न कोणों और उर्ध्वताओं से देख रहे थे. इसको लेकर ब्रिटिश संसद में भी बहस चली और इसका परिणाम था १८१३ का चार्टर ऐक्ट जिससे मिशनरियों को धर्म प्रचार और धर्मान्तरण की ऎसी छूट जिसमे वे रास्ता रोक कर हिन्दू देवियों, देवताओं को खुल कर गालियां देते हुए हिंदुओं को अपमानित करने लगे, इसका परिणाम था राममोहन रॉय का, जो इससे पहले पहले सर्वधर्म समन्वयवादी थे आत्मनिर्रीक्षण, ईसाइयत की अतर्क्यताओं की खुलकर आलोचना और हिन्दू आस्था की जड़ों की तलाश और ब्रह्मसमाज की स्थापना, और समाज को आधुनिक बनाने के लिए संस्कृत की जगह इंग्लिश शिक्षा का समर्थन।

Post – 2017-02-26

क्या निहलानी का विरोध करने वालों में से किसी को यह पता है कि भोजपुरी में स्त्री के गुप्तांग को क्या कहते हैं? क्या पता है कि अंडर को अन्दर पढ़ा जा सकता है ? क्या पता है लैबिया मेजोरा का अर्थ क्या है? अर्थात् लैबिया का अर्थ लिप या ओठ होता है? लिपस्टिक का आकार अर्थ और उस पूरे शीर्षक का अर्थ बदल जाएगा । आप जूता निकाल कर निहलानी का विरोध करने वालों पीटना शुरू कर देंगे। निदेशक को तो अवश्य।
अधिक से अधिक लोग साझा करें. यह बदतमीजी को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कह कर शोर मचाने वालों के खिलाफ मोर्चा है.

Post – 2017-02-26

मैं इन दिनों अपनी पुस्तक के तीसरे खंड का प्रूफ देख रहा हूं । सामने ३१.५.१६ की पोस्ट का एक अंश हैः
“अभी कल ही खबर आ रही थी कि किसी प्रतिष्ठित माने जाने वाले अस्पताल में आक्सीजन की जगह नाइट्रोजन की नली लगा दी गई और इसमें दो बच्चों की जान चली गई । यह शिक्षा प्रणालीको बताना है कि वह कौन सी नली लगा रही है कि ज्ञानका स्तरघटता गया है और विस्फोट का स्तर बढ़ता गया है और सारे डिग्रीधारी नौजवान िवस्फोटक गैस के इतने आदीहो गए हैं कि उसे अधिकाधिक मात्रा में पाने के लिए आन्दोलन कर रहे है ।”
मेरा विश्वास है कि िदल्ली विश्वविद्यालय या जनेवि के छात्रसंघ या िशसं के पास इसका जवाब देगा।

Post – 2017-02-25

हिंदुत्व के प्रति घृणा का इतिहास- 42

जब हमारी निंदा की जाती है तब हम उसके पीछे निंदा करने वाले के इरादे तलाशते हैं. जब प्रशंसा की जाती है तो उसके पीछे काम करने वाले इरादों का पता नही लगाते. उनसे सहमत हो जाते हैं जब कि इरादे उसके पीछे भी हो सकते हैं. जिस व्यक्ति , समाज या देश के हित हमसे जुडे हैं उसके किसी कथन पर पूरा भरोसा नहीं किया जा सकता। प्रशसा या निन्दा ही नहीं उसके लिखित आश्वासन, विधानों और करारों तक की आप्तता उसकी करनी की कसौटी पर ही कसी जा सकती है, या कसी जा सकती है इस बात से कि इसमें किन बातों को छोड़ा, किनकों अनुपात से अधिक महत्व दिया और किनको अपनी ओर से जोड़ा या तोड़ा-मरोड़ा गया है।

उदारता हो या कठोरता, हमारा ध्यान उसके पीछे काम करने वाले इरादों पर होना चाहिए। अंग्रेज मिशनरियों की आलोचनाओं को पढ़ कर हम आहत होते हैं, जब कि इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि उनके द्वारा इंगित किए जाने वाले दोष काल्पनिक नहीं थे, वे हमारे समाज में थे और उनके बचाव में कुछ नहीं कहा जा सकता। यदि शिकायत की जा सकती है तो इस बात की कि उनको वे अच्छाइयां नहीं दिखाई देती थीं जो भी इस समाज में थी। उनके मन में घृणा इतनी गहरी थी कि अपने से भिन्न रूचि, प्रकृति, परिवेश, मूल्यप्रणाली को गर्हित सिद्ध करने के लिये अभद्र भाषा और व्यवहार से बाज नहीं आते थे। जिन बुराइयों को वे लक्ष्य करते थे उनके अतिरिक्त कुछ भी न देख पाने के कारण वे उस समाज में जिनमें ये बुराइयां थीं किसी समझदार और नैतिक व्यक्ति के समायोजित रहने की कल्पना नहीं कर सकते थे। इसके अभाव में वह जुनून पैदा भी नही हो सकता था जो धर्मान्तरण को धर्मयुद्ध के स्तर पर चलाने के लिए जरूरी था।

परंतु अठारहवीं शताब्दी तक उनकी आलोचनाओं की ओर कम्पनी के अंग्रेज अमलावर्ग तक ध्यान नहीं देता था। भारतीयों पर उनकी आलोचना का असर भला कैसे होता ! पहली नज़र में यह बात चकित करने वाली लगेगी कि उससे पहले के प्रशासकों में इतनी धर्मनिरपेक्षता कहाँ से आ गई थी कि उनमें से कोई भी ऐसा नहीं निकला जो धर्मप्रचार को प्रोत्साहन दे। इसके पीछे तीन कारण थे। पहला यह कि पुर्तगालियों की तरह अंग्रेज मुसलमानों के पड़ोसी नहीं थे न ही उनमें धर्मयुद्धों का वैसा जुनून था जो स्पेनियों और पुर्तगालियों में था इसलिए उन्होंने व्यापार के साथ धर्मांतरण को नही मिलाया था. उनकी कम्पनी मुनाफे के लिए बनी थी और मुनाफ़े को प्रभावित करने वाली कोई गतिविधि उन्हें सह्य न थी. दुसरा कारण था व्यापार के अतिरिक्त मुग़लों से राजस्व वसूली का ठेका पाने के बाद जितना लाभ व्यापार से नहीं होता था उससे अधिक उगाही किसानों को भुखमरी के कगार पर पहुंचा कर कम्पनी के शेयर धारकों को अधिक से अधिक लाभ दिलाने की खब्त जिससे जनता में भारी विक्षोभ था. इसमें धार्मिक मामलों में किसी तरह के हस्तक्षेप से इसे उग्र नहीं बनाना चाहते थे। परन्तु सबसे बड़ा कारण यह था कि फ्रांसीसी एक प्रतिस्पर्धी शक्ति के रूप में अपने कारोबार और क्षेत्र विस्तार के लिए प्रयत्नशील थे और कुछ नवाबों और राजाओं से उनके अच्छे सम्बन्ध थे और उनके अधीन क्षेत्र में उनका अपनी प्रजा से अच्छा सम्बन्ध था जब कि सभी राजा और नवाब अंग्रेजों के विस्तारवादी इरादों और कारनामों से आतंकित थे. ऐसे में यदि मिशनरियों के कारनामों से जनविक्षोभ उग्र होता तो पासा पलट सकता था।

इन कारणों से सांस्कृतिक स्तर पर कम्पनी के डाइरेक्टरों का रुख उतना ही उदार था जितना आर्थिक स्तर पर बेरहम। इसी के चलते भारत की भाषाओँ के विकास, प्राचीन भारतीय साहित्य के अध्ययन, उनके उज्वल पक्ष के उद्घाटन और वर्तमान हिन्दू समाज की विकृतियों को बाद कि गिरावट से जोड़कर देखा जाता रहा और इसके कारण इन प्राच्यवादियों का रुख अनेक सामाजिक तथ्यों पर मिशनरियों से इतना उलटा था कि जिसे मिशनरी देख नहीं पाते थे वे प्राच्यवादियों को दिखाई देते थे, जिनमे मिशनरी बुराइयां तलाशते थे उनमें प्राच्यवादियों को असाधारण परिपक्वता दिखाई देती थी.

इसका एक कारण यह था कि प्राच्यवादियों में सुशिक्षित, तर्कवादी दौर के खुलेपन में शिक्षित संभ्रांत पृष्ठभूमि से निकले लोगों का बाहुल्य था जब कि मिशनरियों की स्थिति इससे उलटी थी। सीताराम गोयल ने डिक कुईमान (Dick Kooiman ) के आधार पर जिन्होंने पादरियों की सामाजिक पृष्ठभूमि पर शोध किया था उद्धृत किया है की उनकी धर्म और आत्मिक उत्थान में उतनी रूचि नही होती थी. यह उनके लिए नौकरी पाने का जरिया था और अधिकांशतः वे पश्चिमी समाज के पिछड़े तबकों के होते थे और इसलिए हम मान सकते हैं की उनको अपनी झक में वैसा ही गर्व अनुभव होता था जैसा दंगों में अपनी उसी कौम के सम्मान और रक्षा के लिए छूरा और कटार लेकर मैदान में उतरने वाले दबे हुए तबकों को जब की मारे उन्ही के तबके के लोग जाते है भले उनका मजहब अलग हो.

शिक्षा, संस्कार और उन्नति के रास्तों की तलाश की इस भिन्नता के कारण भी दोनों के मूल्यांकन अक्सर उलटे होते थे. प्राच्यवादियों का मूल्यांकन भी निर्दिष्ट नीतियों के अनुरूप था परन्तु उनका तरीका तार्किक, इतिहासबोध से प्रेरित और वस्तुपरक था इसलिए जहाँ मिशनरियों को दोष दिखाई देता उसमें भी उन्हें एक उच्च सभ्यता की अधिक न्यायपूर्ण व्यवस्था दिखाई देती थी. उदाहरण के लिए वर्ण व्यवस्था में मिशनरियों को सामाजिक भेदभाव दिखाई देता था तो प्राच्यवादी उन कालों के दूसरे समाजों से तुलना करने पर इसे सर्वाधिक न्यायपूर्ण मानते थे और इसे प्राचीन भारतीय सभ्यता की महिमा का प्रमाण ।

इसी तरह यदि सतीप्रथा मिशनरियों के लिए सबसे जघन्य प्रथा थी तो प्राच्यवादियों को पता था की यह कुरीति मध्येशिया से आई. ऋग्वेद में तो विधवा अपने देवर के साथ सहजीवन की अधिकारिणी थी, मिशनरियों की नज़र हिन्दू समाज में एक दायरे में बालिकावध पर थी पर प्राच्यवादियों को यह नहीं समझ में आता था की जिस मूल्यव्यवस्था में अंडा खाना भ्रूणहत्या माना जाता रहा हो, जो किसी भी कारण से अपनी रक्षा में अक्षम हो उस पर प्रहार नहीं किया जा सकता, जिसमें नारी पर प्रहार करना वर्जित था उसमें बालिका वध कैसे संभव है और इस सोच के विद्वान इसे भी मध्यशियाई कबीलेपन की देन मान सकते थे जिसमें लड़की किसी को देना अपना अपमान करना था, किसी से मांगना उस पर अपना अधिकार मानने जैसा था और जिस के कारण मुग़लों ने हरम बसाए पर उनकी किसी कन्या का विवाह तक किसी से न हो पाया, यह विकृति उनकी देन हो सकती थी।

एक की समझ में हिन्दू विश्व का सबसे गर्हित समाज था, दूसरे की नज़र में हिन्दू मूल्यमान उत्कृष्टता के शिखर थे।

दोनों में कोई पूर्णतः सही न था, पर दोनों दो मानसिकताओं के कारण भिन्न थे. दोनों के पास अपने तर्क और समाधान थे परन्तु यदि दोनों अपने विचारों में स्वतंत्र होते तो उन्नीसवीं शताब्दी के आरम्भ होते ही पास पलट नहीं जाता।
दुर्भाग्य की बात है कि मार्क्सवादी इतिहासलेखकों ने मिशनरियों के इतिहासदर्शन को अपने इतिहासलेखन का आधार बनाया और तथाकथित राष्ट्रवादी लेखकों ने प्राच्यवादियों को महतव् दिया। जब ये इतिहासकार अपने को पेशवर इतिहासकार कह कर यह लाभ लेना चाहते हैं कि वे अधिक भरोसे के है तो मुझे उनकी आलोचनात्मक क्षमता पर सन्देह होता है , हो सकता है इसका कारण यह हो कि मैं पेशेवर इतिहासकार न होने के और हीनभावना से ग्रस्त होने के कारण ऐसा सोचता होऊँ ।

आगे की चर्चा कल.

Post – 2017-02-24

व्यवधान

भोजपुरी पर बात तो टलती जा रही है, पर आज की विडम्बना को भोजपुरी के एक मुहावरे से आरम्भ करने में कोई हर्ज नहीं.

मुहावरों की साझेदारी तो अखिल भारतीय है जिसमे भारत सार्क समुच्चय बन जाता है पर कुछ आंचलिक सीमाओं में बंधे रह जाते हैं, इसलिए भोजपुरी का नाम लेना पड़ा.

मुहावरा है “लिखि लोढा पढ़ि पत्थर”.

हमारी भाषाओं के ऊपर गहराते संकट का एक लक्षण यह है कि हम अपने मुहावरे भूलते जा रहे हैं. यदि याद दिला दिया जाय तो भी उनका सटीक अर्थ करने में झिझक बनी रहती है.

हमारी सर्जनात्मक रचनाओं में मुहावरों और लोकोक्तियों का प्रयोग नदारद है. भोजपुरी और हिंदी को प्रतिस्पर्धी भषाएं मान कर जो लोग भोजपुरी और हिंदी प्रदेश की दूसरी प्रधान बोलियों को आठवीं अनुसूची में आने का विरोध करते हैं उन्हें सोचना चाहिए कि यह संकट प्रधान बोलियों को महत्व देने के कारण आया है या हिंदी को राजरानी बनाने की विकलता में उनकी उपेक्षा करते हुए, अपनी जमीन से कट जाने के कारण आया है? भाषा का अपनी लोकोक्तियों, अपने मुहावरों से कटते जाना उसके सत्व के ह्रास का, अपने समाज से कटने का, स्थानीय होते हुए भी अपरिचित बनते जाने का प्रमाण है. हिंदी के शत्रु उसे राजरानी बनाने को आतुर लोग रहे हैं, नं कि प्रदेश की भाषाएं जिनको बोलियां कह कर उनका अपमान किया गया और अब उनको हिंदी की सर्वस्वीकार्यता में बाधक मान कर कुछ लोग शंकालु हो रहे हैं.

अपनी तुच्छ बुद्धि से मैं जो कुछ समझता हूँ वह यह कि जब हिन्दी नाम भी किसी को नहीं सूझ सकता था तब भी यह एकान्वित प्रदेश था. इसकी विशेषता हिंदी की स्वीकार्यता नहीं, वह रहस्यमय बोध है कि जो भी किसी कारण से प्रिय होगी उसे सभी अपना लेंगे.

इसकी व्याख्या में यहां हम नहीं जायेंगे, पर इस बात की याद दिलाना चाहेंगे कि स्वीकार्यता के अटल चरित्र में इससे अंतर नही आता और हिंदी इस प्रदेश की भाषाओँ की स्वीकार्यता के बाद भी इनकी शिरोधार्य बनी रहेगी.

मुझे यह मुहावरा हठात याद आया, पर संशय बना रहा कि इसका सटीक अर्थ क्या है. एक गंवार कहे जाने वाले व्यक्ति को, भोजपुरी क्षेत्र की किसी महिला को इसका अर्थ करने और प्रयोग करने में कोई झिझक नं होगी, पर शिक्षति हुई तो होगी. उसकी दशा मेरे या आप जैसी ही होगी, जो अपनी जमीन से कट गए हैं और अपनी भाषा के चरित्र तक को भूल चुके हैं और फिर भी एक तराने को चुप रहते है तब भी गुनगुनाते रहते हैं, “विश्व विजय कर के दिखलायें तब होवै प्रण पूर्ण हमारा.” यह राग आप में भी बजता होगा, आप सुन नहीं पाते होंगे. दोनों का हाल एक ही है. फर्क एक है कि मैं सुनता अधिक हूँ आप बोलते अधिक है! मैं समझने के संघर्ष से गुजरने को भी उपलब्धि मान लेता हूँ और इसलिए आप बहुत कुछ कह कर भी उन कहे शब्दों का व्यवहारिक अर्थ और प्रभाव तक जानने की चिंता नही करते.
***

कल मैंने अपनी पोस्ट नहीं लिखी. यह मेरे शोक दिवस जैसा था की स्वस्थ होते हुए भी मैं इस दुविधा में पड़ा रहा कि मेरे लिखने का प्रयोजन तो सिद्ध होता नहीं फिर फेस बुक पर लिखने का प्रयोग तो विफल हो गया: रोइये जार जार क्यों कीजिये हाय हाय क्यों. मैं तो ऐसों से बात करने लगा जो जार जार रोने का भी अर्थ नहीं समझ सकते क्योंकि उन्हें पता नहीं कि झर झर आंसू बहाने का अनुवाढ है यह .

तो लिख लोढा पढ़ि पत्थर का अर्थ हुआ जो लिखना जानता है, किताबें पढ़ रखी हैं पर सोचना देखना समझना जानता ही नहीं, जो पढ़ा उसे सच मान लेता है , उसे ही दुहराता है, उसी को अंतिम ज्ञान मानता है, उसी को बार बार दुहराता है, जपता है और इस लिए जपाट है और उस पत्थर शिला जैसा है जो उस पर अंकित खरोंचों के बाद भी को री रह गई हो.

मैंने अनुरोध किया था जो मैंने लिखा है उसे मत मानों, जीतने के लिए बहस मत करो, समझने की प्रक्रिया के भहागीदार बनो. जो गलत हो उसे किसी दूसरे ने ऐसा लिखा है इसलिए वह ग़लत है ऐसा मत मनो, सूचनाओं के दबाव में मत आओ, अपनी घ्राणशक्ति पर, अपने विवेक पर भरोसा करो, किसी दूसरे की बुद्धि से काम मत लो, तुम्हारे पास देखने को अपनी आँख है, सोचने के लिए सिर्फ अपनी बुद्धि है. उस पर भरोसा करो. यदि तुम मानते हो कि तुम सही हो, तो कठोर शब्दों का प्रयोग मत करो, गालियां मत दो, आवेग गर्भित भाषा का प्रयोग मत करो, बोलते समय अधिक ऊंची आवाज में दहाड़ते हुए अपनी बात मत रखो, क्योंकि ये प्रमाणित करती है कि तुम असन्तुलित हो.

क्या इनका पालन हुआ? सबको दोष भी नही दिया जा सकता, फिर भी वाचाल लोग एक झटके में बहुत कुछ बनने के लिए कुतर्क करते है तो खिन्नता होती है.
मेरा अपना विरोध हो तो सहन किया जा सकता है, मैं अभी जीवित हूँ अपना बचाव कर सकता हूँ. पर जो लोग अपनी वकालत करने को नहीं रह गए हों उनकी आलोचना करो पर भर्त्सना नहीं, ऐसा देख कर बहुत क्लेश होता है.
राजा राममोहन राय के विषय में टिप्पणियों की भाषा और आरोप ने मुझे व्यवथित किया. पहले भी गांधी जी के विषय में गर्हित टिप्पणियां पढ़ आया हूँ. असहमति जरूरी है, पर अभद्रता के बिना काम चल सके तो अधिक कल्याणकर हो.

जिस टिप्पणी ने मुझे दुखी किया वह यथापठित का प्रचार है इसमें तथ्य और व्यख्या सही हैं या नही इसकी जांच पर समय लगाने का समय नहीं पर किस असावधानी का परिचय दिया गया है इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है, टिप्पणीकार का कहना है बगाल में सती प्रथा थी ही नहीं. समय बर्वाद करने से बचने के लिए मैं मान लेता हूँ, पर इस दशा में आपको यह भी मानना होगा कि उस प्रथा के बंद होने पर काशी और मथुरा वृन्दावन भेज दी जा ने वाली बगाली विधवाएं भी नहीं रही होंगी जिनकी अतृप्ति के कारण “सांड़, राण, सीढी सन्यासी, इनसे बचे तो सेवे काशी.

मैं अपनी समझ से एक समस्या पर एक पुस्तक लिख रहा हूँ जो लेखनं काल में ही आपको टिप्पणी या अपनी असहमति जताने के लिए भी खुली है पर मर्यादा का ध्यान नं रखते हुए यथा पठित वाचकों को आगे से उत्तर सेने की जगह मैं ब्लॉक भी कर सकता हूँ क्योंकि वे मेरे काम में बाधक हैं. सही होना जरूरी नहीं है पर संतुलन और शिष्ट भाषा जरूरी है. राजा राममोहन रॉय के बारे में इन आभासिक कथनों के सन्दर्भ में इस विषय के अधिकारी विद्वान श्री सीतराम गोयल की पुस्तक History of Hindu Christian encounter में राजा राम मोहनं रॉय को देखें तो इन प्रस्तुतियों को समझने में आसानी होगी.उसमें किसी तथ्य को छिपाया नहीं गया है पर सन्दर्भ और औचित्य का ध्यान रखा गया है.

Post – 2017-02-22

हिंदुत्व के प्रति घृणा का इतिहास – 41

यह सोचकर कुछ बेचैनी होती है कि हमारी बड़ी हस्तियां १९वीं शताब्दी में पैदा हुईं और बीसवीं शताब्दी ने छुटभैये या लघुमानव पैदा किये और स्वतंत्रता से अबतक का हाल यह है कि यह फेरीवाले, फिरौतीवाले और कुछ भी पाने के लिए कुछ भी करने को तैयार रहने वाले चतुर चालाक बौने पैदा कर रही है! यह देखते जानते हुए हमें हताशा से बचने के लिए कहना पड़ता है, ‘भविष्य उज्जवल है.’

आप सोच सकते हैं कि जब साठ में ही लोग सठिया जाते हैं तो छियासी का बुढ़भस तो निराशावादी होगा ही. आप के मुंह में चाकलेट युग में भी घी शक्कर, क्योंकि हम ऐसे बौद्धिक पठार के दौर से गुजर रहे हैं कि तेजाबी गालियों का अविष्कार तो कर सकते हैं पर मशाल के रूप में दीप्ति देनेवाले मुहावरों तक के लिये हमें उन्नीसवीं शताब्दी की ओर ही देखना पड़ता हैं .

खैर, यह सवाल तब और मजेदार हो जाता हैं जब हम पाते हैं कि भारत में आधुनिक चेतना की दीपशिखा जलाने वाले व्यक्ति राजा राममोहन का जन्म अठारहवीं शताब्दी में हुआ था और ठीक उस साल में, जिसमें पलासी के युद्ध में मीरजाफर को हराकर अंग्रेजों ने पहली बार अपनी सल्तनत कायम की थी.

सोचता हूँ आखिर क्या था उस दौर में जो छीजता चला गया और क्या नया तत्व स्वतंत्रता पाने के बाद आया कि ठिगने बौने बनते चले गए?

एक ही बात समझ में आती हैं उद्विग्नता और उसे व्यक्त करने की छूट जो अठारहवी और उन्नीसवीं शताब्दी पर लागू होती हैं (जो मध्यकाल में न थी इसलिए जिसमें घाव हो सकते थे पीड़ा हो सकती थी पर चीख तक दबा कर रखनी होती थी इसलिए उसकी सर्जनात्मक भूमिका नहीं हो सकती थी.

अंग्रेजी का मुहावरा एडवर्सिटी इज द मदर ऑफ़ इन्वेंशन, शायद गलत कह गया, एडवर्सिटी की जगह नेसेसिटी कहना था, पर अधिक फर्क नही पड़ता. लेकिन जो मुहावरा अंग्रेजी में भी नहीं है वह है सफरिंग इस द मदर ऑफ़ रिकंसिलिएशन )

आश्वस्ति जनित आवेश जो स्तंत्रता पूर्व बीसवीं शताब्दी पर लागू होता हैं और संतुष्टि की मरीचिका जो उसके बाद से अबतक पर लागू होता हैं और जिसने उद्वेगजनित ज्वाला को दहकते कोयले में बदला और फिर गर्मराख में.

उपमाएं और रूपक सचाई को ग्राह्य बनाने में भी सहायक हो हैं और हमारी असावधानी में स्वयं सचाई का स्थान लेकर सचाई को समझने में बाधक भी बन जाते हैं.

मेरे मन में यह बात इसलिए आई कि मुझे लगा आधुनिक विभूतियों में ऊपर से जो क्रम बनता हैं वह हैं राजा राममोहन- स्वामी दयानंद सरस्वती – गाँधी – पटेल- नेहरू. कोई शिकायत करे कि इसमें सर सैयद अहमद और बाबा साहेब का नाम तो आया नहीं, और इस आधार पर मुझे अपनी कल्पना के अनुसार कोई आरोप लगाना चाहे तो उसकी भावनाओं का सम्मान करते हुए उस आरोप को शिरोधार्य कर लूंगा पर यह याद दिलाते हुए कि इन दोनों महापुरुषों का इस्तेमाल सत्ता ने कर लिया था इसलिए ये अपनी जमात के सरताज बन कर रह गए, जब कि यही बात उनके विषय में नहीं कही जा सकती.

राममोहन राय ने अंग्रेजी स्कूल में पढ़ाई नहीं की थी. उन्होंने बंगाली, फ़ारसी, अंगरेजी, संस्कृत पर ही अधिकार नहीं किया था, ईसाइयत के मूल को समझने के लिए हिब्रू में भी दक्षता प्राप्त की थी और उनके सामने अंग्रेजो की नौकरी नही, देश का उज्वल भविष्य था जिसमे शायद पूरे समाज की चिंता निहित थी.

जैसा हम देख आये हैं, उन्होंने बंगाली में ही नहीं फ़ारसी में भी एक साप्ताहिक निकाला था. कहे, उनके सामने सब को जोड़कर रखने की समस्या थी, यह बात कहने को दूसरों में भी थी पर जाँच पर नही मिलती थी. फारसी में भी पत्र प्रकाशित करना मुसलामानों में भी जागृति लाने की कोशिश थी. पर वह उसी अधिकार से उनके बीच पैठ नहीं बना सकते थे.

खैर मैं कहना चाहता था कि राममोहन राय ने जन जागृति के लिए प्रेस का ही इस्तेमाल नहीं किया अपितु पहले आंदोलनकारी बने और न केवल १८२३ के प्रेस ऐक्ट का विरोष किया १८३३ में नए चार्टर की हवा लगने पर स्वयम इंग्लॅण्ड जाकर पार्लमेंट के सामने वह फरियाद (पेटीशन) रखा जिसमे ज़मीन्दारों के हाथों किसानों का अमानवीय शोषण और ज़मींदारों की ज़्यादती का वर्णन था अपितु इसके लिए कम्पनी की लगानबन्दी की ऊंची दरों को जिम्मेदार ठहराया गया था. और विनय किया गया था कि लगान कम की जाए. इससे कम्पनी को होनेवाले घाटे को दूसरे तरीकों से पूरा किया जाय और इसी में एक सुझाव यह था कि ऊंचे वेतन वाले अंग्रेज कलेक्टरों की जगह कम वेतन पर हिंदुस्तानी कलेक्टर नियुक्त किये जायँ और यही से कम्पनी प्रशासन में भारतीयों की भागीदारी का सवाल उठा. अनुमान से कह सकता हूँ कि यही वह बिंदु हैं जहां ब्रिटिश सांसदों में राजा राममोहन राय का सबसे मुखर समर्थक मैकाले मिला जिसने तीन बातों की जोरदार वकालत की. एक था उच्च सेवाओं में भारतीयों की भागीदारी, दूसरी रंग, नस्ल , लिंग निरपेक्ष समान दंडसंहिता, और भारतीयों को आधुनिक ज्ञान विज्ञानं की शिक्षा देना.

यह रोचक हें कि राजा राममोहन राय जिन कारणों से संस्कृत के माध्यम से शिक्षा के विरोधी थे उन्ही कारणों से मैकाले भी. राजा राममोहन राय ने अपना निर्णय पहले ले लिया था और बहुत पहले हिन्दू कॉलेज की स्थापना की थी. मैकाले ने उस मामूली सी निधि को जो भारतीयों को सकून देने के लिए संस्कृत और अरबी पर खर्च करने के लिए थी उधर से मोड़ कर अंग्रेजी शिक्षा पर लगाने की हिमायत की और प्राचीन ज्ञान कि रक्षा के लिये काशी और दिल्ली में क्रमशः संस्कृत और अरबी की एक एक अनुदान प्राप्त संस्थाओं तक सीमित रखने की सिफारिश की. उसके तर्क जोरदार थे, उन्हें मान लिया गया. यहां तक कि उसे इनको कार्यरूप देने के लिए भारत भेजा भी गया जहां उसने इन सभी को पूरा किया.

यदि यह ब्रिटिश अमलशाही की जरूरत होती तो इन सभी को लागु भी कर दिया गया होता. पर उसकी अपराध संहिता को पार्लमेंट की मंजूरी डेढ़ दशक बाद मिली और उसे संशोधित करने के बाद पास किया गया. अनुमानतः इसका कारन यह था कि मैकाले ने इंग्लॅण्ड के विधानों को ही सूत्रबद्ध किया था जो कंपनी के पक्षपात पूर्ण रवैये के अनुकूल न थे. इसी तरह भारतीयों को सिविल सेवा में बिना भेद भाव के भर्ती करने को १९३३ के चार्टर में स्वीकार तो कर लिया गया पर इसे अमल में लाने में टालमटोल होती रही और जब शासन बदल गया तब महारानी के इसी आशय के आदेश के बाद भी अड़ंगे डाले जाते रहे और यही से आरम्भ होता हैं अधिकारों की लड़ाई का दुसरा दौर जिसका परिणाम थी कांग्रेस की स्थापना.

कहें एक सीमित अर्थ में मैकाले भारतीय अधिकारों की लड़ाई में भारतीय आकांक्षाओं के समर्थन में खड़ा दिखाई देता हैं न की ब्रिटिश साम्राज्यवाद का अंध समर्थक जैसा भरम इन पहलुओं को ध्यान में न रखने पर हो सकता हैं. इस बात को पुनः दुहराना जरूरी हैं कि मैकाले ने भारतीय भाषाओं में से किसी के अपेक्षित स्तर तक विकसित न होने के कारण अंग्रेजी का समर्थन किया था. इसके बाद भी उसकी कुछ पाश्चात्य ग्रंथियां रही हो सकती हैं. हमे ऐसे महापुरुषों के प्रति आभार प्रकट करना चाहिए जिन्होंने मानवीय सरोकारों से अपनी सीमाओं का अतिक्रमण किया हो.

Post – 2017-02-22

यह सोचकर कुछ बेचैनी होती है कि हमारी बड़ी हस्तियां १९वीं शताब्दी में पैदा हुईं और बीसवीं शताब्दी ने छुटभैये या लघुमानव पैदा किये और इक्कीसवीं शताब्दी का अबतक का हाल यह है कि यह फेरीवाले, फिरौतीवाले और कुछ भी पाने के लिए कुछ भी करने को तैयार रहने वाली चतुर चालाक बौने पैदा कर रही है! यह देखते जानते हुए हमें हताशा से बचने के लिए कहना पड़ता है, ‘भविष्य उज्जवल है.’ आप सोच सकते हैं कि जब साठ में ही लोग सठिया जाते हैं तो छियासी का बुढ़भस तो निराशावादी होगा ही. आप के मुंह में चाकलेट युग में भी घी शक्कर, क्योंकि हम ऐसे बौद्धिक पठार के दौर से गुजर रहे हैं कि टी तेजाबी गालियों का अविष्कार तो कर सकते हैं पर मशाल के रूप में दीप्ति देनेवाले मुहावरों तक के लिये हमें उन्नीसवीं शताब्दी की ओर ही देखना होगाा. खैर, यह सवाल तब और मजेदार हो जाता हैं जब हम पाते हैं कि भारत में आधुनिक चेतना की दीपशिखा जलाने वाले व्यक्ति राजा राममोहन का जन्म अठारहवीं शताब्दी में हुआ था और ठीक उस साल में, जिसमें पलासी के युद्ध में मीरजाफर को हराकर अंग्रेजों ने पहली बार अपनी सल्तनत कायम की थी.
सोचता हूँ आखिर क्या था उस दौर में जो छीजता चला गया और क्या नया तत्व स्वतंत्रता पाने के बाद आया कि ठिगने बौने बनते चले गए?
एक ही बात समझ में आती हैं उद्विग्नता और उसे व्यक्त करने की छूट जो अठारहवी और उन्नीसवीं शताब्दी पर लागू होती हैं (जो मध्यकाल में न थी इसलिए जिसमें घाव हो सकते थे पर पीड़ा हो सकती थी पर चीख तक दबा कर रखनी होती थी इसलिए उसकी सर्जनात्मक भूमिका नहीं हो सकती थी. अंग्रेजी का मुहावरा एडवर्सिटी इज द मदर ऑफ़ इन्वेंशन लेकिन जो मुहावरा अंग्रेजी में भी नहीं है वह है सफरिंग इस द मदर ऑफ़ रिकंसिलिएशन ) जनित आवेश जो स्तंत्रता पूर्व बीसवीं शताब्दी पर लागू होती हैं और संतुष्टि की मरीचिका जो उसके बाद से अबतक पर लागू होता हैं और जिसने उदयेगजनित ज्वाला को दहकते कोयले में बदला और फिर गर्मराख में. उपमाएं और रूपक सचाई को ग्राह्य बनाने में भी सहायक होते हैं और हमारी असावधानी में स्वयं सचाई का स्थान लेकर सचाई को समझने में बाधक भी बन जाती हैं. मे रे मन में यह बात इसलिए आई कि मुझे लगा आधुनिक विभूतियों में ऊपर से जो क्रम बनता हैं वह हैं राजा राममोहन रे- स्वामी दयानंद सरस्वती – गाँधी – पटेल- नेहरू.

Post – 2017-02-21

हिंदुत्व के प्रति घृणा का इतिहास – 40
हिन्दूफोबिया

कंपनी के गवर्नर जनरल सर्व शक्ति सम्पन्न सीईओ थे जिनकी योग्यता का मानदंड यह था कि वे शेयर धारकों को कितना लाभ पहुंचा सकते हैं. यही काम कम्पनी के अमलों का था. यह पूरा जत्था एक गिरोह की तरह काम करता था. अधिक से अधिक लूटकर कम्पनी के डाइरेक्टरों की नज़र में योग्य और अपनी नज़र में राष्ट्रभक्त. जूलियस सीजर में सीजर की हत्या के बाद उसके त्याग और रोम के लिए निष्ठां की याद दिलाते हुए Antony कहता है:
He hath brought many captives home to Rome
Whose ransoms did the general coffers fill:

यही उनका आदर्श था. यदि दूसरे देश के लोगों को बन्दी बनाकर गुलामों के रूप में बेचकर अपने देश को मालामाल कर सकते थे तो यह भी उनका महान त्याग था. यह उनके लिए गौरव की बात थी. भारत के लोगों के साथ वे क्या करते हैं इससे डाइरेक्टरों का कोई लेना देना न था. अतः जितनी आतुरता से उन्होंने भारत के आर्थिक ताने बने को नष्ट किया वह इतिहास का हिस्सा हैं. परन्तु यह काम उन्होंने ऐसे नाटकीय ढंग से किया की उद्योगधंधों के नष्ट होने का सबसे बुरा प्रभाव जिन शूद्रों पर पड़ा उनके मन में भी यह भ्रम है कि अंग्रेज न आये होते तो उनको सामाजिक न्याय न मिलता , वे जल्द चले गए इसलिए यह काम अधूरा रह गया. सौ दो सौ साल रह जाते तो यह काम पूरा हो गया होता जब कि मिजाज से वे इतने नस्लवादी थे कि वे अपने कुत्तों और घोड़ों तक की नस्ल का हिसाब रखते थे. रंगभेद के मामले में वे उतने ही आग्रही थे जितने छुआछूत के मामले में वर्णवादी ब्राह्मण .

परन्तु इस क्रूरता को भी उन्होंने इस तरह किया कि हिंदुओं में उची श्रेणी के लोगों को ही नहीं पिछड़ी जातियों को भी कुछ राहत अनुभव हुई. इनमें से एक था शिक्षा को सबके लिए सुलभ बनाना. संस्कृत और अरबी फ़ारसी की जगह बोलचाल की भाषाओं को प्राथमिक शिक्षा का माध्यम बनाना और सामाजिक व्यवहार में छूतछात से परहेज. पर सबसे बड़ी बात कि अन्याय भी कानून की आड़ लेकर करना जो मध्यकालीन निरंकुशता से मुक्ति का आभास देता था और इसलिए जिसका इस आधार पर विरोध किया जा सकता था जो मध्य काल में सम्भव न था. इसके साथ एक और काम उन्होंने यह किया कि कुलीनता की जगह उपयुक्तता को चयन का आधार बनाया और यह आशा जगाई कि सरकारी काम काज में किसी को भी योग्यता के आधार पर स्थान मिलेगा.

उनकी अपनी सुरक्षा की चिंता ही उस सीमित और दिखावटी मानवीयता और सदाशयता का चरित्र तय करती थी जिसे वे अपनी और से विज्ञापित करते थे. इसके चलते उन्होंने पहले मिशनरी गतिविधियों से शासन को अलग रखा और हिन्दू जीवन मूल्यों के उज्वल पक्षों की सराहना की और उसकी विकृतियों के लिए बाद की गिरावट को जिम्मेदार बताया. धार्मिक और सामाजिक हस्तक्षेप से बचते रहे. हिंदुओं को यह समझा कर लुभाया कि अब वे मुस्लिम स्वेच्छाचारी शासन से मुक्त हैं. अब पहली बार कानून का राज्य स्थापित हुआ है जिसमें कोई छोटा बड़ा नहीं है. इसी के साथ यह दिलासा भी कि भारतीयों को प्रशासन में हिस्सेदारी मिलेगी.

वे इस बात से अधिक चिंतित नहीं थे की गोरों की इतनी कम संख्या के बल पर वे भारत को नियंत्रण में नहीं रख सकते क्योंकि इससे कम संख्या के बल पर उन्होंने अपना राज कायम किया था और जो रियासतें उनके अधिकार में नहीं आई थीं उनके लिए संकट बने हुए थे.

उनके लिए संकट दो कारणों से पैदा हुआ था जिसकी गंभीरता का आकलन आरम्भ में नही हो सका. यह था पार्लमेंट के 1813 के चार्टर द्वारा पार्लमेंट के प्रति जवाबदेही, कानून सम्मत शासन के अपने ही आश्वासन के कारण सार्वजनिक आलोचना का विषय बनना और छापाखाने के साथ विचारों के प्रसार का हथियार भारतीयों के हाथ में भी आना.

किसी भारतीय भाषा में पत्रिका लिकालने में पहल तो सीरामपुर के फ्रेंच मिशनरियों ने की, संस्कृत पुस्तकों के अनुवाद प्रकाशित करने में भी वे अंग्रेजों से आगे रहे, पर भारतीयों में सबसे आगे राजा राममोहन रॉय ही रहे. यह जुटाया हुआ ज्ञान है इसलिए जहां से इसे लिया है उस ब्लॉग के ही शब्दों में जिसका शीर्षक ट्यूशन दिया हुआ था:

In 1818 Digdarshan was started as the first Bengali weekly by Marshman from Srirampore.On December 4th 1821 Raja Ram Mohan Roy started Samvad Kaumudi.In 1822 he published a weekly Mirat-ul-Akbar in Persian language. In 1837 Syed-ul-Akbhar a weekly in Urdu was published. In 1838 Dilli Akbhar was published. In 1840 Hindu Patriot was started by Harishchandra Mukherjee. In 1851 Gujarati fortnightly Rust Goftar was started by Dadabhai Naroji.In 1862 Indian Mirror was started .Initially the editor was Devendranath Tagore followed by Keshavchandra Sen and Narendranath Sen.On 28th September 1861 Bombay Times, Bombay Standard, Bombay Courier and The Telegraph merged together to form Times of India. Its editor was Robert Knight. It was established by Carey, Ward and marshman in 1818.Initially it was monthly but latter changed to weekly. In 1875 Statesman was started by Robert Knight. In 1890 Statesman and Friend of India merged to become Statesman. In 1865 Pioneer was started from Allahabad.On 20th September 1878, Hindu was started from Madras by G.Subramanium Aiyar as a weekly.later it was made triweekly in Oct 1883 when Kusturiangar became its editor. In 1889 it was made a daily.On 2nd January 1881 Kesari and Mahratta was started by Lokmanya Tilak and Kelkar.
CensorAct 1799 by Lord Wellesley : Every newspaper should print the names of printer, editor and proprietor. Before printing any material it should be submitted to the secretary of Censorship. This Act was abolished by Hastings.
Licensing regulation Act 1823 by John Adam : Every publisher should get a license from the government, defaulters would be fined Rs 400 and the press would be ceased by the government. Government has right to cancel the license. Charles Metcalf abolished the Act.
इससे पहले के पत्र पत्रिकाएं अंग्रेजों के द्वारा निकली गई थीं और अंग्रेजी में थीं जिनमे भी सरकार की आलोचना होती थी और इसलिए पहला प्रतिबन्ध उनके कारण हे लगा था. परन्तु उनका नज़रिया और आलोचना का आधार भिन्न था.
In 1780 James Augustus Hicky started the first newspaper weekly in India called Bengal Gazette .This paper attacked both Warren Hastings and Chief Justice EImpey.In 1785 Madras Courier Weekly was started. In 1790 Bombay Courier and in 1791 Bombay Gazette merged with Bombay Herald in 1792.

तलवार खरीदी जा सकती है, पैसे के बल पर तलवारबाजों (भटों अर्थात जान पर खेलनेवाले भाड़े के योद्धाओं ) की फौज भरती की जा सकती है, जानकारी मोल ली जा सकती है, सूचना के आढतियों को भी बैगपाइपर बन कर पीछे कतार में लगाया जा सकता है, परन्तु विचार और विचारक को नहीं खरीदा जा सकता क्योंकि वह बिकाऊ मॉल नही होता. उसके साथ केवल उसका विवेक और अंतरात्मा होती है और कोई नही पर जब वह समझ में आ जाता है तो कई बार दुश्मन भी साथ हो जाते हैं.

स्वतंत्रता संग्राम १८८५ में कांग्रेस की स्थापना के साथ नहीं आरम्भ हुआ था. यह राजा राममोहन के साथ आरम्भ हुआ था.और यदि इसके भी पीछे जाएँ तो उस ध्रुव सिद्धांत का पता चलेगा की मृत्यु जन्म के साथ ही पैदा होती हैं, असंख्य छोटी मोटी व्याधियों और अशक्यताओं के रूप में दबोचने का प्रयत्न करती और जिजीविषा के हाथों हारती रहती हैं और एकदिन जिजीविषा पर विजय पा लेती हैं जिसे हम पहली बार पहचानते और जीवन का अंत या जिजीविषा का समाप्त हो जाना या मृत्यु कहते हैं.

कंपनी को अपने काम के लिए संचार की आवश्यकता थी. क्रेताऔर विक्रेता को एक दूसरे की भाषा समझने की जरुरत थी. उच्चारण दोनों का अपना रहा पर दोनों ने दूसरे की भाषा समझी. जब तक दोनों एक दूसरे की भाषा जानते रहे पैसा और मुनाफा दिशा निर्धारित करता रहा. जब एक ने सोचा हमें अपने मातहदों और प्रजा की भाषा सीखने की क्या जरुरत वहीं से पासा पलट गया. दूसरे के सूचना और ज्ञान में अधिक अधिकार से प्रवेश करने वाला उस पर भारी पड़ने लगा जिस को उसके द्वारा सुलभ कराई गई सूचना पर निर्भर करना था. कहें, स्वतन्त्रता का बीजारोपण भारतीयों के अंग्रेजी ज्ञान से ही आरम्भ हो गया था. राजा राम मोहन रॉय मैकाले की शिक्षा नीति की उपज नहीं थे, वह उस आंदोलन के जनक थे जिसमे मैकाले एक सीमित अर्थ में राजा राममोहन राय के कंधे से कंधा मिलाकर चले और मजाक यह कि भारत में रहते न मैकाले राममोहन राय से मिला न सम्भवतः १८३३ में इंग्लॅण्ड में चार्टर एक्ट के सशोधन पर अपना पक्ष रखने इंग्लैंड पहुंचे राममोहन राय मैकाले से मिले. अंग्रेज़ो की घबराहट भाषा और सूचना और प्रचार के औज़ारों से और अपनी एक सभ्य राष्ट्र की छवि की रक्षा की चिंता से पैदा हुई. पर आज हम उस पर बात नहीं कर सकते.

Post – 2017-02-20

जिस तरह की कुटिलता से कंपनी ने अपना साम्राज्य विस्तार किया था उसी तरह की कुटिलता के बल पर वह इसे अपने चंगुल में रखना चाहती थी. इसी का हिस्सा था सब्ज बाग़ दिखाना पर सब्जी तक हाथ पहुँचने न देना. आधिकारिक पदों पर अंग्रेजों को रखना और भारतीयों को ताबेदार बनाकर और हर तरह से निरुपाय बना कर रखना. सत्ता की यह पुरानी इंजीनियरी है जो सुमेरी सभ्यता से लेकर भारत की वर्णवादी संस्कृति तक में बनी रही है. यह कम हैरानी की बात नहीं की हमारे समाज के सबसे ऊपर माने जाने वाले ब्राह्मण और क्षत्रिय हाथ से काम नहीं करते, सारा उद्यम, कौशल, कला – वास्तु, मूर्ति, धातुकर्म, काष्ठशिल्प, भांड निर्माण, वस्त्र, अलंकार, माला बनाने से लेकर कन्द, मूल,फल, फूल और शहद जुटाने, नृत्य, संगीत, चित्रकला और नाटक तक – और इनका लाभ हज़ारों साल से उन्हें मिलता रहा जिन्होंने संपत्ति के साधनो, उन्नत ज्ञान और हथियार को अपने तक सीमित रख कर श्रमिकों और उत्पादकों को इनसे वंचित कर दिया था। इस़लिए यह सोचने वालों को कि बहुत कम संख्या में होने के कारण विशाल क्षेत्र और जनसंख्या पर कब्जा जमाये नही रखा जा सकता, न इतिहास दिखाई देता है न वर्तमान । यदि यह देखा जा सके कि कितने कम लोगों के पास विश्व की कितनी सम्पदा सिमटी हुई है और शेष सारा मानव समुदाय उनकी योजना के अनुसार चल रहा है तो सम्पदा और सत्ता के चरित्र को समझने में आसानी हो.

यदि यह मानकर चलें कि कोई व्यक्ति यदि किसी परिस्थिति की उपज है इसलिए उसके सभी सदस्य एक जैसा आचरण करने को बाध्य हैं तो वह ग़लत नही सोचता, मनुष्य को यंत्रमानव मान कर उसे समझना चाहता है. यांत्रिक ढंग से सोचता है और इस ढंग से न यन्त्र को समझ सकता है न जीवधारी को. न ऊर्जा को न गुरुत्वाकर्षण को. ऊर्जा और जीवन भौतिक बंधनों को,गुरुत्वाकर्षण के दबावों को तोड़ कर बाहर आने के पर्याय हैं. परंतु यह बाहर आना भी कुछ निश्चित सीमाओं और प्रकृतियों के दायरे में ही हो सकता है. इसीलिए पहले मैंने कहा था कि हमारी परिस्थितियां भी एक दूसरी तरह कि चमड़ी होती हैं जिनसे छलांग लगाकर बाहर निकलते हुए भी हम अनेक दृष्टियों से उनमें ही बंधे रह जाते है. अतः यदि हम सोचते हैं कि कोई ब्राह्मण सदाशय या महामना नहीं हो सकता क्योंकि वह जाति और वर्ण को मानता था तो हमें यह भी मानना होगा कोई महान नहीं हो सकता क्योंकि सभी अपनी सीमाओं में बंधे हैं. कसौटी यह है कि वह किस सीमा तक अपने बंधनों में बंधा है और उन्हें तोड़कर कितना बाहर आ सका.और यह तोड़ना भी सर्वथा स्वतःस्फूर्त नहीं होता. कुछ भौतिक या परिवेशीय दबावों में होता है. पर व्यक्ति की महिमा इस बात में निहित होती है कि जिसे कोई देखते हुए भी नहीं देख पा रहा था उसे उसने देखा और उसके खतरों के लिए सही रणनीति का अविष्कार कर सका. यह हमारे सभी महामानवों और महापुरुषों पर लागू होता है. महर्षियों, मुनियों पर भी. महान चिंतकों, दार्शनिकों और वैज्ञानिकों, कलाकारों, और साहित्यकारों तक पर. इस तरह सोचने पर धरा वीरविहीन हो जाएगी और टुच्चे अपनी जरूरत के अनुसार प्रगति और सभ्यता के मानदंड तय करेंगे. बौद्धिक का काम इस गिरावट से अपने और समाज को बचाना है.

क्षेपक का अर्थ आप जानते हैं? मैं जिस अर्थ में जानता हूँ वह है व्यवधान, हस्तक्षेप या पदाक्षेप या कोई दूसरा अवरोध. यदि मैं चौथा क्षेपक लिख रहा हूँ तो यह समझें कि मैं जिस विषय पर लिख रहा था उसमे इस मुकाम पर चौथी बार व्यवधान डाला गया है. प्रसंग और सन्दर्भ से जुड़ी शंकाएं हों तो उनकी उपेक्षा करते हुए आगे बढ़ना भी अनुचित लगता है. उनकी समस्या यह है की उनमें पूरे विवेचन के अंत तक सब्र करने का धैर्य नहीं . मेरा लाभ यह कि उनके सवालों के उत्तर देते हुए मुझे वह काम लगे हाथ करना होता है जो अपने कथन के विषय में उठनेवाली शंकाओं का ध्यान करके दूसरों को पादटिप्पणियां लिखनी पड़ती या परिशिष्ट जोड़ने पड़ते है. फिर भी यह ध्यान रहे की मैं पथ भूल न जाऊं और लेखन पादटिप्पणियों में चले. अब तक नहीं रखा तो आगे इसका ध्यान रखें कि मैं प्रत्येक आशंका को अपने अगली पोस्ट में शामिल करते हुए उसी में उनका निराकरण करूंगा. जरूरी नहीं कि आप उनसे सहमत होने के बाद ही सही माने जाएँ.

सही विचार के प्रति निष्ठा विचारों की ह्त्या है क्योंकि सही विचार होता ही नहीं. हम अपने ज्ञान और विश्वास कि सीमाओं मैं किन्ही बातों को सही मान लेते हैं.
आप के प्रश्न और जिज्ञाषाएं हमारे लिए मूल्यवान हैं पर उनके उत्तर की लौटती डाक से अपेक्षा हस्तक्षेप है. इसका ध्यान रखे. आज भी कुछ कह न पाया.