Post – 2017-06-30

फिर चली बात आज हिन्दू की

“अगला सवाल यह कि, देखो इस बार ईमानदारी से बात करना, वकील की तरह नहीं, तो सवाल यह कि तुमने स्वयं कहा कि वहाँ तुम्हारी मुलाकात कई क्षेत्रों के धुरन्धरों से हुई जो किसी राजनीतिक दल से जुड़े नहीं थे। सब मे एक ही समानता थी और वह था उनका सामाजिक भेदभाव से मुक्त मानवतावादी सरोकार। तुमने यही कहा था न ?”

“तुम्हारी याददाश्त बहुत अच्छी है। आगे बढो !”

“वे सभी लोग एक और बात पर एकराय थे। वह यह कि वे सभी नरेन्द्र मोदी को नापसन्द करते थे। मै गलत तो नही कह रहा ?”

“ठीक कहा, पर अधूरा।”

“पूरा सच क्या है?”

“यह कि वे सभी हिन्दू थे। पर उनकी मानवतावाद की जो परिभाषा थी उसमे हिन्दू को मनुष्य नही माना जाता। वे हिन्दूमुक्त मानवता के समर्थक मानवतावादी थे।”

वह अपनी हंसी रोक न पाया, “हद करते हो यार! यह कहाँ से गढ़ लिया तुमने?”

“गढ़ने की कला मुझे आती ही नहीं। मै सिर्फ़ बयान करना जानता हूं। जो कुछ उनसे जाना उसे बयान कर दिया।”

“मै भी तो सुनू!”

“वे किसी और मनुष्य पर हुए अत्याचार की कहानी तक सुन कर तड़प उठते थे, तड़प में अनुपात तक का ध्यान नहीं रख पाते थे। राई का पहाड़ बनाकर हाहाकार करने लगते थे। छोटी से छोटी दुर्घना पर अब प्रलय आई देखो उसके आसार। अब न संभले तो कब संभलोगे कहते हुए एक दूसरे पर भारी पड़ने के प्रयत्न में यथार्थ पर भारी पड़ जाते थे। फिर भी उनमें से किसी ने कभी किसी हिन्दू की यातना पर आह न भरी थी। उनमें जो कविता कहानी लेख आदि लिख्रना जानते थे उनमें से किसी ने देश-विदेश कहीं भी उनकी यन्त्रणा, अपमान, हत्या और असुरक्षा पर कोई कविता, कहानी, लेख नहीं लिखे थे। कभी कोई वक्तव्य न दिया था। कभी किसी ऐसे आयोजन मे भाग न लिया था जिसमें उनकी त्रासदी पर चर्चा होने का अन्देशा हो। वे बहुत अच्छे लोग थे। ऐसे लोग जो दूसरे समाजों में दिन के उजाले में टार्च लेकर खोजने पर भी दिखाई नहीं देते। सादगी ऐसी कि उस पर मर मिटने को जी करे और फिर भी आप बार बार मरने के लिए जिन्दा रह जायं। इतने उदार, इतने समर्पित कि वे मानवता के हित के लिये सब कुछ त्याग सकते थे, अपना हिन्दुत्व भी। सच कहो तो हिन्दुत्व को सबसे पहले त्यागने को तैयार थे। वे किसी रहस्यमय तरीके से ठीक उसी तत्वज्ञान पर पहुंचे थे जिस पर गुलामों के मालिक अपने गुलामों के बारे में पहुंचे थे।

“तुम्हें याद है, एक बार मैंने बताया था कि वे मानते थे कि गुलामों के आत्मा नहीं होती। उनकी समझ थी, और ध्यान दो कि उन्नीसवीं सदी तक जब वे अपने को वैज्ञानिक युग में पहुंचा बताते थे, यह समझ बनी रही थी, कि जिसके पास आत्मा नहीं होती उसे पीड़ा नहीं होती।

“इनकी समझ कुछ उलटी थी और भारतीय चिन्ताधारा का सार समेटे हुई थी। थी नहीं, है। और वह भी इक्कीसवीं सदी में, जिसमें वे ‘वैज्ञानिक’ शब्द का प्रयोग विराम चिन्हों की तरह करते हैं। तो वे इक्कीसवीं शताब्दी में भी एक रहस्यमय तरीके से वे उस सार तत्व को आत्मसात् किए हुए हैं कि हिन्दू के पास शरीर नहीं होता, होता भी है तो वह उसकी चिंता नहीं करता, क्योंकि वह भ्रम है, माया। उसके पास केवल आत्मा होती है और आत्मा के साथ कुछ भी करो, उसे डुबाओ, सुखाओ, जलाओ, काटो उसका कुछ बिगड़ता नहीं, इस लिए उसे भी किसी चीज से कष्ट हो सकता है यह सोचा ही नहीं जा सकता। इसलिए उन्हें पता ही नहीं था कि कभी किसी हिन्दू पर कुछ बीती भी है। नहीं, यह भी गलत हुआ। कुछ सूचनाएं उन तक पहुंच जाती थीं पर जैसे शरीर के किसी अंग को निर्वेद कर दो तो उसपर कोई चीड़ फाड़ हो भी तो पता नहीं चलता, चेतना में पहुंच नहीं पाता उसी तरह की निर्वेदता उनके मस्तिष्क के उस कोने में पैदा हो चुकी थी जिसमें हिन्दू की पीड़ा दर्ज हो सकती थी। बार बार रगड़ से जैसे चमड़ी में घट्ठे पड़ जाते हैं वैसे ही बार बार असह्य यातना कथाओं को सुनने के बाद दिमाग में भी घट्ठे पड़ जाते हैं। वे ऐसी घटनाओं और यातनाओं की बारम्बारता के कारण उनको चेतनावाह्य मानते थे, परन्तु यदि हिन्दू के अन्याय की काल्पनिक और शरारतन गढ़ी गई कहानी प्रचार का हिस्सा बना दी गई हो तो वे उसे वैदिक काल के शान्तिपाठों और स्वस्तिपाठों के बीच से निकाल कर ध्वनि और दृश्य का संयोजन करते हुए इतिहास की क्रूरतम घटना बना कर इस लिए दुहराते रहते थे कि उसके शोर में दुनिया के सारे हाहाकार डूब जांय।“

“मैं तो पहले से तुम्हारी प्रतिभा का कायल हूं यार, तुम ठान लो तो हाथी के पूंछ को सूंड़ और सूंड़ को पूंछ सिद्ध कर सकते हो, कायल भी हो जाउूंगा, पर बात दिल में उतरेगी नहीं। यह बताओ वह कौन सा जादू है कि दुनिया के, देखो, इस देश के ही नहीं, पूरी दुनिया के लोग, जिसे गलत मानते हैं , उसे तुम सही मानते हो। ऐसा कौन सा जादू हॅ जिसके कारण वे सभी एक नतीजे पर पहुंचे हुए हैं और तुम उनसे उल्टे नतीजे पर?

“तुम तो मुझसे अच्छी तरह जानते हो कि जिसे सभी लोग देखते हैं उसे जो देख नहीं पाता उसको मनोव्याधिग्रस्त माना जाता है। उसका आत्मविश्वास का स्तर इतना उूपर होता है कि सारी दुनिया एक तरफ, वह अकेला दूसरी तरफ और वह भी इस विश्वास के साथ कि सही गलत का मानदंड वह स्वयं है। तुमको मजाक में तो पहले कई बार मनोविक्षिप्त कहा है, पर इस बार पीड़ा के साथ कहता हूं कि तुम्हारे सोचने के तरीके से मुझे तुम्हारे बारे में फिक्र होती है। “

“तुम मेरी चिन्ता न करोगे तो करेगा कौन, पर तुम अपनी चिन्ता नहीं करते इसकी चिन्ता मुझे सताती है। क्या तुम्हें पता नहीं कि ऐसे दौर हौते हैं जिसमें पूरा समाज किसी भावघारा या विचार धारा में या विश्वासधारा में अचेत या मानसिक पंगुता का शिकार हो जाता है। धाराएं दबाव पैदा करती है। विचार नहीं पैदा करतीं, अपितु विचारों को मटियामेट करती हुई आगे बढ़ती हैं, इसलिए मनोरूग्णता का निर्णय जनमत से नहीं होता। यह वह क्षेत्र है जिसमें प्रतिस्पर्धा के बिना भी सर्वोत्तम ही ठहर पाता है। यह सत्य के कैलास के शिखर तक अपनी जान, अपना मनोबल और अपना आत्मविश्वास बचाते हुए उठने की यात्रा है। धारा में बहने के लिए किसी प्रयत्न की आवश्यकता नहीं होती,. केवल कूदना या गिरना ही काफी होता है। बाकी काम धारा का दबाव करता है। विचार अकिंचन दर्भांकुर की तरह धारा के दबाव को सहते हुए अपनी जड़ों पर खड़ा रह पाने के कारण धारा को चीर या बदल देता है। मानाने वालों के साथ जनमत या विश्वास धारा होती है, सोचने वालों के साथ तर्क और विश्वास होता है।

“किसी ने ऐसा कोई तर्क न दिया जो तर्क और प्रमाण पर खरा उतरता, सभी ने फिकरेबाजियां कीं, आलोक को छोड़कर। विचारणीय आपत्ति एकमात्र अनिरुद्ध भाई ने की । उन्होंने कहा, “गुजरात में हर चीज़ का भाव तय है. दो और काम कराओ। ” मैं जानना चाहता था कि यह नरेंद्र मोदी के मुख्यमंत्री बनाने के बाद आरम्भ हुआ, या पहले से था और यदि था तो उसमें कमी आई या वह बनी रही या उसमें बढ़त हुई । उसे पूछ न सका, परन्तु उन्हीं अनिरुद्ध भाई का एक कथन कि उन्होंने गुजरात में सत्रह बड़ी लड़ाइयां लड़ीं और सबमे विजय पाई जिनमें किसानों की सत्तर हज़ार एकड़ जमीन जो अम्बानी को दी गई थी उसे वापस लेना और किसानों में बांटना भी था ।उसे लड़ने की कहानी निर्बल की लड़ाई बलवान से की याद दिलाती है। हारना तूफान को ही है यह कहानी में तय रहता है, जिंदगी में इसे सच बनाने के लिए बहुत कुछ उत्सर्ग करना होता है।

“क्या यह चमत्कार कहीं अन्यत्र संभव है. व्याजनिन्दा और व्याजस्तुति अलंकार नहीं हैं, दमन की स्थिति में सत्य के उद्गार हैं, दमन राजसत्ता ही नहीं करती विचारसत्ता भी कराती है जो दमनकारी होने के कारण वैचारिक हो ही नही सकती. इसे समझो तब कल बातें करेंगे।”

Post – 2017-06-29

देवलोक का भूगोल

‘‘यार तुम खुद बाजी मारने वाले अन्दाज में बात करते हो और दोष मुझे देते हो। यह तो चकल्लस हुआ, चर्चा तो हुई नहीं।’’

जी में आया कहूं शुरुआत ही तुम ऐसी करते हो, फिर सोचा बात तो सचमुच चकल्लस की दिशा में बढ़़ चलेगी। यदि किसी विषय की जिज्ञासा उसके मन में है तो अच्छा है हम उस पर गंभीरता से विचार करें, इसलिए कहा, इसका सीधा उपाय है, तुम जुमले मत उछालो, विषय चुनो और उस पर गंभीरता से चर्चा हो।’’

‘‘विषय एक नहीं तीन तीन हैं जिन पर अपनी समझ और तुम्हारी सोच के बीच की दूरी मुझे परेशान करती है।’’

‘‘तीनों को एक साथ मत उठाओ। एक एक करके बात करें।’’

देवभूमि
‘‘पहला तो तुम्हारी देवभूमि वाले चक्कर से जुड़ा है। तुमने एक बार कहा था, एक छोटे से इलाके में जो पहाडी था और कुरु पांचाल से कहीं पूर्व और उत्तर में था, उसमें जा कर खेती का आरंभ करने वालों ने स्थाई खेती शुरू की। तुमने उसे गंडक से सटे पहाड़ी क्षेत्र से जोड़ा था। फिर कहा, ये लोग जब वहां जम गए और संख्या बढ़ गई तो नीचे उतरे और नदियों के कछारों में खेती आरंभ की। और फिर फैलते हुए कुरुक्षेत्र तक पहुंचे जहा सरस्वती, दृषद्वती और आपया का विस्तृत कछार क्षेत्र था और फिर आगे का विकास हुआ जिसका पहला नागर चरण हड़प्पा सभ्यता है। यह क्या कमाल हुआ कि पूरा पहाड़ी क्षेत्र ही देवभूमि हो गया। कहीं तो कुछ गडबड़ है?’’

‘‘यह उलझन स्वयं मुझे भी थी। खास करके इसलिए कि हम जिस देववाणी की बात करते हैं, वह भी पूरे पहाड़ी क्षेत्र में नहीं बोली जाती थी। वहां उतने प्राचीन काल में दूसरे जन बसे हुए थे जिनकी भाषा बहुत भिन्न थी। इससे पहले एक दो पहाड़ी पर्यटन स्थल देखे थे ’ मसूरी, शिमला, नैनीताल वगैरह उनको देख कर इस ओर ध्यान नहीं गया था परन्तु कौसानी में यह पहेली गणित के सवाल की तरह सिद्ध हो गई।

“देव संज्ञा, मैंने पहले भी कहा है, किसी एक रक्त या भाषाभाषी समुदाय की नहीं थी। यह आग का प्रयोग भूमि की सफाई करने से जुड़़ी संज्ञा थी। वे स्वयं गुहार लगा रहे थे कि यह तरीका तुम भी अपनाओ और इसमें आरंभ से ही दूसरे जन मिलने लगे थे। इसलिए मुझे ऐसा लगता है कि उनकी कृषिविद्या को अपनाने वाले सभी जन उनके तरीके से जहां भी खेती करने लगे उसे देवभूमि मान लिया गया।‘‘

‘‘वह तरीका क्या पहाड़ों पर ही अपनाया गया। उन्होंने मैदान में उतरने के बाद उसे छोड़ दिया ?’’

‘‘वह तरीका पहाड़ों के लिए ही उपयोगी था। उसी पद्धति से पूरे पहाड़ी क्षेत्र में आज तक खेती की जाती है। इसमें ढाल के कारण पहली जरूरत थी कास कंजास जला कर जमीन को समतल करना। यह समतल भूमि सीढीनुमा पट्टियों में ही हो सकती थी। इन पट्टियों को केदार कहते थे। इनमें धान की खेती करते थे। इसलिए बाद में चल कर केदार का अर्थ धान का खेत हो गया। इसकी छोटी छोटी चट्टियों को केदारी कहते रहे होंगे जिससे हमे कियारी शब्द मिला है।

“कियारियों या केदारों की मुख्य समस्या थी पानी के बहाव के समय मिट्टी को बहने से बचाना। इसके लिए मेड़ की जरूरत थी पर मेड़ को भी तोड़ कर पानी निकल सकता था इसलिए उसके उूपर खर या कुश की बाड़ लगाते थे। इससे पानी बहने के बाद भी मिट्टी का बहाव रुक जाता था। पहाड़ी ढलान को साफ करके उसको समतल केदारों की सीढ़ियां बना कर खेती के लिए तैयार करना एक बहुत श्रमसाध्य काम था। इसलिए जिस व्यक्ति ने यह काम किया उसे उस भूमि का सदा के लिए मालिक मान लिया जाता था।

“मैंने पहले कहा है, देवन या बारना का अर्थ जलाना होता है और जमीन की सफाई से लेकर इसे बाद में भी तिनके, कास, घास से मुक्त रखने में आग का ही सहारा था। इसलिए इस विधि से खेती करने वालों को बरम या देउ/देउआ कहा जाता था। देव शब्द अपार्थिव सत्ताओं के लिए प्रयोग में आने लगा। अर्थ का उत्कर्ष तो बरम का भी हुआ जो ब्रह्म तक पहुंचा फिर भी ब्राह्मण मानवीय प्राणियों के लिए अधिक चलन में रहा, देव चलन से हटता गया। देव और ब्राह्मण एक दूसरे के पर्याय थे, इसलिए बाद में जब व्यवस्था बदल गई और ब्राह्मण या देव समाज का तीन वर्णो में विभाजन हो गया और दूसरों के लिए कर्म के अनुसार क्षत्रिय और वैश्य का प्रयोग होने लगा तब भी ब्राह्मण की जातीय स्मृति में यह बात कौंधती रही कि पूरी धरती का स्वामी वह है। उसे यह भी याद था कि वही देव है, या भूदेव है ।

“धरती का अर्थ ही था उर्वरा या कृषि भूमि, या जिससे जीवन का निर्वाह होता है। ये बातें अन्य प्रसंगों में मैं कह आया हूं, पर तुम्हारी खोपड़ी में उतरती ही नहीं। कोसानी की यात्रा में यह पूरा तन्त्र जिस तरह उजागर हुआ वैसा पहले कभी हुआ ही न था। उतरते समय कुश= कांटे जलाने के अभियान में पूरी घाटी धुंए से भरी हुई, देख कर घबराटह हो रही है। जानकारी का कुछ मोल तो चुकाना ही पड़ता है।’’

‘और दूसरी बात यह कि…’’

दूसरी बात आज नहीं, नहीं तो फिर भूल जाओगे। दिमाग में जितना अंट सके उतना ही समेटो। उस पर कल चर्चा करेंगे। हां चलते चलते यह बता दूं कि उस आदिम कृषि के चरण में आदमी ही देवता बन कर पूज्य नहीं रहा, उसके औजार और हथियार तक पूजा पाते रहे और इस तरह हमारी सांस्कृतिक परंपरा मे दस बारह हजार साल की दूरी तय करके भी हमारी अतीतगाथा को जीवन्त बनाए रहे।

“और एक बात और। जिस तरह देवभूमि उस छोटे से क्षेत्र से फैल कर समूचे पहाड़ी क्षेत्र के लिए प्रयोग में आने लगा जिस में उत्तरोत्तर सीढ़ियां बना कर खेती की जाने लगी, उसी तरह लम्बे समय बाद खेती का पहलू ओझल हो जाने के कारण समग्र पर्वतीय क्षेत्र को देवभूमि माना जाने लगा। उसी की देन है कालिदास का ‘अस्त्युत्तरस्यां दिवि देवतात्मा हिमालयो नाम नगाधिराजः’ और हिमालय के पार का स्वर्गलोक जिससे मेघदूत का यात्रापथ इंगित किया गया है।

“इसलिए जो आधुनिक बनने के फैशन में ऐसी रीतियों और प्रचलनों को जो आप की प्रगति और विकास में बाधक नहीं बनते हैं उनको त्यागने की बात करते हैं वे अपने इतिहास का नष्ट करने की बात करते हैं और इसे जानते भी नहीं। परन्तु इसी के साथ निजी संपत्ति की जो कल्पना साकार हुई उसके चलते सामाजिक और आर्थिक परपीड़क व्यवस्थाएं आई। उनकी रक्षा अतीत की रक्षा के नाम पर करने के लिए जो आकुल रहते हैं वे नहीं जानते कि इनके कारण हमारे देश का कितना पतन हुआ और हमारा समाज कितना निःसत्व हुआ है। हमें आगे बढ़ने के लिए इनसे मुक्ति की जरूरत है न कि प्राचीनता के नाम पर इनकी रक्षा की।

Post – 2017-06-29

आंख अपनी है या कि शीशे की
कौन नाजिर है, है नजर किसकी।
मुद्दतों से न नजारा बदला,
जबां वही है, है मगर किसकी।

Post – 2017-06-28

कौसानी देवभूमि में है और अनासक्ति आश्रम देवभूमि में

‘‘कम्युनिस्टों को कोसने के लिए पहाड़ चढ़ने की क्या जरूर थी यार! यह काम तो तुम यहां भी अच्छी तरह कर लेते हो!’’ आज वह अच्छे मूड में था।

‘‘मैं सभी काम अच्छी तरह करता हूं और तुम शिकायत तक अच्छी तरह नहीं कर पाते। मैंने पहाड़ पर चढ़ाई इसलिए की थी कि सोचा था क्या पत्थरों में भी जान फूंकी जा सकती है?“

‘‘और पत्थरों से इतना प्यार हो गया कि दिमाग में काठ पत्थर भर कर नीचे उतरे!’’

मैंने हंस कर उसे दाद दी। वह अपने व्यंग्य को तेज बनाने के लिए अधिक गंभीर हो गया और मुझे आश्चर्य से देखने लगा। मुझे मुस्करता देख कर जमाया, ‘तकलीफ तो बहुत हुई होगी इतना बोझ ढोने में।’’

‘‘तकलीफ तो हुई पर यह जानने के बाद कि देवभूमि में पत्थर नहीं मिलते पत्थरों के बीच से ही वनस्पतियां और वृक्ष उग आते हैं। देवभूमि का अर्थ और उसकी महिमा का पता वहां जा कर ही लगा। पत्थर की तलाश में तो गया भी नहीं था पर सोचा था जड़ीभूत विचारधारा और अश्मीभूत संगठनों से जुड़े लोग तो मिलेंगे ही जिन्हें आदमी बनाने का मौका मिलेगा, परन्तु वहां जो लोग पहुंचे उसका डकिसी का पार्टी या संगठन से जुड़ाव था ही नहीं। अकेली एक सोच वह भी कहीं पीछे दबी हुई कि तुम संतप्त जनों की पीड़ा को अनुभव करते हो? उसे लेकर तुम्हारे मन में व्यग्रता होती है? उस संताप और अन्याय को कम करने के लिए अपने ढंग से कुछ भी करते हो या नहीं। यह मानवतावाद का भी सर्वोत्तम रूप है और मार्क्सवाद का भी सारतत्व। मैंने पूछा भी की इनमें कम्युनिस्ट दलों से जुड़ा कोई व्यक्ति क्यों नहीं, तो सभी मुस्कराने लगे, बोला कोई नहीं, एक ने चुपके से बताया हम चाहते थे जैसे सभी विचारों ले लोग आए हैं, वैसे ही वे भी आएं, परन्तु देवभूमि की कुछ ऐसी माया है कि कठोर दिल और दिमाग के लोग बीच रास्ते से ही लुढ़क कर नीचे चले जाते हैं।

बात मेरी समझ में आगई, तभी तो असुर राक्षसों से घबरा कर देवों ने पहाड़ियों पर शरण ली थी और यहाँ से स्थाई खेती आरम्भ की थी!

वह समझ रहा था मेरा निशाना क्या है. एकाएक ताव खा गया, “देखो तुम पांच दिन में ही वहां से भाग खड़े हुए और मैंने एक महीना कौसानी में बिताया है और टिका भी था अनासक्ति आश्रम में।”

मैंने जोर का ठहाका लगाया, “मैं कहता तो तुम बुरा मानते पर खुद ही मान लिया की तुम्हारा संगठन तुम लोगों को क्या बना देता है। और देखो तुम बीच से नहीं लुढ़के क्योंकि तुम अनासक्ति आश्रम जा रहे थे. अनासक्ति आश्रम में देवभूमि में है यह तो तुम्हे पता ही नहीं था. पता होता तो अपनी ट्रेनिंग के कारण देव नाम सुनते ही भारतभूमि में ही चक्कर खाकर गिर जाते।”

वाक्य पूरा होने पर उसने भी ठहाका लगाया, “आज का दिन तुम्हारा रहा।”

Post – 2017-06-26

बात बेबात

“तुम्हें पढ़ना एक यातना है और सुनना एक सजा!“ मेरा मित्र लंबे समय बाद मिल रहा था।
“आज तक कभी लिखने से कुछ हुआ है! सोचने से अनाज पैदा हो जाता तो हाथ हिलाने की जरूरत नहीं होती। सपने बेचने वाले सुई तक नहीं बेच पाते और सुई बेचने वाले तोपखाना तक बेच लेते हैं। इन सबके लिए काम करना पड़ता है। संगठन बनाना और आंदोलन खड़ा करना होता है। संगठन और आंदोलन शीशमहल में बैठ कर नहीं चलाए जाते।’’

“काफी तैयारी करके आए हो। सूक्तियां भी हाथ चलाने से तो पैदा होतीं नहीं, किसी सोचने वाले से ही उड़ाए होंगे, या मेरी संगत के असर में सोचने भी लगे होगे। बिना सोचे समझे जो काम किए जाते हैं उन्हें यांत्रिक तक नहीं कहा जा सकता, क्योंकि यंत्र भी एक सोच की उपज होता है और उसके पीछे एक व्यवस्था होती है। इसे विस्फोट कहते हैं, उूर्जा का अनियंत्रित उन्मोचन जिसमें ध्वंस अधिक और निर्माण कम होता है और निर्माण भी अपने जोड़ों पर इतना कमजोर होता है कि इसे चलाने के लिए बहुत अधिक ताकत लगानी होती है और इसके बाद भी वह इतना कमजोर होता है कि एक छड़ी की चोट से धराशायी हो जाय । जानते हो लौहदुर्ग प्रतीत होने वाले सोवियत ढांचे का शीराजा जीन्स के धक्के से भहरा गया था और वह भी तब जब साम्यवादी आकर्षण में अमेरिका की एक पीढ़ी ने अभिजात जीवनशैली को छोड़ कर फटे, पुराने, घिसे, पुराने, पैबंद लगे कपड़ों को, अपनी जीवनशैली में उतार लिया था।

“यार मेरी जानकारी कामचलाउू है, हो सकता है मेरा अनुमान सही न हो, पर यदि हो तो साम्यवाद की नासमझी ने साम्यवाद के नाम चर चल रहे एक यातनादायक व्यवस्था के अमानवीय पक्षों को आंखों से ओझल करके उसे इतना आकर्षक बना दिया कि पूंजीवादी व्यवस्था में पैदा हुए तरुणों ने अपनी व्यवस्था के सारे सुखों को भोगते हुए सर्वहारा जीवनशैली अपना कर प्रतीकात्मक विद्रोह किया और पूंजीवाद ने उसी को अपना हथियार बना कर उन पहनावों का विपणन आरंभ कर दिया और उस विपणन ने कम्युनिज्म की चूलेंं हिला दीं।”

चकित मैं भी था और चकित वह भी. न मैंने सोच की इस दिशा में पहला वाक्य, मात्र चमत्कार के लिए, गढ़ते हुए यह सोचा था कि यह इतने गहन विवेचन तक पहुँच जाएगा, न उसने कभी इस नज़रिये से इस समस्या पर विचार किया था.

उसे परेशान देखकर मैंने वातावरण को हल्का बनाने के लिए कहा, ‘यार, तुम कहते थे विचार बंदूक की नली से पैदा होता है, और यह छिपा जाते थे कि बंदूक की नली या तलवार से विचार नहीं गुलामी पैदा होती है. तुमसे अच्छे तो पूँजीवादी हैं जिन्होंने जींस को विचार में बदल कर बंदूक की नली के बल पर स्थापित महाशक्तियों को अपना पालतू बना लिया और फिर भी तुम कहते हो पूँजीवाद संकट के दौर से गुजर रहा है. संकट के दौर से अपनी बारी की प्रतीक्षा किये बिना आ धमकने वाला कम्युनिज्म गुजरा जो गांधीवाद को समझ न सका और उसे कोसता रहा. गांधीवाद क्या है, अपनी जरूरते कम करो, अपनी जरूरत की चीज़ें स्वयं पैदा करो, बाजार बनना और बाजार तलाशना बंद कर दो, पूंजीवाद का संकट वहीं से आरम्भ हो जायेगा. किसी ने समझा इस क्रांतिकारी विचार को?

Post – 2017-06-25

दर्द तो अपना आशियाना है,
वह मिटा गर तो हम रहेंगे कहां?

Post – 2017-06-25

यथार्थवादी साहित्यकार की तलाश

हमने जिस अमानवीय और चेतना को अवसन्न कर देने वाले उदाहरण से अपनी बात आरंभ की वह मात्र किसी व्यक्ति या किसी एक समुदाय तक सीमित नहीं है। सच कहें तो केवल दलितों तक सीमित नहीं है। इसका सबसे बड़ा कारण है भूख और उसकी यातना जो सभी यातनाओं और पीड़ाओं को पार कर जाती है। आज से पचासेक साल पहले की बात है, मैं जमैका में गुलामी की प्रथा पर एक शोध पुस्तक पढ़ रहा था। उसकी कुछ बातें मेरी चेतना में गहरे उतरी रही हैं।

एक था, गुलामों के साथ गोरे मालिकों का व्यवहार और उनके इस व्यवहार के प्रति पूरे यूरोप में निर्वेदता या संवेदनहीनता का आलम। यह इस सीमा तक पहुंचा हुआ था कि हमारे प्रिय कवियों में एक, शायद रिल्के, तक गुलाम व्यापार से जुड़ा था। जब मैं गोरे मालिकों की और गोरी दुनिया की बात कर रहा हूं तो आप में से निन्यानबे प्रतिशत पवित्र आक्रोश से कांप रहे होंगे। पर रंग को हटा दीजिए, यूरोप को हटा दीजिए, तो मालिकों का और उस यातना से सीधे अप्रभावित लोगों का रवैया सभी देशों और समाजों में एक ही रहा है। इसकी याद दिलाने पर शायद एक वाक्य पीछे तक आक्रोश से कांपने वाले लोगों को ग्लानि तक न अनुभव हो।

एक दूसरी बात थी, अधिक काम के लिए कोड़े सहने के बाद भी गुलाम अनमने ढंग से केवल काम करते दीखते थे, क्योंकि उनको अपनी ऊर्जा लंबे समय के लिए बचा कर रखनी होती थी, इसलिए इस यातना के बाद भी उनका उत्पाद उससे कम होता था जो उससे आधे समय में लगन से काम करने के बाद होता, या जितना कुछ देशों में अच्छे माने जाने वाले मालिकों के गुलामों द्वारा उनके सद्भाव के कारण होता था।

तीसरा वे अपमान और क्रोध से जब तब विद्रोह कर देते थे और अपने मालिकों की हत्या करके जंगलों में भाग जाते थे या आत्महत्या के लिए अभक्ष्य (मूल में डर्ट का प्रयोग था जिसका अर्थ आप स्वयं लगाएं) खा लेते थे। भागे हुओं की खोज में कुत्तों और गोली बन्दूक का इस्तेमाल होता और जो पकड़ में आते उनका यातनावध किया जाता।

मैं यातना वध के उस खास तरीके पर ध्यान दिलाने के लिए इस कहानी में उलझ गया जो पेट की आग से पैदा यातना और यातना के दूसरे रूपों को समझने में मदद कर सके। वे उनको सलीब पर कीलों से जड़ देते और उनकी पहुंच से कुछ दूरी पर खाने की कोई चीज रख या लटका देते थे। कीलों की पीर को झेलते हुए वे अपने शरीर और गर्दन को तान कर उस तक पहुंचना चाहते और इस क्रम में उनके ही खिंचाव से उनके शूल का दर्द बढ़ जाता वे तड़पते, परन्तु इसके बाद भी उस टुकड़े तक पहुंच नहीं पाते। इसे देख कर गोरों के बच्चों, स्त्रियों और पुरुषों की भीड़ किलकारियां भरती, सीटियां मारती और तालियां बजाते हुए उछलती। मनुष्य की यातना से बड़ा मनोरंजन भी मनुष्य आज तक नहीं तलाश पाया अन्यथा आपकी फिल्मों में अपराध, उत्पीड़न और यातना के दृश्य कामोत्तेजक दृष्यों से भी अधिक लोकप्रियता न पाते।

भूख की यही आग उन अमानवीय स्थितियों और कार्यों के लिए मनुष्य को बाध्य कर देती है जिनको देखते और जानते हुए हम इतने उदासीन रहते हैं जैसे यह हमारे समाज का सच न हो और यदि समाज को एक महाकार काया के रूप में कल्पित करें तो हमारी काया का एक प्रधान अंग हमारी अपनी दुरावस्था के कारण गलित है। कहें पुरुष सूक्त के पुरुष का एक अंग गलित है।

यातना और अमानवीकरण का एक रूप नहीं है।

पुरानी भारतीय सामन्ती व्यवस्था में अमानवीकरण कभी इतना गर्हित नहीं था जितना मध्यकाल में हो गया, मध्यकाल में इतना गर्हित नहीं था जितना आधुनिक काल में हो गया और हो इसलिए गया कि मालिक और भृत्य या मिल्कियत बन कर जीने वाले प्राणी के बीच मध्यकालीन सामाजिक संबंधों को बनाए रखा गया। जब कि पहले की व्यवस्थाओं में समस्त अच्छी बातों और ऊंचे आदर्शें के बाद मानव गरिमा का दिखावा मात्र था, उसका निर्वाह संभव नहीं था या दुष्कर था। पर उतना था तो। मेरी मां आदि जिन चमारों से कोई संबन्ध था उनका नाम लेते हुए उन्हें महरा, पानी भरने वाले कंहार और नाई को राउत, और उनकी पत्नियों को और धोबिन को रउतानी आदि संबोधनों से पुकारतीं। भंगी का तो चलन ही न था पुरानी व्यवस्था में। ये राउत, महतो, महरा आदि उपाधियां नकली न थीं, उनकी अपनी पंचायतों में चुने जाने वाले प्रधानों आदि के पदनाम थे जिसका सम्मान पुरुषों में तो न रह गया था, महिलाओं में बचा हुआ था। संभव है नई पीढ़ी में वह भी समाप्त हो गया हो। आधुनिक यन्त्रयुग में समस्त मानवता की गरिमा की रक्षा संभव है परन्तु यन्त्र के मामले में अत्याधुनिक और सामाजिक संबंधों में मध्यकालीन संवेदनहीनता के कारण स्वामी और भृत्य में आज भृत्य को मनुष्य नहीं समझा जाता, अतः उसके मामले में मानव गरिमा का प्रश्न ही विचार सीमा में नहीं आता।

यदि अन्य किसी बात के लिए नहीं तो इस बात के लिए ही या तो साम्यवादी व्यवस्था आए या ऐसा तन्त्र विकसित हो जैसा पश्चिम में इन क्रूरताओं के भीतर से साम्यवाद से आतंकित हो कर कल्याणकारी राज्य की अवधारणा में पैदा हुआ। उनमें वे सारे काम होते हैं जो अविकसित देशों में होते हैं। अमेरिका और यूरोप में साम्यवादी व्यवस्था के प्रति बढ़ते आकर्षण से घबरा कर उन्होंने जो लोककल्याणकारी कदम उठाए उसमें काम के घंटों में कमी, काम की शर्तो का मानवीय अपेक्षाओं के अनुरूप होना, और इसके निर्वाह के लिए गर्हित या हेय समझे जाने वाले कामों में वेतन का स्तर ऐसा होना जिसमें वे अपनी शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास और मनोरंजन का वही स्तर कायम रख सकें जो संभ्रान्त समझे जाने वाले उपक्रमों से जुड़े लोगों को सुलभ है। दूसरे तरीके तो गर्हित थे और उन्होंने साम्यवाद से अपेक्षाकृत अधिक आतंकित अमेरिका में अपने ही युवकों की लतें बिगाड़नेवाली थी. नशाखोरी और मनमानी करने की छूट लो, यह तुम्हारा अधिकार है, पर समानता की बात भूल जाओ . और आज दोनों साथ साथ चल रही हैं।

हमारा लोकतन्त्र तमाम विकृतियों के बाद भी दुनिया के किसी लोकतन्त्र की अपेक्षा अधिक उर्वर है। इसका सबसे प्रधान कारण हमारे मताधिकार की व्याप्ति है जिसके बल पर सही सरोकारों के लिए कोई भी व्यक्ति किसी भी तरह के अन्याय या अमानवीकरण के विरुद्ध जनमत तैयार कर सकता है और सही तरीका अपना कर नैतिक आधार पर और जनमत के बल पर प्रशासन के निर्णयों में बदलाव ला सकता है। हमारे देवलोक निवास का एक लाभ अनिरुद्ध भाई से संपर्क था जिन्होंने गुजरात में अहिंसात्मक तरीके से लोगों को एकजुट करके उनकी शक्ति के बल पर सत्ता को समझा कर ऐसे निर्णयों को बदलवाने में सफलता पाई जिनमें बड़े पूंजीपतियों के पक्ष में लिए गए निर्णय भी थे। वह ऐसे सत्रह फैसलों की बात कर रहे थे और जिस संस्था से जुड़े थे वह कोई बड़ी संस्था भी नहीं। टकराव के रास्ते से अधिक उपयोगी नैतिक दबाव का रास्ता है पर उसके लिए भी जनसमर्थन का दबाव उतना ही जरूरी है जितना उस माग का उचित होना।

टकराव पूरे देश के लिए भी अहितकर है और स्वयं उन सरोकारों के लिए भी क्योंकि हिंसा किसी भी रूप में हो, वह नैतिक औचित्य के अभाव का प्रमाण है और इसके चलते हानि अधिक होती है पर जनसमर्थन भी पूरा नहीं मिल पाता और सफलता भी नाममात्र को मिलती है।
हीरे को तराशने वाले की सांस में उसके अदृश्य कणों का प्रवेश कितना अमानवीय है, उसकी आयु और स्वास्थ्य पर उसका कितना बुरा असर पड़ता है, पर उसका अपना संगठन कितना प्रभावशाली हो सकता है?

हमारे समाज में यातना और गर्हणा के असंख्य रूप हैं। हमारी दृष्टि उधर नहीं जाती। केवल मजदूर और मालिक दिखाई देता है, मुर्दाघर और नरककुंड का वास लिखने वाले हाशिए पर रह जाते हैं क्योंकि संगठनों से उनका सीधा जुड़ाव नहीं। यह अकेली लड़ाई है जिसमें विचारक और रचनाकार उतनी ही बड़ी भूमिका निभा सकते हैं जितना आन्दोलनकारी। बल्कि लेखक अदृश्य रह कर भी आन्दोलनकारियों से अधिक प्रभावकारी सिद्ध हो सकता है।

इस प्रसंग में एक पत्र की याद आगई जो रामवृक्ष बेनीपुरी की राजनीतिक सक्रियता और उनकी रचनाकार की भूमिका की तुलना करते हुए जयप्रकाश जी ने लिखी थी रोचक तुलना हैः
“राजनीति का छिछलापन तो आपके घुटनों तक भी न आता होगा, फिर भी आपका मन उसमें कैसे बसा है, समझ में नहीं आता। मुझे तो खुशी होगी जब आप अपने इष्टदेव की ही उपासना एकाग्रता से करें। आज देश को ऐसी समृद्धि की आवश्यकता है जो जनता के मानसिक मोह को मिटाकर सत्य प्रेरित रजस की ओर धकेल सके। यदि आपकी लेखनी ऐसे साहित्य के निर्माण में लग सके, तो कौन सी राजनीतिक विभूति उसका मुकाबला कर सकती है?”

Post – 2017-06-24

यातना का कारोबार (3)

अब हम दो अन्तर्विरोधों के ऊपर ध्यान दें। आरक्षण की व्यवस्था क्या सोच कर पन्द्ह वर्ष के लिए की गई थी और फिर बाद में उसकी समीक्षा का विधान था?
मैं केवल अंधेरे में तीर मार सकता हूं क्योंकि इस पर जो साहित्य उपलब्ध है उसका भी मैंने अध्ययन नहीं किया। ऐसा लगता है कि यह सोचा गया था कि निःशुक्ल शिक्षा और छात्रवृत्ति आदि की सुविधाओं के चलते अनुसूचित जातियां शिक्षित हो जाएंगी और और इस ,सुविधा का लाभ उठा कर ऐसी स्थिति में आ जाएंगी जिसके बाद किसी विशेष रियायत की आवश्यकता नहीं रहेगी। कारण बाबासाहब के सामने यह बात स्पष्ट थी कि आर्थिक रियायतों से व्यक्ति की सामाजिक हैसियत नहीं सुधारी जा सकती। चेतना के स्तर पर यह सामाजिक दंश बना रहेगा और इससे सबसे अधिक मर्माहत वे प्रतिभाशाली अनुसूचित जन होंगे जो प्रतिभा में अपनी समकक्षता नहीं रखते। इसे हम बाबासाहब के अपने अनुभवोंच का विस्तार कर सकते हैं। यदि उन्होंने ब्रितानी कूटनीति का हिस्सा बन कर सुविधाएं प्राप्त करते हुए अपना स्थान न बनाया होता, अपनी तेजस्विता और दलितों को संगठित करने के बाद एक जननायक के रूप में उभरे होते तो शायद उनकी तेजस्विता के अनुरूप सामाजिक प्रतिष्ठा मिली होती।

यह एक कपोकल्पना मानी जा सकती है, परन्तु वास्तविक स्थिति यह है कि आज सत्तर साल के बाद भी अनुसूचित जनों के लिए आरक्षित कोटा पूरा नहीं हो पाता।

यदि आरक्षण की सुविधा के बल पर आर्थिक दृष्टि से अंगे बढ़े परिवारों को उसका लाभ उठाने से वंचित कर दें तो यह रिक्तता और भी बढ़ जाएगी। इसके विपरीत यदि पदोन्नति में आरक्षण का लाभ हटा दिया जाय तो अपनी वरिष्ठता के बल पर दूसरों की तरह अनुसूचित जनों को भी इसका लाभ मिलेगा जब कि इस सुविधा के कारण अपने सहयोगियों की तुलना में पर्याप्त योग्यता और समान अनुभव के बिना भी किसी के अपने से मेधावी सहकर्मियों का अधिकारी बन जाना, प्रशासनिक दृष्टि से कुफलदायी है। यह अनुसूचित जनों में अतिशय मुखर और राजनीतिक गणित को प्रभावित करने वालों के डर से जारी रखा जाने वाला, परन्तु प्रशासनिक दक्षता और सुचारुता के लिए घातक कदम है, यद्यपि हम प्रशासन तन्त्र में आई निरन्तर गिरावट के लिए इसे ही प्रमुख कारण नहीं मान सकते।

परन्तु मेरी चर्चा के केन्द्र में आरक्षण नहीं है। प्रश्न यह है कि क्या आरक्षण सामाजिक अधोगति का उपचार है? क्या उसका कोई समाधान हमारे समाजशास्त्रियों या दलित चिन्तकों के पास है। उनकी सारी चिंता और सारा संघर्ष आरक्षण तक सीमित क्यों हो जाता है जब कि जमीनी हाल यह है कि आरक्षण के सत्तर सालों के बाद भी गन्दे परनाले में बिना किसी तैयारी के उतरने वाले की दशा में सुधार नहीं आया. यह सिलसिला हज़ार साल तक चलता रहे तो क्या आ सकता है? इससे भी बड़ा सवाल वह ठेकेदार जो निश्चय ही वाल्मीकि समुदाय का नहीं होगा, और यदि हो भी तो, सफाई करने वालों और प्रशासन के बीच कहा से उपस्थित हो गया? क्यों?

जो व्यक्ति सरकारी सेवा में रहते हुए बीस हजार मासिक कमा सकता था, उसे उसी काम के लिए पांच हजार में करने को बाध्य कैसे और किन परिस्थितियों में किया गया।

उसी दलित समाज की यातना का आर्तगान करते हुए उसकी पीढ़ा का निर्यात करने वाला और उसकी अधोगति का विपणन करने वाला यह सुशिक्षित बिचौलिया कहां से पैदा हो गया? मनुस्मृति से तो निश्चय ही नहीं. परिस्थितियां जो भी रही हो अपनी असाधारण प्रतिभा के बल पर दहाड़ने वाली भाषा पर उसने भी अधिकार पा लिया और जिनकी भाषा थी उनका काम करने लगा क्योंकि वह छलांग लगाकर उसी के पास पहुंचना चाहता है ।
जिस राम इक़बाल का हम जिक्र कर आये हैं उसने अपने दो पोतों को मेरे सटे मकान में अंग्रेजी माध्यम की दुकान चलाने वाले के यहां भर्ती करा रखा था. मैंने पूछा, ‘क्या यह तुमसे भी फ़ीस लेता है?”
बोला, “दो सौ रूपये महीना।”
मैंने इसपर खिन्नता प्रकट की तो हंसने लगा, “वह चार सौ लेता है तो मैं आठ सौ वसूल कर लेता हूँ.” मुझे हैरानी हुई तो बताया उसकी नाली में बोरी ठूंस देता हूँ सीवर लाइन चालू करने के लिए उसे एक के दो देने पड़ते हैं।”

मैं यह कहना चाहता था की दहाड़ने वाली भाषा की लालसा उनमें भी प्रबल है, ऊपर आने की छटपटाहट किसी से कम नहीं, कुछ अधिक ही है। यह भाषा महत्वाकांक्षाएं उत्तेजित करती है नैतिक विवेक नहीं पैदा करती. यह दलाल पैदा करनेवाली भाषा है और जब तक इसका वर्चस्व रहेगा दलालों की अनगिनत जमातें राज करेंगी और काम करने वालों को नाली में इसी तरह उतरना होगा.

हम जिस कटु सचाई पर आना चाहते थे और डर रहे थे की इसका गलत अर्थ लगाया जा सकता है वह यह की लम्बी दासता के बाद मनुष्य हो या जानवर, स्वतंत्रता की मनमानी छूट तो पाना चाहता है पर इसका दायित्व भूल जाता है. उसमे पहल का अभाव होता है. पहल के अभाव में जड़ता बढ़ती जाती है. दायित्व भूलने के साथ वह भार बन जाता है.
अनुसूचित वर्ग को और विशेषतः सफाई के काम से जुड़े कर्मचारियों में जो निकम्मापन बढ़ा वैसा ही निकम्मापन अमेरिका के दासता से मुक्त हुए लोगों में भी सुनने को मिलता है. अपने यहाँ तो मैंने यह देखा है की सफाई में ढील और यदि किसी ने इस पर सख्ती बरती तो उसे जातिसूचक अपमान के धौस में रखना आम बात है. म्युनिस्पैलिटी में नालों की सफाई आधी अधूरी और कचरा निकाल कर उसी के बाहर जो बरसात के साथ लौट कर फिर उसी नाले में. हर साल जलनिकास के मार्ग रुंधे रहने के कारण भारी बरसात के साथ सड़कें नदियों में बदल जाती हैं. ठेकेदारी प्रथा, सरकारी विभागों का निजीकरण या उनमे निजी कंनियों का प्रवेश. बिजली, टेलीफोन, यातायात आदि में निजीकरण का विस्तार, अभी हाल में कुछ स्टेशनो को निजी हाथों में सौपना, घाटे में चल रही एयर इंडिया का निजी कारण निकम्मापन और व्यापक भ्रष्टाचार की देन हैं. शिक्षा में निजी स्कूलों की बाढ़ अंग्रेजी के दहाड़नेवाली भाषा बन जाने का, सरकारी स्कूलों के शिक्षकों के पतन की दें है. आश्चर्य यह कि समस्त सुरक्षाओं और दुविधाओं के होने के कारण जो लोग काम नहीं करते, वे ही उससे बहुत कम पाने के बाद भी अधिक मुस्तैदी से काम करने को तैयार हो जाते हैं, कार्यनिष्ठा व्यक्ति का सबसे बड़ा कवच है यह तो विश्विद्यालयों के अध्यापक तक भूल गए हैं.

Post – 2017-06-23

सच का सामना

हमने कल की पोस्ट अधूरी छोड़ दी। उसी क्रम में उस सच को बयान नहीं किया जा सकता था जिसके बिना यह चर्चा व्यर्थ है। सच का सामना करना सामान्य स्थितियों में भी आसान नहीं होता। जो बहुत सुलझे और बेदाग किस्म के लोग हैं वे भी ऐसा नहीं कर पाते अप्रिय कथन से बचने के लिए वे चुप लगा जाते है या पीछे हट जाते हैं। उन्हें सच से अधिक इस बात की चिंता होती है उस व्यक्ति पर क्या बीतेगी जो झूठ या पाखंड या बड़बोलेपन का सहारा लेता आया है और यह विश्वास पाले हुआ है की दूसरों को उसके छद्म का पता न चलेगा। ऐसी स्थितियां भी होती हैं जिसमे दूसरा व्यक्ति पाखंडी नहीं होता असावधान होता है. उसे स्मरण दिलाया जाय तो उपकृत अनुभव करे, अति सज्जन लोग इसमें भी साफगोई से काम नहीं ले पाते. मैं प्रयत्न करता हूं कि इसे हास्य में बदल कर स्मरण दिला दूँ जिससे वह अपनी भूल सुधार ले, या उसकी असलियत उजागर हो जाय. परन्तु अनेक स्थितियों में मुझसे भी यह संभव नहीं हो पाता . यदि हो पाता तो वहीं, उसी हॉल में, भाषणबाजी और फोटोग्राफी के आयोजन को दिखाते हुए यह भी पूछता की इन दुखियारों को यहां तक क्यों बुलाया था. इनको राहत दिलाने के लिए या अपराधियों को दण्डित करने या बाध्य करने के लिए आपके पास कोई योजना है? नहीं तो इस पर आपने उपस्थित लोगों से पूछा की अब हमें क्या करना चाहिए? यह आशंका भी जताता कि मुझे इससे अमुक की गंध आती है. नहीं कर सका। ये सवाल तक इतने साफ़ साफ इस मौके पर नही सूझे. हम इच्छाशक्ति रहते हुए भी आवेग, अपनापन या लिहाज के कारण न सचाई को उसकी समग्रता में देख पाते हैं न ही पूरी दृढ़ता और सहस से उसका सामना कर पाते हैं. कुछ स्थितियां तो ऐसी होती है जिनमें सचाई को केन्द्र में लाना अत्याचारियों का पक्ष लेने जैसा लगता है।

हम जिन सचाइयों की ओर ध्यान दिलाना चाहतें हैं उनमें पहला यह कि पिछड़े हुए समाजों, देशों या तबकों में पिछड़ेपन के अनुपात में ही उसके प्रतिभाशाली और महत्वाकांक्षी लोग अपने को आगे बढ़ाने के लिए अपनो से ही विश्वासघात करते हैं और इस मानी में वे नैतिक दृष्टि से अपने ही समुदाय के पिछड़े लोगों से भी अधिक चरित्रहीन होते हैं. वे उनका अपने हित के लिए इस्तेमाल कर लेते हैं और इसलिए मात्र उस देश, समाज या तबके हा होना इस बात की पूरी गारंटी नहीं देता कि वह उसका सही प्रतिनिधित्व कर सकता है या कर रहा है ! इसे राम इक़बाल से आरम्भ कर के उसी समज के प्रतिभाशाली सुशिक्षितों तक तो दुरवस्था से बाहर आने के बाद भी पीढ़ी दर पीढ़ी उन सुविधाओं को छोड़ना नहीं चाहते और आरक्षण आदि के लाभ को नवोदित वर्णेतर ब्राह्मणों के भीतर रखना चाहते हैं. यह विकृति राजनेताओं में, वे दलित हों या पिछड़े, पारदर्शी और सर्वव्यापी हो जाती है. वे अपने समुदाय के प्रति उतनी ही चिंता प्रकट करते हैं जितनी उनको अपने इस्तेमाल के लिए ज़रूरी मानते हैं.
परन्तु समस्या इससे अधिक जटिल है. उससे भिन्न देश, समाज या तबके का कोई व्यक्ति उसका सही प्रतिनिधित्व कर ही नहीं सकता। वह उसे समझने का दावा करते हुए भी उसकी यातना को समझ ही नहीं सकता. उसमें निस्पृह, त्यागी और निडर नेतृत्व का उभरना एक मात्र विकल्प रह जाता है। परन्तु वह अंग्रेजी के वर्चस्व की स्थिति में संभव नहीं है. यह तभी संभव है जब भाषा की अलंघ्य दीवार बाधक न बने और अधिक से अधिक प्रतिभाशाली युवक बड़ी संख्या में आएं और चेतना का सामान्य स्तर ऊपर उठे. परन्तु इस विषय में शिक्षित दलित समाज की जागरूकता का स्तर बहुत पिछड़ा हुआ है. कही बाबा साहब ने लिख दिया कि अंग्रेजी शेरनी का दूध है उसे पीकर आदमी दहाड़ता है. और मैंने ऐसे बुद्धिजीवियों के लेख पढ़े हैं जो अपने समाज में दहाड़ने वाली भाषा में आरम्भ से शिक्षा के पक्षपाती हैं जब कि उन्हें बोलने और सोचने वाली भाषा के लिए संघर्ष करने की तैयारी करनी चाहिए और दहाड़ने वाली पशु भाषा के बहिष्कार का आंदोलन चलाना चाहिए. समाजिक भेदभाव को समाप्त करने के लिए कृतसंकल्प समुदायों को ब्राह्मणों को और मनु को कोसने की जगह उनसे सीखना चाहिए जैसे पिछड़े देशों को उन्नत देशों की नकल यही करना चाहिए, उनसे सीखना चाहिए. ब्राह्मणों ने अपनी सामाजिक श्रेष्ठता, धन, बाहुबल से प्राप्त नहीं की थी कुछ दूर तक इसका सम्बन्ध संस्कृत को सैद्धन्तिक ज्ञान की भाषा बनाने और इस पर एकाधिकार कायम करने, दूसरों को इससे दूर रखने की योजना से है और इसका उपचार है जिस भाषा तक कम लोगों की पहुँच हो सकती है , उसके वर्चस्व को समाप्त करना. कल तक यह भाषा संस्कृत थी, मध्य काल में फ़ारसी बन गई. आज अंग्रजी है जो बौद्धिक से लेकर सामाजिक पिछड़ेपन के लिए जिम्मेदार है. यह ज्ञान की शक्ति थी पर शूद्रों के पास कौशल था.
ब्राह्मण के वर्चस्व का स्रोत था उसका नैतिक प्राधिकार जिसे उसने अपने को दूसरों से अधिक निस्पृह, अधिक न्यायपरायण, अधिक निडर सिद्ध करके या प्रचारित करके हासिल किया था, इसकी दिशा में मैंने दलितों को ध्यान देते नहीं देखा. जहां तक मनुवाद का प्रश्न है, वह भारतीय संविधान द्वारा व्यर्थ किया जा चुका है और चेतना के स्तर पर यह दलितों में अधिक प्रबल है, सुविधाओं का लाभ उठाकर आगे बढे दलित और पिछड़े अपनी मानसिकता में ब्राह्मणों से भी अधिक वर्चस्ववादी है. वे बोलना सीखने से पहले दहाड़ना सीखना चाहते हैं.
अपूर्ण

Post – 2017-06-22

यातना का कारोबार

बात बीसेक साल पुरानी है। जहां तक याद है लालबहादुर वर्मा ने इतिहासबोध प्रकाशन का आरंभ किया था उसी समय उन्होंने एक मासिक पत्रिका किसी दूसरे नाम से आरंभ की थी और इससे विकासनारायण राय और जेएनयू के के एक अध्यापक भी बहुत उत्साह से जुड़े थे। मैं इसका ग्राहक भी बना था। लालबहादुर वर्मा कुछ भी करें, सोते जागते, उसमें सामाजिक सरोकार न हो तो मान लीजिए यह वर्मा जी का मुखौटा लगाए कोई दूसरा आदमी है। मुझे उनकी राजनीति गलत लगती रही है, उनका यह सरोकार चुंबकीय लगता रहा है खास कर इसलिए कि वह इससे कव्य के रूप में नहीं हब्य के रूप में जुड़ते हैं, जिस पर मैं अपने को उनसे बहुत पीछे पाता हूं। जेएनयू के वह तरुण अध्यापक इसलिए भी बहुत ओजस्वी लगते थे कि वह वाल्मीकि उपाधि लगाने वाले समुदाय से आते थे और उनकी टिप्पणियां सामान्य व्यवहार में इन सेवाओं में लगे लोगों के साथ किस तरह की संवेदनशून्यता से लोग पेश आते हैं, उसको उदाहृत करते हुए समानुभूति और छटपटाहट से भरी लगती थी।

वह उन दिनों बहुत उत्साह से लिख रहे थे और पत्रों पत्रिकाओं में भी उपस्थित रहते थे। उनके लेख तथ्य और प्रमाण और आंकड़ों से पुष्ट होते थे इसलिए उनके लेखों का मैं बहुत प्रशंसक था और कहीं भी दिख जाते तो पढ़ता अवश्य था।

जिस घटना या दुर्घटना का यहां जिक्र कर रहा हूं वह एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना से आहत हो कर संभवतः कंस्टीच्यूशन क्लब के डिप्टी स्पीकर हाल में आयोजित की गई थी। गाजियाबाद में एक मैनहाल में उतरने के बाद एक सफाई कर्मी की मौत हो गई थी। वहां सफाई का काम ठेके पर दिया गया था और ठेकेदार म्युनिस्पैलिटी से तो पूरा पैसा लेता थ, परन्तु अपनी ओर से सफाई कर्मियों को लगा कर उनको मात्र पांच हजार देता था। उस नौजवान की मृत्यु को उसके परिवार की यातना के सिरे से देखें जिसका नौजवान बेटा व्यवस्था की चूक के कारण मारा गया है, जिसे एक तरह से दिहाड़ी या मासिक वेतन पर ठेकेदार ने रखा था, जिसने उसकी मौत के बाद किसी तरह की क्षतिपूर्ति करने का प्रयास नहीं किया, जिसे काम के दौरान मारे जाने के एवज में आजीवन वेतन और ओर उसके बाद उस पर निर्भर जनों में से किसी को नौकरी देने आदि का कोई प्रबन्ध नहीं था। इतना संवेदनशील मुद्दा जिसमें उसके परिजनों को जिनमें उसकी मां भी थी, पत्नी भी रही होगी, उसका ध्यान नहीं, बड़े आदर से बुलाया गया था। मैं यह सोच कर गया था इस पर कोई आन्दोलन खड़ा किया जाएगा, कोई कार्ययोजना बनेगी। यही सोचकर उसके परिजन भी आए होंगे। पर हुआ क्या?

हुआ यह कि मंच से एक प्रभावशाली भाषण दिया गया विदेशों में किस तरह की व्यवस्था है, हमारे यहां यह नहीं है। ऐसा होता तो यह मौत न होती। म्युनिस्पैलिटी सीधे सफाई कर्मियों को नियुक्त करने की जगह यह काम ठेके पर दे रही है, इसमें किस तरह का भ्रष्टाचार है, सफाई कर्मचारी अपने वेतन से कुछ दे नहीं सकता पर ठेकेदार से कमाई हो सकती, इसलिए यह ठेकेदारी प्रथा आरंभ की गई है। देश विदेश के आकड़ों, मानकों और अपने देश में इस बदहाली के ओजस्वी भाषण के बाद फोटों सेशन चला और कार्यक्रम समाप्त। भाषण को भी रेकार्ड किया गया था।

उस अभागे के परिजनों की मुखमुद्रा देख कर ही समझा जा सकता था कि उनके बेटे की मौत पहले एक ठेकेदार के कारण हुई थी और यह दूसरी मौत है जो एक दूसरे ठेकेदार के हाथों हो रही है। मेरे मन में इतनी जुगुप्सा हुई कि उस व्यक्ति को पढ़ना भूल गया, उस पत्रिका को पढ़ना छोड़ दिया। पत्रिका का नाम तक याद न रहा। उसका अपना नाम तक भूल सा गया था इसलिए उसे जेएनयू का अध्यापक कह रहा था, परन्तु इस बीच ही याद आ गया, नाम सुभाष गाताड़े था। था, है नही, वह मेरे लिए उसी दिन हो कर भी न रहा। वे आंकड़े कहां से जुटाए गए थे, यह कार्यक्रम किसलिए आयोजित किया गया था, यह फोटोग्राफी किसे पहुंचाने के लिए की जा रही थी? क्या वह अपनी बिरादरी की यातना को अन्तर्राष्ट्रीय बाजार से मोल वसूलने के लिए एकत्र कर रहा था? कुछ दिनों के बाद अज्ञात कारणों से वर्मा जी का भी मोहभंग हो गया और पत्रिका बंद हो गई!
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