Post – 2016-01-31

व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे

उसने मिलते ही सवाल दागा, ‘’तुम मानते हो उत्तर और दक्षिण की भाषाओं में कोई अंतर नहीं है?’’

‘’मैं ऐसा कैसे मान सकता हूं? मैं तो यह तक नहीं कह सकता कि मेरे सिर और पॉंवों में अंतर नहीं है, जबकि दोनों मेरे ही हैं और इनमें से किसी के न होने या दुर्बल होने पर मैं अपंग हो सकता हूँ। भिन्नता आवयिकता की अनिवार्य अपेक्षा है। सर्वाधिक समर्थ जीव सर्वाधिक भिन्नताओं के संयोजन से पैदा होता है। भिन्नता और अलगाव दोनों अलग चीजें हैं। जड़ पदार्थों में आंतरिक भिन्नता कम होती है और उनको दूसरे पदार्थों से उनके अलगाव से पहचाना जाता है। जैव सत्ताओं में आं‍तरिक भिन्नता बढ़ती जाती है और अपनी पराकाष्ठा पर भिन्नताओं का विकास और लगाव अधिकतम होता है।

”अपनी जरूरत से हमें अधीन करने वालों ने भिन्नताओं को रेखांकित और यदा कदा महिमामंडित भी किया, पर लगाव के सूत्रों को देख और समझ कर भी उनकी उपेक्षा करते रहे। उनके लिए मेरे मन में गहरा सम्माान है। उन्होने हमारे ही हथियार को ले कर हमारे विरुद्ध इतनी चतुराई से प्रयोग किया कि रक्त कम बहा, घाव कैंसर की तरह फैल कर भारतीय समाज को ऐसी रुग्णताओं से भर गया कि मरीज अपने मर्ज को ही अपनी दवा समझने लगे।”

” मैं जानता था तुम बहाव में आ जाओगे, विषय ही कुछ ऐसा है। मैंने इस विषय में अधिक पढ़ा नहीं है, इसलिए साफ साफ बताओ, तुम कहना क्या चाहते हो।”

”देखो, जैसा कि हमारे पुराणों में कहा गया और बाद की कृतियों में यहॉं वहॉं दुहराया गया है, हम सभी सतयुग की सन्तान हैं। उस अवस्था‍ की जब मनुष्या पूर्णत: प्रकृति पर निर्भर था और वन्य पशुओं जैसा ही जीवन जीता था। उसी से कोई अधिक आगे निकल गया और कोई उसके निकट रह गया और आज भी अपने भिन्नय भूल्यों के कारण वहीं बना रहना चाहता है। नृतत्व के इतिहास का नमूना बनने के लिए तो यह ठीक है, परन्तु अपना जीवन जीने के लिए यातना और अपमान को जीवन मानने जैसा ही है।

परन्तु यह विषय भी ऐसा है कि इसकी सुरंग में दाखिल हो गए तो बाहर का रास्ता जाने कब मिले। फिर भी यह समझना जरूरी है कि दक्षिण भारत में खेती का प्रसार बहुत बाद में हुआ । उत्तर भारत और दक्षिण भारत का एक अन्तर तो इस कारण है, दूसरा अन्तर उससे भी पुराना है जिसमें उत्तर और दक्षिण के अटन क्षेत्र अलग थे। यह किताबी ज्ञान के आधार पर कह रहा हूँ कि पुरापाषाण काल में ही उत्तर में सोन कारखाना या पत्थर के औजारों की एक विशेष शैली सोहन या सोन नदी, जो उस सोन से अलग है, जो शोणभद्र नद कहा जाता है, के क्षेत्र में पाया जाता था और दूसरा जिसे मद्रास इंडस्‍ट्री कहा जाता है। इनकी कुछ भिन्नताऍं थीं । दोनों के अटनक्षेत्र मध्यप्रदेश में आकर मिलते थे इसलिए दोनों के बीच आदान प्रदान था, दूसरी ओर उत्तरी अटनक्षेत्र का प्रसार भूमध्या सागर तक था और इसलिए कहा जा सकता है कि मध्येशिया और तुर्की तक एक संबंध सूत्र आहार संचय के प्राथमिक चरणों से ही बना हुआ था जिसके कारण अनेक सांस्कृतिक लक्षण बहुत पहले से, भाषा भारती के प्रसार से हजारों साल पहले से बना हुआ था, और यही कारण है कि क़ृषि का विकास भारत से ले कर तुर्की तक लगभग समान प्रतीत होने वाले कालखंड में हुआ।

भारतीय नवपाषाण कालीन स्थलों का पता बाद में चला इसलिए पहले यह धारणा बन गई थी कि खेती का आविष्कार उर्वर चन्द्र रेखा के क्षेत्र में हुआ, परन्तु भारतीय स्थलों का पता चलने के बाद जैरिज ने यह दावा किया कि किसानी का आरंभ भारत से हुआ, उनके शब्दों में द फर्स्ट फार्मर वाज इंडियन या ऐसा ही कुछ। परन्तु इस बात पर ध्यान देा कि उत्तर भारत के साम्राज्यवादियों – मौर्य और गुप्त राजाओं – के साम्राज्य का विस्तांर यदि कन्याकुमारी तक हो सका होता तो जिसे द्रविड़भाषी क्षेत्र माना जाता है तो वह पूरा क्ष्‍ोत्र भी आर्यभाषी माना जाता, जैसे हम बंगाल, असम, ओडिशा, महाराष्ट्र आदि में मामले में पाते हैं।

इसलिए अब अन्तर द्विस्तरीय हो गया। एक आर्थिक, दूसरा प्रशासनिक। आर्थिक दृष्टि से कहें तो सभ्य्, विलम्बित सभ्य और आटविक। और प्रशासनिक दृष्टि से कहें तो उत्तरी राज्य निर्मितियों और महाराज्य निर्मितियों की प्रक्रिया और दक्षिण में इसका आरंभिक विस्तार जिसमें उत्तर की मथुरा के नाम पर दक्षिण की मदुरा नगरी को महत्व मिला और उत्तरी प्रेरणा के प्रसार के साथ दक्षिण के राजाओं का अपने को पांडुवंशी घोषित करते हुए गर्व अनुभव करना और सभ्यता के अन्य घटकों, जिसमें संस्कृत की शब्दावली, मूल्य व्यवस्था , भाषाविमर्श आदि का दक्षिण में प्रवेश और उनके अपने व्याकरण तोल्कप्पियन को अगत्तियन या अगस्त्‍य के किसी शिष्य द्वारा रचा मानते हुए गर्व अनुभव करना।

कहें उत्तर और दक्षिण का पुराना संबंध अनुराग और सम्मान का था, परन्तु कबीलाई स्वाभिमान के चलते अपनी निजता की रक्षा के संघर्ष का भी था। महत्वपूर्ण बात यह कि इन बातों का काल्डवेल को ज्ञान था। वह बहुत बड़ा विद्वान था, सिर्फ ईमानदार न था और उसे एक ओर घालमेल करना था दूसरी ओर अपनी व्याख्या को विश्वसनीय बनाने के लिए सर्वविदित तथ्यों को स्वी्कार भी करना था, इसलिए उसने यह भी स्वीकार किया कि न तो दक्षिण भारत में उत्तर से भगाये जाने की स्मृाति है, न किसी संघर्ष की।

सबसे बड़ी बात यह कि दक्षिण में संस्कृत का प्रभाव आर्यों के आक्रमण के कारण नहीं पड़ा, अपितु दक्षिण भारत के राजाओं द्वारा उत्तर भारत से विद्वानों को आमंत्रित करने और आदर देने और उन मूल्यों को स्वीकार करने के कारण हुआ। इस पहलू को कोई भाषाविज्ञानी क्यों रेखांकित नहीं करता, यह मेरे लिए आश्चर्य का विषय रहा है।

”उन्हीं विद्वानों पर निर्भर करने के कारण तुम किसी चीज को समझ नहीं सकते। सूचनाओं के भंडार के साथ तुम अधिकाधिक मूर्ख होते चले जाते हो। अभी तक तुमको उपनिवेशवादी इतिहास पढ़ाया गया है जिसके अनुसार यहाँ के जन और भाषाऍ सब बाहर से आई हैं। यह आगन्तुकों को आमन्त्रित करता हुआ खाली पड़ा था। कारवॉं आते गए हिन्दोंस्तॉं बसता गया, जब कि सचाई यह है कि एशिया और यूरोप में प्रबुद्ध मनुष्य के प्रसार की कहानी में ही सबसे पहले वह तटीय क्षेत्र को पकड़े हुए भारत पहुंचता है और यहां से उसका प्रसार होता है।

”परंतु ऐसा भी नहीं है कि यहां बाहर से कोई आया न हो और यहां से बाहर की ओर किसी का गमन न हुआ हो। सब कुछ हुआ है और यह इतना धुंधला भी नहीं है इसको पहचाना न जा सके। उसके आवागमन के पैरों के निशान किसी न किसी कोने में सुरक्षित हैं। ये भाषा में मिल जाएंगे, रीतियों और विश्वासों में मिल जाऍगे। अपना इतिहास तो सभी ने न तो बचा कर रखा, न इतिहास के महत्व को इस रूप में समझा कि इसे बचाया जाना चाहिए। इसलिए हमारी भदेश रीतियां-नीतियां और भाषाएं हमारे समाज को समझने में इतिहास के पोथों और उन्नत भाषाओं की तुलना में अधिक सहायक हैं।

”कोल नाम सुना है। दक्षिण भारत की एक भाषा है कोलमी। यह द्रविड़ कुल में गिनी जाती है। कहें उत्तर का कोल समुदाय दक्षिण के भाषाई परिवेश में पहुँचा तो पहचान बनी रही, परन्‍तु भाषा बदल गई, जीवनशैल वही रही। कोलम बीच से ले कर कोलंबो तब इसके पॉवों के निशान हैं, पर पहचान बदल गई। उत्तर भारत में को‍ल्डि्हवा मध्यपाषाणयुगीन स्थल है जिसका समय 6000 ईसा पूर्व माना गया हैा”

’’तुम लोग हर चीज की तारीख पीछे खींचत चले जाते हो। बहुत से लोग इसे इतना पुराना नहीं मानते।‘’

’’मैं जानता हूं। बहुत से लोग इस देश की सांस्कृतिक प्राचीनता और समृद्धि दोनों से घबरा जाते हैं। खींच कर आगे लाना चाहते हैं और कुछ लोग इतना प्यार करते हैं कि हर चीज को सृष्टि के आदि में पहुंचाने की कोशिश करते हैं। जो आगे खींच कर लाना चाहते हैं उसे ही मान लो तो भी बहुत प्राचीन काल से एक समुदाय उत्तर भारत से दक्षिण में कोलम बीच और कोलंबो तक पहुंचा दिखाई देता है। यूं समझो कि उत्तर से ले कर दक्षिण तक की भाषाओं की बुनियाद एक जैसी है तो यह भाषाओं के बीच लेन देन के कारण नहीं है, उन्हीं लोगों के एक सिरे से दूसरे सिरे तक फैले होने और एक ही अवस्था से ऊपर उठने के कारण है।”

”छोड़ो इस बखेड़े को, तुम हर चीज को पता नहीं कहां पहुंचा देते हो। सीधे उस बात पर आओ। भाषाओं का जो ताना बाना जिसे तुम एक सिरे से दूसरे सिरे तक फैला मान रहे थे, उसको समझाओ।”

”यह इतना बिस्तृत विषय है कि एक या 2 घंटे में इस पर चर्चा नहीं हो सकती। कोई पहलू ऐसा नहीं है जिसमें इधर का तार उधर और उधर का तार इधर न आ रहा हो। पहले इस बात को समझो कि तमिल संस्कृत से पुरानी है। पर तमिल उत्तर भारत की बोलियों के अधिक निकट है, जिसका अर्थ हुआ, हमारी बोलियां संस्कृत से अधिक पुरानी हैं और उनमें से किसी के अधिक प्रभावशाली होने के कारण उस भाषा का विकास हुआ जिसे बाद में संस्कृत का नाम दिया गया।

‘’अब हम तमिल के कुछ पहलुओं पर बात कर सकते हैं जो हमारी बोलियों के स्तर का है। उत्तर भारत से लेकर दक्षिण भारत तक निकटस्थ के लिए ‘ई’ का प्रयोग चलता है। तमिल आदि में इंगे, इक्कडे, इविडे, पंजाबी इत्थे , भोज. इहॉं, हिन्दी यहॉ, बांग्ला एइखाने। इस नियम से संस्कृत में यहां के लिए इत्र होना चाहिए और दूरस्थ के लिए अत्र या मान लो तत्र। संस्क़ृत का वह पुराना रूप कुडुख में सुरक्षित है जो द्रविड़ में गिनी जाती है, जिसमंं यहॉं और वहॉं के लिए इतरं अतरं चलता है। संस्कृत में भी ‘यहाॅ से’ के लिए इत: प्रयोग में बना रहा। संस्कृत में जो गलतियॉं या विचलनें इतिहासक्रम में हुईं उनका ही निर्यात यूरोप तक हुआ। संस्कृ त में इदं अर्थात् यह और तत अर्थात् वह हुआ तो यह अंग्रेजी के इट और दैट में देखा जा सकता है, परंतु इतरं अतरं का अदर अंग्रेजी तक में दिखाई देगा।”

”लगता तो है कुछ पर साफ समझ में नहीं आता।”

”इस पर कल बात करेंगे।”

Post – 2016-01-30

मकड़ी का जाल

मैं आज की चर्चा अपने एक मित्र के पत्र से करना चाहूँगा। पत्र निम्न प्रकार है: “— 1975 में मैंने बीएचयू में तमिऴ सीखी। पहले दिन हमारे लेक्चरर डॉ एन अरुण भारती ने कहा कि हिंदी और तमिऴ में कोई अंतर नहीं है। और मैंने तमिऴ को ऐसे सीखा जैसे मैं हिंदी को नए रूप में पढ़ रहा हूँ। फिर पूरी ज़िंदगी भारतीय भाषाओं के बीच एका तलाशता रहा। नौकरी के आख़िरी तीन साल मैंने मंगळुरु में बिताए। मंगळुरु में दो मंदिर, मंगळादेवी तथा कद्री-मंजुनाथ, बाबा गोरखनाथ ने स्थापित कराए हैं। मेरे मन में प्रश्न उठा कि गोरखनाथ मंगळुरु आने के रास्ते किन भाषाओं में बात किए होंगे, मुँह पर टेप तो लगाए नहीं होंगे। क्या वह भाषा अंग्रेज़ी थी। यहीं पर भाषाओं को बाँटने वाली अवधारणा ध्वस्त हो जाती है। कुंभ-काशी क्या अंग्रेज़ों ने शुरू कराया। मंगळुरु की तैनाती के दौरान मैंने कन्नड़ सीखा और उत्तर-दक्षिण की भाषाओं के विभाजन रेखा को कृत्रिम पाया। कई शब्द हैं दो तुऴु, कन्नड़ और हिंदी में कॉमन हैं। जैसे काला को तुऴु और पूरबी हिंदी में करिया बोलते हैं। ध्यान रहे कि तुऴु और पूरबी हिंदी आदि भाषाएँ हैं। हिंदी का तो अभी जन्म ही हुआ है। मैं जानना चाहता हूँ कि भारत की भाषाओं में कब अलगाव के बीज बोए गए। इसका राजनैतिक अध्ययन भारत के जोड़ने के लिए तुरंत ज़रूरी है।‘’ (बिकास कुमार श्रीवास्तयव !)
आगे कुछ कहने से पहले मैं यह बता दूं कि मैं जब भारत की अनेक भाषाओं के उदाहरण देते हुए अपनी बात कहता हूं तो यह भ्रम पैदा नहीं होना चाहिए कि इन में से किसी की मेरी बहुत अच्छी जानकारी है। कोशिश की सारी भारतीय भाषाओं को सीख लूं परंतु अभी सबकी लिपियॉं लिखना, व्याकरण समझना पूरा भी नहीं हुआ था, कि उनसे उभरने वाले प्रश्नों के दबाव में भाषाशिक्षा आधी अधूरी छोड़ कर भाषा विज्ञान और वैदिक अध्ययन की और मुड़ गया। फिर इस दिशा में आगे बढ़ पाता कि बीच में इतिहास और पुरातत्व से इनकी गुत्थियों को समझने का दबाव पैदा हुआ और जो संभव था किया। मेरे पास ज्ञान कम भटकाव अधिक है। शब्दभंडार दक्षिण की भाषाओं का कार्यसाधक तक नहीं कहा जा सकता। लिपि सीखने का एक लाभ है कि शब्दकोशों का उपयोग कर लेता हूँ। परन्तु मैं दक्षिण भारत की भाषाओं के विशेषत: तमिल, तेलुगु और कन्नड के महत्व को समझता हूँ और उनके स्वरमाधुर्य से भी परिचित हूँ और चाहता हूँ कुछ लोग ऐसे हों जो इनमें बोलने और लिखने की क्षमता ही अर्जित न करें अपितु उनके अधिकारी विद्वान बनें। मैं वास्तव में अभी अस्प़ृश्यता और सांप्रदायिकता के ही कुछ पहलुओं पर बात करना चाहता था, पर विषयान्तर हो गया तो पहले उस टेपेस्ट्री या तारवर्की की बात कर लें, उस लगाव को समझ लें, फिर अलगाव की ओर ध्या न देंगे।

हमारे यहॉं भाषाओं के विषय में ऐतिहासिकता की ओर ध्यान अधिक नहीं रहा, भौगोलिकता पर ध्यान अधिक था। कहते हैं, चार कोस पर भाषा बदल जाती है, परन्तु कई बार एक ही गॉंव में प्रत्येक परिवार की भाषा में एक सूक्ष्म अन्तर वहाँ पैदा होता है जहॉं पड़ोसी भिन्न भाषाई क्षेत्र की कोई स्त्री परिवार में प्रवेश करती है और स्थानीय बोली को सीखने के क्रम में कुछ समय तक अधगूँगी और फिर मिश्र बोली बोलते हुए पति के परिवेश की भाषा को सीखती बोलती है, और अपनी भंगी, मुहावरे आदि इस पारिवारिक परिवेश में बो देती है। मेरी विमाता मेरे गॉंव से चालीस किलोमीटर पूर्व के एक गॉव की थी जिससे हमारे गॉंव की रिश्तेदारियाँ थी वहॉं सम्मान सूचक आप के लिए रउऑं चलता है, हमारे यहॉं रउरे, (पर इसका प्रयोग अति नम्रता क द्योतक होता है इसलिए सामान्यत: नहीं किया जाता) वहॉं न के लिए नू चलता है। यहॉं मॉं को अपने पुराने प्रयोग से हटना पड़ा, परन्तु उसके शब्दभंडार के कुछ विशिष्टं शब्द थे। जैसे निपट मूर्ख के लिए भकभेल्लर, गमखोर के लिए भर्त्सनापूर्ण गबड़घूइस। इसे हम समझते थे पर इसका प्रयोग स्वयं नहीं करते थे। छोटे भाई की पत्नी उससे कुछ दक्षिण के लगभग उतने ही दूर के क्षेत्र से आई थी, वह अभिधा में बात करना पसन्द नहीं करती। प्रत्येक अभिव्यक्ति के लिए उसके पास एक मुहावरा है। मेरे शहर गोरखपुर में अवध के नवाब ने इमाम की नियुक्ति की थी और उनके साथ कुछ मुसलमान अवध से ही भेजे थे, और मेरे अपने गॉव में अयोध्या से केवटों को आमन्त्रित करके और सुविधा दे कर बसाया गया था जिनके वंशधर आज सात आठ गॉंवों में बिखरे हुए हैं, पर कुछ अपनी अवधी भूल चुके हैं और कुछ आज भी अवधी पुट के साथ भोजपुरी बालते हैं। यही हाल गोरखपुर शहर के अवध से आए मुस्लिम परिवारों की है। स्त्रियों की भाषा में कुछ शब्दों और मुहावरों का प्रयोग होता है जिन्हें पुरुष समझते हैं पर बोलते नहीं। बोलें तो स्त्रैण माने जाऍंगे। यह मुंडारी में परिगणित किसी बोली का प्रभाव है जिसमें आज भी कुछ बोलियों में स्त्रियों और पुरुषों की भाषा में अन्तर इतना भेदक है कि यदि स्त्री स्त्री से बात करेगी तो भाषा अलग होगी, स्त्री पुरुष से बात करेगी तो भाषा अलग होगी और पुरुषों की बोली अलग होगी, परन्तुु पुरुष भी जब महिलाओं से बात करेंगे तो उनमें शालीनता आ जाएगी। इसे अपने आस पास के लोगों में आप भी लक्ष्य कर सकते हैं कि पढ़े लिखे पुरुष तक जिन अशोभन शब्दों और मुहावरों का आपसी बातचीत में प्रयोग करते हैं उनका प्रयोग वे न तो किसी स्त्री से बात करते हुए कर सकते हैं न ही यह जान लेने पर कर सकते हैं कि श्रव्य दायरे में कोई स्‍त्री भी है। भाषा के तथ्य और व्यावहार के बीच दूरी, भौगोलिक दूरी, इनके संगम स्थलों की विचित्रता के बीच चल रहे इन तारों और कशीदों पर ध्याैन दें तो भाषा एक ऐसा उद्यान जैसा प्रतीत होगी जिसमें प्रत्येक पौधा अलग होते हुए भी एक ही परिवेश में नहीं है, एक ही वृक्ष के एक जैसे दिखने वाले पत्तों में भी ऐसी भिन्न ता है कि समान प्रतीत होते हुए भी कोई पत्ती दूसरी किसी पत्तीै के सर्वसद़श और समान नहीं है। इनमें से कुछ बातों की ओर भाषावैज्ञानिकों ने ध्यान दिया है, कुछ की ओर अपनी लाज बचाने के लिए ध्यान दे ही नहीं सकते थे, जब तक कोई इनका भाषाशास्त्रीय विवेचन करने की ही न ठान ले तब तक ऐसा अध्ययन अनुपयोगी भी होगा। निष्कर्ष यह कि भिन्नताओं को अतिरंजित तूल दें तो घरों, परिवारो, अंचलों को भी भाषा के सवाल पर भी एक दूसरे के विरोध में खड़ा किया जा सकता है, और लगाव पर ध्यान दें तो उस छोर तक को अपना बनाया जा सकता है जहॉं तक भाषा के हमारे तार पहुँचते और एक नई रंगत लेकर हम तक वापस लौटते रहे है जिसे लक्ष्‍य करते हुए इमेनो ने भारत को एक भाषाई क्षेत्र माना था। भाषा की इस कशीदाकारी को समझने वाले घबरा जाते हैं क्योंकि यह उन सभी अध्यासों का, सभी मिथ्या प्रतीतियों का जवाब है, जिन्हें ज्ञात कारणों से प्रचारित किया और बेहयाई से जारी रखा गया और इसलिए पाश्चात्य भाषावैज्ञानिक इसको जानते हुए भी इसे अपने विवेचन में स्थान नहीं देते जब कि वे व्यक्तिगत भाषा या ईडियोलेक्ट तक को लक्ष्य कर चुके हैं।

पहले यात्राऍं पैदल ही होती थी इसलिए साधुओं आदि को एक गॉव से दूसरे में पहुँचते ठहरते और एक बोली क्षेत्र को पार करने में ही इतना समय लग जाता था कि वे इस विषय में अतिरिक्त सजगता के बिना ही अनेक भाषाऍ सीखते और बोलते आगे बढ़ते जाते थे। गोरखनाथ के साथ भी ऐसा ही हुआ होगा।

फिर भी विद्वानों के बीच एक मोटा भ्रम यह था कि भारत की सभी भाषाएंं संस्कृत से निकली हैं अत: भिन्नता के बाद भी पृथकता या अलगाव की चेतना नहीं थी। लोग अपनी बोली से इतने आसक्त होते थे कि उससे भिन्नं कथन या उच्चाारण का उपहास करते थे। परंतु साथ ही यह एक दुविधा भी थी की बहुत से ऐसे शब्द हैं जिन की व्याख्या संस्कृत से नहीं हो पाती। इसकी ओर ध्यान बहुत बाद में गया। संभव है हेमचन्द्र की देसी नाममाला के माध्यम से, पर मेरा अध्ययन इस क्षेत्र में इतना कामचलाउू है कि मैं यह नहीं कह सकता कि उनसे पहले, मिसाल के लिए वररुचि ने इस पर ध्याान न दिया होगा फिर भी हुआ तो बाद का ही । और इस बोध के बाद भी अलगाव की भावना न थी, कुछ प्रश्न थे जिनका कोई हल तलाशना था। यह उत्तर से ले कर दक्षिण तक व्याप्त धारणा थी।

बॉंटने का काम मध्यकाल के शासकों ने नहीं किया। उन्हों ने सताया, मारा, उत्पीडि़त किया पर दिलों पर चोट न की। ठीक किया, यह तुम कह सकते हो, तुलसी दास को तो शिकायत दंड की करालता से ही थी, ‘साम न दाम न भेद कछु केवल दंड कराल। भारतीय साहित्य से परिचित होने से पहले यूरोपियनों का भी एक ही हथियार था, दंड कराल। भारत में आकर उन्होंने साम, दाम और भेद से परिचय पाया और इसे अपनाया। उनका उससे पहले का इतिहास देखो, भारत से बाहर के देशों और उपनिवेशों के साथ उनके बर्ताव को देखो तो मेरी बात तुम्हारी समझ में आ जाएगी। यह सच है कि दाम का प्रयोग मध्यकालीन शासकों ने भी किया। अकबर से लेकर औरंगजेब तक अपनी अनेक लड़ाइयों में रिश्वत के बल पर विजय पा सके थे और उस रिश्वतखोरी को अंग्रेजो ने अपना औजार बनाया परंतु तुलसीदास ने जिस दाम की बात की थी वह इससे भिन्न थी जिसकी ओर मुड़े तो शामत आ जाएगी। परन्तु यह याद दिलाना जरूरी है कि हम पराधीन हुए इसके बाद भी विजेताओं ने हमसे बहुत कुछ सीखा, चुपचाप पचा ले गए कि लगे यह उनकी परंपरा में था, परन्तु हम उनसे कुछ नहीं सीख सके। गुलामी मन, आत्मा और मस्तिष्क के समर्पण से आती है, सामरिक पराजय से नहीं।

जिस आदमी ने दक्षिण को उत्तर भारत से अलग किया उसका इरादा कलह पैदा करने का यदि रहा भी हो तो उसके कारनामों से ऐसा लगता नहीं। वह मानता था कि फोर्ट विलियम कालेज में पढ़ाई जाने वाली या विकसित की जाने वाली भाषाएँ दक्षिण भारत के लिए उपयोगी नहीं, इसलिए मद्रास (चेन्नइ) में वैसा ही एक कालेज दक्षिणभारत की भाषाओं के विकास के लिए स्थापित किया जाना चाहिए। उसकी नजर में बटवारा नहीं, प्रशासन था और अभी तक मैकाले का भाषा सिद्धान्त सामने नहीं आया था। इस व्यक्ति का नाम था एलिस। पूरा नाम Francis Whyte Ellis था जो मद्रास में कलेक्टर के पद पर नियुक्त हुआ था। उसके सहयोगियों में थे विलियम्स एर्कसिन और जान लीडेन और उन्होंने पहली बार इस बात का प्रमाण जुटाया कि दक्षिण भारत की भाषाएं उत्तर भारत की भाषाओं से भिन्न है।

बॉटने का काम अंग्रेजों ने उसके बाद आरंभ किया जब उनको भारत के विशालतम भूभाग पर अधिकार मिल गया, प्रतिस्पसर्धी फ्रांसीसी शक्ति भारत से लुप्तप्राय हो गई और उन्हें विश्वास हो गया कि अब उनका प्रतिरोध करने वाली कोई शक्ति भारत में बच नहीं रही ।
कॉल्डवेल इसी दौर में आते हैं। उन्होंने जिस समय अपना काम संभाला उस समय तक दूसरे अनेक विद्वान दक्षिण भारत और उत्त‍र भारत की भाषाओं के संबंध पर विचार कर चुके थे। इसकी कुछ झलक काल्डवेल की पुस्तक की भूमिका में भी मिल जाएगी। यदि आप किताब को ध्यान से पढ़ें तो पाएंगे कि वह न केवल उत्तर भारत को दक्षिण भारत से काटने की कोशिश कर रहा था अपितु तमिलों को मलयालियों से भी, श्री लंका में बसे और जमे हुए तमिलों के विरुद्ध लंकावासियों को भी खड़ा कर रहा था, परन्तु उसने अपना काम इतनी ,खूबसूरती से किया कि किसी को पक्षपात का सन्देाह तक न हो।

अपनी अनेक सीमाओं के बावजूद कॉल्डवेल की पुस्तक आज भी बहुत महत्वपूर्ण है और उससे अनेक ऐसे पहलुओं पर प्रकाश पड़ता है जिनको हम उसके खिलाफ इस्तेमाल भी कर सकते हैं। उदाहरण के लिए उसने प्रतिपादित किया कि द्रविडियन भाषाऍं संस्कृत से निकली नहीं हो सकती, परन्तु साथ में यह भी कहा कि तमिल दक्षिण की भाषाओं में सब में अधिक रूढि़वादी भाषा है। उसने एक अन्य संभावना ओर भी संकेत किया कि संस्कृत स्वयं तमिल जैसी किसी बोली से निकली है या नहीं इस पर अवश्य विचार किया जा सकता है। यह दूसरा विचार बहुत रोचक था और उस मान्यता को चुनौती देता था जिससे भारत पर आर्यों के आक्रमण की बात की जाती थी यदि संस्कृत तमिल जैसी किसी भाषा से निकली हुई भाषा है तो इसका विकास भारतीय भूभाग में हुआ और उन्नत विकास होने के बाद इसका प्रसार देशांतर में हुआ। यह इसमें ध्वनित था इसलिए उसने इस विचार को आगे नहीं बढ़ाया। यह काम हमारे भाषाविदों और भाषाविज्ञानियों का था जो अपना काम ठीक न कर पाए।
मैं तो दक्षिण और उत्तर की भाषाओं के बीच के उस सूचीकर्म या तारवर्की को भी सामने लाना चाहता था जिससे मकड़ी के एक विशाल जाले का चित्र उभरता है, परन्तु इसे समझना कौन चाहेगा।

Post – 2016-01-29

यह बताओ तुमने शिगूफा छोड़ने के लिए ऐसा कह दिया कि हिन्दीेभाषियों के लिए तमिल का अध्ययन उतना ही महत्वपूर्ण है जितना संस्कृत का, या सचमुच ऐसा ही मानते हो?’’
’’तुम्हें क्या लगता है ? तुम जानते हो, मैं विनोद में भी झूठ नहीं बोलता। यथार्थ में ही इतना विद्रूप भरा हुआ है कि विनोद के लिए वही काफी है। उसे देखने की नजर और बयान करने की भाषा भर चाहिए। मेरे फेसबुक के एक मित्र ने लिखा कि आपने तो उत्तर दक्षिण को जोड़ दिया । मैं आधुनिक भगीरथ होने का सपना तक नहीं देखता। मैं क्या जोड़ूगा उत्तर को दक्खिन से, इतनी सामर्थ्य नहीं। मैंने एक बार कहा था, मैं द्रष्टा हूँ, ज्ञाता नहीं। इसके साथ यह भी जोड़ लो कि आविष्कर्ता तक नहीं। मौलिक होने से घबराता हूँ। प्रामाणिक होने का प्रयत्ऩ करता हूँ। जो देखता हूँ उसे यदि लोकविश्वास से भिन्न पाता हूँ तो बताता हूँ, तुम जो मानते हो वह सही नहीं है। देखो, यह तो ऐसा है, यह है, और इस कारण तुमको ऐसा दीख रहा है। दुर्भाग्य से मैं एक ऐसे समाज में अपनी बात रखने का प्रयत्न करता रहा हूँ जिसमें लंबी दासता के कारण आत्मविश्वास और आत्मसम्मान दोनों का अभाव है। वह इन शब्दों का अर्थ तक भूल गया है। वह दुराग्रह या हठ को आत्मविश्वा स और अहंकार को आत्मसम्‍मान समझता है और इसमें सर्वाधिक शक्ति और अवसर उस व्यक्ति के पास होता है जो दासता के मूल्यों में दूसरों से आगे होता है। वह स्वतन्त्र्ता का सम्मान करता है, पर यह नहीं जानता कि स्व तन्त्रता होती क्या है, जैसे वह आत्मविश्वास और आत्मसम्मा्न पाना चाहता है पर यह नहीं जानता कि आत्मविश्वास और आत्मसम्मान होता क्या है। जानते हो मैंने यह देखा कि जो इतिहास हमें पढ़ाया जाता है, जो भाषाविज्ञान हमें पढाया जाता है वह गलत है तो मैंने एक व्रत लिया था कि इसे मैं सुधारूँगा और इसे अपनी एक कविता में व्यतक्त किया था जो मेरे एकमात्र काव्यसंग्रह अपने समानान्तर की पहली कविता है। इसे मेरे मित्र नवल ने अपने सहज स्नेह से आग्रहपूर्वक प्रकाशित किया था, जिसमें मेरी संक्षिप्त टिप्‍पणी 6 दिसम्बकर 1971 की है जिसमें लिखा है ’अपने समानान्तार’ में मेरी 1968-69 में लिखी गयी कविताएं संकलित हैं। सो यह प्रतिज्ञा भी इसी बीच ली गई होगी। इस कविता में की गई प्रतिज्ञा ने ही मुझे, मैं जो कुछ हूँ, बनाया है, इसलिए इसे देखो। कवियों को यह पसन्द न आएगी क्योंकि यह नारे जैसी कविता है जिसमें संकल्प होता है, कवित्व की नाजुकी नहीं होती, पर नारे लिखने वाले कवि भी समाज में होने चाहिए। कविता को सुन सको तो सुनो:
मैं फिर तोड़ता हूं इस तिलि‍स्म को
जिसमें मैं कैद था
और गढ़ता हूँ एक नया तिलि‍स्म
अपने नाखून की मैल से ।
मैं बनाने जा रहा हूं एक सुरंग
जो तुम्हारे दिल और संसद भवन में एक साथ खुलेगी ।
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लो मैंने बंद कर दिया कोढि़यों की तरह शब्द थूकते रहना
सावधान।
मैं कुछ खतरनाक शब्दों की जंजीरें खोलने जा रहा हूं
ये तुम्हें काटेंगे और जिंदा छोड़ देंगे ताउम्र भोंकने के लिए।
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अब कोई आईना
मेरे लिए परछाइयों का कब्रिस्तान नहीं है
अब मैं परछाइयों को आकृतियों में
और आकृतियों को परछाइयों में बदल सकता हूं ।
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‘लैजरस उठो।‘ मैं नहीं कहूंगा
मैं नहीं करूँगा जीवितों का अपमान
मैं कहूंगा ‘लैजरस आंखें खोलो’
मैं अब बारुद की गंध को ऑक्सीजन में बदल सकता हूं ।
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मुझे याद है
मैं कई बार भाग खड़ा हुआ था कई मोर्चों से
पर आज खड़ा होता हूँ
अपने विरुद्ध एक नए समर में।
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मैं तोड़ूँगा कुछ भी नहीं
सिर्फ परिभाषाएं सुधार दूंगा
और कुएं के पहाड़ बिखर जाएंगे।
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तुम देखना
बेकार नहीं जाएगी मेरी फुसफुसाहट
नहीं धरती धँसेगी नहीं
नहीं झुकेगा आसमान
पर इसके स्पर्श से
गर्व में तने कँगूरे हवा मुर्ग में बदल जाएंगे।
0
लो मैं तुम्हें सौंपता हूं अपनी कविता
तुम इससे कोई भी काम ले सकते हो
नाबदान साफ करने से लेकर
धमनभटि्ठयॉं चलाने तक
पर तुम इसे बिछाकर सो नहीं सकते ।
बेशक, उस राजकुमारी को मुक्त करा सकते हो
जो तहखाने में बंद है
जिस पर विषधर नाग पहर दे रहे हैं।
‘’तुम्हारी कविता तो सुन ली। कवियों की दुर्बलता है, वे निज कबित्त केहि लाग न नीका, सरस होय अथवा अति फीका वाले नियम से बँधे होते हैं। पर तुम तो अब कवि भी नहीं रह गए, बात तमिल की चल रही थी और इस बीच तुम कविया उठे। दोस्ती का लिहाज कर के चुपचाप सुन भी लिया, पर इसकी यहॉं कोई जरूरत थी।”
”मैं यह बताना चाहता था हमारे बौद्धिक वर्ग का बौद्धिक स्तर और सरोकार कैसे ललित साहित्य और अखबारी सूचनाओं तक सीमित रह गया है उसमें न साहित्य की समझ है न समाज की समस्याओं की, न अपने देश की, न अपने भविष्य की, और न ही अपनी सीमा की पहचान। इसलिए आगे बढ़ने के रास्ते वही बंद करता है। एक प्रबुद्ध आलोचक, विजयमोहन सिंह ने इस संग्रह की आलोचना की थी और उन्होंने उसको समझने में कुछ गलतियॉं की थीं।इसका प्रभाव यह पड़ा कि उसके बाद मैंने कविता से मुँह फेर लिया परन्तु कविता ने मुझसे मुँह नहीं फेरा इसलिए चोरी चोरी जो रुक न सका उसे दर्ज कर लेता हॅू। मैं कवि होने का दावा नहीं करता परन्तु क्या वे जो कविता, कहानी, और उन्हीं की आलोचना तक सीमित हैं, वे अपने सीमित दायरे में भी चीजों को समझते हैं। क्या मेरे आलोचक को पता था उन प्रयोगों का अर्थ
तिलिस्म – एक मायावी यथार्थ,जो है नहीं, पर जिसे सही बना दिया और मान लिया गया है, अर्थात् आधारहीन स्‍थापनाऍं ।
नाखून की भैल से – अकेले दम पर, साधन हीनता के बावजूद जो कुछ सुलभ है उसी के माध्यम से सत्य की स्थापना जिसे बहुत से लोग एक नये तरह का भ्रम समझ सकते हैं।
कोढि़यों की तरह शब्दी थूकते रहना – ऐसी अभिव्याक्ति जो निष्प्रभाव है और अपनी व्यर्थता के कारण गर्हित।
लैजरस – लेजी व्यक्ति या समाज जो मरा तो नहीं है परन्तु् किन्हीै मारक प्रभावों में अचेत है।
इस प्रतीकात्मीकता की व्‍याख्या को बढ़ाया भी जा सकता है।‘’
‘’यार तुम फिर अपना राग अलापने लगे।‘’
’’राग नहीं अलाप रहा था। अपने राष्ट्रीय बौद्धिक गिरावट पर विलाप कर रहा हूँ जिसमें ललि‍त लवंग लता परिशीलन की परिधि में भी समझ गायब है, उसमें वैचारिक स्तर पर किसी नए विचार का स्वागत हो सकता है?
”यह कविता मैंने 1969 से पहले लिखी थी। आर्यद्रविड़ भाषाओं की मूलभूत एकता 1973 में प्रकाशित हुई थी । उसमें इन विचारों का भाष्य तो न हुआ था, पर यह स्थापना केन्द्रीय थी, यह तो पुस्तक के नाम से ही प्रकट है। गो नाम भ्रामक था, इसलिए बदलना पड़ा। उसमें यह भ्रम पैदा हो सकता था कि कोई एक आदि भाषा थी जिससे आर्य और द्रविड़ भाषाओं का जन्म हुआ और आगे का विभाजन हुआ जब कि उसमें एक से बहु नहीं, बहु के बीच एक के नियम से किसी एक भाषा का अपने निकट की भाषाओं में स्वीकार्य हो कर मानक दर मानक बनते चले जाने की प्रक्रिया है। हमारे मनस्वी लोग पुस्तक पढ़े बिना शीर्षक से ही उसकी अन्तर्वस्तु का अनुमान लगा कर उसकी छुट्टी कर देते हैं।’
उस पुस्तक से अधिक महत्व पूर्ण रचना मैंने आज तक नहीं की। जो कुछ आगे लिखा उसी का भाष्य था। भाष्य् को जिन्होंने समझा वे भी मूल को न समझ पाए अन्यथा तुम्हें मेरा कथन शिगूफा नहीं लगता।”
’तुम्हारी भड़ास तो सह ली, पर अब भी समझ में नहीं आया तुम हिन्दीं और तमिल के बीच किस कशीदाकारी की बात कर रहे थे।”
”तुम यह बताओ, तुम ठंढ, तड़ाग, ताड़, ताल का मतलब जानते हो?”
क्या मजाक करते हो। मेरी हिन्दी इतनी कमजोर तो नहीं जो इनका अर्थ तक न जानूँ।”
”नहीं जान सकते, तुम मतलब को नहीं, ठप्पे को जानते हो। टैग को जानते हो। मतलब वहॉं छिपा मिलेगा जहॉं तुम समझोगे कि इसे यह नाम क्यों मिला। इस संज्ञा का आधार क्या है। समझे? तुम तो ताल और तालाब के बीच भी फर्क नही कर सकते क्योंकि तुम सत्ता के उपयेाग की भाषा को जननी और सत की भाषा को उससे जनित मानते हो।”’
‘पहेलियॉं मत बुझाया कर यार, कहना क्या् चाहता है?”
” तुम कभी किसी दक्षिण भारतीय ढाबे में गए हो। किसी को पानी के लिए तन्नी का प्रयोग करते सुना है?”
गया हूँ, सुना भी है मतलब भी जानता था। बात बात पर इस तरह की अकड़ क्योंक दिखाते हो।
‘यह बताने के लिए कि तन्नीी का अर्थ है पानी पानी अर्थात् ठंढा पानी। तण् – पानी, नीर – पानी। पानी पानी अर्थात् ठंढा पानी। अर्थात् पानी से ही ठंढ की संकल्प ना भी जुड़ी है। अब उस तण् को संस्क़कत असैा हिन्दी के तड़ाग में देख सकते हो। ताड़ी में देख सकते हो। ठंढ में पहचान सकते हो। तड़ तो तल में बदलते देख सकते हो। अब ताल का अर्थ है जलाशय यह समझ सकते हो। और तालाब को तुम तन्नी् के नियम से पानी पानी कह सकते हो, ताल –पानी, अप्/ आप –पानी, फारसी आब –पानी और तालाब। पर अब उल्टी यात्रा करो। तर- पानी, तरंग – पानी की लहर या उसका अंगभूत, तरणी, तरना आदि पर ध्या न दो। तर तल हो सकता है, र और ल में भेद नहीं है, रलयोरभेद:, ल ळ बन कर ड़ और फिर ण बन सकता है। इस गहन स्तबर पर कौन तय करेगा कि तर तण् बना या इसके विपरीत हुआ, पर जो बात निश्चित है और जिसे समझाना बहुत मुशिकल है वह यह कि ये भाषाऍं उस आदिम स्त,र से ही एक दूसरे से जुड़ी और एक दूसरे को प्रभावित करती रही है कि यह तय कर पाना तक कठिन होता है और इस रहस्या को समझे बिना हम उन श्दोंुशि का भी अर्थ नहीं समझ सकते जिनका नित्यद प्रयोग करते हैं।
सुन लिया, पर यह बताओगे कि तुम हर चीज को बोरडम तक क्यों पहुँचा देते हो। सुनने वाले तुम जैसों के पाले पड़ने पर सोचते हैं, मैं बहरा क्योंय न हुआ। मैं बहरे समाज से ही बात करता रहा हूँ।
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Post – 2016-01-29

यह बताओ तुमने शिगूफा छोड़ने के लिए ऐसा कह दिया कि हिन्दीेभाषियों के लिए तमिल का अध्ययन उतना ही महत्वपूर्ण है जितना संस्कृत का, या सचमुच ऐसा ही मानते हो?’’

’’तुम्हें क्या लगता है ? तुम जानते हो, मैं विनोद में भी झूठ नहीं बोलता। यथार्थ में ही इतना विद्रूप भरा हुआ है कि विनोद के लिए वही काफी है। उसे देखने की नजर और बयान करने की भाषा भर चाहिए। मेरे फेसबुक के एक मित्र ने लिखा कि आपने तो उत्तर दक्षिण को जोड़ दिया । मैं आधुनिक भगीरथ होने का सपना तक नहीं देखता। मैं क्या जोड़ूगा उत्तर को दक्खिन से, इतनी सामर्थ्य नहीं। मैंने एक बार कहा था, मैं द्रष्टा हूँ, ज्ञाता नहीं। इसके साथ यह भी जोड़ लो कि आविष्कर्ता तक नहीं। मौलिक होने से घबराता हूँ। प्रामाणिक होने का प्रयत्ऩ करता हूँ। जो देखता हूँ उसे यदि लोकविश्वास से भिन्न पाता हूँ तो बताता हूँ, तुम जो मानते हो वह सही नहीं है। देखो, यह तो ऐसा है, यह है, और इस कारण तुमको ऐसा दीख रहा है। दुर्भाग्य से मैं एक ऐसे समाज में अपनी बात रखने का प्रयत्न करता रहा हूँ जिसमें लंबी दासता के कारण आत्मविश्वास और आत्मसम्मान दोनों का अभाव है। वह इन शब्दों का अर्थ तक भूल गया है। वह दुराग्रह या हठ को आत्मविश्वा स और अहंकार को आत्मसम्‍मान समझता है और इसमें सर्वाधिक शक्ति और अवसर उस व्यक्ति के पास होता है जो दासता के मूल्यों में दूसरों से आगे होता है। वह स्वतन्त्र्ता का सम्मान करता है, पर यह नहीं जानता कि स्व तन्त्रता होती क्या है, जैसे वह आत्मविश्वास और आत्मसम्मा्न पाना चाहता है पर यह नहीं जानता कि आत्मविश्वास और आत्मसम्मान होता क्या है। जानते हो मैंने यह देखा कि जो इतिहास हमें पढ़ाया जाता है, जो भाषाविज्ञान हमें पढाया जाता है वह गलत है तो मैंने एक व्रत लिया था कि इसे मैं सुधारूँगा और इसे अपनी एक कविता में व्यतक्त किया था जो मेरे एकमात्र काव्यसंग्रह अपने समानान्तर की पहली कविता है। इसे मेरे मित्र नवल ने अपने सहज स्नेह से आग्रहपूर्वक प्रकाशित किया था, जिसमें मेरी संक्षिप्त टिप्‍पणी 6 दिसम्बकर 1971 की है जिसमें लिखा है ’अपने समानान्तार’ में मेरी 1968-69 में लिखी गयी कविताएं संकलित हैं। सो यह प्रतिज्ञा भी इसी बीच ली गई होगी। इस कविता में की गई प्रतिज्ञा ने ही मुझे, मैं जो कुछ हूँ, बनाया है, इसलिए इसे देखो। कवियों को यह पसन्द न आएगी क्योंकि यह नारे जैसी कविता है जिसमें संकल्प होता है, कवित्व की नाजुकी नहीं होती, पर नारे लिखने वाले कवि भी समाज में होने चाहिए। कविता को सुन सको तो सुनो:

मैं फिर तोड़ता हूं इस तिलि‍स्म को
जिसमें मैं कैद था
और गढ़ता हूँ एक नया तिलि‍स्म
अपने नाखून की मैल से ।
मैं बनाने जा रहा हूं एक सुरंग
जो तुम्हारे दिल और संसद भवन में एक साथ खुलेगी ।
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लो मैंने बंद कर दिया कोढि़यों की तरह शब्द थूकते रहना
सावधान।
मैं कुछ खतरनाक शब्दों की जंजीरें खोलने जा रहा हूं
ये तुम्हें काटेंगे और जिंदा छोड़ देंगे ताउम्र भोंकने के लिए।
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अब कोई आईना
मेरे लिए परछाइयों का कब्रिस्तान नहीं है
अब मैं परछाइयों को आकृतियों में
और आकृतियों को परछाइयों में बदल सकता हूं ।
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‘लैजरस उठो।‘ मैं नहीं कहूंगा
मैं नहीं करूँगा जीवितों का अपमान
मैं कहूंगा ‘लैजरस आंखें खोलो’
मैं अब बारुद की गंध को ऑक्सीजन में बदल सकता हूं ।
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मुझे याद है
मैं कई बार भाग खड़ा हुआ था कई मोर्चों से
पर आज खड़ा होता हूँ
अपने विरुद्ध एक नए समर में।
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मैं तोड़ूँगा कुछ भी नहीं
सिर्फ परिभाषाएं सुधार दूंगा
और कुएं के पहाड़ बिखर जाएंगे।
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तुम देखना
बेकार नहीं जाएगी मेरी फुसफुसाहट
नहीं धरती धँसेगी नहीं
नहीं झुकेगा आसमान
पर इसके स्पर्श से
गर्व में तने कँगूरे हवा मुर्ग में बदल जाएंगे।
0
लो मैं तुम्हें सौंपता हूं अपनी कविता
तुम इससे कोई भी काम ले सकते हो
नाबदान साफ करने से लेकर
धमनभटि्ठयॉं चलाने तक
पर तुम इसे बिछाकर सो नहीं सकते ।
बेशक, उस राजकुमारी को मुक्त करा सकते हो
जो तहखाने में बंद है
जिस पर विषधर नाग पहर दे रहे हैं।

‘’तुम्हारी कविता तो सुन ली। कवियों की दुर्बलता है, वे निज कबित्त केहि लाग न नीका, सरस होय अथवा अति फीका वाले नियम से बँधे होते हैं। पर तुम तो अब कवि भी नहीं रह गए, बात तमिल की चल रही थी और इस बीच तुम कविया उठे। दोस्ती का लिहाज कर के चुपचाप सुन भी लिया, पर इसकी यहॉं कोई जरूरत थी।

मैं यह बताना चाहता था हमारे बौद्धिक वर्ग का बौद्धिक स्तर और सरोकार कैसे ललित साहित्य और अखबारी सूचनाओं तक सीमित रह गया है उसमें न साहित्य की समझ है न समाज की समस्याओं की, न अपने देश की, न अपने भविष्य की, और न ही अपनी सीमा को पहचान। इसलिए आगे बढ़ने के रास्ते वही बंद करता है। एक प्रबुद्ध आलोचक, विजयमोहन सिंह ने इस संग्रह की आलोचना की थी और उन्होंने उसको समझने में कुछ गलतियॉं की थीं।इसका प्रभाव यह पड़ा कि उसके बाद मैंने कविता से मुँह फेर लिया परन्तु कविता ने मुझसे मुँह नहीं फेरा इसलिए चोरी चोरी जो रुक न सका उसे दर्ज कर लेता हॅू। मैं कवि होने का दावा नहीं करता परन्तु क्या वे जो कविता, कहानी, और उन्हीं की आलोचना तक सीमित हैं, वे अपने सीमित दायरे में भी चीजों को समझते हैं। क्या मेरे आलोचक को पता था उन प्रयोगों का अर्थ
तिलिस्म – एक मायावी यथार्थ,जो है नहीं, पर जिसे सही बना दिया और मान लिया गया है अर्थात् गलत मान्‍यताऍं जो सत्‍य की तरह पढ़ाई जा रही है।
नाखून की भैल से – अकेले दम पर, साधन हीनता के बावजूद जो कुछ सुलभ है उसी के माध्यम से सत्य की स्थापना जिसे बहुत से लोग एक नये तरह का भ्रम समझ सकते हैं।
कोढि़यों की तरह शब्द थूकते रहना – ऐसी अभिव्याक्ति जो निष्प्रभाव है और अपनी व्यर्थता के कारण गर्हित।
लैजरस – लेजी व्यक्ति या समाज जो मरा तो नहीं है परन्तु् किन्हीै मारक प्रभावों में अचेत है।
इस प्रतीकात्मीकता की व्‍याख्या को बढ़ाया भी जा सकता है।‘’
‘’यार तुम फिर अपना राग अलापने लगे।‘’
’’राग नहीं अलाप रहा था। अपने राष्ट्रीय बौद्धिक गिरावट पर विलाप कर रहा हूँ जिसमें ललि‍त लवंग लता परिशीलन की परिधि में भी समझ गायब है, उसमें वैचारिक स्तर पर किसी नए विचार का स्वागत हो सकता है?
”यह कविता मैंने 1969 से पहले लिखी थी। आर्यद्रविड़ भाषाओं की मूलभूत एकता 1973 में प्रकाशित हुई थी । उसमें इन विचारों का भाष्य तो न हुआ था, पर यह स्थापना केन्द्रीय थी, यह तो पुस्तक के नाम से ही प्रकट है। गो नाम भ्रामक था, इसलिए बदलना पड़ा। उसमें यह भ्रम पैदा हो सकता था कि कोई एक आदि भाषा थी जिससे आर्य और द्रविड़ भाषाओं का जन्म हुआ और आगे का विभाजन हुआ जब कि उसमें एक से बहु नहीं, बहु के बीच एक के नियम से किसी एक भाषा का अपने निकट की भाषाओं में स्वीकार्य हो कर मानक दर मानक बनते चले जाने की प्रक्रिया है। हमारे मनस्वी लोग पुस्तक पढ़े बिना शीर्षक से ही उसकी अन्तर्वस्तु का अनुमान लगा कर उसकी छुट्टी कर देते हैं।’
उस पुस्तक से अधिक महत्व पूर्ण रचना मैंने आज तक नहीं की। जो कुछ आगे लिखा उसी का भाष्य था। भाष्य् को जिन्होंने समझा वे भी मूल को न समझ पाए अन्यथा तुम्हें मेरा कथन शिगूफा नहीं लगता।
’तुम्हारी भड़ास तो सह ली, पर अब भी समझ में नहीं आया तुम हिन्दीं और तमिल के बीच किस कशीदाकारी की बात कर रहे थे।”
”तुम यह बताओ, तुम ठंढ, तड़ाग, ताड़, ताल का मतलब जानते हो?”
”क्या मजाक करते हो। मेरी हिन्दी इतनी कमजोर तो नहीं जो इनका अर्थ तक न जानूँ।”
”नहीं जान सकते, तुम मतलब को नहीं, ठप्पे को जानते हो। टैग को जानते हो। मतलब वहॉं छिपा मिलेगा जहॉं तुम समझोगे कि इसे यह नाम क्यों मिला। इस संज्ञा का आधार क्या है। समझे? तुम तो ताल और तालाब के बीच भी फर्क नही कर सकते क्योंकि तुम सत्ता के उपयेाग की भाषा को जननी और सत की भाषा को उससे जनित मानते हो।’
” पहेलियॉं मत बुझाया कर यार, कहना क्या् चाहता है?”
” तुम कभी किसी दक्षिण भारतीय ढाबे में गए हो। किसी को पानी के लिए तन्नी का प्रयोग करते सुना है?”
”गया हूँ, सुना भी है, मतलब भी जानता था। बात बात पर इस तरह की अकड़ क्यों दिखाते हो।”
‘यह बताने के लिए कि तन्नी का अर्थ है पानी पानी अर्थात् ठंढा पानी। तण् – पानी, नीर – पानी। पानी पानी अर्थात् ठंढा पानी। अर्थात् पानी से ही ठंढ की संकल्पना भी जुड़ी है। अब उस तण् को संस्क़ृत अौर हिन्दी के तड़ाग में देख सकते हो। ताड़ी में देख सकते हो। ठंढ में पहचान सकते हो। तड़ तो तल में बदलते देख सकते हो। अब ताल का अर्थ है जलाशय यह समझ सकते हो। और तालाब को तुम तन्नी् के नियम से पानी पानी कह सकते हो, ताल –पानी, अप्/ आप –पानी, फारसी आब –पानी और तालाब। पर अब उल्टी यात्रा करो। तर- पानी, तरंग – पानी की लहर या उसका अंगभूत, तरणी, तरना आदि पर ध्या न दो। तर तल हो सकता है, र और ल में भेद नहीं है, रलयोरभेद:, ल ळ बन कर ड़ और फिर ण बन सकता है। इस गहन स्तर पर कौन तय करेगा कि तर तण् बना या इसके विपरीत हुआ, पर जो बात निश्चित है और जिसे समझाना बहुत मुश्किल है वह यह कि ये भाषाऍं आदिम स्तर से ही एक दूसरे से जुड़ी और एक दूसरे को प्रभावित करती रही है कि यह तय कर पाना तक कठिन होता है कि कौन सा शब्‍द मूलत- किसका है और इस रहस्या को समझे बिना हम उन शब्‍दों का भी अर्थ नहीं समझ सकते जिनका नित्य प्रयोग करते हैं।”
सुन लिया, पर यह बताओगे कि तुम हर चीज को बोरडम तक क्यों पहुँचा देते हो। सुनने वाले तुम जैसों के पाले पड़ने पर सोचते हैं, मैं बहरा क्योंय न हुआ। मैं बहरे समाज से ही बात करता रहा हूँ।

Post – 2016-01-28

नरेश मेहता को नमन करते हुए

1

“कहाँ गायब हो गए थे भाई?”
“प्रयोग कर रहा था कि 3 दिन में आदमी कितना बूढ़ा हो सकता है।‘’
‘’पता चल गया?’’
‘’बात करोगे तो पता चलेगा अनुभव कितना अधिक हो गया है, कमर कितनी टेढ़ी हो गई है, याददाश्त कितनी कम हो गई है, थकान कितनी बढ़ गई है, निराशा कितनी गहरी हो गई है, और संकल्प कितना दृढ़ हो गया है।‘’
‘’हां कुछ तो है मैं भी देख रहा हूं – पहले से कम बेवकूफ लग रहे हो, चाल चलन भी गड़बड़ लग रहा है , डगमगाते हुए चल रहे थे, और मुझसे बात करते हुए तो बजरंगबली की गदा ताने हुए से लग रहे हो ! लेकिन सिर्फ 3 दिनों में इतना कुछ कर डाला । कमाल है। यह हुआ कैसे।
’’अरे यार एक मित्र ने सुझाया करपात्री बन जाओ। मैंने हाथ आगे फैला दिया। उसने कहा, इधर नहीं, उधर, देखो उधर बेचारे मध्य प्रदेश के राष्ट्र भाषा प्रचार समिति वाले सम्मान सॅभाले खड़े है। इस समय जब सभी सम्मानित जन अपना सम्मान त्याग रहे हैं, अपमान का शोर मचाने पर सिंहासन हिल जा रहे है, सम्मान लेने को कोई तैयार नहीं। मौका मत चूको, हाथ बढ़ा दो। मैंने सोचा बढ़ाने की ही तो बात कर रहा है, घटाने की तो नहीं, बढ़ा दिया पंचतंत्र की भाषा में, ‘भाग्येन एकदपि संभवम्।‘ मैं क्या जानता था कि सम्मान का बोझ इतना अधिक होता है कि रीढ़ तक जवाब दे जाय।”
अक्ल से तो काम लिया होता, किसी ने सुझाया और तुम मान गए। थोड़ा नाटक वाटक तो करना था।‘’
“किया था यार, जब पहली बार चयन समिति के एक मित्र ने सूचित किया अबकी बार तुम्हारी बारी तो मैंने कहा, मुझे कहॉं घसीट रहे हो, किसी दूसरे को पकड़ो। उसने कहा, अब तो जो होना था हो गया। और अगले ही दिन कलमबन्द कागज ।‘’
‘’मध्य प्रदेश में, भाजपा के राज में, भाजपा के इशारे पर ही सब कुछ होता है, साहित्य, कला, संस्कृति, इतिहास से जुड़े सभी निर्णय शाखा से शाखामृग के लगाव को ध्यान में रख कर ही किए जाते हैं। यह पता था तुम्हें?
’’दुहरा फायदा था यार, बिना शाखा से जुड़े और बिना शाखाचर बने, दोनों का लाभ मिल रहा था। और क्या चाहिए था। उत्साह दूना हो गया।‘’
’’तुमने यह पता लगाया कि यह पुरस्कार भगवान सिंह को दिया जा रहा था या डा श्री भगवान सिंह को?’’
“शायद दोनों को, जो पहले पहुंच जाता लेकर चला आता क्योंकि परिचय में डॉ भगवान सिंह लिखा हुआ था जो मैं हूं नहीं और ‘श्री’ नहीं लिखा था जो कि वह है इसके खतरे थे, मौका हाथ से निकल जाता तो सिर पर हाथ मारने के सिवाय कोई चारा न रह जाता। फिर भी सावधानी बरती। कहा, मेरा टिकट आप बुक कराऍंगे और तिथि भी आप ही तय करेंगे। टिकट ‍भी मेरे पते पर आ गया तो मानना ही था कि मैं वही भगवान सिंह हूँ जो मरीज है, डाक्टर नहीं और श्रीहीन तो है ही । लेकिन मेरे मित्र की पत्नी, मधु को अब भी यकीन न था । कहा, भाई साहब, आप दो दिन पहले ही चले जाइए। कहीं आपके हाथ से निकल ना जाए। आप जानते नहीं हैं वहां कितने घोटाले होते हैं। मैंने लाचारी प्रकट की, ‘टिकट 24 तारीख का है, चाहूँ तो भी रिज़र्वेशन इतनी जल्दी मिलेगा नहीं।‘’
उसने लम्बी सॉस छोड्ते हुए कहा, ‘’किया भी क्या जा सकता है। चले जाइएगा, यदि बचा रहा तो मिल भी सकता है।‘’
’कमाल की बात यह कि वह सचमुच बचा रह गया था।‘’ हालॉंकि वहॉं आमंत्रित दर्जनाधिक विद्वान थे, भौतिकी, जीवविज्ञान, वनस्पाति विज्ञान, इतिहास, अभियान्त्रिकी, दर्शन आदि विषयों के पारंगत पर, वे इतना ही बता पाए कि उनके क्षेत्र में हिंदी में क्या काम हुआ है या हो रहा है और इस मामले में यह एक अच्छा आयोजन था, क्योंकि उनमें से किसी ने यह नहीं कहा कि इतना काम मैंने किया है, इसलिए दुबारा विचार करो और कम से कम आधा सम्मान मुझे भी दो। पहली बार लगा की हिन्दी में इतना अधिक काम हो रहा है की या तो हिंदी रहेगी या वे विषय। लेकिन साथ ही यह दुःख भी प्रकट किया जा रहा था कि इन विद्वानों की उपेक्षा हिन्दीे में लिखने के कारण हो रही है । मुझे लगा वे जिस हिन्दी में लिखते हैं उसके कारण हिन्दी की उपेक्षा हुई है।”
“दुर्दशा हिन्दी की ही नहीं है, समस्त भारतीय भाषाओं की है क्योंकि हम बाहरी उपनिवेशवाद से मुक्त, होने के साथ आन्तरिक उपनिवेशवाद के शिकार हो गए ! सत्ता का हस्तांतरण हुआ, उपनिवेशवाद का खात्मा नहीं ।”
“सोलह आने दुरुस्त! नए उपनिवेशवादियों के हित अंग्रेजी से जुड़े थे और अंग्रेजी को भारतीय भाषा सिद्ध करने के लिए नेहरू जी ने पूरा नगालैंड वेरियर एल्विन के हवाले कर दिया था। आश्चयर्य नहीं कि अंग्रेजों के विदा होने के बाद इतनी जल्द इस देश के एक कोने में एक अंग्रेजी राज्य खड़ा कर लिया गया और संविधान में अवसर की समानता के आश्वासन के बाद भी शिक्षा में ही अवसर की समानता समाप्त कर दी गईा अल्प संख्यक भाषा के सामने हिन्दी जैसी बड़ी भाषा की बात करना संकीर्णतावादी माना जाने लगा और अंग्रेजी को कायम रखने के लिए इसे विश्वभाषा कहा जाने लगा. यह भुला दिदया गया कि दुनिया क्या अंग्रेजी पुरे यूरोप तक की भाषा नहीं है. यह अंग्रेज़ो और उनके औरस या अनौरस संतानों की ही भाषा है, वे चाहे कहीं भी बसे क्यों न हों.

2
मैंने जो कुछ कहा वह ठीक से नहीं कह पाया फिर भी लोगों को अचरज में डालने वाला तो था ही। कहना चाहा हिन्दी क्षेत्र में राष्ट्रभाषा प्रचार समिति का क्या मतलब, लेकिन लगा, यह उस संस्थान और उस चयनसमिति का ही अपमान होगा जिसने आपको सम्मा्न के योग्य समझा। इसलिए एक दो उदाहरण दे कर बताया कि आप संस्कृत सहित अपने देश की किसी भाषा को अच्‍छी तरह नहीं समझ सकते जब तक दक्षिण की किसी भाषा, वैदिक भाषा और अपनी मातृबोली को नहीं समझते। बताया कि हमारी बोलियों में ही कई बोलियों या भाषाओं के तत्व नहीं विद्यमान हैं अपितु बहुत से शब्दा ऐसे हैं जिनका निर्माण कई बोलियों या भाषाओं के प्रभाव में हुआ है। इसका एक उदाहरण तेलुगु की एक की संख्या ओकटि है। इसमें संस्क़ंत का एक तमिल की प्रधान बोली के प्रभाव से ओक हो गया क्योंकि उसमें एक के लिए ओन्र का प्रयोग होता है। सो एकार ओकार में बदला और लालित्य के लिए उसमें उस बोली का अन्‍त्‍य प्रत्‍यय ‘टि’ लगा जिसके प्रभाव से बंगला में एक टि, दू टी जैसे प्रयोग चलते हैं, बंगला में यह एक टा भी हो सकता है और उसका प्रभाव भोजपुरी में किसी ओकार प्रिय बोली के प्रभाव से ठो हो गया, और एक ठो, दू ठो बोला जाता है। इस ठो का एक वैकल्पिक रूप गो भी है, इसलिए एक गो, दू गो भी चलता है। यह गो मराठी के आई गो या माई रे तक पहुँचा हुआ है। बताया कि जिन्हें आप संस्क़ात का मूल शब्द समझते हैं, वह किसी बोली के मूल शब्दं का तद्भव भी हो सकता है। उदाहरण ‘सुख’ का दिया जिसका प्राचीन अर्थ पानी था इसलिए चंडीगढ़ के पास जिस सुखना झील के बारे में एक सज्जान बता रहे थे, पहले यह सूख जाया करती थी इसलिए यह नाम पड़ा वह भ्रम तब टूटा जब देखा यह नाम छत्तीबसगढ़ और असम में भी झीलों के साथ भी जुड़ा है। इस सुख का विलोम ही सूखा है, जहॉं वह नियम काम करता है जो तमिल में प्रभावी है, स्वर को दीर्घ करके विलोम बनाना । वेंडुम – चाहिए; वेंडाम – नही चाहिए। यह सूखा संस्कृ्त में शुष्क हो जाता है और शोषण आदि बन कर कम्युनिस्ट आंदोलन के काम आता है, परन्तु फारसी में यह खुश और खुश्क बन जाता है और अंग्रेजी में सक – चूसना, सुकुलेंट रसीला आदि अर्थ देता है। इसलिए तीन बातों पर ध्यान दें:
पहली यह कि हमारी बोलियॉं संस्कृत से अधिक पुरानी हैं, उनके तद्भव प्रतीत होने वाले शब्द‍ तत्सम और संस्कृत के तत्सम अपनी बोलियों के किसी शब्द का तद्भव हो सकते हैं;
दूसरी यह कि भारत की भाषाई दुर्गति के लिए हिन्दी वाले जिम्मेंदार हैं जिन्होंने इसे राष्ट्रभाषा बनाने के अभियान में तो कोई भूमिका नहीं निभाई, सारा काम बंगालियों और गुजरातियों और मराठियों और कुछ दूर तक तमिलों ने भी किया, परन्तु संविधान में इसे राष्ट्रभाषा का स्थान मिलने के साथ ही इस तरह का तेवर अपना लिया मानो हिन्दी‍ अंग्रेजी का स्था‍न ले रही है और भारत पर अंग्रेजी राज की जगह हिन्दी राज स्थापित होने वाला है। आज भी स्थिति बेकाबू नहीं है। कमी संकल्‍प की है। यदि और हिन्दी वाले और खास करके दलित इस बात के लिए कृतसंकल्प हो जायँ कि भारतीय भाषाऍं अपना खोया हुआ गौरव प्राप्त करें तो अंग्रेजी इसमें बाधक बनने की लाख कोशिशों के बाद भी बाधा नहीं डाल सकती परन्तु दलित समाज को झूठे झगड़ों में डाल कर अंग्रेजी प्रेस, ईसाई संगठन और छद्म विदेशी शक्तियॉं उनकी सबसे जरूरी मॉंग, मातृभाषा में शिक्षा और अवसर की समानता से भटकाने में समर्थ रही हैं जिसके साथ बीच बीच में मुस्लिम कट्टरतावादी भी जुड़ जाते हैं जिनके भी विपन्न वर्गों का हित मातृभाषा से जुड़ा है। इसकी ताजी मिसाल हैदरावाद से चला आन्दोंलन है।
तीसरी यह कि हिन्दीं क्षेत्र में राष्ट्रभाषा प्रचार समितियों और संगठनों को दक्षिणभारतीय भाषाऍं सिखाने का काम उसी तरह करना चाहिए जैसे दक्षिणभारतीय क्षेत्र में इनको हिन्दी सिखाने और इसका प्रचार करने में लगाना चाहिए। यदि हिन्दी प्रेमी विश्व हिन्दी सम्मेलन करने की जगह भारत पर सांस्कृ तिक आक्रमण कर दें, जिस तरह दूसरी भाषाओं के दर्जनों ऐसे लोग मिलते हैं जो अधिकार से हिन्दी बोल और लिख लेते है, उसी तरह हिन्दी भाषियों में भारत की सभी भाषाओं पर अधिकार रखने वाले, उनमें लिखने और प्रवाह के साथ बोलने वाले दर्जनों विद्वान पैदा हो सकें तो वह सारा तनाव शिथिल हो जाएगा जिनके कारण सभी भारतीय भाषाओं का अहित हुआ है और शिक्षा की भाषा व्यावसायिक भाषा बन चुकी है जिस तक गरीबों की पहुँच नहीं और जिसके कारण यह आन्तरिक उपनिवेशवाद पैदा हुआ है। लोकतन्त्र में बडी ताकत है।
‘कोई तुम्‍हारी सुनेगा भी। यह तो रस्म अदायगी हुई। भाषण अच्छा ही दिया तुमने।”
”मैंने इसे यथार्थ में बदलने की अपनी छोटी सी कोशिश में पचास हजार की वह रकम यह कह कर समिति को सौंप दी कि इसे तमिल सीखने वाले या उस पर पकड़ रखने वाले किसी हिन्दी भाषी विद्वान को दें और उन्हों ने इस प्रस्ताव और धनराशि को सहर्ष स्वीकार कर लिया। इससे प्रेरणा तो मिलेगी ही।”
” तुम भावुक मूर्ख हो। इसकी क्या जरूरत थी।”
”भावुक मूर्ख मैं नहीं, महिमा मेहता हैं। यह पुरस्कार नरेश मेहता की स्मृति में उन्होंने आरंभ की जिसे गोविन्द चन्द्र पांडे और यशदेव शल्य जैसे लोग प्राप्त कर चुके हैं। नरेश जी ने बहुत आर्थिक तंगी झेली थी पर जीवन में कभी न माथा कहीं झुका न ठसक कम हुई और पुरस्‍कारों से मिली जो धनराशि थी उसे शायद अपने उपयोग तक में नहीं लिया और उससे यह निधि बनी है। इतनी पवित्र उपलब्धि का उपयोग उसी विनम्रता से किसी अन्य योजना के लिए होना जरूरी था। तमिल की शिक्षा का भारत के लिए उतना ही महत्‍व है जितना संस्‍कृत शिक्षा का।

Post – 2016-01-23

अगले दो दिनों के लिए दिल्ली से बाहर रहना है इसलिए अस्पृश्यता पर अगली किश्त लौटने पर। फिलहाल यह लेख जो यथावत में भी पढ़ने को मिल सकता है:

बुद्धिजीवी की सामाजिक भूमिका

बुद्धिजीवी जब राजनीतिक कार्यभार अपना लेता है तो बौद्धिक के रूप में वह खाली कनस्तरों की ढेर में बदल जाता है जो बजते हैं तो भी न विचार पैदा होता है न संगीत और जिस भी मंच का उपयोग करते हैं उसे भी ड्रम में बदल देते हैं। मेरा यह विचार हैदराबाद के साहित्य समारोह की नोकझोक से भी अधिक दृढ़ हुआ।

यद्यपि आज तक कभी किसी विश्व हिन्दी सम्मेलन, विश्व भोजपुरी सम्मेलन या विश्व साहित्यकार समारोह में सम्मिलित होने की लालसा तक नहीं पैदा हुई क्योंकि मैं इसे मजमाबाजी से अधिक महत्व नहीं देता, यह मानता हूं कि ऐसे आयोजन अपने घोषित सरोकार के लिए नहीं होते और प्राय: उसकी क्षति की कीमत पर आयोजित होते हैं, परन्तु इनमें सम्मिलित होने वाले साहित्यकारों की प्रतिभा या समझदारी पर सन्देह नहीं करता। दुर्भाग्य की बात यह है कि समझदार लोग भी हमेशा अपनी समझ से काम नहीं लेते, अक्सर दूसरों के कहने में आ जाते हैं और इस उत्साह से उसमें अपनी भागीदारी निभाते हैं कि लगता है सब कुछ स्वंयं सोच विचार कर कर रहे हैं। अन्त में जब पला चलता है कि वे दूसरों द्वारा इस्ते्माल कर लिए गए तब उन्हें समझ आता है कि इतने साल तक उन्होंने करतब तो दिखाए पर समझ से काम नहीं लिया।

बुद्धिजीवी युगों से अपना काम करते आए हैं और अपनी रचना सुनाने या कला दिखाने के आयोजनों में सम्मिलित भी होते रहे हैं, परन्तु आन्दोलन करने के लिए संघबद्ध होने का इतिहास बहुत छोटा है और उसके परिणाम शर्मनाक रहे हैं।

सीआईए ने दुनिया के कितने विख्यात लोगों को कांग्रेस फार कल्चलरल फ्रीडम के जाल में फंसा कर कितने लंबे समय तक इस्तेेमाल किया था, इसे ऐसे अवसरों पर याद करना शिक्षाप्रद होगा। उस पर टिप्पणी करते हुए इतिहासकार सांडर्स ने लिखा था, ‘’उन्हें यह रुचा हो या नहीं, वे इसे जानते रहे हों या इससे अनजान रहे हों, परन्तु युद्धोत्तर यूरोप का शायद ही कोई कवि, कलाकार, इतिहासकार, वैज्ञानिक या आलोचक होगा, जो इस छद्म का शिकार होने से बच गया हो।‘’

अपने देश का भी यही हाल था। इससे लेखकों के बीच पहले जो सौहार्द और पारस्‍परिक सम्‍मान था वह इस सीमा तक नष्‍ट हुअा कि एक धड़े से जुड़े साहित्‍यकार दूसरे खेमे के अपने ही बन्‍धुओं को संसदीय गालियॉ देकर अपना आलोचकीय दायित्‍व पूरा करते रहे।

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तो सोवियत संघ में समाजवाद कायम होने के दिन से ही नहीं थी, लोकतन्त्र’ वह था नहीं। फिर यह विरोध का स्वर पहले क्यों नहीं उठा। 1949 में ऐसी क्या समस्या आ गई कि इसके संगठित विरोध के लिए कांग्रेस फार कल्चरल फ्रीडम का मंच तैयार किया गया और लेखकों, विचारकों, कलाकारों को इससे जोड़ने का प्रयत्न हुआ। किसी ने नहीं पूछा कि यह मंच खड़ा करने वाला कौन है, वे जुड़ते चले गए एक पवित्र भावावेश के शिकार हो कर जब कि इनको जोड़ने वाला अकेला था जो अपने दिमाग से काम ले रहा था। वह सूत्रधार था, ये एक अदृश्य तार से जुड़ी कठपुतलियां।

इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि महत्वाकांक्षी लोग अधिक आसानी से भीड़ की मानसिकता के शिकार हो जाते हैं। किसी पूर्वरचित योजना का हिस्सा बनने के साथ ही वे भूल जाते हैं कि उनके पास दिमाग भी है।

इस त्रासदी पर गौर करें कि ठीक इससे पहले ही एक दूसरा आयोजन स्तालिन की पहल से किया गया था और वह भी इसके समानान्तर चलता रहा। यह था ‘किसी भी कीमत पर शांति’ (पीस ऐट एनी प्राइस) जिसका जवाब देने के लिए या जिससे ध्यान हटाने के लिए कांग्रेस फार कल्चरल फ्रीडम का जन्म हुआ था।

क्या ये सभी लेखक जो इसके मंच पर जुटते गए थे, फासिस्ट थे, या फासीवाद को सह्य मानते थे? नहीं।

क्या इनमें से कोई ऐसा था जिसे शान्ति पसन्द न हो? नहीं।

फिर क्या‍ सोवियत संघ में अभिव्यक्ति पर प्रतिबन्ध इन्हें प्रभावित कर रहा था? नहीं।

फिर इनमें से किसी के मन में यह अन्देशा क्यों न पैदा हुआ कि दाल में कुछ काला है, किसी ने इसके औचित्यि पर प्रश्न क्यों नहीं किया? कैसे कैसे नाम : फ्रांत्स बोर्केनो, कार्ल यैस्पर्स, जॉन डेवी, इग्नाशियो सालोन, जेम्स बरहैम, ह्यू टेर-रोपर, आर्थर श्लेेसिंजर, बर्ट्रेंड रसेल, अर्न्‍स्‍ट राइटर, रेमंड ऐरॉन, एल्फ्रेड आयर, बेनेदित्तो क्रोशे, जैक्सर मैरिटेन, आर्थर कोएस्लसर, जेम्से फैरेल, रिचर्ड मोवेन्थााल, राबर्ट मांटगोमरी, मैलविन ज लास्की, टेनेसी विलियम्स, सिडनी हुक, इर्विन क्रिस्टल …और यह बौद्धिक निष्क्रियता। सोच कर हैरानी होती है।

‘किसी भी कीमत पर शान्ति’ के आयोजन में भी यूरोप और अमेरिका सहित दुनिया के आठ सौ कलाकारों, साहित्यकारों का समागम अमेरिका में ही हुआ था। कारण, पहले परमाणुबम की भयानक परिणति को देखने के बाद नागासाकी पर दूसरा एटम बम गिरा कर अमेरिका ने हिटलर से भी अधिक ऩृशंसता से नरसंहार करके अपनी धौंस जमाने के इरादे जाहिर कर दिए थे अत: कलाकारो, विचारकों, साहित्यकारों का नव फासिस्ट विरोधी शान्ति अभियान में लामबन्द होना स्वााभाविक था। इस शान्ति अभियान के विरुद्ध कांग्रेस फार कल्चारल फ्रीडम की आड़ में इतना बड़ा और सफल अभियान चला कर, पत्रों, पत्रिकाओं के लिए धन का प्रबन्ध करके, सीआइए ने इतने अधिक बुद्धिजीवियों को अपने जाल में फँसा लिया था यह इस बात का प्रमाण है कि बुद्धिजीवियों में तार्किकता की तुलना में भावुकता कुछ अधिक होती है और वे अधिक आसानी से बहकावे में आ सकते हैं और लंबे समय तक, कभी-कभी तो आजीवन उसी भुलावे में रह सकते हैं।

बरसों तक दिमाग सीआईए का काम करता रहा और ये उसके द्वारा प्रायोजित विचारों, सूचनाओं, आवेगों और वर्जनाओं के ड्रापबाक्स बने रहे। कई बहानों और तरीकों से जिनका इनको पता तक नहीं चल पाता था, धन, सुविधाएं और मंच सीआइए दे रहा था और अपने अखबार, पत्रिकाएं, गोष्ठियां, परिसंवाद ये चला रहे थे, और इस भरम में जी रहे थे कि वे सचमुच अपनी अक्ल से काम ले रहे हैं। बाद में असलियत का पता चला तो सिर पीटते रहे कि यह था तो अपने पास ही इससे काम क्यों न लिया। Encounter का संपादक रहते स्टिफेन स्पेंडर को यह पता तक न था कि इसका धन कहां से आ रहा है और जब पता चला तो छोड़ कर अलग हो गए। परन्तु अधिकांश तो एक बार गए तो सदा के लिए चले गए। इतनी दूर निकल जाने के बाद वापसी का रास्ता ही बन्द हो गया।

हमें यह भी याद रखना होगा कि जो बुद्धिजीवी फासिज्म विरोध और शान्ति के नारे से आकर्षित हो कर एकत्र हुए थे, इस्तेमाल उनका भी हुआ था। वे नहीं जानते थे कि सोवियत संघ में ही यातना के कितने तरीके अमल में लाए जा रहे हैं। शान्ति तभी संभव है जब सोवियत संघ के पास भी परमाणु बम हो, इस नेक इरादे से एक अमेरिकी ने ही इसके रहस्य सोवियत संघ को सुलभ कराए थे और इसने कुछ दूर तक सत्ता संतुलन का काम भी किया।

इतिहास से शिक्षा ले कर हम सोचें कि यह असहिष्णुता, लेखकीय स्वतन्त्रता पर संकट का हंगामा कब, किस कारण, किनकी हार के बाद आरंभ हुआ और किस तरह लेखक और विचारक इससे संक्रमित होते चले गए, इनके हित कहां से जुड़े रहे हैं और लेखन, आत्मविज्ञापन और राजनीति के बीच इनका कैसा संतुलन रहा है, तो इसका परिणाम क्या होना था यह भी पता चल जाएगा।

2
लेखक का काम है लिखना। दार्शनिक का काम चिन्तन करना है। यह हथियार उठाने या आन्दोलन करने से अधिक जरूरी काम है और इसका प्रभाव अधिक गहन और स्थायी होता है। आन्दोलनकारी चिन्तक नहीं होता, हो ही नहीं सकता, वह उसकी योजना का हिस्सा होता है जो आन्दोलन खड़ा कर रहा है। साहित्यकार हो या पत्रकार वह समाज की चेतना और सोच को बदलता है और यदि वह स्वीकार करता है कि समाज में असहिष्णुता बढ़ रही है या बढ़ी है तो इसका अर्थ है उसने अपना काम नहीं किया, क्योंकि चेतना और सोच से जुड़ी समस्याएं उसके क्षेत्र से जुड़ी हैं जिनका राजनीतिक उपयोग भी हो सकता है।

बौद्धिक के अधिकार सामान्य जनों के अधिकार से अलग नहीं हो सकते, यद्यपि संगठित हो कर बुद्धिजीवी अपने लिए विशेषाधिकारों की मांग करते है, या कहें, अपने को सामान्य जनों से उूपर, अभिजात हैसियत की आकांक्षा रखते हैं। एक ऐसे समाज में जहां विशिष्ट, अतिविशिष्ट और सर्वोपरि के दरजे बने हों, उसकी ऐसी कामना स्वाभाविक है, परन्तु यह मांग उसे उस व्यक्ति या सत्ता से छोटा बनाती है जो इसे पूरी करता है। उसकी शक्ति उसके विचार या कला से उसी अनुपात में मिलती या बढ़ती है जिस अनुपात में वह अपने समाज में पहुंच बना पाता है। फिर भी एक सुरक्षा उसे चाहिए कि उसके विचार यदि किसी को रास न आते हों तो वे उसे हानि न पहुंचा सकें। अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता यहीं तक सीमित है परन्तु यह सापेक्ष स्वतन्त्रता है। हम कुछ भी कहने या लिखने के लिए स्वतन्त्र नहीं हैं। हम सचेत रूप में उत्तेजना फैलाने वाली बात न कहने को स्वतन्त्र हैं, न लिखने को। इसका एक पुराना आदर्श है, अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रिय हितं च यत्। साहित्य के मामले में कान्तासम्मित उपदेश, अर्थात् अभिव्यक्ति को प्रभावशाली बनाने का तरीका आदेशात्मक नहीं हो, अपितु मन को छू जाय और भीतर से वह परिवर्तन घटित हो जो सत्ता के दूसरे रूप अपने तन्त्र और शक्ति के बल पर करना चाहते हैं और अक्सर कर नहीं पाते।

यदि कथन या लेखन का इच्छित प्रभाव नहीं पड़ता, समझ की जगह विरक्ति या उत्तेजना पैदा होती है, उससे कुछ लोग आहत अनुभव करते हैं तो हमारे लेखन या कथन में कोई चूक हुई है। यदि हम जान बूझ कर किसी को आहत करना चाहते हैं तो उसके परिणामों को भोगने के लिए तैयार रहना चाहिए। इसके बाद भी कुछ विचार ऐसे हो सकते हैं जो कुछ लोगों के हित या सोच के अनुकूल न हों और उनको उजागर करना समाज हित में हो तो ऐसी चुनौतियों को लेखक को स्वीकार करना चाहिए परन्तु, यदि उसे लगे कि स्वयं उससे किसी के प्रति अन्याय हुआ है तो इसके लिए खेद-प्रकाशन या यह स्पष्टीकरण हर हालत में जरूरी है कि ऐसा किसी की भावना को आहत करने के लिए नहीं किया गया है। यह आश्चर्य की बात है कि जिन दिनों कुछ मुखर लेखकों को ऐसा लगने लगा है कि अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता छिन गई है उसी में वे लगातार ऐसी बातें और काम करते रहे हैं जिनसे बचा जाना चाहिए था। मुझे शक है जिन कृत्यों या घटनाओं का बहाना बना कर यह आंदोलन खड़ा किया गया उनमें से किसी के लिए वे जिम्मेदार थे जिनको निशाने पर रखा जाता रहा।

Post – 2016-01-21

अस्पृश्यता – 22

“मैं सोचता हूं —“
“रुको, बैठो पहले! यह बताओ जश्न कहॉं मनाया जाए ?”
“जश्न? किस जश्न की बात कर रहे हो, भाई.”
“यही कि तुम भी सोचते हो, मैं तो समझता था तुम्हारा जत्थेदार सोचता है, और पूरा जत्था उसे ही मान लेता है।“
‘’तुम्‍हारी खुशी के लिए कह देता हूँ वह भी नहीं सोचता। 50 साल से हमने सोचा ही नहीं, सत्ता की जोड़-तोड़ में ही लगे रहे और उससे पहले भी जिसे अपना सोचा हुआ मान लेते थे वह किसी और का सिखाया हुआ था। अब तो तुम्हारी तबीयत हरी हुई।“
“सोचने का खतरा मोल ही ले किया तो बताओ, क्या सोचते हो तुम?”
“मैं सोचता हूं आत्महत्यायें तो होती रहती हैं, इस आत्महत्या का महत्व इसकी पृष्ठभूमि के कारण है, उस पर तो तुमने ध्यांन दिया ही नही।‘’
“तो तुम सोचते हो हमें इस बात पर विचार करना चाहिए कि वह कैसे ओवेसी के चक्कर में आ गया, या ओवेसी का दिमाग इतना बिगडैल क्यों है, या इस पर बात करनी चाहिए कि उसने गोमांस की खुली दावत दे कर इस विषय में संवेदनशील हिन्दु्ओं को सोच समझ कर आहत क्यों करना चाहा था, या इस विषय पर कि वह कैसे इतना हिंदू विरोधी हो गया था कि भगवा रंग से उसे इतनी घृणा हो गई कि वह भगवा रंग की कोई भी चीज देखता, उसे फाड़ देता था, या इस पर बात पर कि उसने हॉस्टल के अपने कमरे में याकूब मेनन की फांसी को शहादत का दर्जा देते हुए, श्रद्धांजलि सभा का आयोजन क्‍यों किया था? इनमे से किसी पर बात करनी है, तो तुम्हें अपने जत्थेदार से बात करनी चाहिए कि इनमें से कौन सा कदम सही था और उस समय हमने उस सही कदम का समर्थन क्यों नहीं किया, यदि सही नहीं था तो हमने उसकी आलोचना या निन्दा क्यों नहीं की, चुप क्यों रहे? ये सवाल तुम्हें स्वयं अपने से करने थे और यह तय तुम्हें करना था कि यदि इनमें से सभी किसी सिरफिरे के काम लगते हैं तो उसके गलत कामों पर चुप और उसके मोहभंग में अपनी मौत का राजनीतीकरण न करने की उसकी चेतावनी के बाद भी उसकी आत्महत्या का अधिकतम लाभ उठाने के लिए व्यग्र राजनेताओं और विचारधाराओं और लेखको को भी सिरफिरा कहना पड़ेगा क्‍या। उनमें ही तो मेरा सारा कुनबा है। तुम हो और मेरे दूसरे मित्र लेखक हैं, पत्रकार, सिद्धान्तकार सभी को सिरफिरा करार दे दूँ तो मेरे होश हवास पर कितनों को विश्वास हो पाएगा? यह बताओ, तुमने उन्माद पढ़ा है?’’
‘’यह तो तुम्हारा ही उपन्यास है । अब अपनी रचनाओं की पब्लिसिटी का यह तरीका निकाला है तुमने। कमाल है। बड़े कल्पनाशील हो यार।‘’
‘’तुम ठीक कहते हो, पर पढ़ा है, या नहीं?’’
‘’पढ़ा तो नहीं, नाम जरूर सुना है, हम लोग प्रतिक्रियावादियों की रचनाऍं नहीं पढ़ते। हम परिष्कृत विचारों को ही पठनीय मानते है।‘’
’’वह तो जानता हूँ, यह भी जानता हूँ कि रिफायंड आयल आदि के जनक भी तुम हो, पर रिफाइन्ड का मतलब क्‍या है जानते हो? इसका मतलब है इतनी चालाकी से मिलावट कि कोई मिलावट सिद्ध भी कर दे तो बताया जा सके कि यह उसे शुद्ध बनाने के लिए जरूरी था, जैसे जैन उद्योगपति द्वारा वनस्पति हाइड्रेटेड तेल को शुद्ध करने के लिए उसमें चर्बी मिलाना जरूरी था। शुद्ध वनस्‍पति की याद है तुम्हें ?”
वह सकपकाया।

‘’एक बार उन्‍माद को पढ़ो तो पता चलेगा तुमको और तुम्हारे जैसे बहुत से लोगों को जो इस गुमान में रहते हैं कि वे कोई असाधारण काम कर रहे हैं, दुनिया को बदलने का काम कर रहे है, एक पवित्र ध्येय से जुड़े हैं, और इनसे भिन्न विचारों, विश्वासों और जीवनशैलियों को इस हद तक नापसन्द करते हैं कि उनसे घृणा करने लगते हैं, उन्हें मनोचिकित्सक भी सही रास्ते पर नहीं ला सकता। ऐसे लोग पूरी दुनिया को एक विशाल पागलखाने में बदल देते हैं और अपनी विक्षिप्तता से बेखबर आत्मतुष्ट रहते हैं, क्योंकि वे उस बहाव में आ जाते है जिनमें वे अपने जैसे बहुत सारे लोगों का साथ है, उसमें आगे और उससे भी आगे, दूसरे सभी से आगे पहुँचने की भूख और उससे जुड़ी प्रशंसा सम्मोहन का काम करती है। इसकी कोई सीमा नहीं है, गिरावट की भी और विचलन की भी। परन्तु किसी मामूली सी घटना या परिघटना के कारण जहॉं वे स्वयं आहत होते हैं, अपनी ऑंखों से देखने और अपने दिमाग से सोचने लगते हैं तो पुराने विचार और व्यवहार से मोहभंग होता है और वे एक दम टूट जाते हैं। जो कुछ करते चले गए उसे नकारने के बाद कुछ नहीं बचता, सब कुछ रीता और व्यर्थ प्रतीत होता है और वे बहुत खतरनाक फैसले कर बैठते हैं। यह किसी की हत्या भी हो सकती है, जिस पर कल तक जान देते थे उसको बर्वाद कर देने का इरादा और कारनामा भी हो सकता है, और कुछ न कर पाने की स्थिति में आत्महत्‍या में भी परिणत हो सकता है। दुनिया के सबसे भोले, प्यारे और पवित्र लोग भी इन जज्बाती लोगों में ही पाए जाते हैं और सबसे गर्हित, कमीने लोग भी इनके बीच ही पाए जाते है। परन्तु दोनों के द्वारा किए गए अनर्थ और विनाश के कारण इतिहास युगों पीछे चला जाता है।

’’काश वे अपने इन निर्णय के क्षणों में कोई अतिवादी कदम न उठा कर अपने को संयत करते तो वे ही उन दोषों और विकृतियों को भी सुधार सकते थे जो उनसे और उन जैसे दूसरों से हुई और हो रही है। मुझे इस बात पर कोई आक्रोश नहीं कि उसने तब तक क्या-क्या किया था, क्योंकि मैं जानता हूँ प्रशंसा की भूख और इस भूख को तुष्ट करने वालों के बहकावे में आने पर मैं भी वही कर सकता था। वह काम तो तुम सभी कर रहे हो। मुझे इस बात का दुख है कि जब उसका मोहभंग हुआ तो उसने वह कदम उस मुकाम पर उठा लिया जहां वह हमारे लिए सबसे उपयोगी हो सकता था।
देखो, इतिहास किसी के चाहने से नहीं बदलता। हम चाह कर भी अपने को नहीं बदल पाते। यदि यह संभव होता तो हम अपनी अप्रिय स्मृतियों से तो मुक्ति पा ही लेते जिसके दंश से बचना चाहते हैं। वह स्वयं उन स्मृतियों से तो बाहर आ जाता जिनसे वह मुक्त नहीं हो सका था और अपनी समस्त पीड़ा को घृणा में बदल कर आत्मदंश का शिकार हो रहा था और इतना बदहवास हो चुका था कि उसका और उसकी मेधा का उपयोग कोई उसे भुलावे में रख कर कर ले जाये तो उसकी उसे फिक्र तक नहीं थी। मैं आत्मविज्ञापन के लिए अपनी कृति का नाम नहीं ले रहा था, बल्कि यह समझाने के लिए कि ये मेरे अवसरवादी विचार नहीं अपितु दृढ़ विचार हैं और आज जो प्रतिक्रियाएं दे रहा हूँ वे एक दार्शनिक निष्पंत्ति हैं। आज की विडंबनओं का कुछ पूर्वाभास या बोध, जिसे आज कुछ कहूं जो तुमको लगेगा मौके के अनुसार बात बना रहा हूं, इसलिए मुझे अपने उस पूर्वानुमान की याद आई थी। चलो मैं तुमको उसकी कुछ पंक्तियां पढ़कर सुनाता हूं तब तुम्हें लगेगा यह मेरा अस्थाई और सुचिंतित विचार है न कि अवसर देखकर बदला हुआ पैंतरा:

ऐसा नहीं है कि समाज में मानसिक रोगियों की संख्या इतनी कम है कि इनके लिए आपको गली-गली मारे मारे फिरना पड़े। हमने समाज को जैसा बनाया है उसमें एक सामान्य आदमी के पीछे चार मनोरुग्ण मिल जाएंगे। जो सामान्य मिलेगा वह सामान्यता के बोध और बोझ को झेलते-झेलते ही अकड़ जाएगा। ’’आप गौर करें तो महिलाओं में तो 100 में दस कामचलाऊ रूप में सामान्य , तीस सह्य रूप में सामान्य, 23 झक्‍की, 25 सनकी और दो तिहाई विक्षिप्त होती हैं। अंतिम श्रेणी मे आने वाली म‍हिलाएं पुरुष होतीं, और इनके साथ इज्जत का सवाल न खड़ा होता तो इन्हें पागलखाने भेज दिया जाता। इसके बाद जो 10 बचती हैं वह इनकी देखभाल में लगी रहती हैं, इसलिए उनको सामान्य कहना सामान्यता के साथ कुछ रियायत लेने जैसा है।…. पागलपन की हालत तो उससे भी बुरी है।… जो सचमुच पागल होते हैं वे मानने को तैयार ही नहीं होते कि वे पागल हैं। वे अपने को पागल समझने वालों की नीयत पर शक करने लगते हैं । यह दूसरी बात है कि पागलखाने इतने छोटे हैं और पागलों की संख्या इतनी अधिक कि यदि पागल खाने को चंगे लोगों के रहने के लिए और उससे बाहर की दुनिया को पागलों के लिए रखा जाए तो व्यवस्था अचूक होगी।

मैं कल तुम को बताना चाहूँगा कि हम केवल जाति और धर्म की सीमाओं में ही जकड़े नहीं हैं। कितनी अनन्त विवशताओं के बीच जो करना चाहते हैं उसके लिए प्रयत्न करते हैं फिर भी कर नहीं पाते।

Post – 2016-01-20

अस्पृश्यता – 21

यह बताओ रोहित वेमुला के बारे में तुम क्या सोचते हो

उस पर मैं कुछ नहीं सोचता। केवल वह वेदना अनुभव करता हूं जो तुम्हें न कभी हुई होगी, न होगी। तुम राजनीतिज्ञ हो, तुम पक चुके हो। तुम किसी की वेदना नहीं समझ सकते, पर उसका कारोबार कर सकते हो। और यदि महत्वाकांक्षी हो तो अपने देश और समाज का भी सौदा कर सकते हो।‘’

वह तिलमिलाया और कुछ कहने को हुआ, मैंने उसे बोलने का मौका ही न दिया, ‘’देखो, जो वेदना अनुभव करता है वह नगाड़े बजा कर दुख प्रकट नहीं करता। इतनी जल्द एक्शन में नहीं आ जाता। उसे कुछ समय तो उस सदमे को बरदाश्त करने में और फिर समझने में लगता है और फिर जब समझ जाता है तो भी उस वेदना को व्‍यक्‍त करने के लिए भाषा व्यर्थ लगती है। देखो, कुछ विषय और समस्याएं ऐसी होती हैं जो तुम्हें मूक और बधिर कर देती हैं, दृष्टिहीन भी। तुम जो अनुभव करते हो उसे किसी से साझा तक करना उस पीड़ा का अपमान लगता है, जिसे तुम अकेले भोगना चाहते हो, या जिसे उसी वेदना से गुजरने वाले अकेले सहना चाहते हैं। जबान से शब्द नहीं निकलते और शिष्टाचारवश निकलते भी है तो वे आह की वाचिक अभिव्यक्ति होते हैं जिसमें शब्दों का कोई अर्थ नहीं रह जाता। आवाजें कानों में पड़ती हैं, पर सुनाई नहीं देतीं, नगाड़े की चोट की तरह कान के पर्दे पर पड़तीं है पर सार्थक नहीं लगतीं। आँखों के सामने के लोग आखों के पर्दे पर बिंबित होते हुए भी दिखाई नहीं देते। यदि तुम मानव वेदना और संवेदना की भाषा समझ सको तो पहला काम तुम यह करोगे कि राजनीति छोड़ दोगे। उससे तुम्हेंं घृणा हो जाएगी, क्योंकि वह नैतिक पतन की वह पराकाष्ठा है जिसमें कुछ भी गँवा कर व्यक्ति जो कुछ पाना चाहता है उसे ले कर ही रहता है। इन्सानियत गँवा कर भी, हैवानियत अपना कर भी। कमीनेपन की सभी परिभाषाऍं राजनीतिक व्‍यवहार के सामने तुच्छ, पड़ जाती हैं। परन्तु त्रासदी यह कि संवेदनाओं और मानवीय वेदनाओं के संवाहक होने का दावा करने वाले स्वयं अपने क्षेत्र की पवित्रता और स्वायत्‍तता का सौदा करते हुए साहित्य और कला की राजनीति करने लगते हैं। इन्हें मैं मजमेबाज कलाकार मानता हूँ जिनकी साख मजमों, उत्सवों, समारोहो और आयोजनों के बिना बनी रह ही नहीं सकती। इसलिए मैं इस संवेदनशील मसले पर कुछ नहीं कहना चाहता। तुम्हें पता है कलबुर्गी की हत्या पर बात करने को मैंने इसलिए टाल दिया था कि उसकी विवेचना में जाना कलबुर्गी की दुबारा हत्या‍ करने जैसा होता या उनके हत्यारों का साथ देने जैसा होता, इसलिए मैंने कहा था, इसके संगत पहलुओं से गुजरे बिना उस पर बात नहीं की जा सकती। अभी तक उसका साहस नहीं बटोर पाया। मैं उन बहादुर लोगों की हिम्मत की दाद देता हूँ जो तलवार तान कर खड़े किसी शिकार की प्रतीक्षा करते हैं और उस पर प्रहार करते हुए ललकारते हैं, देखो मैंने यह कर दिखाया। यह मुझे दुहरी पीड़ा देता है क्योंकि ऐसा करने वाले जो कुछ करते हैं वह कला और साहित्य या विचार की रक्षा की चिन्ता् से ही करने का दावा करते हैं, परन्तु काम कारोबारियों का करते हैं। इसलिए मैं इस पर अभी कुछ कहना नहीं चाहूंगा।‘

‘’तुम अस्पृश्यता पर लगातार इतनी बकवास करते आए हो, और जब परीक्षा की घड़ी आई तो मौन साधने की बात कर रहे हो। अपना पक्ष तो तुम्हें रखना ही होगा, वर्ना हम कहेंगे, तुम हत्यारों का समर्थन करते हो।‘’

’’तुमने नेहरु की आत्मककथा पढ़ी है या नहीं ।‘’

’’यार इसमें नेहरू को क्यों घसीटते हो? पढी हुई किताबों का क्या सब कुछ याद रहता है? मैं नहीं जानता तुम उसकी बात क्यों कर रहे हो।‘’

’’देखो इसमें दंडी मार्च के विषय में एक बड़ी रोचक बात दर्ज है। लंबे अरसे से, कहो, चौरी चौरा कांड के बाद से कांग्रेस शिथिल पड़ गई थी। कारण, गांधी ने असहयोग आंदोलन वापस ले लिया था। एक दिन विचार हो रहा था कि हम निष्क्रिय पड़े हैं, हमें कुछ करना चाहिए, हरकत में आना चाहिए अन्यथा हम कहीं के न रह जाएँगे। लोग तरह-तरह के सुझाव देते रहे, समझ में नहीं आ रहा था क्या करें। गांधी जी थोड़ी देर के लिए अलग चले गए और फिर लौटे तो हाथ की चुटकी में नमक। उन्होंने कहा समस्या का समाधान मिल गया। लोगों ने पूछा क्या? बापू ने दिखाया नमक । कहा नमक बनाएंगे और यह सुन कर दूसरों को अपनी हंसी रोक पाना मुश्किल था।

किताबों से अपने देश को जानने वाले किताबों के देश को जानते हैं, उसकी मिट्टी को नहीं जानते, उसकी संवेदना को नहीं जानते। गांधीजी ने 1 साल का समय भारत भ्रमण करते हुए भारत को समझने में लगाया था और वह अपनी वेदना और संवेदना के साथ भारतीय समाज से जुड़े थे, भारतीय इतिहास से जुड़े थे और भारत के मंगलमय भविष्य से जुड़े थे। आज का संकट यह है कि हमारे पास किताबों से देश को जानने वालों की संख्या बहुत अधिक है और वे ही हर चीज को नियन्त्रित कर रहे हैं। उस समय की भी दशा आज से बहुत भिन्न न थी। कांग्रेस वकीलों बैरिस्टसरों, और अमीरों की पार्टी थी जिसे गांधी ने जमीन की गंध से परिचित तो कराया था, जोड़ नहीं पाए थे। दंडी मार्च से ऐसा भूकंप आया जिसे सब ने देखा। नेहरू जी ने गांधी की दूरदृष्टि और अपने जैसों की नादानी को रेखांकित करने के लिए इसका हवाला दिया है।

‘’मैं इसके व्यााज से दो बातें कहना चाहूंगा। पहली बात यह है कि जो लोग राजनीति करते हैं उनको देश और समाज से अधिक अपने आंदोलन की चिंता रहती है। मैंने गांधी और नेहरू का प्रसंग इसलिए उठाया कि यह स्पष्ट कर सकूँ कि ऐसा करने वालों के प्रति मैं व्‍यक्ति के रूप में तुच्छता का आरोप नहीं लगा रहा। न मैं यह कहना चाहता हूं उनमें समझ की कमी है। मैं सिर्फ यह ‍दिखाना चाहता हूं कि आन्देांलन करने वाले अपने आंदोलन को जारी रखने के लिए किसी दुर्भाग्य या दुर्घटना का साधन के रुप में इस्तेमाल कर सकते हैं। जरूरी नहीं किसी दुर्घटना के होने पर वे आहत भी हों। वे आहत होने का नाटक करते हुए अपने आंदोलन को आगे बढ़ाना चाहते हैं।

”यह बताओ तुम्हें इस पूरी घटना का सच-झूठ मालूम है या ऐसे ही कूद पड़े? तुम स्वयं क्या मानते हो ?’’

‘’हम लोग तो पहले ही बता चुके हैं कि यह आत्महत्या नहीं हत्या है।‘’

’’तुम लोगअपना शब्दकोश कब निकालोगे? वह कोश जिसमें शब्दों के अर्थ लुप्त’ हो जाऍंगे और आकांक्षाऍं अर्थ का निर्धारण करेंगी। हर शब्द कामधेनु बन जाएगा, जो चाहो फल पाओ। तुमने उसके आत्महत्या से पहले लिखे गए पत्र को पढ़ा है? ध्यान से पढ़ा है या जो पढ़ना चाहते थे उसे उसमें डाल दिया है? क्या सोचा इतना मेधावी, इतना संवेदनशील, दूसरों की भावनाओं का इतना सम्मान करने वाला, असाधारण मेधा का यह युवक अपने आगे पीछे कैसी-कैसी कहानियां छोड़ गया और फिर भी किसी को दुख नहीं देना चाहता। किसी को अपने निर्णय के लिए दोष नहीं देना चाहता।‘’

‘’तुम कहना क्या चाहते हो?’’

‘देखो मैं अकेला ऐसा व्यक्ति हूं जो उसके साथ उसकी भावनाओं के साथ-साथ उन वेदनाओं से गुजरा हूं जिनमें भाषा चुक जाती है। बोलना बर्बरता प्रतीत होती है। मैं उसे केवल उसके पत्र के माध्यम से जानता हूं उस पत्र को पढ़कर मैं रोया हूं एक ऐसी असाधारण प्रतिभा का युवक इतना संवेदनशील व्यक्ति जो मरने के क्षण में भी किसी को दुख देना नहीं चाहता, किसी को अभियुक्त बनाना नहीं चाहता, उसको हमने खोया है। देखो तुम्हारे हाथ उसका पत्र नहीं लगा, सिर्फ उसकी लाश लगी है, जिसका किन किन रुपों में इस्तेमाल किया जा सकता है यह तुम जानते हो। तुमसे अच्छी तरह शवभक्षी पशु-पक्षी जानते होंगे जो राजनीति तो नहीं करते पर एक जरुरी काम अवश्य करते हैं।

‘’ उसके पत्र को फिर से ध्या न से पढ़ो। वह मोहभंग का पत्र है। अपने अब तक के किए के गलत सिद्ध होने का, जो विचार और आवेग भरे गए थे उनकी व्य र्थता के बोध के कारण भीतर से खाली हो जाने और अब जीवन के ही व्यार्थ हो जाने का पत्र है। यह तुम्हा्री कुटिल और देशविमुख, समाज विमुख राजनीति पर आर्तनाद है। उसे पढ़ो, उसे आवेश में ला कर जो कुछ कराया गया उससे आहत होने का दस्तावेज है।‘’

‘’तुम उसके कुछ पहलुओं को समझ ही नहीं पाए।‘’

‘’पहले जो मैंने कहा उस पर विचार करो और फिर किसी दूसरे पहलू पर बात करेंगे।‘’
२०/०१/१६ २३:३४:५१

Post – 2016-01-19

अस्पृश्यता 20

“तुम्हारी बात में कुछ दम तो है, परन्तु मैं इसका रहस्य नहीं समझ पाया।”

” इतिहासकार हमें यह समझाते रहे कि वर्णव्यवस्था से सताए हुए लोगों ने इस्लाम स्वीकार किया, जिसका सार यह कि यदि वर्ण व्यवस्था न होती तो बाहर से मुसलिम जिस भी रूप में आए होते, उनकी संख्या उतनी ही रह जाती, जब कि जिन देशों में वर्ण-व्यवस्‍था नहीं थी उन पर आक्रमण के बाद देश के देश मुसलमान हो गए। तुर्कों और हूणों और शकों से तो आसपास के सभी देश थर्राते थे, परन्तु मुस्लिम सेनाओं के सामने वे टिक न सके ।”

”ठीक कहा तुमने। परन्‍तु क्या तुम यह कहना चाहते हो कि हमे वर्णव्यवस्था ने बचाया?”

देखो, पहली बात तो यह कि तुम यह न मान कर चलो कि मेरे पास सभी प्रश्नों के अन्तिम और सही जवाब हैं। मैं कई विषयों में टॉंग अड़ाता हूँ। जाहिर है मेरा किसी का ज्ञान संतोषजनक नहीं हो सकता और इसलिए मैं तुमसे अधिक गलतियॉं करता हूँ। एक और कारण है तुम्हारे हमेशा सही होने का, कि तुम कुछ कहते नहीं हो, जो सुना और पढ़ा है उसे दुहराते हो, इसलिए गलतियॉं तुमसे हो ही नहीं सकतीं। यदि गलत सिद्ध होगा भी तो वह जिसकी बात तुम दुहराते रहे हो। गलतियॉं करने का और उनसे सचेत करने का काम मेरा ही है।”

वह हँसने लगा पर ऐसी हँसी जिसमें झेंप मिली हो।

”जैसा मैं पहले कह आया हूँ किसी परिघटना के पीछे अनेक कारण होते हैं, जिनमें कुछ दृश्य होते हैं तो धुँधले और इसलिए अनुमेय और कुछ इतने सूक्ष्म और अदृश्य होते हैं जिन्हें प्रयत्न करके भी जाना नहीं जा सकता । यहॉं भी ऐसा ही लगता है। इनमें एक भूमिका वर्ण-व्यवस्था की भी हो सकती है। एक भूमिका अस्पृश्यता की भी हो सकती है और एक भूमिका हमारी मूल्य-व्‍यवस्‍था और बहुलता की भी हो सकती है। ये सभी एक दूसरे से मिल कर एक संकुल बनाते हैं और एक दूसरे को शक्ति देते हैं, जिसे आवयिकता कह सकते हैं।

”तुम एक उलझी हुई समस्या को और उलझा रहे हो ।”

”देखो हमारे इतिहास के धुरन्धंर समझे जाने वालों ने भी कुछ भूलें की हैं, जिनमें से एक रहा है कि यदि समाज वर्ण-विभाजित न होता, लड़ने का काम केवल क्षत्रियों का न होता, तो किसी आक्रमण की स्थिति में पूरा समाज उसका सामना करता और हमें हार का मुँह न देखना पड़ता। परन्तु एक विकसित समाज कबीलाई नियमों से नहीं चल सकता, जिसमें लगभग सभी सभी काम करते हैं, पर काम का दायरा सीमित होता है। कबीलाई समाज के लिए हमारे यहॉं आशुसेन और सर्वसेन का प्रयोग हुआ है, अर्थात् उसके सदस्य आनन फानन में लड़ने को तैयार हो जाते हैं और सभी के सभी लड़ते हैं। गणपति ऐसे ही कबीलाई चरण के देव है । कबीलाई समुदाय जुझारू जितना भी हो, हारता है तो पूरा कबीला। अरब से लेकर मध्येेशिया तक का और यूरोप के भी एक बड़े भाग का समाज कबीलाई रहा है और इसलिए इनके पराजित होने के बाद समूचे कबीले का इस्लाीमीकरण स्वामभाविक था। केवल ईरान की स्थिति भिन्न थी और वहाँ कुछ प्रतिरोध भी हुआ परन्तु अन्त में उसका लगभग समग्र इस्लामीकरण हो गया। भारत में यदि लड़ता क्षत्रिय था तो हारता वह अपना राज्य था, धर्म परिवर्तन की किंचित संभावना बन्दी बनाए गए सैनिकों और सरदारों में भी होती थी। उनके साथ किसी तरह का सलूक किया जा सकता था । उन्‍हें दास बना कर बेचा जा सकता था । स्त्रियों को रखैल बनाया, बेचा जा सकता था। विरोध न करने की स्थिति में भी बचाव न था। इस अपमान से बचने के लिए ही राजपूत केसरिया बाने में मरने के लिए तैयार हो कर निकलते थे स्त्रियॉं जौहर का वरण करती थी। परन्तु शेष समाज अपनी गति से एक शासक की जगह दूसरे के अधीन चलता रहता था।”

”परन्तु यह पर्याप्त कारण नहीं प्रतीत होता।”

परन्तु जो सबसे बड़ा कारण था उसे तुम भारतीय मूल्य-व्यवस्था कह सकते हो। देवों असुरों के समुद्र मंथन से कोई रत्न निकला था या नहीं, क्योंकि जिन रत्नों को गिनाया गया है वे सुदूर व्यापार से जुड़े तत्व हैं, परन्तु देवासुर संघर्ष और मूल्यों के मंथन से वह अमृत अवश्य निकला था जिसे भारतीय मूल्य् कह सकते हो और जिसे फेसबुक के हमारे एक मित्र ने अभी हाल ही में उद्धृत किया था : धृति: क्षमा दमोऽस्तेयं शौचं इन्द्रियनिग्रह: धी: विद्या सत्यं अक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम् ॥ ६. ९२ ॥ परन्तु यह बताने की जरूरत नहीं समझी थी कि वह मनुस्मति नाम के उसी बदनाम ग्रन्थ में दर्ज है जिसे सैनिटरी इंस्पेक्टर की निगाह से पढ़ा जाता रहा है इसलिए जिसकी जटिलता और उज्वल पक्षों को सिरे से गायब कर दिया गया। जो भी हो, धीरज, क्षमा, अस्तेय, अपरिग्रह, शुचिता, इन्द्रियनिग्रह, चिन्तन, ज्ञानार्जन, सत्य और क्रोध से बचना ये ही धर्म है, इन्हीं का पालन करने से मानवता की रक्षा और विकास हो सकता है, और यदि सनातन धर्म जिसके लिए ऐतिहासिक कारणों से हिन्दूं धर्म का प्रयोग होने लगा, यही है और वे जीवनादर्श, जिनके निर्वाह के बिना मानवता का वर्तमान सुखी और भविष्य सुरक्षित नहीं रह सकता वे क्‍या इसके अनुरूप नहीं हैं।”

वह हँसने लगा, ‘’तुम भी किताबी बातों को सचाई मान लेते हो। इनका निर्वाह कभी हुआ, कभी भी हुआ हो तो मुझे बताओ।‘’

’’देखो विषयान्तर हो जाएगा और फिर लौटना भी चाहें तो पुरानी जमीन न मिलेगी। पर इतना समझ लो कि आदर्श दर्शन के लिए होते हैं, वे आचरित नहीं होते, परन्तु आचरणीय होते हैं, वे हमारे आचरण को नियन्त्रित करते है और अपनी ओर बढ़ने की चुनौती पेश करते हैं। ये चुनौतियॉं ही हमें, हम जो कुछ थे, उससे अलग और ऊपर ले आई हैं। क्रूरता उन समाजों में भी होती है जो अहिंसा और दया का पाठ पढ़ाते हैं, और दया और प्रेम उन समाजों में भी होता है जिन्हें हम क्रूर समझते हैं, यहॉं तक कि हिंस्र पशुओं में भी, अन्यथा हिंस्र पशु अपने बच्चोंै से प्यार न करते, उनकी इतनी चिन्ता न करते और किन्हीं विशेष परिस्थितियों में जिसे भक्ष्य मान कर उठा ले गए थे उससे किसी कारण इतना प्रेम न उमड़ पड़ता कि उसे अपने बच्चे जैसा पालते और अपनी जमात में शामिल कर लेते। तुमने रामू भेडिये की कहानी सुनी है न? बस अब आगे मत बोलना। ठीक है।‘’

‘’चलो, ठीक।‘’

’’एक बार मैं पहले भी कह आया हूँ, ये आदिम अवस्था से आए मूल्य हैं और इनको जिसे तुम वर्णवाद या ब्राह्मणवाद कहते हो, उसने भी अपनाया परन्तु, इन्हें पूरी तरह निभा न सका। ये मूल्य उसके नहीं आदिम समाज के थे। मेरी बात पर तुम्हें भरोसा न हो विल ड्यूरॉं का ‘अवर ओरिएंटल हेरिटेज पढ़ लेना, तब शायद यह तुम्हें ठीक भी लगे।

”सच कहो तो आदिम समाज के इन आदर्शों की कसौटी पर हमारा वर्णसमाज स्वयं अंशत: उन मूल्योंं से जुड़ा हुआ था जिन्हें वह राक्षसी कहने लगा। यह एक तरह का आत्म-प्रक्षेपण था। परन्तु उसने इसके सामने सिर झुकाए, इन्हेंं सर्वोपरि माना, यज्ञ और रीति‍विधान आदि से भी ऊपर, और इनसे पैदा हुई एक सार्वदेशिक मूल्य-प्रणाली जिसे आटविक समाज से ले कर अपने को सभ्य मानने वाले समाज तक सभी मानते थे और इससे विपरीत आचरण के प्रति इतनी गहरी घृणा थी कि वे प्राण दे सकते थे परन्तु उन मूल्यों को नही अपना सकते थे। और उन मूल्यों पर गर्व करने वालों से अपनत्व‍ नहीं रख सकते थे। उन्होंने अकह यातनायें सहीं, मृत्यु का वरण किया, परन्तु ऐसा धर्म या विश्वास स्वीकार न किया जिसकी मूल्य-व्यवस्था इससे उलट थी। इसी के साथ जुड़ा था वर्जना या टैबू का निषेध भाव। इन अपेक्षाओं पर खरा न उतरने वालों से परहेज या अस्पृश्यता का भाव। इस बात को दुहराने की जरूरत नहीं है कि यह अस्पृश्यता आदिम समाज से ले कर ब्राह़मणों तक एक समान व्याप्त थी ।

”क्या इसमें पुनर्जन्म‍ की भी कोई भूमिका थी।”

”कमाल है, इस ओर तो मेरा ध्यान ही नहीं गया था, परन्तु उसका हाथ होना चाहिए। जो अनुचित और वर्जित हैं उसके अनुसार बन कर तो हम इस जन्म में ही राक्षस हो जाऍंगे। मरना कबूल है, यातना सह्य है, पर जन्म बिगाड़ना सह्य नहीं। इसके बिना संभवत: नैतिक प्रतिरोध दुर्बल हो जाता।

”परन्तु इस बात पर भी गौर करो कि पश्चिमी लेखकों ने दरिंदगी के अपने मूल्यों के अनुसार बार बार यह दुहराया है कि हिन्दू भीरु थे, कायर थे इसलिए हारते रहे, यह शौर्य और कायरता की परिभाषा को बदलने का दुस्साहस है जिसे उन्हें स्वयं नकारना होगा अन्यथा सभ्य नहीं कहे जा सकते। मौत के सम्मुख निडरता, नैतिक विवेक को डिगाने वाली यातना के सम्मुख निर्वेदता के असंख्य उदाहरण तुम्हें भारतीय इतिहास में मिलेंगे जिनकी तुलना ईसा के शूली पर चढ़ने की कल्पना या सचाई से ही की जा सकती है। निहत्‍थों, बच्चों , स्त्रियों, बूढ़ों, मत्त अथवा मन्दमति और विक्षिप्तों के अपकारों को क्षमा करते हुए उन पर आघात न करने वाले और कठिन परिस्थितियों में मौत और यातना से विचलित न होने वालों को तुम कायर नहीं कह सकते। कायर कहना ही हो तो उन्हें कहना होगा, जो सर्वथा सुरक्षित रह कर विजित और विवश और अरक्षणीय जनों पर अत्याचार करते थे। ऐसे लोगों को शूर कहना हो तो जल्ला‍द और कसाई के शौर्य के कसीदे पढ़ने होंगे। आज जब मानवमूल्यों में स्खलन के कारण ही यह स्थिति आ गई है कि हम मानवरचित प्रलय के निकट बढ़ते जा रहे हैं, हमें यह तय करना होगा कि दुनिया को जो मूल्य आज भी बचा सकते हैं उन्हें क्या नाम दें। हिन्दू नाम देना तो ठीक न रहेगा, परन्तु हिन्दू मूल्यों के लिए ही कोई दूसरा पर्याय तलाशना होगा।

Post – 2016-01-17

अस्पृश्य ता – 19

तुम कोसते रहे, मैं सुनता रहा। बुरा नहीं लगा। लगा तुम पूरी तरह बदहवास नहीं हो। मैं तुम्हें सही मान भी लूँ तो तुम्हारे बीच ही ऐसे लोग मिल जाऍंगे जो तुम्हें शूली पर चढ़ा देंगे। वे मुसलमानों से उससे भी अधिक नफरत करते हैं जितना तुम ईसाइयों से करते हो और इसलिए यदि उन्हें चुनना ही हो तो वे पहले ईसाई बनना पसन्द करेंगे, मुसलमान बनना नहीं।

पहली बात तो यह कि जो अपने विचारों के साथ होता है, वह ईश्वर तक के साथ नहीं होता। उसके साथ उसके विचार के कवच को छोड़ कर कुछ नहीं होता इसलिए वह आत्मिक रूप में जिनता दृढ़ और अच्छेद्य और अभेद्य होता है, भौतिक रूप में वह उतना ही असुरक्षित होता है। तुम ठीक कहते हो ऐसे व्यक्ति को शूली पर चढ़ाया जा सकता है और चढ़ाया उन्हीं लोगों द्वारा जा सकता है जिनके साथ वह खड़ा है और जिनको आगे ले जाना चाहता है। परन्तु ऐसी मृत्युे का सुख कई कई जिन्‍दगियों के सुख से अधिक होता है।

तुमने वह मुहावरा सुना है कि केंकड़े के अंडे अपनी मॉं को ही खाकर जीवन प्राप्त करते हैं।

सुना है।

परन्तु उस आनन्द की पराकाष्ठा की कभी कल्पना न की होगी जिसे भोगते हुए वह चुप चाप पड़ी रहती है और अपनी भावी पीढि़यों के लिए खाद बन जाती है। इससे बड़ा गौरव कोई हो नहीं सकता। परन्तु जिनके विरोध को शूली की हद तक ले गए, वे अर्धचेत हो सकते हैं और स्वयं को सचेत मान कर मुझे अर्धचेत मान सकते हैं, परन्तु जिस परंपरा में पले हैं और जिसको बचाने की चिन्ता में वे ऐसी बातें करते हैं, वे मुझे शूली पर चढ़ाने की जगह मेरा नाम ले कर रोना शुरू कर सकते हैं। मौत यह भी होगी, पर दर्द अनुभव करते हुए। वे मुझे शूली पर नहीं चढ़ा सकते, वे मुझे गोली मारेंगे और मारने की पीड़ा अनुभव करते हुए। मुझे नमन करते हुए। गोडसे की तरह, यद्यपि मैं गांधी होने का सपना तक नहीं देख सकता।

तुम गलतफहमी में हो। तुमको पता नहीं वे क्या कर सकते हैं।

अपनी नादानी पर मुझे इतना अखंड विश्वास है कि एक गधा भी कहे कि तुम गलत हो तो, उसे विचारणीय मान सकता हूँ, पर सच नहीं मान सकता। उसकी खोज करनी होगी। तुम्हारी याददाश्त में कोई कमी है। मैं कह चुका हूँ, जो घृणा कर सकता है वह समझ नहीं सकता। जो समझ नहीं सकता उसकी समझ पर और उसके सुझावों पर चला नहीं जा सकता। यदि ऐसा किया गया तो उसके परिणाम भयावह होंगे। परन्तु मैंने आधा सच कहा था, कहना चाहिए था कि किसी भी भावावेग के प्रबल होने पर हम जानवरों में बदल जाते हैं और आदमी वह हो नहीं सकता जो जानवरों से नसीहत ले।

तुमने कहा, मैं ईसाइयत से घृणा करता हूँ । मैं तो तुमसे भी घृणा नहीं कर सकता जो हर समस्या को दुम के सिरे से हल करना चाहते हो और जबड़े के शिकार हो जाते हो, क्योंकि मैं जानता हूँ तुम अपनी समझ से देश और समाज हित में काम कर रहे हो। तुम्हारे रास्ते पर चलने के खतरे उससे अधिक हैं जितने उसके, जिससे तुम मुझे डरा रहे हो। वह तो स्वयं डरा हुआ आदमी है और मैं पहले कह चुका हूँ वह तब तक अधिक खतरनाक भी है जब तक उसका डर दूर नहीं हो जाता। डर दूर करने का एक ही तरीका है कि हम उसे समझा सकें कि डरने वाला मारने में पहल तो करता है परन्तु मरने वालों से पहले मारा जाता है। उसका सर्वस्व छिन जाता है।

हम अपने को नहीं जानते अपनों को नहीं जानते, परंतु हम अपने उस कोने को बहुत अच्छी तरह जानते हैं जहां शताब्दिओं का जहर भरा हुआ है। हमें एक समाज के रूप में अपनी शक्ति को पहचानना होगा, कि जिन मध्‍येशियाई कबीलों का आतंक यूरोप तक छाया हुआ था उन तक एक बार इस्लाम की तलवार पहुँची तो सभी आनन फानन में झुक कर इस धर्म को मान बैठे, अपवाद तक नहीं रह गया, परन्तु भारत में सात सौ साल के शासन, दमन और उत्पीड़न के बाद भी उनकी संख्या 10 पन्द्रह प्रतिशत से आगे क्यों न बढ़ सकी। वह शक्ति हिंसा और घ़णा की नहीं थी। हम तो लाचार थे। हारे हुए। पता लगाओ वह कौन सी ताकत थी जो तलवारों और उत्पीड़नों पर भारी पड़ी। तब तक के लिए तुम्हें मगजमारी के लिए छुट्टी।