Post – 2017-07-31

भारतीय मार्क्सवादी (3)
“तुम्हारी प्रकृति अराजकतावादी है, इसका तुम्हें पता है? इतनी तेजस्वी, देश को समर्पित, विभूतियां हुई हैं कम्युनिस्ट पार्टियों में और तुम्हारी जबान झाडू की तरह चल कर एक ही झटके में सबको बुहार कर कूड़ेदान के हवाले कर देती है। यही है तुम्हारी मार्क्सवादिता?”

“देखो, मैं मार्क्सवादी होने का दावा नही करता, मैं जो कुछ हूँ वही मुझे परिभाषित करता है. अपरिचित व्यक्ति को परिचय देना हो तो यह जरूरी हो सकता है. परिचित लोगों के विषय में जो कुछ वे हैं वही प्रमाण है. मुझे यह भ्रम है कि मैंने अपने जीवन, लेखन और सोच में अपने को मार्क्सवादी कहने वालों की तुलना में अधिक निष्ठा से उन सिद्धांतों का निर्वाह किया है. जहां तक व्यक्तिगत त्याग और समर्पण भाव की बात है पूरी कम्युनिस्ट पार्टी तो छोड़ दो, मेरे अपने परिचय परिधि के कम्युनिस्टों में ही ऐसे अनेक लोग मिल जायेंगे जो उन दृष्टियों से मेरे आदर्श रहे हैं, इनसे भी विलक्ष्ण लोग ऐसे दलों, संगठनों, विचारधाराओं में भी मिल जायेंगे जिनसे तुम्हें चिढ़ हो सकती है, उदाहरण के लिए माओवादी, मुस्लिम लीग, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ. यहाँ तक कि कुछ अपराधकर्मियों तक में कई मेधा और व्यक्तिगत चरित्र के अनूठे नमूने मिल जायेंगे. प्रश्न निजी शुचिता या त्याग भाव का ही नहीं है? प्रश्न है मानवीय सरोकारों की दृष्टि से वे सही हैं या नहीं? किसी दर्शन की अपनी कसौटी पर वे खरे हैं या नहीं? उस दर्शन का प्रतिपादक स्वयं उसकी अपेक्षाओं की पूर्ति करता है या नहीं?”

उसका धीरज जवाब दे गया, “प्रश्न यह भी है कि तुम्हारी जबान बंद होती है या नहीं.”

मैं हंस पड़ा, “सच कहो तो तुम लोगों को एक ही काम आता है. लोगों की ज़बान बंद करना और बोलने का सारा अधिकार अपने पास रखना. तुम्हें याद है आजीवन प्राण पण से पार्टी का काम करने वालों ने भी, वे कितने भी बुद्धिमान हों, यदि अलग कोई विचार रखा तो उसके साथ अपराधी जैसा व्यवहार किया जाता रहा है, आत्मालोचन के नाम पर पार्टी के गलत फैसलों को मानने को मजबूर किया जाता रहा है. उसके अपने उत्तर में यदि कोई बू भी रह गई कि वह अपमी मान्यता को गलत नही मानता िफर भी पार्टी का निर्णय सर माथे, तो दुबारा आत्मालोचन को बाध्य किया जाता रहा है. तुम्हें पता है क्रोचे को जिसे मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र का पुरोधा माना जाता है उसे दो बार आत्मालोचन के लिए उन लोगों द्वारा बाध्य किया गया था जिनको पार्टी के फरमान का भले पता रहा हो, सौन्दर्य का ककहरा भी पता न था. जहां तक मुझे याद है उसका दूसरा आत्मालोचन भी स्वीकार न किया गया था.

“राहुल जी को पार्टी से निष्कासित इसलिए किया गया कि उन्होंने पार्टी की अंग्रेजीपरास्ती की आलोचना की थी और यह टिप्पणी की थी कि अन्य देशों में जहां मुसलमान दूसरे मजहब के लोगों के साथ रहते है, वहा उनके वेश विन्यास दूसरों जैसे ही होते है. भारत में भी ऐसा होना चाहिए. उन्हें इसके लिए दण्डित किया गया था. पी सी जोशी को जो पार्टी के महासचिव तक थे उनको जिस अपमान और असुरक्षा से गुजरना पडा उसको बयान नहीं कर सकता.

“यह मार्क्सवाद नहीं हो सकता. मार्क्सवाद में मानवीय गरिमा की चिंता सर्वोपरि है. हाँ इसे यदि तुम पोपतंत्र के उस चरण से जोड़ कर देखना चाहो जिसमे गैलीलियो को कोपरनिकस के सिद्धांत का खंडन करने की शर्त पर उसे यातनावध से मुक्ति दी गई थी और उस कृति में भी यह कहते हुए कि उसका सिद्धांत ईसाइयत के विपरीत नहीं है, उसने उसे गलत नहीं कहा तो उसको आजीवन कारावास (हाउस अरेस्ट ) का दंड दिया गया था?

“मै सवाल नही कर रहा हूँ. जानना चाहता हूँ कि क्या यह मार्क्सवाद है या मार्क्सवाद के नाम पर पोपतंत्र?

“मैं स्वयम अपनी गलतियां सुधारना चाहता हूँ. मैंने कहा न कि मैं जीतना नहीं चाहता हूँ. सच तक पहुंचना चाहता हूँ इसलिए मैं जब गलत सिद्ध होता हूँ, सही को अपना लेता हूँ. विजय के इस रूप को वे नहीं जान सकते जो निरुत्तर होकर भी अपनी जगह अड़े रहते है. मुझे तुम्हारी सहायता चाहिए.

“एक बात का ध्यान रखना. मेरी समझ से मार्क्सवाद गुलामी का दर्शन नहीं है. गुलामी के सभी रूपों से मुक्ति का दर्शन है और इस समझ की सीमा में ही मैं अपने को मार्क्सवादी मानता हूँ।
“बहुत उलझी हुई हैं तेरी जुल्फें
तुझे इनसे ही इतना प्यार क्यों है.”

Post – 2017-07-30

मेरा कमाल है न तुम्हारा जमाल है
जिस ओर नजर फिर गई कुछ होके रहेगा।
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न उसकी राह रोको उसको समझाओ न तुम नासेह
बुरा वह था, न है, और इससे अच्छा हो नहीं सकता।
*****

तुझको देखा तो मर गए कुछ लोग
मैं भी उनकी कतार में था क्याा?
जब्त करता और खुद को समझाता
यह मेरे अख्तियार में था क्या?
*****

इतने सूरज हैं तो अंधेर तो होनी है जनाब
चांद रौशन है सितारों की मेहरबानी है।
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अब किस पर जान दीजिए और किसको कोसिए
इस हाट में हर फर्द महज दिलफरोश है।।
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Post – 2017-07-30

भारतीय र्माक्सवादी (2)

‘तुमको भविष्यत् पुराण के रचना काल के बारे में कुछ पता है?’

‘तुम पुराणों की दुनिया से बाहर कब निकलोगे? सड़ी गली चीजों के संपर्क में अधिक रहने वालों के शरीर, कपड़े यहां तक कि दिमाग तक से बू आने लगती है।’ उसने कल ही खीझ उतारते हुए मेरी खबर ली।

मैने हंसते हुए कहा, ‘यार, तुम्हारी सोहबत में आने के बाद यह तो जान ही चुका हूं। दूर ही रहता हूं। अगर लाचारी हुई तो नहाकर पुराण खोलता हूं कि कहीं तुम लोगों के संपर्क से आई बू पुराणों को दूषित न कर दे और पोथा बन्द करने के बाद फिर नहाना पड़ता है कि उस जमाने का असर मेरी आज की सोच पर न पड़ जाय। तभी तो तुमसे जानना चाहा। मैं यह नहीं समझ पा रहा हूं कि भविष्यत् पुराण लिखने वाले को कम्युनिस्टों के बारे में कैसे पता चल गया? सोचा तुम्हारी पार्टी का मामला है, पार्टी का इतिहास तलाशते हुए तुम लोगों में से किसी ने इस पर विचार किया होगा।’

वह भी हंसने लगा, ‘मामला क्या है?’

तुम जानते ही हो मेरे पास सभी पुराने ग्रंथों की ऐसी पांडुलिपियां हैं जो कहीं प्रकाशित ही नहीं हुईं। उन्हीं में भविष्यत् पुराण भी है। आज खोला तो देख कर हैरान रह गया। उसमें तीन श्लोक तुम लोगों के बारे में ही हैं।’ मैंने पढ़कर सुना दिया:

भविष्यन्ति कलौ घोरे उठापटकवादिन:
नाम्ना कम्युनिष्टा तु बुद्धिभ्रष्टाश्च भारते.
जल्पितं कल्पित यच्च यच्च सस्वर जम्भितं
मार्क्सेन ऐगिलेनेव लेनिनस्तालिनेव वा !
बकिष्यन्ति अनाड़त्वात् माओ आओ त्वरेण त्वं
रक्तस्नानविशुद्धाश्च भारते आत्मघातिनः !

‘कुछ भी कहो बुद्धिभ्रष्ट तो तुम र्माक्सवादियों को नहीं कह सकते उनकी भीड़ तो वहां मिलती है जिनकी तुम वकालत करते हो। तुम तो स्वयं मानते हो कि सारे बुद्धिजीवी वामपंथी हैं।’

‘मैं तो मानता ही हूं यार लेकिन पुराण की बात तो गलत हो नहीं सकती। देखो उसने बुद्धिहीन या बुद्धिनष्ट तो कहा नहीं। बुद्धिभ्रष्ट कहा। बुद्धि तो है, अपनी धुरी से खिसक गई हैं, न अपनी भाषा पर गर्व, न अपने देश का अभिमान, न इतिहास और समाज की जानकारी, न रीतिनीति की समझ, न कुर्सी से उतरने की चाह, गए इंगलैंड बैरिस्टरी सीखने अंग्रेजी र्माक्सवाद लेकर लौटे और उसका तोप की तरह इस्तेमाल करके देश पर कब्जा जमाने के लिए उतावले हो गए और इसके लिए किसी भी तरह का समझौता करने को तैयार। यही है तुम्हारी जड़। जैसा बीज वैसा फल। भरतीय ब्राह्मणवाद की जगह अंग्रेजी ब्राह्मणवाद के उपासक। नवाबों की जीवन शैली और फटेहाल मजदूरों की पीड़ा का स्वांग। यही है तुम्हारा भारतीय कम्युनिज्म। पुराना ब्राह्मण कहता था हम शाप से भस्म कर देंगे, तुम मानते थे हम हम नारों से सत्ता को चूर चूर कर देंगें। गलत तो नहीं कहा मैंने?’

Post – 2017-07-30

तुमको ढूढ़ूं भी किस तरह बोलो
तुम मेरे पास कुछ जियादा हो
मुझमें मुझसे ही छिप के रहते हो
कितने शातिर हो कितने सादा हो

Post – 2017-07-29

भारतीय मार्क्सवादी

बात आज से पैंतीस साल पहले की है। वी.एस. पाठक उन दिनों गोरखपुर विश्वविद्यलय में प्राचीन इतिहास और पुरातत्व विभाग के अध्यक्ष थे। हड़प्पा सभ्यता और ऋग्वेद के लेखन से पहले मेरी जो समझ थी उससे उनको अवगत कराते हुए यह चाहता था कि वह किसी शोधार्थी से अनुसंधान करायें। मैं अपनी पूरी सामग्री और सहयोग उसे देने को तैयार था। उन दिनों मेरी नजर में वहां रीडर के पद पर कार्यरत सच्चिदानन्द श्रीवास्तव थे जो श्रमण संस्कृति पर पाठक जी के निर्देशन में काम कर रहे थे, पर विषय संभल न रहा था। मेरी आरंभ से यह इच्छा थी कि जिन विषयों पर मेरी भिन्न राय है उसके अनुसार उस क्षेत्र में काम करने वाले शोध करें तो वह आधिकारिक भी माना जाएगा और वह लक्ष्य भी पूरा होगा जिसे पूरा करने की सनक मेरी जिन्दगी का दूसरा नाम है। मुझे हर बार यह लगता रहा कि यह काम जिस स्तर का और जिस जिस सलीके से होना चाहिए, वैसा मुझसे सरकारी काम काज की व्यस्तताओं, पुस्तकों, परामर्शदाताओं और किसी विशेषज्ञ के निर्देशन के अभाव के कारण हो न पायेगा। काम कोई करे, श्रेय किसी को मिले, इसकी मुझे, चिन्ता नहीं थी। इसका होना जरूरी है, यह एकमात्र बेचैनी थी।

मुझे समझने में लोग अक्सर कई तरह की गलतियां करते हैं, परन्तु मैं अन्य किसी प्रलोभन की बात तो दूर यशलिप्सा से भी, जो महान पुरुषों की भी दुर्बलता मानी जाती रही है, लगभग विरक्त रहा हूँ। एक बार यह समझ लेने के बाद कि हमारे समाज और इसके इतिहास को जानबूझ कर विकृत किया गया है, मैंने जो संकल्प लिया कि इसको उजागर करके ही रहूँगा, मै इसके लिए अप्रमाद कार्यरत रहा हूं, इसे पूरा करने का सपना मेरे लिए एकमात्र प्रेरणा का स्रोत रहा है।

मार्क्सवाद भी मुझे इसीलिए आकर्षक लगता रहा कि, मेरी अपनी समझ से, यह अन्याय, झूठ और पाखंड को निर्मूल करने का दर्शन है। यदि यह समझ गलत है तो मैं कहूँगा, कभी कभी गलत समझ सही समझ से`अधिक उपयोगी होती है, और ऐसी गलत समझ के बल पर सही मानी जाने वाली समझ की भी धज्जियां उड़ाई जा सकती हैं।

पाठक जी का वैदिक साहि।त्य में दखल है, यह जानने के बाद ही मैं उनसे मिलने गया था, परन्तु इस चर्चा में न वह पूरी तरह मेरी बात समझ पा रहे थे न मैं उनके श्रमण संस्कृति के माध्यम से पश्चिम से सम्पर्क की कल्पना कर पा पा रहा था भाषा और साहित्य सम्बन्धी मेरी जानकारी से वह उत्साहित अवश्य हुए थे जिससे हम देर तक बातचीत करते रहे।

उनकी समझ में यह नहीं आ रहा था कि जब विश्वविद्यालयों तक में गहन अध्ययन और शोध की प्रवृत्ति बहुत घट गई है, लोग नियुक्ति या पदोन्नति के लिए अनिच्छापूर्वक शोधकार्य करते हैं, यह आदमी, जिसको अपने शोधकार्य का कोई लाभ नहीं मिलना, वह अध्यापन के पेशे से दूर रहते हुए भी कैसे कर सकता है? इतने कठिन साहित्य और विषय पर शोध क्यों करता रहा? फिर वैदिक जिससे संस्कृतज्ञ भी घबराते हैं उसमें इसकी कैसे रुचि हो सकती है? आश्चर्य उन्हें मेरी स्थापना से तो होनी ही थी कि ऋग्वेद हड़प्पा सभ्यता का साहित्य है और हड़प्पा सभ्यता के उपादान वैदिक जनो के भौतिक जीवन के अवशेष हैं। यदि उसने दशकों का समय लगा कर इतनी लगन से यह शोधकार्य किया भी तो वह अपनी सारी जमा पूंजी दूसरों को सौंपने को क्यों उतारू है? उसी चर्चा में अध्ययनविधि का हवाला आया और मैंने जब बताया कि मैं मार्क्सवादी हूँ तो उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा। उन्होंने कहा, ‘मार्क्सवादी इतिहासकार तो ऐसा मानते हैं, फिर आप मार्क्सवादी कैसे हो सकते हैं?’ तो जो मैंने उत्तर दिया उसका भाव यह था कि जो वैसा मानता है वह मार्क्सवादी हो ही नहीं सकता। वह भाववादी है, वह नस्लवादी है, उसकी सोच उपनिवेशवादी है।

यह अगला आश्चर्य है कि मेरे मार्क्सवादी कहे और माने जाने वाले मित्र अपने तई मुझे कच्चा मार्क्सवादी और कुछ दूर तक दक्षिणपंथी रुझान का मानते रहे और इसे लेकर मेरे मन में उनसे कोई मलाल न था, जब कि मैं उनकी मार्क्सवाद की समझ को गलत मानता रहा जिसे वे कभी स्वीकार कर ही नहीं सकते।

मार्क्सवाद की उनकी एक कसौटी तो यही थी कि यदि मैं मार्क्सवादी हूँ तो मेरी मित्रता ऐसे लोगों से कैसे हो सकती है जो घोषित रूप से दक्षिणपंथी हैं और एक दो तो संघ से भी जुड़े हैं जिसके प्रति उपहास और तिरस्कार के अतिरिक्त दूसरा कोई भाव उनके मन में है ही नहीं । इसे मैं अस्पृश्यता का सबसे गर्हित रूप मानता हूँ जिसमें सामाजिक अस्पृश्यता को वैचारिक और सांस्कृतिक अस्पृश्यता तक पहुंचा दिया गया है। यह मार्क्सवादविरोधी तरीका है । इसे मैं कम्युनिस्टों में मुस्लिम लीग की मानसिकता के आभ्यंतरीकरण का परिणाम मानता हूँ। इसके अतिरिक्त, घृणा नाज़ियों का हथियार रहा है। मार्क्सवादी पिछड़ी चेतना को वैज्ञानिक सोच में बदलने का काम करता है, न की नफरत बांटने का। यह नफरत कैसे , संक्रमित हुई और केवल हिन्दू समाज के लिए हुई इसकी जो पड़ताल नहीं कर सकता वह मेरी समझ में मार्क्सवादी नही हो सकता।

Post – 2017-07-28

अहा! जिंदगी

मैं इस पत्रिका पर काफी पहले ही बात करना चाहता था । जो चाहता हूँ वह अक्सर नहीं हो पाता, जो कहना चाहता हूँ अक्सर उससे अलग और कभी तो उससे उलट कह जाता हूँ। इसपर लज्जित नहीं अनुभव करता। जिन लोगों को अपनी वाणी पर इतना अधिकार होता है कि वे जो कहना या लिखना जानते हैं उसे कह और लिख लेते हैं, और जो कहा उससे संतुष्ट हो लेते हैं, उनके पास अपना कोई विचार होता ही नहीं। वे किसी सिस्टम के डिलीवरी बॉय होते हैं। उत्पादक नहीं वितरक।

विचारक वह लाचार प्राणी होता है जो अपनी विवशता के बाद भी स्वयं अपने चिन्तन या सृजन के क्रम में अपने को जानता, अपनी महिमा के सामने एक तुच्छ प्राणी की तरह करबद्ध हो जाता है, और प्रश्न करता है यह जो हुआ वह मेरे किए हुआ या तुमने किया ओ विराट! इसी विस्मय का उत्तर ढूढ़ते सर्जना की देवी सरस्वती की उद्भावना की गई थी और अन्यथा भी रचनाकार अपने को माध्यम और किसी अदृश्य सत्ता को सर्जक मानते रहे है : कविता करने और कविता के अपने माध्यम से सृजित होने या कविता के कारण कवि बनने – लोग हैं लागि काबित्त बनावत मोहें तो मेरे काबित्त बनावत!

परन्तु मुझे अपनी अकिंचनता पर अवश्य लज्जित अनुभव करना पड़ता है ! कुछ मित्रों को यह भ्रम है कि कुछ विषयों की मेरी जानकारी खासी अच्छी है। वे यदा कदा अनुरोध करते हैं कि मुझे अमुक विषय पर लिखना चाहिए। कई बार प्रकाशकों को भी यह भ्रम हुआ। उन्होंने मुझे अपनी ओर से तय किए गए विषय पर लिखने को इस तरह घेरा कि अपनी असमर्थता का रोना रोने के बाद भी बच कर निकल न सका। महाभिषग, उपनिषदों की कहानियां, पंचतंत्र की कहानियां इसी का परिणाम हैं।

परन्तु यदि कोई समझे, या मैं यह दावा करूं या मेरे किसी कथन से यह भ्रम पैदा हो कि मेरा उपनिषदों का, पंचतन्त्र का, वेदों, वेदांगों का ज्ञान आधिकारिक है तो यह एक छलावा होगा। मैं यह स्पष्टीकरण इसलिए कर रहा हूँ कि मेरे किसी कथन या निष्कर्ष को जांचते हुए पढ़ा जाय. जांचने के बाद मानने पर वह मेरा विचार न रहकर आपका विचार हो जाता है और खोटा पाए जाने पर वह धुल कर मिट जाता है.

अतः किसी भी पाठक के देा काम होते हैं एक तो सूचना या ज्ञान के स्रोत से अपने ज्ञान का विस्तार और दूसरा अपने पहले के ज्ञान से उसका मिलान करते हुए यह देखना कि पहले का ज्ञान कितना सही या गलत था और इस नए स्रोत से उपलब्ध ज्ञान कितना प्रामाणिक है। यह निश्चय करने का एक ही तरीका है कि हम यह जांचते चलें कि किसी भी स्रोत में कितनी अविकलता या अन्तःसंगति या अन्तर्विरोध है और उसी सूचना का उपयोग करने वाले दूसरे क्षेत्रों से उसकी संगति है या विसगति। उन विविध क्षेत्रों में किसी स्थापना के लिए कोई निर्णायक प्रमाण है या नही.

इन बातों की और ध्यान दिलाना आज इसलिए जरूरी हो गया है कि आज, विशेषतः इस संचार माध्यम से अन्यथा सुधी और सतर्क माने जाने वाले भी ऎसी जुमलेबाजी करने लगे हैं जिससे उनकी अधोगति पर खेद होता है. हम गहरे सांस्कृतिक संकट से गुजर रहे हैं! इसमें सभी तरह के स्खलनों से भाषा, विचार, संचार और संस्कृति को बचाना अपने मोर्चे पर खड़े होकर युद्ध करने का पर्याय बन गया है. विचार करना होगा कि क्या सूचना, ज्ञान और चिंतन को एक परिवर्तनकारी अभियान में बदला जा सकता है.

मैं लम्बे समय से अपने लेखन के माध्यम से और अन्यथा भी इस बात को दुहराता रहा हूँ कि बुद्धिजीवी का काम शिक्षक का है, चिकित्सक का है. इसे मेरी निजी सूझ भी नहीं माना जा सकता. समाचार, विचार, और मनोरंजन से जुड़े माध्यम अपराधीकरण और बाजारीकरण से पहले यह काम करते रहे है. हम उस अतीत को जानते हैं और जानते हुए भूल गए हैं. सचेत रूप में उस भूमिका की अवज्ञा करते हैं और यह मानसिकता अधिक डराने वाली है.

मैंने अपनी अल्पज्ञता और अग्यता का स्मरण इसलिए दिलाया कि मुझे ‘अहा! जिन्दगी’ के बारे में पता ही न था. हो सकता है आप में से भी बहुतों को पता न हो जब कि यह पत्रिका दो प्रारूपों में दस साल से निकल रही है और यह अपने वैभव काल के धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, नवनीत, कादंबरी आदि पत्रिकाओं से आगे ही नहीं है मेरी उस कल्पना को काफी पहले से, कम से कम, आलोक श्रीवास्तव के सम्पादन के बाद से तो निश्चय ही निभाती आ रही है. हाल के दिनों में अनेक संपादकों ने इस गंभीर दायित्व को समझा है. परन्तु उन सभी में यह सबसे पठनीय ही नहीं सबसे सर्जनात्मक पत्रिका है और मै कौसानी न जाता तो आज भी मुझे इसका पता न चलता. मैं इसकी विस्तार से समीक्षा करना चाहता था यह बताते हुए कि इसकी विशेषता क्या है परन्तु जिस आदमी ने कोई काम पूरा किया ही नहीं उसका रिकार्ड ख़राब होने से बच जाय यह भी क्या कम है. आप पढ़ते हैं तो जानते होंगे, नही पढ़ा तो पढ़ कर बताएं कि मैंने कही अतिरंजना से तो काम नही लिया?

इसकी अनेक विशेषताओं मे से एक है मुझे अज्ञात नए लेखकों द्वारा खासा प्रभावकारी लेखन जो यह आशा जगाता है कि आप में से बहुत से लोग यदि संयत भाषा में निषपक्ष , निडर और समर्पित भाव से अपनी जानकारी के विषय पर टिप्पणियां करें तो अच्छा लिख सकतें हैं और संवाद का स्तर और इस मंच की सार्थकता को चार नहीं तो भी एक दो चांद तो लग ही सकते हैं।

Post – 2017-07-27

एक और पूर्वकथन

आज से तीन हफ्ते पहले मैं ऐसे दो मित्रों के साथ जो राजनीतिक सक्रियता के पक्षधर हैं, अपने घर पर ही शाम बिता रहा था. चर्चा में नीतीश कुमार का वह असमंजस था जिससे राह चलता आदमी भी यह अनुमान लगा रहा था कि नीतीश का भाजपा से गठजोड़ होकर रहेगा. प्रश्न यह था कि यदि नीतीश ने ऐसा किया तो उनकी छवि सुधरेगी या ख़राब होगी. मेरे दोनों मित्रों का विचार था छवि ख़राब होगी. मेरा विचार उससे उलटा था. पर ऐसे मामलों में मेरे दोस्त मुझे अनाडी समझते हैं और दबे सुर से मेरे उस दावे में सचाई तलाशने लगते हैं जो मैंने मोदी का वकील बनने के सन्दर्भ में किया था। जो भी हो, नीतीश मुख्य मंत्री बन जायेंगे इस पर न तब संदेह था न अब होना चाहिए। सवाल ही नहीं । पर अधिकाँश लोग यह मान रहे हैं कि बार बार दल और सिद्धांत बदलने के कारण नीतीश की छवि को धक्का लगेगा और इसका राजनीतिक खमियाजा उन्हें अगले चुनाव में झेलना होगा। इसी सन्दर्भ में मैं अपना आकलन प्रस्तुत करना चाहता हूँ.
१. नीतीश बाहुबल, भ्रष्टाचार और धनबल के विरुद्ध स्वच्छ प्रशासन के आश्वासन के बल पर उन हथकंडों का इस्तेमाल करने वालों के विरुद्ध जीते थे। वही उनकी पूंजी है न कि किसी दल का समर्थन या कोई दूसरा सिद्धांत।
२, पीएम की उनकी महत्वाकांक्षा ने उनको भाजपा से नाता तोड़ने और जुमलेबाजी करने को मजबूर किया, पर जनता का किसी विचारधारा से लगाव नही होता, नेता के व्यक्तिगत चरित्र के उस पक्ष से लगाव होता है जो उसे स्वच्छ प्रशासन दे सके और मनमानी न करे। वह जानती है कि नेताओं को मुहावरेबाजी आती है पर वे नैतिकता के आधार पर नहीं व्यावहारिकता के आधार पर फैसले लेते है।
३ बिहार की जनता की नजर में नीतीश कुमार, प्रधानमंत्री पद के लिए मोदी से अधिक उपयुक्त थे इसलिए उनका पाला बदलना जनता को भी सही लगा।
४. चुनाव आने तक परिस्थितियां इतनी बदलीं कि नीतीश प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार तक न बन सके। इससे उनकी छवि को मामूली क्षति हुई।
५, यदि नीतीश ने स्वच्छ और बेदाग़ छवि के मामले में मोदी को अपने से ऊपर मान कर घबराहट में भ्रष्ट लोगों और दलों के साथ गठबंधन का रास्ता न अपनाया होता तो बिहार के भाजपा के शीर्ष सुशील मोदी पर वह इतने भारी थे कि उन्हें भाजपा से कोई खतरा ही न था। सुशासन बाबू के रूप में उन्हें इतना भारी जन समर्थन मिलता कि वह अपने दम पर भारी बहुमत से जीतते।
६, लालू के साथ गठबंधन करके उन्होंने अपनी छवि को नष्ट कर दिया इसलिए उसका उन्हें लाभ न मिला, मिला सिद्धान्तहीन और धनबली और बाहुबली दलों को जिससे लालू को उनसे अधिक अग्रता मिल गई। इससे आगे की कहानी हम जानते है।
७. लालू और कांग्रस से नाता तोड़ने का नीतीश को लाभ मिलेगा। वह भाजपा में नही अपनी पुरानी छवि में वापस लौट रहे हैं जिस के कारण वह भारत के तत्समय, कम से कम बिहारियों के मन में, भावी प्रधानमंत्री के उपयुक्त थे।
२. यदि नीतीश ने अपने मुख्य मुन्त्रित्व पर संकट पैदा किये जाने पर ऐसा किया होता तो इसका लाभ उन्हें न मिलता, उनकी छवि धूमिल होती, निर्णय नैतिक सवाल पर उठाया है इस लिए बिहार को अपना खोया हुआ नीतीश मिल गया. उनकी छवि सुधरेगी।

आप क्या सोचते हैं?

गाली गलौज करने से अच्छा है अपना पक्ष रखते हुए एक ऐसे खेल में शामिल हों जिससे सभी का लाभ होगा । हाँ, हम अपनी आलोचना और खंडन खेलभाव से लें। एक दूसरे को समझें और जो हमारे माध्यम से वस्तु स्थिति को समझते रहे हैं उनका हमारे प्रति खोया हुआ विश्वास लौटे।

Post – 2017-07-27

भारतीय मार्क्सवादी

बात आज से तीस एक साल पहले की है। वी.एस. पाठक उन दिनों गोरखपुर विश्वविद्यलय में प्राचीन इतिहास और पुरातत्व विभाग के अध्यक्ष थे। हड़प्पा सभ्यता और ऋग्वेद के लेखन से पहले इस विषय में मेरी जो समझ थी उससे उनको अवगत कराते हुए यह चाहता था कि किसी शोधार्थी से अनुसंधान करायें। मैं अपनी पूरी सामग्री और सहयोग उसे दे ने को तैयार था। उन दिनों मेरी नजर में वहां रीडर के पद पर कार्यरत सच्चिदानन्द श्रीवास्तव थे जो श्रमण संस्कृति पर पाठक जी के निर्देशन में काम कर रहे थे, पर विषय संभल न रहा था। मेरी आरंभ से यह इच्छा थी कि जिन विषयों पर मेरी भिन्न राय है उसके अनुसार उस क्षेत्र में काम करने वाले शोध करें तो वह आधिकारिक भी माना जाएगा और वह लक्ष्य भी पूरा होगा। मुझे हर बार यह लगता रहा कि कम जिस स्तर का और जिस प्रविधिगत अखोटता से होना चाहिए, मुझसे हो न पायेगा । मुझे समझने में लोग अक्सर कई तरह की गलतियां करते हैं, परन्तु मैं अन्य किसी प्रलोभन की बात तो दूर यशलिप्सा से भी, जो महान पुरुषों की भी दुर्बलता मानी जाती रही है, झेंपता रहा हूँ । परन्तु एक बार यह समझ लेने के बाद कि हमारे समाज और इसके इतिहास को जानबूझ कर विकृत किया गया है, मैंने जो संकल्प लिया कि इसको उजागर करके ही रहूँगा, मै इसके लिए अप्रमाद कार्यरत रहा हूं। मार्क्सवाद भी मुझे इसीलिए आकर्षक लगता रहा कि यह, मेरी अपनी समझ से, अन्याय, झूठ और पाखंड को निर्मूल करने का दर्शन है।

पाठक जी का वैदिक साहित्य में दखल है, यह जानने के बाद ही मैं उनसे मिला था, परन्तु इस चर्चा में न वह पूरी तरह मेरी बात समझ पा रहे थे न मैं उनके श्रमण संस्कृति के माध्यम से पश्चिम से सम्पर्क को परन्तु भाषा और साहित्य सम्बन्धी मेरी जानकारी से वह बहुत प्रभावित थे। उन्क्की समझ में यह नहीं आरहा था कि जब विश्वविद्यालयों तक में गहन अध्ययन और शोध की प्रवृत्ति बहुत घाट गई है तो मैं जिसको अपने शोध और काम का कोई लाभ नहीं मिलना वह इतने कठिन साहित्य और विषय पर शोध क्यों करता रहा? यदि किया भी तो वह अपनी सारी जमा पूंजी दूसरों को सौंपने को क्यों उतारू है? आश्चर्य उन्हें मेरी स्थापना से तो होनी ही थी कि ऋग्वेद हड़प्पा सभ्यता का साहित्य है और हड़प्पा सभ्यता के उपादान वैदिक जनो के भौतिक जीवन के अवशेष हैं। उसी चर्चा में अध्यन विधि का हवाला आया तो मैंने जब बताया कि मैं मार्क्सवादी हूँ तो उन्हें दुहरा आश्चर्य हुआ। उन्होंने कहा मार्क्सवादी इतिहासकार तो ऐसा मानते हैं, फिर आप मार्क्सवादी कैसे हो सकते हैं? तो उत्तर मैंने दिया उसका भाव यह था कि जो वैसा मानता है वह मार्क्सवादी हो ही नहीं सकता। वह भाववादी है, वह नस्लवादी है, उसकी सोच उपनिवेशवादी है।

यह अगला आश्चर्य है कि मेरे मार्क्सवादी कहे और माने जाने वाले मित्र अपने तई मुझे कच्चा मार्क्सवादी और कुछ दूर तक दक्षिणपंथी रुझान का मानते रहे और इसे लेकर मेरे मन में उनसे कोई मलाल न था, जब कि मैं उनकी मार्क्सवाद की समझ को गलत मानता रहा । उनकी एक कसौटी तो यही थी कि यदि मैं मार्क्सवादी हूँ तो मेरी मित्रता ऐसे लोगों से कैसे हो सकती है जो घोषित रूप से दक्षिणपंथी हैं और एक दो तो संघ से भी जुड़े हैं जिसके प्रति उपहास और तिरस्कार के अतिरिक्त दूसरा कोई भाव उनके मन में है ही नहीं.\

यह हमारी सांस्कृतिक परंपरा के कारण हो या हमारी उपनिवेशवादी जहनियत के कारण हो अथवा भारतीय सामाजिक यथार्थ के कारण होए या इन सभी के मिलेजुले प्रभाव के कारण होए भारतीय कम्युनिस्ट पार्टियों की समझ मार्क्सवाद से और दूसरे देशां की कम्युनिस्ट पार्टियों से बहुत हट कर ही नहींए अपितु उनसे उलट रही है। हमने मार्क्स के विचारों और कथनों को भी विकृत करके अपने अनुरूप ढाल लिया है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है और उस दुर्भाग्य को कम्युनिस्ट पार्टियां और संगठन ही नहीं भोग रहेए पूरा देश भुगत रहा है। इसे लक्ष्य दूसरे भी करते होंगेए परन्तु इसके प्रति विद्रोह करने वालों में मैं अपने को अकेला पाता हूं और इस कसौटी पर परखें तो या तो दूसरे सभी धड़ों और दलों के मार्क्सवादी मार्क्सवादी हैं ही नहीं या जिस सीमा तक अपने को उनके अनुसार ढाला है केव्ल उस सीमा तक मार्क्सवादी हैं अन्यथा वे स्वयं मार्क्सवाद के नाम पर कंटक हैं और मैं अकेला मार्क्सवादी और उन सभी का विरोधी हूं और इसलिए यदि मार्क्सवादी होने का दावा करता हूं तो उनकी दृष्टि में कंटक हूं और मुझे मिटानेए बदनाम करने या मेरी उपेक्षा करके मुझे परिदृश्य से ओझल करने का उनका प्रयास गलत नहीं माना जा सकता। यह भेद वैचारिक स्तर का है इसलिए जब तक वे तर्क से मुझे निरुत्तर नहीं करते तब तक मैं उनको गलत मानने और अपने लेखन के माध्यम से गलत सिद्ध करने को एक जरूरी काम मानता हूं।

मेरी समझ में मार्क्सवाद की अधिक सही समझ उन लोगों को थी जिन्हें समाजवादी कहा गया और उनके विरुद्ध मार्क्सवादियों द्वारा ही कलुषीकरण अभियान चलाया गया। परन्तु मैं उन समाजवादियों के प्रभाव में मार्क्सवाद की ओर नहीं बढ़ा। मेरी वैचारिक यात्रा कांट मार्क्स और गांधी की दिशा में रही है और सामाजिक संपर्क में मैं समाजवादियों की जगह उन मार्क्सवादियों के ही निकट पहुंचा जिन्हें सबसे गलत मानता हूं। जब निकटता अनुभव की थी तो अनेक मामलों में गलत मानते हुए भी दूसरों की तुलना में उस दल को अधिक अनुकूल पाता था जिसे मार्क्सवादी कम्युनिस्ट कहा जाता है।

भारतीय कम्यूनिस्ट गांधीवाद के घोर विरोधी रहे हैं और कम्युनिस्टो के प्रति गाँधी जी के मन में उतना ही संदेह हैए फिर भी घोषित लक्ष्यों में समानता होने के कारण गाँधी मानते थे कि यदि साधनों में भी वैसी ही पवित्रता हो तो उन्हें इससे विरोध नहींण् वास्तव में कम्युनिज्म गांधीवाद और तकनीकी कौशल का समन्वय हैए हिंसा का विरोधी हैए सभी प्रकार की हिंसा की समाप्ति के लिए कृतसंकल्प है और राज्य सत्ता का इसलिए विरोधी है कि जब तक राज्य संस्था रहेगी तब तक हिंसा जारी रहेगीण् यह पूंजीवादी उत्पादन पद्धति का भी विरोधी है जिसका चुनाव पूँजीवादी दबाव में समाजवादी देशों को करना पड़ाण्

गांधीवादी तरीके की शक्ति पश्चिम की समझ में उस समय नहीं आ सकती थीए अब कुछ कुछ आती है और यह समझा जाने लगा है कि गांधीवादी तरीके वहां भी कारगर हो सकते हैं। मार्क्सवाद में अल्पकालिक हिंसा एक विवशता है चुनाव नहीं और यह विवशता पश्चिम की हिंसक प्रवृत्ति के कारण है जिसमें गाँधी के प्रयोगों के बाद कुछ बदलाव आया हैण् भारतीय सन्दर्भ में मेरे विचार भारतीय समाजवादियों से मेल खाते हैंए परन्तु ठीक उन जैसे नहीं हैं। मेरी अपनी राजनीतिक दृष्टि समस्याओं से टकराते हुए बनी है और इसलिए दूसरों से अलग भी बनी है जिस पर मुझे विश्वास है फिर भी यदि विश्व के दूसरे कम्युनिस्ट या साम्यवादी देशों के उदाहरण न होते तो मैं अपने को खासा कमजोर या अरक्षणीय अनुभव करता।
अब मैं उन कारणों को गिना सकता हूँ जिनके आधार पर मैं भारतीय कम्युनिस्टों को मार्क्सवाद से भटका हुआ पाता हूँण्

शमशेर जब पार्टी से जुड़े थे तो उन्होंने लिखा था वाम वाम वाम दिशा। दूयाी सारी दिशाएं उनके लिए लुप्त हो गई थीं। बंगला का एक शब्द कहीं उनको सुनाई पड़ा ष्दिशाहाराष् तब शायद उन्हें अपनी गलती महसूस हुई और लिखी वे पंक्तियां जिनके कारण शमशेर मुझे अक्सर याद आते हैंः
हम अपने खयाल को सनम समझे थे
अपने को खयाल से भी कम समझे थे
होना ही था समझना था कहां शमशेर
होना भी वह कहां था जो हम समझे थे।
उसके बाद उन्होंने सक्रिय राजनीति से दूरी बना ली और समझा कि रचनाकार की राजनीतिक सक्रियता व्यावहारिक राजनीति से अलग होती है। यह मोहभंग केवल उनका ही न था त्रिलोचनए नागार्जुनए रामविलास शर्माए केदारनाथ सभी के साथ यह बोध अपने अपने ढंग से पैदा हुआ। मुक्तिबोध जिन्हें आजकल बहुत बढ़ चढ़ कर उद्धृत किया जाता है उनको तो प्रगतिशील लोग प्रगतिशील मानने तक से इन्कार करते रहे और श्रीकान्त वर्मा और अशोक वाजपेयी ने चांद का मुंह टेढ़ा है के प्रकाशन की व्यवस्था न की होती तो उनकी कविता भी संभवतः अन्धकार में रह गई होती

Post – 2017-07-26

हजारों दुख हैं गो हमसे अलग हैं
उन्हें सहते हैं जो हमसे अलग हैं
मगर कुछ दुख हमारे बीच भी हैं
हमें हैं जोड़ते गो हम अलग हैं।

Post – 2017-07-26

अलोक भारद्वाज की पोस्ट वीर सावरकर कौन थे, पढ़ें. अवश्य पढ़ें.
उनकी निंदा करनेवालों का पूरा जवाब यह है कि आप उन्हें जानें और यह समझें कि उनकी मर्यादा को नष्ट करने वाले कितने बददिमाग है. मैं उसे शेयर नहीं करता जिसके कुछ कारण हैं, आप कर सकते हैं, करना चाहिए जिससे उनसे पूछ सकें कि आप ने कुछ भी ऐसा किया हो कि आप सावरकर के पांव के कटे हुए नाखून के बराबर हो सकते हो तो मैं आपकी आरती उतारने का समय मांगूंगा. सावरकर के हिन्दू सरोकार बहुत साफ़ हैं, सर सैयद अहमद के मुस्लिम सरोकार उतने ही साफ़ हैं. इन पर इस दृष्टि से पुनर्विचार होना चाहिए, पर इन दोनों में किसी एक को लांछित करने के लिए जिस कद की जरूरत है वह भारत में न तब था जब यह हिंदुस्तान था न अब जब भारत को हिन्दुस्थान में बदल दिया गया.