#भारतीय_मुसलमानः मानसिकता में बदलाव (2)
इस देश में, जो अनेकानेक समुदायों में बंटा हुआ है, जिनकी संख्या 5000 के आस पास जाती है, कोई भी समूह न तो अल्पसंख्यक कहा जा सकता है न बहुसंख्यक। इनको बांटने वाली लकीर केवल मजहब या मत मतांतर की नहीं है. परंतु हिकमत से इनमें से किसी को उभारा जा सकता और उसी सफाई से दोफांक किया जा सकता है जैसे संगमर्मर के शिलाखंडों की परतें अलग की जाती हैं।
सबसे स्पष्ट और संख्या में अधिक विभाजन काम या व्यवसाय को लेकर हैं । इनके आधार पर जातियां बनी हैं, वर्ण विभाजन हुआ है, दंड दिया गया है, उस दंड से नई जातियों या उपजातियों का निर्माण हुआ है, क्योंकि दंडित होकर किसी हीन जाति में डाल दिए जाने वाले अपने को इस जाति या पेशे के दूसरे लोगों से अपने को ऊंचा समझते और उनके द्वारा ऊंचा मान लिए जाते रहे हैं और इस तरह एक ही पेशे से जुड़ी दलित और अतिदलित जातियों में भी अनेक उपजातियां हैं, जिनमें ऊंच-नीच का विचार है।
धर्मपरिवर्तन के बाद भी पेशा वही रह जाने के कारण जाति भेद का प्रवेश इस्लाम में भी हुआ और ईसाइयत में भी। हमारे इलाके में फल और सब्जी का कारोबार करने वाले मुसलमान खटिक कहे जाते हैं, परंतु सूअर का मांस खाने से उनको परहेज नहीं है।
नट या बाजीगर मुसलमान हैं। उनकी समाज रचना मातृप्रधान है। उनमें यौनवर्जना नहीं है। महिलाएं गोदना आदि गोदती थीं, जो हिंदू सुहागिनों का अनिवार्य चिन्ह है, पुरुष बाजीगरी करते, पहलवानी करते, आल्हा गाते और मल्लविद्या सिखाने के लिए अल्पकालिक नियुक्ति पाते थे। इस बीच ये घर के सबसे सम्मानित सदस्य बने रहते थे, क्योंकि उनके खानपान में गिजा का विशेष ध्यान रखना होता था। ये कुछ समय पहले तक ख़ानाबदोश थे, अब जहां-तहां बस गए हैं। इनका नाट्यकला ओर नृत्य के विकास में कई हजार साल से योगदान था। ये रोजा, नमाज किसी चीज के पाबंद न होने के बाद भी मुसलमान माने जाते थे।
जोगियों का हाल भी यही है। ये हिंदू थे जो गोरख पंथ के प्रभाव में आए और फिर वर्णनिरपेक्ष हो कर साधनामार्गी हो गए और संभवतः सूफियों के प्रभाव से इस्लाम में प्रवेश कर गए। इनकी इस यात्रा को देख कर तुलसी को गोरख पंथी और जोगी निंदनीय लगते हैं यही परिणति कबीर पंथ अपनाने वालों में देखी जा सकती है जिनकी भी तुलसीदास उतनी ही उत्कटता से निंदा करते हैं। जोगी हैं मुसलमान और गीत भरथरी के गाते हैं। कबीर पंथी मुस्लिम कबीर के पदों का क्या अर्थ लेते हैं यह हमें नहीं मालूम। हिंदू जोगियों में कुछ कबीर पंथ के रास्ते भी आए हो सकते हैं।
हिंदू धर्म, इतिहास, मूल्यव्यवस्था, सांस्कृतिक आयोजनों, परोपराओं, प्रतीकों की निंदा करते हुए, इस्लामी प्रभाव में विकसित एक नई विचारधारा जो आज अपने को सेकुलर बता कर हिंदुत्व पर गर्हित प्रहार करने वाले हिंदुओं में देखी जा रही है, इसी प्रवृत्ति की सबसे नई अभिव्यक्ति है जिसमें सेकुलरवादियों का क्रमशः हिंदू समाज से कटते जाना और इस्लाम की ओर बढ़ते जाने में देखी जा सकती है, पर इस्लाम की कट्टरता से भी असहमति के कारण इसे उसमें भी मिसफिट रहना है। इसकी नियति एक नये पंथ में ढल कर ‘ना हिंदू ना मुसलमां’ बनते हुए उसकी अगली मंजिल ‘अध हिंदू और अध मुसलमां’ तक पहुंचने और हाशिए की जमात बन कर रह जाने की है। एक रौचक तथ्य यह है कि अपने आक्रामक आलोचकीय दौर में आग उगलने वाले हाशिए पर पहुंच कर व्यर्थ और दयनीय, और उसी हिंदू समाज की उपजीवी बन जाती हैं ।
हम अनावश्यक विस्तार में चले गए। कहना यह चाहते थे कि मजहब की अपेक्षा भारतीय संदर्भ में जाति अधिक मजबूत भेदक रेखा है। इन सबके अपने निजी नियम-विधान हैं जिनका पता बिरादरी पंचायतों के समय चलता है। किसी बस्ती में इनमें कई के एक ही परिवार होते हैं। दो हुए ता उसे छोड़कर कहीं अन्यत्र पांव जमाने का प्रयत्न करेंगे। इसका कारण शुद्ध आर्थिक है। उस बस्ती में इससे अधिक की बिसात नहीं होती। चाहे वह नाई हो या बनिया। इस आर्थिक संबंध के अलावा उनका सारा संबंध अपनी जाति के दूर दूर बसे परिवारों से होता है। अपने अकेले होने के कारण वे कभी असुरक्षित अनुभव नहीं करते, क्योंकि सुरक्षा का बिरादरी से कोई संबंध नहीं, परन्तु आचरण का है। आचरण ठीक है तो किसी ऊंच नीच में पूरा गांव उनका साथ देगा। रिश्ता जाति का नहीं गांव का है।
संख्या बल की दृष्टि से भारत की कोई जाति या किसी पेशे से जुड़े हुए लोग अपने को अल्पसंख्यक बता सकते हैं, परन्तु मुसलमान नहीं। मुसलमान कभी भी अल्पसंख्यक नहीं थे। इस बात को सैयद अहमद ने भी और जिन्ना ने भी अपहे अपने ढंग से माना है, परंतु यह भी विचित्र विरोधाभास है कि अल्पसंख्यता का भय पैदा करके देश को बांटने का काम भी इन्हीं दोनों ने किया था। एक ने सामाजिक स्तर* पर और दूसरे ने भौगोलिक स्तर पर। ध्यान दें कि जिन्ना अपने एक ही भाषण में पहले यह दावा करते हैं कि मुस्लिम अल्पसंख्यक नहीं हैं** और फिर अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक के एक साथ रहने को बहुसंख्यकों की अधीनता बताते हैं***।
{NB. *Which party will have the larger number of votes? I put aside the case that by a rare stroke of luck a blessing comes through the roof, and some Mahomedan is elected. In the normal case no single Mahomedan will secure a seat in the Viceroy’s Council. The whole Council will consist of Babu So-and-so Mitter, Babu So-and-So Ghose, and Babu So-and-so Chuckerbutty. Again, what will be the result for the Hindus of our Province, though their condition be better than that of the Mahomedans? What will be the result for those Rajputs, the swords of whose ancestors are still wet with blood?
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Now, we will suppose a third kind of election. Suppose a rule to be made that a suitable number of Mahomedans and a suitable number of Hindus are to be chosen. I am aghast when I think on what grounds this number is likely to be determined. Of necessity, proportion to total population will be taken. So there will be one number for us to every four for the Hindus. No other condition can be laid down. Then they will have four votes and we shall have one…..Meerut Speech 1888}
{nb. ** But one thing is quite clear: it has always been taken for granted mistakenly that the Mussalmans are a minority, and of course we have got used to it for such a long time that these settled notions sometimes are very difficult to remove. The Mussalmans are not a minority. The Mussalmans are a nation by any definition. The British and particularly the Congress proceed on the hasis, “Well, you are a minority after all, what do you want!” “What else do the minorities want?” just as Babu Rajendra Prasad said. But surely the Mussalmans are not a minority.
***To yoke together two such nations under a single state, one as a numerical minority and the other as a majority, must lead to growing discontent, and final. destruction of any fabric that may be so built up for the government of such a state. Jinnah speech at Lahore 1940}