Post – 2016-07-31

कई बार उनसे हुआ सामना था
कई बार उनसे मिली थीं निगाहें
यह क्या हो गया, क्‍यों बताओ तो समझे
मेरे सामने क्‍यों झुकी हैं निगाहें।।

बताओ कि इस बीच क्यां घट गया है
बताओं कोई तुमसे क्या कह गया है
कि विश्वास पहले का गुम हो गया है
भटकती तो यूं हर कहीं हैं निगाहें ।।

कई कहते हैं चूक तुमसे हुई है
कई कहते हैं चूक कोई नहीं है
मगर यह तो मुमकिन खता हो तुम्हारी
कहीं तुम खड़े हो कहीं हों निगाहें।!

बता मुझको भगवान है माजरा क्या
कि हैं आंख फिर भी नहीं हैं निगाहें।
निगाहों में सपनों का है बास मानो
न सपने हैं तो फिर नहीं हैं निगाहें।
३१/०७/१६ २२:११:५४

Post – 2016-07-31

निदान – 7
इतिहास के पर और वर्तमान का डर

”आपकी बातें सुन कर मुझे एक पुरानी कहानी याद आती है। एक बच्चे को ले कर दो महिलाओं में झगड़ा हो रहा था। दोनों उसे अपना बताती थीं। विवाद राजा तक पहुंचा। राजा ने कहा, ‘बच्चे को आधा आधा काट कर दोनों में बांट दो। न्याय की कहानी तो इससे आगे जाती है, पर अाप की व्याख्या राजा के आदेश तक आ कर रुक जाती है। कुछ अघटित घटा है और उसमें दो दल या पक्ष आधात या बचाव करने वालों के रूप में शामिल रहे हैं तो, उसका दोष पाप दोनों में बराबर बांट दो। न समस्या रहे न आगे किसी समाधान की जरूरत।”

”शास्त्री जी क्या यही सोच कर कल आप जंभाई लेने लगे थे।”

”आपने ऐसा सोचने को विवश किया तो खिन्‍नता तो होगी ही। एक ओर वे हैं जो अनन्त काल तक ब्रिटिश शासन में गुलाम बन कर भी मजे उड़ाने की लड़ाई लड़ रहे थे, दूसरी ओर अन्य लोग सबकी स्वतन्त्रता, सबसे लिए नये अवसर की लड़ाई लड़ रहे थे। आप कहते हैं, दोनों बराबर ठहरे। उनसे यह भूल हुई और हमसे यह भूल हुई, भूल दोनों से हुई और इसलिए दोनों बराबर। जिस कहानी की मैंने याद दिलाई थी, उसमें अन्त तो सुखान्त होता है, पर आप जहां अन्त करते हैं वहां अन्याय भी होता है और समस्या अधिक उग्र हो कर दुखान्त भी हो जाती है।”

”शास्त्री जी, मैं निदान कर रहा हूं। नैदानिक और चिकित्सक का काम सही गलत का निर्णय करना नहीं होता। उसका दृष्टिकोण नैतिकतापरक हो तो भयंकर लापरवाहियों से बीमार पड़ों की जांच करने या दवा करने से इन्कार कर देगा, कहेगा, ‘भाग यहां से । अपनी करनी का फल भोग।’ और इसका नतीजा होगा वह व्यक्ति यदि संक्रामक व्या धि से ग्रस्त है तो बहुत सारे लोगों में उस व्यावधि को फैलने देना। इसलिए यदि कोई कहता है हमारी बीमारी तो उसके सामने कुछ नहीं है, वह तो सड़ चुका है, और अपनी बीमारी को सह्य बता कर उस पर गर्व करे और तो मुझे उस पर तरस आएगा कि इसकी बीमारी दिमाग तक पहुंच गई है। हम केवल यह बता सकते हैं कि बीमारी क्यों पैदा हुई, कैसे उग्र हुई, किन असावधानियों से दूसरों में फैली; यदि फैल चुकी है तो उसको बढ़ने से रोकने और नीरोग बनाने के प्रयत्न क्‍या हों। मैं कहता हूं भले सांप्रदायिकता की भावना ब्रिटिश कूटनीति से पहले उनमें पैदा की गई पर उसकी सफलता यह कि 1906 तक आप भी उसकी लपेट में आ गए । आप इसे समझने से इन्‍कार करते हैं, कहते हैं हमें दवा की जरूरत नहीं, क्योंकि हम बीमार हैं ही नहीं, और वह दुष्ट है, बीमारी उसने मोल ली है इसलिए दवा उसकी भी नहीं की जानी चाहिए, उसे सजा मिलनी चाहिए। क्याै मैं आपकी बात को ठीक ठीक समझ पाया हूं या समझने में कोई चूक हो गई ?”

”इस बार शास्त्री जी कुछ नरम पड़ गए । मेरा मतलब स्वयं प्रगति करने के स्थान पर वे उन लोगों से घृणा करने लगे जिन्होंने प्रगति कर ली। जिन भी कारणों से बंगाली आगे बढ़ गए थे, शेष भारत ने उनसे प्रेरणा ले कर अपने को शिक्षित और संस्कांरित करना आरंभ किया। वे आगे बढ़ने की स्पर्धा में लगे जिससे देशव्याापी स्तर पर हमारी शिक्षा, साहित्य, कला सभी को लाभ हुआ। उन्होंने इसमें बाधा डालना आरंभ किया और आज तक अवरोध ही पैदा कर रहे हैं।”

”कभी आपने छाया स्वांग देखा है ।”

”छाया स्वांग से क्या तात्प’र्य है आपका?”

”वह खेल जो परदे पर किसी एक ही चीज के, उदाहरण के लिए दोनों हाथों की विभिन्नी भंगियों, कोणों से, प्रकाश की दूरी और कोण आदि से चिडि़या, खरगोश सिर और जाने कितने कितनी आकृतियों और क्रियाओं का भ्रम पैदा करता है।”

उन्हें याद आ गया और उनकी मुखाकृति ये यह भी प्रकट था कि वे यह स्वांग देख भी चुके हैं।

”यदि अपनी जगह से हिले बिना, अपने मूल्यों से चिपके रह कर आप किसी अन्य को देखते हैं तो उन पक्षों को नहीं समझ पाते जो दूसरे स्थान या कोण, निकटता या दूरी से देखने वाले को दिखाई देता है। यह आपके हित में है कि आप जिस पर विचार कर रहे हों उस पर अपने नजरिए से ही विचार न करें, उसके नजरिए से भी उसे देखें, एक तटस्‍थ दृष्टि भी अपनाएं और तब आप समझ पाएंगे कि उसकी स्थिति में होने पर आप भी ठीक वही करते।”

“मैं तो उन जैसा व्यवहार कदापि न करूँगा, न पहले किया है।”

मुझे अपनी हँसी रोकनी पड़ रही थी, “खैर, आप अपनी जगह पर बने हुए हैं। उनकी स्थिति में रहे भी नही।”

‘’डाक्साब, इसमें स्थिति की बात कहां से आ गई ? एक ही देश, एक ही परिवेश, एक ही जलवायु में , एक ही विदेशी शासन के अधीन हैं, केवल धर्म अलग होने से क्या हो जाता है। धर्म हैं तो यहाँ उनके अतिरिक्त भी अनेक हैं। किसी ने नहीं कहा कि हमारा धर्म अलग है इसलिए हम अलग राष्‍ट्र हैंं।”

”कूटनीतिक जाल में फंसने पर वे भी ऐसा कर सकते हैं। खैर वे धर्म अलग होने से नहीं चिन्तित थे, इतिहास अलग होने से डरे हुए थे। उन्हें दो तरह का इतिहास पढ़ाया गया था। एक था जो भारत से जितना ही पश्चिम है वह सभ्यता में उतना ही उन्नत है क्योंकि सभ्य ता का जनक तो यूरोप है। जेम्सस मिल जिसने भारत का पहला इतिहास लिखा था, उसका ऐसा मानना था जिसकाे ले कर दूसरों में अभी बहस चल रही थी। उसी का इतिहास मुसलमानों को उस समया भी पढ़ाया जाता रहा और इंग्‍लैंड में आइ सी एस की तैयारी करने वालों को भी जब दूसरे इतिहासकारों ने उसे घटिया सिद्ध कर दिया।

हिन्दुओं के बारे में उसके विचारों की कुुछ बानगियां देखिए:
“The Hindu systems of geography, chronology, and history, are all equally monstrous and absurd.
000
The Hindus were, notwithstanding, so far advanced in civilization, except in the mountainous and most barbarous tracts of the country, as to have improved in some degree upon the manners of savage tribes.
000
They are just imitators, and correct workmen, but they possess merely the glimmerings of genius.
000
“No useful science have the Brahmens diffused among their followers; history they have abolished; morality they have depressed to the utmost; and the dignity and power of the altar they have erected on the ruins of the state, and the rights of the subject.

इसके विपरीत मुसलमानों के विषय में उनके विचार निम्नr प्रकार हैं:
There was, in the manners of the Mahomedan conquerors of India, an activity, a manliness, an independence, which rendered it less easy for despotism to sink, among them, to that disgusting state of weak and profligate barbarism, which is the natural condition of government among such a passive people as the Hindus.

RELIGION: the superiority of the Mahomedans, in respect of religion, is beyond all dispute.

MANNERS: In this respect the superiority of the Mahomedans was most remarkable.
यह भारत का पहला इतिहास है जो यह भी याद दिलाता है कि इतिहास सभ्यता की पहचान है और हिन्दुसओं के पास इतिहास और इतिहास बोध नहीं था इसलिए वे सभ्य नहीं हो सकते थे।

मिल के ये विचार विलियम जोंस और दूसरे भारतविदों द्वारा प्राचीन भारतीय सभ्यता और संस्कृंति की, संस्कृत भाषा की भूरि भूरि प्रशंसा से खिन्न हो कर (both those who were still in India, and those who had returned from it, at that time concurred, of the wonderful learning, wonderful civilization, and wonderful institutions of the Hindus), दस वर्ष की तैयारी के बाद, मिशनरियों की उन रपटों को स्रोत सामग्री बना कर, लिखा गया था जो गैर ईसाई समुदायों को बर्बर मानते और बर्बर सिद्ध करने के लिए उनकी सामाजिक विकृतियों को आधार बनाते थे। दूसरे सभी ब्रिटिश इतिहासकारों ने इसकी निन्दा की थी और मैक्समुलर ने अपने विचार निम्न शब्दों में रखे थे:
The book which I consider most mischievous, nay, which I hold responsible for some of the greatest misfortunes that have happened to India, is Mill’s “History of British India,” उसके ब्राह्मणों के बारे में जो विचार थे उस पर क्षोभ प्रकट करते हुए मैक्सhमुलर लिखते हैं, But Mill goes further still, and in one place he actually assures his
readers that a “Brahman may put a man to death when he lists.” In
fact, he represents the Hindus as such a monstrous mass of all vices. ”

शास्त्री जी का मौन टूटा, ”क्या इंग्लैंeड में कोई पागल खाना नहीं है।”

मैंने कहा, ”पागलखाने में भर्ती पागल सिर्फ अपना नुकसान करते हैं। बाहर रह कर वे दुनिया को तबाह कर सकते हैं, यदि वे अपने को बुद्धिजीवी भी मानते हों तो। यह भी एक संयोग ही है कि सैयद अहमद का जन्म जिस साल हुआ था उसी के आसपास मिल का इतिहास भी प्रकाशित हुआ था और यही इतिहास केवल सैयद अहमद की जहन में ही नहीं भरा गया था, अपितु आज तक मुस्लिम इतिहासकार मिल को ही सबसे भरोसे का इतिहासकार मानते हैं क्योंकि दूसरे किसी इतिहासकार ने हिन्दुओं की इतनी भर्त्सैना न की और मुसलमानों की इस तरह तारीफ न की। अलीगढ विश्वविद्यालय में अपने अध्‍यापन काल में यही इतिहास कोसंबी को भी किसी ने पढ़ने को सुझा दिया था और उनका इतिहास लेखन जेम्स मिल का ही विस्ताीर है यह समझने तक की किसी को फुर्सत नहीं रही। इसी का दूसरा नाम मार्क्‍सवादी इतिहास लेखन कर दिया गया।

श्रेष्ठताबोध के इन्हीं अनुपानों का असर सैयद अहमद पर भी था जिसके चलते उन्होंने हिन्दीे को गंवारो की भाषा कहा था, परन्तु इसका अगला पाठ यह है कि भारतीय मूल के धर्मान्तरित मुसलमानों से उन्हें जो एलर्जी थी और जो बीच बीच में खुल कर प्रकट हो जाती थी, वह भी इसी सोच की देन थी। आखिर थे तो वे भी इसी मूल के। इस चेतना ने मुसलमानों मे शरीफों और जलीलों का वह श्रेणी विभाजन किया जिसके लिए दोष हिन्दू वर्णव्यरवस्था को दिया जाता रहा है कि यह धर्म बदलने पर भी आदमी के साथ चिपकी रह जाती हैं, परन्तु इसमें विदेशी मूल के या कहें आक्रमणकारी मुसलमानों की सन्तांनों को और जमीदारों ताल्लुेकेदारों काे शरीफ माना जाता था जिसमें धर्मान्तरित ब्राह्मण और क्षत्रिय भी घुसे थे।

परन्तु उनका असली मलाल यह था कि अपनी सांस्कृतिक और नस्ली श्रेष्ठता के बावजूद वे आम हिन्दुओं से पिछड़ गए हैं इसलिए यह सोचना गलत है कि उन्होंने आगे बढ़ने की स्पर्धा में भाग नहीं लिया। इस स्पर्धा का रूप भिन्न था और इसमें यह ध्‍वनि भी थी कि शिक्षा और व्‍यवसाय से मुसलमान हिन्‍दुओं की बराबरी पर आ जाएं तो वे भी उनसे अलग होने या अधिकारों की मांग करने की सोच सकते है:
that we should hold ourselves aloof from this political uproar, and reflect on our condition — that we are behindhand (sic) in education and are deficient in wealth. Then we should try to improve the education of our nation. Now our condition is this: that the Hindus, if they wish, can ruin us in an hour. The internal trade is entirely in their hands. The external trade is in possession of the English. Let the trade which is with the Hindus remain with them. But try to snatch from their hands the trade in the produce of the county which the English now enjoy and draw profit from. Tell them: “Take no further trouble. We will ourselves take the leather of our country to England and sell it there. Leave off picking up the bones of our country’s animals. We will ourselves collect them and take them to America. Do not fill ships with the corn and cotton of our country. We will fill our own ships and will take it ourselves to Europe!” Never imagine that Government will put difficulties in your way in trade. But the acquisition of all these things depends on education. When you shall have fully acquired education, and true education shall have made its home in your hearts, then you will know what rights you can legitimately demand of the British Government.”

“लगता है गार्ड पार्क के गेट का दरवाजा बन्द करने जा रहा है”, कहते हुए शास्त्री जी उठ लिए। पता ही न चला कि उन पर क्या बीती ।‘’

Post – 2016-07-30

निदान 6

सांप्रदायिकता का बीजारोपण

”आप कहते हैं सांप्रदायिकता बीसवीं शताब्‍दी की चीज है, फसाद तो उन्‍नीसवीं शताब्‍दी में भी होते रहे होंगे।”

”झगड़े फसाद तो किसी न किसी बात को ले कर हमेशा चलते रहे हैं। अपनों से भी और दूसरों से भी। उन्‍नीसवीं शताब्‍दी में इनको धार्मिक अवसरों पर गोकुशी आदि खुले आम करने के लिए उकसा कर कई बार होली या मुहर्रम के मौकों पर कराने में सफलता मिल चुकी थी परन्‍तु इनकी प्रकृति भिन्‍न थी। वास्‍तव में गाेमांस का सबसे अधिक खपत व्रिटिश सैनिकों और अफसरों के बीच था जिसे संवेदनशील मुद्दा मान कर अपनी ओर से ध्‍यान हटाने के लिए वे उकसावा देकर कुछ मुस्लिम तत्‍वों को खुले आम गोवध कराने के लिए तैयार करके स्‍वत: उपद्रव की भूमिका तैयार करते थे । सैयद अहमद ने स्‍वयं अपनी एक तकरीर में इनके घटित होने की पुष्टि की है और उसमें एक दबी धमकी भी है:
But I frankly advise my Hindu friends that if they wish to cherish their religious rites, they can never be successful in this way. If they are to be successful, it can only be by friendship and agreement. The business cannot be done by force; and the greater the enmity and animosity, the greater will be their loss. I will take Aligarh as an example. There Mahomedans and Hindus are in agreement. The Dasehra and Moharrum fell together for three years, and no one knows what took place [that is, things remained quiet]. It is worth notice how, when an agitation was started against cow-killing, the sacrifice of cows increased enormously, and religious animosity grew on both sides, as all who live in India well know. They should understand that those things that can be done by friendship and affection, cannot be done by any pressure or force.

”परन्‍तु इसके पीछे एक दहशत भी काम कर रही थी जो इस अंश के पहले वाक्‍य में ही है। उनके दिमाग में यह बैठाया जा चुका था कि यदि कांग्रेस की ताकत बढ़ती गई तो एक न एक दिन प्रशासन बंगालियों के हाथ में आ जाएगा और वे मुसलमनानों को हिन्‍दू रीति नीति अपनाने को विवश करेंगे। वे जिन चीजों से परहेज करते हैं उनको पूरे समाज पर लादेंगे। गोमांस निषेध इनमें से एक था।

”हम यह कह सकते हैं कि वे सारी बातें जिनका विस्‍फोट बीसवीं शताब्‍दी की मुस्लिम राजनीति में हुआ उसकाे सर सैयद की चेतना में उतारा जा चुका था और मुस्लिम बुद्धिजीवी उन्‍हें आधुनिकता का नायक मानते थे इसलिए आधुनिक सोच वाले मुसलमानों की चेतना में ये विचार मार्गदर्शक सिद्धान्‍तों के रूप में अंकित रहे। इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि उनकी राजनीति क्‍या थी।

”बंगाल का विभाजन जिसने पहली बार सांप्रदायिकता की इमारत की नींव रखी उसके बीज भी सर सैयद की चेतना में उतारे जा चुके थे और द्विराष्‍ट्र की धारणा भी:
As regards Bengal, there is, as far as I am aware, in Lower Bengal a much larger proportion of Mahomedans than Bengalis. And if you take the population of the whole of Bengal, nearly half are Mahomedans and something over half are Bengalis. Those Mahomedans are quite unaware of what sort of thing the National Congress is. No Mahomedan Raïs of Bengal took part in it, and the ordinary Bengalis who live in the districts are also as ignorant of it as the Mahomedans. In Bengal the Mahomedan population is so great that if the aspirations of those Bengalis who are making so loud an agitation be fulfilled, it will be extremely difficult for the Bengalis to remain in peace even in Bengal. These proposals of the Congress are extremely inexpedient for the country, which is inhabited by two different nations — who drink from the same well, breathe the air of the same city, and depend on each other for its life. To create animosity between them is good neither for peace, nor for the country, nor for the town.

”जो बात सर सैयद अहमद के दिमाग में भरी गई थी उसके जाल हंटर की पुस्‍तक से ही बुने जाने लगे थे। हैरानी की बात यह कि जो शरारत दूसरों को नजर आ रही थी वह उन्‍हें नहीं आई। अविश्‍वसनीय बातों पर भी असहमति प्रकट करके वह इसका सबूत नहीं देना चाहते थे कि अपने हुक्‍मरानों पर उन्‍हें रंचमात्र संदेह है और इस कमजोरी ने ही उनको ब्रितानी साजिश का मुखौटा बना दिया था। केवल मुसलमान होने के कारण वे हिन्‍दुओं से विरोध रखें यह पूर्वी बंगाल के लोगों के लिए संभव नहीं था। पूर्वी बंगाल अपने उद्योग धन्‍धों के लिए जाना जाता था। अपने काम में लगे किसानों, छोटे कामगारो, दूकानदारों यहां तक कि व्‍यापारियों की सीधी साझेदारी राजनीति में न थी, पर यह तो था ही शिक्षा के मामले में आगे बढ़े होने के कारण प्रभावशाली पदों पर पश्चिम बंगाल के हिन्‍दुओ की उपस्थिति थी और इसको भौगोलिक विभाजन से उभारा जा सकता था।

”यह काम कर्जन ने कर दिखाया जिसका कड़ा विराेध हिन्‍दुओं ने किया और किया इस आधार पर ही कि यह हिन्‍दुओं और मुसलमानों को बांटने की राजनीति है, पर जैसा हम एक बार और कह आए हैं, बिना किसी अपवाद के सभी मुसलमान इसका समर्थन कर रहे थे । इनमें कांग्रेस में सम्मिलित मुस्लिम नेता भीे थे। दोनों की प्रतिक्रियाएं इतनी उग्र थीं कि पहली बार दोनों संप्रदायों का एक दूसरे पर से विश्‍वास ही नहीं उठ गया अपितु यह भी सिद्ध हो गया कि हिन्‍दू कांग्रेस में हो या बाहर पहले हिन्‍दू है और मुसलिम कांग्रेस में हो या बाहर पहले मुसलिम है।
पहली बार ब्रितानी कूटनीति ने समाज को आरपार बांटने में भारी सफलता प्राप्‍त की और इसके बाद मेल जोल की सारी कवायदें अभिनय प्रतीत होने लगीं।

”बंगाल का विभाजन कथित रूप में एक प्रशासनिक फैसला था। यदि कूटनीतिक परिपक्‍वता होती तो इस बंटवारे की उपेक्षा की गई होती और तब ब्रितानी कूटनीति को बहुत करारा जवाब मिला होता। इसका विरोध हिन्‍दुओं द्वारा आतंकवादी या विप्‍लवी रास्‍ता अपना कर किया गया और बाद के सशस्‍त्र प्रतिरोध का यह आधार बना । सरकार को अपना फैसला कुछ वर्षों बाद वापस लेना पड़ा। पर यह सरकार की हार नहीं थी। उसे विजय मिल चुकी थी। प्रशासनिक सुविधा मात्र बहाना था पर अब पूर्वी बंगाल में भाषा और संस्‍कृति से गहन जुड़ाव के बावजूद सांप्रदायिक सोच का अखाड़ा तो बन ही गया था।

सर सैयद ने इंग्‍लैड के विश्‍वविद्यालयों जैसी उच्‍च शिक्षा के लक्ष्‍य से अलीगढ़ कालेज का प्रिंसिपल अंग्रेजों को ही रखना उचित समझा। बेक, मोरिसन और आर्किबाल्‍ड ऐसे ही प्रिंसिपल थे जो मुस्लिम राजनीति को अलीगढ़ कालेज के माध्‍यम से मनचाही योजना के अनुसार चलाते रहे और इसलिए यह कालेज शुरू से ही अलगाववादी राजनीति का अखाड़ा बना रहा।

”मुस्लिम लीग की स्‍थापना भी ब्रिटेन की कूटनीतिक पहल का परिणाम था। पहले आगा खां के नेतृत्‍व में शिमला में उनका एक प्रतिनिधिमडल लार्ड मिंटो से अक्‍तूबर में अलीगढ कालेज के सेक्रेटरी मोहसिन उल मुल्‍क की पहल से मिला था और पृथक प्रतिनिधित्‍व की अपनी मांगे रखी थी जिन्‍हें वाइसराय का आशीवार्द प्राप्‍त हुआ था और उन्‍होंने जल्‍द ही एक संगठन बनाने का निश्‍चय किया था। इसके कुछ माह बाद ही 30 दिसंबर 1906 को ढाका में जो मुस्लिम ताल्‍लुकेदारों और अमीरों का जलसा हुआ था उसे भी वाइसराय मिंटो का वरदहस्‍त प्राप्‍त था! हुए उसमें पूरे देश के ताल्‍लुकेदारों और रईसों की शिरकत थी। इसमें 300 प्रतिनिधियों ने भाग लिया था। इनमें पूर्वी बंगाल के ढाका के नवाब को छोड़ कर कितने रईस थे इस पर शोध होना चाहिए, परन्‍तु इस पर शोध की जरूरत नहीं कि मुस्लिम लीग केवल मुस्लिम अमीरों और ताल्‍लुकेदारों द्वारा और उनकी उन्‍हीं चिन्‍ताओं से प्रेरित संस्‍था थी जिसका मुख्‍य लक्ष्‍य स्‍वतंत्रता आंदोलन में व्‍यवधान डालते हुए ब्रिटिश सत्‍ता को स्थिरता प्रदान करना था। इसमे मुस्लिम अवाब के प्रति न तो सहानुभूति थी न उनके लिए कोई जगह।

”इसके विपरीत हिन्‍दू असंतोष सही अर्थों में बंगाली वर्चस्‍व को पहुंचे आघात की अभिव्‍यक्ति था परन्‍तु इसे भी महाराष्‍ट्र से तिलक का और पंजाब से लाजपत राय का समर्थन प्राप्‍त था और इसे उभारने के लिए महाराष्‍ट्र में गणपति और शिवा जी का और बंगाल में दुर्गापूजा के आयोजनों के माध्‍यम से जनता को कांग्रेस से जोड़ने का भी प्रयत्‍न किया गया और अनुमानत: हिन्‍दी भाषी क्षेत्र में रामलीला को भी भव्‍य और व्‍यापक आयोजन इसके बाद ही आरंभ हुआ। कुल मिला कर इससे कांग्रेस का हिन्‍दू चेहरा अधिक उभर कर आया और इसने आम मुसलिमों में भी खिसकाव की प्रक्रिया आरंभ हुई हो सकती है जिसका कोई आकलन हमारे पास नहीं है।”

शास्‍त्री जी ने लंबी जंभाई ली तब पता चला कि वह थक रहे हैं। थक तो शायद आप भी रहे हो।

Post – 2016-07-30

उसने कहा, इतनी उल्‍टी सीधी घटनाएं घट रही हैं, तुम इस पर क्‍यों चुप लगा जाते हो।”

”मैंने तो इन घटनाओं के घटित होने से पहले ही लिख दिया था, तुम्‍हें याद न रहे तो मैं क्‍या करूं।”

वह सकपका गया। मेरी ओर हैरानी से देखने लगा।

मैंने कहा 6 जनवरी का मेरा पोस्‍ट देखो और इन पंक्तियों को दुबारा पढ़ो:

हिंदुत्व के लिए सबसे बड़ा खतरा इस्लाम या ईसाइयत नहीं है, हिंदुत्व की अधकचरी समझ और अनुकूलन की अक्षमता है। हम अपनी प्रशंसा सुनना चाहते हैं, जबकि प्रशंसा की भूख और लत पतन का कारण और परिणाम दोनों हुआ करती है। जो आगे बढ़ना चाहते हैं वे अपनी आलोचना और सुझाव आमंत्रित करते हैं, प्रशंसा नहीं।”

Post – 2016-07-29

”निदान 5

अल्‍पसंख्‍यता की अल्‍पसंख्‍यता सिंड्रोम 4

”क्‍या आप सोचते हैं, भारत में सांप्रदायिकता के जनक सैयद अहमद हैं?”

”इतिहास का बोझ ढोने के लिए एक आदमी का कंधा इतना कमजोर पड़ता है कि उस पर न तो श्रेय का बोझ लादा जा सकता है न अभियोग का। वह मात्र निमित्‍त होता है। शास्‍त्री जी आप ने गीता को ध्‍यान से पढ़ा है ? खैर, पढ़ा तो होगा ही परन्‍तु उसमें जो इतिहास और महारथी से महारथी योद्धा या कर्ता के बीच के संबंध का चित्रण है उसे शायद उस तरह न समझा हो जैसे मैं समझता हूें। उसमें कृष्‍ण अर्जुन काे उपयुक्‍त पात्र मान कर जिस विराट रूप का दर्शन कराते हैं वह कालप्रवाह का मूर्तन है। सर्वत्र वही व्‍याप्‍त है, सब कुछ उसी में घटित हो रहा है। कोई किसी का नाश नहीं करता है। वह कहते हैं, मैं कालदेव हूं। जो है उसका विनाश करने वाला। मैं जो चाहूंगा वह करने के लिए तुम्‍हारा उपयोग कर लंगा, तुम्‍हें देखना है कि तुम किसी बाहरी दबाव से, कुछ पाने के लिए कुछ करते हो या या निष्‍काम भाव से। य‍दि किसी स्‍वार्थ से प्रेरित न हो कर काम करते हो तो उसके परिणाम चाहे कितने भी अनिष्‍टकर हों वह तुमने नहीं किया, मैंने किया है, तुम उसके पाप से मुक्‍त हो।”

”डाक्‍साब, सर जो शिकायत करते हैं वह तो सही है।”

मैं सचमुच समझ नहीं पाया कि उनका संकेत किधर है। उनकी ओर प्रश्‍न भरी आंखों से देखा तो बोले, ”आप सचमुच विषय कोई हो, उड़ान भरने के लिए एक आसमान उसी में तैयार कर लेते हैं। मैं पूछ रहा था…”

आगे उन्‍हें कुछ कहना पड़े इससे पहले ही बात समझ में आ गई, ”मैं उसी का जवाब दे रहा था परन्‍तु इस मुहावरे में जो अापको समझ में आ सके। मैं कह रहा था, सैयद साहब ही नहीं, उन्‍हीं योग्‍यताओं, भौतिक परिस्थितियों, दबावों और चिन्‍ताओं के बीच आप भी ठीक वही करते। कहें उसमें कोई भी दूसरा वही करता फिर करने वाला तो वह काल है, वे परिस्थितियां है, इतिहास का महारथ है। उसकी अभिव्‍यक्ति नाना रूपों में एक ही काल में होती है। उन्‍होंने व्‍यक्तिगत लाभ के लिए कुछ नहीं किया, अपने समुदाय के हित के लिए किया और अपनी समझ से सर्वोत्‍तम किया – इसलिए ‘अहं त्‍वां सर्व पापेभ्‍यो मोक्षयिष्‍यामि मा शुच: ।

”आप देखें तो बंगाली शिक्षा में बढ़ ही नहीं गए थे, सभी पदों पर लगभग बंगालियों का कब्‍जा था और उनका व्‍यवहार गोरे साहबों से नकल किया गया था और शेष भारतीयों से वे काले साहबों की तरह ही पेश आते थे। गोरों का अपने प्रति गरूर भरा व्‍यवहार उन्‍हें भी खलता था, परन्‍तु दूसरे भारतीयों से वही व्‍यवहार करते हुए वे इसे भूल जाते थे। स्‍वयं ओडिशा, असम, पूर्वी बिहार, पंजाब के लोगों के लिए वे जिन संबोधनों का प्रयोग करते थे वे गाली हुआ करते थे। यह एक भौगा‍ेलिक प्रशासनिक सुविधा के कारण था, क्‍योंकि राजधानी कलकत्‍ता थी और सरकार के सारे दफतर वहीं थे। शिक्षा के आधुनिकीकरण के प्रयोग वहीं हुए थे और इसके महत्‍व को समझते हुए कुछ दूर दर्शी लोगों ने गांव गांव तक शिक्षा के प्रसार का प्रयत्‍न किया था जिसका उन्‍हें लाभ मिला था परन्‍तु इस लाभ के साथ ही उन्‍हें बंगाली जाति की अपनी श्रेष्‍ठता से जोड़ कर देखना आरंभ कर दिया था।

सैयद अहमद मुस्लिम समाज के उस वर्ग को ले कर चिन्तित थे जिनकी दशा में निरन्‍तर गिरावट आ रही थी या आनी थी। हिन्‍दुओं को वे हर मानी में आगे पा रहे थे आैर यह चिन्‍ता कांग्रेस के जन्‍म के साथ, प्रशासन में प्रतिनिधित्‍व की मांग के कारण इसलिए ही उग्र हो गई थी । लोकतांत्रिक प्रणाली और अवसर की समानता, आम मताधिकार के उन्‍हें डरावने लगते ही थे। ये इंग्‍लैंड के लिए ठीक थे भारत के लिए नहीं। यहां छोटे बड़े सभी को प्रतिनिधित्‍व नहीं दिया जा सकता था। एक खास आर्थिक हैसियत के लोगों को ही मताधिकार मिले तो ही ठीक रहेगा पर वह भी सुरक्षित नहीं था:
Some method of qualification must be made; for example, that people with a certain income shall be electors. Now, I ask you, O Mahomedans! Weep at your condition! Have you such wealth that you can compete with the Hindus? Most certainly not. Suppose, for example, that an income of Rs. 5,000 a year be fixed on, how many Mahomedans will there be? Which party will have the larger number of votes?

अब यदि सरकार यह भी मानने को तैयार हो जाय कि आधे हिन्‍दू और आधे मसलमान चुने जाएंगे तो भी हिन्‍दू अधिक काबिल सिद्ध होंगे:

let us suppose that a rule is laid down that half the members are to be Mahomedan and half Hindus, and that the Mahomedans and Hindus are each to elect their own men. Now, I ask you to pardon me for saying something which I say with a sore heart. In the whole nation there is no person who is equal to the Hindus in fitness for the work. ,

यदि आप उनके इन उद्गारों के भीतर झांक सकते हों तो पाएंगे ये उनके अपने विचार नहीं बल्कि उनके दिमाग में भरे हुए विचार थे कि मुसलमान हिन्‍दुओं का प्रभाव बढ़ने के साथ हर तरह से अरक्षित हैं, और उनकी सुरक्षा का एक ही उपाय है अंग्रेजी राज का बना रहना और इस तरह बना रहना कि इसकी कोई चूल तक ढीली न हो।

इस पराजय बोध को कम करने और उन्‍हें जुझारू अल्‍पमत बना कर अपने साथ रखने के लिए उनके इतिहास को भी उभारा और श्रेष्‍ठता बोध को भी खूराक की जाती थी। इसलिए सैयद अहमद के निम्‍न कथन को भी आधा सिखावन और आधा पस्‍तहिम्‍मती को इतिहास की यादों से दूर करने का उपाय ही मानना उचित होगा:
We are those who ruled India for six or seven hundred years. From our hands the country was taken by Govemment into its own. Is it not natural then for Government to entertain such thoughts? Is Government so foolish as to suppose that in seventy years we have forgotten all our grandeur and our empire? Although, should Government entertain such notions, she is certainly wrong; yet we must remember she has ample excuse. We do not live on fish, nor are we afraid of using a knife and fork lest we should cut our fingers. Our nation is of the blood of those who made not only Arabia, but Asia and Europe, to tremble. It is our nation which conquered with its sword the whole of India, although its peoples were all of one religion.

परन्‍तु इसी से जुड़ा तो वह डर भी था कि यदि शासन में हिन्‍दुओं का प्रभाव बढ़ा तो वे बदले की कार्रवाई करेंगे जो उस समय इतना प्रखर नहीं था क्‍योंकि तब स्‍वतंत्रता की बात नहीं उठी थी, केवल वाइसराय की कौंसिल की सदस्‍यता और प्रतियोगी परीक्षाओं के माध्‍यम से प्रशासनिक पदों पर भर्ती का ही सवाल था। बाद में स्‍वतंत्रता की संभावना बढ़ने के साथ इसने जमींदारों रियासतदारों के भीतर तीखी बेचैनी पैदा कर दी, जब कि भारतीय मूल के मुसलमान इससे प्रभावि न थे वे अन्तिम दौर को छोड़ कर इससे निप्‍प्रभावित रहे। सैयद अहमद की समझ से, और यह भी भरा हुआ विचार था, मुसलमानों के बचाव का एक ही उपाय था, सरकार का विश्‍वास जीतना, उसके सन्‍देह को दूर करना और उसके हाथ की कठपुतली बन जाना:
Our course of action should be such as to convince Government of the wrongness of her suspicions regarding us, if she entertain any.

बंगाली हिन्‍दुओं का शासन आने से रोका नहीं जा सकता, परन्‍तु एक क्षेत्र है जिसमें बंगाली की जगह मुस‍लमानों को अवसर मिल सकता था और संतुलन स्‍थापित किया जा सकता था। फौजी नौकरियां। आखिर मुगल काल में अमीर और रईस अपने फौजी पदों के बल पर ही पैदा हुए थे:
. A second error of Government of the greatest magnitude is this: that it does not give appointments in the army to those brave people whose ancestors did not use the pen to write with; no, but a different kind of pen — (cheers) — nor did they use black ink, but the ink they dipped their pens in was red, red ink which flows from the bodies of men. (Cheers.) O brothers! I have fought Government in the harshest language about these points. The time is, however, coming when my brothers, Pathans, Syeds, Hashimi, and Koreishi, whose blood smells of the blood of Abraham, will appear in glittering uniform as Colonels and Majors in the army. But we must wait for that time. Government will most certainly attend to it; provided you do not give rise to suspicions of disloyalty.

”जब हम सांप्रदायिकता की जड़ों को समझने का प्रयत्‍न करते हैं तो हमारा ध्‍यान इस
व्‍यग्रता पर भी जाना चाहिए और उन परिस्थितियों पर भी जो उन्‍हें उसी सरकार के हाथ में खेलने के लिए तैयार कर रही थी जो सांप्रदायिक तनाव के बल पर सीधे बल प्रयोग के बिना अपने भविष्‍य को निरापद बनाने के लिए प्रयत्‍नशील थी। अभी तक के विकास को हम केवल उस जमीन की तैयारी के रूप में ही देख सकते हैं जिसमें सांप्रदायिकता की खेती होनी थी। यह बीसवीं शताब्‍दी की चीज है।”

Post – 2016-07-29

है कैद
वही आग
समन्दर में
काठ में
जब दिल में धधकती है
संभाली नहीं जाती
बर्वादियों के रास्ते
यूं तो हैं कई पर
तू जिस पर चलाए
कभी खाली नहीं जाती
28 जुलाई 2016

वे छिप कर बात करते हैं
छिपा कर बात करते हैं ।
यह हम है दुश्मनों को भी
बता कर बात करते हैं।

जो करते कुछ नहीं
वे भी जबां सी कर नही रहते
गलत कहते हैं फिर भी
फख्र से वे बात करते हैं।

जो बैठे फेर कर मुंह
भेजतेे लानत मलामत हैं
उन्हें भी बख्‍श कर इज्‍जत
बुला कर बात करते है

बुरा हो उनका जो सच का
तराजू लेके बैठे हैं
तराजू को झुका कर
और तन कर बात करते हैं।

जहां बातें रुकीं बकवास
का दौरे अमल होगा
यह समझाने को उनके घर भी
जा कर बात करते हैं

कहीं भगवान तुझको
रास्ते में मिल गया था क्या
वह कहता था गलत सच को
मिला कर बात करते हैं।

यह है ऐसा नशा लत
इसकी तुमको पड़ गई यारो
न जानोगे कि कैसे लोग
क्या क्या बात करते हैं।

मुझे तुम पर तरस आता है
पर अकड़े हुए तुम हो
हम अपनों में तुम्हें
गिनते हुए यह बात करते हैं।
28 जुलाई 2016

Post – 2016-07-28

”क्‍या आप सोचते हैं, भारत में सांप्रदायिकता के जनक सैयद अहमद हैं?”

”इतिहास का बोझ ढोने के लिए एक आदमी का कंधा इतना कमजोर पड़ता है कि उस पर न तो श्रेय का बोझ लादा जा सकता है न अभियोग का। वह मात्र निमित्‍त होता है। शास्‍त्री जी आप ने क्‍या गीता को ध्‍यान से पढ़ा है ? खैर, पढ़ा तो होगा ही परन्‍तु उसमें जो इतिहास और महारथी से महारथी योद्धा या कर्ता के बीच के संबंध का चित्रण है उसे शायद उस तरह न समझा हो जैसे मैं समझता हूें। उसमें कृष्‍ण अर्जुन काे उपयुक्‍त पात्र मान कर जिस विराट रूप का दर्शन कराते हैं वह इतिहास का मूर्तन है। काल की महिमा का आख्‍यान है। सर्वत्र वही व्‍याप्‍त है, सब कुछ उसी में घटित हो रहा है। कोई किसी का नाश नहीं करता है। वह कहते हैं, मैं कालदेव हूं। जो है उसका विनाश करने वाला। मैं जो चाहूंगा वह करने के लिए तुम्‍हारा उपयोग कर लंगा, तुम्‍हें देखना है कि तुम किसी बाहरी दबाव से, कुछ पाने के लिए कुछ करते हो या या निष्‍काम भाव से, अपना कर्तव्‍य समझ कर। उससे बंधते हो या मुक्‍त रह जाते होा दोनां दशाओं में तुम मात्र मेरे निमित्‍त हो और वही बन कर जो मेरा निर्णय है उसका पालन समर्पित भाव से तो उसे करने से भारी से भारी अनिष्‍ट हो, उसके परिणाम से मैं तुम्‍हारी रक्षा कर लूंगा – कालोस्मि लोकान् क्षय कृत प्रबृद्ध- लोकान् समाहर्तुमिह प्रवृत्‍त-। मया हतान् त्‍चं जहि मा व्‍यथिष्‍ठा, निमित्‍त मात्रों भव शव्‍यसाचिनद्य । और अहं त्‍वां सर्वपापेभ्‍यो मोक्षयिष्‍यामि मा शुच। अद्भुत इतिहासबोध। सोच कर हैरान रह जाता हूें। इसी का प्रतिपादन तोल्‍स्‍टोय ने वार एंड पीस के समाहार में किया। इसे ही मार्क्‍स ने कई बहानों से कहा था और यह विश्‍वास दिलाना चाहा कि समाज को रूपान्‍तरित करने का, क्रान्ति लाने का सही समय आ गश और इसे हमारे अपने लोगों ने रट लिया। समझा नहीं।”

”डाक्‍साब, सर जो शिकायत करते हैं वह तो सही है।”

मैं सचमुच समझ नहीं पाया कि उनका संकेत किधर है। उनकी ओर प्रश्‍न भरी आंखों से देखा तो बोले, ”आप सचमुच विषय कोई हो, उड़ान भरने के लिए एक आसमान उसी में तैयार कर लेते हैं। मैं पूछ रहा था…”

आगे उन्‍हें कुछ कहना पड़े इससे पहले ही बात समझ में आ गई, ”मैं उसी का जवाब दे रहा था परन्‍तु इस मुहावरे में जो अापको समझ में आ सके। मैं कह रहा था, सैयद साहब ही नहीं, उन्‍हीं योग्‍यताओं, भौतिक परिस्थितियों, दबावों और चिन्‍ताओं के बीच आप भी ठीक वही करते। कहें उसमें कोई भी दूसरा वही करता फिर करने वाला तो वह काल है, वे परिस्थितियां है, इतिहास का महारथ है। उसकी अभिव्‍यक्ति नाना रूपों में एक ही काल में होती है।

”आप देखें तो बंगाली शिक्षा में बढ़ ही नहीं गए थे, सभी पदों पर लगभग बंगालियों का कब्‍जा था और उनका व्‍यवहार गोरे साहबों से नकल किया गया था और शेष भारतीयों से वे काले साहबों की तरह ही पेश आते थे। गोरों का अपने प्रति गरूर भरा व्‍यवहार उन्‍हें भी खलता था, परन्‍तु दूसरे भारतीयों से वही व्‍यवहार करते हुए वे इसे भूल जाते थे। स्‍वयं ओडिशा, असम, पूर्वी बिहार, पंजाब के लोगों के लिए वे जिन संबोधनों का प्रयोग करते थे वे गाली हुआ करते थे। यह एक भौगा‍ेलिक प्रशासनिक सुविधा के कारण था क्‍योंकि राजधानी कलकत्‍ता थी और सरकार के सारे दफतर वहीं थे। शिक्षा के आधुनिकीकरण के प्रयोग वहीं हुए थे और इसके महत्‍व को समझते हुए कुछ दूर दर्शी लोगों ने गांव गांव तक शिक्षा के प्रसार का प्रयत्‍न किया था जिसका उन्‍हें लाभ मिला था परन्‍तु इस लाभ के साथ ही उन्‍हें बंगाली जाति की अपनी श्रेष्‍ठता से जोड़ कर देखना आरंभ कर दिया था।

”उनको इसका पता भी था कि वे दूसरों के साथ बिगब्रदरली व्‍यवहार कर रहे हैं और इसके लिए उनकी भाषा में बड़ो दा बोध शब्‍द भी प्रचलित था। बंगाल का भौगोलिक क्षेत्र तो मुगल काल से ही बंगाल की सूबेदारी से जुड़ा था परन्‍तु अब इन्‍होंने मैथिली, ओडि़या और असमिया भाषाओं की स्‍वतन्‍त्र स्थिति को भी नकारते हुए इन्‍हें बांग्‍ला की बोलियां मानना आरंभ कर दिया था और उन भाषाओं में शिक्षा के प्रचार में बाधा डालते हुए बंगला में ही उन्‍हें पढ़ाने की ठान रखी थी।

” इस नजाकत को प्रशासकों ने पहचाना, कुछ समय तक इसे पनपने दिया और फिर उन क्षेत्रों की भाषाओं को अलग पहचान देते और शिक्षा का माध्‍यम बनाते हुए उन प्रदेशों से भी एक तनाव पैदा किया था जिसमें भाषाशास्‍त्री प्रशासक जान बीम्‍स की बहुत सफल भूमिका थी।

”संयोग से ये सभी प्रदेश हिन्‍दू बहुल थे इसलिए इनका असंतोष और बोध उस रूप में उजागर नहीं हुआ उसे सांप्रदायिक जैसी संज्ञा मिल सके। इन प्रदेशों के अलग होने के बाद भी बंगाल का भौगोलिक आकार बहुत बड़ा था और सच कहें तो पूर्वी बंगाल या आज के बांग्‍ला देश की बोलचाल की भाषा इतनी अलग है कि उसे पश्चिमी बंगाल के व्‍यक्ति को समझने में दिक्‍कत होती है। ओडिशा, बिहार और असम में अंग्रेजी शिक्षा के प्रति विरोध नहीं था परन्‍तु सुविधाओं का अभाव था इसलिए इनमें भी शिक्षित मध्‍यवर्ग का उदय बहुत मन्‍द गति से हुआ।

” मुस्लिम समुदाय चाहे वह पश्चिम बंगाल का हो या पूर्वी बंगाल का या बिहार, अवध या आगरा का, यह मजहबी कारणों अंग्रेजी शिक्षा और जीवनशैली का विरोधी था इसलिए इसमें अंग्रेजी शिक्षा सैयद अहमद के अध्‍यवसाय के कारण ही आई ।

”थाने और निचली अदालतों तक के कामकाज की भाषा और लिपि उर्दू ही थी, इसलिए इनमें उनको निचले स्‍तर से ले कर अमीन और मुख्‍तारगिरी तक की नौकरियों मे वरीयता हासिल थी। पहली बार जब वह प्रस्‍ताव आया कि नागरी लिपि को भी जगह दी जाय तो इस पर सैयद अहमद बौखला उठे थे, क्‍योंकि इसमें बंटी रोटी में भी बांटने वाले तैयार हो जाते और मुसलमानों को राजगार के अवसर और घट जाते। जहां तक मेरी मोटी जानकारी है हिन्‍दू नेत़त्‍व अरबी लिपि को हटा कर नागरी लिपि मात्र की स्‍वीकृति नहीं चाहता था, पर इतना तो जाहिर ही है कि अवध और बिहार में हिन्‍दू भी मुसलमानों की तरह शिक्षा और नौकरियों में पिछड़े हुए थे और इस अर्थ में मुसलमानों से भी पिछड़े थे कि उन्‍हें अंग्रेजी का ज्ञान नहीं था इनको फारसी बोझिल उर्दू भाषा और शिकस्‍ता उर्दू सीखने समझने में कठिनाई होती थी। यह मांग उनकी ओर से ही आई थी इसलिए सैयद अहमद ने इसे हिन्‍दुओं की सांप्रदायिक मांग मान ली और उनका उनसे मोहभंग हो गया। कल तक जिनको भारत मां की दो सुंदर आंखे मानते थे और एक के फूटने से भी उसके कुरूप होने का डर हुआ करता था वहीं उसकी दूसरी आंख खुलने ही नहीं दे रहे थे और अपराधी उन्‍हें ठहरा रहे थे जो इसे खोलना चाहते थे।

सैयद अहमद मुस्लिम समाज के उस वर्ग को ले कर चिन्तित थे जिनकी दशा में निरन्‍तर गिरावट आ रही थी या आनी थी। हिन्‍दुओं को वे हर मानी में आगे पा रहे थे आैर यह चिन्‍ता कांग्रेस के जन्‍म के साथ, प्रशासन में प्रतिनिधित्‍व की मांग के कारण इसलिए उग्र हो गई थी । आम मताधिकार के परिणाम की बात हम कर आए हैं, अब यदि यह मांग भी हो कि एक खास आर्थिक हैसियत के लोगों को ही मताधिकार मिले तो:
Some method of qualification must be made; for example, that people with a certain income shall be electors. Now, I ask you, O Mahomedans! Weep at your condition! Have you such wealth that you can compete with the Hindus? Most certainly not. Suppose, for example, that an income of Rs. 5,000 a year be fixed on, how many Mahomedans will there be? Which party will have the larger number of votes?

अब यदि सरकार यह भी मानने को तैयार हो जाय कि आधे हिन्‍दू और आधे मसलमान चुने जाएंगे तो भी हिन्‍दू अधिक काबिल सिद्ध होंगे:

let us suppose that a rule is laid down that half the members are to be Mahomedan and half Hindus, and that the Mahomedans and Hindus are each to elect their own men. Now, I ask you to pardon me for saying something which I say with a sore heart. In the whole nation there is no person who is equal to the Hindus in fitness for the work. ,

यदि आप उनके इन उद्गारों के भीतर झांक सकते हों तो पाएंगे ये उनके अपने विचार नहीं बल्कि उनके दिमाग में भरे हुए विचार थे कि मुसलमान हिन्‍दुओं का प्रभाव बढ़ने के साथ हर तरह से अरक्षित हैं, और उनकी सुरक्षा का एक ही उपाय है अंग्रेजी राज का बना रहना और इस तरह बना रहना कि इसकी कोई चूल तक ढीली न हो।

इस पराजय बोध को कम करने और उन्‍हें जुझारू अल्‍पमत बना कर अपने साथ रखने के लिए उनके इतिहास को भी उभारा और श्रेष्‍ठता बोध को भी खूराक की जाती थी। इसलिए सैयद अहमद के निम्‍न कथन को भी आधा सिखावन और आधा पस्‍तहिम्‍मती को इतिहास की यादों से दूर करने का उपाय ही मानना चाहिए:
We are those who ruled India for six or seven hundred years. (Cheers.) From our hands the country was taken by Govemment into its own. Is it not natural then for Government to entertain such thoughts? Is Government so foolish as to suppose that in seventy years we have forgotten all our grandeur and our empire? Although, should Government entertain such notions, she is certainly wrong; yet we must remember she has ample excuse. We do not live on fish, nor are we afraid of using a knife and fork lest we should cut our fingers. (Cheers.) Our nation is of the blood of those who made not only Arabia, but Asia and Europe, to tremble. It is our nation which conquered with its sword the whole of India, although its peoples were all of one religion.

परन्‍तु इसी से जुड़ा तो वह डर भी था कि यदि शासन में हिन्‍दुओं का प्रभाव बढ़ा तो वे बदले की कार्रवाई करेंगे जो उस समय इतना प्रखर नहीं था क्‍योंकि तब स्‍वतंत्रता की बात नहीं उठी थी, केवल वाइसराय की कौंसिल की सदस्‍यता और प्रतियोगी परीक्षाओं के माध्‍यम से प्रशासनिक पदों पर भर्ती का ही सवाल था। बाद में स्‍वतंत्रता की संभावना बढ़ने के साथ इसने जमींदारों रियासतदारों के भीतर तीखी बेचैनी पैदा कर दी जब कि शेष मुसलमान इस निर्मूलता से ग्रस्‍त न थे वे अन्तिम दौर को छोड़ कर इससे निप्‍प्रभावित रहे। सैयद अहमद की समझ से, और यह भी भरा हुआ विचार था, मुसलमानों के बचाव का एक ही उपाय था, सरकार का विश्‍वास जीतना, उसके सन्‍देह को दूर करना और उसके हाथ की कठपुतली बन जाना:
Our course of action should be such as to convince Government of the wrongness of her suspicions regarding us, if she entertain any.

बंगाली हिन्‍दुओं का शासन आने से रोका नहीं जा सकता, परन्‍तु एक क्षेत्र है जिसमें बंगाली की जगह मुस‍लमानों को अवसर मिल सकता है। फौजी नौकरियां। आखिर मुगल काल में अमीर और रईस अपने फौजी पदों के बल पर ही पैदा हुए थे:
. A second error of Government of the greatest magnitude is this: that it does not give appointments in the army to those brave people whose ancestors did not use the pen to write with; no, but a different kind of pen — (cheers) — nor did they use black ink, but the ink they dipped their pens in was red, red ink which flows from the bodies of men. (Cheers.) O brothers! I have fought Government in the harshest language about these points. The time is, however, coming when my brothers, Pathans, Syeds, Hashimi, and Koreishi, whose blood smells of the blood of Abraham, will appear in glittering uniform as Colonels and Majors in the army. But we must wait for that time. Government will most certainly attend to it; provided you do not give rise to suspicions of disloyalty.

जब हम सांप्रदायिकता की जड़ों को समझने का प्रयत्‍न करते हैं तो हमारा ध्‍यान इस
व्‍यग्रता पर भी जाना चाहिए और उन परिस्थितियों पर भी जो उन्‍हें उसी सरकार के हाथ में खेलने के लिए तैयार कर रही थी जो सांप्रदायिक तनाव के बल पर सीधे बल प्रयोग के बिना अपने भविष्‍य को निरापद बनाने के लिए प्रयत्‍नशील थी। अभी तक के विकास को हम केवल उस जमीन की तैयारी के रूप में ही देख सकते हैं जिसमें सांप्रदायिकता की खेती होनी थी। यह बीसवीं शताब्‍दी की चीज

हारता हुआ इंसान अपने बचे हुए का कुछ देना नहीं चाहता, और जो पहले से वंचित रहे हैं, वे जिन चीजों से वंचित रखे गए थे उसे पाना चाहते हैं यह थी कशमकश और इसमें उनकी परेशानी को तो समझा जा सकता है किसी को दोष नहीं दिया जा सकता। इस तथ्‍य के बाद भी कि इसका परिणाम दुखद रहा।

तात्‍कालिक रूप में देखें तो इसका नुकसान सैयद अहमद को अधिक हुआ। पहले बंगाली वर्चस्‍व के विरुद्ध वह हिन्‍दुओं, मुसलमानों सभी (के खानदानी) लोगों को लेकर चिन्तित दीखते थे और देशी भाषा में शिक्षा के लिए एक विश्‍वविद्यालय भी स्‍थापित करना चाहते हैं यह कहीं पढ़ा है जिसे इसलिए स्‍थापित करने में असफल रहे क्‍योंकि वहां भी भाषा और लिपि में मान्‍य रूप पर सहमति न बनी। यह प्रसास फिल्‍मों के माध्‍यम से उर्दू को सर्वमान्‍य बनाने की बाद की चिन्‍ता का पूर्वरूप थी परन्‍तु जनता तो जो भाषा बोलती है उसे आकांक्षा से नहीं बदला जा सकता । यह उनकी विफलता नहीं थी, इस्‍लामी संस्‍कृति के वर्चस्‍व की अन्तिम कोशिश थी जिसे विफल होना ही था।

पर प्रभावशाली और मुखर मध्‍यवर्ग का उदय न हो सका। उच्‍चशिक्षा मुख्‍यत: सामन्‍ती परिवारों तक सीमित रह गई जब कि हिन्‍दू समाज में उच्‍चशिक्षा में मुख्‍य भूमिका ब्राह्मणों और कायस्‍थों की रही जो गैर सामंन्‍ती थे, इनमें अपवाद स्‍वरूप ही किसी के पास जमींदारी तक रही हो सकती है। यही वर्ग पुरानी मूल्‍यप्रणाली के प्रति आलोचनात्‍मक

इसका ??????

Post – 2016-07-28

अल्‍पसंख्‍यक अल्‍पसंख्‍यता का सिंड्रोम

तीन

”डाक्‍साब कई बात लगता है आप अपनी रौ में कुछ अति कर देते हैं। यह ठीक है कि सैयद अहमद ने रईसों का विशेष रूप से उल्‍लेख किया परन्‍तु इसका यह अर्थ तो नहीं कि वह दूसरे मुसलमानों को, कहें आम मुसलमानों को आगे बढ़ने नहीं देना चाहते थे।”
”मैं कल्‍पना से कुछ नहीं गढ़ता। कांग्रेस की मांगों में एक थी कि सिविल सर्विस में भारतीयों को भी अवसर मिले, और यह परीक्षा इंग्‍लैंड में न हो कर भारत में ली जाए। यह उन मुद्दों में एक था जिसकाे उन्‍होंने बहुत अनुचित बताया था: उनका कहना था कि क्‍या आप चाहेंगे कि एक दर्जी का परीक्षा पास करके आप पर हुक्‍त चलाये। ठीक ऐसी ही आपत्ति किसी सुयोग्‍य मुसलमान के वाइसराय की कौंसिल का सदस्‍य बनने पर थी:
It is very necessary that for the Viceroy’s Council the members should be of high social position. I ask you — Would our aristocracy like that a man of low caste or insignificant origin, though he be a B.A. or M.A., and have the requisite ability, should be in a position of authority above them and have power in making laws that affect their lives and property? Never! Nobody would like it.
और वह भी तब जब वह खुद मानते थे कि रईसों में अधिकांश तो पढ़े लिखे भी नहीं हैं और किसी विषय पर बहस में हिस्‍सा तक नहीं ले सकते। यह एक कारण था कि उनको अंग्रेजी शिक्षा पर ध्‍यान देना चाहिए।. It is our great misfortune that our Raïses are such that they are unable to devise laws useful for the country.

”इसका कारण क्‍या हो सकता है?”
”कारण समझने के लिए हमें यह जानना होगा कि वह स्‍वेच्‍छा से, जैसा कि पुराने दरबारों में सेवा का अवसर पाने के लिए होता था, अपने को तन और मन से ब्रिटिश सरकार को समर्पित कर चुके थे और न केवल सरकार के हर एक काम का आंख मूंद कर समर्थन करते थे अपितु यह भी कहते थे कि यदि यही काम उन्‍हें करना हो तो इससे अधिक कठोरता से काम लेंगे।”

”कौन चाहेगा ऐस, क्‍यों चाहेगा ?”
”इसका एक कारण तो यह था कि मुसलमानों के प्रति अंग्रेजों का 57 के विद्रोह के कारण जो अविश्‍वास पैदा हुआ था उसको उनके मन से निकाल देना चाहते थे:
. O brothers! Government, too, is under some difficulties as regards this last charge I have brought against her. Until she can trust us as she can her white soldiers, she cannot do it. But we ought to give proof that whatever we were in former days, that time has gone.

”दूसरा कारण था कि वह अपनी स्‍वामिभक्ति के बल पर हिन्‍दुओं से बाजी मार ले जाना चाहते थे। हिन्‍दू से उनका मतलब मुख्‍यत: बंगालियों से था और इसलिए वह दूसरे समुदायों की भागीदारी के बाद भी कांग्रेस को बंगाली हिन्‍दुओं की संस्‍था मान रहे थे इस बात से आशंकित थे कि अपनी योग्‍यता के बल पर वे उच्‍च पदों पर पहुंच कर रईसों और अमीरों पर भी हुक्‍त चलाने लगेगे, पर इसका जवाब यह कि बहादुर पठान और राजपूत जो जान देकर भी आन बचाते रहे है उनकाे सबक सिखा देंगे:
I am delighted to see the Bengalis making progress, but the question is — What would be the result on the administration of the country? Do you think that the Rajput and the fiery Pathan, who are not afraid of being hanged or of encountering the swords of the police or the bayonets of the army, could remain in peace under the Bengalis?
जाहिर है वह बंगालियों की प्रगति से प्रसन्‍न तो नहीं ही थे। इसी तरह पठानों के साथ राजपूतों को लेना भी एक रणनीतिक चाल थी, परन्‍तु यह युद्धनाद जैसा स्‍वर सच कहें तो उनकी भीतरी बेचैनी और गहरी असुरक्षा को प्रकट करता है। अभी देश के स्‍वतन्‍त्र होने का तो किसी ने सपना तक नहीं देखा था या देखा था तो भारतेन्‍दु ने जो अमेरिकी क्रान्ति की तरह एक मुक्ति क्रान्ति की बात केवल एक स्‍थल पर करते हैं, जो तक एक दिवास्‍वप्‍न से अधिक कुछ न था, समस्‍या प्रशासनिक अग्रता और वायसराय की कौंसिल में प्रतिनिधित्‍व का था और हर सूरत में वह हिन्‍दुओं का प्रतिनिधित्‍व मुसलमानों से चार गुना पाते थे और शिक्षा में भी हिन्‍दुओं के आगे रहने के कारण उनके प्रतिनिधित्‍व को अधिक प्रभावशाली पाते थे और इसके चलते उन्‍हें मुसलिम हितों काे क्षति पहुंचती दिखाई दे रही थी। इसलिए वह चाहते थे कि कांग्रेस का अभियान सफल न होने पाए और मुसलमान उससे दूर रहें:
Therefore if any of you — men of good position, Raïses, men of the middle classes, men of noble family to whom God has given sentiments of honour — if you accept that the country should groan under the yoke of Bengali rule and its people lick the Bengali shoes, then, in the name of God! jump into the train, sit down, and be off to Madras, be off to Madras!

”पर इसमें एक चार के अनुपात वाली बात तो नहीं है।”

”उसे उन्‍होंने काफी विस्‍तार से कई संभव विकल्‍पों को सुझाते हुए समझाया था जिसका केवल एक संकेत करना ही उचित होगा:
And let us suppose first of all that we have universal sufferage, as in America, and that everybody, chamars and all, have votes. And first suppose that all the Mahomedan electors vote for a Mahomedan member, and all Hindu electors for a Hindu member; and now count how many votes the Mahomedan members have and how many the Hindu. It is certain the Hindu members will have four times as many, because their population is four times as numerous.

”यह ध्‍यान रखिए कि हिन्‍दू मुसलिम कभी घुल मिल कर नहीं रहे, उसके कारण थे, संबंध जब अच्‍छे रहे या जिन लोगों के बीच जिस पैमाने पर अच्‍छे रहे वह आपसी समझदारी के कारण था। इस सचाई को को दरार गहरी करने के लिए इतिहास के तथ्‍यों की तोड़ मरोड़ से गहरा किया गया था और इसलिए जब तब सैयद अहमद का वह भय बहुत खुल कर प्रकट हो जाता था। यह चेतना उनके भीतर इतनी कुशलता से उनके श्रेष्‍ठता बोध को उभारते और उसकी तुष्टि करते हुए की गई थी कि प्रथम दृष्टि में लगे योजना उनकी अपनी है और उनकी चातुरी और कूटनीतिक चतुराई के कारण अंग्रेज उसका समर्थन कर रहे थे।”

”बात समझ में नहीं आई।”

”सबसे पहले यह खूराक दी गई कि मुसलमान शिक्षा में पिछड़ गए हैं और हिन्‍दुओं ने इस अवसर का बढ़ कर लाभ उठाया है, इसलिए वे आगे बढ़ गए हैं और मुसलमानों का हक मार रहे हैं। यह सचाई भी थी। परन्‍तु इसमें एक शरारतपूर्ण नुक्‍ला काल्‍पनिक जोड़ा गया था कि मुसलमान यहां शासक रहे हैं, वे हिन्‍दुओं से नफरत करते हैं इसलिए वे उन्‍हीं स्‍कूलों में हिन्‍दुओं के साथ बैठ कर पढ़ने को तैयार नहीं हो सकते।”

”कोई आधार है इस कल्‍पना का ?”

”यह बात हंटर की उस पुस्‍तक में बहुत खुले रूप में आई थी जिसका शीर्षक था मुसलमान क्‍या महारानी के प्रति वफादार रह सकते हैं और जिसमें उनके पिछडने, हिन्‍दुओं द्वारा उनका हक मारने, नौकरियों में उनको अधिक प्रतिनिधित्‍व देने की बात की गई थी और उनकी इस शरारत को भांपते हुए दादा भाई ने एक लेख लिखा था हंटर के हंटर। पर दादा भाई तो आगे चलकर कांग्रेस के जन्‍मदाताओं में से एक बने। जो कांग्रेस से ही खौफ खाते थे, उनकी भी नजर में तथ्‍यत: यह गलत होते हुए भी व्‍याजत: अनुकूल था। आगे चल कर शिक्षा नीति को ले कर भी जो विचार विमर्श आरंभ हुआ हंटर उसका कमिश्‍नर था। खैर, सर सैयद अवध में शिक्षा के विकास के लिए बहुत चिन्तित थे । मध्‍यकालीन सोच को आधुनिक बनाने लिए, वैज्ञानिक खोज को बढ़ावा देने के लिए, गाजीपुर में उन्‍होंने एक संस्‍था स्‍थापित की:
On January 9, 1864, he convened the first meeting of the Scientific Society at Ghazipur. The meeting was attended, among others, by Ahmad Khan’s future biographer, Colonel Graham, who was convinced that India could benefit from England’s technological wealth.

परन्‍तु इसके पीछे एक पेंच था कि हल बैल की जगह आधुनिक मशीनों का उपयोग हो, ट्रैक्‍टर आदि से काम लिया जाय और इस तरह ब्रिटेन में उन मशीनों का बड़े पैमाने पर उत्‍पादन हो और भारत उसका बाजार बने। इसलिए इस पहल का विरोध भी हुआ, यह मैं माखनलाल जी की जीवनी के आधार पर कह रहा हूं। इस संस्‍था में कर्नल ग्राहम का शामिल होना, कहने को सहयोग हुआ और होने केा एक व्‍यूह हुआ जिसे शिक्षा के प्रति अपने आन्‍तरिक लगाव के कारण सैयद अहमद भांप नहीं सकते थे। बाद में उन्‍होंने इसे गाजीपुर से अलीगढ़ स्‍थानान्‍तरित किया। ठीक ऐसा ही व्‍यूह था हंटर का वह सुझाव कि मुसलमानों में शिक्षा के प्रसार के लिए हिन्‍दुओं से अलग स्‍कूल कालेज खोले जायं। सच कहें तो कलकत्‍ता में संस्‍कृत कालेज के साथ ही फारसी का भी एक कालेज स्‍थापित किया गया था, परन्‍तु उसके बारे में हंटर को शिकायत थी कि वह मुसलिम आबादी से दूर है और वहां पहुंचने के लिए उन्‍हें हिन्‍दुओं के मुहल्‍ले से हो कर गुजरना पड़ता है। इस चिन्‍ता या चाल ने ही एक मुस्लिम कालेज की नीव रखी गई। हिन्‍दू भी इस चाल से बेअसर नहीं रह सकते थे अन्‍यथा बनारस विश्‍वविद्यालय के साथ हिन्‍दू शब्‍द नहीं जुड़ता। आगे जामिया इस्‍लामिया आदि में भी यह फलीभूत हुआ और बाटो और राज करो की कांग्रेसी नीति के चलते एक बार अर्जुन सिंह ने घोषणा की ही थी कि मुसलमानों के लिए अलग आई आई टी खोला जाएगा गाे वह फलीभूत नहीं हुआ।

अहमद खा की हैसियत भी थी और ब्रिटिश कूटनीति के लिए यह अवसर भी था इसलिए उनके अहं तुष्टि के लिए यह कम नही था कि अपने लंदन प्रवासकाल में :
He was “in the society of lords and dukes at dinners and evening parties”, he saw “artisans and the common working-man in great numbers”, he was awarded the title of the Companion of the Star of India by none other than the Queen herself; this “elevated” him so that henceforth he would call himself Sir Sayyid Ahmad Khan Bahadur, C.S.I.; he dined with the Secretary of State for India and though he was beset with economic problems, he fulfilled the protocol by hiring private horse carriages for his visits which drained his purse.
इसी का प्रतिदान था उनका वह कथन जिसमें उन्‍होंने अंग्रेजों के सामने भारतीयों की तुलना गन्‍दे जानवरों से की थी:

“Without flattering the English,” he wrote, “I can truly say that the natives of India, high and low, merchants and petty shopkeepers, educated and illiterate, when contrasted with the English in education, manners, and uprightness, are like a dirty animal is to an able and handsome man.” Ahmad counted himself among the “animals” and felt the pain and anguish of being part of a degenerated culture.

”क्‍या हुआ, आप चलने को तैयार हो गए? उपमा पसन्‍द नहीं आई?”

”एक आवश्‍यक काम याद आ गया।

Post – 2016-07-27

निदान 4
अल्‍पसंख्‍यक का अल्‍पसंख्‍यक सिंड्रोम

(मैंने इस लेख को यहां ओर बाहर भी चार बार लिख कर गंवाया है। अब इसके टुकडे करके पिछले पोस्‍ट में जोड़ता जाउउूंगा। इनको नंबर देखा जाउउंगा। आप यदि पहले को पढ. चुके हैं तो दूसरे या इसी तरह तीसरे या अगले को। है यह एक ही पोस्‍ट। आपका समय बचेगा।)

”डाक्‍साब क्‍या आपका यह कथन ठीक है कि अल्‍पसंख्‍यक सिंड्रोम सैयद अहमद खान ने शुरू की। मुस्लिम तो अल्‍पसंख्‍यक पहले से थे। मध्‍यकाल में वे इसी लिए अपनी संख्‍या बढ़ाने के लिए धर्मान्‍तरण कराते रहे। फिर यह आरोप सैयद अहमद पर क्‍यों ?”

‘शास्‍त्री जी, मैं पहले कह आया हूं कि मुस्लिम भारत में कभी अल्‍पसंख्‍यक नहीं रहे, अल्‍पसंख्‍यकों में से एक भी नहीं रहे। जो अल्‍पसंख्‍यक थे, पारसी, यहूदी, आदि उनको कभी अल्‍पसंख्‍यक माना ही नहीं गया न उनके लिए इसका प्रयोग हुआ। यह राजनीतिक पैंतरेबाजी से उपजा शब्‍द है जिसका अर्थ है पीछे से मदद दी जाय तो किसी राष्‍ट्रीय अभियान को विफल करने की प्रतिरोध क्षमता रखने वाला दूसरा जुझारू बहुमत समुदाय।

”दूसरी बात यह कि अल्‍पसंख्‍यक होने और बहुसंख्‍य समुदाय से दहशत खाने वाले और इसलिए आत्‍मरक्षा में आक्रामक होने वाले समाज में अन्‍तर है। यह दहशत या कहें मेजारिटी फोबिया पैदा करने में ब्रिटिश कूटनीति की बहुत शातिर भूमिका थी जिसे सैयद अहमद भी नहीं समझ पाए या समझते हुए उसकी उपेक्षा कर गए।

”तीसरी बात यह कि सैयद अहमद बहुत बड़ी हैसियत के मालिक थे। भौतिक, आध्‍यात्मिक और व्‍यावहारिक सभी स्‍तरों पर । वह धर्मान्‍तरण जैसी टुच्‍ची हरकत को पसन्‍द तक नहीं कर सकते थे। उनका लक्ष्‍य यह न था कि किसी सुदूर भविष्‍य में मुसलमान अल्‍पमत से बहुमत में आ जाएंगे और तब हम सुरक्षित रहेंगे या हिन्‍दुओं पर हावी हो जाएंगे। वह जो कुछ था, जहां था, वहां एक सुरक्षित वर्तमान चाहते थे।

”मैं पहले आपको उनके बारे में कुछ मोटी बातें बता दूं।

‘सैयद अहमद का खानदान मुहम्मद साहब की पुत्री फातिमा और उनके दौहित्र अली से जुड़ा था। उनके पूर्वज ईरान से अफगानिस्ता न और फिर उनके दादा सैयद मुत्तकी हिन्दुेस्तान पहुंचे थे और औरंगजेब की सेना में एक सेना सिपहसालार बने और आलमगीर दोयम न उन्हें जव्वाैदे अली के खिताब से नवाजा था और एक हजारी मनसबदार बनाया था । पिता स्वयं सूफी मिजाज के थे और उनकी आमदनी का स्रोत जमीदारी की वसूली और बादशाह से मिलने वाली पेंसन थी। उनके मामा ख्वाजा फरीद अकबर शाह के वजीरे आला बनाए गए थे और आगे चल कर लार्ड वेल्स ली को भी प्रभावित करने में सफल रहे और राजदूत से लेकर कई अहम पदों पर रहे । उनकी मां भी असाधारण प्रतिभा की महिला थीं।

उनके दादा जी के समय की शानशौकत, अपने ही पिता के समय की तंगी, तंगी ऐसी नहीं जिसे हम तंगी कहते हैं, तंगी वह कि जिस शान और तेवर से रहते थे उसके लिए मुगल दरबार से मिलने वाला वजीफा जो नाकाफी भी था और समय पर वह भी नहीं मिल पाता था और जमीदारी की आमदनी कुछ कम पड़ती थी। इस‍के चलते उनका हाल यह हो गया था कि वह अपनी पुश्‍तैनी हवेली की मरम्‍मत तक नहीं करा सकते थे। इसने उनके सामने उमरा के भविष्‍य को ले कर व्‍यग्रता पैदा कर दी थी। मुगल सल्‍तनत चली गई, रियासतदारों और वजीफाखोरों के दिन लद गए, एक ही संभावना है अपने भाग्‍योदय का कि नये शासकों का संरक्षण मिले और नई शिक्षा के द्वारा उउुंचे ओहदे मिलें । इसने उनको इन दोनों संभावनाओं के लिए व्‍यग्र सा कर दिया था। इसे समझे बिना सैयद अहमद को नहीं समझा जा सकता।

दो

मैं जिस बात को रेखांकित करना चाहता हूें वह यह कि सर सैयद को समझने में तुलसी के अन्‍तर्विरोधों को समझने से कुछ मदद मिल सकती है। कहें पूरा खानदान ही उस हैसियत का जो ऐरे गैरे को मुंह न लगाए। यह फालतू का जिक्र इसलिए कर बैठा कि इससे उनके मिजाज और रुतबे को समझा जा सके और यह भी कि मुसलमानों का यह जो अमीर या रईस वर्ग था उसका भारतीय मूल के मुसलमानों से जो उनके ताबेदार या घरेलू नौकर चाकर थे सम्‍बन्‍ध तो था परन्‍तु न वे उन्‍हें इज्‍जत दे सकते थे न तो ऊपर उठाने की सोच सकते थे क्‍योंकि इसका अर्थ था शान-शौकत और आराम के उन साधनों और सेवाओं से वंचित होना जिन की उन्‍हें आदत इस सीमा तक पड़ चुकी थी कि वे मानते थे यह उनका जन्‍म सिद्ध अधिकार है।
It is very necessary that for the Viceroy’s Council the members should be of high social position. I ask you — Would our aristocracy like that a man of low caste or insignificant origin, though he be a B.A. or M.A., and have the requisite ability, should be in a position of authority above them and have power in making laws that affect their lives and property? Never! Nobody would like it.
यह भाव उनके अभियान में जगह जगह आता है। 18 दिसंबर 1887 को लखनऊ में शिक्षा के प्रसार के लिए जिस जलसे का आयोजन किया गया था उसमें जोर इस बात पर था कि इसमें उमरा उपस्थि‍त हैं:
There were present the taluqdars of Oudh, members of the Government Services, the Army, the Professions of Law, the Press and the Priesthood; Syeds, Shaikhs, Moghals and Pathans belonging to some of the noblest families in India; and representatives of every school of thought, from orthodox Sunni and Shiah Maulvis to the young men trained in Indian colleges or in England

कांग्रेस के मद्रास में होने वाले तीसरे अधिवेशन में मुसलमानों ने भाग लिया था, परन्‍तु उनकी आपत्ति यह थी कि क्‍या वे रईस ? पता चला कि कुछ रईस भी थे तो उनको एक तरह से निबटाया और दूसरों को जरखरीद कह कर। तर्क इस प्रकार था:
And I want to show this: that except Badruddin Tyabji, who is a gentleman of very high position and for whom I have great respect, no leading Mahomedan took part in it. He did take part, but I think he made a mistake. He has written me two letters, one of which was after the publication of my Lucknow speech. I think that he wants me to point out those things in the Congress which are opposed to the interests of Mahomedans, in order that he may exclude them from the discussion. But in reality the whole affair is bad for Mahomedans. However, let us grant that Badruddin Tyabji’s opinion is different from ours; yet it cannot be said that his opinion is the opinion of the whole nation, or that his sympathy with the Congress implies the sympathy of the whole community. My friend there, Mirza Ismail Khan, who has just come from Madras, told me that no Mahomedan Raïs of Madras took part in the Congress. It is said that Prince Humayun Jah joined it. Let us suppose that Humayun Jah, whom I do not know, took part in it; yet our position as a nation will not suffer simply because two men stand aside. No one can say that because these two Raïses took part in it, that therefore the whole nation has joined it.
उनके लिए रईस ही मुस्लिम समाज के प्रतिनिधि थे अौर बाकी उनके ताबेदार जिनकी अपनी आवाज नहीं होती, अपनी चिन्‍ताएं नहीं होतीं और मुक्ति की आकांक्षाएं नहीं होतीं।

Post – 2016-07-27

पिघली हुई यह आग संभाले न संभलती
कागज पर उतारो तो इबारत सी लगे है।
26 जुलाई 2016