व्यवधान
भोजपुरी पर बात तो टलती जा रही है, पर आज की विडम्बना को भोजपुरी के एक मुहावरे से आरम्भ करने में कोई हर्ज नहीं.
मुहावरों की साझेदारी तो अखिल भारतीय है जिसमे भारत सार्क समुच्चय बन जाता है पर कुछ आंचलिक सीमाओं में बंधे रह जाते हैं, इसलिए भोजपुरी का नाम लेना पड़ा.
मुहावरा है “लिखि लोढा पढ़ि पत्थर”.
हमारी भाषाओं के ऊपर गहराते संकट का एक लक्षण यह है कि हम अपने मुहावरे भूलते जा रहे हैं. यदि याद दिला दिया जाय तो भी उनका सटीक अर्थ करने में झिझक बनी रहती है.
हमारी सर्जनात्मक रचनाओं में मुहावरों और लोकोक्तियों का प्रयोग नदारद है. भोजपुरी और हिंदी को प्रतिस्पर्धी भषाएं मान कर जो लोग भोजपुरी और हिंदी प्रदेश की दूसरी प्रधान बोलियों को आठवीं अनुसूची में आने का विरोध करते हैं उन्हें सोचना चाहिए कि यह संकट प्रधान बोलियों को महत्व देने के कारण आया है या हिंदी को राजरानी बनाने की विकलता में उनकी उपेक्षा करते हुए, अपनी जमीन से कट जाने के कारण आया है? भाषा का अपनी लोकोक्तियों, अपने मुहावरों से कटते जाना उसके सत्व के ह्रास का, अपने समाज से कटने का, स्थानीय होते हुए भी अपरिचित बनते जाने का प्रमाण है. हिंदी के शत्रु उसे राजरानी बनाने को आतुर लोग रहे हैं, नं कि प्रदेश की भाषाएं जिनको बोलियां कह कर उनका अपमान किया गया और अब उनको हिंदी की सर्वस्वीकार्यता में बाधक मान कर कुछ लोग शंकालु हो रहे हैं.
अपनी तुच्छ बुद्धि से मैं जो कुछ समझता हूँ वह यह कि जब हिन्दी नाम भी किसी को नहीं सूझ सकता था तब भी यह एकान्वित प्रदेश था. इसकी विशेषता हिंदी की स्वीकार्यता नहीं, वह रहस्यमय बोध है कि जो भी किसी कारण से प्रिय होगी उसे सभी अपना लेंगे.
इसकी व्याख्या में यहां हम नहीं जायेंगे, पर इस बात की याद दिलाना चाहेंगे कि स्वीकार्यता के अटल चरित्र में इससे अंतर नही आता और हिंदी इस प्रदेश की भाषाओँ की स्वीकार्यता के बाद भी इनकी शिरोधार्य बनी रहेगी.
मुझे यह मुहावरा हठात याद आया, पर संशय बना रहा कि इसका सटीक अर्थ क्या है. एक गंवार कहे जाने वाले व्यक्ति को, भोजपुरी क्षेत्र की किसी महिला को इसका अर्थ करने और प्रयोग करने में कोई झिझक नं होगी, पर शिक्षति हुई तो होगी. उसकी दशा मेरे या आप जैसी ही होगी, जो अपनी जमीन से कट गए हैं और अपनी भाषा के चरित्र तक को भूल चुके हैं और फिर भी एक तराने को चुप रहते है तब भी गुनगुनाते रहते हैं, “विश्व विजय कर के दिखलायें तब होवै प्रण पूर्ण हमारा.” यह राग आप में भी बजता होगा, आप सुन नहीं पाते होंगे. दोनों का हाल एक ही है. फर्क एक है कि मैं सुनता अधिक हूँ आप बोलते अधिक है! मैं समझने के संघर्ष से गुजरने को भी उपलब्धि मान लेता हूँ और इसलिए आप बहुत कुछ कह कर भी उन कहे शब्दों का व्यवहारिक अर्थ और प्रभाव तक जानने की चिंता नही करते.
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कल मैंने अपनी पोस्ट नहीं लिखी. यह मेरे शोक दिवस जैसा था की स्वस्थ होते हुए भी मैं इस दुविधा में पड़ा रहा कि मेरे लिखने का प्रयोजन तो सिद्ध होता नहीं फिर फेस बुक पर लिखने का प्रयोग तो विफल हो गया: रोइये जार जार क्यों कीजिये हाय हाय क्यों. मैं तो ऐसों से बात करने लगा जो जार जार रोने का भी अर्थ नहीं समझ सकते क्योंकि उन्हें पता नहीं कि झर झर आंसू बहाने का अनुवाढ है यह .
तो लिख लोढा पढ़ि पत्थर का अर्थ हुआ जो लिखना जानता है, किताबें पढ़ रखी हैं पर सोचना देखना समझना जानता ही नहीं, जो पढ़ा उसे सच मान लेता है , उसे ही दुहराता है, उसी को अंतिम ज्ञान मानता है, उसी को बार बार दुहराता है, जपता है और इस लिए जपाट है और उस पत्थर शिला जैसा है जो उस पर अंकित खरोंचों के बाद भी को री रह गई हो.
मैंने अनुरोध किया था जो मैंने लिखा है उसे मत मानों, जीतने के लिए बहस मत करो, समझने की प्रक्रिया के भहागीदार बनो. जो गलत हो उसे किसी दूसरे ने ऐसा लिखा है इसलिए वह ग़लत है ऐसा मत मनो, सूचनाओं के दबाव में मत आओ, अपनी घ्राणशक्ति पर, अपने विवेक पर भरोसा करो, किसी दूसरे की बुद्धि से काम मत लो, तुम्हारे पास देखने को अपनी आँख है, सोचने के लिए सिर्फ अपनी बुद्धि है. उस पर भरोसा करो. यदि तुम मानते हो कि तुम सही हो, तो कठोर शब्दों का प्रयोग मत करो, गालियां मत दो, आवेग गर्भित भाषा का प्रयोग मत करो, बोलते समय अधिक ऊंची आवाज में दहाड़ते हुए अपनी बात मत रखो, क्योंकि ये प्रमाणित करती है कि तुम असन्तुलित हो.
क्या इनका पालन हुआ? सबको दोष भी नही दिया जा सकता, फिर भी वाचाल लोग एक झटके में बहुत कुछ बनने के लिए कुतर्क करते है तो खिन्नता होती है.
मेरा अपना विरोध हो तो सहन किया जा सकता है, मैं अभी जीवित हूँ अपना बचाव कर सकता हूँ. पर जो लोग अपनी वकालत करने को नहीं रह गए हों उनकी आलोचना करो पर भर्त्सना नहीं, ऐसा देख कर बहुत क्लेश होता है.
राजा राममोहन राय के विषय में टिप्पणियों की भाषा और आरोप ने मुझे व्यवथित किया. पहले भी गांधी जी के विषय में गर्हित टिप्पणियां पढ़ आया हूँ. असहमति जरूरी है, पर अभद्रता के बिना काम चल सके तो अधिक कल्याणकर हो.
जिस टिप्पणी ने मुझे दुखी किया वह यथापठित का प्रचार है इसमें तथ्य और व्यख्या सही हैं या नही इसकी जांच पर समय लगाने का समय नहीं पर किस असावधानी का परिचय दिया गया है इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है, टिप्पणीकार का कहना है बगाल में सती प्रथा थी ही नहीं. समय बर्वाद करने से बचने के लिए मैं मान लेता हूँ, पर इस दशा में आपको यह भी मानना होगा कि उस प्रथा के बंद होने पर काशी और मथुरा वृन्दावन भेज दी जा ने वाली बगाली विधवाएं भी नहीं रही होंगी जिनकी अतृप्ति के कारण “सांड़, राण, सीढी सन्यासी, इनसे बचे तो सेवे काशी.
मैं अपनी समझ से एक समस्या पर एक पुस्तक लिख रहा हूँ जो लेखनं काल में ही आपको टिप्पणी या अपनी असहमति जताने के लिए भी खुली है पर मर्यादा का ध्यान नं रखते हुए यथा पठित वाचकों को आगे से उत्तर सेने की जगह मैं ब्लॉक भी कर सकता हूँ क्योंकि वे मेरे काम में बाधक हैं. सही होना जरूरी नहीं है पर संतुलन और शिष्ट भाषा जरूरी है. राजा राममोहन रॉय के बारे में इन आभासिक कथनों के सन्दर्भ में इस विषय के अधिकारी विद्वान श्री सीतराम गोयल की पुस्तक History of Hindu Christian encounter में राजा राम मोहनं रॉय को देखें तो इन प्रस्तुतियों को समझने में आसानी होगी.उसमें किसी तथ्य को छिपाया नहीं गया है पर सन्दर्भ और औचित्य का ध्यान रखा गया है.