अंधा युग
आठ
हर कहानी कई कहानियों के अंत से आरंभ होती है। उसमें कई युगों के अंतःसत्य छिपे होते हैं। वह मानसिकता, जिसे कई नाम दिए जा सकते हैं, जिनमें से एक नाम से हम अधिक परिचित हैं, वह अंतरिक उपनिवेशवाद जो विदेशी शासन से अधिक पश्चिमी शिक्षा प्रणाली से उत्पन्न हुई है और जब तक अंग्रेजी की प्रधानता है तब तक बनी रहनी है ।
प्राचीन शिक्षा पद्धति में उच्चतम शिक्षा प्राप्त व्यक्ति का भी अपने समाज से गहरा लगाव (इंटीग्रेशन) बना रहता था। व्यक्ति अपने क्षेत्र में समाज के लिए अधिक उपयोगी होने के लिए शिक्षा प्राप्त करता था, और इसलिए अपेक्षा करता था कि उसे योग्य बनाने की दिशा में समाज सहयोग करे, जो वह करता भी था। यह पहली विशिष्टता थी जिसकी प्रकृति समझ में न आने के कारण मैकाले को हैरानी हुई थी। यह तो शिक्षा प्रणाली का अंतर था जिसे बदला नहीं जा सकता। परंतु दूसरा अंतर प्रयोजन से जुड़ा था। मैकाले को अपनी शिक्षा पद्धति का प्रयोजन कंपनी की सेवा के लिए एक अमला तंत्र तैयार करना था जो प्रशासनिक तंत्र में सहायक हो सके और जिसका मिजाज अंग्रेजी हो। इसके लिए मैकाले ने शिक्षा के प्राचीन माध्यमों को हतोत्साहित करते हुए ब्रिटिश शिक्षा प्रणाली और अंग्रेजी शिक्षा की नीव रखी थी।
औपनिवेशिक मिजाज ब्रिटिश प्रणाली से संबंधित नहीं है, परंतु अंग्रेजी की शिक्षा से गहरा संबंध रखता है। हालत यह है के अन्य भाषा के माध्यम से अपने विषय का अधिकार रखने वाला व्यक्ति भी यदि अंग्रेजी नहीं जानता है या अंग्रेजी माध्यम का आधिकारिक उपयोग नहीं कर सकता है तो अंग्रेजी जानने वाले भारतीयों की नजर में भी अर्धशिक्षित प्रतीत होता है।
शिक्षा अपने लिए उपयुक्त चाकरी तलाशने से प्रेरित रही है इसलिए ज्ञान, प्रतिभा, शिक्षा स्तर के साथ अमला तंत्र का मनोवैज्ञानिक पदक्रम भी चेतना का अंग बन जाता है। आंतरिक उपनिवेशवाद को सबसे पहले भारत में अमेरिकी राजदूत (1961-63) जॉन केनेथ गैलब्रेथ (John Kenneth Galbraith) मैं लक्ष्य किया था। यह इस समस्या का एक पक्ष है, जिसकी प्रकृति लोकतंत्र से मेल नहीं खाती, और इसलिए अपने को अधिक प्रतिभाशाली समझने वाले लोग – साहित्यकार, पत्रकार, अध्यापक और अमला तंत्र से जुड़े लोग – अपने अहंकार की तुष्टि के लिए ऐसी विचारधारा और संगठनों की ओर आकर्षित होते हैं जिनकी प्रकृति अलोकतात्रिक या अभिजनवादी होती है।
भारतीय संदर्भ में, मैं आज भी मानता हूं कि न तो साहित्यकारों, कलाकारों, पत्रकारों और विचारकों में से कोई शोषित और उत्पीड़ित जनों की वेदना से कातर होकर कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हुआ था नहीं इसके किसी भी संगठन से निकटता बढ़ाई थी । इसके पीछे कई कारण थे। ज्ञान और संवेदन के विस्तार के साथ उसी अनुपात में अन्याय और कुरूपता के उन्मूलन का संकल्प भी पैदा होता है और यदि किसी दल या संगठन का घोषित लक्ष्य इनका उन्मूलन हो तो उसका वास्तविक चरित्र जो भी हो, उसके प्रति आकर्षण बढ़ जाता है। यह है मिजाज की वह समानता जो क्रान्तिकारी छद्म को बनाए रखने के बाद भी अपना ‘आपा’ खो चुकी थी। आप को यह जान कर आश्चर्य होगा कि हिंदुत्व के उन्मूलन, या हिंदू समाज के इस्लामीकरण में जिस दूसरी विचारधारा की भूमिका है, वह अपने को हिंदुत्व का रक्षक समझती है। यह सभी को पता है कि संघ में वेश, बाना, व्यायाम और प्रोग्राम में से कितना नाजियों से मिलता है पर यह जानना अधिक जरूरी है कि इसमें कुछ भी ऐसा नहीं जिससे हिंदुत्व का आभास होता हो। इसलिए किसी नाम का महत्व तभी तक है जब तक रूप सामने नहीं आ जाता।
जो भी हो, कम्यूनिज्म का रास्ता सुशिक्षित और प्रतिभाशाली जमात को रास आया और इससे इसका एक स्थायी एलीट जनाधार तैयार हुआ जो प्रगतिशीलता और सेकुलरिज्म के छद्म में साहित्य, कला और सूचना माध्यमों का हिंदुत्व द्रोही अभियान चलाता रहा। इन्हें आम हिन्दू से – उसकी संकुचित दृष्टि, सीमित ज्ञान, पुरातन विचार, रुचि, विश्वास, जीवनशैली सभी को लेकर गहरी शिकायत थी। प्रकट रुप से वे हिंदू द्रोही नहीं थे। वे इस पिछड़े समाज से दूरी बनाकर उसे सुधारना चाहते थे, या जब तक वह सुधार न जाए तब तक दूरी बनाए रखना चाहते थे। सुधारने का उनके पास एक ही तरीका था, तोहीन करना, उपहास करना, इसके अनुकूल काल्पनिक स्थितियां पैदा करना और फिर उसे मनोरंजन का सामान बनाना।
इस अभियान में उन्होंने हिंदुत्व का उतना नुकसान नहीं किया जितना स्वयं अपना, क्योंकि उनकी कारस्तानी समझ में आ जाने के बाद हिंदुत्व की भावना को बल मिला। समाज अपने ही बुद्धिजीवी से दूर हटता चला गया, उसकी विश्वसनीयता इतनी कम हो गई कि ज्ञान और सूचना के साधनों से भी हिंदी जगत और हिंदू समाज में उपेक्षा भाव पैदा हो गया। यह दुर्भाग्यपूर्ण और चिंताजनक है। इसकी व्याख्या आज संभव नहीं।