एक साल पहले तक मैं मानता था कि गोरक्षा अव्यावहारिक है । इसका प्रधान कारण आर्थिक था। आर्थिक या नैतिक दृष्टि से अव्यावहारिक आदर्शों का निर्वाह नहीं हो पाता और इनके साथ जुड़ी भावनाओं के कारण अपराध बोध पैदा होता है। ईसाइयत का आदिम पाप ऐसी ही मूर्खतापूर्ण अवधारणा है । व्यंग यह कि ईसा बिना आदिम पाप के पैदा हो गए,इसका दंड उन्हें यह मिला कि असंख्य ईसाइयों द्वारा पीढ़ी दर पीढ़ी किए जाने वाले पाप को उन्हें खुद झेलना पड़ता है । अव्यावहारिक वर्जना मे वर्जित काम से बच कर रहने वालों को भारी दंड सहना पड़ता है ।
गो प्रजाति की रक्षा अव्यावहारिक इसलिए लगती रही है कि खेती के यन्त्रों के प्रचलन के बाद बछड़ों का कोई उपयोग नहीं रह गया है । उनको पालना असंभव हो चला है । मैने जो गोशालाएं देखीं उनमें गायें और बछिया तो दिखाई दीं पर बड़े बछड़े जो वन्ध्याकरण की जरूरत न होने के कारण सांड़ बनने को विवश हैं, कभी देखने को नहीं मिले । स्वयं योगी जी की गोशाला में मैंने विज्ञापित दृश्यों में, जिनका भावनात्मक उपयोग काफी हुआ है, योगी जी को किसी बैल या साड़ को चारा खिलाते नहीं देखा। यदि उन्होंने उनकी कोई विशेष व्यवस्था की हो तो उसकी भी जानकारी लोगों को मिलनी चाहिए । सामान्य बोध यही कहता हैं कि ऐसा दूसरों से नहीं हो पाता। वे किसी बहाने खरीदारों के हाथ में चले जाते हैं और बेचने वाला संवेदनशील हुआ तो अपराध बोध से ग्रस्त हो कर इसे अपनी चेतना की परिधि से ही निकाल फेकता है। इस पर सोचने से भी बचता है ।
पहले मेरी दृष्टि में ये अव्यावहारिकताएं ही थीं । जहां आर्थिक दृष्टि से दुष्कर व्यवस्था को कानून के बल पर लागू किया जाता है, वहां अपराध और तनाव को बढ़ावा मिलता है ।
कुछ बातें ऐसी हैं जिनको उठाते हुए घबराहट होती है, पर जिनसे अवगत होना बहुत जरूरी है।इन्हें हम अन्त में उठाएंगे। पहले हम इस कटु सत्य को समझें कि असली समस्या गोरक्षा की नहीं गो पालन और गो-प्रबन्धन की है और मुझे लगता है कि इसका सही हल निकाला जा सकता है ।
सबसे पहले हम थारुओं को लें (थारू को संस्कृत प्रभाव में स्थविर बना लिया गया पर थेरी गाथा में पुराना रूप बना रह गया। स्थविर जन भाषा का शब्द नहीं है, असवर्ण संयोग और व की ध्वनि भोजपुरी और अवधा की प्रकृति में नहीं है, जब कि बुद्ध अपने उपदेश जनभाषा में देते थे)। थारू गाय पालते हैं, भैंस नहीं। परम अहिंसक होने के कारण ये गाय का दूध भी नहीं निकालते । मां का दूध उसके बच्चे के लिए है । वे भी बछड़ों का वन्ध्याकरण कराते समय कुछ देर के लिए परमधर्म को भूल जाते होंगे । खैर, वे गायों को उनके गोबर के लिए पालते हैं और यह उनके द्वारा आर्थिक दृष्टि से उपयोगी पाया गया है। अपनी मामूली की जमीन में उनकी उपज काफी उत्साहवर्धक होती है । यहां याद दिला दें कि खाद तैयार करने का उनका तरीका आधुनिक नहीं है ।
हमारे जवान होने के समय तक चरागाह बचे हुए थे। भेंड़ पालने वालों को अपने खेत मे रात भर टिकाने के लिए लोग उनको अपना खाना बनाने का सामान देते थे उनकी लेंड़ी से होने वाली खेत की उर्वरता के बदले में। साल में एक रेवड़ ३६५ खेतों को उर्वर बना सकता है और उससे उर्वरता में आई वृद्धि से ही उसका पालन हो सकता है ।
उन्नत बीजों से किसानों की प्रति एकड़ आय, पहले की तुलना में बढ़ी है फिर भी भारतीय किसान की प्रति एकड़ उपज खेती के उन्नत तरीके अपनाने वाले देशों की तुलना में कम है । उन्नत बीजों को उर्वरक और पानी की इतनी अधिक जरूरत होती है कि बढ़ी उपज का लाभ किसान को नहीं मिल पाता। लंबा समय हुआ जब से भूमि को जैव खाद नहीं मिल पाती इससे भूमि की उर्वरता लगातार घटी है। नये बीजों से उत्पन्न पौधो की कीट प्रतिरोध क्षमता बहुत कम है इसलिए खाद के अतिरिक्त कीटनाशकों का खर्च अतिरिक्त पड़ता है जिससे खाद्यान्नों की पोषकता और स्वाद में कमी आई है और विषाक्तता पैदा हुई है जो अनेक प्राणघाती व्याधियों में वृद्धि का एक कारण है। दूध अनुपूरक आहार है, परन्तु खेती के यंत्र आधारित होने के कारण पशुओं का उपयोग खेती में न रह जाने के कारण किसानों ने गाय भैंस पालना भी कम कर दिया । आज से चालीस पचास साल पहले की सकल पशु संख्या का अनुपात आबादी की तुलना में बहुत नीचे हैं। जिनको आंकड़े सुलभ हैं वे इस पर रोशनी डाल सकते हैं।
यदि पशुओं के गोबर आदि काे आधुनिक तरीके से कंपोस्ट में बदला जाय और उसके साथ ही दूसरे वानस्पतिक व अन्य सड़ने वाले कचरे को भी खाद में बदला जाय तो उर्वरकों पर और सिंचाई पर लागत की कमी से ही इतना लाभ हो सकता है कि पशु दुधारू हो या नहीं उस पर आने वाली लागत से अधिक लाभ उसके गोबर और मूत्र से ही हो सकता है। दूध जब तक मिलता है तब तक वह अतिरिक्त लाभ हुआ ।
कुछ अनुसंगी लाभ हैं जिनकी तरफ हमने ध्यान नहीं दिया । आज कल फसल की कटाई के साथ ही भूसा उड़ा दिया जाता है। इसके बाद खेत को जल्द से जल्द जोत कर मिट्टी को पलटना होता है। पर इस कच्चे भूसे के कारण दीमक तथा दूसरे कीड़ों का खतरा इतना उग्र हो जाता है कि पूरी की पूरी फसल बर्वाद हो जाती है। कीटनाशकों पर अतिरिक्त निर्भरता और उस पर आने वाले खर्च और हमारे खाद्यान्नो की विषाक्तता की वृद्धिही नहीं किसानों की कर्ज पर निर्भरता और भुगतान न हो पाने की दशा में अपमान से बचने के लिए आत्महत्याओं मे हुई वृद्धि के बीच गहरा रिश्ता है जिसका एक कारगर समाधान यन्त्र पर निर्भरता को और उस परआने वाले डीजल, मरम्मत आदि को कम करके किया जा सकता है ।
हम एक एक विरोधाभास की ओर ध्यान दिलाएं । उपज बढ़ाने की मरीचिका में किसान की आय बढ़ने की जगह कुछ घटी है और कृषि उद्योग – ट्रैक्टर आदि यन्त्र बनाने और बेचने वाले लोगों की, उर्वरक कारखानों, उनके वितरकों, खाद्य प्रसाधक उद्योगों, यहां तक कि उसी अनाज को जिसे पैदा करने में किसान को इतनी लागत, श्रम, समय लगाना और फसल की बर्वादी का जोखिम उठाना पड़ता है, उसके खरीद मूल्य से अधिक उस अनाज को पीस कर उसे पैक करके एक गावदी भी उतना और कई बार उससे दूने से अधिक कमा लेता है और उसका शुद्ध लाभ किसान की तुलना में चार गुनी होता है क्योंकि खरीद मूल्य में से किसान की लागत को कम कर दें तो उसका शुद्ध लाभ घोषित क्रय मूल्य के चौथाई और प्राकृतिक आपदाओं को जोड़ दें तो विनाशकारी और आत्महननकारी बन जाता है, जब कि कृषि उद्योग से जुड़े मिलमालिकों, बिचवलियों को कभी कोई खतरा नही उठाना पड़ता और उनका कुछ घंटों का काम, लाभ की तुलना में मशीनरी – पिसाई मिल, पैकिंग की प्रविधि और लागत और बाजार में पहुँचने तक के समय में गुणित और बिभाजित करें तो उद्योग से जुड़े लोगों और विचौलियों की तुलना में सबका पेट भरने के लिए अपनी जान पर खेलनेवाला किसान जान देने पर विवश है. इसका समाधान गोभक्ति में नहीं पशुपालन के आधुनिनकीकरण में है. यदि यह सिद्ध किया जा सके कि पशुपालन अपनी सकल उपयोगिता में आर्थिक दृष्टि से अधिक उपायदेय हैतो इस दमघोटूं नरक से मुक्ति पाई जा सकती है.
जिन बछड़ों का कृषि में उपयोग नहीं रह गया है उनकी पेशीय ऊर्जा का प्रयोग पिसाई, सिंचाई आदि कार्यों में करते हुए बिजली पर निर्भरता से बचा जा सके तो यह एक क्रान्तिकारी कदम होगा.
मुझे मोदी की कल्पनाशक्ति पर अब भी विश्वास है. वह इसका रास्ता निकाल सकते हैं. परन्तु इससे पहले इस कदम को राजशक्ति से अमल में लाने के निर्णय को मैं सही नहीं मानता और यह मेरे अबतक के आकलन में मोदी को भी नए सिरे से आंकने की बाध्यता पैदा करता है. परन्तु उसी व्यक्ति में यह साहस और समझ भी है की वह इस दुष्ट चक्र से देश को बाहर निकाल सके. अंत में जिस विषय पर आना था वह तो रह ही गया .