यह बताओ तुमने शिगूफा छोड़ने के लिए ऐसा कह दिया कि हिन्दीेभाषियों के लिए तमिल का अध्ययन उतना ही महत्वपूर्ण है जितना संस्कृत का, या सचमुच ऐसा ही मानते हो?’’
’’तुम्हें क्या लगता है ? तुम जानते हो, मैं विनोद में भी झूठ नहीं बोलता। यथार्थ में ही इतना विद्रूप भरा हुआ है कि विनोद के लिए वही काफी है। उसे देखने की नजर और बयान करने की भाषा भर चाहिए। मेरे फेसबुक के एक मित्र ने लिखा कि आपने तो उत्तर दक्षिण को जोड़ दिया । मैं आधुनिक भगीरथ होने का सपना तक नहीं देखता। मैं क्या जोड़ूगा उत्तर को दक्खिन से, इतनी सामर्थ्य नहीं। मैंने एक बार कहा था, मैं द्रष्टा हूँ, ज्ञाता नहीं। इसके साथ यह भी जोड़ लो कि आविष्कर्ता तक नहीं। मौलिक होने से घबराता हूँ। प्रामाणिक होने का प्रयत्ऩ करता हूँ। जो देखता हूँ उसे यदि लोकविश्वास से भिन्न पाता हूँ तो बताता हूँ, तुम जो मानते हो वह सही नहीं है। देखो, यह तो ऐसा है, यह है, और इस कारण तुमको ऐसा दीख रहा है। दुर्भाग्य से मैं एक ऐसे समाज में अपनी बात रखने का प्रयत्न करता रहा हूँ जिसमें लंबी दासता के कारण आत्मविश्वास और आत्मसम्मान दोनों का अभाव है। वह इन शब्दों का अर्थ तक भूल गया है। वह दुराग्रह या हठ को आत्मविश्वा स और अहंकार को आत्मसम्मान समझता है और इसमें सर्वाधिक शक्ति और अवसर उस व्यक्ति के पास होता है जो दासता के मूल्यों में दूसरों से आगे होता है। वह स्वतन्त्र्ता का सम्मान करता है, पर यह नहीं जानता कि स्व तन्त्रता होती क्या है, जैसे वह आत्मविश्वास और आत्मसम्मा्न पाना चाहता है पर यह नहीं जानता कि आत्मविश्वास और आत्मसम्मान होता क्या है। जानते हो मैंने यह देखा कि जो इतिहास हमें पढ़ाया जाता है, जो भाषाविज्ञान हमें पढाया जाता है वह गलत है तो मैंने एक व्रत लिया था कि इसे मैं सुधारूँगा और इसे अपनी एक कविता में व्यतक्त किया था जो मेरे एकमात्र काव्यसंग्रह अपने समानान्तर की पहली कविता है। इसे मेरे मित्र नवल ने अपने सहज स्नेह से आग्रहपूर्वक प्रकाशित किया था, जिसमें मेरी संक्षिप्त टिप्पणी 6 दिसम्बकर 1971 की है जिसमें लिखा है ’अपने समानान्तार’ में मेरी 1968-69 में लिखी गयी कविताएं संकलित हैं। सो यह प्रतिज्ञा भी इसी बीच ली गई होगी। इस कविता में की गई प्रतिज्ञा ने ही मुझे, मैं जो कुछ हूँ, बनाया है, इसलिए इसे देखो। कवियों को यह पसन्द न आएगी क्योंकि यह नारे जैसी कविता है जिसमें संकल्प होता है, कवित्व की नाजुकी नहीं होती, पर नारे लिखने वाले कवि भी समाज में होने चाहिए। कविता को सुन सको तो सुनो:
मैं फिर तोड़ता हूं इस तिलिस्म को
जिसमें मैं कैद था
और गढ़ता हूँ एक नया तिलिस्म
अपने नाखून की मैल से ।
मैं बनाने जा रहा हूं एक सुरंग
जो तुम्हारे दिल और संसद भवन में एक साथ खुलेगी ।
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लो मैंने बंद कर दिया कोढि़यों की तरह शब्द थूकते रहना
सावधान।
मैं कुछ खतरनाक शब्दों की जंजीरें खोलने जा रहा हूं
ये तुम्हें काटेंगे और जिंदा छोड़ देंगे ताउम्र भोंकने के लिए।
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अब कोई आईना
मेरे लिए परछाइयों का कब्रिस्तान नहीं है
अब मैं परछाइयों को आकृतियों में
और आकृतियों को परछाइयों में बदल सकता हूं ।
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‘लैजरस उठो।‘ मैं नहीं कहूंगा
मैं नहीं करूँगा जीवितों का अपमान
मैं कहूंगा ‘लैजरस आंखें खोलो’
मैं अब बारुद की गंध को ऑक्सीजन में बदल सकता हूं ।
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मुझे याद है
मैं कई बार भाग खड़ा हुआ था कई मोर्चों से
पर आज खड़ा होता हूँ
अपने विरुद्ध एक नए समर में।
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मैं तोड़ूँगा कुछ भी नहीं
सिर्फ परिभाषाएं सुधार दूंगा
और कुएं के पहाड़ बिखर जाएंगे।
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तुम देखना
बेकार नहीं जाएगी मेरी फुसफुसाहट
नहीं धरती धँसेगी नहीं
नहीं झुकेगा आसमान
पर इसके स्पर्श से
गर्व में तने कँगूरे हवा मुर्ग में बदल जाएंगे।
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लो मैं तुम्हें सौंपता हूं अपनी कविता
तुम इससे कोई भी काम ले सकते हो
नाबदान साफ करने से लेकर
धमनभटि्ठयॉं चलाने तक
पर तुम इसे बिछाकर सो नहीं सकते ।
बेशक, उस राजकुमारी को मुक्त करा सकते हो
जो तहखाने में बंद है
जिस पर विषधर नाग पहर दे रहे हैं।
‘’तुम्हारी कविता तो सुन ली। कवियों की दुर्बलता है, वे निज कबित्त केहि लाग न नीका, सरस होय अथवा अति फीका वाले नियम से बँधे होते हैं। पर तुम तो अब कवि भी नहीं रह गए, बात तमिल की चल रही थी और इस बीच तुम कविया उठे। दोस्ती का लिहाज कर के चुपचाप सुन भी लिया, पर इसकी यहॉं कोई जरूरत थी।”
”मैं यह बताना चाहता था हमारे बौद्धिक वर्ग का बौद्धिक स्तर और सरोकार कैसे ललित साहित्य और अखबारी सूचनाओं तक सीमित रह गया है उसमें न साहित्य की समझ है न समाज की समस्याओं की, न अपने देश की, न अपने भविष्य की, और न ही अपनी सीमा की पहचान। इसलिए आगे बढ़ने के रास्ते वही बंद करता है। एक प्रबुद्ध आलोचक, विजयमोहन सिंह ने इस संग्रह की आलोचना की थी और उन्होंने उसको समझने में कुछ गलतियॉं की थीं।इसका प्रभाव यह पड़ा कि उसके बाद मैंने कविता से मुँह फेर लिया परन्तु कविता ने मुझसे मुँह नहीं फेरा इसलिए चोरी चोरी जो रुक न सका उसे दर्ज कर लेता हॅू। मैं कवि होने का दावा नहीं करता परन्तु क्या वे जो कविता, कहानी, और उन्हीं की आलोचना तक सीमित हैं, वे अपने सीमित दायरे में भी चीजों को समझते हैं। क्या मेरे आलोचक को पता था उन प्रयोगों का अर्थ
तिलिस्म – एक मायावी यथार्थ,जो है नहीं, पर जिसे सही बना दिया और मान लिया गया है, अर्थात् आधारहीन स्थापनाऍं ।
नाखून की भैल से – अकेले दम पर, साधन हीनता के बावजूद जो कुछ सुलभ है उसी के माध्यम से सत्य की स्थापना जिसे बहुत से लोग एक नये तरह का भ्रम समझ सकते हैं।
कोढि़यों की तरह शब्दी थूकते रहना – ऐसी अभिव्याक्ति जो निष्प्रभाव है और अपनी व्यर्थता के कारण गर्हित।
लैजरस – लेजी व्यक्ति या समाज जो मरा तो नहीं है परन्तु् किन्हीै मारक प्रभावों में अचेत है।
इस प्रतीकात्मीकता की व्याख्या को बढ़ाया भी जा सकता है।‘’
‘’यार तुम फिर अपना राग अलापने लगे।‘’
’’राग नहीं अलाप रहा था। अपने राष्ट्रीय बौद्धिक गिरावट पर विलाप कर रहा हूँ जिसमें ललित लवंग लता परिशीलन की परिधि में भी समझ गायब है, उसमें वैचारिक स्तर पर किसी नए विचार का स्वागत हो सकता है?
”यह कविता मैंने 1969 से पहले लिखी थी। आर्यद्रविड़ भाषाओं की मूलभूत एकता 1973 में प्रकाशित हुई थी । उसमें इन विचारों का भाष्य तो न हुआ था, पर यह स्थापना केन्द्रीय थी, यह तो पुस्तक के नाम से ही प्रकट है। गो नाम भ्रामक था, इसलिए बदलना पड़ा। उसमें यह भ्रम पैदा हो सकता था कि कोई एक आदि भाषा थी जिससे आर्य और द्रविड़ भाषाओं का जन्म हुआ और आगे का विभाजन हुआ जब कि उसमें एक से बहु नहीं, बहु के बीच एक के नियम से किसी एक भाषा का अपने निकट की भाषाओं में स्वीकार्य हो कर मानक दर मानक बनते चले जाने की प्रक्रिया है। हमारे मनस्वी लोग पुस्तक पढ़े बिना शीर्षक से ही उसकी अन्तर्वस्तु का अनुमान लगा कर उसकी छुट्टी कर देते हैं।’
उस पुस्तक से अधिक महत्व पूर्ण रचना मैंने आज तक नहीं की। जो कुछ आगे लिखा उसी का भाष्य था। भाष्य् को जिन्होंने समझा वे भी मूल को न समझ पाए अन्यथा तुम्हें मेरा कथन शिगूफा नहीं लगता।”
’तुम्हारी भड़ास तो सह ली, पर अब भी समझ में नहीं आया तुम हिन्दीं और तमिल के बीच किस कशीदाकारी की बात कर रहे थे।”
”तुम यह बताओ, तुम ठंढ, तड़ाग, ताड़, ताल का मतलब जानते हो?”
क्या मजाक करते हो। मेरी हिन्दी इतनी कमजोर तो नहीं जो इनका अर्थ तक न जानूँ।”
”नहीं जान सकते, तुम मतलब को नहीं, ठप्पे को जानते हो। टैग को जानते हो। मतलब वहॉं छिपा मिलेगा जहॉं तुम समझोगे कि इसे यह नाम क्यों मिला। इस संज्ञा का आधार क्या है। समझे? तुम तो ताल और तालाब के बीच भी फर्क नही कर सकते क्योंकि तुम सत्ता के उपयेाग की भाषा को जननी और सत की भाषा को उससे जनित मानते हो।”’
‘पहेलियॉं मत बुझाया कर यार, कहना क्या् चाहता है?”
” तुम कभी किसी दक्षिण भारतीय ढाबे में गए हो। किसी को पानी के लिए तन्नी का प्रयोग करते सुना है?”
गया हूँ, सुना भी है मतलब भी जानता था। बात बात पर इस तरह की अकड़ क्योंक दिखाते हो।
‘यह बताने के लिए कि तन्नीी का अर्थ है पानी पानी अर्थात् ठंढा पानी। तण् – पानी, नीर – पानी। पानी पानी अर्थात् ठंढा पानी। अर्थात् पानी से ही ठंढ की संकल्प ना भी जुड़ी है। अब उस तण् को संस्क़कत असैा हिन्दी के तड़ाग में देख सकते हो। ताड़ी में देख सकते हो। ठंढ में पहचान सकते हो। तड़ तो तल में बदलते देख सकते हो। अब ताल का अर्थ है जलाशय यह समझ सकते हो। और तालाब को तुम तन्नी् के नियम से पानी पानी कह सकते हो, ताल –पानी, अप्/ आप –पानी, फारसी आब –पानी और तालाब। पर अब उल्टी यात्रा करो। तर- पानी, तरंग – पानी की लहर या उसका अंगभूत, तरणी, तरना आदि पर ध्या न दो। तर तल हो सकता है, र और ल में भेद नहीं है, रलयोरभेद:, ल ळ बन कर ड़ और फिर ण बन सकता है। इस गहन स्तबर पर कौन तय करेगा कि तर तण् बना या इसके विपरीत हुआ, पर जो बात निश्चित है और जिसे समझाना बहुत मुशिकल है वह यह कि ये भाषाऍं उस आदिम स्त,र से ही एक दूसरे से जुड़ी और एक दूसरे को प्रभावित करती रही है कि यह तय कर पाना तक कठिन होता है और इस रहस्या को समझे बिना हम उन श्दोंुशि का भी अर्थ नहीं समझ सकते जिनका नित्यद प्रयोग करते हैं।
सुन लिया, पर यह बताओगे कि तुम हर चीज को बोरडम तक क्यों पहुँचा देते हो। सुनने वाले तुम जैसों के पाले पड़ने पर सोचते हैं, मैं बहरा क्योंय न हुआ। मैं बहरे समाज से ही बात करता रहा हूँ।
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