Post – 2019-07-23

हजारी प्रसाद द्विवेदी

मैंने अपने बी.ए. के ऐच्छिक विषयों में संस्कृत और अंग्रेजी साहित्य लिया था और हिंदी साहित्य इसलिए छोड़ दिया था कि एम.ए. में मुझे हिंदी लेनी थी जिसके लिए मैं संस्कृत और अंग्रेजी साहित्य के ज्ञान को जरूरी समझता था। आगरा विश्वविद्यालय में तीनों साहित्य के विषय वर्जित थे, इसलिए जिससे सब से अधिक लगाव था, उसे छोड़कर दर्शन शास्त्र चुनाव किया।

निर्णय बहुत सही था, मेरे बौद्धिक कर्म के लिए, पर इच्छा हुई बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में दाखिला लूं।

जेब में पैसा नहीं। स्कॉलरशिप के कुछ पैसे बाकी थे। वे मिले। उनकी बदौलत बनारस पहुंच गए। सोचा समस्या का समाधान वहां की परिस्थितियों के अनुसार निकाला जाएगा। पहुंचे तो पता चला प्रवेश के लिए फार्म तक नहीं मिल सकते। एक उपाय था। यदि डॉक्टर मेनन जो प्रवेश के अध्यक्ष थे, स्वीकृति दे दें तो प्रवेश पत्र मिल सकता है।

अपने कॉलेज से हम दो छात्र साथ गए थे। रजिस्ट्रार दफ्तर से कुछ खिन्न से पता लगा कर उनके बंगले पहुँचे। पता चला अभी वह विभाग से लौटे ही नहीं हैं।

वापस लौटने लगे तो अभी उनके बंगले की सीमा भी पार न की थी कि देखा एक ठिगने कद का नितांत साधारण दिखने वाला, ऊपर आधी बाँह की कमीज और नीचे लुंगी को उलट कर कमर में खोंसे एक आदमी चला आ रहा है। यदि हमें वापस लौटते देख कर उसने स्वयं न पूछा होता तो हम सोच भी नहीं सकते थे कि आर्ट फैकल्टी के डीन और प्रवेश परीक्षा के सर्वे सर्वा डॉक्टर मेनन यही हैं।
उन्होंने पूछा हम कहां से आए हैं, फिर कहां ठहरे हैं, और फिर क्या हमने खाना खा लिया है। वह अपने घर पर लंच के लिए आए थे। हमारे सभी उत्तर संतोषजनक लगे, गो हालत संतोषजनक नहीं थी, पर हमें तो ठिकाना या खाना नहीं चाहिए था। प्रवेश के लिए फार्म चाहिए था। उन्होंने अब पूछा, किस काम से आए थे, और जब हमने बताया तो उन्होंने एक स्लिप पर लिख कर दिया फार्म दे दिया जाए, और कहा यदि कोई कठिनाई हो तो आ जाना मैं साथ चलूँगा।

कठिनाई होनी ही नहीं थी, फार्म मिल गया। हमने इतना सरल इतना आत्मीय व्यवहार कभी देखा ही नहीं था । मैं इतना अभिभूत था और आज तक हूँ कि उस ठिगने से आदमी से ऊंचा न कोई व्यक्ति तब लगा, न आज तक कोई दूसरा दिखाई दिया।

समस्या यह थी कि अंग्रेजी में मेरे अंक अच्छे थे और उसमें मुझे दाखिला मिल सकता था। परंतु मैंने अंग्रेजी से स्नातक इसलिए किया था कि m.a. में मुझे हिंदी लेनी है। बी.ए. जिसने हिंदी से न किया हो वह m.a. में हिंदी नहीं ले सकता था ।

अगले दिन द्विवेदी जी के निकट पहुंचा। वह अपने शिष्यों से घिरे, कुछ है झूमते हुए, बात करते हुए, गंभीर मुद्रा में चल रहे थे। साथ चलने वालों में केदार जी भी थे। साहित्यिक संबंधों के कारण वह मुझे जानते थे। निकट आए। मैंने समस्या बताई। वह द्विवेदी जी के पास गए, बात की और लौटकर बताया नियम इसकी अनुमति नहीं देते। कुछ हो नहीं सकता।

नियम तो नियम हैं। द्विवेदी जी उन्हें बदल नहीं सकते थे, परंतु हमारे किशोर मन पर मेनन के व्यवहार के कारण ऐसा प्रभाव पड़ा कि अपनी भव्य काया और गंभीरता के बावजूद वह मेनन के सामने इतने अगण्य लगे जिसे शब्दों की भाषा में बयान नहीं किया जा सकता, आवेग की भाषा में साझीदारी संभव नहीं है।

किशोरावस्था की बात अलग है, वयस्क होने पर भी, यह समझने पर भी कि उन्होंने जो कुछ किया वह गलत नहीं था, मैं स्वयं भी यही करता और करता हूं, परंतु व्यक्ति के रूप में द्विवेदी जी, मुझे कभी प्रभावित न कर सके। यह उनकी समस्या नहीं है, मेरी समस्या है। मनोराग और मनोमालिन्य हमारे चेतन व्यवहार की पकड से कितने परे रहते हैं, इसे मैंने ऐसे ही अनुभव के माध्यम से जाना है।