एक और पूर्वकथन
आज से तीन हफ्ते पहले मैं ऐसे दो मित्रों के साथ जो राजनीतिक सक्रियता के पक्षधर हैं, अपने घर पर ही शाम बिता रहा था. चर्चा में नीतीश कुमार का वह असमंजस था जिससे राह चलता आदमी भी यह अनुमान लगा रहा था कि नीतीश का भाजपा से गठजोड़ होकर रहेगा. प्रश्न यह था कि यदि नीतीश ने ऐसा किया तो उनकी छवि सुधरेगी या ख़राब होगी. मेरे दोनों मित्रों का विचार था छवि ख़राब होगी. मेरा विचार उससे उलटा था. पर ऐसे मामलों में मेरे दोस्त मुझे अनाडी समझते हैं और दबे सुर से मेरे उस दावे में सचाई तलाशने लगते हैं जो मैंने मोदी का वकील बनने के सन्दर्भ में किया था। जो भी हो, नीतीश मुख्य मंत्री बन जायेंगे इस पर न तब संदेह था न अब होना चाहिए। सवाल ही नहीं । पर अधिकाँश लोग यह मान रहे हैं कि बार बार दल और सिद्धांत बदलने के कारण नीतीश की छवि को धक्का लगेगा और इसका राजनीतिक खमियाजा उन्हें अगले चुनाव में झेलना होगा। इसी सन्दर्भ में मैं अपना आकलन प्रस्तुत करना चाहता हूँ.
१. नीतीश बाहुबल, भ्रष्टाचार और धनबल के विरुद्ध स्वच्छ प्रशासन के आश्वासन के बल पर उन हथकंडों का इस्तेमाल करने वालों के विरुद्ध जीते थे। वही उनकी पूंजी है न कि किसी दल का समर्थन या कोई दूसरा सिद्धांत।
२, पीएम की उनकी महत्वाकांक्षा ने उनको भाजपा से नाता तोड़ने और जुमलेबाजी करने को मजबूर किया, पर जनता का किसी विचारधारा से लगाव नही होता, नेता के व्यक्तिगत चरित्र के उस पक्ष से लगाव होता है जो उसे स्वच्छ प्रशासन दे सके और मनमानी न करे। वह जानती है कि नेताओं को मुहावरेबाजी आती है पर वे नैतिकता के आधार पर नहीं व्यावहारिकता के आधार पर फैसले लेते है।
३ बिहार की जनता की नजर में नीतीश कुमार, प्रधानमंत्री पद के लिए मोदी से अधिक उपयुक्त थे इसलिए उनका पाला बदलना जनता को भी सही लगा।
४. चुनाव आने तक परिस्थितियां इतनी बदलीं कि नीतीश प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार तक न बन सके। इससे उनकी छवि को मामूली क्षति हुई।
५, यदि नीतीश ने स्वच्छ और बेदाग़ छवि के मामले में मोदी को अपने से ऊपर मान कर घबराहट में भ्रष्ट लोगों और दलों के साथ गठबंधन का रास्ता न अपनाया होता तो बिहार के भाजपा के शीर्ष सुशील मोदी पर वह इतने भारी थे कि उन्हें भाजपा से कोई खतरा ही न था। सुशासन बाबू के रूप में उन्हें इतना भारी जन समर्थन मिलता कि वह अपने दम पर भारी बहुमत से जीतते।
६, लालू के साथ गठबंधन करके उन्होंने अपनी छवि को नष्ट कर दिया इसलिए उसका उन्हें लाभ न मिला, मिला सिद्धान्तहीन और धनबली और बाहुबली दलों को जिससे लालू को उनसे अधिक अग्रता मिल गई। इससे आगे की कहानी हम जानते है।
७. लालू और कांग्रस से नाता तोड़ने का नीतीश को लाभ मिलेगा। वह भाजपा में नही अपनी पुरानी छवि में वापस लौट रहे हैं जिस के कारण वह भारत के तत्समय, कम से कम बिहारियों के मन में, भावी प्रधानमंत्री के उपयुक्त थे।
२. यदि नीतीश ने अपने मुख्य मुन्त्रित्व पर संकट पैदा किये जाने पर ऐसा किया होता तो इसका लाभ उन्हें न मिलता, उनकी छवि धूमिल होती, निर्णय नैतिक सवाल पर उठाया है इस लिए बिहार को अपना खोया हुआ नीतीश मिल गया. उनकी छवि सुधरेगी।
आप क्या सोचते हैं?
गाली गलौज करने से अच्छा है अपना पक्ष रखते हुए एक ऐसे खेल में शामिल हों जिससे सभी का लाभ होगा । हाँ, हम अपनी आलोचना और खंडन खेलभाव से लें। एक दूसरे को समझें और जो हमारे माध्यम से वस्तु स्थिति को समझते रहे हैं उनका हमारे प्रति खोया हुआ विश्वास लौटे।