Post – 2016-06-30

‘लो पचासी का हो गया भगवान ।’

‘फिर तो कुछ अक्‍ल आ गई होगी।’

‘उसके डर से किसी पड़ोसी की
‘खोपड़ी में समा गई होगी ।’

‘यार ऐसा अगर हुआ होगा
‘उसकी तो मौज आ गई होगी।’

‘अपनी नादानी मे दहाई को
‘खुद इकाई बना दई होगी ।’

Post – 2016-06-30

दलितस्तान का सपना

‘’तुम्हारे साथ एक दिक्कत है, तुम जब तारीफ करोगे तो वही आदमी दूध का दुला नजर आएगा और फिर जब कोई कमी दिखाई दी तो वह अगले ही क्षण कीचड़ में सना मिलेगा। दो दिन पहले तुमने अम्बे डकर को इस तरह आंका था कि दूसरे उनके सामने बौने लग रहे थे और कल तुमने उनको ही इस तरह घुटने टेकते हुए दिखाया कि लगा तुम्हारा वर्णवादी पूर्वाग्रह जाग गया है और वही बोल रहा है।‘’

’’दिक्कत मेरे साथ नहीं है, तुम्हारे साथ है। तुम फर्क करना नहीं जानते और कई चीजों का घालमेल कर देते हो। हम पहले उनकी प्रतिभा की बात कर रहे थे। उनके ज्ञान की बात कर रहे थे। उनकी विश्लेषण क्षमता की बात कर रहे थे। इन सभी दृष्टियों से कोई दूसरा उनके समकक्ष नहीं दिखाई देता। पर समकक्ष न होने का अर्थ बौना होना नहीं होता, कुछ झंस होना होता है। इससे अभिभूत हो कर तुमने विश्व की महान विभूतियों से उनकी तुलना का सवाल उठा दिया तो मेरी जानकारी में जो व्यक्ति था सिर्फ उससे मिलान करके देखा और दूरदर्शिता, दृढ़ता, त्याग और परदुखकातरता में वह काफी कम सिद्ध हुए। उनको कीचड़ में सना दिखाने की नीयत का आरोपण तुमने कर लिया।‘’

’’क्या तुमने यह नहीं कहा था कि वह आत्मकेन्द्रित थे, समस्त दलित वर्ग के उद्धार की उन्हें चिन्ता न थी।‘’

’’यदि ऐसा कहा, या जो कुछ कहा उससे ऐसा लगा तो यह अर्धसत्य है। पूरा सच यह है प्रत्येक प्रतिभाशाली व्‍यक्ति अनन्‍य और सर्वोपरि होना चाहता है। इसके लिए प्रयत्न भी करता है। इसकी उसे आदत सी पड़ जाती है और इसलिए वह स्वार्थी भी होता है और हाथ लगने पर दूसरों का अपने लिए इस्‍तेमाल करना चाहता है। इस मानी में नेहरू, जिन्ना, सुभाष, अंबेडकर सबका स्वभाव एक जैसा था।

”यह मत भूलो कि समाज के लिए सबसे उपयोगी दोयम दर्जे के लोग होते है, अव्वल अपने को ही केन्द्र मान कर दूसरी चीजों में हिस्सा लेते है। महान विभूतियां भी दोयम दर्जे की ही होती है । वे अपने श्रम और अध्यवसाय को अन्तर्दृष्टि में बदलते हुए वह क्रा‍न्तदर्शिता अर्जित कर लेते हैं जो प्रखर मेंधा और अचूक स्मृति वाले लोगों के लिए असंभव होती हैं। प्रखर मेधा के लोग त्याग नहीं करते, निवेश करते हैं, इनवेस्‍ट करते हैं अच्छे रिटर्न के लिए ।‘’

उसने कुछ कहना चाहा पर अपने को रोक लिया।

‘’इनमें संवेदना की कमी नहीं होती, यदि पीड़ा या अभाव अपने से जुड़ा हो तो व्याकुलता भी अधिक होती है और समान दुखी जनों के प्रति कातरता भी पर्याप्त होती है, पर उसके निवारण के लिए अपना कुछ खोए बिना कुछ भी करने को तैयार रहते हैं। अस्‍पताल में पड़ा कोई बीमार दूसरों का दुख बांट कर उनको चंगा नहीं देखना चाहता है और सबके भले की कामना करते हुए भी यदि सभव हो तो दूसरों की कीमत पर अपना भला चाहता है। सो त्रासदियों से उत्‍पन्‍न आत्‍मनिष्‍ठा का अपना तर्क होता है। बाबा साहब को तुम इसी स्थिति में रख कर समझ सकते हो। मैंने कहा था, उनका ध्यान दलितों की विपन्नता की ओर नहीं गया क्यों कि विपन्नता का सामना उन्हें नहीं करना पड़ा पर सच तो यह है कि सभी दलितों के हित की उन्हें चिन्ता तक नहीं थी। 1937 में उन्होंंने अपने दल इंडियन लेबर पार्टी की ओर से जिसमें लेबर का मतलब भी केवल दलित था, जो दलित उम्मीदवार खड़े किए थे उनमें महारों को ही उम्मीदवार बनाया गया था। केवल एक मंग था और चमार एक भी नहीं।‘’

’’परन्तु तुम कह रहे थे वह अंग्रेज सरकार के हाथ की कठपुतली थे। मेरा मतलब है तुमने जो कहा उसका यही आशय निकलता है।‘’

’’मैंने कहा, उनका उपयोग कर लिया गया। वह स्वयं ब्रिटिश सरकार का और उससे प्राप्त पदों और अधिकारों का उपयोग दलित हितों के लिए करना चाहते थे। यहां मामला काउंटर स्पाइंग जैसा है जिसमें दो शत्रु देशों के भेदिये कुछ फालतू या सुरक्षित गुप्त सूचनाओं का आदान प्रदान करते हुए यह दिखाते हैं कि वे उनके लिए काम करना चाहते हैं, और इस विश्वा‍स में रख कर दूसरे से गुप्त सूचनाएं हथियाना चाहते हैं। कहो, दोनों एक दूसरे का उपयोग करना चाहते हैं और परिस्थितियां इसका फैसला करती हैं किसने किसका इस्तेमाल कर लिया।

”उनकी सारी मांगे ठीक उसी रास्ते पर थीं जिस पर मुस्लिम लीग चली थी। उन्होंने 1942 में शेड्यूल्ड कास्टक फेडरेशन बनाया जिसमें उनका तर्क था कि अनुसूचित जातियों को उसी तरह का अल्पमत माना जाना चाहिए जैसे मुसलमानों को माना जाता है इसे भी केवल पृथक निर्वाचन मंडल नहीं मिलना चाहिए अपितु अलग राज्य मिलना चाहिए।

”कहते हैं क्रिस्प् कमेटी की रपट पर शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन ने सितंबर 1944 काे लिखा था, “the Scheduled Castes are a distinct and separate element in the national life of India and that they are a religious minority in a sense far more real than the Sikhs and Muslims can be and within the meaning of the Cripps Proposals”

‘’ अंग्रेज अधिक से अधिक समय तक अपना शासन बनाए रखने के लिए उस एकता को तोड़ना चाहते थे जिसे पैदा करने की कोशिश कांग्रेस लगातार करती रही।‘’

’’जब अलगाव पहले से बना हो तो एकता को तोड़ने का सवाल कहां से पैदा हो गया। जिनका छुआ खाना भी न खा सको, जिनके साथ मिल कर उठ बैठ न सको, उनको भाई भाई कहना तो उनकी आंख में धूल झोंकना है। मैं तुमसे परहेज करता रहूं और तुम मेरे साथ बने रहो। हास्यास्पद प्रस्ताव है। इसीलिए तो ढोंग पाखंड का सन्देह होता है।‘’

’’देखो समाज तो बहुत जटिल संरचना है जिसमें एक एक व्य‍क्ति का अपने सगों तक से दबा छिपा भेद बना रहता है, पत्थरों तक मे कई तरह के स्तर होते है, और पर्तो को पहचानने वाले चट्टानों को छेनी और हथौडे़ की चोट से पूरा अलग कर देते हैं। संगमर्मर की सिल्लियों को फटते देखा है कभी। प्राकृत पदार्थों में भी अनेक द्रव्य मिले होते हैं। वे जुड़े हैं तब तक किसी बाहर के लिए अधिक शक्तिशाली हैं, और बाहरी को हटा कर फिर वे अपना सुधार परिष्का्र और नया समायोजन कर सकते थे। किसी अन्य का दबाव रहते नहीं कर सकते। गांधी के नेतृत्व में इस तरह के सम्मानजनक समाधान की संभावना थी। इसे फूट डालने वाली ताकतों ने इसलिए इस्तेमाल कर लिया कि ये अपनी समझ से उसका इस्तेमाल करना चाहते थे, जब कि गांधी के पास किसी का इस्ते माल करने की योजना न थी, सीधी बात थी पर वह लाख कोशिश के बाद भी अपने लिए सत्ता के भूखे लोगों की महत्वाकांक्षा और होड़ के चलते उन्हेंं समझा नहीं सके।

”तुम्हें पता है अम्‍बेडकर भी दलितो का एक अलग राज्य बना कर उसके राजा बनना चाहते थे।‘’

‘’विश्वास नहीं होता।‘’

’’पहले मैं भी नहीं जानता था। तुम जानते हो बहुत सारे मामलों में मुझे आनन फानन में इधर उधर से कुछ जुटाना पड़ता है। इसी तरह सूचना हाथ लग गई। उनका कहना था, प्रत्येक गांव से सटे दलितों की अपनी अलग बस्तियां हैं। यदि इन सबको जोड़ कर, इन्हें वहां से हटा कर एक अलग भूभाग में बसाया जाय तो दलितस्तान बन सकता है और इसका राजा कौन होगा यह बताने की तो अब जरूरत ही नहीं रह जाती।‘’

’’बड़ी हास्यायस्पद बात है यार । उनके जैसे प्रखर दिमाग में ऐसे हवाई खयाल आ ही नहीं सकते थे। तुमने जिस जगह से यह सूचना ली है वह किसी की मनगढ़न्त कहानी होगी।‘’

”1944 में ही बेवरली निकोलस नामक एक अंग्रेज अफसर से उन्होंने कहा था “In every village there is a tiny minority of Untouchables. I want to gather those minorities together and make them into majorities. This means a tremendous work of organisationn – transferring populations, building new villages. But we can do it, if only we are allowed [by the British].

‘’उनके भीतर दलित हित से अधिक उग्र था सत्ता का मोह। यह एक ऐसा पक्ष है जिस पर जानकार लोगों को काम करना चाहिए। समय होता तो मैं स्वेयं करता । यूं तो यह प्रस्ताव ही इतना अव्यावहारिक था कि इसे मूर्खतापूर्ण कहा जा सकता है। विपन्नों के जमघट वाले उस देश का हाल क्या‍ होता यह तो हमारे लिए भी कल्पनातीत है। महत्वाकांक्षा जन्य मूर्खताएं अपनी प्रकृति से ही अविश्वसनीय होती हैं।‘’

Post – 2016-06-29

I will be heard

‘’तुम विश्व की महान विभूतियों से अबेडकर के तुलनात्मक मूल्यांकन की बात करते हो तो मुझे अपनी दीनता का बोध होता है। उन सबका मुझे ज्ञान होता तो ऐसा करके सन्तोष मिलता। मैं जिन दो एक को जानता हूं उनमें से ही एक से तुलना कर सकता हूं। अपनी बेकारी के दिनों में मैं अनुवाद से काम चलाता था। 1964 में एक पुस्तक क्रुसेडर्स फार फ्रीडम का अनुवाद किया था। लेखक थे हेनरी स्टील कोमेगर।

”उसमें विविध प्रकार की स्वतन्त्रताओं के लिए अभियान चलाने वाले महानायकों के जीवन और कार्य का वर्णन था, परन्तु जैसा कि पश्चिमी लेखकों के साथ होता है, यदिहास्ति तदन्‍यत्र यन्‍नेहास्ति न तत् क्‍वचित्। उसमें एशिया या अफ्रीका के किसी आन्दोेलनकारी का नाम न था। एक समय था हम भी भारत को ही पूरा विश्व समझते थे और भारत से बाहर के किसी व्यक्ति को गिनती में न लेते थे। सफलता वर्णान्धता तो पैदा करती ही है।

”उसमें गुलामी से मुक्ति का अभियान चलाने वालों में एक थे हेनरी लायड गैरिसन। वह कैथोलिक पादरी बन कर धर्म प्रचार के लिए अमेरिका गए थे। वहां उन्हें यह देख कर आश्चर्य हुआ कि ईसाई स्वयं ईसाइयत अपना चुके गुलामों के ऊपर इतना अत्याचार कर रहे हैं। यदि वे ईसाई न रहे होते तो उनको गुलामों की मुक्ति का खयाल आया होता या नहीं, हम तय नहीं कर सकते। गुलामी प्रथा की समाप्ति के लिए उन्होंने न्यू इंग्लैंड ऐंटी स्लेैवरी सोसायटी और फिर अमेरिकन ऐंटीस्लेवरी सोसायटी की स्‍थापना की और दूसरी कई सोयायटियों के स्थापकों में रहे। उन्होंने लिबरेटर नाम से एक साप्ताहिक पत्र निकालना आरंभ किया जिसके प्रथम पृष्ट पर यह संकल्प वाक्य होता ‘’आइ विल बी हर्ड’’, या ‘अकारथ न जाएगी मेरी गुहार’। उनकी व्यग्रता कैसी थी यह उनकी भाषा और संकल्प से ही समझा जा सकता है और इसी के कारण उनका पत्र देश देशान्तर में लोकप्रिय हुआ था । इसके पहले अंक में छपे अपने लेख में उन्होंने लिखा था:

”जानता हूं मेरी तल्ख भाषा पर बहुतों को आपत्ति होगी, परन्तु क्या तल्खी बेवजह है ? मैं उतना ही कठोर रहूंगा जितना कठोर सत्य होता है और मैं उसी तरह झुकूंगा नहीं जैसे न्याय झुकता नहीं है। इस विषय पर मैं नरमी से न तो सोचना चाहता हूं, न बोलना और न लिखना। नहीं, कदापि नहीं। उस आदमी से जिसका घर जल रहा हो कहो कि वह नरमी से गुहार लगाए; उस आदमी से जिसकी पत्नी को किसी लफंगे ने दबोच लिया है कहिए कि वह उसे नरमी से छुड़ाए, जिस मां का बच्चा आग में गिर गया है उससे कहिए कि वह उसे आहिस्ता उससे बाहर निकाले. परन्तु इस मामले में मुझसे न कहिए कि मैं नरमी से काम लूं। मैं सच कहता हूं, मैं हिचकूंगा नहीं – मैं बहानेबाजी नहीं करूंगा – मैं एक इंच भी पीछे न हटूंगा – अकारथ न जाएगी मेरी गुहार । लोग इतने उदासीन हैं कि इन मुर्दों को जगाने के लिए प्रतिमाओं को अपने चबूतरे से उछल कर दौड़ पड़ना चाहिए।‘’

”गुलामी के समर्थकों ने उनके प्रेस को तोड़ दिया। उन्होंंने इंग्लैंड के अपने मित्रों की सहायता से नये प्रेस का प्रबन्ध किया जिसे चोरी से रात को उतारा और पहुंचाया गया और एक तहखाने में लगाया गया। वह उसके लेख लिखते, उनको कंपोज करते, छापते और उसकी ओजस्वी भाषा और क्रान्तिकारी विचारों के कारण वह अमेरिका में ही नहीं यूरोप के कई देशों में बड़े सम्मान से पढ़ा जाता। उपद्रवों और विघटनों के बीच वह अडिग बने रहे। विरोध करने वालों में उत्तरी और दक्षिणी दोनो राज्योंं के लोग थे। वे दासता विरोधी सभाओं में उपद्रव मचाते, व्याख्यान देने वालों पर हमला कर देते, उनके दफ्तरों को तोड़ फोड़ डालते। दक्षिण के राज्यों ने गैरिसन को जिन्दा या मुर्दा पेश करने पर भारी इनाम घोषित कर रखा था। उन्होंंने दासता उन्मूलन के लिए महिलाओं का भी एक संगठन तैयार करने में सफलता पाई थी। एक बार उसमें भाषण देने के लिए ब्रिटेन के ओजस्वी वक्ता जार्ज टामसन आने वाले थे, पर वह उपद्रव के डर से नहीं आ सके। उनके स्था्न पर गैरिसन ने भाषण देना आरंभ किया। दासता समर्थकों की हजारों की भीड़ टामसन को तलाशती आई थी, वे न मिले तो गैरिसन हाथ लग गए। उनके यातना वध के लिए उग्र भीड़ दहाड़ने लगी तो वह बाहर आए ललकारा ईश्वर को जो मंजूर होगा वही होगा ‘गाड्स विल बी डन’। भीड़ पीछे हट गई । कुछ देर के बाद वह फिर लौटी इस बार उस भवन की बुर्जी को रस्‍सों से बांध कर नीचे ढहा दिया, गैरिसन के गले में फंदा डाल कर बोस्टन की सड़कों पर कुत्‍ते की तरह घसीटना शुरू किया। उनकी जान बचाने का कोई चारा न देख कर शेरिफ ने उनको गिरफ्तार कर लिया और लेवरेट स्ट्रीट की जेल में डाल दिया।

”उन्होंने केवल यहीं अपना अभियान समाप्त नहीं किया, महिलाओं के समान अधिकार के लिए संगठन से भी जुडे़ और दासता की समाप्ति तक अपने संघर्ष में जुटे रहे। इसके बाद उन्होंने दासता विरोधी सोसायटी से भी मुक्ति ले ली और लिबरेटर का प्रकाशन भी समाप्तं कर दिया कि इसके साथ एक युग का अन्‍त होता है। एक बार एक नीग्रो की हत्‍या के लिए एक दूसरे नीग्रो को प्राणदंड की सजा सुनाई गई तो उन्‍होंने इसके विरुद्ध भी अभियान छेड़ा कि जरूर इसके पीछे किसी दूसरे का हाथ है। हत्‍या के सारे प्राणदंड पाने वाले काले की क्‍यों होते हैं।”

‘’हम अंबेडकर पर बात कर रहे हैं या गैरिसन पर?’’

”तुमने विश्व की महान विभूतियों के बीच अंबेडकर के मूल्यांकन की बात की थी। संयोग वश जिन हस्तियों से मेरा परिचय है उनमें से एक को इसलिए तुलना के लिए चुना कि वह भी अस्पृश्यता जैसी ही एक गर्हित प्रथा के उन्मूलन के लिए कृतसंकल्प थे और उसकी बगल में अंबेडकर को और भारतीय यथार्थ को रख कर समझा जा सकता है कि अंबेडकर का कद क्‍या है। यह ध्यान रहे कि बाबा साहेब ने तो प्रतीकात्मक रूप में मनुस्मृ्ति को जलाया भी था, गांधी गोलमेज कान्‍फ्रेंस से लौटे तो हजारों दलितों की भीड़ ने उन्‍हें घेर भी लिया था, गैरिसन का अभियान पूर्णत: अहिंसक था – विचारों के प्रसार से ही एक ऐसी चेतना फैलाने का अभियान कि जिसने अब्राहम लिंकन को वह कठोर विकल्प भी चुनने को बाध्य कर दिया जिससे कम पर दक्षिण के राज्यों को इसके लिए बाध्य नहीं किया जा सकता था।

”अब यदि अंबेडकर की ओर दृष्टि डालें तो उनकी स्थिति उस बीमार की सी थी या उन बीमारों के प्रतिनिधि जैसी थी जो किसी वेदना से छटपटा रहे हों और तत्काल उससे मुक्ति चाहते हों।

”दलित समाज जिसके लिए तब आप्रेस्डस क्लास का प्रयोग चलता था, की वेदना के दो कारण रहे हैं। एक आर्थिक दुर्गति और दूसरा सामाजिक तिरस्कार । दलित समाज में एक बहुत छोटा सा हिस्सा ऐसा रहा है जो आर्थिक दुर्गति से बचा रहा है या कुछ सुविधाजनक स्थिति में रहा है। अंबेडकर इसी में आते थे इसलिए उन्होंने अपने अभियान में आर्थिक दुर्दशा से मुक्ति को प्रधानता नहीं दी और इसे आधा सामाजिक और आधा आध्यात्मिक बना दिया जिसमें राहत धर्मपरिवर्तन के माध्यम से तलाशा जा रहा था, परन्तु वह एक कर्मकांड से आगे न बढ़ सकता था, न बढ़ पाया। इस आध्‍यात्मिकता ने ही संभवत: उन्‍हें अपनी मुक्ति के लिए कम्‍युनिज्‍म से भी बिदकाया।

”भारतीय समाज में हजारों साल की पुरानी ग्रन्थियां बनी हुई हैं जिनसे मुक्ति के लिए ब्राह्मणों और क्षत्रियों ने भी कभी आन्दोलन किए और कभी आन्दोलन करने वालों का साथ दिया, परन्तु जड़ें इतनी गहरी हैं कि वे सभी प्रयास अपर्याप्त रहे। यहां न यातना का रूप गुलामों जैसा था, न ही मुक्ति का विरोध उस तरह का था। सवर्णों की अधिकांश आपत्तियां मलिनता को लेकर थीं या इसका बहाना बनाया जाता था और मलिनता से मुक्ति के लिए सबसे जरूरी था आर्थिक स्तर में सुधार या उसको प्राथमिकता देना, जिसका अंबेडकर के अभियान में अभाव दीखता है।

”हम देखें तो उनके सारे सरोकार दलित समाज तक केन्द्रित थे जिनमें व्यापक राष्ट्रीय समस्याओं के प्रति उदासीनता का भाव तो था ही, सरोकार दलित समाज के भी उस तबके तक सीमित था जो मध्यवर्गीय सुविधाओं से संपन्न था। यही आज के भीमवादियों की भी स्थिति है। वे अपने लिए सुख सुविधा और छूट चाहते हैं, पूरे दलित तबके के लिए नहीं। इसमें दलित समाज की महिलाओं की मुक्ति या समानता का भी कोई आग्रह न था और महिलाओं के विषय में उनका दृष्टिकोण आज भी पुरुषप्रधान है या कहें वर्णवादी है।

”अंबेडकर का अभियान भी केवल मौखिक था, इसके लिए कभी उन्हों ने दलितों के बीच जा कर स्वयं उनको संगठि‍त करने का काम किया हो इसकी जानकारी हमें नहीं है। उन्हेंं बचपन में जो भी भेदभाव सहने पड़े हों, और इसकी जिन भी रूपों में प्रतीति बाद में भी रही हो, उन्हें अपने अस्पृश्यता निवारण अभियान में किसी तरह की असुविधा का सामना नहीं करना पड़ा।

”अब हम लायड गैरिसन की ओर देखें तो उन्हें सभी सुविधाएं प्राप्त थीं। उनका त्याग करते हुए, परदुखकातरता के चलते उन्होंने अपने लिए संकट मोल लिया, अपमान और विरोध का सामना करते हुए अडिग भाव से विविध स्तरों पर सक्रिय रहते हुए अपना अभियान चलाया। यह परदुखकातरता गांधी के उस प्रार्थनागान में मुखरित है जिसमें पराई पीर को समझने वाले को और उसके निवारण के लिए प्रयत्न करने वाले को ही वैष्णव या ईश्वर का सच्चा भक्त माना गया। उन्‍होंने अहिंसात्‍मक विरोध का वही रास्‍ता अपनाया जिसे लायड गैरिसन ने अपनाया था। अंबेडकर को गांधी पर भरोसा नहीं था, यह गांधी थे जिनकी प्रेरणा से अंबेडकर को भारत का संविधान बनाने का जिम्मा सौंपा गया। मनुस्मृति जलाने की जगह आप नया भारतीय धर्मशास्त्र ही लिखो और पूरा भारतीय समाज उसी के अनुसार चलेगा।

” क्या कानून बना कर लोगों की चेतना को बदला जा सकता है? यदि हां तो आज किसी को अस्पृ्श्यता को ले कर शिकायत करने की न तो जरूरत है, न अधिकार। यदि नहीं, तो समझना चाहिए कि चेतना को बदलने का अभियान जिसे गांधी ने आरंभ किया था, उसमें अंबेडकर बाधक बने । अपनी बौद्धिक प्रखरता के बाद भी वह गांधी की तुलना में कम दूरदर्शी थे और ब्रितानी सत्‍ता द्वारा इस्‍तेमाल होते रहे थे।”

Post – 2016-06-29

सुबूही
दिल जहां रखा था पाया कि वहां था ही नहीं
बात कल की है पुराना यह वाकया भी नहीं।।

सयानों ने कहा गुमशुदगी की रपट लिखवा
लाख कीं कोशिशें मजमून पर बना ही नही ।।

सोचा यह काम भी दीवान के जिम्‍मे कर दूं
बोला वह हाथ है अकड़ा, गरम हुआ ही नहीं ।।

बहुत सोचा, लिए हीटर मैं दुबारा पहुंचा
बोला, वह नामुराद तेरे पास था ही नही ।।

गवाह है कोई, देखा था किसी ने उसको
हलफनामा दो कि फिसला नहीं गिरा भी नही।।

अपना सा मुंह लिए लौटा तो दोस्‍तों ने कहा
भूल जा उसको तेरा वह कभी हुआ ही नहीं।।

बात कुछ सच है मगर सच के सिवा भी कुछ है
वह कहीं छिप कर ले रहा हो इम्‍तहां ही नहीं।।

झुर्रिया दिल में भी पड़ती हैं लोग कहते हैं
खराेंच उसमें कभी आज तक पड़ा ही नहीं।।

जिन्‍दगी में कमी सदमात की होती है नहीं
चोट खाई भी तो घायल कभी हुआ ही नहीं।।

कई तरह के हैं शक औ’ कई तरह के भरम
मेरी गफलत में किसी ने झपट लिया तो नहीं।।

सिकुड़ता फैलता रहता था उसकी आदत थी
कहीं वह आज सिकुड़ कर शिफर हुआ तो नहीं।।

पता भगवान को इसका लगा तो हंसने लगा
कहने को वह मेरा हमदर्द था, रहा ही नहीं।

Post – 2016-06-28

हम सही हैं यह गलत है। हम सही हो सकते हैं, यह सही है। पर इसके लिए उस दैन्‍य को छोड़ना होगा जिसमें हम अपनी गलतियों को पहचानने और उनसे उबरने को अपनी पराजय मानते हैं। यह सभी विचारधाराओं में होता है। मेरे पाठकों में भी है जो मानते हैं कि जब तक मैं उनके मन की कहता हूं तब तक ठीक हूं जब कि सच यह है कि जब तक मुझे गलत नहीं सिद्ध किया जाता तब तक मैं ठीक हूं। यह मुझे आज की अपनी पोस्‍ट की प्रतिक्रिया में सन्‍नाटे को देख कर समझ में आया। शीर्षक देख कर ही घबरा गए मेरे प्रिय पाठक पर यही मेरे लेखन की सार्थकता है। मनोबन्‍धों को तोड़ कर सोचने की अवरुद्ध प्रणाली को प्रवाही बनाना।जो कठोर सचाइयों का सामना नहीं कर सकते उनको मैं कल सुबूही पेश करूंगा, सुबूही, अर्थात् शब्‍दों का खेल, जिसके उस्‍ताद अकबर इलाहाबादी हुआ करते थे। खाली जगह को भरना था भगवान आ गया पर दर्शन कल ही होगा।

Post – 2016-06-28

सिर्फ आंबेडकर

‘’देखो, गांधी को समझना…’’’

मैं अपना वाक्य पूरा कर पाता इससे पहले ही वह कूद पड़ा, ‘’मुझे अभी गांधी पर कुछ नहीं सुनना। उन पर सुनते सुनते मेरे कान पक गए। तुम्हें’ गांधीफीलिया है। छोटी से छोटी बात पर गांधी ने इस पर क्या कहा, या किया, या कुछ नहीं कहा किया तो आज होते तो इस पर क्या कहते का तराना शुरू कर देते हो। पहले तुम अंबेडकर के बारे में बताओ। दुनिया की महान हस्तियों में तुम उन्हें कहां रखते हो?’’

’’बहुत ऊपर । भारतीय राजनीति में पटेल को छोड़ कर दूसरा कोई राजनेता नहीं दिखाई देता जो इतना दृढ़ और समर्पित हो।‘’
’’तुम पटेल को भी गांधी से बड़ा मानते हो न! ठीक सोचते हो, उनमें भी गांधी जैसा ढोग नहीं था और नेहरू जैसी कुनबापरस्ती न थी।‘’

’’तुम नतीजा निकालने की इतनी जल्दाबाजी में क्यों रहते हो? तुम्हीं ने रोका था कि गांधी पर तुम्हे कुछ नहीं सुनना। बाबा साहब की चरण धूलि समेटने के बाद ही तुम उस धूलि से वह चबूतरा बना पाओगे जिस पर चढ़ने के बाद गांधी के पाँव तक स्पर्श कर सको।‘’

’’माफ करो यार, मुझसे गलती हो गई। अब बीच में अपनी ओर से गांधी का नाम नहीं लूँगा, चाहे शैतान का नाम लेना पड़ जाय।‘’

’’वह तो लेना ही पड़ेगा, अपनी जात बिरादरी से बाहर कैसे जा सकते हो। देखो बाबा साहब के बारे में बहुत सी सूचनायें हैं जो तुम्हें इंटरनेट पर मिल जायेंगी। मुझे तो उस खजाने तक का पता नहीं। परन्तु सूचनाओं के पहाड़ को अपने सिर पर लाद कर या उस पहाड़ की चोटी पर खड़े हो कर किसी व्याक्ति को नहीं समझा जा सकता। पूजा भाव से किसी व्यक्ति को नहीं समझा जा सकता, पूजा में झुकने वालों को सिर्फ पांव दिखाई देते हैं, आंखों के आगे से पूरा व्यक्ति ही गायब हो जाता है। गलतियाँ तलाशने वालों को भी, पहले कह आए हैं, केवल मल दिखाई देता है जल नहीं दीखता। किसी व्यक्ति या या वस्तुस्थिति को उससे तटस्थ हो कर, राग-द्वेष से मुक्त हो कर ही समझा जा सकता है।

इसका एक ही तरीका है उनसे सम्मानजनक दूरी। विराट को देखने के लिए तो यह दूरी और बढ़ जाती है और लघुतम को निहारने के लिए उसके आकार का विस्तार करना होता है। इसे तुम भी जानते हो, पर जब तुम किसी स्वार्थवश पहले से ठान लेते हो कि हमें अमुक को अमुक सिद्ध करके दिखाना है तो इन सामान्य नियमों को भूल जाते हो और उन्हीं सूचनाओं से चतुराई भरा एक जाल तैयार करते हो जिसमें दूसरों को फंसा कर उन्हें अपराधी सिद्ध किया जा सके। इसलिए जरूरी है कि हम तथ्यों पर ध्यान दें, प्रकृति के नियमों का सम्मान करें, उनके एक एक तार को समझे और फिर उनसे ही उनका निष्कर्ष निकलने दें। निष्कर्ष या निचोड़ का तो अर्थ ही किसी वस्तु के सार का उसमें से ही, बिना हमारी ओर से किसी मिलावट के, बाहर आना।

जो बात ध्यान देने की है, वह है, उनका व्यापक ज्ञान और उनकी विश्लेषण क्षमता। उस द़ृष्टि से वह गांधी जी से या किसी अन्य भारतीय राजनेता से अधिक समृद्ध, वस्तुपरक, अधिक सन्तुतलित और प्रखर दिखाई देते हैं। उनका यह पक्ष मेरे मन में उनके प्रति गहरा सम्मान जगाता है। मैं उनके ही एक अंश को जो उन्होंने दलित समाज की जड़ों की तलाश करते हुए और यह बताते हुए लिखा था कि जहां तक रक्त का संबंध है ब्राह्मण और शूद्रके रक्त में अन्तर नहीं है, तुम्हारे सामने रखता हूँ।

”इसका यह मतलब नहीं कि मैं उनसे पूरी तरह सहमत हूँ, बल्कि यह कि उस समय तक इस निष्कर्ष के आसपास तो दूसरे कई पहुंचे थे, परन्तु उनमें से सबसे साफ नजर और तब तक के विवेचनों में अपेक्षाकृत अधिक गहरी पैठ उनकी ही दिखाई देती है। उनका कहना था कि ब्राह्मणों को तो आत्मसम्मान के लिए भी आर्य आक्रमण के सिद्धान्त का विरोध करना चाहिए, क्योंकि वह कपोल कल्पना है, और उन्हें यूरोपीय नस्लवादियों से तुच्छ सिद्ध करने के लिए तैयार किया गया है, परन्तुं वे उतनी ही निराधार अपनी वर्णगत श्रेष्ठता के चक्कर में उसका समर्थन करते हैं:
“As Hindus they should ordinarily show a dislike for the Aryan theory with its expressed avowal of the superiority of the Aryan races over the Asiatic races. But the Brahmin scholar has not only no such aversion, but he most willingly hails it. The reasons are obvious. The Brahmin…claims to be a representative of the Aryan race and he regards the rest of the Hindus as descendants of the non-Aryans. The theory helps him to establish his kinship with the European races and share their arrogance and their superiority. He likes particularly that part of the theory which makes the Aryan an invader and a conqueror of the non-Aryan races. For it helps him to maintain his over lordship over the non-Brahmins” (Vol.7, p.80).

”और वह उस पुरुष सूक्त का जिसे वर्णविभाजन और ब्राह्मणों की जन्मजात श्रेष्ठता के लिए बार बार उद्धृत किया जाता रहा है, जिस पर अनगिनत प्रख्यात विद्वानों ने बहुत सतही बातें की हैं, उसे जिस तार्किक ढंग से पेश करते हैं उस पर अवाक् हो जाना पडंता है। तुम बाबा साहब का विवेचन देखो। पहले वह पूरे सूक्त की एक एक ऋचा की अन्तर्वस्तु को सरल अनुवाद में प्रस्तुत करते हैं, और फिर :
The Purusha Sukta is a theory of the origin of the Universe. In other words, it is a cosmogony. No nation which has reached an advanced degree of thought has failed to develop some sort of cosmogony. The Egyptians had a cosmogony somewhat analogous with that set out in the Purusha Sukta. According to it,[f2] it was god Khnumu, ‘ the shaper,’ who shaped living things on the potter’s wheel, “created all that is, he formed all that exists, he is the father of fathers, the mother of mothers… he fashioned men, he made the gods, he was the father from the beginning… he is the creator of the heaven, the earth, the underworld, the water, the mountains… he formed a male and a female of all birds, fishes, wild beasts, cattle and of all worms.” A very similar cosmogony is found in Chapter I of the Genesis in the Old Testament.
Cosmogonies have never been more than matters of academic interest and have served no other purpose than to satisfy the curiosity of the student and to help to amuse children. This may be true of some parts of the Purusha Sukta. But it certainly cannot be true of the whole of it. That is because all verse of the Purusha Sukta are not of the same importance and do not have the same significance. Verses 11 and 12 fall in one category and the rest of the verses fall in another category. Verses other than II and 12 may be regarded as of academic interest. Nobody relies upon them. No Hindu even remembers them. But it is quite different with regard to verses 11 and 12. Prima facie these verses do no more than explain how the four classes, namely. (1) Brahmins or priests, (2) Kshatriyas or soldiers, (3) Vaishyas or traders, and (4) Shudras or menials, arose from the body of the Creator. But the fact is that these verses are not understood as being merely explanatory of a cosmic phenomenon. It would be a grave mistake to suppose that they were regarded by the Indo-Aryans as an innocent piece of a poet’s idle imagination. They are treated as containing a mandatory injunction from the Creator to the effect that Society must be constituted on the basis of four classes mentioned in the Sukta.Such a construction of the verses in question may not be warranted by their language. But there is no doubt that according to tradition this is how the verses are construed, and it would indeed be difficult to say that this traditional construction is not in consonance with the intention of the author of the Sukta. Verses II and 12 of the Purusha Sukta are, therefore, not a mere cosmogony. They contain a divine injunction prescribing a particular form of the constitution of society.
The constitution of society prescribed by the Purusha Sukta is known as Chaturvarnya. As a divine injunction, it naturally became the ideal of the Indo-Aryan society. This ideal of Chaturvarnya was the mould in which the life of the Indo-Aryan community in its early or liquid state was cast. It is this mould, which gave the Indo-Aryan community its peculiar shape and structure.

यह तार्किकता, यह गहनता, यह वस्तुपरकता और यह अधिकार मुझे किसी अन्य विद्वान में देखने में नहीं आया। किसी दूसरे भारतीय राजनेता में तो यह योग्युता भी नहीं थी। वह एक एक तार को अलग करके उसी सूक्त को मुखर होने का अवसर देते हैं।

जिन लोगों ने संविधान निर्माण का काम उन्हें सौंपा था वे जानते थे कि इस काम के लिए इससे बढ़िया दिमाग उपलब्ध नहीं है।

यह तो हुआ उनका एक पक्ष। अब दूसरे पर कल सही।
28 जून 2016

Post – 2016-06-27

सुबूही

‘’आज तो तुमने बहुत सारी गजलें एक साथ पिला दी अपने दोस्तों को। पहले कहते थे कविता को समय नहीं दे पाता इसलिए उससे बचता हूं और एक गजल पर कुछ तालियां क्या बजीं कि, क्या कहते हैं बैरगिया नाले वाले गीत में, जब तबला बाजे धीन धीन तब एक एक पर तीन तीन। तबला की जगह तालियां करदोतो तो एक गजल के बाद तीन का तर्क समझ में आ जाएगा।‘’

’’बैरगिया नाले की ही समझ हो सकती है तुम्हें, और इसलिए संगीत और कविता की समझ भी धीन धीन और तीन तीन पर ही सपाप्त हो जाएगी। जो सुबह सुबह मैंने परोसा था जानते हो उसे क्या कहते हैं?

”नहीं जानते। मैं बताता हूं। उसे गजल नहीं कहते हैं, सुबूही कहते हैं।‘’

’’सुबूही ? यह तो नाम ही पहली बार सुन रहा हूं।‘’

’’जब शाम की अधिक चढ़ जाती है और उससे सिर फटने की नौबत आ जाती है तो उसके खुमार को उतारने के लिए जो सुबह को ली जाती है उसे सुबूही कहते हैं। तो जो मैं अपनी पोस्ट् करता हूं वह कुछ भारी भी पड़ती है और उसमें स्पिरिट का अनुपात भी कुछ बढ़ जाता है जिससे लिखते समय मुझे ही नशा हो जाता है तो पाठकों को तो होगा ही। इसी के जवाब में पैदा होती है वह तुकबन्दी जो अक्सर भारीपन का मजाक उड़ाती हुई या उस पर अपने आह्लाद को मूर्त करती हुई मेरे चेतन बौद्धिक आयास के ठीक विपरीत मेरे अनजाने ही अवचेतन द्वारा रची जा रही होती है और लगभग बनी बनाई सामने आकर खड़ी हो जाती है और रास्ता रोक लेती है। उसका परिणाम थी वह जिसका समय कल शाम का दिया हुआ है और अपने उस अवचेतन की महिमा के प्रति नमन का परिणाम थी आज की सुबूही और फिर उसके साथ यह प्रतीति कि मृत्यु तक के प्रति इस स्वागत भाव के पीछे कहीं मेरे आज की जिन्दगी की कोई निराशा न पढ़ जी जाय लगभग व्याख्या करती हुई तीसरी गजल। कहें तोनों में विचार ही कविता बन रहा है अनुभूति नहीं और विचार का उपहास तो होगा ही क्‍योंकि अवचेतन उसी के दबाब से मुक्ति के लिए तो छटपटा रहा था जो तुक ताल में ढलता चला गया था। यह व्याख्या इसलिए करनी पड़ी कि मैं‍ जिसे अपना सार्थक लेखन मानता हूं वह गद्य का वह अंश ही होता है जो हमारी सामाजिक सोच से टकराते हुए, दूसरों की मान्यताओं से रगड़ झगड़ करती हुई चेतना के रूप को बदलने और औपनिवेशिक मानसिकता से मुक्ति पाने के लिए चलता है।‘’

‘’अब तुम घूम फिर कर उसी विषय पर आ गए तो यह बताओ, क्या तुम नहीं मानते कि गांधी जी हिन्दू थे और ऐसे हिन्दू थे जो वर्णव्यवस्था को मानते थे?‘’

’’तुम नहीं समझोगे, पर कहते हो तो मान लेते है।‘’

’’मेरे कहने की बात क्या, है यार। राजगोपालाचारी ब्राह्मण थे पर वर्णवादी नहीं थे। गांधी जी से पहले दयानन्द सरस्वती हो चुके थे, वह जन्मना ब्राह्मण थे, पर वर्णवाद का उन्मूलन करना चाहते थे। गांधी उनसे बाद में मंच पर आए और उनसे भी पीछे चले गए। राजगोपालाचारी ने अपनी पुत्री का विवाह उनके पुत्र से करने का प्रस्ताव रखा तो उन्हों ने इसका विरोध इसी आधार पर किया कि ब्राह्मण कन्या, का विवाह बनिये के लड़के से नहीं हो सकता। यह तुम्हें नहीं मालूम ?”

‘’मालूम है।”

”फिर ऐसा वर्णवादी व्यक्ति अछूतों के प्रति सहानुभूति रख सकता था ? वह वर्णव्यवस्था को मिटा कर सामाजिक समता के अभियान में शामिल हो सकता था। अछूतों को हरिजन कह उन उनको बेवकूफ अवश्य बना सकता था? इसे ढोंग न कहेंगे तो क्या कहेंगे? और इसके बाद भी तुम कहते हो कि वह अन्दर बाहर एक थे? सत्य के पुजारी थे और जाने क्या क्या। मैं किसी के कहने पर नहीं जाता। परखने की मेरी कसौटी यही है और इस पर गांधी ढोंगी सिद्ध होते हैं। बाबा साहेब अंबेडकर की दृष्टि बहुत प्रखर थी। वइ भारतीय नेताओं में सबसे पढ़े लिखे नेता थे। उन्हें कोई धोखा नहीं दे सकता था। इस ढोंग को समझ लेने के कारण ही उनसे वह छत्तींस का संबंध बना कर रहे।‘’

’’मेरा एक उपन्यास है, उन्माद, जिसका तुम्हें पहले भी हवाला दिया था। उसका बहुत आधुनिक खयालों का एक मुसलिम चरित्र है जो ‘बेहिस’ उप नाम से शायरी भी करता है। उसमें उसके लिए मैंने कुछ नज्में , शेर आदि भी जड़े थे। उनमें एक शेर था, ‘तेरी नजरों में ही कुछ खम है आ गया बेहिस । आईने टूटते जाते हैं जिधर देखता है।‘ खम तो मैंने नम्रता वश पैनेपन के लिए प्रयोग किया था, तात्पर्य था उस वेधकता से जो नकली दीवारों, नियमों और बन्धनों और रुकावटों को तोडती, गिराती, व्यर्थ करती चली जाती है। गांधी के बारे में यह भी जोड़ सकते हो कि उनके साथ कसौटियां तक टूटती चली जाती है। वह अपनी सरलता और पारदर्शिता में भी बहुत गहन हैं। यदि हमारे समय के बुद्धिजीवी और नेता केवल गांधी को समझ जाते तो इस देश की आधी समस्यायें पैदा तक न होतीं, या होतीं तो उसी से सुलझ जातीं ।‘’

’’मैं जानता था तुम यही करोगे। जवाब नहीं सूझेगा या देते न बनेगा तो लफ्फाजी का झोल खड़ा करके उसके भीतर से समस्या को ही गायब कर दोगे जैसे जादू का खेल दिखाने वाले करते हैं। तुम फंस गए हो, चलो, मैं दूसरा सवाल करता हूं, क्या बाबा साहब में ऐसा ढोंग तुम्हें कहीं‍‍ मिलता है जैसा गांधी में मिलता है? उनके बारे में तुम्हारा क्या खयाल है?’’

‘’मेरी समझ से वह भारतीय नेताओं में सबसे प्रखर मेधा के, सबसे अधिक शिक्षित, सबसे दृढ़ और संवेदनशील व्यक्ति थे। वस्तुपरक और विवेकशील भी और बहुतों को तो वह दुराग्रही भी प्रतीत हो सकते हैं, जब कि वह भीतर से अतिशय विनम्र भी थे। जैसे गांधी को न उनके समय में समझा गया न आज समझा जा सकता है और एक दौर तो ऐसा था कि उनके विरुद्ध ऐसा कुत्सित प्रचार अभियान चलाया गया था कि उससे उनके तेज तक का अन्धविवर तैयार हो गया था जैसा ब्रह्मांड के अन्धविवरों के साथ होता है। उनका अकूत प्रकाश और तेज उनसे बाहर फैल ही नहीं पा रहा थाता। इस दुष्प्रचार में बहुतों का हाथ था, उनका भी जो उनके कन्धे पर सवार हो कर अपनी महिमा तक पहुंचे थे और उनका भी जिनमें से एक ने उनको जीवित और भटकती लाश से मुक्ति दिलाते हुए उनकी इहलीला ही समाप्त कर दी। ठीक इसी तरह बाबा साहब को न तो उनके समय में समझा गया न आज समझने की इच्छा है। उनका इस्तेमाल पहले उतने गर्हित रूप में न हुआ था जो बाद में उनको आड़ बना कर कुर्सी हासिल करने वालों या जयभीम बोलने वालों द्वारा हुआ क्योंकि वे अम्बेडकर को समझना तक नहीं चाहते। दार्शनिक, तत्वचिंन्त क भीमराव अंबेडकर उनके काम का नहीं है।‘’

’’चलो तुमने इतना तो माना कि गांधी और अंबेडकर दोनों का कद बराबर था, पर एक पाखंड भी करता था और दूसरा पारदर्शी था।‘’

‘’मैंने समता विषमता की बात नहीं की। दोनों को समझे न जा सकने की बात की। तुम जिसे ढोंग कह रहे हो उसकी अतल गहराइयों में उतरने की तुम्हारी क्षमता नहीं। पर हां यदि भारतीय समाज इन दोनों नेताओं के विचारों का उसी तरह केवल एक दो साल तक पाठ भी करे जैसे कुछ भक्त गण रोज हनुमानचालीसा या सुन्दकरकांड या रामायण का पाठ करते हैं या जो रोजा नमाज के पाबन्‍द हैं तो भारतीय समाज का हुड़दंग कम हो सकता है और बहुत सारी असाध्य प्रतीत होने वाली समस्याओं का स्वत: समाधान निकल सकता है।

”परन्तु अपने समय में भी इन दोनों का स्वार्थी तत्वों ने अपने हित के लिए उपयोग कर लिया और ये लाचार देखते रह गए। देखो…’’

’’यार आज के लिए यही बहुत है। मेरा मजा किरकिरा मत करो। उस पर कल बात करेंगे।”

Post – 2016-06-27

मौत से छोड़ दो डरना तो दोस्तीे हो जाय
वह गुदगुदाये और आप करवटें बदलें ।
आप उससे कहें इस चोले से है प्यार मुझे ।
वह कहे इसकी शिकन और सलबटें बदलें ।
बुढ़ापे में भी जवानी की वापसी हो जाय
आप फरमायें चलो आओ जमाना बदलें ।।
यूं बदलता है इरादों के बदलने से जहां
आओ हम सोचें और अपना इरादा बदलें।।
तू भी भगवान हांकता है तो रुकता ही नहीं
दुरुस्‍त कुछ नहीं तू ही बता क्‍या क्‍या बदलें।
२७/०६/१६ ८:५३:४९

Post – 2016-06-27

अपने ही साये से कुछ हट के खड़ी है शायद ।
ऐ मेरी जिन्दगी तू मुझसे बड़ी है शायद ।।
चन्द रोजा है बुजुर्गों सी बात करती है ।
बदजबानी की तो आदत सी पड़ी है शायद।।
अदा कैसी! फरेब कैसे! नजाकत कैसी!
नेजों की नोक पर तू नाच रही है शायद।।

ऐ कजा तुझको भी चाहेंगे इसी शिद्दत से
इसी तरफ को तेरी आंख गड़ी है शायद।।
बुरा नहीं हूं चली आ बिना आहट के मगर
बेकरारी से मेरी सहमी डरी है शायद।।
जिन्दगी में मिली रहती है शहद जैसी तू
लत मेरी पीने की तुझसे ही पड़ी है शायद ।।
दूर से ही दबे सुर में ही सुनाना लोरी
गिले शिकवे को भी दो चार घड़ी है शायद ।।
तेरा भगवान से कह कब हुआ था कौलोकरार
जान दी भी नहीं, लेने को अड़ी है शायद ।।
जी में जो आता है बकता ही चला जाता है
बाद मुद्दत के उसे आज चढ़ी है शायद ।।
२६/०६/१६ २१:००:०३

ऐ खुदा ऐसा तो बस होता है केवल ख्वाब में।
मैं झुकूं सजदे में तो तू भी रहे आदाब में।।
मैं कहूं अपनी तुझे अपनी सुनाने की पड़े
मैं रहूं गाफिल मगर मौजूद तेरी याद में ।।
ऐ खुदा मैं जब तेरे होने पर शक करता रहा।
तू छिपा बैठा रहा इस खानए बर्वाद में ।।
जो कहूं करता रहूं ऐसा लगे तू कर रहा।
तू अलापे ूराग तो फूटे मेरी आवाज में ।।
तू तो हरता है सभी के ताप पूंजी बस यही
आग इतनी भर दी अपने आशिके बेताब में।।
झेल सकते हों तो झेलें इसको भी उसके अजीज।
ढूढ़ते हैं जाने क्यां इस फितनए बेआब में ।।
रोग कैसा इस बुढापे में लगा भगवान को
था तो पहले होश में फिर क्या हुआ था बाद में।।
२७/०६/१६ ६:२४

Post – 2016-06-26

सही नजरिया

‘’अब यदि तुम चाहो तो हम ट्रस्टीशिप की अवधारणा और हिन्दू वर्णव्यवस्था पर कुछ बात कर सकते हैं!’’ मैंने उसे छेंड़ते हुए कहा।

‘’बात तो किसी विषय पर बाद में करना, पहले यह बताओ तुम्हारा दिमाग सही तो है।‘’

मैं जानता था कि उसे जब लताड़ पड़ी रहती है तो बदला लेने के लिए वह ऐसे ही मुहावरों का प्रयोग करता है, परन्तु उसके चेहरे से लगा वह सचमुच गंभीर है।
‘’तुम तो सचमुच सीरियस लगते हो । यह बताओ, तुम्हें शिकायत किस बात की है।‘’

‘’एक हो तो बताऊँ । तुम गांधी जी को चरित्र प्रमाणपत्र देने से पहले यह तो सोच लेते कि उनके चरित्र में खामियां कितनी थीं। जानकार लोगों की आंख में धूल तो नहीं झोंक सकते। उनकी आंख पर पट्टी बांध कर अपने पीछे चलने को तो नहीं कह सकते कि तुम्हें जितना मालूम है वही जानकारी का अन्‍त है और तुम्‍हारा मूल्‍यांकन सर्वथा आप्‍त।”

”मैंने ऐसा भरम तो पाला नहीं, न ही अपने से भिन्‍न विचारों को जानने या उनका सम्‍मान करने के प्रति उदासीनता दिखाई। मैं तो आमन्त्रित करता हूं कि जिस तरह मैं अपना पक्ष रखता हूं तुम रखो और मैं जिन तर्कों प्रमाणो या उदाहरणों से तुम्‍हें गलत सिद्ध करता हूं उनसे भी पुष्‍ट प्रमाणा या अनदेखे पहलुओं को प्रस्‍तुत करके मुझे गलत सिद्ध करो जिससे मैं अपनी कमियां समझ सकूं और उन्‍हें दूर कर सकूं।”

”दूसरे उनकी जिन कमियों का दर्शन कराते है वे तुम्हें दीखती ही नहीं। एकांगी समझ से गांधी को तो समझ नहीं पाते, उन्हें महान बनाने के चक्कर में अपनी तक साख दाव पर लगा देते हो।‘’

बात उसकी सही थी क्‍योंकि वह कभी गलत होता ही नहीं। मैंने कहा, ‘’देखो, तुम गलत नहीं कहते, अन्‍तर यह है कि जहां से तुम देखते हो, वहां से चिराग की लौ दिखाई नहीं देती, चिराग के नीचे का अंधेरा दिखाई देता है, मैं जिधर से देखता हूं चिराग के नीचे नजर ही नहीं जाती उसकी लौ और उसे फै उजाला नजर आता है।सवाल सही या गलत का नहीं, देखने की जगह और देखने वाले की नीयत का है। सवाल यह कि उसे किस चीज की तुलाश है और वह कहां से जुटाई जा सकती है।‘’

‘’तुम्हें। उनकी कमियाँ भी खूबियाँ नजर आती हैं ?’’

’’तुम कमियों को देखते हो और मैं उस महिमा को अपनी कमियों को सहज स्वीकार करने के साहस और सत्यनिष्ठा में प्रकट होती है। बताओगे, तुम अपने कितने और कैसे अपराधों को आज तक सार्वजनिक रूप से स्वययं स्वी‍कार कर सके हो । तुमने नहीं स्वीकार किया, इसीलिए मैं मानता हूं तुममें कोई कमी हो ही नहीं सकती। बस एक बात की याद आती है, साठ के दशक की कलकत्‍ता में चलने वाली बसों की सीटों और उनके पिठासे पर। उनके चीकट कपड़े में मैल कहाँ है यह तय करना कठिन होता। गन्दंगी रगड़ खाती रहने के कारण प्रकाश पड़ने पर चमकती सी लगती थी। तुम जिनकी बात कर रहे हो उनकी ऐसी ही चमक दिखाई देती है और गन्दगी का आरोप वे जो सबसे घवल होता है उस पर आरोपित करने की कला जानते हैं।

”तुमने देखा होगा, उज्‍वल धवल वस्‍त्र पर एक मामूली छींटा भी हो तो सबसे पहले वही अपनी ओर ध्यान खींचता है और फिर वह व्यक्ति और उसकी उज्वलता-धवलता, उसके दूसरे सभी गुण और कार्य, हमारे सामने से अदृश्‍य हो जाते हैं और वह उस छींटे में बदल जाता है।

”पर गांधी के तो छींटे भी नहीं दिखाई देते, वह स्वयं कहता है, मुझे सर्वत: निर्मल मत समझो, मुझसे भी यह हुआ है और यह लो मैं यह जानने के लिए यह तक करने जा रहा हूं जिसके कारण तुम किसी का यातनावध तक कर सकते हो। टुच्चे लोग अपनी महिमा के प्रदर्शन मे भी क्षुद्र सिद्ध होते हैं और महान अपनी क्षुद्रता के प्रकाशन में भी महान दीखता है। गांधी को मापने के लिए जिस मानदंड की जरूरत है वह उन टुच्चे पैमानों के योग से तैयार नहीं हो सकता क्योंकि वे ऊपर ताने जायेंगे तो अपने खंडित होने के कारण ही संतुलन खो कर लुढ़क कर नीचे आ जाएंगे।‘’

‘’मान गया यार। तुम्हारा जवाब नहीं।‘’

मैं जानता था कि उस पर मेरी बात का असर नहीं हुआ है, इसलिए कुछ आराम से, उदाहरणों के साथ समझाना चाहा, ‘’देखो किसी भी व्यक्ति या परिघटना के दो पक्ष होते हैं, एक निजी जिसके परिणाम उसी तक सीमित रहते है या बहुत सीमित दायरे को प्रभावित करते हैं। इनमें कुछ गलत लगते हुए भी गलत नहीं होते, सही गलत की हमारी जो परिभाषा है उसकी कसौटी पर वे गलत लगते हैं और उनके सिरे से देखने पर हमारी कसौटी गलत सिद्ध होती है। कुछ दूसरे है, जिनको हम उसी व्यक्ति या परिघटना का सामाजिक पक्ष कह सकते हैं जिसके बहुत दूर और कल्याणकारी या विनाशकारी परिणाम हुआ करते हैं। व्याक्ति या परिघटना का मूल्यांकन करते हुए हमें दूसरे पक्ष पर ध्यांन देना चाहिए। एक विराट में बहुत तरह की विकृतियां और कमियां भी समाहित होती है, विराटता के अन्ततर्विरोध जिसके कारण मुझे वाल्ट ह्विटमैन की वह पंक्ति याद आई थी
Do I contradict myself?
Very well then I contradict myself,
(I am large, I contain multitudes.)

‘’हिन्दू मूल्य व्यवस्था पर मुझे गर्व है, परन्तु हिन्दू समाज में और प्राचीन हिन्दू विधानों में हमारी रीतियों और विश्‍वासों में अनगिनत विकृतियाँ हैं। उन्हें गिनाने का काम मैं नहीं करूंगा, उन्हें बार बार मिशनरियों द्वारा हिन्दू समाज और मूल्यव्यवस्था को गर्हित सिद्ध करने के लिए गिनाया जाता रहा है और मिसेज मेयो की उस पुस्तक का नाम तो तुमने भी सुना होगा, मदर इंडिया। बड़ा आकर्षक नाम है पर भारत का बड़ा गर्हित चित्रण है। इस पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए गांधी जी ने इसे सैनिटरी इंस्पेक्टर की रिपोर्ट कहा था। तुम सैनिटरी इंस्पेेक्टंर की नजर से गांधी को देखते हो और मैं दार्शनिक की नजर से। गांधी वही है, तुम्हारी नजर उस ऊँचाइ्र तक उठ नहीं सकती और मैं उन्हें जिस ऊँचाई से देखना चाहता हूं उसमें वे ऊँचों के बीच अधिक ऊँचे और अविश्वसनीय रूप में इतने नम्र दिखाई देते हैं जिसके बाद सैनिटरी पक्ष का ज्ञान होते हुए भी उधर ध्या‍न नहीं जाता।‘’

वह उठ कर खड़ा हुआ, दोनों हाथ नमस्ते के अन्दाज में जोड़ कर माथे लगाने चला तो मैंने हाथ पकड़ कर झटक दिया और खींच कर बगल में बैठा लिया, ‘’ एक वाकया सुनाता हूं, सुन कर चले जाना भले हाथ जोड़ने की जगह झापड़ रसीद करके ही जाओ। मैं जब दिल्ली प्रशासन में काम करता था तो मेरे समकक्ष एक चतुर्वेदी जी थे। दोनों का बैठने को एक ही कमरा था। वह पवित्रता और सात्विकता के बहुत कायल थे, और इसे सिद्ध करने के लिए मांसाहारियों की बड़ी निन्दा किया करते थे। स्वयं मुझे शाकाहार पसन्द है पर आमिष से परहेज नहीं। मैं कहता भाई किसी के खान पान की आलोचना नहीं करनी चाहिए । स्वयं जो सही लगे उसका निर्वाह करना चाहिए। लोग तो लहसन और प्याज तक से परहेज करने लगते हैं जब कि ये शाक हैं। पर उनके पास बातचीत के लिए विषय के नाम पर केवल यही बच रहता था क्योंकि दूसरा कोई विषय उठाने पर वह बचकाने सिद्ध होते थे। एक दिन मछली खाने वालों के प्रति घ़णा का इजहार करते हुए बोले, ‘ कोई थूक थे तो मछलियां उसे भी खा जाती हैं, जानें कैसे लोग इन्‍हें खाते हैं। यह कहने के साथ घृणा का भाव उनके चेहरे पर भी उजागर हो जाता है।

”एक दिन मैंने उन्हें सबक सिखाने का इरादा कर ही लिया। मैंने कहा, चौबे जी, आप को पता है आप रीसाइक्ल्डन विष्टा खाते हैं। भाई का चेहरा तमतमाया हुआ और बोलने की कोशिश में शब्द झाग बन कर उच्चा्रण को असंभव बनाते हुए। मैंने कहा, देखिए मल खाद बनता है, उसी खाद से भूमि में उर्वरता आती है और अनाज पैदा होता है और उसे हम सभी खाते हैं।’’

बेचैनी तो उनकी क्या कम होती, चेहरे का तनाव भी बना रहा पर उनकी आदत छूट गई। फूल के सौन्दर्य का आनन्द लो, इस बात का नहीं कि यह खाद पर पले हुए पौधे पर खिला है और इसमें भी खाद विद्यमान है और अन्तत: यह भी
खाद में बदल जाएगा।‘’ मैंने उसका हाथ छोड़ दिया, ‘’अब तुम जा सकते हो।‘’