यथार्थवादी साहित्यकार की तलाश
हमने जिस अमानवीय और चेतना को अवसन्न कर देने वाले उदाहरण से अपनी बात आरंभ की वह मात्र किसी व्यक्ति या किसी एक समुदाय तक सीमित नहीं है। सच कहें तो केवल दलितों तक सीमित नहीं है। इसका सबसे बड़ा कारण है भूख और उसकी यातना जो सभी यातनाओं और पीड़ाओं को पार कर जाती है। आज से पचासेक साल पहले की बात है, मैं जमैका में गुलामी की प्रथा पर एक शोध पुस्तक पढ़ रहा था। उसकी कुछ बातें मेरी चेतना में गहरे उतरी रही हैं।
एक था, गुलामों के साथ गोरे मालिकों का व्यवहार और उनके इस व्यवहार के प्रति पूरे यूरोप में निर्वेदता या संवेदनहीनता का आलम। यह इस सीमा तक पहुंचा हुआ था कि हमारे प्रिय कवियों में एक, शायद रिल्के, तक गुलाम व्यापार से जुड़ा था। जब मैं गोरे मालिकों की और गोरी दुनिया की बात कर रहा हूं तो आप में से निन्यानबे प्रतिशत पवित्र आक्रोश से कांप रहे होंगे। पर रंग को हटा दीजिए, यूरोप को हटा दीजिए, तो मालिकों का और उस यातना से सीधे अप्रभावित लोगों का रवैया सभी देशों और समाजों में एक ही रहा है। इसकी याद दिलाने पर शायद एक वाक्य पीछे तक आक्रोश से कांपने वाले लोगों को ग्लानि तक न अनुभव हो।
एक दूसरी बात थी, अधिक काम के लिए कोड़े सहने के बाद भी गुलाम अनमने ढंग से केवल काम करते दीखते थे, क्योंकि उनको अपनी ऊर्जा लंबे समय के लिए बचा कर रखनी होती थी, इसलिए इस यातना के बाद भी उनका उत्पाद उससे कम होता था जो उससे आधे समय में लगन से काम करने के बाद होता, या जितना कुछ देशों में अच्छे माने जाने वाले मालिकों के गुलामों द्वारा उनके सद्भाव के कारण होता था।
तीसरा वे अपमान और क्रोध से जब तब विद्रोह कर देते थे और अपने मालिकों की हत्या करके जंगलों में भाग जाते थे या आत्महत्या के लिए अभक्ष्य (मूल में डर्ट का प्रयोग था जिसका अर्थ आप स्वयं लगाएं) खा लेते थे। भागे हुओं की खोज में कुत्तों और गोली बन्दूक का इस्तेमाल होता और जो पकड़ में आते उनका यातनावध किया जाता।
मैं यातना वध के उस खास तरीके पर ध्यान दिलाने के लिए इस कहानी में उलझ गया जो पेट की आग से पैदा यातना और यातना के दूसरे रूपों को समझने में मदद कर सके। वे उनको सलीब पर कीलों से जड़ देते और उनकी पहुंच से कुछ दूरी पर खाने की कोई चीज रख या लटका देते थे। कीलों की पीर को झेलते हुए वे अपने शरीर और गर्दन को तान कर उस तक पहुंचना चाहते और इस क्रम में उनके ही खिंचाव से उनके शूल का दर्द बढ़ जाता वे तड़पते, परन्तु इसके बाद भी उस टुकड़े तक पहुंच नहीं पाते। इसे देख कर गोरों के बच्चों, स्त्रियों और पुरुषों की भीड़ किलकारियां भरती, सीटियां मारती और तालियां बजाते हुए उछलती। मनुष्य की यातना से बड़ा मनोरंजन भी मनुष्य आज तक नहीं तलाश पाया अन्यथा आपकी फिल्मों में अपराध, उत्पीड़न और यातना के दृश्य कामोत्तेजक दृष्यों से भी अधिक लोकप्रियता न पाते।
भूख की यही आग उन अमानवीय स्थितियों और कार्यों के लिए मनुष्य को बाध्य कर देती है जिनको देखते और जानते हुए हम इतने उदासीन रहते हैं जैसे यह हमारे समाज का सच न हो और यदि समाज को एक महाकार काया के रूप में कल्पित करें तो हमारी काया का एक प्रधान अंग हमारी अपनी दुरावस्था के कारण गलित है। कहें पुरुष सूक्त के पुरुष का एक अंग गलित है।
यातना और अमानवीकरण का एक रूप नहीं है।
पुरानी भारतीय सामन्ती व्यवस्था में अमानवीकरण कभी इतना गर्हित नहीं था जितना मध्यकाल में हो गया, मध्यकाल में इतना गर्हित नहीं था जितना आधुनिक काल में हो गया और हो इसलिए गया कि मालिक और भृत्य या मिल्कियत बन कर जीने वाले प्राणी के बीच मध्यकालीन सामाजिक संबंधों को बनाए रखा गया। जब कि पहले की व्यवस्थाओं में समस्त अच्छी बातों और ऊंचे आदर्शें के बाद मानव गरिमा का दिखावा मात्र था, उसका निर्वाह संभव नहीं था या दुष्कर था। पर उतना था तो। मेरी मां आदि जिन चमारों से कोई संबन्ध था उनका नाम लेते हुए उन्हें महरा, पानी भरने वाले कंहार और नाई को राउत, और उनकी पत्नियों को और धोबिन को रउतानी आदि संबोधनों से पुकारतीं। भंगी का तो चलन ही न था पुरानी व्यवस्था में। ये राउत, महतो, महरा आदि उपाधियां नकली न थीं, उनकी अपनी पंचायतों में चुने जाने वाले प्रधानों आदि के पदनाम थे जिसका सम्मान पुरुषों में तो न रह गया था, महिलाओं में बचा हुआ था। संभव है नई पीढ़ी में वह भी समाप्त हो गया हो। आधुनिक यन्त्रयुग में समस्त मानवता की गरिमा की रक्षा संभव है परन्तु यन्त्र के मामले में अत्याधुनिक और सामाजिक संबंधों में मध्यकालीन संवेदनहीनता के कारण स्वामी और भृत्य में आज भृत्य को मनुष्य नहीं समझा जाता, अतः उसके मामले में मानव गरिमा का प्रश्न ही विचार सीमा में नहीं आता।
यदि अन्य किसी बात के लिए नहीं तो इस बात के लिए ही या तो साम्यवादी व्यवस्था आए या ऐसा तन्त्र विकसित हो जैसा पश्चिम में इन क्रूरताओं के भीतर से साम्यवाद से आतंकित हो कर कल्याणकारी राज्य की अवधारणा में पैदा हुआ। उनमें वे सारे काम होते हैं जो अविकसित देशों में होते हैं। अमेरिका और यूरोप में साम्यवादी व्यवस्था के प्रति बढ़ते आकर्षण से घबरा कर उन्होंने जो लोककल्याणकारी कदम उठाए उसमें काम के घंटों में कमी, काम की शर्तो का मानवीय अपेक्षाओं के अनुरूप होना, और इसके निर्वाह के लिए गर्हित या हेय समझे जाने वाले कामों में वेतन का स्तर ऐसा होना जिसमें वे अपनी शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास और मनोरंजन का वही स्तर कायम रख सकें जो संभ्रान्त समझे जाने वाले उपक्रमों से जुड़े लोगों को सुलभ है। दूसरे तरीके तो गर्हित थे और उन्होंने साम्यवाद से अपेक्षाकृत अधिक आतंकित अमेरिका में अपने ही युवकों की लतें बिगाड़नेवाली थी. नशाखोरी और मनमानी करने की छूट लो, यह तुम्हारा अधिकार है, पर समानता की बात भूल जाओ . और आज दोनों साथ साथ चल रही हैं।
हमारा लोकतन्त्र तमाम विकृतियों के बाद भी दुनिया के किसी लोकतन्त्र की अपेक्षा अधिक उर्वर है। इसका सबसे प्रधान कारण हमारे मताधिकार की व्याप्ति है जिसके बल पर सही सरोकारों के लिए कोई भी व्यक्ति किसी भी तरह के अन्याय या अमानवीकरण के विरुद्ध जनमत तैयार कर सकता है और सही तरीका अपना कर नैतिक आधार पर और जनमत के बल पर प्रशासन के निर्णयों में बदलाव ला सकता है। हमारे देवलोक निवास का एक लाभ अनिरुद्ध भाई से संपर्क था जिन्होंने गुजरात में अहिंसात्मक तरीके से लोगों को एकजुट करके उनकी शक्ति के बल पर सत्ता को समझा कर ऐसे निर्णयों को बदलवाने में सफलता पाई जिनमें बड़े पूंजीपतियों के पक्ष में लिए गए निर्णय भी थे। वह ऐसे सत्रह फैसलों की बात कर रहे थे और जिस संस्था से जुड़े थे वह कोई बड़ी संस्था भी नहीं। टकराव के रास्ते से अधिक उपयोगी नैतिक दबाव का रास्ता है पर उसके लिए भी जनसमर्थन का दबाव उतना ही जरूरी है जितना उस माग का उचित होना।
टकराव पूरे देश के लिए भी अहितकर है और स्वयं उन सरोकारों के लिए भी क्योंकि हिंसा किसी भी रूप में हो, वह नैतिक औचित्य के अभाव का प्रमाण है और इसके चलते हानि अधिक होती है पर जनसमर्थन भी पूरा नहीं मिल पाता और सफलता भी नाममात्र को मिलती है।
हीरे को तराशने वाले की सांस में उसके अदृश्य कणों का प्रवेश कितना अमानवीय है, उसकी आयु और स्वास्थ्य पर उसका कितना बुरा असर पड़ता है, पर उसका अपना संगठन कितना प्रभावशाली हो सकता है?
हमारे समाज में यातना और गर्हणा के असंख्य रूप हैं। हमारी दृष्टि उधर नहीं जाती। केवल मजदूर और मालिक दिखाई देता है, मुर्दाघर और नरककुंड का वास लिखने वाले हाशिए पर रह जाते हैं क्योंकि संगठनों से उनका सीधा जुड़ाव नहीं। यह अकेली लड़ाई है जिसमें विचारक और रचनाकार उतनी ही बड़ी भूमिका निभा सकते हैं जितना आन्दोलनकारी। बल्कि लेखक अदृश्य रह कर भी आन्दोलनकारियों से अधिक प्रभावकारी सिद्ध हो सकता है।
इस प्रसंग में एक पत्र की याद आगई जो रामवृक्ष बेनीपुरी की राजनीतिक सक्रियता और उनकी रचनाकार की भूमिका की तुलना करते हुए जयप्रकाश जी ने लिखी थी रोचक तुलना हैः
“राजनीति का छिछलापन तो आपके घुटनों तक भी न आता होगा, फिर भी आपका मन उसमें कैसे बसा है, समझ में नहीं आता। मुझे तो खुशी होगी जब आप अपने इष्टदेव की ही उपासना एकाग्रता से करें। आज देश को ऐसी समृद्धि की आवश्यकता है जो जनता के मानसिक मोह को मिटाकर सत्य प्रेरित रजस की ओर धकेल सके। यदि आपकी लेखनी ऐसे साहित्य के निर्माण में लग सके, तो कौन सी राजनीतिक विभूति उसका मुकाबला कर सकती है?”