निदान – 33
उभय कल्याण की दिशा
”शास्त्री जी, मैं लाख तर्क दूँ आप मेरी बात के कायल नहीं हो पाते, क्योंकि भावना इतनी आहत है, चोट इतनी गहरी है कि आप मुसलमानों के प्रति अपनी नफरत से भी प्यार करने लगे हैं। इस प्यार को छोड़ना नहीं चाहते । ऐसी दशा में हम दोनों एक समझौता कर लें। मैं आपकी इस बात को तो मानता ही हूँ कि भारत हजारों साल तक, अपने ह्रास के दौर में भी जगद्गुरु रहा है ; आप मेरी बात मान लीजिए कि पच्छिम वालों का प्राचीन भारत के विषय में यह आरोप तो गलत है कि इसमें वैज्ञानिक सोच और तार्किकता का अभाव रहा है, परन्तु आज के विषय में उनका यह आरोप शतप्रतिशत सही है कि हमारी भावुकता इतनी प्रचंड हो गई है और उसी के अनुपात में बौद्धिकता का इतना निपट अभाव है कि जो अपने को बौद्धिक कहते और सारी बौद्धिक गतिविधियों को अपने नियन्त्रण में रखना चाहते हैं वे तक यह नहीं जानते कि उनके दिमाग में पश्चिम का कूड़ा भरा हुआ है, क्योंकि उन्होंने अपनी ऑंखों से काम ही नहीं लिया और इसके बाद भी यदि कहा जाय कि आज का विश्वगुरु पश्चिम है और पिछले चार सौ साल से या धर्मयुद्धों के दौरान अरबों के संपर्क में आने और कुछ समय तक उनका शिष्य बने रहने के बाद से जगद्गुरु बने हुए हैं। आज हमें नम्रतापूर्वक उनसे सीखना चाहिए।”
”डाक्साब, सीखेंगे कैसे ? एक ओर तो आप कहते हैं कि हमें उनकी भाषा की जगह अपनी भाषाओं को लाना चाहिए, उनके ज्ञान के स्थान पर अपना ज्ञान पैदा करना चाहिए और दूसरी ओर आप उनकी नकल करने की बात कर रहे हैं।”
”मैं पहले ये जानता था कि हम देखते और सुनते समय भी अनजाने ही फेरबदल कर लेते हैं। कहें सीखना तो वह आपको नकल करना सुनाई देगा। मैं कहूँ धैर्य तो आपको कायरता सुनाई देगा। इसमें आपका दोष नहीं है, सबसे होता है। मुझसे भी। हम जिन शब्दो, ध्वनियों, विचारों के आदी हैं उनसे निकट पड़ने वाले प्रतिरूप, थोड़ी भिन्नता रखने वाले ऐन्द्रिक संकेत उन्हीं में ढल जाते हैं। जमीन पर ही लीक नहीं हुआ करती, दिमाग में भी लीकें हुआ करती हैं और अलीक या लीक से कुछ निकट का लीक में दाखिल हो जाता है इसलिए अर्थभेद को समझने में सभी से कठिनाई होती है। मैं एक सरदार जी को यह समझाता रहा कि कृप्या को कृपया लिखिए और वह बार बार दुहराने पर बताते हॉं कृप्या ही लिखा है। यह बताइये धीर शब्द का पूरा भाव, उत्तेजना या आवेश के इस क्षण में आप मुझे समझा सकते हैं ?”
”डाक्साब, मैं आपको क्या समझा सकता हूँ । आप सभी दृष्टियों से मुझसे श्रेष्ठ हैं, पर यह न कहिएगा, धीरज रखो, भगवान भला करेंगे, या आगे जो होगा अच्छा ही होगा। हमारा धीरज पिछले और आज के अनुभवों के कारण चुक गया है।”
”मैं जानता था, भावना उग्र हो तो ज्ञान बेकार हो जाता है। वह इच्छित के लिए तर्क जुटाने का काम अवश्य करता है अन्यथा आप जैसे विद्वान को मुझे न याद दिलाना पड़ता कि धैर्य वीर रस का स्थायी भाव है और जिसका धैर्य चुक गया उसकी पराजय निश्चित है क्योंकि उसमें वीरभाव का ही अभाव हो जाएगा। आप परिस्थिति का सामना करने से पहले ही हारने की बात कर रहे हैं और उससे सन्तुष्ट भी अनुभव कर रहे हैं।”
सामान्य स्थिति होती तो वह मान जाते। अपने किसी लेख या व्याख्यान में वह इसे स्वयं कहते। परन्तु इस समय भावना की उग्रता अपनी बलि चाहती थी। तर्क बचा नहीं था इसलिए शास्त्री जी के मुँह से निकला, ‘डाक्साब” और वह अपने कहे शब्द के दबाव में नि:शब्द हो गए। पराजय की स्वीकृति का एक रूप यह भी होता है जब न आप कुछ कह पाते हैं, न अपनी गलती मान पाते हैं। गलती मान लेते तो जीत भी आपकी ही होती, सत्य का स्वीकार स्वयं विजय है।
मैंने इस स्थिति का लाभ उठाया, ”हममें यह धैर्य था, पश्चिमी संस्कृति मेंं धैर्य, क्षमा, दया आदि वे सात्विक गुण न थे न इसके प्रति आदर भाव था। आज उनके पास है, हमारे पास नहीं है, हम धैर्य से काम लेने तक को तैयार नहीं। इसलिए हमें अपनी चीजों को भी उनसे सीखना होगा, हम अपनी परंपरा से सीखने की शक्ति तक खो चुके हैं। मैं आपकाे एक उदाहरण से इसे समझाना चाहूँगा । मैं चाहूूँगा कि आप भी उस पुस्तक को देखें। वह अब इंटरनेट पर उपलब्ध है, डब्ल्यू डब्ल्यू हंटर की पुस्तक The Indian Musalmans और सोचिए कि 1857 के क्रूर दमन के बाद भी उन्होंने अग्रेजी राज्य को किस तरह की चुनौती दे रखी थी। हालत हमारे आज के अनुभवों से अधिक विक्षोभकारी थी। इसे मैं हंटर के शब्दों में ही रखना चाहूँगा :
The Bengal Muhammadans are again in a strange state. For years a Rebel colony has threatened our frontier; from time to time sending forth fanatic swarms, who have attacked our camps, burned our villages, murdered our subjects, and involved our troops in three costly wars…. They disclose an organization which systematically levies money and men in the Delta, and forwards them by regular stages along our high-roads to the Rebel Camp two thousand miles off. Men of keen intelligence and ample fortune have embarked in the plot and a skillful system of remittances has reduced one of the most perilous enterprises of treason to a safe operating of banking.
While the more fanatical of the Musalmans have thus engaged in overt sedition, the whole Muhammadan community had been openly deliberating on their obligation to rebel. During the past nine months, the leading newspapers in Bengal have filled their columns with discussions as to the duty of Muhammadans to wage war against the queen. The collective wisdom of the Musalman Law Doctors of North India was first promulgated in a formal Decision (Fatwa). …
Somehow or other, every Musalman seems to have found himself called on to declare his faith, to state in the face of his coreligionists, whether he will or will not cooperate with the Traitors’ Camp on our Frontier; and to elect] once for all, whether he shall play a part of a devoted follower of Islam, or of a peaceable subject of the Queen. … The obligation of the Indian Musalmans to rebel or not rebel, hung for some months on the deliberations of the three priests in the Holy City of Arabia….
In my second chapter I shall explain the treasonable organization by which the rebel camp has drawn unfailing supplies of money and men from the interior Districts of the Empire….. The Musalmans of India are, and have been for many years, a source of chronic danger to the British Power in India. For some reason or the other they hold aloof from our system, and the changes in which the more flexible Hindus have cheerfully acquiesced, are treated by them as deep personal wrongs.
”जिनकी तलवारों ने बादशाह की सन्तानों के सिर काट कर उन्हें तोहफे में पेश किए थे, जिन्होनेे दिल्ली की गली गली में घुस कर मुसलमानो को मौत के घाट उतार कर दहशत सी फैला दी थी वे उस विद्रोह को दबा न पाए थे जो धार्मिक उत्तेजना की आड़ में पूरे देश में भड़का दिया गया था।
”इस उत्तेजना भरे माहौल में उन्होंने जिस धैर्य से उनके पूरे जाल का अध्ययन किया, यह समझा कि बलप्रयोग से काम नहीं चलेगा, कूटनीतिक चातुरी, दृढ़ता और संयम से उन्होंने इस बिगड़े हुए माहौल में एक भरोसे का आदमी पाया और उसका कूटनीतिक उपयोग करते हुए उस लपट को जो उनकी ओर बढ़ती जा रही थी हिन्दुओं की ओर मोड़ दिया।
”आप का कहना है, पहले हिन्दुओं और मुसलमानों के संबन्ध बहुत अच्छे थे। सांप्रदायिकता के बीज अंग्रेजों ने बोए।
”मैं उसी किताब के भरोसे यह कह रहा हूँ क्योंकि पश्चिमी लेखक तथ्यों में हेराफेरी केवल चुनाव के मामले में करते हैं जिससे मनचाहा नतीजा निकाला जा सके। परन्तु जो तथ्य रखते हैं, उन पर काफी दूर तक भरोसा किया जा सकता है । सरसैयद से पहले एक और सैयद अहमद हुए थे वे लुटेरे थे, स्वयं संभवत: सीमान्त क्षेत्र में अफीम की तस्करी का काम करते थे। मूलत: बरेली के थे। रणजीत सिंह की नशे के कारोबार पर सख्ती के कारण उन्होंने दो एक साल कुरान के अध्ययन पर लगाया और फिर रणजीत सिंह से बदले के लिए उनके द्वारा गोवध पर लगाए प्रतिबन्ध को उत्तेजना का मुद्दा बना कर हिन्दुओं और सिक्खों के खिलाफ जिस धर्मयुद्ध का आरंभ किया उसमें दोनों ओर से न जाने कितनी हत्यायें होती रहीं। सांप्रदायिकता तो सामी मतों की घुट्टी में है जिसमें अपने धर्म समुदाय को छोड़ दूसरे सभी मनुष्यों से नफरत और उत्पीड़न के बीज पाए जाते हैं। वह अहमदिया आन्दोलन जिसका हमने हवाला दिया उसी सैयद अहमद के अनुयायियों का परिणाम था। अंग्रेजों ने इसका बहुत कुशलता से उपयोग किया कि आपसी घृणा कम न होने पाए और दोनों समुदायों की उन पर निर्भरता बनी रहे। पर इस बात का ध्यान रखा कि स्थिति नियन्त्रण से बाहर न जाने पाए ।”
”फिर तो बात वहीं पहुँची न ।”
”बात को कहीं और पहुँचने ही न देंगे आप । चलिए, आपकी पंडितानी कलेवा तैयार करके आपकी प्रतीक्षा में होगी। पर कलेवा करते समय इस बात का ध्यान रखिएगा कि मुख्य शत्रु ने जो छोटा शत्रु था उसकी ओर सारा गुस्सा कैसे मोड़ दिया था। जिस सैयद अहमद को ले कर वह चिन्तित था उसके पीछे भी उसकी कारगुजारी रही हो तो आश्चर्य नहीं। कारण रणजीत सिंह ने फ्रासीसी प्रशिक्षकों के अधीन अपनी सेना का जो आधुनिकीकरण किया और वह जैसी प्रबल शक्ति बनते जा रहे थे उसके कारण सिख भी अंग्रेजों के निशाने पर थे। यह तूफान पहले सीमान्त प्रान्त में उनको कमजोर करने या उखाड़ने के लिए ही किया गया था। यह दूसरी बात है कि सत्तावन के समर में रणजीत सिह ने भाग नहीं लिया। उनकी सामरिक तैयारी अंग्रेजो के मामले में प्रतिरक्षात्मक ही थी।
”मैं केवल जनाक्रोश पैदा करने अथवा अपने विरुद्ध उभरे जनाक्रोश की दिशा को अपने संभावित शत्रुओं की ओर मोड़ने के लिए अपेक्षित धैर्य, आत्मविश्वास, भावनाओं पर नियन्त्रण की कला पश्चिम से सीखने की बात कर रहा था जिसके कारण भारत और पाकिस्तान दोनों के प्रधान एक दूसरे से क्या कहते हैं, इससे अधिक ध्यान इस बात पर दिया जाता है कि अमेरिका ने कब किसके पक्ष में क्या कहा । अर्थात् हमारी कूटनीतिक अदूरदर्शिता के कारण दाेनों स्वेच्छा से उसका खिलौना बने हुए हैं जिसको भारतीय उपमहाद्वीप में स्थायी शान्ति अपने हितों के विपरीत लगता है। इस धार को उसकी ओर मोड़ना सरकारों के लिए असंभव है। इसकी तनिक भी टोह मिलने पर वह और बखेड़ा खड़ा कर सकता है, परन्तु सामाजिक स्तर पर यह समझ पैदा हो तो इसके परिणाम उभय कल्याणकारी होंगे। यह सरकारों का काम नहीं, बुद्धिजीवियों का काम है।