निदान – 7
इतिहास के पर और वर्तमान का डर
”आपकी बातें सुन कर मुझे एक पुरानी कहानी याद आती है। एक बच्चे को ले कर दो महिलाओं में झगड़ा हो रहा था। दोनों उसे अपना बताती थीं। विवाद राजा तक पहुंचा। राजा ने कहा, ‘बच्चे को आधा आधा काट कर दोनों में बांट दो। न्याय की कहानी तो इससे आगे जाती है, पर अाप की व्याख्या राजा के आदेश तक आ कर रुक जाती है। कुछ अघटित घटा है और उसमें दो दल या पक्ष आधात या बचाव करने वालों के रूप में शामिल रहे हैं तो, उसका दोष पाप दोनों में बराबर बांट दो। न समस्या रहे न आगे किसी समाधान की जरूरत।”
”शास्त्री जी क्या यही सोच कर कल आप जंभाई लेने लगे थे।”
”आपने ऐसा सोचने को विवश किया तो खिन्नता तो होगी ही। एक ओर वे हैं जो अनन्त काल तक ब्रिटिश शासन में गुलाम बन कर भी मजे उड़ाने की लड़ाई लड़ रहे थे, दूसरी ओर अन्य लोग सबकी स्वतन्त्रता, सबसे लिए नये अवसर की लड़ाई लड़ रहे थे। आप कहते हैं, दोनों बराबर ठहरे। उनसे यह भूल हुई और हमसे यह भूल हुई, भूल दोनों से हुई और इसलिए दोनों बराबर। जिस कहानी की मैंने याद दिलाई थी, उसमें अन्त तो सुखान्त होता है, पर आप जहां अन्त करते हैं वहां अन्याय भी होता है और समस्या अधिक उग्र हो कर दुखान्त भी हो जाती है।”
”शास्त्री जी, मैं निदान कर रहा हूं। नैदानिक और चिकित्सक का काम सही गलत का निर्णय करना नहीं होता। उसका दृष्टिकोण नैतिकतापरक हो तो भयंकर लापरवाहियों से बीमार पड़ों की जांच करने या दवा करने से इन्कार कर देगा, कहेगा, ‘भाग यहां से । अपनी करनी का फल भोग।’ और इसका नतीजा होगा वह व्यक्ति यदि संक्रामक व्या धि से ग्रस्त है तो बहुत सारे लोगों में उस व्यावधि को फैलने देना। इसलिए यदि कोई कहता है हमारी बीमारी तो उसके सामने कुछ नहीं है, वह तो सड़ चुका है, और अपनी बीमारी को सह्य बता कर उस पर गर्व करे और तो मुझे उस पर तरस आएगा कि इसकी बीमारी दिमाग तक पहुंच गई है। हम केवल यह बता सकते हैं कि बीमारी क्यों पैदा हुई, कैसे उग्र हुई, किन असावधानियों से दूसरों में फैली; यदि फैल चुकी है तो उसको बढ़ने से रोकने और नीरोग बनाने के प्रयत्न क्या हों। मैं कहता हूं भले सांप्रदायिकता की भावना ब्रिटिश कूटनीति से पहले उनमें पैदा की गई पर उसकी सफलता यह कि 1906 तक आप भी उसकी लपेट में आ गए । आप इसे समझने से इन्कार करते हैं, कहते हैं हमें दवा की जरूरत नहीं, क्योंकि हम बीमार हैं ही नहीं, और वह दुष्ट है, बीमारी उसने मोल ली है इसलिए दवा उसकी भी नहीं की जानी चाहिए, उसे सजा मिलनी चाहिए। क्याै मैं आपकी बात को ठीक ठीक समझ पाया हूं या समझने में कोई चूक हो गई ?”
”इस बार शास्त्री जी कुछ नरम पड़ गए । मेरा मतलब स्वयं प्रगति करने के स्थान पर वे उन लोगों से घृणा करने लगे जिन्होंने प्रगति कर ली। जिन भी कारणों से बंगाली आगे बढ़ गए थे, शेष भारत ने उनसे प्रेरणा ले कर अपने को शिक्षित और संस्कांरित करना आरंभ किया। वे आगे बढ़ने की स्पर्धा में लगे जिससे देशव्याापी स्तर पर हमारी शिक्षा, साहित्य, कला सभी को लाभ हुआ। उन्होंने इसमें बाधा डालना आरंभ किया और आज तक अवरोध ही पैदा कर रहे हैं।”
”कभी आपने छाया स्वांग देखा है ।”
”छाया स्वांग से क्या तात्प’र्य है आपका?”
”वह खेल जो परदे पर किसी एक ही चीज के, उदाहरण के लिए दोनों हाथों की विभिन्नी भंगियों, कोणों से, प्रकाश की दूरी और कोण आदि से चिडि़या, खरगोश सिर और जाने कितने कितनी आकृतियों और क्रियाओं का भ्रम पैदा करता है।”
उन्हें याद आ गया और उनकी मुखाकृति ये यह भी प्रकट था कि वे यह स्वांग देख भी चुके हैं।
”यदि अपनी जगह से हिले बिना, अपने मूल्यों से चिपके रह कर आप किसी अन्य को देखते हैं तो उन पक्षों को नहीं समझ पाते जो दूसरे स्थान या कोण, निकटता या दूरी से देखने वाले को दिखाई देता है। यह आपके हित में है कि आप जिस पर विचार कर रहे हों उस पर अपने नजरिए से ही विचार न करें, उसके नजरिए से भी उसे देखें, एक तटस्थ दृष्टि भी अपनाएं और तब आप समझ पाएंगे कि उसकी स्थिति में होने पर आप भी ठीक वही करते।”
“मैं तो उन जैसा व्यवहार कदापि न करूँगा, न पहले किया है।”
मुझे अपनी हँसी रोकनी पड़ रही थी, “खैर, आप अपनी जगह पर बने हुए हैं। उनकी स्थिति में रहे भी नही।”
‘’डाक्साब, इसमें स्थिति की बात कहां से आ गई ? एक ही देश, एक ही परिवेश, एक ही जलवायु में , एक ही विदेशी शासन के अधीन हैं, केवल धर्म अलग होने से क्या हो जाता है। धर्म हैं तो यहाँ उनके अतिरिक्त भी अनेक हैं। किसी ने नहीं कहा कि हमारा धर्म अलग है इसलिए हम अलग राष्ट्र हैंं।”
”कूटनीतिक जाल में फंसने पर वे भी ऐसा कर सकते हैं। खैर वे धर्म अलग होने से नहीं चिन्तित थे, इतिहास अलग होने से डरे हुए थे। उन्हें दो तरह का इतिहास पढ़ाया गया था। एक था जो भारत से जितना ही पश्चिम है वह सभ्यता में उतना ही उन्नत है क्योंकि सभ्य ता का जनक तो यूरोप है। जेम्सस मिल जिसने भारत का पहला इतिहास लिखा था, उसका ऐसा मानना था जिसकाे ले कर दूसरों में अभी बहस चल रही थी। उसी का इतिहास मुसलमानों को उस समया भी पढ़ाया जाता रहा और इंग्लैंड में आइ सी एस की तैयारी करने वालों को भी जब दूसरे इतिहासकारों ने उसे घटिया सिद्ध कर दिया।
हिन्दुओं के बारे में उसके विचारों की कुुछ बानगियां देखिए:
“The Hindu systems of geography, chronology, and history, are all equally monstrous and absurd.
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The Hindus were, notwithstanding, so far advanced in civilization, except in the mountainous and most barbarous tracts of the country, as to have improved in some degree upon the manners of savage tribes.
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They are just imitators, and correct workmen, but they possess merely the glimmerings of genius.
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“No useful science have the Brahmens diffused among their followers; history they have abolished; morality they have depressed to the utmost; and the dignity and power of the altar they have erected on the ruins of the state, and the rights of the subject.
इसके विपरीत मुसलमानों के विषय में उनके विचार निम्नr प्रकार हैं:
There was, in the manners of the Mahomedan conquerors of India, an activity, a manliness, an independence, which rendered it less easy for despotism to sink, among them, to that disgusting state of weak and profligate barbarism, which is the natural condition of government among such a passive people as the Hindus.
RELIGION: the superiority of the Mahomedans, in respect of religion, is beyond all dispute.
MANNERS: In this respect the superiority of the Mahomedans was most remarkable.
यह भारत का पहला इतिहास है जो यह भी याद दिलाता है कि इतिहास सभ्यता की पहचान है और हिन्दुसओं के पास इतिहास और इतिहास बोध नहीं था इसलिए वे सभ्य नहीं हो सकते थे।
मिल के ये विचार विलियम जोंस और दूसरे भारतविदों द्वारा प्राचीन भारतीय सभ्यता और संस्कृंति की, संस्कृत भाषा की भूरि भूरि प्रशंसा से खिन्न हो कर (both those who were still in India, and those who had returned from it, at that time concurred, of the wonderful learning, wonderful civilization, and wonderful institutions of the Hindus), दस वर्ष की तैयारी के बाद, मिशनरियों की उन रपटों को स्रोत सामग्री बना कर, लिखा गया था जो गैर ईसाई समुदायों को बर्बर मानते और बर्बर सिद्ध करने के लिए उनकी सामाजिक विकृतियों को आधार बनाते थे। दूसरे सभी ब्रिटिश इतिहासकारों ने इसकी निन्दा की थी और मैक्समुलर ने अपने विचार निम्न शब्दों में रखे थे:
The book which I consider most mischievous, nay, which I hold responsible for some of the greatest misfortunes that have happened to India, is Mill’s “History of British India,” उसके ब्राह्मणों के बारे में जो विचार थे उस पर क्षोभ प्रकट करते हुए मैक्सhमुलर लिखते हैं, But Mill goes further still, and in one place he actually assures his
readers that a “Brahman may put a man to death when he lists.” In
fact, he represents the Hindus as such a monstrous mass of all vices. ”
शास्त्री जी का मौन टूटा, ”क्या इंग्लैंeड में कोई पागल खाना नहीं है।”
मैंने कहा, ”पागलखाने में भर्ती पागल सिर्फ अपना नुकसान करते हैं। बाहर रह कर वे दुनिया को तबाह कर सकते हैं, यदि वे अपने को बुद्धिजीवी भी मानते हों तो। यह भी एक संयोग ही है कि सैयद अहमद का जन्म जिस साल हुआ था उसी के आसपास मिल का इतिहास भी प्रकाशित हुआ था और यही इतिहास केवल सैयद अहमद की जहन में ही नहीं भरा गया था, अपितु आज तक मुस्लिम इतिहासकार मिल को ही सबसे भरोसे का इतिहासकार मानते हैं क्योंकि दूसरे किसी इतिहासकार ने हिन्दुओं की इतनी भर्त्सैना न की और मुसलमानों की इस तरह तारीफ न की। अलीगढ विश्वविद्यालय में अपने अध्यापन काल में यही इतिहास कोसंबी को भी किसी ने पढ़ने को सुझा दिया था और उनका इतिहास लेखन जेम्स मिल का ही विस्ताीर है यह समझने तक की किसी को फुर्सत नहीं रही। इसी का दूसरा नाम मार्क्सवादी इतिहास लेखन कर दिया गया।
श्रेष्ठताबोध के इन्हीं अनुपानों का असर सैयद अहमद पर भी था जिसके चलते उन्होंने हिन्दीे को गंवारो की भाषा कहा था, परन्तु इसका अगला पाठ यह है कि भारतीय मूल के धर्मान्तरित मुसलमानों से उन्हें जो एलर्जी थी और जो बीच बीच में खुल कर प्रकट हो जाती थी, वह भी इसी सोच की देन थी। आखिर थे तो वे भी इसी मूल के। इस चेतना ने मुसलमानों मे शरीफों और जलीलों का वह श्रेणी विभाजन किया जिसके लिए दोष हिन्दू वर्णव्यरवस्था को दिया जाता रहा है कि यह धर्म बदलने पर भी आदमी के साथ चिपकी रह जाती हैं, परन्तु इसमें विदेशी मूल के या कहें आक्रमणकारी मुसलमानों की सन्तांनों को और जमीदारों ताल्लुेकेदारों काे शरीफ माना जाता था जिसमें धर्मान्तरित ब्राह्मण और क्षत्रिय भी घुसे थे।
परन्तु उनका असली मलाल यह था कि अपनी सांस्कृतिक और नस्ली श्रेष्ठता के बावजूद वे आम हिन्दुओं से पिछड़ गए हैं इसलिए यह सोचना गलत है कि उन्होंने आगे बढ़ने की स्पर्धा में भाग नहीं लिया। इस स्पर्धा का रूप भिन्न था और इसमें यह ध्वनि भी थी कि शिक्षा और व्यवसाय से मुसलमान हिन्दुओं की बराबरी पर आ जाएं तो वे भी उनसे अलग होने या अधिकारों की मांग करने की सोच सकते है:
that we should hold ourselves aloof from this political uproar, and reflect on our condition — that we are behindhand (sic) in education and are deficient in wealth. Then we should try to improve the education of our nation. Now our condition is this: that the Hindus, if they wish, can ruin us in an hour. The internal trade is entirely in their hands. The external trade is in possession of the English. Let the trade which is with the Hindus remain with them. But try to snatch from their hands the trade in the produce of the county which the English now enjoy and draw profit from. Tell them: “Take no further trouble. We will ourselves take the leather of our country to England and sell it there. Leave off picking up the bones of our country’s animals. We will ourselves collect them and take them to America. Do not fill ships with the corn and cotton of our country. We will fill our own ships and will take it ourselves to Europe!” Never imagine that Government will put difficulties in your way in trade. But the acquisition of all these things depends on education. When you shall have fully acquired education, and true education shall have made its home in your hearts, then you will know what rights you can legitimately demand of the British Government.”
“लगता है गार्ड पार्क के गेट का दरवाजा बन्द करने जा रहा है”, कहते हुए शास्त्री जी उठ लिए। पता ही न चला कि उन पर क्या बीती ।‘’