Post – 2017-05-31

एक साल पहले तक मैं मानता था कि गोरक्षा अव्यावहारिक है । इसका प्रधान कारण आर्थिक था। आर्थिक या नैतिक दृष्टि से अव्यावहारिक आदर्शों का निर्वाह नहीं हो पाता और इनके साथ जुड़ी भावनाओं के कारण अपराध बोध पैदा होता है। ईसाइयत का आदिम पाप ऐसी ही मूर्खतापूर्ण अवधारणा है । व्यंग यह कि ईसा बिना आदिम पाप के पैदा हो गए,इसका दंड उन्हें यह मिला कि असंख्य ईसाइयों द्वारा पीढ़ी दर पीढ़ी किए जाने वाले पाप को उन्हें खुद झेलना पड़ता है । अव्यावहारिक वर्जना मे वर्जित काम से बच कर रहने वालों को भारी दंड सहना पड़ता है ।

गो प्रजाति की रक्षा अव्यावहारिक इसलिए लगती रही है कि खेती के यन्त्रों के प्रचलन के बाद बछड़ों का कोई उपयोग नहीं रह गया है । उनको पालना असंभव हो चला है । मैने जो गोशालाएं देखीं उनमें गायें और बछिया तो दिखाई दीं पर बड़े बछड़े जो वन्ध्याकरण की जरूरत न होने के कारण सांड़ बनने को विवश हैं, कभी देखने को नहीं मिले । स्वयं योगी जी की गोशाला में मैंने विज्ञापित दृश्यों में, जिनका भावनात्मक उपयोग काफी हुआ है, योगी जी को किसी बैल या साड़ को चारा खिलाते नहीं देखा। यदि उन्होंने उनकी कोई विशेष व्यवस्था की हो तो उसकी भी जानकारी लोगों को मिलनी चाहिए । सामान्य बोध यही कहता हैं कि ऐसा दूसरों से नहीं हो पाता। वे किसी बहाने खरीदारों के हाथ में चले जाते हैं और बेचने वाला संवेदनशील हुआ तो अपराध बोध से ग्रस्त हो कर इसे अपनी चेतना की परिधि से ही निकाल फेकता है। इस पर सोचने से भी बचता है ।

पहले मेरी दृष्टि में ये अव्यावहारिकताएं ही थीं । जहां आर्थिक दृष्टि से दुष्कर व्यवस्था को कानून के बल पर लागू किया जाता है, वहां अपराध और तनाव को बढ़ावा मिलता है ।

कुछ बातें ऐसी हैं जिनको उठाते हुए घबराहट होती है, पर जिनसे अवगत होना बहुत जरूरी है।इन्हें हम अन्त में उठाएंगे। पहले हम इस कटु सत्य को समझें कि असली समस्या गोरक्षा की नहीं गो पालन और गो-प्रबन्धन की है और मुझे लगता है कि इसका सही हल निकाला जा सकता है ।

सबसे पहले हम थारुओं को लें (थारू को संस्कृत प्रभाव में स्थविर बना लिया गया पर थेरी गाथा में पुराना रूप बना रह गया। स्थविर जन भाषा का शब्द नहीं है, असवर्ण संयोग और व की ध्वनि भोजपुरी और अवधा की प्रकृति में नहीं है, जब कि बुद्ध अपने उपदेश जनभाषा में देते थे)। थारू गाय पालते हैं, भैंस नहीं। परम अहिंसक होने के कारण ये गाय का दूध भी नहीं निकालते । मां का दूध उसके बच्चे के लिए है । वे भी बछड़ों का वन्ध्याकरण कराते समय कुछ देर के लिए परमधर्म को भूल जाते होंगे । खैर, वे गायों को उनके गोबर के लिए पालते हैं और यह उनके द्वारा आर्थिक दृष्टि से उपयोगी पाया गया है। अपनी मामूली की जमीन में उनकी उपज काफी उत्साहवर्धक होती है । यहां याद दिला दें कि खाद तैयार करने का उनका तरीका आधुनिक नहीं है ।

हमारे जवान होने के समय तक चरागाह बचे हुए थे। भेंड़ पालने वालों को अपने खेत मे रात भर टिकाने के लिए लोग उनको अपना खाना बनाने का सामान देते थे उनकी लेंड़ी से होने वाली खेत की उर्वरता के बदले में। साल में एक रेवड़ ३६५ खेतों को उर्वर बना सकता है और उससे उर्वरता में आई वृद्धि से ही उसका पालन हो सकता है ।

उन्नत बीजों से किसानों की प्रति एकड़ आय, पहले की तुलना में बढ़ी है फिर भी भारतीय किसान की प्रति एकड़ उपज खेती के उन्नत तरीके अपनाने वाले देशों की तुलना में कम है । उन्नत बीजों को उर्वरक और पानी की इतनी अधिक जरूरत होती है कि बढ़ी उपज का लाभ किसान को नहीं मिल पाता। लंबा समय हुआ जब से भूमि को जैव खाद नहीं मिल पाती इससे भूमि की उर्वरता लगातार घटी है। नये बीजों से उत्पन्न पौधो की कीट प्रतिरोध क्षमता बहुत कम है इसलिए खाद के अतिरिक्त कीटनाशकों का खर्च अतिरिक्त पड़ता है जिससे खाद्यान्नों की पोषकता और स्वाद में कमी आई है और विषाक्तता पैदा हुई है जो अनेक प्राणघाती व्याधियों में वृद्धि का एक कारण है। दूध अनुपूरक आहार है, परन्तु खेती के यंत्र आधारित होने के कारण पशुओं का उपयोग खेती में न रह जाने के कारण किसानों ने गाय भैंस पालना भी कम कर दिया । आज से चालीस पचास साल पहले की सकल पशु संख्या का अनुपात आबादी की तुलना में बहुत नीचे हैं। जिनको आंकड़े सुलभ हैं वे इस पर रोशनी डाल सकते हैं।

यदि पशुओं के गोबर आदि काे आधुनिक तरीके से कंपोस्ट में बदला जाय और उसके साथ ही दूसरे वानस्पतिक व अन्य सड़ने वाले कचरे को भी खाद में बदला जाय तो उर्वरकों पर और सिंचाई पर लागत की कमी से ही इतना लाभ हो सकता है कि पशु दुधारू हो या नहीं उस पर आने वाली लागत से अधिक लाभ उसके गोबर और मूत्र से ही हो सकता है। दूध जब तक मिलता है तब तक वह अतिरिक्त लाभ हुआ ।

कुछ अनुसंगी लाभ हैं जिनकी तरफ हमने ध्यान नहीं दिया । आज कल फसल की कटाई के साथ ही भूसा उड़ा दिया जाता है। इसके बाद खेत को जल्द से जल्द जोत कर मिट्टी को पलटना होता है। पर इस कच्चे भूसे के कारण दीमक तथा दूसरे कीड़ों का खतरा इतना उग्र हो जाता है कि पूरी की पूरी फसल बर्वाद हो जाती है। कीटनाशकों पर अतिरिक्त निर्भरता और उस पर आने वाले खर्च और हमारे खाद्यान्नो की विषाक्तता की वृद्धिही नहीं किसानों की कर्ज पर निर्भरता और भुगतान न हो पाने की दशा में अपमान से बचने के लिए आत्महत्याओं मे हुई वृद्धि के बीच गहरा रिश्ता है जिसका एक कारगर समाधान यन्त्र पर निर्भरता को और उस परआने वाले डीजल, मरम्मत आदि को कम करके किया जा सकता है ।

हम एक एक विरोधाभास की ओर ध्यान दिलाएं । उपज बढ़ाने की मरीचिका में किसान की आय बढ़ने की जगह कुछ घटी है और कृषि उद्योग – ट्रैक्टर आदि यन्त्र बनाने और बेचने वाले लोगों की, उर्वरक कारखानों, उनके वितरकों, खाद्य प्रसाधक उद्योगों, यहां तक कि उसी अनाज को जिसे पैदा करने में किसान को इतनी लागत, श्रम, समय लगाना और फसल की बर्वादी का जोखिम उठाना पड़ता है, उसके खरीद मूल्य से अधिक उस अनाज को पीस कर उसे पैक करके एक गावदी भी उतना और कई बार उससे दूने से अधिक कमा लेता है और उसका शुद्ध लाभ किसान की तुलना में चार गुनी होता है क्योंकि खरीद मूल्य में से किसान की लागत को कम कर दें तो उसका शुद्ध लाभ घोषित क्रय मूल्य के चौथाई और प्राकृतिक आपदाओं को जोड़ दें तो विनाशकारी और आत्महननकारी बन जाता है, जब कि कृषि उद्योग से जुड़े मिलमालिकों, बिचवलियों को कभी कोई खतरा नही उठाना पड़ता और उनका कुछ घंटों का काम, लाभ की तुलना में मशीनरी – पिसाई मिल, पैकिंग की प्रविधि और लागत और बाजार में पहुँचने तक के समय में गुणित और बिभाजित करें तो उद्योग से जुड़े लोगों और विचौलियों की तुलना में सबका पेट भरने के लिए अपनी जान पर खेलनेवाला किसान जान देने पर विवश है. इसका समाधान गोभक्ति में नहीं पशुपालन के आधुनिनकीकरण में है. यदि यह सिद्ध किया जा सके कि पशुपालन अपनी सकल उपयोगिता में आर्थिक दृष्टि से अधिक उपायदेय हैतो इस दमघोटूं नरक से मुक्ति पाई जा सकती है.

जिन बछड़ों का कृषि में उपयोग नहीं रह गया है उनकी पेशीय ऊर्जा का प्रयोग पिसाई, सिंचाई आदि कार्यों में करते हुए बिजली पर निर्भरता से बचा जा सके तो यह एक क्रान्तिकारी कदम होगा.

मुझे मोदी की कल्पनाशक्ति पर अब भी विश्वास है. वह इसका रास्ता निकाल सकते हैं. परन्तु इससे पहले इस कदम को राजशक्ति से अमल में लाने के निर्णय को मैं सही नहीं मानता और यह मेरे अबतक के आकलन में मोदी को भी नए सिरे से आंकने की बाध्यता पैदा करता है. परन्तु उसी व्यक्ति में यह साहस और समझ भी है की वह इस दुष्ट चक्र से देश को बाहर निकाल सके. अंत में जिस विषय पर आना था वह तो रह ही गया .

Post – 2017-05-30

पुनर्विचार

मैं आजकल काम के अतिरिक्त दबाव में हूं, इसलिए उन कामों को निपटाने के लिए दूसरे विषयों पर, छोटी टिप्पणियों से काम चलाना चाहता था। शेर की सवारी भी उसी के चलते करने की सोची, भले उर्दू के सौन्दर्यशास्त्र पर अधिकार न रखने के कारण इबारती शेर असली रूप धारण कर अपने सिरजनहार को ही खा जाए।

फिर तकनीकी विकास और उनके अनुरूप विचार और दर्शन की प्रगति को अधिक से अधिक उदाहरणों के साथ प्रस्तुत करते हुए देववाणी के आसुरी वाक् से उत्थान करके देववाणी बनते हुए मानुषी वाक् बनने की प्रक्रिया को अपनी अल्पमति के अनुसार प्रस्तुत करने का मोह भी छोड़ना नहीं चाहता, इसलिए आज उसी के लिए कुछ लिख रहा था।

परन्तु कल मुझे कुछ समसामयिक घटनाओं ने इस तरह आहत किया कि उन पर संक्षेप में ही, अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करने से अपने को रोक न सका। सबसे ताजा था वेंकैया नायडू का उस परिवार के पास पहुंचना, और पचास हजार के चेक को देने का विज्ञापन करते हुए उसको दिखाना। नैपाल अंग्रेजों के वैसे ही चापलूस होने के कारण जैसे नीरद चन्द्र चैधरी रहे हैं, भारतीय संन्दर्भ में किसी त्रासदी के बाद की अनुग्रहराशि को डालर में बदल कर पेश करते थे। कहते कुछ नहीं, पर इशारा यह होता कि भारत में आदमी की जान की कीमत यह है। इसकी ध्वनि अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर किसी भारतीय की गरिमा, अस्मिता, और उसके प्रति दूसरों के व्यवहार को प्रभावित करता था, इसका ध्यान उन्हें भी न रहा होगा, क्योंकि वह भारत से और हिन्दुत्व से प्रेम करते थे और अपने ढंग से इसकी अधोगति को मुखर करना चाहते थे। इस अपमानजनक मुद्राविनिमय को या ऐसे दूसरे प्रसंगों को जो किसी भारतीय की अस्मिता से जुड़ी हैं, वह दरकिनार भी कर सकते थे, परन्तु तब उनको नोबेल नहीं मिलता। इसके बावजूद ऐसे अवसरो पर नैपाल मुझे सबसे सार्थक लेखक लगते हैं, जब हम अनुग्रह राशि का प्रदर्शन करते हैं और वह भी तब जब वह विगत वर्षों में किसी मृतक को दी गई अनुग्रह राशियों में अल्पतम रही हो। इस पर आगे मुझे कुछ नहीं कहना।

मैं नरेन्द्र मोदी का सबसे बड़ा प्रशंसक हूं और क्यों हूं, इसके कारण मैंने गिनाए हैं। अन्य कारणों में एक यह रहा है कि पहली बार देश और विदेश में बसे भारतीयों को यह बोध हुआ कि हम उतने ही सम्मानित है जितना किसी देश का कोई नागरिक। कोई कहीं संकट में हो, उसे धर्म, जाति, समुदाय निरपेक्ष हो कर बचाने, घर लाने, जहां वे रह गए हैं वहां उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करने का पहली बार गोचर और प्रभावकारी प्रयास मोदी सरकार ने अटल सरकार के टलने के बाद किया जिसका सन्देश अचूक था। परन्तु इस एक घटना ने धोबीपाट दे दिया। प्रधानमंत्री की जानकारी के बाद भी मात्र एक लाख, जो भी तुच्छतम राशि ही ठहरती है। इससे आगे सब कुछ आपके कल्पनाधीन है।

मोदी पर मेरा विश्वास अब भी चुका नहीं है। हम यह अपेक्षा नहीं कर सकते कि सरकार चलाने वाला मेरी अपेक्षा के अनुरूप निर्णय ले, परन्तु हमें जहां लगे कि सरकार का निर्णय गलत है वहां खतरे उठा कर भी अपनी बात कहनी होगी।

खतरे उठाने का जिक्र आते ही मुक्तिबोध के ‘अभिव्यक्ति के खतरे उठाने ही होंगे’, शब्द याद आते हैं। जिन दिनों मुक्तिबोध ने ये पंक्तियां लिखी थी, उन दिनों अभिव्यक्ति पर रोक लगाने वाला एक ही संगठन या आन्दोलन था। सारे वाचाल उसकी सेवा में ही लगे थे इसलिए अपनी व्याख्या में उन दिनों भी दक्षिणपन्थी रुझान का आविष्कार करके मुक्तिबोध की आड़ में उसे कोसते रहे जब उसकी ओर से कोई खतरा था ही नहीं. वह होकर भी न होने जैसा था.पर चुपके चोरी मुक्तिबोध पर यह आरोप भी लगाते रहे कि वह तिलक के लिए गहरा सम्मान रखते थे। अन्तर्मन से वह हिन्दुत्वप्रेमी थे। उनकी ओर ध्यान भी पहली बार चांद का मुंह टेढ़ा है का चयन, संपादन और प्रकाशन व्यवस्था करने वालों ने दिया जिनमें श्रीकान्त वर्मा और अशोक वाजपेयी थे, जिनको और कई गालियां दी जा सकती है परन्तु मार्क्सवादी नहीं कहा जा सकता। इसका मतलब यह नहीं कि उन्होंने मुक्तिबोध को उपयोगी पा कर उनका उस समय उपयोग किया जब मार्क्सवादी उनकी नाना बहानों से उपेक्षा करते रहे।

मैं किसी कवि को उसके विचारों के कारण आदर नहीं देता। विचारों को, वे जो भी हों, खरा मान कर, उन्हें संवेद्य बना कर सर्वगम्य बनाने के लिए अवश्य सम्मान देता हूं जब कि वैचारिक स्तर पर वे अक्सर गुमराह और खतरनाक तक सिद्ध होते हैं।

विषयान्तर हो गया।

कहना यह कि परंपरा, जातीय मूल्य, मुक्तिबोध के लिए शिरोधार्य थे और वामपंथी जबानबन्दी उनको असह्य लगती थी और अभिव्यक्ति का खतरा उन्होंने इसी के विरुद्ध उठाया था और इसके कारण जरठ मार्क्सवादियों के द्वारा उनकी उपेक्षा भी हुई थी जिससे खिन्न होकर उन्होंने ब्रह्मराक्षस जैसी साहसिक कविता लिखी थी जिसका अनर्थ किया गया. वामपंथियों को जब लगा कि दक्षिणपंथी उनको अपनी विरासत से जोड़ रहे हैं तब मुक्तिबोध का अनर्थ करते हुए उनकी क्रांति चेतना का नया व्याख्यान आरम्भ किया परन्तु जब मैंने उनका मूल्यांकन (मुक्तिबोध को समझने की दिशा में एक प्रयत्न, सर्वनाम,१९७४) किया तब तक रामविलास जी से लेकर नामवर जी तक उन्हें हाशिये से बाहर या अस्तित्ववादी कह कर हाशिये पर अर्थात परिशिष्ट में ही स्थान देना चाहते थे.

अतः केवल इस कारण मेरी नज़र में कोई त्याज्य या ग्राह्य नहीं हो जाता कि वह दक्षिणपन्थी है या वामपन्थी . यही कारण है नरेंद्र मोदी से मुझे वह एलर्जी न हुई जिससे मेरे मित्र ग्रस्त थे और आंख मूँद कर ईंट पत्थर जो हाथ आया फ़ेंक रहे थे.

अपने तीन सालों के साहसिकं प्रयोगों में मुझे मोदी ने निराश नहीं किया, परन्तु विदेश प्रस्थान से ठीक पहले गोरक्षा पर उनके निर्णय ने पुनर्विचार के लिए अवश्य विवश किया है. वह आज तो संभव नहीं, कल करेंगे.

Post – 2017-05-30

स्वछता मिशन के सहभागी के रूप में खुले में पेशाब करने वाले लड़कों को मना करने के कारण मारे गए ई-रिक्सा चालक को संवेदना राशि के रूप में मात्र ५०,००० और प्रधान मंत्री की ओर से मात्र १००००० की अनुग्रह राशि को मैं बहुत तुच्छ पाता हूँ. उसके परिवार को ड्यूटी पर मरने वाले किसी कर्मचारी जैसी कोई सुरक्षा तब तक दी जानी चाहिए तब तक उसके बच्चे अपने पांवों पर नहीं खड़े हो जाते.
मैं जो संरक्षण के नए नियम को अपर्याप्त मानता हूँ. सरकार ऐसे प्रतिबन्ध लगाने के साथ गोबर और गोमूत्र से पैदा खाद के महत्त्व को देखते हुए स्वयं वन्ध्या और बूढ़े जानवरों की रक्षा का प्रबंध करे जिससे जानवरों को जिलाने का खर्च जैव खाद से निकल सके. इस योजना को अमल में लाने के लिए जरूरी तयारी के बाद ही ऐसा कदम उठाया जाना चाहिए. मै गाय और भैंस में फर्क करने का भी विरोध करता हूँ.
मुझे ऐसा लगता है की गोरक्षको की राजनीती लोकतंत्र में विफल हो चुके दलों की शह पर हो रहा है, जैसे हाल में भीमसेना, समाजवादी गुंडों के इस्तेमाल से अशांति पैदा करके यह दिखने का प्रयत्न की सबकुछ पहले जैसा ही है.

Post – 2017-05-28

जलवाची शब्द ‘सर,
सर् सर् – हवा या पानी के प्रवाह की ध्वनि का अनुकरण
सर /सल- पानी
सर – प्रवाह, गति
सर – तीर (ध्यान दें तीर भी जलवाची ‘तर’ से जुड़ा है)। २. चुभने वाला
सर / सरोवर – जलाशय
सर – वह दंड जिससे सर बनाया जाता था ।
सरिया – सरदंड की पतला और लंबा
सलाई – पतली तीरी अर्थात् तीली
सार – पानी, निचोड़ > सारांश – निचोड़ बिन्दु, निष्+कर्ष – खींच कर निकाला हुआ, सार सत्य
सीर – मीठा > शीरीं – मधुर, शीरनी – खीर
सीरा/ शीरा – गुड़ या चीनी का गाढ़ा घोल,
सिरा – अन्त
शिर – सर्वोपरि भाग या अंग
सरण – प्रवाह, गति; सरणी – मार्ग; सड़क
सड़न, सड़ना, सड़ांध, सड़ियल, सिड़ी, संडास
सरि (+ता); सरति – प्रवाहित होता है; सरस्वती; सरस्वान
सरकना; सर्पति, सर्प; सरसराहट
सरासर- लगातार
सरपट / सर्राटा – तेज गति
सरीसृप – सांप
सर्ज (वै.)- बाहर निकलना, जैसे सोमलता से पेरकप सोमरस, (सृजामि सोम्यं मधु)।E. Surge, surf, surface, shirk, shrink,
सर्ग (वै.) सर्गप्रतक्त – प्रखर वेग से गतिमान (अत्यो न अज्मन् त्सर्ग प्रतक्त:)।
सर्गतक्त – गमनाय प्रवृत्त:( न वर्तवे प्रसव: सर्गतक्त) ।
सर्तवे (वै.) – मुक्त प्रवाह के लिए (अपो यह्वी: असृजत् सर्तवा ऊ ) ।
सर्पतु – (वै.) प्रसर्पतु, अभिगच्छतु (प्र सोम इन्द्र सर्पतु )।
अतिसर्पति – घुन की तरह प्रवेश कर जाता है (यत् वम्रो अतिसर्पति) ।
सृप्र – क्षिप्र (सृप्रदानू ); सृप्रवन्धुर – झटपट जुत जाने वाला पशु ।
कौरवी प्रभाव में सर > स्र और सर्ज > सृज् बन जाता है जिसके बाद सृजन
सर्जना सिरजने के आशय में प्रयुक्त होकर नई शब्दावली का जनन करता है। ऋ. में भी सृजाति प्रयोग सृजति के आशय में देखने में आता है ।
स्रग – माला
सर्व – समस्त; सब, (तु. सं/ शं – जल > समस्त; समग्र; अर -जल, अरं – सुन्दर, पर्याप्त > E. All; कु – जल > कुल – सकल; अप/ आप – जल > परिआप्त > पर्याप्त आदि )।
शीर्ण – गला हुआ
त्सर (वै) – क्षर (अभित्सरन्ति धेनुभि:; मध्व: क्षरन्ति धीतय:)।
वर्ण विपर्यय रस जिसके साथ भी पानी, गति,
रस -पानी, द्रव, फल का जूस, शीरा (रसगुल्ला, रसमलाई)
रस – आनन्द
रस – कोई भी स्वाद, षट् रस
रस – औषधीय विपाक , २. रसायन, ३. रसोई,
रस – भावानुभूति के रूप, काव्य के नव रस
रसना,
रसा – धरती
रसिक – काव्य मर्मज्ञ, सहृदय
रास – समूह नृत्य, E. Race, rash, rush, ross,
रास – लगाम
रश्मि – किरण
रश्मि -बागडोर, रसरी, रस्सी/ रस्सा
रेसा, रेशम,
रस्म, रसूम
रसति – चलता है; रंहति, रंहा – नदी नाम
रास्ता – जिस पर चला जाता है
राह, राही, राहगीर, रहजन, राहजनी
रिस – हिंसा, वै. रिशाद – हिंसकों का भक्षक, अग्नि
रिस / रीसि > रुष्टता, क्रोध
रिसना – चूना, बहना
रुश् -लाल, रोशनी, रोष, रोशनाई

मैं चाहता हूँ पढ़नेवाले इस खेल में शामिल हों और उन शब्दों और रूपों का सुझाव दें जो मुझसे छूट गए हैं. जैसे मैंने सर के लकारांत रूप को और फारसी, अरबी और अंग्रेजी के प्रतिरूपों को नहीं लिया. कई बार मेरे पाठक ऐसी बातों की और ध्यान दिलाते हैं जो मुझे पहले सूझी ही न थीं. यही हम सभी को बराबरी पर लाता है और मित्र बनाने का अधिकारी भी.

यूरोपीय व्युत्पत्ति पर यह सोच कर झिझकें नहीं कि अमुक की व्युत्पत्ति भिन्न है. यह बात उससे अधिक औचित्य से संस्कृत धातु प्रत्यय पद्धति के विषय में कही जा सकती है. परन्तु पहले किसी ने सोचा ही नही की पूरी की पूरी भाषा अनुनादी स्रोत से विक्सित हो सकती है. वे अधिक से अधिक सर को सर सर ध्वनि का अनुनाद मन कर आगे बढ़ जाते थे जब कि हम पते है की एक नाड से सैकड़ों शब्द और व्यंजनाएँ अधिक स्वाभाविक और तार्किक रूप में विकसित हो रही हैं और अनगिनत ऎसी हैं जिनका हमें ध्यान नहीं.
फ़ारसी प्रतिरूपों को पहचानना आसान है, अरबी शब्दों में ध्वनि और अर्थ की समानता के बाद भी दुविधा बनी रहती है पर यह न भूलें उत्तरी पश्चिम एशिया में २००० इसा पूर्व से इस्लाम के उदय तक ‘आर्य-भाषिओं’ की प्रभावशाली उपस्थिति रही है.

Post – 2017-05-28

“When people tell each other that they believe the same nonsense, a bond is forged between them. The worse the nonsense, the stronger the bond.”John Scales Avery

Post – 2017-05-26

उग रहा देखिए फसिल में फफूंद
जिन्दगी का सिला मिला तो सही
बात का सिलसिला शुरू हो अब
तुमने मुझको बुरा कहा तो सही ।

Post – 2017-05-25

कमजोर गणित है मगर इतना तो पता है
इंसान कोई अपने बराबर नहीं होता।
ख्वाबों के और अपने ही सायों के कुछ करीब
होना तो चाहता है यार पर नहीं होता!

Post – 2017-05-24

शायरी तो न सीख पाया पर
दर्द क्या सीखने से होता है ?

Post – 2017-05-24

कौन कहता है कि तू दफ्न हो गया भगवान!
तेरी बदकारियां जारी हैं तब तलक तू है ।

Post – 2017-05-24

हम भी उसकी गली में रहते थे
वह जमाना था दूसरा कोई।
अब भी उसकी गली में रहते हैं
यह जमाना है दूसरा कोई ।