Post – 2016-06-27

अपने ही साये से कुछ हट के खड़ी है शायद ।
ऐ मेरी जिन्दगी तू मुझसे बड़ी है शायद ।।
चन्द रोजा है बुजुर्गों सी बात करती है ।
बदजबानी की तो आदत सी पड़ी है शायद।।
अदा कैसी! फरेब कैसे! नजाकत कैसी!
नेजों की नोक पर तू नाच रही है शायद।।

ऐ कजा तुझको भी चाहेंगे इसी शिद्दत से
इसी तरफ को तेरी आंख गड़ी है शायद।।
बुरा नहीं हूं चली आ बिना आहट के मगर
बेकरारी से मेरी सहमी डरी है शायद।।
जिन्दगी में मिली रहती है शहद जैसी तू
लत मेरी पीने की तुझसे ही पड़ी है शायद ।।
दूर से ही दबे सुर में ही सुनाना लोरी
गिले शिकवे को भी दो चार घड़ी है शायद ।।
तेरा भगवान से कह कब हुआ था कौलोकरार
जान दी भी नहीं, लेने को अड़ी है शायद ।।
जी में जो आता है बकता ही चला जाता है
बाद मुद्दत के उसे आज चढ़ी है शायद ।।
२६/०६/१६ २१:००:०३

ऐ खुदा ऐसा तो बस होता है केवल ख्वाब में।
मैं झुकूं सजदे में तो तू भी रहे आदाब में।।
मैं कहूं अपनी तुझे अपनी सुनाने की पड़े
मैं रहूं गाफिल मगर मौजूद तेरी याद में ।।
ऐ खुदा मैं जब तेरे होने पर शक करता रहा।
तू छिपा बैठा रहा इस खानए बर्वाद में ।।
जो कहूं करता रहूं ऐसा लगे तू कर रहा।
तू अलापे ूराग तो फूटे मेरी आवाज में ।।
तू तो हरता है सभी के ताप पूंजी बस यही
आग इतनी भर दी अपने आशिके बेताब में।।
झेल सकते हों तो झेलें इसको भी उसके अजीज।
ढूढ़ते हैं जाने क्यां इस फितनए बेआब में ।।
रोग कैसा इस बुढापे में लगा भगवान को
था तो पहले होश में फिर क्या हुआ था बाद में।।
२७/०६/१६ ६:२४