समापन
हिन्दुत्व पर इस शृंखला का समापन करते हुए कुछ बातों को संक्षेप में कहना और कुछ बातों को दुहराना जरूरी है:
मैं जन्मना हिदू हूँ। यह एक तथ्य है, इसका चुनाव मेरा न था, इसलिए यह मेरे लिए न गर्व का विषय है, न गलानि का।
विचार करते समय ‘शुद्ध बुद्धि की मीमांसा’ का कायल हूँ। इसके अभाव में विचार विचार रह ही नहीं जाता, विश्वास का तार्किक पक्षपोषण बन जाता है जो विश्वास बन्धुओं के बीच ही प्रिय हो सकता है।
हिंदुत्व पर विचार करने का खयाल इसके विषय में कई दिशाओं से किए जाने वाले दुष्प्रचार से खिन्न होकर दो-तीन साल पहले पैदा हुआ था और फिर मैंने इसके भौतिक, नैतिक, मनावैज्ञानिक, सामाजिक और ऐतिहासिक पक्षों की पड़ताल आरंभ की थी और इस नतीजे पर पहुंचा था कि यह नई चीज नहीं है। इसकी जड़ें 10-12 साल हजार साल पीछे तक जाती है और इसका मुख्य कारण हिंदुत्व की तुलनात्मक श्रेष्ठता और विकास प्रक्रिया से जुड़ी कतिपय सामाजिक आर्थिक व्यवस्थाएँ रही है जो आगे चल कर अपनी जीवन्तता खो कर अनुपयोगी होने के बाद भी समाज में बनी रहीं क्योंकि उनकी जड़ों को न समझा गया और इसलिए उनका निवारण न किया जा सका अपितु वे समाज के सभी स्तरों पर जड़ीभूत हैं।
हिंदुत्व धर्म चेतना है, न कि मजहब। मजहब का प्रयोग केवल सामी विश्वासधाराओं के लिए किया जा सकता है, जिन की प्रकृति दूसरे सभी पूर्ववर्ती और समकालीन मतों और मान्यताओं से इतना भिन्न है की एक ही संज्ञा सभी को समेट नहीं सकती और यदि किसी विवशता में इनमें विभेद नहीे किया जाता तो विवेचन और समझ में भी गड़बडी बनी रहेगी।
धर्म एक अतिव्यापी संज्ञा है जिसका शाब्दिक और व्यावहारिक अर्थ है वह गुण या कार्य जिसके अभाव में किसी प्राकृतिक सत्ता, मानव निर्मित वस्तु, संस्था या पद की सत्ता ही समाप्त हो जाती है और इसलिए मानवता के आशय में धर्म का अर्थ है उन मूल्यों-मानों, कर्तव्यों का बोध और निर्वाह जिनके अभाव में मनुष्य मनुष्य रह ही नहीं जाता। एक शब्द में इन्हें मानवादर्शों का पुंज और उनका निर्वाह कहा जा सकता है। हम संक्षेप में कह सकते हैं कि जो मनुष्य इन आदर्शों का सम्मान करता है वह हिन्दू है और इसे यदि कुछ और सूक्ष्मता में जा कर समझें तो जो व्यक्ति धर्म का पालन करता है या पालन में चूक होने ग्लानि अनुभव करता है केवल वही हिन्दू है। भारतीय होते हुए भी जो इसे नहीं मानता वह हिंदू नहीं। हिंदू होना मानवीय होने का पर्याय है और इसलिए भारतीय न होते हुए भी जो धर्म की समझ रखता या सम्मान करता है, वह हिंदू है।
इसके लिए पुराना प्रयोग – सनातन धर्म – हमारे ऊपर के आशय को स्पष्ट करने में अधिक सहायक है। सनातन का अर्थ है देशकालीतीत या सार्वभभौम और सार्वकालिक। सनातन अधिक सटीक और निरापद है पर शब्द संस्कृत का है, पुराना है इसलिए यह सुनने पर झटका सा देता है इसलिए अपेक्षाकृत नया होते हुए और अर्थ में कुछ भ्रामक होते हुए भी सर्वाधिक प्रचलित होने के कारण हमने इसी का प्रयोग दिक और काल की सीमाओं को जानते हुए उसी तरह स्वीकार किया है जैसे आज हम दूसरे अनेक गढ़े हुए शब्दों का व्यवहार करते हैं।
यहाँ यह स्पष्ट कर दें कि धर्म रिलिजन निरपेक्ष या सेकुलर संकल्पना है और इस दृष्टि से हिन्दू या हिंदू धर्म सेकुलर अवधारणा है। भारत में न कोई मजहब है न मजहबी किताब (भ्रम गुरुग्रन्थ साहब को लेकर हो सकता है परंतु वह कवियों की वाणी में समाहित मानवीय जीवनादर्शों का संग्रह या धर्मग्रंथ है, न कि मजहबी किताब), न आप्त पुरुष जब कि जीवनादर्श सभी महान और निष्कलुष पुरुषों के अनुकरणीय हैं – धर्मविचार में यदि उलझन हो तो उस दशा में – 1. महाजनो येन गतः स पंथा; । 2. यदि ते कर्म विचिकित्सा (दुविधा) वा वृत्ति विचिकित्सा वा स्यात। युक्ता आयुक्ताः । अलूक्षा धर्मकामाः स्युः । यथा ते तत्र वर्तेरन् । तथा तत्र वर्तेथाः ॥ -( तैत्तिरीयोपनिषत् १-११), इसी का प्रभाव है कि वेद और स्मृति को क्रमिक प्रमाण मानने वालों को स्वविवेक को अंतिम कसौटी मानना पड़ा – वेदः स्मृतिः सदाचार स्वस्य च प्रियमात्मनः | एतच्चतुर्विधं माहुः साक्षातद्धर्मस्य लक्षणम् || (मनु – 2/12 )
आप्त प्रमाण, वह ग्रंथ का हो या श्रद्धेय पुरुष का, न होने के कारण विभिन्न लौकिक परिस्थितियों में धर्माधर्म अर्थात् कर्तव्य और अकर्तव्य का संशय उपस्थित होता रहा है और इसका अंतिम निर्णय मनुष्य को स्वविवेक के आधार पर करना पड़ता रहा है- अंतिम कसौटी यह कि मुझसे कोई अशुभ कार्य न हो जाए –
किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः ।
तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्॥
कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः ।
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः ॥
कर्मण्य कर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः ।
स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत् ॥ गीता, 4.16-१८)
आप ईश्वर को मानते हैं या नहीं मानते हैं, वेद, उप वेद, शास्त्र, स्मृति, यज्ञ, पूजा, व्रत – उपवास, पर्व, देवी-देवता, वर्ण-व्यवस्था, भाग्य, पुनर्जन्म और अनंत जीवकोटियों के जीवनचक्र, स्वर्ग-नरक, अवतार को मानते हैं या नहीं मानते हैं, उनका सम्मान करते हैं या उपहास करते हैं इससे आपका हिन्दुत्व प्रभावित नहीं होता, परंतु यदि आप उन आदर्शों का पालन नहीं करते हैं जिन्हें धर्म का लक्षण माना गया है तो आप हिंदू नहीं रह जाते। उन आदर्शों में भी आंतरिक विरोध होने पर, दुविधा पैदा होने पर, अंतिम कसौटी आप का स्वविवेक है।
अब हम मजहब और धर्म के अन्तर को रेखांकित करने के लिए बर्ट्रेंड रसल के विख्यात व्याख्यान को याद करें जिसे निबंध के रूप में हम ‘मैं ईसाई क्यों नहीं हूँ’ (Why I Am Not a Christian) के रूप में पढ़ते हैं, उसके कुछ अंशों पर ध्यान दें जिससे प्रभावित होकर हमारे कुछ लेखकों ने, ‘मैं हिंदू क्यों नहीं हूँ लिखकर अपने को धन्य माना था, क्योंकि उन्होंने हिंदुत्व को समझा न था न उन्हें इस बात का बोध था कि वे कह क्या कर रहे हैं। इसी से यह भी पता चल जाएगा मैं हिंदू होने के नाते हिंदुत्व के विषय में इतना चिंतित नहीं रहता हूं जितना मनुष्यता और वैज्ञानिक युग में मनुष्य की चेतना नष्ट करने वाली ताकतों से बचाने के लिए चिंतित रहता हूं।
रसेल ईसा की ऐतिहासिकता को संदिग्ध बताने, कल्पित रूप में भी सदाशयी, परम बूद्धिमान, या महामानव की अपेक्षाओं से नीचे, कतिपय ऐतिहासिक चरित्रों से भी कमतर सिद्ध करने के बाद उन्हें अनुकरणीय नहीं मानते।(Historically it is quite doubtful whether Christ ever existed at all, and if He did we do not know anything about Him, so that I am not concerned with the historical question, which is a very dfficult one. I am concerned with Christ as He appears in the Gospels, taking the Gospel narrative as it stands, and there one does and some things that do not seem to be very wise. …He believed in hell. I do not myself feel that any person who is really profoundly humane can believe in everlasting punishment….I cannot myself feel that either in the matter of wisdom or in the matter of virtue Christ stands quite as high as some other people known to history. I think I should put Buddha and Socrates above Him in those respects.
और उनकी इस कसौटी को हम अवतारों पर लागू करें तो उसी नतीजे पर पहुँचेंगे। अंतर यह है कि उक्त मामलों में ईसा में विश्वास न करने पर आप ईसाई नहीं रह सकते और आप अवतारों को माने या न मानें हिंदू बने रहते हैं.
मजहब में तर्क के लिए स्थान नहीं, यह भावना पर आधारित है (I do not think that the real reason why people accept religion has anything to do with argumentation. They accept religion on emotional grounds.) जैसा हमने देखा, धर्म और इस दृष्टि से हिंदुत्व प्रत्येक परिस्थिति में तर्क और औचित्य को लेकर चिंतित रहता है।
वह मानते हैं मजहबी भावना का आधार भय रहा है और इसे भय उत्पन्न करके ही बचाने का प्रयत्न किया जाता रहा है और भय क्रूरता का जनक है और हैरानी की बात नहीं कि मजहब और क्रूरता का चोली-दामन का साथ है:
Religion is based, I think, primarily and mainly upon fear. It is partly the terror of the unknown, and partly, as I have said, the wish to feel that you have a kind of elder brother who will stand by you in all your troubles and disputes. Fear is the basis of the
whole thing—fear of the mysterious, fear of defeat, fear of death. Fear is the parent of cruelty, and therefore it is no wonder if cruelty and religion has gone hand-in-hand.
विज्ञान के बल पर हमने चीजों को धीरे धीरे समझना शुरू किया है और इसी के भरोसे हम अपने डर पर कायम काबू पा सकते हैं:
Science can help us to get over this craven fear in which mankind has lived for so many generations. Science can teach us, and I think our own hearts can teach us, no
longer to look round for imaginary supports, no longer to invent allies in the sky, but rather to look to our own efforts here below to make this world a fit place to live in, instead of the sort of place that the churches in all these centuries have made it.
ईसाइयत के विषय में उनकी सबसे बड़ी शिकायत है यह प्रगति विरोधी रहा है मानवता विरोधी रहा है अन्याय का समर्थक रहा है और इसके कारण दुनिया में सबसे अधिक खुराफात हुए हैं और मजहबी संस्थान ही मनुष्य की नैतिक प्रगति में बाधक हैं:
You find as you look around the world that every single bit of progress in humane feeling, every improvement in the criminal law, every step towards the diminution of war, every step
towards better treatment of the coloured races, or every mitigation of slavery, every moral progress that there has been in the world, has been consistently opposed by the organised Churches of the world. I say quite deliberately that the Christian religion, as organised in its Churches, has been and still is the principal enemy of moral progress in the world.
कहने की आवश्यकता नहीं धर्म के साथ, हिंदुत्व के साथ स्थिति ठीक इससे उल्टी मिलती है।
मजहबी संकीर्णता, आतंक, भय, अन्याय, प्रतिगामिता की ऐसी स्थिति में हमारे पास विकल्प क्या रह जाता है? अपने नैतिक विवेक का भरोसा, इसे कुछ विस्तार से उन्होंने निम्न शब्दों में रखा है:
WHAT WE MUST DO
We want to stand upon our own feet and look fair and square at the world—its good facts, its bad facts, its beauties, and its ugliness; see the world as it is, and be not afraid of it. Conquer
the world by intelligence, and not merely by being slavishly subdued by the terror that comes from it. …. It is a conception quite unworthy of free men. When you hear people in church debasing themselves and saying that they are miserable sinners, and all the rest of it, it seems contemptible and not worthy of self-respecting human beings. We ought to stand up and look the world frankly in the face. We ought to make the best we can of the world, and if it is not so good as wewish, after all it will still be better than what these others have made of it in all these ages. A good world needs knowledge, kindliness, and courage; it does not need a regretful hankering after the past, or a fettering of the free intelligence by the words
uttered long ago by ignorant men. It needs a fearless outlook and a free intelligence. It needs hope for the future, not looking back all the time towards a past that is dead, which we trust will be far surpassed by the future that our intelligence can create.
यह कहने की जरूरत नहीं कि ठीक इन्हीं आदर्शों पर धर्म और हिंदुत्व टिका हुआ है जिसके विषय में ईसाइयों द्वारा किए गए दुष्प्रचार के कारण रसेल को बहुत कम और भोड़ी जानकारी थी जिसका परिचय भी उन्होंने इसी व्याख्यान में दे दिया था जिसमें उन्होंने कछुए के ऊपर हाथी और हाथी के ऊपर धरती को टिका बताया था। इसकी विस्तृत चर्चा संभव नहीं। हम केवल यह दावा कर सकते हैं कि यदि उन्हें हिंदुत्व की गहरी समझ होती तो उन्होंने घोषित रूप में कहा होता कि वैज्ञानिक समझ, मानवीय न्याय और आधुनिक विश्व को मजहब की नहीं धर्म की जरूरत है और वह हिंदुत्व है।