फिर चली बात आज हिन्दू की
“अगला सवाल यह कि, देखो इस बार ईमानदारी से बात करना, वकील की तरह नहीं, तो सवाल यह कि तुमने स्वयं कहा कि वहाँ तुम्हारी मुलाकात कई क्षेत्रों के धुरन्धरों से हुई जो किसी राजनीतिक दल से जुड़े नहीं थे। सब मे एक ही समानता थी और वह था उनका सामाजिक भेदभाव से मुक्त मानवतावादी सरोकार। तुमने यही कहा था न ?”
“तुम्हारी याददाश्त बहुत अच्छी है। आगे बढो !”
“वे सभी लोग एक और बात पर एकराय थे। वह यह कि वे सभी नरेन्द्र मोदी को नापसन्द करते थे। मै गलत तो नही कह रहा ?”
“ठीक कहा, पर अधूरा।”
“पूरा सच क्या है?”
“यह कि वे सभी हिन्दू थे। पर उनकी मानवतावाद की जो परिभाषा थी उसमे हिन्दू को मनुष्य नही माना जाता। वे हिन्दूमुक्त मानवता के समर्थक मानवतावादी थे।”
वह अपनी हंसी रोक न पाया, “हद करते हो यार! यह कहाँ से गढ़ लिया तुमने?”
“गढ़ने की कला मुझे आती ही नहीं। मै सिर्फ़ बयान करना जानता हूं। जो कुछ उनसे जाना उसे बयान कर दिया।”
“मै भी तो सुनू!”
“वे किसी और मनुष्य पर हुए अत्याचार की कहानी तक सुन कर तड़प उठते थे, तड़प में अनुपात तक का ध्यान नहीं रख पाते थे। राई का पहाड़ बनाकर हाहाकार करने लगते थे। छोटी से छोटी दुर्घना पर अब प्रलय आई देखो उसके आसार। अब न संभले तो कब संभलोगे कहते हुए एक दूसरे पर भारी पड़ने के प्रयत्न में यथार्थ पर भारी पड़ जाते थे। फिर भी उनमें से किसी ने कभी किसी हिन्दू की यातना पर आह न भरी थी। उनमें जो कविता कहानी लेख आदि लिख्रना जानते थे उनमें से किसी ने देश-विदेश कहीं भी उनकी यन्त्रणा, अपमान, हत्या और असुरक्षा पर कोई कविता, कहानी, लेख नहीं लिखे थे। कभी कोई वक्तव्य न दिया था। कभी किसी ऐसे आयोजन मे भाग न लिया था जिसमें उनकी त्रासदी पर चर्चा होने का अन्देशा हो। वे बहुत अच्छे लोग थे। ऐसे लोग जो दूसरे समाजों में दिन के उजाले में टार्च लेकर खोजने पर भी दिखाई नहीं देते। सादगी ऐसी कि उस पर मर मिटने को जी करे और फिर भी आप बार बार मरने के लिए जिन्दा रह जायं। इतने उदार, इतने समर्पित कि वे मानवता के हित के लिये सब कुछ त्याग सकते थे, अपना हिन्दुत्व भी। सच कहो तो हिन्दुत्व को सबसे पहले त्यागने को तैयार थे। वे किसी रहस्यमय तरीके से ठीक उसी तत्वज्ञान पर पहुंचे थे जिस पर गुलामों के मालिक अपने गुलामों के बारे में पहुंचे थे।
“तुम्हें याद है, एक बार मैंने बताया था कि वे मानते थे कि गुलामों के आत्मा नहीं होती। उनकी समझ थी, और ध्यान दो कि उन्नीसवीं सदी तक जब वे अपने को वैज्ञानिक युग में पहुंचा बताते थे, यह समझ बनी रही थी, कि जिसके पास आत्मा नहीं होती उसे पीड़ा नहीं होती।
“इनकी समझ कुछ उलटी थी और भारतीय चिन्ताधारा का सार समेटे हुई थी। थी नहीं, है। और वह भी इक्कीसवीं सदी में, जिसमें वे ‘वैज्ञानिक’ शब्द का प्रयोग विराम चिन्हों की तरह करते हैं। तो वे इक्कीसवीं शताब्दी में भी एक रहस्यमय तरीके से वे उस सार तत्व को आत्मसात् किए हुए हैं कि हिन्दू के पास शरीर नहीं होता, होता भी है तो वह उसकी चिंता नहीं करता, क्योंकि वह भ्रम है, माया। उसके पास केवल आत्मा होती है और आत्मा के साथ कुछ भी करो, उसे डुबाओ, सुखाओ, जलाओ, काटो उसका कुछ बिगड़ता नहीं, इस लिए उसे भी किसी चीज से कष्ट हो सकता है यह सोचा ही नहीं जा सकता। इसलिए उन्हें पता ही नहीं था कि कभी किसी हिन्दू पर कुछ बीती भी है। नहीं, यह भी गलत हुआ। कुछ सूचनाएं उन तक पहुंच जाती थीं पर जैसे शरीर के किसी अंग को निर्वेद कर दो तो उसपर कोई चीड़ फाड़ हो भी तो पता नहीं चलता, चेतना में पहुंच नहीं पाता उसी तरह की निर्वेदता उनके मस्तिष्क के उस कोने में पैदा हो चुकी थी जिसमें हिन्दू की पीड़ा दर्ज हो सकती थी। बार बार रगड़ से जैसे चमड़ी में घट्ठे पड़ जाते हैं वैसे ही बार बार असह्य यातना कथाओं को सुनने के बाद दिमाग में भी घट्ठे पड़ जाते हैं। वे ऐसी घटनाओं और यातनाओं की बारम्बारता के कारण उनको चेतनावाह्य मानते थे, परन्तु यदि हिन्दू के अन्याय की काल्पनिक और शरारतन गढ़ी गई कहानी प्रचार का हिस्सा बना दी गई हो तो वे उसे वैदिक काल के शान्तिपाठों और स्वस्तिपाठों के बीच से निकाल कर ध्वनि और दृश्य का संयोजन करते हुए इतिहास की क्रूरतम घटना बना कर इस लिए दुहराते रहते थे कि उसके शोर में दुनिया के सारे हाहाकार डूब जांय।“
“मैं तो पहले से तुम्हारी प्रतिभा का कायल हूं यार, तुम ठान लो तो हाथी के पूंछ को सूंड़ और सूंड़ को पूंछ सिद्ध कर सकते हो, कायल भी हो जाउूंगा, पर बात दिल में उतरेगी नहीं। यह बताओ वह कौन सा जादू है कि दुनिया के, देखो, इस देश के ही नहीं, पूरी दुनिया के लोग, जिसे गलत मानते हैं , उसे तुम सही मानते हो। ऐसा कौन सा जादू हॅ जिसके कारण वे सभी एक नतीजे पर पहुंचे हुए हैं और तुम उनसे उल्टे नतीजे पर?
“तुम तो मुझसे अच्छी तरह जानते हो कि जिसे सभी लोग देखते हैं उसे जो देख नहीं पाता उसको मनोव्याधिग्रस्त माना जाता है। उसका आत्मविश्वास का स्तर इतना उूपर होता है कि सारी दुनिया एक तरफ, वह अकेला दूसरी तरफ और वह भी इस विश्वास के साथ कि सही गलत का मानदंड वह स्वयं है। तुमको मजाक में तो पहले कई बार मनोविक्षिप्त कहा है, पर इस बार पीड़ा के साथ कहता हूं कि तुम्हारे सोचने के तरीके से मुझे तुम्हारे बारे में फिक्र होती है। “
“तुम मेरी चिन्ता न करोगे तो करेगा कौन, पर तुम अपनी चिन्ता नहीं करते इसकी चिन्ता मुझे सताती है। क्या तुम्हें पता नहीं कि ऐसे दौर हौते हैं जिसमें पूरा समाज किसी भावघारा या विचार धारा में या विश्वासधारा में अचेत या मानसिक पंगुता का शिकार हो जाता है। धाराएं दबाव पैदा करती है। विचार नहीं पैदा करतीं, अपितु विचारों को मटियामेट करती हुई आगे बढ़ती हैं, इसलिए मनोरूग्णता का निर्णय जनमत से नहीं होता। यह वह क्षेत्र है जिसमें प्रतिस्पर्धा के बिना भी सर्वोत्तम ही ठहर पाता है। यह सत्य के कैलास के शिखर तक अपनी जान, अपना मनोबल और अपना आत्मविश्वास बचाते हुए उठने की यात्रा है। धारा में बहने के लिए किसी प्रयत्न की आवश्यकता नहीं होती,. केवल कूदना या गिरना ही काफी होता है। बाकी काम धारा का दबाव करता है। विचार अकिंचन दर्भांकुर की तरह धारा के दबाव को सहते हुए अपनी जड़ों पर खड़ा रह पाने के कारण धारा को चीर या बदल देता है। मानाने वालों के साथ जनमत या विश्वास धारा होती है, सोचने वालों के साथ तर्क और विश्वास होता है।
“किसी ने ऐसा कोई तर्क न दिया जो तर्क और प्रमाण पर खरा उतरता, सभी ने फिकरेबाजियां कीं, आलोक को छोड़कर। विचारणीय आपत्ति एकमात्र अनिरुद्ध भाई ने की । उन्होंने कहा, “गुजरात में हर चीज़ का भाव तय है. दो और काम कराओ। ” मैं जानना चाहता था कि यह नरेंद्र मोदी के मुख्यमंत्री बनाने के बाद आरम्भ हुआ, या पहले से था और यदि था तो उसमें कमी आई या वह बनी रही या उसमें बढ़त हुई । उसे पूछ न सका, परन्तु उन्हीं अनिरुद्ध भाई का एक कथन कि उन्होंने गुजरात में सत्रह बड़ी लड़ाइयां लड़ीं और सबमे विजय पाई जिनमें किसानों की सत्तर हज़ार एकड़ जमीन जो अम्बानी को दी गई थी उसे वापस लेना और किसानों में बांटना भी था ।उसे लड़ने की कहानी निर्बल की लड़ाई बलवान से की याद दिलाती है। हारना तूफान को ही है यह कहानी में तय रहता है, जिंदगी में इसे सच बनाने के लिए बहुत कुछ उत्सर्ग करना होता है।
“क्या यह चमत्कार कहीं अन्यत्र संभव है. व्याजनिन्दा और व्याजस्तुति अलंकार नहीं हैं, दमन की स्थिति में सत्य के उद्गार हैं, दमन राजसत्ता ही नहीं करती विचारसत्ता भी कराती है जो दमनकारी होने के कारण वैचारिक हो ही नही सकती. इसे समझो तब कल बातें करेंगे।”