Post – 2019-07-31

छूटा हुआ पन्ना
(2)

परंतु कुरान में ही इस बात के प्रमाण हैं कि इस सिद्धांत से आकर्षित होकर गुलामों के एक छोटे से दल को छोड़कर किसी ने इसे नहीं अपनाया, जब कि इस्लाम ने अपनी झक में असंख्य गुलाम पैदा कियेे और बेचा। बेचने के लिए उनके पास सिर्फ यही माल था।

इसका सबसे बड़ा आकर्षण लूटपाट और मनमानी करने की छूट सिद्ध हुई और हुई लुटेरों के जत्थे के शक्तिशाली होने के साथ उससे भी अधिक अधिक कारगर हथियार अपनी जिंदगी, धन और सम्मान बचाने की चिंता ने ले लिया। दो तरह की दहशत एक मरने के बाद इस्लाम कबूल न करने के कारण जहन्नुम में जाने की, और दूसरी (जो इस कपोल कल्पना के कायल नहीं थे उनमें) मुस्लिम लुटेरों, अपहर्ताओं और दहशतगर्दों की दहशत । इनके साथ दो तरह के प्रलोभन – इस दुनिया में ताकतवर बन जाने के बाद सताने, लूटने, कुछ भी करने काे धार्मिक कर्तव्य की गरिमा मिल जाना जो इन अपराधों से उत्पन्न आत्मग्लानि को कम कर देता है, और इन्हीं की बदौलत यही चीजें जन्नत में बिना किसी अभाव के भोगने का प्रलोभन। पहले के कारण इससे सबसे अधिक आकर्षित आपराधिक प्रवृत्ति के लोग हो सकते थे जब कि सभ्य मनुष्य उनके डर से झुकने को तैयार होता रहा। इस्लाम के विस्तार में ये ही सहायक रहे। नैतिक मर्यादाओं का अपनी सीमा में निर्वाह करने वाले अरब समाज का और उससे आगे दूसरे समाजों का अपराधीकरण इसकी सबसे बड़ी देन है। ज्ञान-विज्ञान, कला, स्वतंत्र चिंतन, और स्वविवेक जैसे मूल्यों का सर्वनाश, उन सब की जगह केवल विश्वास,अंधविश्वास और अंधविश्वासों के बढ़ते दबाव के बीच असहमत होने की सभी संभावनाओं का अंत, यह इस्लाम की देन थी। आत्मरक्षा के तकाजे से इनसे बाहर आने की बाध्यता समय-समय पर पैदा होती रही है परंतु आज भी उसकी आंखें आगे की ओर नहीं, पीछे की ओर लगी हुई हैं। बढ़ना आगे है, देखना पीछे, लड़खड़ा कर गिरने के कारण अनेक हैं – बिन पिए मैं तो गिरा, मैं तो गिरा, मैं तो गिरा, पोथी आपकी सुभान अल्ला।

मुनाफिकून
कुरान में भी उन लोगों का जिक्र है जिनको विवशता में मुसलमान बनना पड़ा था, जो मुसलमान बनना नहीं चाहते थे, मुसलमान बनने के बाद भी अपने रीति-रिवाज, पुरानी मान्यताएं, और पूजा-आराधना छोड़ना नहीं चाहते थे। इन्हें मुनाफिकून कहा जाता था। मुनाफा का जो अर्थ हम जानते हैं उसके अनुसार ये ऐसे लोग थे, जो फायदे के लिए मुसलमान बन गए थे। बताया जाता है कि वे लूटपाट लालच में मुसलमान बने थे। यह इतिहास का उल्टा पाठ है।

सताए हुए लोगों को, विवश लोगों को, जो अपनी मान्यताओं के लिए खतरा उठाने को तैयार थे, जिन्हें लूटपाट में पहले शामिल किया किया ही नहीं गया, जिन पर विश्वास नहीं किया गया, उन बेचारों को मुनाफे के लिए मुसलमान बनना बताया जा रहा है, और लुटेरों को त्यागी सिद्ध किया जा रहा है। इस हिसाब से भारत के सभी लोग जो मध्यकाल के अत्याचार से घबराकर मुसलमान बने, जिनका सर सैयद के समय तक इस्तेमाल तो किया गया, पर जिन पर भरोसा नहीं किया गया, वे लालची और भ्रष्ट हो गए, जबकि लालची और भ्रष्ट वे तब हुए जब अपने उपनाम तक को अपनी पुरानी गरिमा के याद में जीवित रखने के बाद भी, यह भूल गए कि वे क्या थे, कितने मजबूर किए गए थे, पर इसके बाद भी अपने अतीत पर गर्व करते रहे, जिसके कारण उन्होंने अपना उपनाम नहीं छोड़ा, अपनी पुरानी पहचान को बचाने की आखिरी कोशिश की, जो सबसे अधिक कश्मीर में दिखाई देती है।

इस्लामी समानता
हम इस भ्रम को दूर करना चाहते हैं कि इस्लाम की स्थापना सामाजिक विषमता को दूर करने के लिए हुई थी। उसने अपने लिए जिस मूल्य प्रणाली का विकास किया था उसमें यह समानता संगठन की जरूरत के अनुसार स्वतः पैदा हो जाती है। अपराध जगत के लोग अपना धर्म और जाति छोड़कर एक नया भ्रातृभाव अपना लेते हैं। इसके बिना उनका संगठन चल ही नहीं सकता। बाहर के लोगों से उनका वैरभाव रहता है। जिन को लूटना है उनको गर्हित सिद्ध करने के बाद लूटने का जोश भरने वाली नफरत अधिक प्रबल हो जाती है। इसलिए इस्लाम से बाहर के सभी लोग शैतान की जद में थे और आज भी हैं। न तो उनसे भाई चारा संभव था, न ही ऊपरी दिखावे से अधिक अपने भीतर संभव था। अपराधी संगठनों में भी काम को प्रभावी बनाने के लिए बड़े ( निर्णय लेने वाले) और छोटे (निर्णय का पालन करने वाले) का एक अलिखित विधान होता है जिस का उल्लंघन नहीं किया जाता। इस्लाम में भी ऐसा था। यह हिंदुस्तान में आने के बाद वर्णभेद के कारण पैदा नहीं हुआ। इस्लाम में पहले से था। गुलामों के प्रति क्रूरता नहीं की जानी चाहिए, अनाथों और अनाश्रितौं के लिए दया थी, समानता का भाव नहीं था। अपने दास के साथ उसकी पत्नी और बच्चों के साथ, जिस प्रकार की छूट लेने की अनुमति थी, वह समता की परिधि में नहीं आता।

कुरान में इसके समर्थन में संभवतः कोई दूसरा इल्हाम नहीं हुआ या हुआ तो उसे समझने में हमसे भूल हो रही हो सकती है, परंतु जहां अपनी पत्नी को ही पुरुष के समान अधिकार न मिला हो, उसमें पूरे समाज की समानता की बात करना समानता का उपहास करना है। मुहम्मद के विधान के अनुसार मुहाजिर सामाजिक श्रेणी विभाग में सबसे ऊपर आते थे, अंसर उसके बाद, मुनाफिकून इनसे बाद. और जो इन तीनों के रहम पर पलते थे यतीम वे अपने रहीमों की बराबरी में आने की सोच भी नहीं सकते थे।

ऊंच-नीच का यह सवाल मुहम्मद के सामने भी उठा। मुहम्मद ने कहा मेरे बाद जो मेरी जगह लेगा उसकी आज्ञा का पालन कुरैश भी करेंगे, परंतु कुरैशो की बात दूसरे सभी मानेंगे। क्या यह सामाजिक श्रेणी भेद का प्रमाण नहीं है? क्या यह भेद भारत में पहुंचने के बाद पैदा हुआ? सामाजिक स्तरभेद जहां आर्थिक स्तरभेद के समानांतर चलता हो वहां इसका इतिहास, इसको चलाने वाली शक्तियां, सभी एक नई सोच और नई परिभाषा की मांग करते हैं, न कि फतवेबाजी की। फतवेबाजी राजनीतिज्ञों की जरूरत हो सकती है समाज की नहीं। सत्ता पर कब्जा करने वालों की जरूरतें दूसरी होती है, सत्ता के दबाव में जीने वालों की जरूरतें दूसरी होती है, इसीलिए लोकतंत्र को छोड़कर सत्ता की जरूरत समाज की जरूरत नहीं बन पाती. और लोकतंत्र का निर्वाह सत्ता के भूखे लोगों के कारण लोकतंत्र में भी नहीं हो पाता।

इस्लामी आतंक में जीने वाले मुसलमान
आज से 30 साल पहले जब अपने शोधकार्य के सिलसिले में यूनान और एशिया माइनर में अपना समय लगाने वाले गोरखपुर विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग के अध्यक्ष शिवाजी सिंह ने कहा था कुर्द आज भी चोरी-छिपे गायत्री मंत्र का पाठ करते हैं तो मुझे विश्वास नहीं हुआ था। व्यक्ति के रूप में मेरे मन में उनके प्रति सम्मान था, परंतु उनकी सहानुभूति उस संगठन के साथ थी, जिस पर मुझे भरोसा नहीं था। तब तक कुर्दों और यजीदियों के विरुद्ध आतंकी मुसलमानों के अत्याचारों की कहानियां सुनने में नहीं आती थी। बाद में समझ में आया वह गलत नहीं थे, अविश्वसनीय अवश्य थे, और इसके पीछे मार्क्सवादी होने का दावा करने के कारण मेरा दुराग्रह उत्तरदायी था।

परंतु उलट कर देखें अपने विजित साम्राज्य में विजेता इस्लाम रहा या उपेक्षा, बहिष्कार और यातना भोगते हुए भी अपने विश्वास पर टिके रहने वाले जिन्हें पैगन, काफिर आदि कह कर देववादी समाजों के प्रति नफरत पैदा की जाती है।

Post – 2019-07-31

छूटा हुआ पन्ना
(1)

यदि किसी समाज या समुदाय के लोग किसी चीज में आस्था रखते हैं, तो यह नहीं माना जा सकता की वे जिन चीजों में विश्वास करते हैं वे सही हैं।

सही या गलत होने का संख्याबल से कोई संबंध नहीं है।

कहते हैं आइंस्टाइन के विरुद्ध बहुत सारे वैज्ञानिकों ने एक पत्र के माध्यम से दावा किया कि आइंस्टीन का सिद्धांत गलत है तो उनका छोटा सा जवाब था, यदि गलत है तो उसे किसी एक व्यक्ति द्वारा गलत सिद्ध करना ही काफी था, इतने लोगों की जरूरत नहीं थी।

मान्यता का अर्थ है दूसरे लोग जिसको मानते हैं उसे बिना जांचे-परखे मान लेना है। ईश्वर है, भूत प्रेत होते हैं, यह स्थान पवित्र है या मकान भुतहा है, यह दिन अशुभ है जैसे असंख्य विश्वासों और मान्यताओं से हम परिचित हैं। इसके पीछे सचाई नहीं सामूहिक सम्मोहन की भूमिका होती है।

मानने वालों की भावना इतनी प्रबल होती है कि उनके पास इसके सही होने के ऐसे प्रमाण भी होते हैं, जिनका खंडन नहीं किया जा सकता, परंतु उनके विरुद्ध भी प्रमाण प्रमाण होते हैं जिनकी और वे ध्यान नहीं देते।

कोई घटना या कार्य असंभव है, यह जानते हुए भी उसे केव इस मामले में संभव मानने से बहुत से लोगों को आत्मबल मिलता है। हनुमान का चरित्र असंभव घटनाओं का सिलसिला है, हनुमान चालीसा पढ़ने वालों के लिए असंभव होते हुए संभव है और उनका स्मरण करने से हनुमान की महिमा का एक अंश उनमें भी प्रवेश कर जाता है। इच्छित काम सिद्ध हो जाता है। हनुमान की महिमा में विश्वास रखनेवाले हरिवंश राय बच्चन जैसे लोग हुए हैं , काली की महिमा में विश्वास करने वाले गोपीनाथ कविराज जैसे महान पंडित रहें।

जो गलत है या जो हमें गलत लगता है, परंतु इसके बावजूद जिसमें बहुत सारे लोगों की आस्था है, उसके विषय में, असहमति भी, उनकी भावनाओं का सम्मान करते हुए ही प्रगट की जानी चाहिए, तथ्यपरक ढंग से की जानी चाहिए। यह केवल उनकी भावना की रक्षा के लिए जरूरी नहीं है, नम्रता के साथ विचार प्रकट करने पर ही उसका कुछ-न-कुछ असर उन लोगों पर भी होता है जो अंध-श्रद्धा अंध-विश्वास और अंध-आस्था से ग्रस्त होते हैं। हमने इस बात का प्रयत्न किया है कि ऊपर की कसौटी का सम्मान करते हुए अपनी बातें रखूँ , परंतु यह दावा नहीं कर सकता कि इसमें कुछ भी ऐसा नहीं है, जिससे कुछ लोग खिन्नता न अनुभव करें।
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हम इस बात को समय-समय पर दुहराते रहे हैं कि ’मेरी इन बातों को माना न जाए, परखा जाए।…मैं इस्लाम का अधिकारी विद्वान नहीं हूँ। जानकारी परिश्रम करके, कम समय में, जुटाई जा सकती है, परंतु अधिकार लंबे समय तक किसी समस्या के अंतर्विरोधों से जूझते हुए, किसी समाधान पर पहुंचने के बाद ही प्राप्त होता है।’
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अपनी जानकारी के लिए मैने जिन स्रोतों पर निर्भर किया, वे, लगभग सभी, इंटरनेट के माध्यम से ही सुलभ हो सके। इसका एक दुखद पहलू यह था कि कुछ हिंदू और मुसलमान एक दूसरे की आलोचना करते हुए इतने ओछे स्तर पर उतर आते हैं कि लगा, जितने लोग सामुदायिक घृणा के प्रसार में लगे हुए हैं, उनके सक्रिय रहते हैं, आलोचना और विचार को भी प्रहार समझने की भूल तो की ही जा सकती है।

इस प्रसंग में मुझे इस्लामपूर्व के कबीलाई अरब समाज के उन शायरों की याद आती है जो अपने कबीले की शान में कशीदे पढ़ने के साथ दूसरे कबीले को फूहड़ गालियां दिया करते थे। ऐसे लोगों की संख्या फेसबुक पर बहुत बडी है। उन्हें पहली बार इस बात का गर्व होगा कि वे एक ‘महान’ परंपरा के सच्चे वारिस हैं।
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अपने पहले आलेख में मैंने उम्मत के साथ सर्वत्र साहब लगाया था। मुसलमान तो उनके नाम के साथ इतने विशेषणों का प्रयोग करते हैं उनके विचार विशेषणों में ही खो जाते हैं। विशेषण छोटे आदमी को बड़ा और बड़े आदमी को छोटा बनाते हैं। राम, श्रीराम या राजाराम से, गांधी, महात्मा गांधी और गांधी जी से बड़े भी हैं, विशेषण हट जाने के बाद हमारी आत्मा के अधिक निकट भी, अधिक व्यापक भी। यह सोचकर ‘साहब’ विशेषण को हटा दिया।
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विषय इतना विस्तृत है कि हमारे प्रयत्न के बाद भी बहुत से पहलू छूट गए हैं। उन पर विस्तार से लिखने की क्षमता नहीं है उनके विषय में संक्षेप में कुछ टिप्पणियां की जा सकती है।

कुरान
पहली आयत के साथ ही कुरान नीचे उतरा। मुहम्मद का अवतार नहीं हुआ, वे अपने माता पिता की संतान थे। कुरान का हुआ। वह अल्लाह के पास अरबी भाषा में लिखा हुआ पड़ा था। अरबी भाषा में इसलिए कि यदि अरबी में न होता तो अरब के लोग यह नहीं मानते कि अल्लाह ने उनके लिए ही पैगंबर भेजा है। (इसका मतलब है, आरंभ में मुहम्मद केवल अरब कबीलों को एक में जोड़ना और संगठित करना चाहते थे। तरीका बदलने और शक्ति बढ़ने के साथ लक्ष्य में परिवर्तन होता गया।) इसी अरबी कुरान को लेकर जिब्रील सातवें आसमान से उतर सबसे नीचे के आसमान पर आ गए। इस पर महिमा के मंदिर (the ‘Temple of Majesty’) में उसे सँभाल कर रखा और रमजान महीने में शक्ति की रात (लैलातुल क़द्र) में इसकी एक आयत लेकर उतरे। मुहम्मद के इंतकाल से ठीक पहले तक कुरान उतरता रहा। इस तर्क से कुरान का अर्थ वह ग्रंथ नहीं है जिसे हम कुरान के नाम से जानते हैं। जिस ‘क़ुरा’ मूल से यह शब्द निकला है उसका अर्थ होता है (recitation) – वाचन या गायन। अर्थात् जो संकेत मिल रहा है, उसे दुहराना है।

आयत
आयत का शाब्दिक अर्थ संकेत या निशानी है। इल्हाम संकेत के रूप में सुनाई देता था जो घंटी बजने से ले कर सपने में किसी के प्रकट हो कर कुछ कहने या देखने तक किसी रूप में हो सकता था।

हफीज/ हाफिज
कुरान शरीफ पूरा का पूरा कंठस्थ कर जाने वाले को हफीज कहा जाता था। इन्हीं की मदद से कुरान का संकलन हो पाया। मुहम्मद को जो इल्हाम होता था उसे जिस रूप में दूसरों को बताते थे वे याद कर लेते थे और दूसरों को सुनाते थे। इस तरह एक से दूसरे को होते हुए मुहम्मद पर विश्वास करने वालों के बीच इनका प्रचार हो जाता था। कुरान की मौलिकता को सिद्ध करने के लिए यह बताने की कोशिश की जाती है कि मुहम्मद उम्मी या अनपढ़ थे, परंतु कुरान में ऐसे अनेक संकेत पाए जाते हैं जिनसे यह सिद्ध होता है कि वह पढ़ना लिखना जानते थे। फिर भी ऐसा कोई संकेत नहीं है जिससे यह साबित हो कि वह आयतों को लिख लिया करते थे। एक संदर्भ ऐसा मिलता है जिस से लगता है लिखने के लिए पहले एक यहूदी से सहायता लेते थे।

क़ुर्रा
उसके जीवन काल में ही कुरान पढ़ने और इसकी शिक्षा देने वाले लोग थे, जिन्हें क़ुर्रा (Qurra’, or Qur’an Reader) कहा जाता था। फिर भी एक ऐसी पुस्तक जो लगातार उतरती थी चली जा रही थी और अंतिम दिन तक उतरी उसका लिखित या कंठस्थ पाठ किनके पास कितना था, इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। इसलिए जितने मुँह, उतने कुरान। यही कारण था कि इसका मानक पाठ तैयार करने की आवश्यकता अनुभव हुई, फिर भी अरबी कुरान के ही 26 पाठभेद पाए जाते हैं इनमें से 7 को अधिक भरोसे का माना जाता है।[]
[] One of the famous misinformation spread by these scholars is that all the Qurans in the world are identical, and that it is free from any variation.

मान्य पाठों को अधिक समानता रखने के आधार पर तैयार किया गया। इसके बाद भी संपादन के समय एक विषय से संबंधित अलग अलग कालों में उतरी आयतों को एक सूरे के अंतर्गत रखने का प्रयत्न किया गया। घालमेल इतना है कि अनेक आयतों के विषय में यह तय नहीं हो पाता कि वे मक्का में उतरी थी, या मदीने में। इसके बाद भी कुछ विषयों से संबंधित आयतों को इबारत या प्रस्तुति में भिन्नता के साथ अनेक सूरों में दुहराया गया, जैसे जन्नत और दोजख से संबंध रखने वाली आयतें, इब्राहिम से संबंधित आयतें। क्योंकि मुसलमानों को एक बार डरा कर छोड़ा नहीं जा सकता था । जन्नत और जहन्नुम की बार-बार याद दिला कर उनको दहशत में रखना जरूरी था। इसी तरह अपनी स्वीकार्यता के लिए इब्राहिम का सहारा लेना जरूरी था।

एक ही सूरे में आयतों की क्रमसंख्या में भी जहां-तहां अंतर पाया जाता है, फिर भी अधिकांश पाठांतर एक ही आशय के भिन्न शब्दों से संबंध रखते हैं। इनमें भी जहां एकवचन और बहुवचन का अंतर है, वहाँ एकेश्वरवाद और बहुदेववाद का द्वंद्व देखने को मिल सकता है।
(जारी)

Post – 2019-07-28

#हजारी_प्रसाद_द्विवेदी
दबा-पिचका महाकलश

यदि द्विवेदी जी को ऐसा लगा कि नामवर जी उनकी कृति हैं, तो ऐसा कब लग और यह भ्रम उसके बाद भी बना रह गया या नहीं इसके बारे में हमें कोई जा नकारी नहीं। नामवर जी द्विवेदी जी को मिट्टी के लोंदे के रूप में नहीं मिले थे, बने बनाए मिले थे परंतु उस कच्चे बर्तन की तरह जो दबाव और खिंचाव का प्रतिरोध नहीं कर पाता। नामवर जी द्विवेदी जी के संपर्क में दबे भी और वाम वाम वाम दिशा, के प्रलोभन में, या समझ खो कर कि दिशाएं तो चार हैं, सभी का एक दिशा में सिमट जाना सृजन-विरोधी और अनिष्टकारक है, उसके दबाव में आ गए।

इन दिनों अपने को कम्युनिस्ट कहना, बलिदानियों के पथ पर अग्रसर होने का दूसरा नाम था। द्विवेदी जी का वश चलता वह इधर नहीं जाने देते, परंतु द्विवेदी जी में भी एक विद्रोही पलता था। शांतिनिकेतन में जाने के बाद वह विचारों में परंपरावादी, रूढ़िवादी, जातिवादी नहीं रह गए थे, परंतु व्यवहार में इतने समझदार भी थे कि अपनी संतानों का संबंध पुरातन मर्यादाओं के भीतर ही रखा।

जो भी हो, नामवर जी की यह विचलन द्विवेदी जी के लिए स्वीकार्य थी। क्या आपने उसे सूक्ति पर ध्यान दिया है जिसमें कहा गया है, धैर्यवान लोग, अर्थात् मर्यादा का निर्वाह करने वाले लोग, उस मर्यादा से, कुछ इधर उधर तो हो सकते हैं, परंतु अधिक विचलित नहीं हो सकतेः – सत्यात् पथात् प्रविचलंति पदं न धीराः।

द्विवेदी जी मार्क्सवादी नहीं थे, मार्क्सवाद उस दिशा की ओर ले जाता था जिसमें अपने समाज का आत्म निरीक्षण करते हुए इसका नव निर्माण किया जा सकता था। परंतु आयु का भेद छोड़ दें तो यह दो विलक्षण प्रतिभाओं का सानिध्य था, जिसमें दबाव पैदा हुआ और बदलाव दोनों में आए। ये दो महाकलश दो साँचो में ढले थे। एक को शांतिनिकेतन मिला था. परंतु शांति निकेतन के कारण ही वह लोच भी मिली थी, जिसमें प्रतिकूल लगने वाले विचारों के लिए जहां जगह खाली नहीं थी वहां भी कुछ दब-सिकुड़ कर उसके लिए जगह बनाने की उदारता थी।

नामवर जी हजारी प्रसाद द्विवेदी की कृति नहीं थे। परंतु इतने विनम्र अवश्य थे कि यदि पंडित जी यह दावा करते कि यह मेरी कृति है, तो उसका विरोध नहीं कर सकते थे। न ही कभी किया। परंतु यदि कोई याद दिला दे कि आप तो मार्कंडेय सिंह की निर्मिति हैं तो इससे इंकार नहीं कर सकते थे।

द्विवेदी जी की रचनाएं हमारे सामने हैं, उनके माध्यम से ही हम द्विवेदी जी को जानते हैं। मारकंडेय सिंह का लिखा कुछ भी नहीं देखा, नामवर जी के संस्मरणों से ही उन्हें जान पाया। और सुनी सुनाई इबारतों के माध्यम से उन्हें जितना जान पाया, वह हिंदी की महान विभूतियों में से एक थे।

इस बात का निर्णय करने के लिए कि नामवर जी किसकी कृति, किसकी परिष्कृति और किसकी विकृति थे, कुछ और जानकारी चाहिए जो मेरे पास नहीं है। परंतु एक प्रसंग काम चलाऊ धारणा बनाने के लिए पर्याप्त है।

द्विवेदी जी बनारस में नए-नए पधारे थे और अपने ज्ञान और उदार दृष्टि से बनारस के लोगों को मुग्ध कर रहे थे। किसी के आग्रह पर मारकंडेय सिंह भी उनका व्याख्यान सुनने गए। संभवतः अनुरोध नामवर जी का ही था। व्याख्यान सुनने के बाद, मारकंडेय सिंह ने टिप्पणी की थी कि झूमते बहुत हैं।

जिन्होंने नामवर जी को सुना होगा वे इस बात को लक्ष्य करने से नहीं चूके होंगे कि नामवर जी मंच पर कभी अंग चालन का प्रयोग नहीं करते थे। प्रयोग नहीं करते थे यह कहना कंजूसी होगी। इस नियम का निर्वाह उसी तरह करते थे जैसे कोई अपनी भाषा में व्याकरण के नियमों का निर्वाह करे। विचारों की स्पष्टता,, वाक्य विन्यास, शब्द चयन, विषय सीमा के निर्वाह के विषय में मारकंडेय सिंह के निर्देशों ने नामवर जी और केदार जी दोनों को अपनी बात रखने का सलीका सिखाया था।

नामवर जी के अभाव में भी मैं द्विवेदी जी को जान सकता था, परंतु मारकंडे सिंह को नहीं, जिन के विषय में नामवर जी के माध्यम से उपलब्ध सूचनाओं के कारण मैं उनके प्रति नतशिर हो जाता हूं। सिरजनहार पर्दे के पीछे ही रह जाता है। नामवर जी में असाधारण प्रतिभा थी। उसके अभाव में मारकंडेय सिंह भी उन्हें वह आकार नहीं दे सकते थे, अन्यथा उदय प्रताप कॉलेज से निकलने वाली सभी प्रतिभाएं उतनी ही प्रखर होतीं।

गुरु किसी को बनाता नहीं है, उसे उसकी संभावनाओं तक पहुंचने में सेतु का काम करता है। गढ़ता नहीं है, स्पर्श करता है। सही आंच देकर उसे पकाता है। द्विवेदी जी ने उसे सँवारने की कोशिश की, और इस दबाव से सृजित बनने की जगह बिगड़ गया। जो कमी थी उसे मार्क्सवाद ने पूरा कर दिया। इन दोनों के कारण हिंदी जगत को कई तरह के नुकसान भी उठाने पड़े और कुछ राहत भी मिली परंतु सबसे बड़ा नुकसान यह रहा कि वह अपना दिशाबोध ही खो बैठा।

आजकल पुराने मुहावरे का एक नया संस्करण विज्ञापन की दुनिया में आया है, न घर का न टाटा स्काई का। इससे पुराना और पुराने मुहावरे से कुछ नया मुहावरा आया तो था, परंतु उसे किसी ने दोहराया नहीं.मुहावरा घूमता और इस तरह पीसता रहा कि पिसाई के बाद भी पिसान देखने में आया ही नहीं। इसका दूसरा नाम प्रगतिशील आंदोलन है, जिसने अपनी भी दुर्गति की और साहित्य की भी फिर भी चक्की चल रही है। इस दौर की सभी रक्षणीय कृतियाँ उनकी हैं जिन्होने पिसने से इन्कार कर। वाम वाम वाम दिशा लिखने वाले को भी इस नतीजे पर पहुंचना पड़ा कि
हम अपने खयाल को सनम समझे थे।
अपने को खयाल से भी कम समझे थे।
होना ही था, समझना था कहाँ शमशेर
होना भी वह कहाँ था जो हम समझे थे।।

Post – 2019-07-27

#हजारी_प्रसाद_द्विवेदी
मैं नहीं जानता लिखा क्या है!

द्विवेदी जी पर लिखने की न तो कोई योजना थी, न तैयारी, यद्यपि वह उन दो व्यक्तियों में से एक हैं जिनसे मैं निकटता अनुभव करता हूं, जबकि उन दोनों में परस्पर विरोध भाव देखा जाता रहा है और इसके रगड़े में आचार्य शुक्ल ही नहीं, तुलसीदास और कबीर तक आ जाते हैं । विरोध था या दृष्टिकोण की भिन्नता यह नहीं जानता। ये हैं डा. रामविलास शर्मा और पंडित हजारी प्रसाद द्विवेदी। जो लोग आदर वश नाम लेना नहीं चाहते वे डॉक्टर साहब और पंडित जी कह कर काम चलाते हैं।

जैसे, जब नेताजी कहा जाता है, तो दूसरे सभी नेता किनारे डाल दिए जाते हैं, और इसका मतलब सबके लिए सुभाष चंद्र बोस होता है और सोशलिस्टों के लिए राजनारायण, इसी तरह हिंदी में पंडित जी का अर्थ होता है पंडित हजारी प्रसाद द्विवेदी, दूसरे सारे पंडित पीछे हट जाते हैं, वे जाति के पंडित हों या ज्ञान के पंडित हों, इस मामले में दोनों की समझ बराबर पड़ती है, सिवाय माकपा से जुड़े दिल्ली-वासियों के जिनके लिए पंडित जी का मतलब भगवती प्रसाद शर्मा होता है।

इसी तरह से हिंदी में डॉक्टर साहब का मतलब रामविलास शर्मा होता है। साहब हटा देने के बाद विरुद उन लोगों के काम भी आ सकता है जो डॉक्टर हैे ही नहीं – न पशुओं के, न आदमियों के, न किताबियों के- मिसाल के लिए अपना नाम ले तो सकता हूं, परंतु शिष्टाचार का तकाजा है, सो चुप रहना ही अच्छा।

जो भी हो दिवेदी जी अकेले ऐसे रचनाकार हैं जिनसे मुझे असमंजस के क्षणों में दिशा मिली है, इसलिए द्विवेदी जी को समर्पित भाव से याद करता हूँ। रामविलास जी से मेरा संबंध, अपने क्षेत्र में आप या मैं के तनाव से ग्रस्त रहा है, परंतु सभी दृष्टियों से बड़े तो वही थे। दूर से कठोर दीखने वाले रामविलास शर्मा विचारों की दृढ़ता के कारण ऐसे लगते थे। व्यक्ति के रूप में जितना कोमल हृदय उनका था, उसका पता उनसे जुड़े लोगों को ही हो सकता है।

इन दोनों पर लिख पाता तो कृतार्थता अनुभव होती। डॉक्टर साहब को तो अपनी ओर से ही लिखने का वचन भी दिया था, डेढ़ सौ पन्ने लिखे, दूसरे दबाव ऐसे प्रबल हो गए कि वहां से ध्यान हटा तो अब तक उधर गया ही नहीं। द्विवेदी जी पर लिखने के लिए जिस तैयारी की जरूरत थी वह तैयारी मैं कर ही नहीं सका।

प्रयाग से द्विवेदी जी पर निकलने वाले एक विशेषांक के संपादक ने आग्रह किया तो सहमत हो गया और उनका अंक मेरे कारण रुका न रह जाए इसलिए टुकड़ों में लिखकर पूरा करना चाहता हूं। आज की कड़ी को अंतिम कड़ी बनाना चाहता था। बन न पाएगा इसके लक्षण अभी से दिखाई देने लगे हैं।

संपादक को यह अच्छा न लगेगा कि कोई लेख उसके अंक में प्रकाशित होने से पहले ही लोगों की जानकारी में आ जाए। परंतु आदतें बदलती हैं तो पुरानी यादें छूटती भी हैं। उन पर लौटना मुश्किल होता है। जब हाथ से लिखता था, तो यह सोचकर कि मनहर चौहान टाइपराइटर पर सीधे लिखते हैं, हैरानी होती थी। सुनता था जैनेंद्र जी अपनी रचनाएं बोल कर लिखाया करते हैं तो हैरानी होती थी।

उन दिनों आसमान की छत के नीचे रहने वाले मुझ जैसे व्यक्ति को जीविका के लिए अपने वांछित क्षेत्र में पसीना बहाने की, जगह, अनुवाद करना पड़ता था। प्रति लिखित नहीं टंकित ही देनी होगी यह नियम था। टाइपिस्टों की गलतियां सुधारने में उतनी ही मेहनत लगती थी जितनी वाणीलेखन की सुविधा उठाने के बाद संशोधन में लगती है।

तंग आकर, हो सकता है टाइप का खर्चा बचाने के लिए भी 63-64 में टाइपराइटर पर काम करना शुरू किया तो कुछ दिनों तक परेशानी झेलनी बड़ी, महीने 2 महीने के बाद हाथ से लिखने पर अनुवाद सँभल ही न पाए, टाइपराइटर पर काम आसान होने लगा। फिर पचीस एक साल बाद वर्ड में काम करना शुरू हुआ तो टाइपराइटर पर लिख ही नहीं सकता था। माइक्रोसॉफ्ट इंटरनेट के बाद भी सुविधाएं मिलीं तो आखिरी मंजिल फेसबुक बन गया। यदि सोचना और लिखना है तो इसी पर संभव है अन्यथा लिख ही नहीं सकता। यही मेरी पटरी और कलम बन गया है। यदि संपादक मेरे फेसबुक पर नजर डालते हैं तो मेरी लाचारी को समझ कर इस मित्र मंडली के बीच पढ़ने सुनाने की सीमा को समझ पाएंगे।

हम स्वयं नहीं लिखते हैं बहुत सी चीजें एक साथ होती हैं जिनमें कुछ लिखा जाता है। जगह बदलने पर, मेज कुर्सी बदलने पर, लिखने के साधन बदलने पर बदली परिस्थिति से समायोजित होने से पहले तक हमारा लिखना स्थगित या कामचलाऊ बना रहता है।

मेरे साथ एक और दिक्कत है, जिस विषय पर लिख रहा हूँ किसी कारण से उससे हटने के बाद, वापस लौटना बहुत कठिन हो जाता है। परंतु फेसबुक पर लिखने का एक और नुकसान भी है। बीच में आने वाली प्रतिक्रियाएं और अपेक्षाएं पहले से सोची हुई योजना को किसी न किसी अनुपात में बदल देती हैं। मैं एक रचनाकार के रूप में द्विवेदी जी पर यह अंतिम कड़ी लिखना चाहता था। बीच में कुछ सवाल उठाए गए, उनका समाधान भी जरूरी लगता है। यद्यपि इसके कारण जो लिखना था, उसके लिए जगह कम पड़ जाएगी, या बचेगी ही नहीं, यह संकट मंडरा रहा है।

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संभवतः विद्यानिवास जी ने एक बार, जब द्विवेदी जी से पूछा, “आपकी नजर में आप की सर्वश्रेष्ठ रचना कौन सी है?” तो उन्होंने नामवर जी का नाम लिया था। परंतु यदि नामवर जी सचमुच उनकी रचना थे तो वह रचना उनकी सबसे कमजोर रचना है, कमजोर भी नहीं, अधूरी!

रामविलास जी की कठोरता की तरह नामवर जी की अक्खड़ता पर जिन लोगों का ध्यान गया होगा वे यह समझ ही नहीं सकते ज्ञान के क्षेत्र में नामवर जी कितने विनम्र थे। वैसी विनम्रता मेरी आकांक्षा तो है परंतु उपलब्धि नहीं। जिस तीसरे व्यक्ति के सम्मुख विनत अनुभव करता हूं वह नामवर जी ही हैं, अपनी समस्त सीमाओं के बावजूद, अपने समस्त जोड़-तोड़ के बावजूद नाम और जमा का हिसाब लगाने के बाद नामवर जी के खाते में जमा निकलता है और मेरे खाते में ऋण। कृतज्ञता किसी के प्रति नहीं है. किसी ने न मेरे लिए कुछ किया, न मैंने किसी से चाहा, परंतु कृतार्थता इन तीनों पर लिख कर अनुभव कर सकता था, जिसका समय नहीं है, जो दूसरे दबावों के बीच पीछे खिसक गए हैं।

प्रसंगवश इतना कहें कि यदि द्विवेदी जी के बस में किसी को बनाना होता तो क्या वह किसी एक शिष्य को चुनकर ही जैसा चाहते थे वैसा बनाते? अपने शिक्षण में बेईमानी या पक्षपात से काम लेते? परंतु यदि कोई पूछे द्विवेदी जी के बनारस में इतने सीमित काल में इतने मेधावी शिष्य कैसे पैदा हो गए – रामदरश मिश्र. शिवप्रसाद सिंह, नामवर जी, केदार जी, विश्वनाथ त्रिपाठी – तो सोचना होगा उनमें कुछ तो ऐसा था, जिसके कारण उनके शिष्यों में, जो नामावली आती है, वह किसी अन्य विभागाध्यक्ष के संदर्नभ में नहीं आती। उन्होंने कुछ तो दिया होगा।

क्या दिया? ज्ञान नहीं, वह तो सब को समान दिया, बनते तो सभी लगभग एक जैसे ही – प्रतिभा के अनुसार कुछ नीचे कुछ ऊपर। परंतु ये सभी अलग-अलग रास्तों के पथिक थे। द्विवेदी जी ने उन्हें स्नेह दिया, संरक्षण दिया, और मुक्ति दी। अपनी इच्छा के अनुसार किसी को ढालने बनाने का प्रयास ही नहीं किया, फिर नामवर जी को द्विवेदी जी ने अपनी कृति कहा तो इस असमंजस में कहा होगा कि छोटी बड़ी रचना लेखक के लिए होती ही नहीं, पाठकों के अपने चुनाव के कारण, आलोचकों की नकलनवीसी के कारण , कुछ कृतियों के साथ उसकी पहचान जुड़ जाती है और लोग उन्हें उसकी सर्वोत्तम रचना मानने लगते हैं, जबकि उसने अपनी प्रत्येक रचना में अपना सब कुछ उड़ेलने का प्रयत्न किया है, इसलिए जैसे पिता के लिए यह तय करना कठिन होता है उसकी सबसे प्रिय संतान कौन सी है, उसी तरह रचनाकार के लिए यह तय करना कठिन होता है कि उसकी नजर में उस की सर्वश्रेष्ठ रचना कौन सी है।

फिर भी पिता को नाम लेना ही पड़े तो वह अपनी सबसे सफल या होनहार संतान का नाम लेगा और गुरु अपने सबसे प्रखर शिष्य का नाम लेगा। दिवेदी जी के हाथ में पड़ने से पहले उनके सभी शिष्य जो थे वही थे, द्विवेदी जी के स्पर्श से उनको आत्मविश्वास मिला और अपनी संभावनाओं का आकाश मिला।

महत्वाकांक्षी पिता और गुरु अपनी आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए अपना प्रतिरूप अपनी किसी संतान या शिष्य में देखता है, जो नहीं पा सका या जिस ऊंचाई तक नहीं पहुंच सका, उस तक अपनी उस संतान या शिष्य के माध्यम से प्राप्त करना चाहता है। द्विवेदी जी ने यही चाहा था। इसी रूप में नामवर जी को अपनी ही सर्वोत्तम कृति मानते रहे होंगे। परंतु मंगलाचरण की कमी रह गई थी। वह कृति उनकी आकांक्षाओं को तोड़कर एक अलग दिशा में बढ़ गई। रचना बिगड़ गई। परंतु न तो नामवर जी में प्रतिभा की कमी के कारण, न ही अविनय के कारण।

Post – 2019-07-26

दैन्योपरि पलायनं
अर्जुनस्य प्रतिज्ञे द्वे न दैन्यं न पलायनम् ” –अर्जुन की दो प्रतिज्ञाएं हैं–न तो वह कभी दीनता प्रगट करेगा, और न ही पलायन करेगा–महा.भा. ।

द्विवेदी जी के साथ उल्टा पाठ बनता है – न प्रज्ञा न प्रतिज्ञानं दैन्योपरि पलायलम्।

द्विवेदी जी पर लिखते हुए सभी ने उनकी कमजोरी को देखने से इंकार किया है। मैं स्वयं इसकी मीमांसा में नहीं जाना चाहता, परंतु हम अपने श्रद्धेय जनों से प्रेरित और उनके आचार से अनुकूलित होते हैं और मेरी मोटी समझ के अनुसार जिन्हें हम किसी भी क्षेत्र की विभूति मानते हैं उनका आचरण ऐसा होना चाहिए कि उसका अनुसरण करने वालों को समग्र उत्थान हो सके।

मोटी समझ धरी रह जाती है जब बारीक समझ से विचार करने पर हम पाते हैं कि महानता एकदिश होती है। महान विभूतियों के सभी पक्ष हमारे लिए अनुकरणीय नहीं होते।

द्विवेदी जी इतने दीन-हीन परिवार में नहीं पैदा हुए थे कि अपनी दीनता का रोना रोते। छात्र जीवन में यह सच लग सकता था, पर शांतिनिकेतन में सबसे प्रतिष्ठित पद पर रहते हुए, जो सुविधाएं अपने समकक्ष दूसरों को सुलभ नहीं थीं, उनको पाते हुए भी, केवल इस लालसा में कि बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में, जिसका बौद्धिक पर्यावरण उस पर्यावरण के विपरीत होगा, जिसमें पहुंचने के बाद उनका पुनर्जन्म हुआ था, वापस आना शवसाधना का ही एक रूप था, जिसे रामविलास जी ने, एक दूसरे प्रसंग में, इस्तेमाल किया था जिसने आलोचना की चिंताधारा को प्रभावित किया।

परंतु कुछ और पाने की आकांक्षा ने उनके विवेक को अवरुद्ध कर दिया था। संज्ञा के अभाव की बात इसी संदर्भ में की जा सकती है। मुझे सुमन जी को लिखे गए आत्मीय पत्रों को पढ़ते हुए अक्सर अंतर्व्यथा होती है क्योंकि अनजाने ही द्विवेदी जी मेरे आचार्य बन बैठे। जिंदगी के एक पिछले पड़ाव पर मुझे लगा मैं द्विवेदी जी से आगे बढ़ा ही नहीं हूं और फिर भी द्विवेदी जी मुझसे बहुत पीछे छूट चुके हैं। लगा मैं उसी चेतना के ग्राफ के अनुसार तरंगित और उद्वेलित होता रहा हूं और इस प्रपंच के कारण इस भ्रम का शिकार होता रहा हूँ कि मैं अगले जमाने को प्रस्तुत कर रहा हूं और इस भ्रम में ही एक ऐसा आलोक मिला हो, जिसके बाद लगा हो उन्होंंने इस कोण से तो देखा ही नहीं, होते तो दिखाता, और कहता आपने तो सत्य का दर्शन ही नहीं किया, अध्यास या प्रतीति को ही यथार्थ समझ बैठे।

अपने प्रमाण पुरुष का कद ही छोटा हो जाए तो आघात तो अनुभव होगा ही। उसी से अपने को भी नापने की जरूरत अनुभव होती है। यदि उससे दारुण परिस्थितियों मैं मैंने स्वयं अपने दिन तनी हुई रीढ़ और तनी हुई गर्दन के साथ न काटे होते, और यदि इन पंक्तियों को लिखते हुए मुझे निराला, शमशेर, त्रिलोचन, विष्णु चंद्र शर्मा न याद आते तो मैं संतुलित रूप में दिवेदी जी से असहमत भी नहीं हो सकता था।

महान लोगों में उनकी अच्छाइयों के अनुरूप ही बुराइयाँ भी होती हैं। ऊंचे शिखर में ही पातालगामी खाइयाँ भी हो सकती हैं। द्विवेदी जी यहाँ भी हमें निराश करते हैं। उनकी कमियां भी बहुत मामूली हैं। न कोई स्कैंडल, न कोई आरोप, बस सुखी जीवन की चाह, जिसमें सुख की परिभाषा में भौतिक निश्चिंतता तो हो, बौद्धिक और आत्मिक उत्थान न हो ।

इसे सहन करने के लिए नया पाठ पढ़ने की जरूरत नहीं होती, परंतु जब द्विवेदी जी अपनी फक्कड़ता की बात करते हैं तो इनकी याद आती है और डींग से पहले द्विवेदी जी का जो कद था और छोटा हो जाता है। फक्कड़पन आर्थिक तंगी के बीच भी अपनी महिमा को बनाए रखने की ज़िद का ही दूसरा नाम है । इसके लिए एक सनक जरूरी होती है, द्विवेदी जी आजीवन नॉर्मल रहे। नॉर्मल का एक पर्याय पराकाष्ठा है, तो दूसरा औसत। द्विवेदी जी व्यक्ति के रूप में दूसरी कोटि में आते हैं।

वह किसी मोर्चे पर डट कर खड़े ही न हुए, लगातार भागते रहे, उम्मीद करते रहे कि उनकी लड़ाई कोई और लडे़, पर काव्यालंकारों मे केवल अर्थान्तरन्यास पर ध्यान देते रहे । वह उन लोगों में थे जिन्होंने आपातकाल का समर्थन किया था और उस मनीषी से अपना संबंध जोडते थे जिसने जलियाँवाला कांड के बाद नाइट की उपाधि लौटाई थी। वचने किं दरिद्रता।

Post – 2019-07-25

आचार्य द्विवेदी आचार्य नहीं थे

दुर्भाग्य के कई रूप होते हैं, इनमें से एक है आप का महिमामंडन करने के लिए किसी ऐसे शब्द का प्रयोग जो किसी सिली सिलाई पोशाक की तरह आपको फिट न आता हो; जिसमें आप कसे और फँसे अनुभव करें; या जो इतना फैला हो कि उसमें आप जैसा एक और इंसान समा तो सके पर हाथ-पाँव न हिला सके और आप इंसान होते हुए भी चिड़ियों और जानवरों को भगाने के लिए खेतों में खड़े किए गए धोखे ( scarecrow) जैसा अनुभव करें और फिर भी लबादा उतार कर फेंकने का साहस न जुटा पाएँ।

हिंदी में दो ही आचार्य हुए हैं। एक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी और दूसरे रामचंद्र शुक्ल जिनके साथ कई लोग आचार्य शब्द को पूर्व पद के रूप में लगा देते हैं। लगा दें, परंतु यह विरुद दोनों को फबता है। आचार्य वह है जो अपने आचरण से अथवा अपनी शिक्षा से आचार के मानक तैयार करे, उनके अनुसार अपने प्रभाव क्षेत्र में आने वाले व्यक्तियों को उसके ढाले या प्रेरित करे।

इनके साथ एक महिमा भी जुड़ी हुई है और एक सीमा भी। कारण, वे अपने प्रभाव क्षेत्र के लोगों को असमंजस की स्थिति से उबार कर एक सुलझी अवस्था में पहुँचाते तो हैं परंतु उसकी सीमाओं का अतिक्रमण करते हुए नई ऊंचाइयों पर पहुंचने का रास्ता बंद कर देते हैं ।

आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी और आचार्य रामचंद्र शुक्ल दोनों के मामले में इसे सही माना जा सकता है। परंतु इस दृष्टिकोण को अपना लेने के बाद उनके प्रति हमारी संवेदना इतनी भोथरी हो जाती है कि हम यह भी नहीं समझ पाते कि आगे का विद्रोही चरण इनके द्वारा तैयार की गई भूमि के अभाव में संभव ही नहीं था।

हिंदी जगत में इन दो आचार्यों के बिना हम तुतला सकते थे, तालियां बजा सकते थे, अपने विचारों को सही और जनमानस की भाषा में, पूरे सांस्कृतिक आत्मविश्वास के साथ प्रस्तुत नहीं कर सकते थे। देव भाग यहीं समाप्त होता है।
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आश्चर्य है कि द्विवेदी जी के आत्मीय शिष्यों में से कोई ऐसा नहीं हुआ जो द्विवेदी जी के अनूरूप एक कदम भी चल पाया हो। सचेत रूप में केवल एक व्यक्ति ने प्रयास किया, वह थे शिवप्रसाद सिंह । मूल का अनुकरण, मूल की अनुकृति नहीं होता, उसका ह्रास होता है, फिर भी द्विवेदी जी के प्रति सच्ची श्रद्धा का निवेदन अकेले शिव प्रसाद सिंह ने करना चाहा, कर न पाए, क्योंकि समझ की चूक थी। दूसरे शिष्य द्विवेदी जी की डफली बजाते रह गए कि यदि इसकी आवाज गली-गली घूमकर आचार्य रामचंद्र शुक्ल के नगाड़े से ऊपर उठाई जा सके तो वे अपनी गुरु दक्षिणा पूरी कर सकेंगे।

इसने हिंदी साहित्य के पर्यावरण को दूषित तो किया परंतु उनके लेखों और कारनामों से द्विवेदी जी का कद 1 सेंटीमीटर भी ऊंचा उठा होता तो इस सौभाग्य का समारोह मनाया जा सकता था। द्विवेदी जी ने जिस परंपरा की नींव डाली थी, उसको समझने तक की योग्यता का अभाव मुझे उनके शिष्यों में दिखाई देता है।

उनमें से किसी में यदि इतनी योग्यता भी होती कि वह द्विवेदी जी की परंपरा को पहचान पाता तो मुझे सबसे अधिक संतोष होता, क्योंकि उस व्यक्ति की खोज मैंने स्वयं की। यह वह व्यक्ति था, जिसके सामने नामवर जी नरम हो जाया करते थे और पीठ पीछे उसके विरोध में साठगांठ करने लगते थे। मैं उसका नाम नहीं लूंगा क्योंकि आप में से कई को यह भ्रम हो सकता है कि मैं अपनी प्रशंसा कर रहा हूं।

बात अकेले उनकी नहीं है द्विवेदी डफली बजाने वालों की है। वे सोच बैठे कि अपने निजी स्वार्थ से, आचार्य शुक्ल की आड़ लेकर, द्विवेदी जी का विरोध करने वालों से बदला लेने का एक ही तरीका है कि द्विवेदी जी को आचार्य शुक्ल से बड़ा सिद्ध कर दिया जाए। इसी चक्कर में द्विवेदी जी मनीषी कवि की भूमिका से उतार कर आचार्य बना दिए गए।

द्विवेदी जी आलोचक थे ही नहीं। हिंदी के आलोचक तो हो ही नहीं सकते थे। आलोचक के रूप में आचार्य रामचंद्र शुक्ल के समक्ष, जिन्होंने हिंदी के एक एक कवि, हिंदी के एक-एक शब्द की पहचान की हो, कहीं ठहरते ही न थे। वह संस्कृत के विद्वान थे, हिंदी उन्हें लाचारी में अपनानी पड़ी।

साहित्य के दार्शनिक थे। वह कवि थे। कवि किसी भाषा का नहीं होता संवेदना की गहराइयों का होता है और इसलिए समग्र मानवता का होता है जिसे अपनी भाषा में उतारने के बाद आप पाते हैं वह तो आपका ही कवि है।

यह वह ऊँची भूमिका है, जिसमें, कविताई में थोड़ा बहुत हाथ पांव मारने के बावजूद, आचार्य रामचंद्र शुक्ल पहुंच नहीं सकते थे। इसका स्वप्न भी वह देखते तो सँजो नहीं पाते।

यह वह भूमिका है जिसमें ज्ञान भी तुच्छ लगता, पांडित्य भी हास्यास्पद लगता है। हिंदी में यदि केवल दो आचार्य हुए, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी और आचार्य रामचंद्र शुक्ल, तो हिंदी में ही नहीं मेरी सीमित जानकारी के भारतीय साहित्य में मेरे सामने केवल 3 नाम आते हैंः अनाचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, गुलेरी और तुलसीदास। ज्ञान की सिद्धावस्था में पहुंचे हुए ज्ञान का उपहास करते हुए जिस भी चीज को छू दें वह मोम बनकर चीख उठे, मुझे द्रवित तो किया, आकार भी तो दो और उनका अट्टहास ठोस हो कर कलाकृति में बदल जाए।

उनका समस्त लेखन सभी विधाओं को तोड़ता है अपनी स्वतंत्रता और निजता के साथ, जैसे प्रकृति की प्रत्येक उत्पत्ति एक सार्वभौम सीमा के भीतर एक वृक्ष की तरह अब तक के सभी वृक्षों की सीमाएं तोड़ता हुआ अपने नियम से बढ़ता है।

Post – 2019-07-24

जाहिलिया की व्युत्पत्ति

जाहिलिया अरबी का शब्द है। इसका मूल जहल है जिससे जाहिल शब्द निकला है जिसका अर्थ मूर्ख है। इस विषय में आधिकारिक सूचना नहीं मिलेगी परंतु हमारा अनुमान है कि इसका अर्थ बुद्धिमान हुआ करता था और यह जहन का पूर्व रूप था। अनुमान इस तथ्य पर आधारित है संस्कृत में कुत् (देखें भो. कूतना- अनुमान करना; सं- कौतुक-जिज्ञासा; कुत्ता – जागरूक रहने वाला प्राणी)/ कित् (दे. चि-कित्सा, वि-चि-कित्-सा – संदेह, दुविधा) अभिप्राय जानना हुआ करता था और इसी के कारण कौत्स एक ऋषि का नाम था। परंतु आगे चलकर एक अन्य विद्वान कौत्स नाम के हुए हैं जिन्होंने वेदों की घोर भर्त्सना की। उसके बाद कुत्स का अर्थ परिवर्तन हो गया और यह घृणित के आशय में क्यों होने लगा, जिससे कुत्सित शब्द निकला है। इसी तरह मोहम्मद के अपने खानदान में जहल नाम के एक व्यक्ति हुए थे। वह न केवल मोहम्मद के विचारों का विरोध करते थे, अपितु जिन लोगों के बीच में मोहम्मद इल्हामों ही बात करते थे, उनके बीच जाकर वह उन्हें धूर्त, मक्कार, ढोंगी आदि कह कर दुष्प्रचार किया करते थे। जाहिलिया अरबी का शब्द है। इसका मूल जहल है जिससे जाहिल शब्द निकला है जिसका अर्थ मूर्ख है।

इस विषय में आधिकारिक सूचना नहीं मिलेगी परंतु हमारा अनुमान है कि इसका अर्थ बुद्धिमान हुआ करता था और यह जहन का पूर्व रूप था। अनुमान इस तथ्य पर आधारित है संस्कृत में कुत्, कित् का अभिप्राय जानना हुआ करता था और इसी के कारण कौत्स एक ऋषि का नाम था। परंतु आगे चलकर एक अन्य विद्वान कौत्स नाम के हुए हैं जिन्होंने वेदों की घोर भर्त्सना की। उसके बाद कुत्स का अर्थ परिवर्तन हो गया और यह घृणित के आशय में क्यों होने लगा, जिससे कुत्सित शब्द निकला है। इसी तरह मोहम्मद के अपने खानदान में जहल नाम के एक व्यक्ति हुए थे। वह न केवल मोहम्मद के विचारों का विरोध करते थे , अपितु जिन लोगों के बीच में मोहम्मद इल्हामों ही बात की करते थे, उनके बीच जाकर वह उन्हें धूर्त, मक्कार, ढोंगी आदि कह कर दुष्प्रचार किया करते थे। आगे चलकर देखेंगे कि यह अब्बू जहल ही था, जिसने मोहम्मद को अपशब्द कहे थे तो हमजा ने उसका असर तोड़ दिया था, जब हाशिम कुनबे के दूसरे सभी लोग मोहम्मद के साथ निर्वासन की जिंदगी जीने का फैसला करके चले गए तो यह अकेला था जिसने जाने से इंकार किया। यही व्यक्ति है जिसने बद्र के जंग में नेतृत्व किया था और मारा गया था और जिसके सिर को अपने सामने पेश करने पर मोहम्मद ने प्रसन्नता प्रकट की (the Prophet said: ‘This is the head of Abu Jahl, the enemy of God’.)।

Post – 2019-07-23

हजारी प्रसाद द्विवेदी

मैंने अपने बी.ए. के ऐच्छिक विषयों में संस्कृत और अंग्रेजी साहित्य लिया था और हिंदी साहित्य इसलिए छोड़ दिया था कि एम.ए. में मुझे हिंदी लेनी थी जिसके लिए मैं संस्कृत और अंग्रेजी साहित्य के ज्ञान को जरूरी समझता था। आगरा विश्वविद्यालय में तीनों साहित्य के विषय वर्जित थे, इसलिए जिससे सब से अधिक लगाव था, उसे छोड़कर दर्शन शास्त्र चुनाव किया।

निर्णय बहुत सही था, मेरे बौद्धिक कर्म के लिए, पर इच्छा हुई बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में दाखिला लूं।

जेब में पैसा नहीं। स्कॉलरशिप के कुछ पैसे बाकी थे। वे मिले। उनकी बदौलत बनारस पहुंच गए। सोचा समस्या का समाधान वहां की परिस्थितियों के अनुसार निकाला जाएगा। पहुंचे तो पता चला प्रवेश के लिए फार्म तक नहीं मिल सकते। एक उपाय था। यदि डॉक्टर मेनन जो प्रवेश के अध्यक्ष थे, स्वीकृति दे दें तो प्रवेश पत्र मिल सकता है।

अपने कॉलेज से हम दो छात्र साथ गए थे। रजिस्ट्रार दफ्तर से कुछ खिन्न से पता लगा कर उनके बंगले पहुँचे। पता चला अभी वह विभाग से लौटे ही नहीं हैं।

वापस लौटने लगे तो अभी उनके बंगले की सीमा भी पार न की थी कि देखा एक ठिगने कद का नितांत साधारण दिखने वाला, ऊपर आधी बाँह की कमीज और नीचे लुंगी को उलट कर कमर में खोंसे एक आदमी चला आ रहा है। यदि हमें वापस लौटते देख कर उसने स्वयं न पूछा होता तो हम सोच भी नहीं सकते थे कि आर्ट फैकल्टी के डीन और प्रवेश परीक्षा के सर्वे सर्वा डॉक्टर मेनन यही हैं।
उन्होंने पूछा हम कहां से आए हैं, फिर कहां ठहरे हैं, और फिर क्या हमने खाना खा लिया है। वह अपने घर पर लंच के लिए आए थे। हमारे सभी उत्तर संतोषजनक लगे, गो हालत संतोषजनक नहीं थी, पर हमें तो ठिकाना या खाना नहीं चाहिए था। प्रवेश के लिए फार्म चाहिए था। उन्होंने अब पूछा, किस काम से आए थे, और जब हमने बताया तो उन्होंने एक स्लिप पर लिख कर दिया फार्म दे दिया जाए, और कहा यदि कोई कठिनाई हो तो आ जाना मैं साथ चलूँगा।

कठिनाई होनी ही नहीं थी, फार्म मिल गया। हमने इतना सरल इतना आत्मीय व्यवहार कभी देखा ही नहीं था । मैं इतना अभिभूत था और आज तक हूँ कि उस ठिगने से आदमी से ऊंचा न कोई व्यक्ति तब लगा, न आज तक कोई दूसरा दिखाई दिया।

समस्या यह थी कि अंग्रेजी में मेरे अंक अच्छे थे और उसमें मुझे दाखिला मिल सकता था। परंतु मैंने अंग्रेजी से स्नातक इसलिए किया था कि m.a. में मुझे हिंदी लेनी है। बी.ए. जिसने हिंदी से न किया हो वह m.a. में हिंदी नहीं ले सकता था ।

अगले दिन द्विवेदी जी के निकट पहुंचा। वह अपने शिष्यों से घिरे, कुछ है झूमते हुए, बात करते हुए, गंभीर मुद्रा में चल रहे थे। साथ चलने वालों में केदार जी भी थे। साहित्यिक संबंधों के कारण वह मुझे जानते थे। निकट आए। मैंने समस्या बताई। वह द्विवेदी जी के पास गए, बात की और लौटकर बताया नियम इसकी अनुमति नहीं देते। कुछ हो नहीं सकता।

नियम तो नियम हैं। द्विवेदी जी उन्हें बदल नहीं सकते थे, परंतु हमारे किशोर मन पर मेनन के व्यवहार के कारण ऐसा प्रभाव पड़ा कि अपनी भव्य काया और गंभीरता के बावजूद वह मेनन के सामने इतने अगण्य लगे जिसे शब्दों की भाषा में बयान नहीं किया जा सकता, आवेग की भाषा में साझीदारी संभव नहीं है।

किशोरावस्था की बात अलग है, वयस्क होने पर भी, यह समझने पर भी कि उन्होंने जो कुछ किया वह गलत नहीं था, मैं स्वयं भी यही करता और करता हूं, परंतु व्यक्ति के रूप में द्विवेदी जी, मुझे कभी प्रभावित न कर सके। यह उनकी समस्या नहीं है, मेरी समस्या है। मनोराग और मनोमालिन्य हमारे चेतन व्यवहार की पकड से कितने परे रहते हैं, इसे मैंने ऐसे ही अनुभव के माध्यम से जाना है।

Post – 2019-07-23

कुहासे के पीछे शमा जल रही है
उसे देखना हो तो चिलमन हटाओ।

Post – 2019-07-22

जो जह्रे हलाहल है अमृत भी वही नादाँ

सवाल इतने हैं उनसे निबटने चलें तो बाहर का रास्ता बंद हो जाएगा। हमारा प्रयोजन न तो इस्लाम के प्रति विद्वेष पैदा करना है, न ही मोहम्मद साहब के व्यक्तित्व का अवमूल्यन। यह सिद्ध करना तो हो ही नहीं सकता की हिंदू समाज दूसरों से अधिक अच्छा है।

धर्म कोई भी हो, परलोक के किसी रूप से प्रेरणा ग्रहण करता हो, वह इस लोक में सुख, शांति और विश्वास से जीने के रास्ते में कई तरह की रुकावटें पैदा करता है। समाज की बागडोर बौद्धिक दृष्टि से कुंद, नैतिक दृष्टि से संदेहास्पद, सामाजिक दृष्टि से गैर जिम्मेदार, और देश दुनिया से बेपरवाह पंडों, महंतों, पुरोहितों, मुल्लाओं, पादरियों के हाथ में सौंप दी जाती है, जो सबसे चिंताजनक बात है। मुहावरा मुझे याद नहीं, वाक्य दारा का है, और भाव भाव यह है जहां मुल्ला मुल्ला की चलती है वहाँ इंसान का बसर नहीं ।

यह बात केवल मुल्लों के विषय में सही नहीं है अपने धार्मिक समुदाय पर कब्जा जमाने वाले या जमाने का प्रयत्न करने वाले ऊपर के सभी लोगों के विषय में सही है।

ये समझ की जगह उन्माद पैदा करते हैंं। अपने ही समाज को बांध कर रखना चाहते हैं।

ये दूसरों की कमाई पर पलने वाले घोर आत्मकेंद्रित है प्राणी होते हैं जो अपने हित के लिए, अपने ही समाज को पीछे ले जाने के अतिरिक्त कोई काम नहीं करते और अपनी धाक बनाए रखने के लिए उसे आफत में झोंक देते हैं।

इसके बाद भी हमारी सामाजिक पहचान धर्म, पंथ, जाति से इस तरह जुड़ी हुई है कि इन्हें नकारने के बाद भी हम इनसे मुक्त नहीं हो पाते।

हम केवल यह देख सकते हैं कि किसकी पकड़ ढीली है, कौन मुक्त होने की अधिक छूट देता है और इस दृष्टि से संगठित धर्म, एकेश्वरवादी धर्म अपने अनुयायियों को धार्मिक कर्मकांड से बांधकर, अपना अधिक से अधिक गुलाम बनाने का प्रयत्न करते हैं। इसलिए जहां जहाँ जितने समय तक इनका जितना अधिक प्रभाव रहा है समाज उतना ही उद्विग्न, बर्बर और पतनोन्मुख रहा है, और इनसे मुक्त होने, या इनका शिकंजा ढीला पड़ने के अनुपात में ही कोई देश या समाज अधिक मानवीय, अधिक समावेशी, अधिक प्रबुद्ध और महत्वाकांक्षी बना है।

यह मात्र इत्तफाक नहीं है कि विश्व की महान सभ्यताएं एकेश्वरवादियों से पहले रही है और इनकी जकड़ से मुक्त होने के बाद ही अस्तित्व में आ सकी हैं ।

यह झमेला कि एकेश्वरवाद अधिक वैज्ञानिक है, बहुदेववाद पिछड़ी मानसिकता की देन है, सर्वेश्वरवाद आदिम चेतना की उपज है़, एकेश्वरवादी सोच का परिणाम जो स्वयं बहुदेववाद का समर्थन करता है।

यह बात चौंकाने वाली लगेगी, परंतु यदि तुम्हारा अल्लाह /गॉड/ यह्व अपने कबीले के लिए ही है अपनी धर्म सीमा में ही रहता है, तो तुम्हारे अल्लाह के अलावा दूसरे अल्लाह तो तुम्हारी संकीर्णता से ही पैदा हो गए, दुनिया में अपनी अपनी अपनी भाषा के अपने अपने इलाके में रहने वाले बहुत सारे इसी तर्क से पैदा हो जाएंगे।

सैद्धांतिक रूप में सभी एकेश्वरवादी धर्म इतने संकीर्ण हैं, कि अपने अल्लाह के नाम पर कबीले का सरदार तो पैदा कर सकते हैं, समूचे विश्व का, सभी प्राणियों का, हित चाहने वाले परमेश्वर की कल्पना नहीं कर सकते हैं। यह बहुदेववादियों में ही संभव है; तथाकथित जाहिलिया में भी था।

परम शक्ति के विषय में अपने ऊहापोह में वे ही ‘होते हुए भी न होने जैसे शून्यवत ब्रह्म’ की कल्पना कर सकते हैं, जिसे गॉड पार्टिकल के रूप में पहचानने का भौतिक विज्ञानियों ने आज दावा किया है।

अधिक विवेकसम्मत कौन है यह फैसला हम नहीं करना चाहेंगे। परंतु इसकी वैज्ञानिकता हमारे लिए इसमें नहीं है कि आज की वैज्ञानिक खोज वैदिक अवधारणा से मेल खाती है, बल्कि इसमें है कि किसी ने परम सत्ता के किसी रूप को गढ़कर दूसरों पर लादी की तरह लाद नहीं दिया; उन्हें प्राण का भय दिखाकर उसे ढोने को मजबूर नहीं किया, अपितु संशय का दरवाजा स्वयं खुला रहने दिया:
को अत हा वेद,क इह प्रदेचत, क्त आजाता, कुत इदं विसृष्टिः
अर्वाग्देवा अस्य विसर्जनेन अथा को वेद यत् आ्रवभूव।।
इदं विसृष्टिः यत आबभूव यदि वा दधे यदि वा न।
यो अस्याद्यक्षः परमे व्योमन् सो अत हा वेद यदि वा न वेद।।ऋ.10.129.6,7
(अनुवाद आप इंटरनेट से तलाश कर सकते हैं)

जहां तक सर्वेश्वरवाद का सवाल है, पर्यावरण की चिंता, समस्त प्राणियों-पादपों को बचाने और समस्त सृष्टि की चिंता, हमारी आज की सबसे बड़ी चिंता है, आर यही सर्वेश्वरवाद का केंद्रीय सरोकार रहा है, इसलिए उसका उपहास नहीं किया जा सकता।

जो सबसे हास्यास्पद है वह है एक सर्वोपरि सत्ता, और उसके प्रतिस्पर्धी शैतान, अल्लाह के नीचे फरिश्तों की फौज, फरिश्तों में भी ऐसे जो अल्लाह को भी कुछ न समझें, अलग से जिन्नों का अस्तित्व और सब कुछ इस अल्लाह को मानने वालों तक सीमित जो उनके कबीले की जबान बोलता है, और अपराध के सभी रूपों का समर्थन करता है, बशर्ते यह उसे सजदा करने वाले, उसकी शान में करें, पर यही काम तो शैतान करता है।

शैतान से अल्लाह को बचाना, और शैतानी से से इंसानियत को बचाना मुसलमानों का पहला दायित्व होना चाहिए।

अल्लाह की अनन्यता में विश्वास, पैगंबर की पैगंबरी में विश्वास और फैसले के दिन और उसके दंड-पुरस्कार – दोजख और जन्नत में विश्वास ये तीन सिद्धांत हैं जिनमें से कोई मुसलमान किसी को नकार नहीं सकता। ट्रिनिटी यहां भी है।

अल्लाह की इच्छा के बिना कुछ हो ही नहीं सकता। अल्लाह की मर्जी के बिना न शैतान हो सकता है, न कुछ बिगाड़ सकता है। इसलिए मानना होगा कि वह भी अल्लाह का ही एक दूसरा रूप है। दोनो रूप कुरान में हैं। स्वस्थ या प्रसन्न अल्ला रहीम और करीम होता है, सबकी सुनता है, दुआएँ देता है, बीमार या कुपित अल्ला शैतान की भूमिका में आ जाता है, धमकियां देता, बर्वाद करता, मनमानी करता और किसी की नहीं सुनता।

स्वस्थ और अच्छे बुरे की समझ रखने वाला रहमदिल पैगंबर पहले के साथ होता है; आपा खोने वाला, सताने मे मजा लेने वाला पैगंबर दूसरे के चंगुल में आ जाता है।

मुसलमानों को यह सोचना होगा कि वेअपने समाज को स्वस्थ बनाना चाहते हैं आगे ले जाना चाहते हैं या बीमार बनाना चाहते हैं और इसी के अनुसार पैगंबर का, अपने अल्लाह और कुरान की अपनी आयतों का चुनाव करना होगा।

ब्रह्मांड की खोज की जा चुकी है, स्वर्ग नरक नहीं मिले। इसी धरती पर स्वर्ग बनाने या इसे नरक बनाने के बीच भी चुनाव करना होगा, परंतु यह स्वर्ग ऐसा नहीं हो सकता जिसमें इंसान बागड़ा बकरे की भूमिका में अपने जीवन की सार्थकता माने।

यह काम कोई मुल्ला मौलवी नहीं कर सकता जिसकी दिलचस्पी समाज को बीमार बनाए रखने मे होती है। यह काम मुस्लिम बुद्धिजीवी कर सकते हैं, कोई दूसरा बुुद्धिजीवी भी नहीं।

परंतु ईश्वर किसी का हो, विज्ञान ने और कुछ किया हो या नहीं, उन सभी अंधेरे कोनों को रौशन कर दिया है जहां देवता और ईश्वर छिपे रहते थे, इसलिए किसका ईश्वर सच्चा ईश्वर है, इस बहस में आज पड़ना नासमझी के सिवा कुछ नहीं है।

इस्लाम ने अपनी प्राचीन ज्ञान संप,दा, कला, साहित्य, वास्तु, इतिहास उन सभी को नष्ट कर दिया जिनकी कोई सभ्य समाज रक्षा करता हैा माता-पिता और पुरखे तक नरक की आग के हवाले कर दिए गए। हमें आज जो जानकारी मिलती है वह दूसरे समुदायों में प्रासंगिक उल्लेख और श्रुत परंपरा और पुरातत्व के माध्यम से। आज का मुस्लिम समाज जिन विशेषताओं पर गर्व करता है वे सभी जाहिलिया की देन या अवशेष हैं। अरबी, ईरानी और उर्दू साहित्य की जड़ें ‘जाहिलिया’मैं उतरी हुई हैं। तंज. चुस्तजबानी, दर्पोक्ति, हास्य यहां तक कि वह विशेषता भी जिसके लिए मियां चिर्की को याद किया जाता है:
Oh Banū Thuʿal, sons of whores!
What is your language?
It is a strange tongue.
Their prattle sounds like the rumbling of a camel’s gut,
Or the sound of a croaking bird, fluttering.
They’re from Dīyāf [in al-Shām ]; uncircumcised;
Their orator rises late, chewing on his own excrement*.
(*the pre-Islamic Ḥurayth ibn ʿAnnāb, recorded in Abū Tamām’s al-Ḥamāsa)

आया तो कविता में सूफी अंदाज भी जाहलिया के दौर से ही, परंतु कवियों के माध्यम से नहीं, साधकों के माध्यम से जिसकी ओर मुहम्मद की भी रुझान थी जो तत्व चिंतक ज़ैद (Zaid bin Amr meditated on higher and purer things ) और ऐसे ही कुछ दूसरे साधकों के प्रति उनकी निष्ठा से (अपनी हिजरत मे वह उस घाटी में रुके थे जिसमें वानी सलीम रहते थे, और जुम्मे की नमाज वहीं आरंभ की थी) प्रकट होता है।

मुझे ऐसा लगता है कि हनीफ अद्वैतवादवादी थे – न वे यहूदियों से प्रभावित थे, न ही ईसाइयों से, इस्लाम तो तब तक भ्रूणावस्था में भी न था। उनमें से कुछ ने तो कभी इस्लाम अपनाया ही नहीं, जिनमें जैद बिन अम्र स्वयं भी थे और इनके कारण इस्लाम में आरंभ से ही हनफी संप्रदाय पैदा हुआ जो न मुहम्मद को पैगंबर मानता था, क्योंकि पैगंबर मानते ही देववाद आरंभ हो जाता था, न कुरान को, परंतु वे इतने दृढ़ अद्वैतवादी थे कि उनसे पंगा लेने पर इस्लामी एकेश्वरवाद धूल चाटने लगता, इसलिए उसे सुन्नी मत में समायोजित कर लिया गया। यह आज सुन्नी मत के चार पन्थों में से सबसे पुराना और सबसे ज़्यादा अनुयायियों वाला पन्थ है।

परंतु मैं चाहता हूं मेरी इन बातों को माना न जाए, परखा जाए और जहाँ चूक दिखाई दे वहां इसका संकेत भी किया जाए और मुझे पुनर्विचार का अवसर भी दिया जाए। कारण, मैं इस विषय का अधिकारी विद्वान नहीं हूँ। जानकारी परिश्रम करके, कम समय में, जुटाई जा सकती है, परंतु अधिकार लंबे समय तक किसी समस्या के अंतर्विरोधों से जूझते हुए किसी समाधान पर पहुंचने के बाद ही प्राप्त होता है।