Post – 2018-10-31

#भारतीय_मुसलमानः मानसिकता में बदलाव (2)

इस देश में, जो अनेकानेक समुदायों में बंटा हुआ है, जिनकी संख्या 5000 के आस पास जाती है, कोई भी समूह न तो अल्पसंख्यक कहा जा सकता है न बहुसंख्यक। इनको बांटने वाली लकीर केवल मजहब या मत मतांतर की नहीं है. परंतु हिकमत से इनमें से किसी को उभारा जा सकता और उसी सफाई से दोफांक किया जा सकता है जैसे संगमर्मर के शिलाखंडों की परतें अलग की जाती हैं।

सबसे स्पष्ट और संख्या में अधिक विभाजन काम या व्यवसाय को लेकर हैं । इनके आधार पर जातियां बनी हैं, वर्ण विभाजन हुआ है, दंड दिया गया है, उस दंड से नई जातियों या उपजातियों का निर्माण हुआ है, क्योंकि दंडित होकर किसी हीन जाति में डाल दिए जाने वाले अपने को इस जाति या पेशे के दूसरे लोगों से अपने को ऊंचा समझते और उनके द्वारा ऊंचा मान लिए जाते रहे हैं और इस तरह एक ही पेशे से जुड़ी दलित और अतिदलित जातियों में भी अनेक उपजातियां हैं, जिनमें ऊंच-नीच का विचार है।

धर्मपरिवर्तन के बाद भी पेशा वही रह जाने के कारण जाति भेद का प्रवेश इस्लाम में भी हुआ और ईसाइयत में भी। हमारे इलाके में फल और सब्जी का कारोबार करने वाले मुसलमान खटिक कहे जाते हैं, परंतु सूअर का मांस खाने से उनको परहेज नहीं है।

नट या बाजीगर मुसलमान हैं। उनकी समाज रचना मातृप्रधान है। उनमें यौनवर्जना नहीं है। महिलाएं गोदना आदि गोदती थीं, जो हिंदू सुहागिनों का अनिवार्य चिन्ह है, पुरुष बाजीगरी करते, पहलवानी करते, आल्हा गाते और मल्लविद्या सिखाने के लिए अल्पकालिक नियुक्ति पाते थे। इस बीच ये घर के सबसे सम्मानित सदस्य बने रहते थे, क्योंकि उनके खानपान में गिजा का विशेष ध्यान रखना होता था। ये कुछ समय पहले तक ख़ानाबदोश थे, अब जहां-तहां बस गए हैं। इनका नाट्यकला ओर नृत्य के विकास में कई हजार साल से योगदान था। ये रोजा, नमाज किसी चीज के पाबंद न होने के बाद भी मुसलमान माने जाते थे।

जोगियों का हाल भी यही है। ये हिंदू थे जो गोरख पंथ के प्रभाव में आए और फिर वर्णनिरपेक्ष हो कर साधनामार्गी हो गए और संभवतः सूफियों के प्रभाव से इस्लाम में प्रवेश कर गए। इनकी इस यात्रा को देख कर तुलसी को गोरख पंथी और जोगी निंदनीय लगते हैं यही परिणति कबीर पंथ अपनाने वालों में देखी जा सकती है जिनकी भी तुलसीदास उतनी ही उत्कटता से निंदा करते हैं। जोगी हैं मुसलमान और गीत भरथरी के गाते हैं। कबीर पंथी मुस्लिम कबीर के पदों का क्या अर्थ लेते हैं यह हमें नहीं मालूम। हिंदू जोगियों में कुछ कबीर पंथ के रास्ते भी आए हो सकते हैं।

हिंदू धर्म, इतिहास, मूल्यव्यवस्था, सांस्कृतिक आयोजनों, परोपराओं, प्रतीकों की निंदा करते हुए, इस्लामी प्रभाव में विकसित एक नई विचारधारा जो आज अपने को सेकुलर बता कर हिंदुत्व पर गर्हित प्रहार करने वाले हिंदुओं में देखी जा रही है, इसी प्रवृत्ति की सबसे नई अभिव्यक्ति है जिसमें सेकुलरवादियों का क्रमशः हिंदू समाज से कटते जाना और इस्लाम की ओर बढ़ते जाने में देखी जा सकती है, पर इस्लाम की कट्टरता से भी असहमति के कारण इसे उसमें भी मिसफिट रहना है। इसकी नियति एक नये पंथ में ढल कर ‘ना हिंदू ना मुसलमां’ बनते हुए उसकी अगली मंजिल ‘अध हिंदू और अध मुसलमां’ तक पहुंचने और हाशिए की जमात बन कर रह जाने की है। एक रौचक तथ्य यह है कि अपने आक्रामक आलोचकीय दौर में आग उगलने वाले हाशिए पर पहुंच कर व्यर्थ और दयनीय, और उसी हिंदू समाज की उपजीवी बन जाती हैं ।

हम अनावश्यक विस्तार में चले गए। कहना यह चाहते थे कि मजहब की अपेक्षा भारतीय संदर्भ में जाति अधिक मजबूत भेदक रेखा है। इन सबके अपने निजी नियम-विधान हैं जिनका पता बिरादरी पंचायतों के समय चलता है। किसी बस्ती में इनमें कई के एक ही परिवार होते हैं। दो हुए ता उसे छोड़कर कहीं अन्यत्र पांव जमाने का प्रयत्न करेंगे। इसका कारण शुद्ध आर्थिक है। उस बस्ती में इससे अधिक की बिसात नहीं होती। चाहे वह नाई हो या बनिया। इस आर्थिक संबंध के अलावा उनका सारा संबंध अपनी जाति के दूर दूर बसे परिवारों से होता है। अपने अकेले होने के कारण वे कभी असुरक्षित अनुभव नहीं करते, क्योंकि सुरक्षा का बिरादरी से कोई संबंध नहीं, परन्तु आचरण का है। आचरण ठीक है तो किसी ऊंच नीच में पूरा गांव उनका साथ देगा। रिश्ता जाति का नहीं गांव का है।

संख्या बल की दृष्टि से भारत की कोई जाति या किसी पेशे से जुड़े हुए लोग अपने को अल्पसंख्यक बता सकते हैं, परन्तु मुसलमान नहीं। मुसलमान कभी भी अल्पसंख्यक नहीं थे। इस बात को सैयद अहमद ने भी और जिन्ना ने भी अपहे अपने ढंग से माना है, परंतु यह भी विचित्र विरोधाभास है कि अल्पसंख्यता का भय पैदा करके देश को बांटने का काम भी इन्हीं दोनों ने किया था। एक ने सामाजिक स्तर* पर और दूसरे ने भौगोलिक स्तर पर। ध्यान दें कि जिन्ना अपने एक ही भाषण में पहले यह दावा करते हैं कि मुस्लिम अल्पसंख्यक नहीं हैं** और फिर अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक के एक साथ रहने को बहुसंख्यकों की अधीनता बताते हैं***।
{NB. *Which party will have the larger number of votes? I put aside the case that by a rare stroke of luck a blessing comes through the roof, and some Mahomedan is elected. In the normal case no single Mahomedan will secure a seat in the Viceroy’s Council. The whole Council will consist of Babu So-and-so Mitter, Babu So-and-So Ghose, and Babu So-and-so Chuckerbutty. Again, what will be the result for the Hindus of our Province, though their condition be better than that of the Mahomedans? What will be the result for those Rajputs, the swords of whose ancestors are still wet with blood?
____
Now, we will suppose a third kind of election. Suppose a rule to be made that a suitable number of Mahomedans and a suitable number of Hindus are to be chosen. I am aghast when I think on what grounds this number is likely to be determined. Of necessity, proportion to total population will be taken. So there will be one number for us to every four for the Hindus. No other condition can be laid down. Then they will have four votes and we shall have one…..Meerut Speech 1888}
{nb. ** But one thing is quite clear: it has always been taken for granted mistakenly that the Mussalmans are a minority, and of course we have got used to it for such a long time that these settled notions sometimes are very difficult to remove. The Mussalmans are not a minority. The Mussalmans are a nation by any definition. The British and particularly the Congress proceed on the hasis, “Well, you are a minority after all, what do you want!” “What else do the minorities want?” just as Babu Rajendra Prasad said. But surely the Mussalmans are not a minority.
***To yoke together two such nations under a single state, one as a numerical minority and the other as a majority, must lead to growing discontent, and final. destruction of any fabric that may be so built up for the government of such a state. Jinnah speech at Lahore 1940}

Post – 2018-10-30

#भारतीय_मुसलमानः मानसिकता में बदलाव (1)

हमारी समस्या मुस्लिम लीग का बनना या हिन्दू महासभा का बनना या उनके कारनामे नहीं हैं, भले उनके माध्यम से कितना ही बड़ा नुकसान क्यों न किया गया हो। ये दोनों ब्रिटिश कूटविदों की कृतियां थीं। उसमें अपने स्वार्थ के कारण इनकी भूमिका मात्र निमित्त की थी, या वास्तु कृति से उपमा दी जाए तो यह मात्र ईटऔर गारे थे जिनका उपयोग करते हुए अंग्रेज नफरत का पर्यावरण तैयार करना चाहते थे।

हिंदू महासभा के बारे में यह बात पूरी तरह सही नहीं है, क्योंकि उसमें कुछ का कांग्रे से जुड़ाव था, परंतु मुस्लिम लीग के बारे में यह बात काफी दूर तक सही है। वे नहीं जानते थे, वे क्या कर रहे हैं, या जानते थे तो यह कि गुलाम बने रहने के सुख आजादी के बाद छिन जाएंगे।

हमारे लिए महत्त्व की बात यह है कि न तो आम मुसलमानों ने, न ही आम हिंदुओं ने पहले मुस्लिम लीग या हिंदू महासभा का साथ दिया। बाद में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना हुई, परंतु हिन्दुओं ने उनका भी कभी साथ नहीं दिया। वे बहुत प्रयत्न से अपने सदस्य तैयार करते रहे और गर्व करते रहे कि उनका प्रसार इतने लाख या करोड़ लोगों में हो चुका है। यह हिन्दू आबादी का बहुत क्षुद्र अंश था। शेष भारत के हिंदू उनके प्रभाव से बाहर थे।

हम देख आए हैं कि मुसलमानों के दो वर्ग थे। एक भारतीय, दूसरे विदेशी। पहला यहीं के निवासी और धर्मान्तरित जो सारा कामकाज संभालता था। दूसरा विदेशी जो अपने विदेशी मूल पर गर्व करता था और जिसे जागीरें मिली थी जिनकी वसूली से वह दिन काटने के लिए मौजमस्ती के तरीके अपनाता था। काम के नाम पर उसके पास यही था। इसी वर्ग ने आत्मरक्षा की चिंता में पहले अंग्रेजों की सलाह से स्वतंत्रता आंदोलन में व्यवधान डालने के लिए मुस्लिम लीग कायम की थी और कुछ बाद में कम्युनिस्ट होने लगा। कहें, कम्युनिस्ट मुसलमान क्राति करने की चिन्ता से नहीं, अपनी हैसियत बचाए रहखने की चिंता से कम्यु्निस्ट बने थे। वे ही थे जो इस देश मे रहते हुए इसे अपना नहीो मानते थे, उस देश को मानते थे जहां से आए थे।

साधारण मुसलमानों के साथ ऐसा क्या हुआ कि वे उत्तर प्रदेश में मुख्य रूप से हिंदी प्रदेश में और किसी न किसी पैमाने पर पूरे भारत में लीग के समर्थन में चले गए और तब से लगातार उनका सांप्रदायीकरण बढ़ता चला गया।

यह आरोप बहुतों को गलत लग सकता है, क्योंकि मुसलमानों को सेकुलर और दक्षिणपंथी हिंदू संगठनों को सांप्रदायिक सिद्ध करने वालों की कमी नहीं है, यद्यपि उनके निष्कर्षों के आगे पीछे कुछ पीले धब्बे भी दिखाई देते हैं। सच यह है कि वे सेकुलर ही नहीं भारतीय सेकुलरिज्म के कस्टोडियन हैं। सेकुलर होने का दावा करने वाले मुसलमानों से प्रमाण पत्र पाकर सेकुलर सिद्ध हो चुके हिंदुओं का भी मानना है कि यदि सांप्रदायिकता दक्षिणपंथी हिंदू संगठनों में ही है। मैं अधिक से अधिक उनको गलत कह सकता हूँ। वे इससे खिन्न हो कर मुझे भी दक्षिणपंथी बताकर अपने दावे पर टिके रह सकते हैं। इसलिए, एक निर्णायक साक्ष्य या प्रमाण से अपनी बात को पुष्ट करना जरूरी है।

लीग का नेतृत्व जिन्ना के हाथ में आने के बाद भी मुस्लिम बहुल इलाकों में मुस्लिम लीग के उम्मीदवार हारे थे और कांग्रेस के उम्मीदवार जीते थे। फिर उसके बाद एक छोटी सी घटना घटी जो इस निर्वाचन के बाद घटित हुई थी। यह थी कम्युनिस्ट पार्टी के पाकिस्तान के समर्थन में खड़े होने की । इस छोटी सी घटना को अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में इस निमित्त हुई बैठक में ही संपन्न होना था।

कम्युनिस्ट पार्टी के हिंदू सदस्यों का भी उसी उत्साह से उसके समर्थन में आना कुछ अविश्वसनीय लगता था। बलराज साहनी किसी लेख में या इंटरव्यू में इसके पक्ष में दलील है। पहली बार यह सुनकर कि यह उचित है, लगा यह मेरी समझ से परे का विषय था। कम्युनिस्ट पार्टी को इससे आगे की जाने वाली क्रांति का यह रिहर्सल लग रहा था। राज थापर के आत्म संस्मरण में विभाजन के समय हुए दंगों पर श्रीपाद डांगे का कथन पढ़ कर भी, उनका उत्साह अविश्वसनीय लगा था।* पर उनके बीच ऐसी धारणा इसलिए बनी कि कम्युनिस्ट पार्टी के हिंदू सदस्य हिंदू नहीं रह गए थे ।कम्युनिस्ट हो जाने के बाद मनुष्य सबसे पहले मजहबी और देशी दीवारों को तोड़कर विश्वमानव हो जाया करता है। हिंदू हो तो विश्वमानव बनना अधिक आकर्षक और अधिक आसान दोनों होता है, क्योंकि हिंदुत्व को गालियां देने के बावजूद हिंदुत्व की जो छवि वे आज के हिन्दुत्व की आलोचना में प्रस्तुत करते हैं वह उसके विश्वमानव होने की ही होती है। एक तरह से वे स्वयं आदर्श हिंदू और विश्वमानवता की प्रतिमा बन जाते हैं।
{nb.I remember meeting S.A.Dange around then. He was the legendary leader of the Bombay working class, slight in frame, charismatic, but permeated with Maharastrian cynicism….He was then in the throes of a grand romance with a Czech girl and there was much gossip flying around about the two. Anyway he came, and I poured out my anguish at being thousands miles away from home when home, which was to be Pakistan, was burning away with the angry frustrations of many life times finding fulfillment in brutal distortions, using revenge and religion to wash down the horrors.
Dange looked at me impassively, with almost a gleam of secret delight. ‘Don’t worry, Raj,’ he said. ‘Let our people taste blood, let them learn how to draw it. It will make the coming revolution easier.’ 43}

परंतु मुस्लिम कम्युनिस्टों के साथ विश्वमानव की छवि कट्टर मुसलमान की होने की है जो आदर्श बद्दू खानाबदोशी का कायल होने के कारण पहले से ही पूरी दुनिया को अपना घर मानता है। फिकरा तो किसी ने व्यंग्य में भी बनाया हो सकता है, परंतु है बहुत सटीक – रहने को घर नहीं है सारा जहां हमारा। इसका सीमित अर्थ इसकी दूसरी कड़ी बना कर कर सकते हैं- बंगाल भी हमारा, पंजाब भी हमारा, पाकीस्तां हिंदोस्तां हमारा। लेकिन कुछ लोग इस पर आपत्ति करेंगे। सच को कहने का ही नहीं, देखने तक का साहस बहुत कम लोगों में होता है और जिनमें होता है उनमें भी कुछ लोग लिहाज करके चुप रह जाना पसंद करते हैं।

परंतु यह स्थिति भारतीय मुसलमानों के कारण नहीं आई है, विदेश से अपनी जड़े और प्रेरणा के स्रोत जोड़ने वालों के कारण आई, अंग्रेजों के कारण जो एक और तो घबराकर लीग का गठन कर बैठे थे और दूसरे जिन पर हो सकता है पहले उलेमा का प्रभाव रहा हो इसलिए जिन्होंने मुस्लिम लीग को सही विकल्प माना हो, या ऐसे रईसों के कारण जिन्होंने रूसी क्रांति से प्रेरित होकर, या हो सकता है बद्दू समाज के आदिम समाजवाद से प्रेरित होकर, कम्युनिज्म को अधिक सही रास्ता माना हो। हम उनका मूल्यांकन नहीं कर रहे हैं बल्कि इतिहास के इस मोड को यथासंभव वस्तुपरक ढंग से प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहे हैं और यह याद दिलाना चाहते हैं कि भारत का मुसलमान कम्युनिस्ट उससे अधिक मुसलमान था जितने तालिबानी हुआ करते हैं और कम्युनिस्ट पार्टी के चरित्र निर्धारण में उसकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है उसके द्वारा मुसलमानों का इस्तेमाल तो कर ही लिया गया हिंदू कम्युनिस्टों का भी इस्तेमाल कर लिया।

अब रईस मुसलमान अपनी जीवनशैली में कोई परिवर्तन के बिना प्रखर क्रांतिकारी बन जाता है, फासिस्ट मुहावरों में क्रांति लाने लगता हैः
जिस खेत से दहकां को मयस्सर न हो रोटी। उस खेत के हर खोश-ए-गन्दुम को जली दो। जोश

भाषा वही रहेगी जिसकी हिमायत जान बीम्स ने की थी। क्रांतिकारी कविता में भी शब्दों का अर्थ समझने के लिए या तो फुटनोट लगाना पड़ेगा या अपने संप्रेषण को उस दायरे के भीतर रखकर ही प्रसन्न रहना होगा जो इसे समझता है। सिनेमा पर पैसा लगाने वालों का अपने घाटे मुनाफे का सवाल था कि इस बात का भी ध्यान रखना पड़ता था कि यह लोगों के लिए पूरी तरह दुर्बोध न हो जाए।

इस्लामी मूल्यों, मान्यताओं, प्रतीकों, संस्कार और लिपि को अपनाना और सुरक्षित रखना उनकी सर्वोपरि प्राथमिकता थी। हिंदुत्व साम्यवाद की राह में बाधा है, इस्लाम में तो कम्युनिज्म पहले से है- मिटाना और दूर करना बाधा को है। इसलिए प्रगतिवाद के सारे प्रहार हिन्दू रीतियों, व्यवहारों, संस्कारों और प्रतीकों पर किए जाते रहे।

हिंदू कम्युनिस्ट इस डर से कि कहीं उसे हिंदुत्ववादी रुझान वाला न सिद्ध कर दिया जाए, उनकी जीवनशैली और उनके द्वारा पार्टी के लिए अपनाई गई कार्यशैली की आलोचना तक नहीं करता था। वह उनके माध्यम से कम्युनिस्ट पार्टी में बोई जा रही मुस्लिम लीगी मानसिकता का विरोध तक नहीं कर सका। अपने को पक्का कम्युनिस्ट सिद्ध करने के लिए वह ‘फौरन से पेश्तर’ उन पर अमल करने के लिए तैयार रहता था और आज भी है। रईसों को आम जनता से घुलने मिलने की जरूरत नहीं होती। वे उसे दर्शन देते हैं। उनकी एक अलग दुनिया होती है। भारतीय कम्युनिस्टों ने अपने को उन भाषाओं से दूर रखा जिनके माध्यम से जनता से घुला मिला जा सकता था। जनता को वे भी दर्शन ही देते रहे।

यदि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के द्वारा कराई गई राजकीय हड़तालों पर ध्यान दें, सार्वजनिक सुविधा के लिए तैयार की गई संपत्तियों के विनाश की तुलना सांप्रदायिक दंगों की तोड़ फोड़ से करें तो दोनों में काफी समानता मिलेगी। किसी अन्य देश की कम्युनिस्ट पार्टी ने भी यही रास्ता अपनाया था या नहीं इसका हमें ज्ञान नहीं, पर यह इतना मूर्खतापूर्ण लगता है कि इससे विरक्ति ने कम्युनिस्ट पार्टी से विरक्ति का रूप ले लिया।

Post – 2018-10-29

#भारतीय_मुसलमानःविभेदचक्र

सर सैयद के जीवन काल में जो काम पर्दे की ओट से हो रहा था, वह उनके अभाव में इतना खुल कर होने लगा कि स्वयं वाइसराय को मैदान में उतरना पड़ा और वह भी नंगा हो कर – बंगाली मुसलमानों को अलग राज्य पर खुशियां मनाने और इस बात का कायल करने के लिए कि अलग रहने में ही तुम्हारा भला है। कर्जन के उत्तराधिकारी मंटो को भी उसी तरह आगे बढ़कर रईसों को उत्साहित करना पड़ा कि कांग्रेस से अपना विरोध कांग्रेस की तरह ही कोई संगठन बना कर करो। उन्हें वह करना ही था क्योंकि रईसों, नवाबों और अंग्रेजों के शत्रु एक ही थे – जो पराधीनता और दमन के विविध रूपों से मुक्ति चाहते थे । अतः वे केवल अंग्रेजों से ही नहीं, देसी राजाओं, जमीदारों और नवाबों से भी मुक्ति चाहते थे इसलिए उनका हित स्वतंत्रता आन्दोलन को विफल करना या यदि ऐसा न भी हो सके तो इसके मार्ग में अड़ंगे लगाकर इसे जितना टाला जा सकता था उतना टालना चाहते थे। इस मामले में हिन्दू मुसलमान में फर्क न था, फिर भी यह फर्क था कि हिंदुंओं में शिक्षित मध्यवर्ग का उदय हो चुका था। मुसलमानों में रईसों से हो कर शिक्षा नीचे को उतरी थी और वहां मदरसों की शिक्षा प्रचलित थी जिसमें आधुनिक संस्थाओं तक की समझ का अभाव था इसलिए देवबंद की ललकार के बाद भी कि मुसलमानों को कंग्रेस का साथ देना चाहिए, कांग्रेस में मुसलमानों की भागीदारी अपेक्षाकृत कम थी, यद्यपि अनुपात बढ़ रहा था।

यहां प्रसंगवश यह कहना जरूरी है कि पहले भले मुसलमानों में सभी की शिक्षा अरबी से आरंभ हो कर प्राय: अरबी पर ही समाप्त हो जाती थी, फारसी की भी जरूरत नहीं पड़ती थी, उर्दू सीखने का सवाल ही नहीं था इसलिए साहित्य या शेरो-शायरी तक में मजहबी मुसलमानों की खास दिलचस्पी नहीं होती थी, राजनीतिक जागरूकता जिहादी हंगामेबाजी की शक्ल लेकर ही आती या बहुत जल्द उसी में बदल जाती, जैसा कि सैयद अहमद शाहिद के आन्दोलन के मामले में या खिलाफत के बाद अंग्रेजों के प्रति सशस्त्र विद्रोह ने ले लिया था, जिन्होंने यह प्रचारित कर दिया था कि खिलाफत कायम हो चुकी है। अब उन्हें मुल्क को काफिर हिन्दुओं से आजाद करने के लिए जिहाद करना चाहिए। उनकी यह उल्टी शिक्षा अंग्रेजों को रास आती थी, जिसका वे बहुत चतुराई से इस्तेमाल करते रहे।

यह संयोग भी हो सकता है कि १९०६ में ही कांग्रेस ने अपनी मांगों में स्वायत्त शासन की मांग की उसी साल लखनऊ, शिमला के जोड़तोड़ से आगे बढ़ते हुए ढाका में ३००० रईसों की जुटान हुई और आल इंडिया मुस्लिम लीग की स्थापना हुई जिसकी सदारत के लिए ढाका के नवाब को चुना गया। “इस संस्था का प्रमुख उद्देश्य था- ‘भारतीय मुस्लिमों में ब्रिटिश सरकार के प्रति भक्ति उत्पत्र करना व भारतीय मुस्लिमों के राजनीतिक व अन्य अधिकारो की रक्षा करना।’ ‘मुस्लिम लीग’ ने अपने अमृतसर के अधिवेशन में मुस्लिमों के पृथक् निर्वाचक मण्डल की मांग की, जो 1909 ई. में मार्ले-मिण्टो सुधारों के द्वारा प्रदान कर दिया गया।”*
{nb. *Pursuant upon the decisions taken earlier in Lucknow meeting and later in Simla; the annual meeting of the All-India Muhammadan Educational Conference was held at Dhaka that continued from 27 December, until 30 December 1906. Three thousand delegates attended, headed by both Nawab Waqar-ul-Mulk and Nawab Muhasan-ul-Mulk (the Secretary of the Muhammaden Educational Conference); in which he explained its objectives and stressed the unity of the Muslims under the banner of an association.Wikipedia}

इन्हें राजनीतिक मांग के रूप में अंग्रेजों से कुछ नहीं मांगना था, केवल यह दावा करना था कि कांग्रेस हिंदुओं की पार्टी है, मुसलमानों के हितों की रक्षा वह नहीं कर सकती। स्वतंत्र होने का अर्थ सत्ता उनके हाथ में आनी है, जिसमें उनकी असुरक्षा बढ़ जाएगी, इसलिए उनकी सुरक्षा के लिए अंग्रेजी राज को स्थाई रूप से यहां रहना चाहिए या उनका प्रतिनिधित्व अनुपातत: जनसंख्या की तुलना में बहुत अधिक होना चाहिए। मुसलमानों में बात बात पर असुरक्षित अनुभव करने का जो दौरा पड़ता है और उसके साथ ही ‘यह दिल मांगे मोर’ की डकार आती रहती है, उसकी टेस्ट रिपोर्ट यही है। इसका गणित है ‘असुरक्षित’=’यह दिल मांगे मोर।’और सन्देश है, ‘यदि हमारी असुरक्षा दूर नहीं हुई तो नतीजा भुगतने के लिए तैयार रहो।’

इसमें जो ऐतिहासिक परिवर्तन हुआ है वह यह कि वही कांग्रेस जो तब हिन्दुओं का प्रतिनिधित्व करती थी आज मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करती है क्योंकि हिंदुओं की सचमुच एक पार्टी सत्ता तक पहुंच गई है, और कभी के लीगी कांग्रेस में घुस गए हैं इसलिए कांग्रेस स्वयं भी इसके कारण असुरक्षित अनुभव करने, जप, तप, पूजा, पाठ करने लगी है पर इसके बाद भी अन्त:करण की मलिनता को छिपा नहीं पाती है और शिवलिंग पर बिच्छू रख कर उसे चप्पल से पीटने लगती है।

पर जो भी हो जिस समय की बात हम कर रहे हैं, रईसों की इस पार्टी को आम मुसलमानों ने समर्थन नहीं दिया दिया था। अंग्रेजों ने मुस्लिम रईसों की पार्टी के प्रयोग से उत्साहित हो कर लगभग उसी तरीके से हिन्दू जमीदारों और राजाओं के सहयोग से हिन्दू महासभा का गठन कराया जिससे यह दावा भी किया जा सके कि कांग्रेस सभी हिन्दुओं तक का प्रतिनिधित्व नहीं करती, परन्तु इसमें शिक्षित मध्यवर्ग के कुछ प्रभावशाली ब्राहमण भी थे और वे कांग्रेस के साथ भी जुड़े थे इसलिए इसने मुस्लिम लीग के विरोध में तेवर अपनाया, पर कांग्रेस विरोधी कोई माग नहीं रखा।

परन्तु शिक्षित मध्यवर्ग के इन ब्राह्मणों की संख्या कांग्रेस में अधिक ही नहीं, प्रभावशाली भी थी। इसका लाभ उठाकर लीगियों की ओर से हिन्दुओं की पार्टी करार दी गई कांग्रेस को हिन्दुओं के बीच ब्राह्मणों की पार्टी बताते हुए यह संदेश दिया गया कि दलितों के हित ब्राह्मणों के हाथ में सत्ता आने पर शूद्रों दमितों के हित सुरक्षित नहीं हैं इसलिए जिन्हें खोने को कुछ न था पाने को बहुत कुछ था, वे भी अपने हितों की सुरक्षा के लिए मत जा ‘मत जा रे गोरे, पांव पड़ूं मैं तोरे’ का कीर्तन करने लगे। और जहां तक सिखों का सवाल है, मुसलमानों की तरह उनका तो मजहब ही अलग था। उनको तो मुसलमानों की तरह जब तक खालिस्तान न मिला तब तक आजादी मिल भी गई तो उसे मास्टर तारा सिंह कहां रखेंगे, यही तय नहीं हो पा रहा था।

ज्यों ज्यों स्वतंत्रता का आंदोलन तेज हो रहा था, स्वतंत्रताजन्य असुरक्षा का दायरा बढ़ता जा रहा था और असुरक्षित जनों को सुरक्षा केवल अंग्रेजों के रहने से ही मिल सकती थी। किसी को इस बात की चिंता नहीं की स्वतंत्रता आंदोलन के शक्तिशाली होने के साथ ही ये सभी तरह के असंतोष, ब्रिटिश संरक्षण में, क्यों पैदा किए जा रहे हैं ? वे जानते सब कुछ थे पर अपने छोटे स्वार्थ के लिए वे पूरे देश की स्वतंत्रता को दांव पर लगाने को तैयार थे और इस माने में वे उन रईसों, रजवाड़ों, जमींदारो, कंपनी के अमलों से किसी माने में भिन्न न थे। अपने वर्ग का हित नहीं अपने धर्म समुदाय की चिंता नहीं बल्कि अपने लिए कुछ पाने की चिंता उन लोगों में भी पैदा हो गई थी जिनके त्याग और तपस्या की कहानियां गढ़ पूरा इतिहास भर दिया गया । जिन्ना, अंबेडकर, मास्टर तारा सिंह सभी देश को तोड़कर भी उसके किसी टुकड़े का प्रधान होने की लालसा से ग्रस्त थे, परंतु इस नंगे सच को स्वीकार नहीं कर सकते थे। नेहरू स्वयं भी इसके अपवाद न थे। लंबी दासता के कारण हमने स्वतंत्रता की पहचान तक खो दी थी।#भारतीय_मुसलमानः

Post – 2018-10-29

दुख किसी का हो शकल अपनी नजर आती है क्यों
दूसरों का दुख भी आईना है यह सोचा न था।।

Post – 2018-10-28

#भारतीय_मुसलमानः पुनश्च -2

1803 में दिल्ली के शाह वलीमुल्ला ने एक फतवा जारी कर ऐलान किया था कि अब हिन्दुस्तान दारुल इस्लाम नहीं रह गया। इसमें यह संदेश निहित था कि मुसलमानों को धर्मयुद्ध आरंभ करना चाहिए। इसे लेकर कंपनी के प्रशासकों में भारी बेचैनी थी और वे भारत से लेकर मक्का तक के मुल्लों मौलवियों से यह सनद लेने का प्रयत्न करते रहे कि अंग्रेजी राज्य में मुसलमानों को अपने धार्मिक कृत्यों को अपने ढंग से निभाने में किसी तरह की रुकावट नहीं है, इसलिए यह आज भी दारुल इस्लाम है।

इस सवाल पर काफी लंबी बहस हंटर की उस पुस्तक में भी है जिसके हवाले हमने पहले दिए है। उन्नीसवीं सदी के तीसरे दशक से भारत में एक संगठित मुस्लिम विद्रोह सैयद अहमद बरेलवी के नेतृत्व में आरंभ हो गया था इसका उल्लेख हम पहले कर आए हैं। यह इतना व्यापक था कि अंग्रेजों के मन में अपने शासन की स्थिरता के विषय में चिंता आरंभ हो गई थी।

उन्नीसवीं सदी में ही मुस्लिम समुदाय का नेतृत्व करने वाले दो मंच तैयार हो चुके थे। एक उलेमा का, जो अंग्रेजों के घोर विरोधी थे और जिन्होंने 1803 में इस आशय का फतवा जारी किया था की हिंदुस्तान अंग्रेजों के आने के कारण दारुल हर्ब बन गया है और जब तक इनको हटाया नहीं जाता, दारुल इस्लाम नहीं बन सकता।

दूसरा असुविधा और अपमान झेल कर भी, अंग्रेजी हुकूमत के प्रति वफादारी दिखा कर अपने लिए रियायतें हासिल करने वाला नवाबों और रईसों का तबका था जो अपेक्षित योग्यता पाने और अपनी जीवनशैली को आधुनिक बनाने को तत्पर था। इन दोनों के परस्पर विपरीत होते हुए भी दो भिन्न समाजद्रोही चरित्र हैं।

पहले के क्रान्तिदूत सैयद अहमद शाहिद थे, जो चले अंग्रेजों से धर्मयुद्ध लड़ने और जा कर टकरा गए सिक्खों से और 41 साल की कम उम्र में शहीद हो गए। अतिशय जज्बाती होने को कारण इनका दिमाग उल्टी दिशा में फेरा जा सकता है।

दूसरे का जन्म सर सैयद अहमद के साथ हुआ था और आरंभ में हिंदुओं और मुसलमानों दोनों को साथ लेकर चलने का दावा करता था। परंतु यह दावा अपनी शर्तों को मनवाने का एक पाखंड था, क्योंकि मुसलमानों की अतिरिक्त वफादारी का इस्तेमाल वह हिंदुओं से आगे बढ़ने के लिए कर रहे थे, युक्तप्रांत में हिंदुओं को मुसलमानों से जो बच जाए उससे संतोष करने और चूं चपड़ न करने की शर्त पर कर रहे थे। हिंदुओं का साथ उन्हें कांग्रेस से अलग रखने के लिए एक रणनीतिक दिखावा भी था। जिस धरती को हिंदू माता के रूप में आदर करते हैं, उसकी तुलना वह एक रूपवती दुल्हन से करते थे, जिसकी दो सुंदर आंखें हिंदू और मुसलमान थे, परंतु उनका पूरा प्रयत्न दोनों आंखों में एक को फोड़ देने का था जिससे केवल दूसरी बची रहे उसके अनुसार ही दुनिया को देखा जाए, उसी के अनुसार चला जाए। इसी दशा मे ही वे प्रेम से रह सकते थे। हम देख आए हैं कि नागरी की स्वीकृति के लिए चल रहे आंदोलन को हिंदुओं की सांप्रदायिकता मानते हुए उन्होंने यह दिखावा भी छोड़ दिया था कि अब दोनों समुदाय साथ मिल कर रह सकते हैं।

इनमें प्रगतिशील इतना ही था कि उन्होंने यह समझ लिया था कि आगे बढ़ने के लिए अंग्रेजी का ज्ञान जरूरी था आधुनिक दृष्टिकोण अपनाना जरूरी था और इसलिए वह मुसलमानों को मध्यकालीन घेराबंदी से बाहर ले आना चाहते थे। परन्तु आरंभ से आज तक इनका सारा प्रयत्न हिन्दुओं को नीचा दिखाने, उनका इतिहास और सामाजिक ढांचा नष्ट करने का रहा है।

उलेमा, चाहे देवबंद के रहे हों या बरेली के, वे किसी भी ऐसी चीज का विरोध करते थे जिसका किसी रूप में अंग्रेजों से संबंध हो। इसमें भाषा, पोशाक, पश्चिमी ज्ञान, आधुनिक विज्ञान, बौद्धिक चिंतन और तार्किकता सभी रूप आते थे। केवल आधुनिक आविष्कारों से मिलने वाली सुविधाओं को स्वीकार करने में उतना परहेज नहीं था। मानसिक रूप में ये अशोध्य पिछड़ेपन के शिकार थे। इस्लाम के बारे में कहा जाता है कि इससे पहले जाहिलिया का दौर था और मुहम्मद साहब अपने समाज को उससे बाहर लाए। इसे समझने में यदि दिक्कत होती हो तो समझ लें कि इंसानी दिमाग की उपज, सारा ज्ञान-विज्ञान, खुराफात से भरा है। जाहिलिया का रूप है। इससे लौट कर बद्दू अवस्था में पहुंचना रौशनखयाली है। मदरसों से वे ऐसे ही रौशनखयाल बच्चे निकालते हैं जिनको आगे कुछ जानने, समझने यहां तक कि सोचने तक की जरूरत नहीं रह जाती। सोचना भी तो दिमाग का फितूर ही है, इंसान कोई सही चीज सोच ही नहीं सकता।

परंतु जहां तक हिंदुओं के साथ का प्रश्न था वे अपना प्रधान शत्रु अंग्रेजों को मानते थे। उन्होंने विरोध किया पर कुटिलता से काम न लिया। जब तक निशाने पर वे हैं, हिंदू पूरी तरह सुरक्षित ही नहीं हैं, अजीज भी हैं। इनमें हिंदुओं को साथ लेने और उनसे प्रेम भाव कायम करने की पहल खरी थी। एक नारा ही था कि हम हिंदू मुस्लिम दोनों भाई, यह कहां से आ गया ईसाई । इबारत में मामूली फर्क हो सकता है।

बंगाल में इसी का प्रभाव अधिक था। बंगाली मुसलमान को हिंदुओं से इस बात को लेकर कोई शिकायत नहीं थी कि उन्होंने कंपनी में सरकारी नौकरियों में जगह बना ली, क्योंकि वे उनके आगे झुकने और कोई रिआयत लेने को ही तैयार नहीं थे। वह भाषा सीखने को भी तैयार नहीं जिसको जानने के बाद ही ये नौकरियां मिल सकती थीं। वे जानते थे हिंदुओं ने उनसे कुछ नहीं छीना है। उनकी उदासीनता के कारण उन्होंने इस अवसर का लाभ उठाया है। धार्मिक कट्टरता प्रबल होने पर लाभ हानि की चिंता नहीं की जाती, बल्कि हानि एक तरह की कुर्बानी जैसी प्रतीत हो होती है और इस पर गर्व तक किया जाता है। इससे दूसरों से पिछड़ जाने का भी अफसोस नहीं होता।

मदरसों की शिक्षा अल कुरान तक की शिक्षा, अंग्रेजी शिक्षा की खुराफात से बचे रहने की जिद, कम खतरनाक नहीं है, परंतु जिस सामाजिक समीकरण पर हम विचार कर रहे हैं उसमें बंगाल के मुसलमानों का हिंदुओं के प्रति कोई विरोध न रहने का सब से अधिक नुकसान अंग्रेजों को था, जिनकी फूट डालो और राज्य करो की नीति आसानी से सफल नहीं होने जा रही थी इसलिए यद्यपि बंगाल को धार्मिक आधार पर बांट कर दोनों समुदाय में कलह पैदा करने की योजना 1903 में ही सूझ गई थी परन्तु इसे अमल में लाने के तराके पर विचार करने मेे दो साल लग गएः
“सर्वप्रथम 1903 में बंगाल के विभाजन के बारे में सोचा गया। चिट्टागांग तथा ढाकाऔर मैमनसिंह के जिलों को बंगाल से अलग कर असम प्रान्त में मिलाने के अतिरिक्त प्रस्ताव भी रखे गए थे। इसी प्रकार छोटा नागपुर को भी केन्द्रीय प्रान्त से मिलाया जाना था। सन् 1903 में ही कांग्रेस का भी 19वाँ अधिवेशन मद्रास में हुआ था। उसी अवसर पर उसके सभापति श्री लालमोहन घोष ने अपने अभिभाषण में सरकार की प्रतिक्रियावादी नीति की आलोचना करते हुए एक अखिल भारतीय मंचपर आसन्न वंगभंग की सूचना दी। उन्होंने कहा कि इस प्रकार का एक षड्यंत्र चल रहा है।

सरकार ने आधिकारिक तौर पर 1904 की जनवरी में यह विचार प्रकाशित किया और फरवरी में लॉर्ड कर्ज़न ने बंगाल के पूर्वी जिलों में विभाजन पर जनता की राय का आकलन करने के लिए अाधिकारिक दौरे किये। उन्होंने प्रमुख हस्तियों के साथ परामर्श किया और ढाका, चटगांव तथा मैमनसिंह में भाषण देकर विभाजन पर सरकार के रुख को समझाने का प्रयास किया। हेनरी जॉन स्टेडमैन कॉटन, जो कि 1896 से 1902 के बीच आसाम के मुख्य आयुक्त (चीफ कमिश्नर) थे, ने इस विचार का विरोध किया।”

जो भी हो अंग्रेजों के इतने खुले और जोरदार प्रयत्न के बाद हिन्दू और मुसलमान दोनों ने इसका विरोध किया और हिंसक प्रतिरोध तथा अंग्रेजी सामानों के बहिष्कार के बाद पांच साल के बाद ही इसे वापस लेना पड़ा। इसे कहते हैं मुंह की खाना।

Post – 2018-10-27

दुख किसी का हो शकल अपनी नजर आती है क्यों
दुख भी आईने हैं पहले तो कभी जाना न था।।

Post – 2018-10-27

#भारतीय_मुसलमानः

हमने कहा था भारतीय मुसलमान की चेतना को समझने के लिए सर सैयद अहमद खान को समझना जरूरी है। पर उन पर इतनी लंबी चर्चा के बाद भी हम यह दावा नहीं कर सकते कि उन्हें पूरी तरह समझ सके हैं या उनके साथ पूरा न्याय कर सके हैं। घटनाओं को उनके परिणाम के बाद समझना आसान होता है- यद्यपि यह भी इतना आसान नहीं होता जितना हम मान लेते हैं – परंतु निर्णय के क्षणों में, अनेक विकल्पों के बीच, सही निर्णय लेना आसान नहीं होता। हम अक्सर जो कुछ अपने भले के लिए करते हैं और पूरी तरह सोच-समझ कर करते हैं, उनके परिणाम भी हमारी योजना के अनुसार नहीं होते। बड़ा दुश्मन और छोटा दुश्मन तय करना इतना आसान नहीं होता। अंतर्विरोध के बीच संभावनाओं का निश्चय करना आसान नहीं होता।

कांग्रेस के प्रति उनके रुख की आलोचना करते हुए भी इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि अंग्रेजी राज्य के नीचे बंगाली प्रभाव क्षेत्र कुछ डरावना रूप ले रहा था और इसका विरोध उड़ीसा, असम और बिहार के लोग भी कर रहे थे। बंगाल का बड़ा से बड़ा और उदार से उदार व्यक्ति भी इस वर्चस्व का समर्थक था, जिससे मुक्त रवीन्द्र भी नहीं थे। यह कैसे निर्मित हुआ इसके बारे में जाने का यह सही स्थान नहीं है परंतु यह याद दिलाना आवश्यक है कि सर सैयद का आतंकित अनुभव करना निराधार न था। यह जा सकता कि दूसरों ने जो तरीके अपनाए है वे उनके लिए भी खुले थे, पर वे उनका उपयोग करने से चूक गए। पर इसके साथ यह भी नहीं भुलाया जा सकता कि यदि आप अकेले हैं, दूसरी ओर ब्रिटिश कूटनीतिज्ञो और अधिकारियों का इतना बड़ा दल हो जो आप को यह समझाने के प्रयत्न में हो कि वह जो कुछ कर रहा है वह आपके हित में है तो उनके प्रभाव से बच निकलना, उनकी चाल समझ आने के बाद भी संभव नहीं।

जिस मुस्लिम रईस वर्ग की वह चिन्ता कर रहे थे, वह सर्वथा निःसत्व था । वह बीफ बुल बन चुका था। वह मौज मस्ती को छोड़कर और कुछ नहीं करता था और मौज मस्ती भी नशे की शक्ल ले चुकी थी। उसमें किसी तरह का नया सपना तक नहीं बचा था। वह समाज से कटा, अपने सुनहले पिजड़े में बंद था जिसकी मुख्य समस्या समय काटने की थी और इसके लिए उसमें उर्दू फारसी की जानकारी रखने वाले लोग शर- ओ- शायरी से लेकर कोठों तक मनोरंजन कोई नायाब तरीका तलाशते रहते और इन्हीं में कुछ स्वयं भी नामचीन शायर बन जाते थे, बाकी अपने घटिया प्रयोगों की दाद पाने के लिए अपनी झोली खाली करने तक को तैयार रहते थे। इसमें ज्ञान पिपासा का नितांत अभाव था।

दूसरे शब्दों में वह उस वर्ग को ऊपर उठाए रखना चाहते थे जो अपनी आदतों को इस हद तक बिगाड़ चुका था जिसकी तुलना उस ऐल्कोहलिक से ही की जा सकतीहै जो लड़खड़ाते हुए भी कुछ और की मांग कर रहा हो। वे उनके लिए अवसरों की तलाश कर रहे थे जो अवसरों का उपयोग करने तक में असमर्थ थे। रिश्ता केवल एक कि वह स्वयं भी उसी जमात से निकले थे। वह उसकी अयोग्यता को जानते थे और योग्यता पैदा करने की कोशिश भी कर रहे थे।

उन्हें मलाल था जागीर-जमीदारी पर अधिकार रहने के बाद भी अमीर मुस्लिम आर्थिक दृष्टि से बहुत पिछड़े हुए थे। इसके लिए नई ऊर्जा के साथ नए कारोबार में जुड़ना जरूरी था, पर उन पेशों में स्पर्धा करने में उनकी जमा पूंजी भी डूब सकती थी जिनमें हिंदू व्यापारियों का दखल था, इसलिए उनकी सलाह थी कि वे हड्डी, चमड़ा आदि की तिजारत को अपनाएं जिस पर अंग्रेजों का एकाधिकार था परन्तु उसके जुगाड़ का तंत्र उनके लिए झमेले का काम था। सर सैयद अहमद इनकी बदहाली को दूर करने की चिंता तो कर सकते थे, परंतु इनके उत्थान में किसी दूसरे की रुचि नहीं हो सकती थी।

सर सैयद अहमद यह भी चाहते थे कि रईस राजनीतिक दृष्टि से सक्रिय हों और इसके लिए उन्होंने एक मंच भी बनाया था, परंतु ना तो उन्होंने स्वयं कोई दल बनाया था, न उसके नेतृत्व की अवस्था रह गई थी। राजनीतिक आन्दोलन जारी रखने के लिए अपने बाद कोई उत्तराधिकारी भी नहीं नियुक्त कर सकते थे ।

कुछ दिक्कतें इस्लाम के साथ भी थीं। इस्लाम एक ख़ानाबदोश समाज का मजहब है जिसमें न तो जमीन के लिए लगाव होता है, न जायजाद के लिए, न ऐश और अमीरी के लिए। मिल बांट कर खाने का सद्भाव और असामान्य विपत्तियों से भी लड़ने का साहस अवश्य होता है। उसमें सामंती मूल्यों तक की संभावनाएं नहीं थी, पूंजीवादी विकास की तो बात ही छोड़ दें। जमीन से जुड़कर रहना और खेती बारी करना तक उसके वश का न था।

मुसलमान कहता है मुसलमान का कोई देश नहीं होता, उसके पीछे भी वही खानाबदोश मानसिकता काम कर रही होती है। यदि उसमें लाभ कमाने और दूसरों से ऊंची हैसियत रखने की परंपरा होती तो उसका नैतिक मेरुदंड ही कमजोर पड़ जाता। मोहम्मद साहब की परवरिश बद्दुओं के बीच में हुई थी। इस्लाम के लिए मूल्य प्रणाली उन्होंने बद्दुओं से ग्रहण की थी। इसमें सजावट, बनावट, के लिए जगह न थी, कलाओं ने लिए लगाव न था। वे मुनाफाखोरी, चोरी, बेईमानी के लिए जगह न थी । सादगी और ईमानदारी के लिए थी।

सर सैयद को ठीक इसी रूप में इस्लामी मूल्य प्रणाली का बोध था या नहीं हम नहीं कह सकते, परंतु वह जानते थे कि इससे किसी समाज का आधुनिकीकरण और आर्थिक विकास नहीं हो सकता, तकनीकी और कलात्मक विकास भी असंभव है, वैज्ञानिक सोच के लिए इसमें जगह नहीं है इसलिए वह कुरान की भी इस रूप में व्याख्या करना चाहते थे कि मुस्लिम समाज में आधुनिक सरोकारों के लिए जगह पैदा की जा सके।

उनकी व्याख्या के बाद भी वह सब पर बंदिश तो हो न जाती, न ही दूसरों को अपने ढंग से कुरान की व्याख्या करने की गुंजायश खत्म हो जाती। मुस्लिम समाज में, इस्लामी नजरिए से, अनेक बुराइयां सूफियों के माध्यम से आ चुकी हैं और उनके कारण कोई अपने को बिगड़ा हुआ मुसलमान नहीं मानता। सर सैयद की व्याख्या के साथ लाभ और व्याज दोनों के लिए आधार भूमि तैयार हो जाती और मुसलमानों के आर्थिक विकास में सबसे बड़ी बाधा, जो धार्मिक कारणों से थी, उससे जो लोग नई जीवनशैली अपनाना चाहते, मुक्ति पा लेते। व्याज के बिना बैंक-प्रणाली और बैंक-प्रणाली के बिना औद्योगिक विकास संभव नहीं, पर यहां उनकी एक न चली। कुछ तो अपने निकम्मेपन के कारण (वे अपनी लगान वसूली तक स्वयं नहीं कर सकते थे, यह हिन्दुओं के हाथ मे था ), कुछ दूरदर्शिता के अभाव में और कुछ आधुनिक शिक्षा से वंचित होने के कारण, रईसों ने उनकी सलाह मानते हुए यदि उद्योग और व्यापार की दिशा में पहल की भी वह नाम मात्र को ही रही होगी।

एक अन्य समस्या मुसलमानों के मन में अंग्रेजों के प्रति भरी हुई नफरत को कम करने और उन्हें अपने को सरकार का वफादार सिद्ध करने के लिए तैयार करने की थी। सरकार से मदद लेने के लिए यह बहुत जरूरी था। हम देख आए हैं कि कैसे किताबों वाले मजहब के रूप में और खान पान में अस्पृश्यता का व्यवहार न करने के आधार पर वह हिंदुओं की अपेक्षा अंग्रेजों को अपने समाज के अधिक निकट सिद्ध करना चाहते थे। उनको सफलता शिक्षा के क्षेत्र में अवश्य मिली परंतु उसका संचालन भी अंग्रेजों के हाथ में सौंप कर उन्होंने मुस्लिम मानसिकता के निर्माण का काम उन्हेो सौंप दिया। यह अपनी अनन्य वफादारी सिद्ध करने और मुसलमानों में नई सोच पैदा करने के खयाल से उनको अनुकूल लगा होगा।

इस क्षेत्र में उन्होंने इतनी सफलता अवश्य पाई कि अमीर घरानों के युवक उच्च शिक्षा के लिए इंग्लैंड जाने लगे। इसकी शुरुआत उन्होंने स्वयं अपने पुत्र महबूब खान को अपने साथ ले जाकर ही किया था।

बंगाल में अंग्रेजों से मुसलमानों की निकटता कायम न हो सकी या इसका सबसे कम प्रभाव पड़ा। वहां के मुसलमान अंग्रेजों की तुलना में हिंदुओं के अधिक निकट अनुभव करते रहे जिसका एक उदाहरण काजी नजरुल इस्लाम हैं, जिन्होंने काली की आराधना में अनुपम गीत लिखे हैं। उनके नाम के साथ लगे काजी पर भी ध्यान देना होगा।*
{ nb. *इनमें से कुछ पंक्तियां मेरी याददाश्त में बनी रह गईं। एक काली को शिशु रूप में कल्पित करते हुए जिसमें अपने लिए दूसरे लोगों द्वारा काली कहे जाने पर बालिका काली मां रोने लगती है और वह उन्हें सांत्वना देते हुए कहते हैं, रो मत, रो मत, तुम्हें काली किसने कह दिया (केंदो ना, केेदो ना, मां के के बोलेछे कालो), और दूसरी अपने जीवन की व्यथा को मां के द्वारा दिए गए दंड के समान मानकर अपनी भक्ति के अधिक प्रखर होने की बात करते हैं – मां काली, तू मुझे जितनी भी यातना देगी मैं उतने ही विकल भाव से तुझे ही गुहार लगाऊंगा जैसे मां की ताड़ना के डर से बच्चा मां की ही गोद में छिपना चाहता है (जतो ना ताड़ना दाओ मां काली, डाकबो ततो तोरे, मायेर भये शिशु जेमन लूकाय मायेर कोले।}

परंतु धार्मिकता का कुछ असर भाषा पर अवश्य पड़ा, उसमें अरबी फारसी के शब्द प्रयोग में आने लगे। इस भाषा को मुसलमानी बंगाली नाम दिया गया। संभव है यह उर्दू का असर रहा हो। उनकी नजर में उर्दू मुसलमानी हिंदी, और हिंदी सबकी हिंदी थी।

परंतु सफलता विफलता को अलग रखें तो सभी प्रयासों में उनकी बेचैनी को और अपनी कौम के प्रति उनकी गाढ़ी चिंता को तो समझा ही जा सकता है।

सर सैयद की मृत्यु के बाद मुसलमानों को यदि कोई अभाव हुआ तो पहला था नागरी लिपि और हिंदी का अदालतों में और शिक्षा संस्थाओं में स्थान मिलना। यद्यपि अदालतों में नागरी को उत्तर प्रदेश में या तब के संयुक्त प्रांत में फिर भी जगह न मिली जिसका कारण था इनमें मुसलमानों और कायस्थों का एकाधिकार। पुलिस थानों में भी उर्दू का ही बोलबाला रहा, फिर भी उनके एकाधिकार पर रोक तो लगने ही लगी और संयुक्त प्रांत के गवर्नर के निर्देश पर यह प्रतिबंध लग गया मुसलमानों को पांच जगहों में दो से अधिक के अनुपात में पद नहीं मिलेंगे, जबकि पहले यह पांच में चार हुआ करता था और बचा हुआ एक कायस्थों के खाते मे जाता था। इस एकमात्र नुकसान को छोड़ दें तो दूसरा कोई नुकसान उन के अभाव में नहीं हुआ, यद्यपि शिक्षा की दिशा में जो प्रगति हुई वह उन्हीं के प्रयत्न का परिणाम थी।

परंतु राजनीतिक और आर्थिक प्रतिस्पर्धा में अमीरों के न उतरने के कारण और सामान्य मुसलमानों के कांग्रेस से परहेज न होने के कारण सबसे अधिक नुकसान अंग्रेजी विघटनकारी राजनीति को हुआ। उनके स्थान पर उस रिक्त स्थान को किस तरह पूरा किया जाए इसकी चिंता में उनके चार पांच साल बीते और फिर उन्हें खयाल आया सर सैयद का नुस्खा। यदि बंगाल के मुसलमान अकेले कांग्रेस के विरोध में खड़े हो जाएं तो उसका सफाया कर देंगे और उन्होंने बंगाल को बांटने की योजनाओं पर काम करना आरंभ किया।

Post – 2018-10-26

दवा नहीं, न सही, दर्द सही
कुछ तो है जिसमें मिलावट न मिली।

Post – 2018-10-26

मौत के डर से इससे प्यार किया
वर्ना इस जिंदगी में था ही क्या।।.

Post – 2018-10-26

हर सख्श को अपने से हम दाना मानते हैं
दुनिया को मगर अपनी दुनिया न मानते हैं
कुछ नाज मुझे भी है अपनी खसूसियत पर
जो मुझको जानते हैं दीवाना मानते हैं ।
क्यों कर न टूट जायें पड़ते ही सामने, जो
अपनी समझ को मेरा पैमाना मानते हैं।।
यूं तो बहुत तलाशा कोई न शिफत पाई
माहिर हैं इलम के जो क्या क्या न मानते हैं।।
दुनिया से मिला जो कुछ चाहत से जियादा था
कुछ और जुटाने को मिट जाना मानते हैं।।