निदान 4
अल्पसंख्यक का अल्पसंख्यक सिंड्रोम
(मैंने इस लेख को यहां ओर बाहर भी चार बार लिख कर गंवाया है। अब इसके टुकडे करके पिछले पोस्ट में जोड़ता जाउउूंगा। इनको नंबर देखा जाउउंगा। आप यदि पहले को पढ. चुके हैं तो दूसरे या इसी तरह तीसरे या अगले को। है यह एक ही पोस्ट। आपका समय बचेगा।)
”डाक्साब क्या आपका यह कथन ठीक है कि अल्पसंख्यक सिंड्रोम सैयद अहमद खान ने शुरू की। मुस्लिम तो अल्पसंख्यक पहले से थे। मध्यकाल में वे इसी लिए अपनी संख्या बढ़ाने के लिए धर्मान्तरण कराते रहे। फिर यह आरोप सैयद अहमद पर क्यों ?”
‘शास्त्री जी, मैं पहले कह आया हूं कि मुस्लिम भारत में कभी अल्पसंख्यक नहीं रहे, अल्पसंख्यकों में से एक भी नहीं रहे। जो अल्पसंख्यक थे, पारसी, यहूदी, आदि उनको कभी अल्पसंख्यक माना ही नहीं गया न उनके लिए इसका प्रयोग हुआ। यह राजनीतिक पैंतरेबाजी से उपजा शब्द है जिसका अर्थ है पीछे से मदद दी जाय तो किसी राष्ट्रीय अभियान को विफल करने की प्रतिरोध क्षमता रखने वाला दूसरा जुझारू बहुमत समुदाय।
”दूसरी बात यह कि अल्पसंख्यक होने और बहुसंख्य समुदाय से दहशत खाने वाले और इसलिए आत्मरक्षा में आक्रामक होने वाले समाज में अन्तर है। यह दहशत या कहें मेजारिटी फोबिया पैदा करने में ब्रिटिश कूटनीति की बहुत शातिर भूमिका थी जिसे सैयद अहमद भी नहीं समझ पाए या समझते हुए उसकी उपेक्षा कर गए।
”तीसरी बात यह कि सैयद अहमद बहुत बड़ी हैसियत के मालिक थे। भौतिक, आध्यात्मिक और व्यावहारिक सभी स्तरों पर । वह धर्मान्तरण जैसी टुच्ची हरकत को पसन्द तक नहीं कर सकते थे। उनका लक्ष्य यह न था कि किसी सुदूर भविष्य में मुसलमान अल्पमत से बहुमत में आ जाएंगे और तब हम सुरक्षित रहेंगे या हिन्दुओं पर हावी हो जाएंगे। वह जो कुछ था, जहां था, वहां एक सुरक्षित वर्तमान चाहते थे।
”मैं पहले आपको उनके बारे में कुछ मोटी बातें बता दूं।
‘सैयद अहमद का खानदान मुहम्मद साहब की पुत्री फातिमा और उनके दौहित्र अली से जुड़ा था। उनके पूर्वज ईरान से अफगानिस्ता न और फिर उनके दादा सैयद मुत्तकी हिन्दुेस्तान पहुंचे थे और औरंगजेब की सेना में एक सेना सिपहसालार बने और आलमगीर दोयम न उन्हें जव्वाैदे अली के खिताब से नवाजा था और एक हजारी मनसबदार बनाया था । पिता स्वयं सूफी मिजाज के थे और उनकी आमदनी का स्रोत जमीदारी की वसूली और बादशाह से मिलने वाली पेंसन थी। उनके मामा ख्वाजा फरीद अकबर शाह के वजीरे आला बनाए गए थे और आगे चल कर लार्ड वेल्स ली को भी प्रभावित करने में सफल रहे और राजदूत से लेकर कई अहम पदों पर रहे । उनकी मां भी असाधारण प्रतिभा की महिला थीं।
उनके दादा जी के समय की शानशौकत, अपने ही पिता के समय की तंगी, तंगी ऐसी नहीं जिसे हम तंगी कहते हैं, तंगी वह कि जिस शान और तेवर से रहते थे उसके लिए मुगल दरबार से मिलने वाला वजीफा जो नाकाफी भी था और समय पर वह भी नहीं मिल पाता था और जमीदारी की आमदनी कुछ कम पड़ती थी। इसके चलते उनका हाल यह हो गया था कि वह अपनी पुश्तैनी हवेली की मरम्मत तक नहीं करा सकते थे। इसने उनके सामने उमरा के भविष्य को ले कर व्यग्रता पैदा कर दी थी। मुगल सल्तनत चली गई, रियासतदारों और वजीफाखोरों के दिन लद गए, एक ही संभावना है अपने भाग्योदय का कि नये शासकों का संरक्षण मिले और नई शिक्षा के द्वारा उउुंचे ओहदे मिलें । इसने उनको इन दोनों संभावनाओं के लिए व्यग्र सा कर दिया था। इसे समझे बिना सैयद अहमद को नहीं समझा जा सकता।
दो
मैं जिस बात को रेखांकित करना चाहता हूें वह यह कि सर सैयद को समझने में तुलसी के अन्तर्विरोधों को समझने से कुछ मदद मिल सकती है। कहें पूरा खानदान ही उस हैसियत का जो ऐरे गैरे को मुंह न लगाए। यह फालतू का जिक्र इसलिए कर बैठा कि इससे उनके मिजाज और रुतबे को समझा जा सके और यह भी कि मुसलमानों का यह जो अमीर या रईस वर्ग था उसका भारतीय मूल के मुसलमानों से जो उनके ताबेदार या घरेलू नौकर चाकर थे सम्बन्ध तो था परन्तु न वे उन्हें इज्जत दे सकते थे न तो ऊपर उठाने की सोच सकते थे क्योंकि इसका अर्थ था शान-शौकत और आराम के उन साधनों और सेवाओं से वंचित होना जिन की उन्हें आदत इस सीमा तक पड़ चुकी थी कि वे मानते थे यह उनका जन्म सिद्ध अधिकार है।
It is very necessary that for the Viceroy’s Council the members should be of high social position. I ask you — Would our aristocracy like that a man of low caste or insignificant origin, though he be a B.A. or M.A., and have the requisite ability, should be in a position of authority above them and have power in making laws that affect their lives and property? Never! Nobody would like it.
यह भाव उनके अभियान में जगह जगह आता है। 18 दिसंबर 1887 को लखनऊ में शिक्षा के प्रसार के लिए जिस जलसे का आयोजन किया गया था उसमें जोर इस बात पर था कि इसमें उमरा उपस्थित हैं:
There were present the taluqdars of Oudh, members of the Government Services, the Army, the Professions of Law, the Press and the Priesthood; Syeds, Shaikhs, Moghals and Pathans belonging to some of the noblest families in India; and representatives of every school of thought, from orthodox Sunni and Shiah Maulvis to the young men trained in Indian colleges or in England
कांग्रेस के मद्रास में होने वाले तीसरे अधिवेशन में मुसलमानों ने भाग लिया था, परन्तु उनकी आपत्ति यह थी कि क्या वे रईस ? पता चला कि कुछ रईस भी थे तो उनको एक तरह से निबटाया और दूसरों को जरखरीद कह कर। तर्क इस प्रकार था:
And I want to show this: that except Badruddin Tyabji, who is a gentleman of very high position and for whom I have great respect, no leading Mahomedan took part in it. He did take part, but I think he made a mistake. He has written me two letters, one of which was after the publication of my Lucknow speech. I think that he wants me to point out those things in the Congress which are opposed to the interests of Mahomedans, in order that he may exclude them from the discussion. But in reality the whole affair is bad for Mahomedans. However, let us grant that Badruddin Tyabji’s opinion is different from ours; yet it cannot be said that his opinion is the opinion of the whole nation, or that his sympathy with the Congress implies the sympathy of the whole community. My friend there, Mirza Ismail Khan, who has just come from Madras, told me that no Mahomedan Raïs of Madras took part in the Congress. It is said that Prince Humayun Jah joined it. Let us suppose that Humayun Jah, whom I do not know, took part in it; yet our position as a nation will not suffer simply because two men stand aside. No one can say that because these two Raïses took part in it, that therefore the whole nation has joined it.
उनके लिए रईस ही मुस्लिम समाज के प्रतिनिधि थे अौर बाकी उनके ताबेदार जिनकी अपनी आवाज नहीं होती, अपनी चिन्ताएं नहीं होतीं और मुक्ति की आकांक्षाएं नहीं होतीं।