Post – 2016-08-31

निदान -36
मो सम कौन कुटिल खल कामी

”अब तो चित्त स्थिर हो गया होगा शास्त्री जी।”

”स्थिर हो कर भी आपके सामने चित्त डांवाडोल ही रहता है, पता नहीं कौन सी नासमझी की बात निकल जाए, फिर भी अपनी बात अपने ढंग से रखना चाहूँगा। कहीं चूक हो तो सुधारते चलिएगा।

”लेकिन और कुछ कहूँ उससे पहले आपने जो भोजराज का उदाहरण दिया, उसका जो अर्थ मेरी समझ में आया वह यह कि केवल आपका सदाशयी और मानवीय होना पर्याप्‍त नहीं है। सामरिक तैयारी के बिना शान्ति का प्रस्ताव भी हास्यास्पद लगता है और उससे शान्ति नहीं उपद्रव को बढ़ावा मिलता है ।”

”बात आपकी ठीक है। इसे हमसे अच्छी तरह अशोक जानता था और इसलिए सद्धर्म में दीक्षित होने के बाद भी अपने सैन्यपबल में उसने कमी नहीं की थी। परन्तु आप से हम गीता के विषय में आप जो गहरी बात कहना चाहते थे उसे सुनना चाहेंगे। इधर-उधर भटकने से बात अधूरी रह जाएगी।”

”मैं यह कहना चाहता था, हो सकता है मेरा सोचना गलत भी हो, पर मुझे ऐसा लगता है कि गीता में ईश्वर जैसा कुछ है ही नहीं न श्रीकृष्ण ने अपना विराट रूप दिखाया था। उन्होंने तो केवल सृष्टि के समस्त तत्वों की नश्वरता की बात की थी। हो सकता है, या नहीं भी हो सकता है, पर एक वदन्ती की याद आ गई। कहते हैं विवेकानन्द को उनके अंग्रेजी के अध्यापक ने जो भी संभवत: अंग्रेज था, अंग्रेजी के रोमैंटिक कवियो के सन्दर्भ में रामकृष्ण की सिद्धि के विषय में बताया था और वह अपने किसी मित्र के साथ उन्हें देखने गए थे। उनको वहाँ कुछ भी प्रभावशाली नहीं दीखा। परमहंस से बातचीत भी। उनका यह कथन भी कि ब्रह्म सर्वत्र व्‍याप्‍त है। इसी बीच किसी काम से रामकृष्ण कमरे से बाहर चले गए। उनकी अनुपस्थिति में वह अपने मित्र से वहॉं पानी भरे लोटे पर बैठी मक्खी को देख कर कहने लगे पात्र ब्रह्म है, उसमें ब्रह्म भरा हुआ है और ब्रह्म के ऊपर ब्रह्म बैठा हुआ है। ठीक इसी समय रामकृष्ण पधारे और उन्होंने, सुनते हैं, कहा, ”हॉं ब्रह्म पर ही ब्रह्म बैठा हुआ है और इसके साथ ही उन्होंने विवेकानन्द के सिर का स्पर्श किया तो वह ऐसे ट्रांस में चले गए कि अखिल ब्रह्मांड उनके सामने इस आभा के साथ उपस्‍िथत कि उन्‍हें वह असह्य लगा। वह उससे बाहर आने को व्यग्र। जब मन स्थिर हुआ तब तक वह रामकृष्ण के भक्त बन चुके थे। मैं कहता हूँ, कुछ ऐसा ही याद में बचा रह गया है, और मैं सोचता हूँ योगिराज कृष्ण ने कुछ ऐसा ही अर्जुन के साथ किया होगा जिसमें वह समस्त सृष्टि प्रसार का अवलोकन करते हैं, और उसमें नष्ट या नि:शेष होती सत्‍ताओं को देखते है।”

मैंने कहा, ”गीता एक महाकाव्य का हिस्सा है या एक स्वतन्त्र कृति जिसे महाभारत में समेट लिया गया, यह मैं नहीं जानता, परन्तु् यह एक गंभीर समस्या पर केन्द्रित रचना है । न तो महाभारत इतिहास है, न भगवद्गीता, परन्तु दोनों में इतिहास के अंश हैं, या दोनों से इतिहास को समझने में मदद मिलती है। इसलिए आप विराट रूप के दर्शन और इस प्रश्नोत्तर को यथातथ्य न लें। यह एक रूपक है और साहित्यिक और दार्शनिक कसौटी पर विश्व की असाधारण कृति। इतने सशक्त रूप में प्रस्तुत कि प्रकट अन्तरर्विरोध के बाद भी हिन्दुओं में सुशिक्षित लोगों में भी पचास प्रतिशत लोग इसे यथातथ्प ग्रहण कर लेते हैं। आप इसके दार्शनिक पक्ष पर ही अपना ध्यान केन्द्रित रखें तो अधिक अच्छा हो। ”

शास्त्री जी को मेरा हस्तक्षेप पसन्‍द नहीं आया, परन्तु उन्होंने अपना आदर भाव बनाए रखा, ”यदि आप ऐसा सोचते हैं तो कुछ तो होगा ही, पर मेरी समझ में नहीं आया कि गीता में अन्त’र्विरोध क्या है ?”

”समय का अपव्‍यय होगा, इसलिए… खैर, आपने कह ही दिया तो कहूँ यह एक कल्पित कृति है जिसमें युद्धभूमि को हिंसा और अहिंसा के बीच चुनाव को समस्या बनाया गया है। यह उस युग की कृति है जब बौद्ध मत को मिले राजाश्रय और लोक के बीच आदर से ब्राह्मण क्षुब्ध थे और किसी भी कीमत पर बौद्ध मत को मिटाने को तैयार । उन्होंने सभी तरह के औजारों और उपायों का, यहॉं तक कि जिसे अंग्रेजी में डैमेज कंट्रोल कहते है, उसका भी सहारा लिया। विषयान्तर से बचने के लिए इसके विस्तार में न जाऊँगा, पर यह समझ लें कि एक ही परिवार के कुछ लोग बौद्ध बन गए हैं, जैन श्रमण बन गए हैं, इन दोनों के अपने भी टकराव हैं, परन्तु दोनों की लोकप्रियता का सीधा प्रभाव ब्राह्मण की जीविका पर पड़ रहा है । उसकी दशा शूद्रों से भी बुरी हो चली है । शूद्र तो अपने कौशल के बल पर अपने गुजारे का कमा लेता है, पर धर्मादा खाते का सामाजिक जो देय था उसके दो नये हिस्सेेदार आ गए हैं। पहले यज्ञ आदि के माध्यम से राज्य का धर्मदेय भी ब्राह्मण को मिलता था, उससे वह वंचित हो गया है। वह बौद्धों को मिलने लगा है। एक दूसरा स्रोत वैश्य या व्याकपारी समाज का था जिसके मुहूरत आदि निकालते और कभी कभार यात्रा में विघ्न निवारण के लिए सम्मिलित हो कर कुछ पा लेते थे । वह जैनियों की ओर चला गया है । ज्ञान साधना के अतिरिक्त जिसका कोई आजीव नहीं, उसे ध्यान और अध्यात्म-चिन्तन ने गौण कर दिया है।

”यह पहला अवसर है जब वैदिक चरित्रों को प्रमाण बना कर आपद्धर्म का विधान किया जाता है। यह आपद्धर्म जिसमें प्राणरक्षा के लिए कुछ समय के लिए कुछ भी किया जा सकता है। शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम् । भगवद्गीता उस विकट परिस्थिति में एक बहुत साहसिक प्रस्तााव के साथ, एक आर्थिक संकट को उसे दार्शनिक तेवर देते हुए रची जाती है जिसमें रचनाकार का निहित सन्देश यह है कि यदि धर्मविरुद्ध आचरण करने वाले तुम्हारे अपने लोग ही हों तो भी क्या उनके प्रति दया दिखाते हुए तुम भाग खड़े होगे? उन्हें जीतने दोगे?

”यह उस काल की रचना है जब एकलब्य का चरित्र गढ़ा जाता है, कि शूद्राें को शस्त्र का अभ्यास और उसमें दक्षता हासिल न करने दी जाएगी। यदि प्रयत्न किया तो छल बल से उसे विफल करना होगा।

”यह उस दौर की रचना है जिस दौर में रामायण की लोकप्रिय कथा मे शंबूक की कथा रची जाती है, कि श्‍ाूद्र साधना का अधिकारी नहीं, अौर बौद्धमत ने भले उसे यह अधिकार दिया हो, उसके ऐसा करने से अनर्थ होगा इसलिए उसे मरना होगा और मरना भी उस राम के हाथों होगा जिके लोकसंवेदी आचरण को देखते रामवत आचरितत्व का विश्वास पैदा किया गया था।

”यह वह समय है जब बौद्ध मत में भिक्षुणियों के प्रवेश्‍ा से खिन्न हो कर सीता के निर्वासन का उत्तरकांड रचा गया था। सीता की पवित्रता का एक ही प्रमाण था कि रावण उन्‍हें अपने अन्‍त:पुर में दाखिल कराने के लिए दंड और भय के खतरनाक
तरीके अपनाने के बाद भी विफल रहा था। किसी परीक्षा का प्रश्‍न ही न था। पर…”

शास्त्री जी का चेहरा लाल था, परन्तु वाणी पर इतना अधिकार कि लगे ही न कि वह किसी बात से आहत हैं।

मैंने कहा कि मैं आपके साथ हूँ पर इससे बाहर आऍं। कोसंबी को मैं अन्धों के बीच काना भी नहीं कह सकता। एक तो हमारे नैतिक सरोकारों के कारण अंगविकारों या समर्थताओं को किसी बहाने कुरेदना अपराध है, दूसरे इसलिए कि कोसंबी को महान कोसंबी बनाने वालों को स्वयं ऐसा प्रमाणपत्र देने के लिए अपेक्षित योग्याता प्राप्त न थी। वह अपने क्षेत्र में निष्णात थे और समझदारी में इतने कम कि उन्होेने अपनी विशेषज्ञता के क्षेत्र की ऊर्जा को अपना उपयोग करने वालों को सौंप दिया कि वे उसका प्रतिशत निर्धारित करें कि कितनी ऊर्जा उनके काम आएगी और कितनी उनकी दक्षता के क्षेत्र में। वह अपने अहंकार के कारण आजीवन सहके हुए बच्चे , पैंपर्ड चाइल्ड, की भूमिका से बाहर निकल ही नहीं सके। उनके विचार जहां सही हैं वहां भी सपाट है और जहां ग लत है वे उनका उपयोग करने वालों की नजर में विराट है, परन्तु हम उनको अलग रख कर, किसी अन्य को भी अलग रख कर इन प्रश्नों का उत्तर तलाशें और सोचें कि किसी कृत‍ि का एक सामाजिक यथार्थ होता है, एक कलात्मक आदर्श होता है, एक ऐतिहासिक औचित्य होता है और महान कृतियॉं द्वन्द्वों के बीच ही प्रतिफलित होती है जिनके कारण उनसे इतने आयाम जुड़ जाते हैं कि प्रत्येक बार वहीं कृति उसी व्‍यक्ति द्वारा पढ़ने पर एक नया अर्थ देती है, अलग अलग कालों में पढ़े जाने पर अलग अलग अर्थ देती है और सच कहें तो जो संपुंजन उसे असमापी या इनइक्जास्टिबल बना देता है, गीता भी यही है। वह कृति न रह कर स्वयं प्र-कृति बन जाती है ।

”मैं सोचता हूॅे जब हम अपनी ही कृतियों की गहराई और जटिलता नहीं माप पाते हैं तो हमें दूसरी ऐसी कृतियों पर बात नहीं करनी चाहिए जिनके विषय में हम उसी तन्मयता और सहृदयता से विचार नहीं कर पाते।”

”आपका तात्पंर्य है, हमें नींद टूटते ही, ‘मो सम कौन कुटिल खल कामी’ का पाठ करना चाहिए और दिन भर इस नैतिक प्रश्न का समाधान ढूँढ़ना चाहिए कि इस कुटिल खल कामी को मिटा कर क्या दुनिया को अधिक सुन्दर नहीं बनाया जा सकता।”

शास्त्री जी का तंज सही था, पर वह समय का ध्यान न रख पाए थे। कभी ऐसा भी समय था, पर आज नहीं है। आज हम एक सूचना संपन्न समाज के बीच कुछ कहते हैं और उसी से यह भी पता चल जाता है कि हमने जो कुछ कहा वह ठीक था या नहीं और इसके साथ ही आप पश्चिमी विचार प्रबन्धकों के ऐसे ग्राहब बनते चले जा सकते हैं जो जान सकते है पर सोच नहीं सकते। मुझे इससे ही डर लगता है। अपने बीच अपने को जानकार मानने वाले अनभिज्ञ दासों से। धन सुविधा और प्रतिष्ठा के लोभ में वे ऑंखें मूद लेते हैं पर राह दिखाने का कार्यभार सँभाले रहते हैं।

Post – 2016-08-30

निदान- 35
श्रेष्‍ठताबोध विषाणुता का पर्याय है

“डाक्‍साब, मैं आपका बहुत सम्‍मान करता हूँ और आपसे कुछ सीखने के लिए ही आपकी सेवा में उपस्थित होता हूँ। परन्‍तु कल मुझे लगा, जिन चीजों का आपका ज्ञान अपेक्षित स्‍तर का नहीं है उन पर भी आप बहुत निर्णायक रूप में बोल जाते हैं। आपको टोकते हुए अच्‍छा तो लगता नहीं, परन्‍तु मैं सोचता हूँ आपको गीता का अध्‍ययन गहराई से करना चाहिए। कहॉं गीता और कहॉं ” शास्‍त्री जी ने वाक्‍य पूरा नहीं किया, शायद इस डर से कि जबान अपवित्र न हो जाय ।

”मेरे बारे में आप की यह गलतफहमी कब दूर होगी कि मैं किसी विषय का आधिकारिक ज्ञान रखता हूँ। यहॉं बैठ कर हम गप्‍पे लगाते हैं, समय काटने के लिए। इसी बीच कुछ आक्‍सीजन भी मिल जाती होगी। यदि यह शर्त रख दी जाय कि बिना आधिकारिक ज्ञान के कोई कुछ बोलेगा ही नहीं, तब तो मुझ जैसों की सामत आ जाएगी और हमें आप लोगों का श्रोता बन कर ही उम्र काटनी होगी जो पार्क को भी रिसर्चसेंटर बना देते हैं। यह दूसरी बात है कि यदि कोई ऊँची बात करता है तो सारस की तरह गर्दन तान कर उसके विचार की ऊँचाई तक पहुँचने का भी प्रयत्‍न करता हूँ।

”बस एक बात आप मेरी मान लें, कहॉं कौन और कहॉं कौन में कई बार उल्‍टी सचाई सामने आती है। आप जानते हैं न कहॉं राजाभोज और कहॉं गंगू तेली मुहावरे का प्रयोग पर इसका इतिहास न जानते होंगे, शायद ।”

मैंने एक नजर अपने दोस्‍त की ओर भी डाली कि वह जानता हो तो बता दे। दोनों चुप रहे तो बताना पड़ा, ”मध्‍यप्रदेश में भोपाल या भोजपाल के पास भोजपुर का शिवमन्दिर जानते हैं, क्‍यों अधूरा है । नक्‍शा शिखर तक का बना था पर रह गया आधा ही। इसका कारण यह है कि राजा ठहरे विद्वान, कलाप्रेमी, वैज्ञानिक, निर्माण कार्यों के प्रति समर्पित, स्‍वयं कवि, संस्‍कृत, प्राकृत और जनभाषा में समान गति रखने वले और प्रजावत्‍सल । विश्‍व के इतिहास में इनसे सुयोग्‍य दूसरा कोई शासक न होगा, परन्‍तु सैन्‍यबल और राज्‍यविस्‍तार के प्रति उदासीन। उन्‍होंने लोकोत्‍थान की चुनौतिकयों और उनके निवारण को ही राजा के लिए सबसे बड़ा समर मान रखा था, इसलिए उनकी पुस्‍तक समरांगणसूत्रधार का नाम सुन कर भ्रम होता है कि यह सैन्‍य विज्ञान का ग्रन्‍थ होगस वा हैस्‍थापत्‍य, मूर्तिकला, विज्ञान, साहित्‍य निरूपण आदि का ग्रन्‍थ है न कि युद्धकौशल का। यदि किसी को जानना हो कि भारत ग्‍यारहवी शताब्‍दी तक ज्ञान विज्ञान में किस ऊॅचाई पर था तो उसको समरांगणसूत्रधार की विषय सूची मात्र देख लेनी चाहिए । पुस्‍तक का परिचय विकीपीडिया पर मिल जाएगा।

”अपने नाम के अनुसार ही दानी भी रहे होंगे। आपको यह बताने की जरूरत तो है नहीं कि भोज का अर्थ है दानशील । बहुत पुराना शब्‍द है । भुज्‍ज का नाम वेद के समय के एक अन्‍य दानशील भुज्‍यु के नाम पर पड़ा वैसे ही भोजपाल (भोपाल) और भोजपुर राजा भोज के नाम पर । लोकप्रियता की पराकाष्‍ठा। । परन्‍तु उनसे भी पराक्रमी तेलंगाना के गंगराज ने उन पर हमला कर दिया। भोजराज को परास्‍त होना पड़ा। वह मन्दिर जो बन रहा था फिर पूरा ही न हो सका। परन्‍तु उस यशस्‍वी राजा की प्रजा कैसे मान सकती थी कि हार राजा भोज की हुई थी। गंगराज तैलंग को उसने गंगू तेली बना कर जो यशपताका फहराई उसी का मूर्त रूप यह मुहावरा है- कहॉं राजा भोज और कहा़ँ गंगू तेली। एक माने में यह सच भी है। राजा वही जो दिलों पर राज करे, प्रजावत्‍सल हो, उसे सत्‍ता पर नजर रखने वाला हरा भी दे तो प्रजा उसे हारने न देगी। फिर भी कहॉं अमुक और कहॉं तमुक में सचाई नहीं, किसी के प्रति अगाध अनुराग और दूसरी ओर उपेक्षा भाव की अभिव्‍यक्ति तो होती है, वस्‍तुपरक मूल्‍यांकन नहीं।”

शास्‍त्री जी तो असमंजस में थे कि बीच में टोकें भी तो कैसे। उनके धर्मसंकट में मेरा मित्र ही काम आया। मेरा हाथ पकड़ कर लगभग झकझोरते हुए कहा, ”बात गीता पर हाे रही है कि राजा भोज पर ?”

मैं जमीन पर आ गिरा लेकिन तुरत सँभल कर बोला, ”पहले ही याद दिलाना था न, देर तो तुमने की है।” देखा, इस पर भी उसका तेवर बना ही हुआ है तो कहा, ”यार मैंने सोचा आज तो शास्‍त्री जी को हमें समझाना है। मुझे लगा, आज तो बोलने का मौका मिलेगा नहीं, सो इसी बहाने …।” अब शास्‍त्री जी की ओर मुड़ा, ”हॉं बताइये गीता में वह क्‍या खास बात है जो मेरे पल्‍ले नहीं पड़ी थी और कुर’आन में क्‍या कमी है जो आपको खटकती है ?”

शास्‍त्री जी संकोच में पड़ गए, ”देखिए कुरान तो मैंने पढ़ी नहीं, न ही पढ़ने की जरूरत पड़ेगी। कुरान पढ़ना तो दूर वहॉं तो पहले किसी के मुँह से कलमा भी निकल गया तो वे घोषित कर देते थे कि वह मुसलमान हो गया और अगर फिर से इस्‍लाम से बाहर आने की चेष्‍टा की तो प्राण गँवाने पड़ेंगे । वह समय होता तो जो लोग कहते हैं कुरान में यह लिखा है, यह कमी है, उन सभी को वे मुसलमान घोषित कर चुके होते क्‍योंकि वे इस आलोचना के साथ कुरान पढ़ने को तो स्‍वयं स्‍वीकार कर लते हैं और उसमें कमी देखने के अपराध पर उनको चौराहे पर खड़ा करके कोड़े भी लगाते । उन्‍हें मुसलमान नहीं, पक्‍का मुसलमान ही रास आता है।”

”शास्‍त्री जी, यह जो खानपान में अस्‍पृश्‍यता की मनाही है उसके चलते जो मुसलमानों के हाथ का पानी पी लेते या किसी होटल में खाना खा लेते उन्‍हें तो आप खुद धक्‍का दे कर मुसलमान बना देते। आपने जितना मुसलमानों का हित किया उतना तो मुसलमान भी अपना नहीं कर पाए होंगे। अभी एक रिसर्चर साहब नेहरू के तीन पीढ़ी पीछे जा कर इस आधार पर नेहरू को मुसलमान साबित कर रहे थे कि उनके अनुसार सत्‍तावन में अपनी जान बचाने के लिए उनके दादा मुसलमान से हिन्‍दु हुए थे।”

मैंने रोका, ”शास्‍त्री जी को ही बोलने दो यार, नहीं तो वह जो कहना चाहते हैं कह ही न पाऍंगे।” अब मैं जिज्ञासु भाव से शास्‍त्री जी की ओर मुड़ गया।

”कहने को मेरे पास कुछ नहीं है, और जो कह गया था कि आप इस प्रश्‍न को गहराई से नहीं जानते, उसे अवश्‍य वापस लेने का मन होता है। कारण, मुझे यह विश्‍वास हो ही नहीं पाता कि आप उन बातों को नहीं जानते जिन्‍हें मैं याद दिलाना चाहता हूँ । मैंने आपकी पुस्‍तकों और लेखों काे ध्‍यान से पढ़ा है और मुझे जो कहना है, उसका बहुत कुछ तो आपके लेखन से ही प्रेरित है, इसलिए इसे स्‍मरण दिलाने का दुस्‍साहस मान कर सुनें तो ही अपनी बात कह पाऊँगा।”

मैंने कुछ कहा नहीं, केवल उनके कंधे पर हाथ रख दिया ।

”पहली बात तो यह कि हमारी चिन्‍ताधारा में परमेश्‍वर या सर्वोपरि सत्‍ता की वह अवधारणा ही नहीं है जो सामी मजहबों में पाई जाती है। वे धर्म नहीं हैं, मत हैं, अपने कबीले के बाहर उनकी नजर नहीं जाती और वह मत जब फैलता भी है तो उसमें वह विराटता नहीं आ पाती। इनकी सर्वोपरि सत्‍ता की छवि फराऊनों की, पता नहीं उनका सही उच्‍चारण क्‍या है, फराऊनों का ही काल्‍पनिक विस्‍तार था। मेरी समझ से फराऊन का अर्थ सबसे बड़ा बादशाह रहा होगा। वैसा ही क्रूर, वैसा ही अहंकारी, वैसा ही निरंकुश । कारण सामी मजहबों में सबसे पुराने यहूदी मत का जन्‍म फराऊन से इब्राहिम अब्राहम के निकाले जाने और साम में आ कर संगठित होने से हुआ। सच कहें तो यहॉं मुझसे नाम को ले कर कुछ दुविधा भी हो रही है, क्‍योंकि अब्राहम या इब्राहिम तो ऊर से यहवा का आदेश मान कर कन्‍नान आए थे पर कहीं कुछ है जो मुझे भूल रहा है कि यह्व को परमेश्‍वर मानने वाले किसी स्थिति में फराऊन द्वारा देशबद्र किए गए थे, लेकिन सच पूछें तो मैैने न इस विषय में अधिक जानने की कोशिश की न जानता हूँ। कल आप से बात करने के बाद कुछ जानकारी जुटाने की कोशिश की तो जानकारी बढ़ने की जगह और घट गई और सन्‍देह बढ़ गया। विकीपीडिया में यह जानकारी मिली कि :
The Abraham story cannot be definitively related to any specific time, and it is widely agreed that the patriarchal age, along with the exodus and the period of the judges, is a late literary construct that does not relate to any period in actual history.[3] A common hypothesis among scholars is that it was composed in the early Persian period (late 6th century BCE) as a result of tensions between Jewish landowners who had stayed in Judah during the Babylonian captivity and traced their right to the land through their “father Abraham”, and the returning exiles who based their counter-claim on Moses and the Exodus tradition.

मैंने बीच में टोका, पुराण वृत्‍त तो हमारे भी ऐसे ही हैं । आप इनके इतिहास पर मत जाइये। बात विचारों की और दृष्टिभेद की का रहे थे अाप। नाम और काल से अधिक अन्‍तर नहीं आता। नाम के मामले में तो नाम में क्‍या रखा है से बात समझ में आ जाएगी, और काम के बारे में हमारी कथाओं से कि एक समय में ऐसा हुआ था। इनका कोई महत्‍व नहीं । महत्‍व है उसका जो हुआ था, बना और जिस रूप में वह है। आप उसकी बात करें ।”

उत्‍साह बढ़ाने से भी उत्‍साह घट सकता है, इसका तो पहले पता था ही नहीं। शास्‍त्री जी ने कहा, ”अाज तो अपने ही चिचारों के घेरे को तोड़ नहीं पा रहा हूँ। क्या इस पर कल बात करना उचित नहीं रहेगा?”
”चलिए, यही सही । परन्‍तु कल पूरी तैयारी के साथ आइएगा। हम आपको भी समझना चाहते हैं और उन मतों को भी जिनकी आप आलोचना करेंगे। एक और सुझाव दे दूँ। अपने को श्रेष्‍ठ सिद्ध करने वालों ने दुनिया का जितना अहित किया है उतना वे संक्रामक कीटाणु भी न कर सके होंगे जिनके नाम से हम डरते हैं।”

Post – 2016-08-29

निदान – 34
गीता और कुर’आन

”शास्‍त्री जी, आपको पता है, अभी हाल ही में सोवियत संघ में गीता को इस आधार पर प्रतिबन्धित कर दिया गया था कि यह अशान्ति का संदेश देती है।” मैंने शास्त्री जी को आते ही छेड़ा ।

”डाक्‍साब, आश्‍चर्य मुझे इस बात पर हुआ था कि यह काम सोवियत संघ ने क्‍यों किया फिर भी यह जान कर मनोबल बल्लियों ऊपर उछल गया कि आखिर सोवियत संघ ने भी गांधीवाद की महिमा स्‍वीकार कर ही ली। वह तो लड़ने के अतिरिक्‍त कुछ जानता ही न था।”

मित्र को मौका मिला, मैदान में उतर आया, ”यह जान कर मुझे भी प्रसन्‍नता हो रही है कि शास्‍त्री जी ने यह मान लिया कि गीता युद्ध भड़काने वाला एक ग्रन्‍थ है और एक ओर तो हम शान्ति की बात करते हैं और दूसरी ओर उसे ही हमने धर्मग्रन्‍थ जैसा सम्‍मान दे रखा है। सोवियत संघ वाले सचमुच नासमझ है जिन्‍होंने भारत सरकार की दलील मान कर इसे प्रतिबन्‍ध मुक्‍त कर दिया।”

”मैं यह कहना चाहता था कि युद्ध तो पहले से होते रहे हैं पर इसे दर्शन का रूप गीता ने दिया और इस दर्शन का सबसे गहरा प्रभाव मुहम्‍मद साहब पर पड़ा जिन्‍होंने मार्क्‍स को तो नहीं पर लेनिन को जरूर प्रभावित किया होगा, वर्ना इतना सारा खून बहाकर उन्‍होंने इतना मामूली असर न डाला होता कि उसके बाद भी जत्‍थे के जत्‍थे रूसी साइबेरिया भेजे जाते रहे, अपने ही देश में जेल के बन्दियों की तरह रखे जाते रहे और बाहर निकलने के लिए तड़पते रहे। गीता के उन्‍हीं वाक्‍यों को इस्‍लाम ने अपना सिद्धान्‍त बना लिया उसे सुन कर शास्‍त्री जी का धीरज जवाब दे जाता है और तुम्‍हारी समझ में नहीं आता कि लेनिन मार्क्‍स से अधिक इस्‍लाम से प्रभावित थे और मानते थे कि महज खून बहाने से ही समाजवाद आ जाता है और खून का खाद-पानी न मिले तो क्रान्ति का बीज अंकुरित ही नहीं हो पाता । पर्याप्‍त खून के अभाव में देखो बेचारे माआवादियों का क्‍या होल हो रहा है।”

बिना किसी पूर्वसूचना के शास्‍त्री जी और मेरे मित्र ने एक साथ ठहाका लगाया तो मैं हैरान रह गया कि दोनों में इतनी निकटता कब पैदा हो गई। मैंने दोनों को एक साथ झिड़कते हुए कहा, ”इतनी गंभीर और युगान्‍तरकारी सूझ का मजाक बना रहे हैं आप लोग । क्‍या अाप को यह भी पता नहीं कि गीता के प्रभाव को मुहम्‍मद साहब भी स्‍वीकार करते थे ।”

शास्‍त्री जी से पहले मेरे मित्र ने ही मुझे डॉंट दिया, ”क्‍या बकवास करते हो यार । कहॉं पढ़ लिया कि मुहम्‍मद साहब…”

मैंने यथाबुद्धि समझाने का प्रयास किया, ”देखो, मुहम्‍मद साहब दो भाषाएं जानते थे । एक अरबी, दूसरी इल्‍हामी जबान जिसमें जबान भौर भाषा की जरूरत नहीं पडती परन्‍तु खयाल उससे अधिक रौशन हाे जाते हैं जितना अच्‍छी से अच्‍छी भाषा के माध्‍यम से होता है। वह यह भी दावा करते थे या उनके बारे में यह दावा किया जाता है कि वह निरक्षर थे। निरक्षर इसलिए कि यदि साक्षर होते तो उनके विचार किसी ग्रन्‍थ से प्रभावित मान लिए जाते और वह किसी इंसान के विचार होते जिसकी सीरत में है गल्तियां करना इसलिए उनके विचारों में कुछ गलतियां भी निकाली जा सकती थीं। वह नबी जो ठहरे । ” मैंने बीच में अपनी बात रोक दी, ”अरे यार नबी और नभी या नभ से उतरा हुआ में कोई निकटता तुमको दिखाई देती है।”

”नहीं होगी तो तुम पैदा कर दोगे, वह दोहा है न ‘का नहिं मूरख कर सके, का न करै भगवान ।’ तो तुम्‍हारी प्रतिभा से कुछ भी संभव है, सिर के बल चलना तक।” वह बहुत खुश था अपनी पैरोडी पर।

”खैर, तो मैं यह कह रहा था, कि एक दिन हाल ही में किसी मुल्‍ला मौलवी के मुंह से ही सुना कि हिन्‍दुस्‍तान के बारे में उनकी राय बहुत अच्‍छी थी और यूरोप के बारे में उतनी ही खराब जितनी मिल की पूरब के बारे में थी। (बाद वाली बात उन्‍होंने नहीं की थी मैंने अपनी ओर से उसको मूर्त बनाने के लिए कह दी),या) और इसके समर्थन में उन्‍होंने दो बातें कही, हिन्‍दुस्‍तान को अरब के लोग स्‍वर्गोपम मानते थे, हिन्‍दुस्‍तान जन्‍नतनिशॉं’ और शायद कभी मुहम्‍मद साहब ने कहा था, ‘हिन्‍दुस्‍तान से मीठी हवाएँ आती हैं। तो हवाओं की यह मिठास हो सकता है यहां से जाने वाले विचारों की मिठास हो और जब हम पाते हैं कि इस्‍लाम के कुछ विश्‍वास या विचार ठीक वे ही हैं, शब्‍दश: वही जो गीता के है और युद्ध का उनका दर्शन भी हो सकता है, पूरा नहीं तो आधा गीता से लिया गया हो, तो हैरानी की बात तो नहीं लगती ।”

मैंने पाया दोनों मेरी बात को ध्‍यान से सुन रहे थे । जो कम जानता है उसका विश्‍वास श्रोताओं के ध्‍यान देने से ही पैदा होता है इसलिए मेरा विश्‍वास भी काफी बढ़ गया, गो ब्‍लडप्रेसर बढ़ने पर भी, सुना है, ऐसा ही हो जाता है। मैंने कहा, मैं न यह कह रहा हूँ कि मुहम्‍मद साहब ने गीता पढ़ी थी, न यह कि उन्‍हें किसी ने गीता पढ़ कर सुनाया था। मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूँ कि जिस सांस्‍कृतिक माहौल में मुहम्‍मद साहब का जन्‍म हुआ उसमें भारतीय प्रभाव भी कम नहीं था। मैं उस पूरे तन्‍त्र को जानता नहीं जिसमें वह वर्तमान से असन्‍तोष अनुभव करते हुए अपने पूरे समाज में क्रान्तिकारी परिवर्तन लाना चाहते थे और लाया भी। जो लोग अधिक जानते हैं उनसे मदद की पुकार लगाते हुए भी यह कहना चाहूँगा कि अब तक की मेरी जानकारी में यह है कि जिस समाज में वह पैदा हुए थे वह मातृप्रधान था, उसे उन्‍होंने पितृप्रधान बना दिया और इस हद तक कि महिलाएं हिजाब में कैद हो गईं। कि कर्बला के युद्ध में मरने वालों में कुछ ब्राह्मण भी थे, मुझसे यह न पूछना कि इसका आधार क्‍या है, मैंने सुना बस है, और ईस्‍वी सन की अारंभिक शताब्दियों में भारतीय व्‍याप‍ारियों की गतिविधि का प्रमाण डिरिंजर ने अपनी पोथी दि अल्‍फाबेट में दे रखी है। पुरातात्विक प्रमाण, पुराभिलेखीय प्रमाण, और उनके ही पौराणिक प्रमाण।

”मैं यह नहीं कहता कि गीता से कुरान निकला है, यह कहूँ तो ऐसे मुसलमानों की कमी नहीं जाे आज तक मेरे दोस्‍त है और कल यहजानने के बाद मेरा सर कलम करने काे तैयार हो जाऍंगे। कुर’आन कुर’आन है, और इसकी तुलना किसी दूसरे ग्रन्‍थ से नहीं की जा सकती। अल्‍लाह अल्‍लाह है और उसकी तुलना, वैसा ही दावा करने वाले से नहीं की जा सकती, भले शब्‍द का अर्थ वही हो। अल्‍लाह, आला-सर्वोपरि, अल पूर्वसर्ग ठहरा, इलाह उसका नाम हुआ और इसलिए जब हम कहते हैं अल इलाह या अल किताब तो अल वह घटक है जिसका प्रसार आगे पूरे यूरोप मे हुआ, ला, ले, ए, ऐन दी के रूप में, दि बुक, अर्थात् किताब बस एक।

मैं यह भी नहीं कहूँगा कि सं. के अलं या पर्याप्‍त, सर्वातिशायी का अल्लाह के अल से कोई संबन्‍ध हो सकता है। मैं केवल यह कहना चाहता हूें कि इन पहलुओं की गहरी पड़ताल होनी चाहिए थी कि कैसे इतनी संकल्‍पनाऍं भारतीय भाषा या विचार दर्शन के इतने करीब पाई जाती हैं। मैं तो तुम जानते हो, जो सूझ गई सो बोल गया, संकट उसका है जिसने मुझे प्रमाण समझ कर इस पर विश्‍वास कर लिया । इसीलिए मैं बार बार याद दिलाता हूँ, मेरे कहे की छानबीन करने के बाद केवल तक तक मानो जब तक इनका खंडन नहीं हो जाता ।”

शास्‍त्री जी को सहन नहीं हुआ, ”मान तो रहे हैं डाक्‍साब, पर यह भी लगता है कि आप की तर्कशृंखला उसी दिशा में जा रही है जिसमें राजा ने बच्‍चा किसका है तय करने के लिए कहा था, बच्‍चे को दो टुकड़ों में बॉंट दाे और दाेनों को आधा आधा दे दो। पर उसमें एक सूझ थी, दूध का दूध पानी का पानी हो गया था। पर यहाँ आप जो तरीका अपना रहे हैं उसमें संभावित निर्णय सचमुच दूध बराबर पानी का दिखाई देता है।

मैं कुछ साबित कर सकूँ उससे पहले यह देखें कि हमारे पास ऐसा कोई सांस्‍कृतिक विस्‍फोटक है कि नहीं जो हमारे ताप को उस सीमा तक पहुंचा देता है जहां हम अक्‍ल से काम लेना बन्‍द कर देते हैं।पूरा समाज अतिसंवेद्यता की अवस्‍था में रहता है। कुछ बातों का खंडन करना चाहें तो मैं प्रतीक्षा में रहूँगा:

1. गीता का समय कुरान या मुहम्‍मद साहब के जन्‍म से लगभग एक हजार साल पहले, या कम से कम छह सौ साल पुराना है, इसलिए यदि दोनों में किन्‍हीं समानताओं को पाया जाय तो यह स्‍वीकार करना होगा कि कालदेव का फैसला क्‍या है, पहले कौन और बाद में कौन। पूर्ववर्ती उत्‍पादक और परवर्ती ग्राहक।

2. अब दोनों के बीच की समानताओं को धर्मसीमाओं से अलग बैठ कर एक तीसरे व्‍यक्ति की ऊँचाई से देखिए जिसमें सामने से देखे का बहत कुछ अदृश्‍य रहता आया था।

3. अब इसी सन्‍दर्भ में निम्‍न अंशों का तुलनात्‍मक पाठ करें: ममेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत । यह अल्‍लाहु अकबर के कितने निकट पड़ता है, मैं ही सबसे बड़ा हूँ और मेरी शरण में आओ ।

4. सर्व धर्मान् परित्यज्‍य मामेके शरणं व्रज अहं त्वां सर्वपापेभ्य: भोक्षयिष्यामि मा शुच। को उस विश्‍वास़ के साथ पढ़ें जिसमें राहे खुदा या धर्म की प्रतिष्‍ठा के लिए कोई जघ्‍ान्‍य काम हो जाए तो भी उसे खुदा माफ कर देता है।

अौर अन्‍तत:

5. हतो वा प्राप्‍स्‍यति स्‍वर्ग्‍यं जित्‍वा वा भोक्षसे महीम । के उसे सूत्र को याद करे जिसमें शहादत और मालेगनीमत का संदेश छिपा है और जो युद्ध और लूटपाट का सबसे बड़ा कारण रहा है। मर गए तो जन्‍नत नसीब होगी, जिन्‍दा रहे तो माले गनीमत । गनी बनने के लिए गन उठा लो।

क्‍या आप लोग अब भी नहीं मानेंगे कि कुरान का पुराण भले पश्चिम से लिया गया हो, इसके जिहादी नारों के पीछे हमारी अपनी सोच भी छिपी हुई है। यह दूसरी बात है कि भारतीय समाज ने इस युद्ध के विनाशकारी परिणाम भुगत लिए थे और उस ग्रन्‍थ तक को पढ़ने से बचते थे जिससे उनके विश्‍वास के अनुसार लड़ाई झगड़े हो जाते थे । मेरे घर पर हिन्‍दी में महाभारत था पर उसे पढ़ने की मनाही थी।”

शास्‍त्री जी खिन्‍न हो उठे । डाक्‍साब मैं आप से इतने यान्त्रिक पाठ की अाशा नहीं करता था। यह तो आत्‍मघाती पाठ है जिसमें परिदृश्‍य तक का ध्‍यान नहीं रखा जाता।

मुझे शास्‍त्री जी की टिप्‍पणी गलत नहीं लगी, परन्‍तु सही भी नहीं लगी। बताया तो और भड़क उठे, जो गलत नहीं है वह भी सही नहीं है। विचित्र है।” कहते हुए शास्‍त्री जी मर्यादा का ध्‍यान किए बिना उठे और चल दिए।

Post – 2016-08-29

अभी कुलदीप सलिल की एक कविता के जवाब में साल एक पहले लिखी अपनी पंक्तियां याद आई । पोस्‍ट करना चाहा तो गायब हो गई इसलिए यहॉं ही सही:

हम कहा करते थे ‘दिल खुश नहीं है दुनिया में’
तंज तुम करते ‘नई दुनिया बनाओ तो सही’।
हम कहा करते थे दुनिया तो एक ही है जनाब
सही नहीं है यह इसको ही मिटाओ तो सही।’
‘यही इक काम किया हमने आज तक देखो
‘और क्या करना है आगे की बताओ तो सही।
‘कट कर क्यों दूर चले जाते हो खुद से प्यारे
‘दिल जिगर एक करो सामने आओ तो सही।’
मौत के रास्ते दिल तक कभी पहुँचा कोई?
ज़िन्दगी के लिए आवाज़ उठाओ तो सही।
कितने अरसे से बदल कर इबारतें फिकरे
कहता हूँ अपनी कहो, पास भी आओ तो सही।
मर गए कितने मगर चैन न आया तुमको
ग्लानि होती है तो गल कर भी दिखाओ तो सही।
5/15/2015 9:53:42 PM

Post – 2016-08-28

मेरे साये में तुम्‍हारा भी अक्स आता है ।
एेसे आईने हैं जिनमें यह अक्‍स आता है।
तुम न समझोगे जिसे जानता भगवान नहीं
पर हकीकत है कि आता है अक्‍स आता है ।
तुममे कितना बचा, जिसको था समझता अपना
तू भी अपना था कभी कुछ तो याद आता है ।
क्‍या हुआ, क्‍यों हुआ, कारीगरी मालूम नहीं
भरम मिटाओ तो बढ़ता ही चला जाता है।
इतना लिखता है कि पढ़ने का वक्‍त है ही नहीं
बहुत कुछ होके सिफर बनने पर आमादा है ।।

Post – 2016-08-28

एक पेशेवर इतिहासकार का बयान

हम बताते हैं कि क्‍या गुजरी है क्या सहते रहे ।
झूठ को भी सच बना कर किस तरह कहते रहे ।

हम बताते हैं कि क्‍या होती है सच की रोशनी
जिस को अंधियारा बता कर कालिमा भरते रहे ।

हम बताते हैं कि कितने नीच थे पर नींव थे
उस इमारत के जिसे भाड़े पर हम गढ़ते रहे ।

डूबने को थे हमारे सामने सैलाब भी
पर न चिल्‍लू में था पानी सोच कर चलते रहे।

क्‍या किया हमने बताएं क्‍यो किया कितना किया
सिर्फ पैसे के लिए करना पड़ा करते रहे ।

Post – 2016-08-28

निदान – 33
उभय कल्‍याण की दिशा

”शास्‍त्री जी, मैं लाख तर्क दूँ आप मेरी बात के कायल नहीं हो पाते, क्‍योंकि भावना इतनी आहत है, चोट इतनी गहरी है कि आप मुसलमानों के प्रति अपनी नफरत से भी प्‍यार करने लगे हैं। इस प्‍यार को छोड़ना नहीं चाहते । ऐसी दशा में हम दोनों एक समझौता कर लें। मैं आपकी इस बात को तो मानता ही हूँ कि भारत हजारों साल तक, अपने ह्रास के दौर में भी जगद्गुरु रहा है ; आप मेरी बात मान लीजिए कि पच्छिम वालों का प्राचीन भारत के विषय में यह आरोप तो गलत है कि इसमें वैज्ञानिक सोच और तार्किकता का अभाव रहा है, परन्‍तु आज के विषय में उनका यह आरोप शतप्रतिशत सही है कि हमारी भावुकता इतनी प्रचंड हो गई है और उसी के अनुपात में बौद्धिकता का इतना निपट अभाव है कि जो अपने को बौद्धिक कहते और सारी बौद्धिक गतिविधियों को अपने नियन्‍त्रण में रखना चाहते हैं वे तक यह नहीं जानते कि उनके दिमाग में पश्चिम का कूड़ा भरा हुआ है, क्‍योंकि उन्‍होंने अपनी ऑंखों से काम ही नहीं लिया और इसके बाद भी यदि कहा जाय कि आज का विश्‍वगुरु पश्चिम है और पिछले चार सौ साल से या धर्मयुद्धों के दौरान अरबों के संपर्क में आने और कुछ समय तक उनका शिष्‍य बने रहने के बाद से जगद्गुरु बने हुए हैं। आज हमें नम्रतापूर्वक उनसे सीखना चाहिए।”

”डाक्‍साब, सीखेंगे कैसे ? एक ओर तो आप कहते हैं कि हमें उनकी भाषा की जगह अपनी भाषाओं को लाना चाहिए, उनके ज्ञान के स्‍थान पर अपना ज्ञान पैदा करना चाहिए और दूसरी ओर आप उनकी नकल करने की बात कर रहे हैं।”

”मैं पहले ये जानता था कि हम देखते और सुनते समय भी अनजाने ही फेरबदल कर लेते हैं। कहें सीखना तो वह आपको नकल करना सुनाई देगा। मैं कहूँ धैर्य तो आपको कायरता सुनाई देगा। इसमें आपका दोष नहीं है, सबसे होता है। मुझसे भी। हम जिन शब्‍दो, ध्‍वनियों, विचारों के आदी हैं उनसे निकट पड़ने वाले प्रतिरूप, थोड़ी भिन्‍नता रखने वाले ऐन्द्रिक संकेत उन्‍हीं में ढल जाते हैं। जमीन पर ही लीक नहीं हुआ करती, दिमाग में भी लीकें हुआ करती हैं और अलीक या लीक से कुछ निकट का लीक में दाखिल हो जाता है इसलिए अर्थभेद को समझने में सभी से कठिनाई होती है। मैं एक सरदार जी को यह समझाता रहा कि कृप्‍या को कृपया लिखिए और वह बार बार दुहराने पर बताते हॉं कृप्‍या ही लिखा है। यह बताइये धीर शब्‍द का पूरा भाव, उत्‍तेजना या आवेश के इस क्षण में आप मुझे समझा सकते हैं ?”

”डाक्‍साब, मैं आपको क्‍या समझा सकता हूँ । आप सभी दृष्टियों से मुझसे श्रेष्‍ठ हैं, पर यह न कहिएगा, धीरज रखो, भगवान भला करेंगे, या आगे जो होगा अच्‍छा ही होगा। हमारा धीरज पिछले और आज के अनुभवों के कारण चुक गया है।”

”मैं जानता था, भावना उग्र हो तो ज्ञान बेकार हो जाता है। वह इच्छित के लिए तर्क जुटाने का काम अवश्‍य करता है अन्‍यथा आप जैसे विद्वान को मुझे न याद दिलाना पड़ता कि धैर्य वीर रस का स्‍थायी भाव है और जिसका धैर्य चुक गया उसकी पराजय निश्चित है क्‍योंकि उसमें वीरभाव का ही अभाव हो जाएगा। आप परिस्थिति का सामना करने से पहले ही हारने की बात कर रहे हैं और उससे सन्‍तुष्‍ट भी अनुभव कर रहे हैं।”

सामान्‍य स्थिति होती तो वह मान जाते। अपने किसी लेख या व्‍याख्‍यान में वह इसे स्‍वयं कहते। परन्‍तु इस समय भावना की उग्रता अपनी बलि चाहती थी। तर्क बचा नहीं था इसलिए शास्‍त्री जी के मुँह से निकला, ‘डाक्‍साब” और वह अपने कहे शब्‍द के दबाव में नि:शब्‍द हो गए। पराजय की स्‍वीकृति का एक रूप यह भी होता है जब न आप कुछ कह पाते हैं, न अपनी गलती मान पाते हैं। गलती मान लेते तो जीत भी आपकी ही होती, सत्‍य का स्‍वीकार स्‍वयं विजय है।

मैंने इस स्थिति का लाभ उठाया, ”हममें यह धैर्य था, पश्चिमी संस्‍कृति मेंं धैर्य, क्षमा, दया आदि वे सात्विक गुण न थे न इसके प्रति आदर भाव था। आज उनके पास है, हमारे पास नहीं है, हम धैर्य से काम लेने तक को तैयार नहीं। इसलिए हमें अपनी चीजों को भी उनसे सीखना होगा, हम अपनी परंपरा से सीखने की शक्ति तक खो चुके हैं। मैं आपकाे एक उदाहरण से इसे समझाना चाहूँगा । मैं चाहूूँगा कि आप भी उस पुस्‍तक को देखें। वह अब इंटरनेट पर उपलब्‍ध है, डब्‍ल्‍यू डब्‍ल्‍यू हंटर की पुस्‍तक The Indian Musalmans और सोचिए कि 1857 के क्रूर दमन के बाद भी उन्‍होंने अग्रेजी राज्‍य को किस तरह की चुनौती दे रखी थी। हालत हमारे आज के अनुभवों से अधिक विक्षोभकारी थी। इसे मैं हंटर के शब्‍दों में ही रखना चाहूँगा :
The Bengal Muhammadans are again in a strange state. For years a Rebel colony has threatened our frontier; from time to time sending forth fanatic swarms, who have attacked our camps, burned our villages, murdered our subjects, and involved our troops in three costly wars…. They disclose an organization which systematically levies money and men in the Delta, and forwards them by regular stages along our high-roads to the Rebel Camp two thousand miles off. Men of keen intelligence and ample fortune have embarked in the plot and a skillful system of remittances has reduced one of the most perilous enterprises of treason to a safe operating of banking.
While the more fanatical of the Musalmans have thus engaged in overt sedition, the whole Muhammadan community had been openly deliberating on their obligation to rebel. During the past nine months, the leading newspapers in Bengal have filled their columns with discussions as to the duty of Muhammadans to wage war against the queen. The collective wisdom of the Musalman Law Doctors of North India was first promulgated in a formal Decision (Fatwa). …
Somehow or other, every Musalman seems to have found himself called on to declare his faith, to state in the face of his coreligionists, whether he will or will not cooperate with the Traitors’ Camp on our Frontier; and to elect] once for all, whether he shall play a part of a devoted follower of Islam, or of a peaceable subject of the Queen. … The obligation of the Indian Musalmans to rebel or not rebel, hung for some months on the deliberations of the three priests in the Holy City of Arabia….
In my second chapter I shall explain the treasonable organization by which the rebel camp has drawn unfailing supplies of money and men from the interior Districts of the Empire….. The Musalmans of India are, and have been for many years, a source of chronic danger to the British Power in India. For some reason or the other they hold aloof from our system, and the changes in which the more flexible Hindus have cheerfully acquiesced, are treated by them as deep personal wrongs.

”जिनकी तलवारों ने बादशाह की सन्‍तानों के सिर काट कर उन्‍हें तोहफे में पेश किए थे, जिन्‍होनेे दिल्‍ली की गली गली में घुस कर मुसलमानो को मौत के घाट उतार कर दहशत सी फैला दी थी वे उस विद्रोह को दबा न पाए थे जो धार्मिक उत्‍तेजना की आड़ में पूरे देश में भड़का दिया गया था।

”इस उत्‍तेजना भरे माहौल में उन्‍होंने जिस धैर्य से उनके पूरे जाल का अध्‍ययन किया, यह समझा कि बलप्रयोग से काम नहीं चलेगा, कूटनीतिक चातुरी, दृढ़ता और संयम से उन्‍होंने इस बिगड़े हुए माहौल में एक भरोसे का आदमी पाया और उसका कूटनीतिक उपयोग करते हुए उस लपट को जो उनकी ओर बढ़ती जा रही थी हिन्‍दुओं की ओर मोड़ दिया।

”आप का कहना है, पहले हिन्‍दुओं और मुसलमानों के संबन्‍ध बहुत अच्‍छे थे। सांप्रदायिकता के बीज अंग्रेजों ने बोए।

”मैं उसी किताब के भरोसे यह कह रहा हूँ क्‍योंकि पश्चिमी लेखक तथ्‍यों में हेराफेरी केवल चुनाव के मामले में करते हैं जिससे मनचाहा नतीजा निकाला जा सके। परन्‍तु जो तथ्‍य रखते हैं, उन पर काफी दूर तक भरोसा किया जा सकता है । सरसैयद से पहले एक और सैयद अहमद हुए थे वे लुटेरे थे, स्‍वयं संभवत: सीमान्‍त क्षेत्र में अफीम की तस्‍करी का काम करते थे। मूलत: बरेली के थे। रणजीत सिंह की नशे के कारोबार पर सख्‍ती के कारण उन्‍होंने दो एक साल कुरान के अध्‍ययन पर लगाया और फिर रणजीत सिंह से बदले के लिए उनके द्वारा गोवध पर लगाए प्रतिबन्‍ध को उत्‍तेजना का मुद्दा बना कर हिन्‍दुओं और सिक्‍खों के खिलाफ जिस धर्मयुद्ध का आरंभ किया उसमें दोनों ओर से न जाने कितनी हत्‍यायें होती रहीं। सांप्रदायिकता तो सामी मतों की घुट्टी में है जिसमें अपने धर्म समुदाय को छोड़ दूसरे सभी मनुष्‍यों से नफरत और उत्‍पीड़न के बीज पाए जाते हैं। वह अहमदिया आन्‍दोलन जिसका हमने हवाला दिया उसी सैयद अहमद के अनुयायियों का परिणाम था। अंग्रेजों ने इसका बहुत कुशलता से उपयोग किया कि आपसी घृणा कम न होने पाए और दोनों समुदायों की उन पर निर्भरता बनी रहे। पर इस बात का ध्‍यान रखा कि स्थिति नियन्‍त्रण से बाहर न जाने पाए ।”

”फिर तो बात वहीं पहुँची न ।”

”बात को कहीं और पहुँचने ही न देंगे आप । चलिए, आपकी प‍ंडितानी कलेवा तैयार करके आपकी प्रतीक्षा में होगी। पर कलेवा करते समय इस बात का ध्‍यान रखिएगा कि मुख्‍य शत्रु ने जो छोटा शत्रु था उसकी ओर सारा गुस्‍सा कैसे मोड़ दिया था। जिस सैयद अहमद को ले कर वह चिन्तित था उसके पीछे भी उसकी कारगुजारी रही हो तो आश्‍चर्य नहीं। कारण रणजीत सिंह ने फ्रासीसी प्रशिक्षकों के अधीन अपनी सेना का जो आधुनिकीकरण किया और वह जैसी प्रबल शक्ति बनते जा रहे थे उसके कारण सिख भी अंग्रेजों के निशाने पर थे। यह तूफान पहले सीमान्‍त प्रान्‍त में उनको कमजोर करने या उखाड़ने के लिए ही किया गया था। यह दूसरी बात है कि सत्‍तावन के समर में रणजीत सिह ने भाग नहीं लिया। उनकी सामरिक तैयारी अंग्रेजो के मामले में प्रतिरक्षात्‍मक ही थी।

”मैं केवल जनाक्रोश पैदा करने अथवा अपने विरुद्ध उभरे जनाक्रोश की दिशा को अपने संभावित शत्रुओं की ओर मोड़ने के लिए अपेक्षित धैर्य, आत्‍मविश्‍वास, भावनाओं पर नियन्‍त्रण की कला पश्चिम से सीखने की बात कर रहा था जिसके कारण भारत और पाकिस्‍तान दोनों के प्रधान एक दूसरे से क्‍या कहते हैं, इससे अधिक ध्‍यान इस बात पर दिया जाता है कि अमेरिका ने कब किसके पक्ष में क्‍या कहा । अर्थात् हमारी कूटनीतिक अदूरदर्शिता के कारण दाेनों स्‍वेच्‍छा से उसका खिलौना बने हुए हैं जिसको भारतीय उपमहाद्वीप में स्‍थायी शान्ति अपने हितों के विपरीत लगता है। इस धार को उसकी ओर मोड़ना सरकारों के लिए असंभव है। इसकी तनिक भी टोह मिलने पर वह और बखेड़ा खड़ा कर सकता है, परन्‍तु सामाजिक स्‍तर पर यह समझ पैदा हो तो इसके परिणाम उभय कल्याणकारी होंगे। यह सरकारों का काम नहीं, बुद्धिजीवियों का काम है।

Post – 2016-08-27

निदान – 32

माइंड बिहाइंड मैडनेस

”पूरी बात सुनते तो सही, मैं यह याद दिला रहा था कि उन्‍होंने हमारा भी जो उपयोगी था उसे अपना ही नहीं लिया उसके आधार पर वे इतना आगे बढ़ चुके हैं कि यदि हमारी अपनी खोई हुई समस्‍त उपलब्धियॉं आज हासिल भी हो जायँ तो उनके बल पर उनके सामने ठहर नहीं सकते। याद यह दिला रहा था कि हमने उनसे यह नहीं सीखा कि दुनिया भर में कहीं भी कोई उपयोगी विचार हो, उपयोगी कच्‍चा माल हो, खनिज संपदा हो, स्‍वयं उन्‍हें न मालूम हो तो तुम खोज कर निकालो और उस पर कब्‍जा कर लो। तुम जानते हो, उन्‍हें यदि किसी पिछड़े से पिछड़े समाज में लोग किसी चीज को खाते हैं, यहॉं तक कि कोई कीड़ा मकोड़ा भी और वे पाते हैं कि उससे उन्‍हें कोई समस्‍या पैदा नहीं हुई तो उसे भी आजमाने से बाज नहीं आते। यह लोच उन्‍होंने पैदा कर ली है। हमने उनसे बना हुआ माल और हमें बौद्धिक परजीवी बनाए रखने के लिए तैयार किए गए विचार लिए हैं जिसे हमारे लिए पैदा करते रहने में वे आज भी पूरी तरह सक्रिय हैं और उनके अनुसंधाता सभी क्षेत्रों में तुम्‍हारे देश में भी मिल जाऍंगे।

”हमने अपना रक्षणीय खो दिया और अरक्षणीय को अपनी संस्‍कृति मान कर चिपके हुए हैं, और उनकी समकक्षता के आने के लिए उनके भी अरक्षणीय को अपना लिया। हम पहले आपदा में भी काफी सुरक्षित थे, आज संपदा में भी सर्वथा अरक्षित है। सुरक्षा को सैन्‍यबल और आयुधबल तक सीमित करके मत देखो। इसके लिए उस रीढ़ की भी जरूरत होती है जो इन्‍हें सँभाल सके। उन्‍होंने अपना अरक्षणीय इस तरह ओझल कर दिया मानो यह कभी उनके पास था ही नहीं और लभ्‍य और रक्षणीय को बचाया, परिष्‍कृत किया, बढ़ाया। दूसरों से लिए हुए में भी थोड़ा फेरबदल करके अपना बना लिया वह चाहे तुम्‍हारा योग हो, नृत्‍यशैलियॉं हों, या संगीत और अभिनय की बारीकियॉं । वे सीखते हैं तो तुम सोचते हो पश्चिम पर यह तुम्‍हारी सांस्‍कृतिक विजय है, यह नहीं जानते कि इस पर अधिकार करक वापस जाने वाले सुरुचि और संस्‍कृति का अवदोहन करके अपने को अधिक समृद्ध कर रहे हैं। तुम्‍हें लगता है पिकासो ने आदिम कलारूपों से सीखा और उनकी पूजा करने लगते हो, यह नहीं देखते कि उसको रूपान्‍तरित करके उसने आधुनिक कला के शीर्ष पर पहुँचा दिया। न तुमने अपनी परंपरा का पुनराविष्‍कार किया न उनका ग्रहण करके उसको रूपान्‍तरित करके नयी सर्जना की। अधिक से अधिक थोड़ा घालमेल जिसमें उसकी पहचान अलग बनी रहती है, याने फ्यूजन, रिमिक्‍स आदि।

”अभी कुछ दिन पहले सर्वसुलभ और हमारे आलस्‍य के कारण लगता है ज्ञान का एकमात्र स्रोत रह जाने वाले इंटरनेट से ईसाइयत के मध्‍यकालीन उपद्रवों, हत्‍याओं, विध्‍वंसों का इतिहास जानना चाहा वह गायब था। यदि पुरानी पोथियाँ न रह जायॅगी तो वह उनके इतिहास के गर्हित चरणों को, उनके पैशाचिक कुकृत्‍यों को मिटा दिया जायेगा। उन्‍होंने कितनी धूर्तता और कमीनेपन से अमेरिका सभ्‍यताओं को नष्‍ट किया, उनकी उदारता के बदले उनके साथ क्रूरता से पेश आए, उनसे मैत्री करते उनके बीच शराब आदि की लत डाल कर उन्‍हें अपने ही लोगों के विरुद्ध काम करने वाला एजेंट बनाया, कैसे उस मैत्री के चलते प्‍लेग के विषाणुओं से युक्‍त कंबल बॉंट कर जाड़े में आराम पहुँचाने की जगह प्‍लेग फैला कर उनका सफाया किया यह जानने के लिए अमेरिकी उपनिवेशीकरण का इतिहास तलाशने लगा तो सभी उपलब्‍ध स्रोतों से यही पता चल पाया कि सब कुछ कितने सलीके से हुआ। आरंभ में इन आव्रजकों को किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा बस दुख के नाम पर वह था। केवल अपनों का दुख था। अभी इंग्‍लैंड की उस रानी के कारनामें तलाश रहा था जिसे ब्‍लडी मेरी के नाम से जाना जाता था और जिसने प्रोटेस्‍टेंटों का नरसंहार कराया था और जिसके डर से जान बचा कर वे अपने प्राण की बाजी लगा कर अटलांटिक पार करके अमेरिका की ओर भागे थे और बहुतों का जहाज का बोझ बढ़ जाने के कारण जहाजो के डूबने से ही अन्‍त हो गया, तो गूगल, विकीपीडिया, सभी जगहों से ब्‍लडी मेरी नाम की कल्पित कथाऍं, होटलों आदि के नाम तो मिले वह रानी और उसके कारनामे गायब थे जिसके अत्‍याचार से तडप कर मिल्‍टन ने पैराडाइज लास्‍ट लिखा था, जिसकी वेधक पंक्ति है ‘अवेंज ओ लार्ड दाइ स्‍लाटर्ड सन्‍स अवेंज।”

”कितने घंटे तक यह कार्यक्रम चलेगा ?”

”तब तक जब तक तुमको यह विश्‍वास नहीं हो जाता कि वे अपने इतिहास से अपने पैशाचिक कृत्‍यों को हटा रहे हैं कि अपने को और पूरी दुनिया को यह विश्‍वास दिला सकें कि उनका समाज सदा से बहुत सदाचारी और न्‍यायपरायण रहा है और उनके ऐजेंट मानवाधिकार की ओट में उनको वह सामग्री पहुँचा रहे हैं कि दूसरे समाज कितने कुत्सित है, कितने हैवान है।

”‍जब तक तुम यह नहीं समझ जाते की धर्म और धर्मान्‍धता की सीमाओं को समझ लेने के कारण उनके अपने देशों में गिरजाघरों में हाजिरी कम हो रही है, परन्‍तु अन्‍य या जिसे वे वेस्‍ट से अलग रेस्‍ट की कोटि में रखते हैं उनमें उनके प्रत्‍यक्ष और परोक्ष शह से धार्मिकता और अन्‍धविश्‍वासों को प्रबल किया जा रहा है। पता लगाओ पिछले पचास सालों में कितने नये गिरजे या कैथेड्रल पश्चिमी देशों में बने हैं और मुझे भी बताओ । मुझे स्‍वयं भी बोध है ज्ञान नहीं है। पर उनके सीधे या पराेक्ष उकसावे से शेष जगत में कितने मन्दिर, गिरजे, मस्जिदें, गुरुद्वारे बन रहे हैं और उनमें लोगों का उत्‍साह किस तरह बढ़ाया जा रहा। जब तक यह समझ में नहीं आता, तुम्‍हें उनके उकसावे पर तुम्‍हें भोंकने के लिए खंजर लिए एक दुश्‍मन दिखाई देगा, यदि समझ में आ गया तो तुम्‍हें अपने दुश्‍मन के पीछे, परदे में बैठा, उसे सुपारी देने वाला दिखाई देगा। मेरा मतलब है, देखना चाहोगे तब। अभी तक तो तुमको हमारी ऐतिहासिक उपलब्धियों पर शर्म आती है, परन्‍तु यदि उसी इतिहास को अधिक विकृत करने के लिए वर्तमान प्रक्षिप्‍त करने के उनके पुरासंग्रहालय के लिए और उनके समाज के उपभोग के लिए वाटर और फायर या ऐसी दूसरी अपराध और हिंसा की ऐसी फिल्‍में बनाई जा‍ती है जिनसे अपराधियों को प्रेरणा और सूझ मिलती है तो ये फिल्‍में तुमको प्रगतिशील लगती है और इन पर सेंसर अभिव्‍यक्ति की स्‍वतन्‍त्रता का हनन लगता है। जब तुमकों मेरी बात समझ में आजाएगी तो इन कृतियों की चमक कम हो जाएगी । तब उसका अर्थशास्‍त्र ही नहीं उनका घिनौना चेहरा भी दिखाई देने लगेगा जो इन प्रवृत्तियों के पीछे हैं। तुम तो यह तक मान कर न दोगे कि अभिव्‍यक्ति के सबसे सशक्‍त माध्‍यम में अपराधजगत का पैसा लग रहा है, अपराध को कलात्‍मकता की ऊँचाई दे रहा है और काले धन को सफेद करने का साधन बना हुआ है।”

जिन्‍हें शास्‍त्री जी कल पागल कह रहे थे वे सचमुच पागल हैं। और यह भी मानता हूँ कि उनका इतिहास भी बहुत उजला नहीं रहा है, परन्‍तु भावुकता को चरम पर पहुंचा कर, उसी इतिहास का उपयोग उनके अपने अहित के लिए, उन्‍हें दुर्दान्‍त दरिन्‍दों के रूप में पेश करने के लिए किया जा रहा है और वे समझते हैं पूरी दुनिया उनसे थर्रा रही है। आज नहीं तो कल पूरे विश्‍व पर इस्‍लाम का विस्‍तार हो जाएगा। यह तक नहीं दिखाई दे रहा मुसलमान मुसलमान को मार रहा है, और मुसलमान मुसलमानों को जलील कर रहा है। शास्‍त्री जी हिन्‍दुओं को संकटग्रस्‍त देखते हैं तो मैं उनसे असहमत नहीं होता, परन्‍तु यद‍ि वह यह देखते कि कैसी चालें चलते हुए मुसलमान को पहली बार संकटग्रस्‍त बनाया जा चुका है, और उसे उसी के द्वारा बर्बाद करते हुए मुस्लिम देशों की खनिज संपदा को पर कब्‍जा करने की योजना सफल होती जा रही है, उसी समुदाय के दूसरे देशों के नौजवानों को खूखार दहशतगर्दो में बदलने की योजनाएँ कारगर होती जा रही हैं तो उन पर क्रोध आने की जगह यह समझ पैदा होती कि आज की घड़ी में मुझे अपने पुराने दुश्‍मन को भी बचाने की फिक्र करनी होगी और अपने को बचाने का भी जतन करना होगा। ये दोनों अलग नहीं है। वेस्‍ट ऐंड दि रेस्‍ट की इस जंग में केवल हिन्‍दू-मुसलमान ही नहीं शेष दुनिया के सभी विचारों और देशों के लोगों काे एक दूसरे को समझने की और एक दूसरे के साथ खड़ा होने की जरूरत है। पश्चिम के लिए आप हिन्‍दू या मुसलमान नहीं हैं, एशियाटिक हैं। इस ऐशियाटिक चेतना को मजबूत करने की जरूरत है।”

”क्षमा करें डाक्‍साब, इसका अनुभव है हमें। एक बार खिलाफत आन्‍दोलन का फल भुगत चुके हैं, दुबारा वह प्रयोग नहीं कर सकते। हमारे मित्र ठीक कहते हैं बबूल को शहद से सींचने से उसके कॉंटे मुलायम नहीं हो जाते ।”

”उनको समझाइये, शहद को सिंचाई पर खर्च क्‍यों करते हैं। अधिक हो तो हमारे पास पहुँचा दीजिए सुना बड़ा गुणकारी होता है, पर यदि किसी पेड़ को उससे सींचिएगा तो चींटियां उसकी जड़ों तक को खा जाऍंगी और वह सूख जाएगा, भले वह बबूल ही क्‍यों न हो। मैं कोई आन्‍दोलन करने को नहीं कर रहा हूँ। मैं कहता हूँ, आन्‍दोलन मत करें। अब देश आपका है, राज्‍य आपका है। राज्‍य को अपना काम करने दीजिए। शिकायत राज्‍य की नजर में ले आइए। राज्‍य अपने कर्तव्‍य के निर्वाह में शिथिल मिले तो संचार माध्‍यमों से जनता को सचेत कीजिए। अगले चुनाव में उसको सत्‍ता से बाहर करने का संकल्‍प लीजिए पर कानून अपने हाथ में न लीजिए। यह सभ्‍य लोगों का काम नहीं है। यह उस चरण को शोभा देता था जब राज्‍य संस्‍था न था या अराजकता थी और इससे अराजकता ही पैदा होती है। जो अपने देश को प्‍यार करते हैं वे अराजकता न तो पैदा कर सकते हैं, न उसमें सहभागी हो सकते है। आपको अपनी ओर से कुछ नहीं देना है, सिवाय अपने दूसरे कामों पर ध्‍यान देने के जो आपके सरकार के काम में हाथ डालने के कारण ठीक से नहीं हो पा रहे हैं । स्‍वधर्म का पालन कीजिए। अपने क्षेत्र का काम पूरी निष्‍ठा से कीजिए। इतने से ही बहुत कुछ बदलेगा। यह पहला कदम है, अन्तिम समाधान नहीं । अभी कई गुत्थिया सुलझानी होंगी।”

शास्‍त्री जी ‘हँअँअ’ इस तरह कहते हुए उठे जिसका अर्थ था वह सन्‍तुष्‍ट नहीं हुए ।

Post – 2016-08-26

निदान – 31

आत्‍मराग से बचते हुए

”शास्‍त्री जी, पिछले तीन सौ सालों से पश्चिम वाले यह प्रचार करने में लगे हैं कि हिन्‍दू देववादी रहे है, अतिरंजना से काम लेते हैं, स्‍वभाव से भावुक और अन्‍धविश्‍वासी रहे हैं, इसलिए ज्ञान-विज्ञान में पिछड़े रहे हैं, इनकी सोच वैज्ञानिक हो ही नहीं सकती। आपको तो पुराने साहित्‍य का इतना अच्‍छा ज्ञान है, इसमें कितनी सचाई है ?”

”डाक्‍साब, यह उसी सोच का विस्‍तार है जिसमें वे यह विश्‍वास दिलाने को व्‍यग्र थे कि पश्चिम सदा से अग्रणी रहा है, गोरी नस्‍लें रंगीन कौमों से उत्‍कृष्‍ट हैं, जिसका पूरक पद है वे सदा से वैज्ञानिक समझ रखती रही है और दूसरे भावुक, अन्‍धविश्‍वासी रहे हैं और वैज्ञानिक सोच और विज्ञान के जन्‍मदाता वे हैं। ”

मैं कुछ कहता इससे पहले ही मेरा मित्र बोल पड़ा, ”इसमें गलत क्‍या है ?”

” जिस देश ने शून्‍य का आविष्‍कार किया, पहिये का आविष्‍कार किया, नौचालन में वायु की शक्ति के प्रयोग किये और श्‍येनपत्‍वा जहाज बनाए, स्‍थल का पता लगाने के लिए और सन्‍देश भेजने के लिए पक्षियों को प्रशिक्षित किया, रात में दिशाबोध और कालबोध के लिए नक्षत्रों औ ग्रहों का अवेक्षण करते हुए ज्‍योतिर्विज्ञान की नींव रखी, सौर और चान्‍द्र संवत्‍सरों का यहा सापेक्ष्‍य उपयोग करते हुए वर्षमान निर्धारित किया और इनके बीच अन्‍तर का समायोजन करते हुए अधिमास की कल्‍पना की, त्रिधातुओं अर्थात् चिकित्‍सा के आयुर्वेदिक सिद्धान्‍त का विवेचन किया, सबसे उन्‍नत लेखन प्रणाली का आविष्‍कार ही नहीं किया, सुवाह्य लेखन सामग्री पर लिखने और कठोर फलक पर टंकन की युक्तियों का पृथक विकास किया, डेयरी फार्मिंग का आविष्‍कार किया, कृषि का आविष्‍कार किया और उसे हलाधारित बनाते हुए उन्‍नत बनाया, पत्‍थराें को पालिश करने और मणिवेध और अन्‍त:खचित मनकों का आविष्‍कार किया, और, यह सब तो डाक्‍साब भी लिख आए हैं कि यह चार हजार साल से भी पहले कर लिया गया था, जो अन्‍यत्र कहीं नहीं हुआ था और जिसे बहुत बाद तक अपनाने की योग्‍यता तक उनमें पैदा न हुई थी, उसे क्‍या वैज्ञानिक ज्ञान से शून्‍य माना जा सकता है। जिसने अष्‍ठाध्‍यायी लिखी, महाभाष्‍य लिखे, जिसमें अर्थशास्‍त्र लिखा गया, जिसमें भाषाविज्ञान को, चिकित्‍सा को, दर्शन को, धातु विद्या को, वस्‍त्र उद्योग में अकल्‍पनीय प्रगति हुई उसे वैज्ञानिक सोच से शून्‍य और विज्ञानविमुख मानने वालों को क्‍या कहा जाय…

शास्‍त्री जी तनिक ठिठके तो मैंने हँसते हुए कहा, ”पागल कह लीजिए । आपको यह शब्‍द बहुत पसन्‍द आ रहा है आज कल।” हँसी में शास्‍त्री जी भी शामिल हो गए । पर मेरा मित्र शामिल न हो सका।

मैंने कहा, ”खैर आप नहीं कहते तो मैं ही कह देता हूँ कि पन्‍द्रहवीं शताब्‍दी तक पश्चिमी समाज धर्मान्‍ध पागलों के हाथ का खिलौना समाज था। सोलहवीं कहें तो भी गलत न होगा। वे धर्म के नाम पर सबसे अधिक खून बहाते थे लेकिन सामान्‍य जीवन में भी बात बात भेंड़ा-‍भिड़न्‍त से बाज न आते थे, डुएल में। अब उबरे हैं उन मूर्खताओं को त्‍यागकर। वे विचार और ज्ञान-विज्ञान को अपना शत्रु समझते थे। आज वे पूरी तरह उससे बाहर आ चुके हैं।”

मित्र फिर बीच में टपका,
”उनकी परंपरा ग्रीस तक जाती है जिसके दार्शनिको और चिन्‍तकों की असाधारण उपलब्धियों का तुम्‍हें ज्ञान ही नहीं। वे अपने ज्ञान-विज्ञान की परंपरा को उससे जोड़ते हैं जिसमें बौद्धिकता इतनी प्रबल थी कि साहित्‍य और कला के सामाजिक औचित्‍य पर बात की जा सकती थी। देव थे पर देवभक्ति नहीं थी। यह है उनकी वैज्ञानिक सोच की जड़ जहॉं से उन्‍हें प्रेरणा मिलती रही है।”

मुझे स्‍वयं हस्‍तक्षेप करना पड़ गया, ”उनकी परंपरा ग्रीस तक ही नहीं जाती है, कृतघ्‍नता तक जाती है। उन्‍हें अपनी भाषा, संस्‍कृति, दर्शन, साहित्‍य अनातोलिया से मिला, वहां बसे भारतीयों से, अपना शिल्‍प मिस्री स्रोत से, अपना अक्षर ज्ञान फी‍नीशियनों से और अंतिम को छोड़ कर वे स्‍वयं पके पकाए ज्ञान और शिल्‍प का जनक मानते रहे जैसे आज के युग में उनको वह आधार जहां से धर्मयुद्धों के दौरान पैदा हुई ऊर्जा ने उस स्रोत को एकदिश किया जो उसे अरबों के माध्‍यम से एशिया से मिला था। इन सबका नकार पश्चिम की कृतघ्‍नता को ही नहीं प्रकट करता उसके महान से महान चिन्‍तक की साख पर भी प्रश्‍न खड़ा करता है।

”हमने धर्म के नाम पर अत्‍याचार सहे परन्‍तु कभी लड़ाई नहीं की क्‍योंकि यह धर्म की समारी समझ के विपरीत था। जहॉं केवल आततायी का ही वध किया जा सकता था, वहॉं युद्ध एक विवशता तो हाे सकती थी, चुनाव नहीं और धर्म के नाम पर तो असंभव। इसलिए हमने यातना और उत्‍पीड़न सहे तो पर धर्म के नाम पर हिंसा कभी नहीं की। करने के साथ ही हमारा धर्म नष्‍ट हो जाता। कितने अकल्‍पनीय उकसावों में भी हमने इसकी रक्षा की है यह तुम न सोच सकते हो न समझाऊँ तो समझ सकते हो।

”यदि छेंड़ ही दिया तो समझो, हमारे यहां धर्म का आधार औचित्‍य, नैतिकता और मानवतावाद था इसलिए बिचारों से दूसरों को कायल करना आसान था। मैं भी मानता हूँ कि जिसके पास औचित्‍य है उसे हथियार उठाने की आवश्‍यकता नहीं पड़ती। हमारे यहाँ भी पंडों के अखाड़ों और मठों के बीच झगड़े होते थे परन्‍तु वे संपत्ति को लेकर होते थे इसलिए उसका प्रभाव धार्मिक निष्‍ठा पर नहीं पड़ता था। निष्‍ठा हमारे यहॉं व्‍यक्तिगत थी, आरती आदि के समय अवश्‍य निश्चित होते थे, पर उस तरह के आयोजन संभव नहीं थे जो‍ गिरिजाघरों और मस्जिदों में संभव था।”

शास्‍त्री जी गदगद । ”डाक्‍साब, अाप ने तो मेरे मुॅंह की बात छीन ली।”

”मैं न किसी के मुंह का नवाला छीनता हूँ न किसी के मुंह की बात । मैं जानता था कि आप यही कह सकते थे और आप की ओर से मैंने कह दिया।इनमें से अधिकांश को लिख चुका हूँ लेकिन ये मीठी गोली की तरह चूसने के काम आती है आज के दिन हम अपने ही मूल्‍यों से हट गए हैं। एक बार नये सिरे से इस खास कोण से पश्चिम और पूर्व के अन्‍तर को समझना होगा। आप खुले मन से इसे समझने को तैयार होंगे?” मैं शास्‍त्री जी की ओर मुड़ गया था।

”डाक्‍साब आप भी…” शास्‍त्री जी ने अपना वाक्‍य पूरा नहीं किया।

”तो फिर कागज कलम तो है नहीं, मोबाइल में नोट ले सकें तो लेते चलिए । पहली बात यह कि पश्चिम ने हमारे ज्ञान का, जिस पर आप गर्व करते हैं और जिससे वंचित हो जाने के कारण मैं अफसोस करता हूँ, उसका अस्‍सी प्रतिशत हमसे ले लिया है। आधा अरबों के माध्‍यम से और आधा हमारे संपर्क में आने के बाद और हम भारतीय ही नहीं अरब भी और दुनिया के मुसलमान भी उस चरण को भूल चुके हैं या उसमें अपनी दिलचस्‍पी खो चुके हैं जब उनके पास सभ्‍यता के सभी घटक थे और पश्चिम को अंधकार का देश, ज्ञान के और सूर्य के अस्‍त होने की दिशा, मगरिब, कहते थे। इसलिए जो हमारा था वह हमारा रहा ही नहीं। उन्‍होंने अपना लिया और हमारे मन में उनके प्रति ऐसी विरक्ति पैदा की कि हम उनसे स्‍वयं विमुख हो गये। उनकी रक्षा करने को भी अपनी तौहीन समझने लगे। हम विपन्‍नों की स्थिति में हैं । आज की हमारी भूख पिता जी के जमाने में आप किस तरह जी भर कर खाते और चटखारे लेते थे, उसकी याद करने से नहीं मिट सकती।”

शास्‍त्री जी ने इसे नोट किया या नहीं, पता नहीं, पर मेरा मित्र मैदान में उतर आया, ”यह तो तुम पुरानी अवस्‍था में लौटने की बात कर रहे हैं, पश्‍चगामिता का समर्थन कर रहे हो, पुनरुत्‍थानवादिता पैदा करना चाहते हो, ये सारी बातें तो प्रगतिविरोधी हैं । इनके बल पर आगे कैसे बढ़ोगे यार ।”

”तुम्‍हारी समझ में नहीं आएगा। तुम गधे हो। तुमने तो यही सोच कर अपना इतिहास ही नष्‍ट कर डाला। मैं पीछे जाने को नहीं कह रहा, चेतना के स्‍तर यह बोध पैदा कर रहा हूँ कि हम विपन्‍न नहीं थे। हमारी जलवायु, हमारे स्‍वभाव में कोई खोट न थी। हमारी परंपरा ज्ञान और विज्ञान के साथ मानवमूल्‍यों की भी चिन्‍ता करती थी और कुछ अधिक ही करती थी। इसका संबंध हार्दिकता से है, भावना से है। हमारा विकास सन्‍तुलित था। आज पश्चिम उसके निकट पहुंचने का प्रयत्‍न तो कर रहा है पर उसे हासिल नहीं कर सकता क्‍योंकि उपभोगितावादी इन्द्रियपरायणता का उन मूल्‍यों से मेल बैठ ही नहीं सकता, इसलिए वे एक ढोंग ही नहीं, विघटनकारी औजार का काम भी कर सकते हैं। मात्र उसकी कोशिश ही यह बताती है कि हम जिस आदर्श को जीवन में उतार चुके थे उसकी ललक आधुनिक मानवतावाद में पैदा हुई है।”

वह मेरी बात से प्रभावित नहीं हुआ, ”कुल लेकर वही आत्‍मराग, वही चौपाई अपने मुंह तुम आपन करनी, भाँति अनेक बार बहु बरनी।” इस आत्‍मरति से बाहर आओ ।”

Post – 2016-08-26

एक पुरानी तुकबन्‍दी

क्या कोई लफ्ज मुझे भी बयान करता है
तुमने तो देखी है हर इक लुगात बोलो तो।

नाम भगवान है हिंदी में लिखा करता हूँ
वही हिन्दी जो बनी है बिसात बोलो तो।

तुम्हें देखा और मुझे तुम भी देखते ही रहे
हम एक सवाल हैं या खुद जवाब बोलो तो।

रोज लिखता हूँ और वह भी बदहवासी में
पढ़ते हो, सुनते हो मुझको, जनाब बोलो तो।

मैं फलसफा नहीं एक तल्ख हकीकत हू मगर
तुम भी कुछ हो कि नहीं हो, जनाब बोलो तो।

प्यार करते हैं मगर शक भी कम न होता है
सवाल दर सवाल है जवाब, बोलो तो।
6 जून 2015