सही नजरिया
‘’अब यदि तुम चाहो तो हम ट्रस्टीशिप की अवधारणा और हिन्दू वर्णव्यवस्था पर कुछ बात कर सकते हैं!’’ मैंने उसे छेंड़ते हुए कहा।
‘’बात तो किसी विषय पर बाद में करना, पहले यह बताओ तुम्हारा दिमाग सही तो है।‘’
मैं जानता था कि उसे जब लताड़ पड़ी रहती है तो बदला लेने के लिए वह ऐसे ही मुहावरों का प्रयोग करता है, परन्तु उसके चेहरे से लगा वह सचमुच गंभीर है।
‘’तुम तो सचमुच सीरियस लगते हो । यह बताओ, तुम्हें शिकायत किस बात की है।‘’
‘’एक हो तो बताऊँ । तुम गांधी जी को चरित्र प्रमाणपत्र देने से पहले यह तो सोच लेते कि उनके चरित्र में खामियां कितनी थीं। जानकार लोगों की आंख में धूल तो नहीं झोंक सकते। उनकी आंख पर पट्टी बांध कर अपने पीछे चलने को तो नहीं कह सकते कि तुम्हें जितना मालूम है वही जानकारी का अन्त है और तुम्हारा मूल्यांकन सर्वथा आप्त।”
”मैंने ऐसा भरम तो पाला नहीं, न ही अपने से भिन्न विचारों को जानने या उनका सम्मान करने के प्रति उदासीनता दिखाई। मैं तो आमन्त्रित करता हूं कि जिस तरह मैं अपना पक्ष रखता हूं तुम रखो और मैं जिन तर्कों प्रमाणो या उदाहरणों से तुम्हें गलत सिद्ध करता हूं उनसे भी पुष्ट प्रमाणा या अनदेखे पहलुओं को प्रस्तुत करके मुझे गलत सिद्ध करो जिससे मैं अपनी कमियां समझ सकूं और उन्हें दूर कर सकूं।”
”दूसरे उनकी जिन कमियों का दर्शन कराते है वे तुम्हें दीखती ही नहीं। एकांगी समझ से गांधी को तो समझ नहीं पाते, उन्हें महान बनाने के चक्कर में अपनी तक साख दाव पर लगा देते हो।‘’
बात उसकी सही थी क्योंकि वह कभी गलत होता ही नहीं। मैंने कहा, ‘’देखो, तुम गलत नहीं कहते, अन्तर यह है कि जहां से तुम देखते हो, वहां से चिराग की लौ दिखाई नहीं देती, चिराग के नीचे का अंधेरा दिखाई देता है, मैं जिधर से देखता हूं चिराग के नीचे नजर ही नहीं जाती उसकी लौ और उसे फै उजाला नजर आता है।सवाल सही या गलत का नहीं, देखने की जगह और देखने वाले की नीयत का है। सवाल यह कि उसे किस चीज की तुलाश है और वह कहां से जुटाई जा सकती है।‘’
‘’तुम्हें। उनकी कमियाँ भी खूबियाँ नजर आती हैं ?’’
’’तुम कमियों को देखते हो और मैं उस महिमा को अपनी कमियों को सहज स्वीकार करने के साहस और सत्यनिष्ठा में प्रकट होती है। बताओगे, तुम अपने कितने और कैसे अपराधों को आज तक सार्वजनिक रूप से स्वययं स्वीकार कर सके हो । तुमने नहीं स्वीकार किया, इसीलिए मैं मानता हूं तुममें कोई कमी हो ही नहीं सकती। बस एक बात की याद आती है, साठ के दशक की कलकत्ता में चलने वाली बसों की सीटों और उनके पिठासे पर। उनके चीकट कपड़े में मैल कहाँ है यह तय करना कठिन होता। गन्दंगी रगड़ खाती रहने के कारण प्रकाश पड़ने पर चमकती सी लगती थी। तुम जिनकी बात कर रहे हो उनकी ऐसी ही चमक दिखाई देती है और गन्दगी का आरोप वे जो सबसे घवल होता है उस पर आरोपित करने की कला जानते हैं।
”तुमने देखा होगा, उज्वल धवल वस्त्र पर एक मामूली छींटा भी हो तो सबसे पहले वही अपनी ओर ध्यान खींचता है और फिर वह व्यक्ति और उसकी उज्वलता-धवलता, उसके दूसरे सभी गुण और कार्य, हमारे सामने से अदृश्य हो जाते हैं और वह उस छींटे में बदल जाता है।
”पर गांधी के तो छींटे भी नहीं दिखाई देते, वह स्वयं कहता है, मुझे सर्वत: निर्मल मत समझो, मुझसे भी यह हुआ है और यह लो मैं यह जानने के लिए यह तक करने जा रहा हूं जिसके कारण तुम किसी का यातनावध तक कर सकते हो। टुच्चे लोग अपनी महिमा के प्रदर्शन मे भी क्षुद्र सिद्ध होते हैं और महान अपनी क्षुद्रता के प्रकाशन में भी महान दीखता है। गांधी को मापने के लिए जिस मानदंड की जरूरत है वह उन टुच्चे पैमानों के योग से तैयार नहीं हो सकता क्योंकि वे ऊपर ताने जायेंगे तो अपने खंडित होने के कारण ही संतुलन खो कर लुढ़क कर नीचे आ जाएंगे।‘’
‘’मान गया यार। तुम्हारा जवाब नहीं।‘’
मैं जानता था कि उस पर मेरी बात का असर नहीं हुआ है, इसलिए कुछ आराम से, उदाहरणों के साथ समझाना चाहा, ‘’देखो किसी भी व्यक्ति या परिघटना के दो पक्ष होते हैं, एक निजी जिसके परिणाम उसी तक सीमित रहते है या बहुत सीमित दायरे को प्रभावित करते हैं। इनमें कुछ गलत लगते हुए भी गलत नहीं होते, सही गलत की हमारी जो परिभाषा है उसकी कसौटी पर वे गलत लगते हैं और उनके सिरे से देखने पर हमारी कसौटी गलत सिद्ध होती है। कुछ दूसरे है, जिनको हम उसी व्यक्ति या परिघटना का सामाजिक पक्ष कह सकते हैं जिसके बहुत दूर और कल्याणकारी या विनाशकारी परिणाम हुआ करते हैं। व्याक्ति या परिघटना का मूल्यांकन करते हुए हमें दूसरे पक्ष पर ध्यांन देना चाहिए। एक विराट में बहुत तरह की विकृतियां और कमियां भी समाहित होती है, विराटता के अन्ततर्विरोध जिसके कारण मुझे वाल्ट ह्विटमैन की वह पंक्ति याद आई थी
Do I contradict myself?
Very well then I contradict myself,
(I am large, I contain multitudes.)
‘’हिन्दू मूल्य व्यवस्था पर मुझे गर्व है, परन्तु हिन्दू समाज में और प्राचीन हिन्दू विधानों में हमारी रीतियों और विश्वासों में अनगिनत विकृतियाँ हैं। उन्हें गिनाने का काम मैं नहीं करूंगा, उन्हें बार बार मिशनरियों द्वारा हिन्दू समाज और मूल्यव्यवस्था को गर्हित सिद्ध करने के लिए गिनाया जाता रहा है और मिसेज मेयो की उस पुस्तक का नाम तो तुमने भी सुना होगा, मदर इंडिया। बड़ा आकर्षक नाम है पर भारत का बड़ा गर्हित चित्रण है। इस पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए गांधी जी ने इसे सैनिटरी इंस्पेक्टर की रिपोर्ट कहा था। तुम सैनिटरी इंस्पेेक्टंर की नजर से गांधी को देखते हो और मैं दार्शनिक की नजर से। गांधी वही है, तुम्हारी नजर उस ऊँचाइ्र तक उठ नहीं सकती और मैं उन्हें जिस ऊँचाई से देखना चाहता हूं उसमें वे ऊँचों के बीच अधिक ऊँचे और अविश्वसनीय रूप में इतने नम्र दिखाई देते हैं जिसके बाद सैनिटरी पक्ष का ज्ञान होते हुए भी उधर ध्यान नहीं जाता।‘’
वह उठ कर खड़ा हुआ, दोनों हाथ नमस्ते के अन्दाज में जोड़ कर माथे लगाने चला तो मैंने हाथ पकड़ कर झटक दिया और खींच कर बगल में बैठा लिया, ‘’ एक वाकया सुनाता हूं, सुन कर चले जाना भले हाथ जोड़ने की जगह झापड़ रसीद करके ही जाओ। मैं जब दिल्ली प्रशासन में काम करता था तो मेरे समकक्ष एक चतुर्वेदी जी थे। दोनों का बैठने को एक ही कमरा था। वह पवित्रता और सात्विकता के बहुत कायल थे, और इसे सिद्ध करने के लिए मांसाहारियों की बड़ी निन्दा किया करते थे। स्वयं मुझे शाकाहार पसन्द है पर आमिष से परहेज नहीं। मैं कहता भाई किसी के खान पान की आलोचना नहीं करनी चाहिए । स्वयं जो सही लगे उसका निर्वाह करना चाहिए। लोग तो लहसन और प्याज तक से परहेज करने लगते हैं जब कि ये शाक हैं। पर उनके पास बातचीत के लिए विषय के नाम पर केवल यही बच रहता था क्योंकि दूसरा कोई विषय उठाने पर वह बचकाने सिद्ध होते थे। एक दिन मछली खाने वालों के प्रति घ़णा का इजहार करते हुए बोले, ‘ कोई थूक थे तो मछलियां उसे भी खा जाती हैं, जानें कैसे लोग इन्हें खाते हैं। यह कहने के साथ घृणा का भाव उनके चेहरे पर भी उजागर हो जाता है।
”एक दिन मैंने उन्हें सबक सिखाने का इरादा कर ही लिया। मैंने कहा, चौबे जी, आप को पता है आप रीसाइक्ल्डन विष्टा खाते हैं। भाई का चेहरा तमतमाया हुआ और बोलने की कोशिश में शब्द झाग बन कर उच्चा्रण को असंभव बनाते हुए। मैंने कहा, देखिए मल खाद बनता है, उसी खाद से भूमि में उर्वरता आती है और अनाज पैदा होता है और उसे हम सभी खाते हैं।’’
बेचैनी तो उनकी क्या कम होती, चेहरे का तनाव भी बना रहा पर उनकी आदत छूट गई। फूल के सौन्दर्य का आनन्द लो, इस बात का नहीं कि यह खाद पर पले हुए पौधे पर खिला है और इसमें भी खाद विद्यमान है और अन्तत: यह भी
खाद में बदल जाएगा।‘’ मैंने उसका हाथ छोड़ दिया, ‘’अब तुम जा सकते हो।‘’