Post – 2020-03-21

अंधा युग
सात

कम्युनिज्म की ओर अग्रसर हिंदुओं की हिंदू समाज को समस्त विकृतियों से मुक्त करके निष्कलुष और सर्वोत्कृष्ट बनाने की आकांक्षा सराहनीय थी। यह हिन्दू समाज के लिए क्षोभकर नहीं, उसकी प्रकृति के सर्वथा अनुकूल थी और इसलिए इसके आरंभिक प्रयोगों से किसी तरह की सुगबुगाहट तक न हुई, उल्टे हास्य और विनोद के रूप में इसका स्वागत किया गया। जहाँ दूसरे समुदायों में प्रचलित रीति, विश्वास और मान्यताओं की तनिक भी आलोचना होने पर तूफान मच जाता है, वहाँ हिन्दू समाज इनका स्वागत करता है, रूढ़िवादी लोग भी अपनी खीझ मिटाने के बाद समर्पण की मुद्रा में आ जाते हैं।

हाल के हिन्दुत्वद्रोही वातावरण में इस समाज के जिस पक्ष की अनदेखी की गई है, वह है आत्मालोचन और आत्मशोधन की इसकी पुरातन परंपरा जो वैदिक काल से भी बहुत पहले आरंभ हुई थी और आधुनिक समय तक चली आई है। समाज में भले सदा से ही कुछ रूढ़िवादी तत्व रहे हैं परंतु यदि कोई व्यक्ति अपने प्रतिस्पर्धी को किसी विचार या आचार की श्रेष्ठता का कायल कर देता है तो शास्त्रार्थ में निरुत्तर होने वाला व्यक्ति उसके मत को स्वीकार करने को बाध्य होता रहा है। वह उसकी गुलामी तक करने को बाध्य हो जाता रहा है। आत्म परिष्कार की यह परंपरा मेरी जानकारी के अन्य देश में नहीं पाई जाती। यही कारण है कि विश्व के दूसरे समाजों में किन्हीं तर्कसंगत परिवर्तनों के लिए शस्त्रबल और लंबे समय तक चलने वाले रक्तपात का सहारा लेना पड़ता रहा है, वहाँ भारत में यह वैचारिक हस्तक्षेप से संभव होता रहा है।

प्रसंगवश याद दिला दें कि सशस्त्र आंदोलन के नायक चे गुआरा को, 1959 में फिदेल कास्त्रों ने 17 देशों से सीधे संपर्क का सुझाव दिया था, और इसी क्रम में वह 30 जून को भारत पहुँचे थे और कुछ समय तक भारत के राजकीय अतिथि बन कर रहे थे। इस प्रसंग में नेहरू से उन्हें जो समर्थन मिला और उनके विचारों से जिस सीमा तक प्रभावित हुए वह तो अलग है ही वह कोलकाता भी गए थे और उनकी मुलाकात कृष्ण नाम के किसी सज्जन से हुई थी जिनका उन पर जौ प्रभाव पड़ा उसे उन्होंने कास्त्रो को लिखे पत्र में निम्न रूप में दर्ज किया था।

“We had an opportunity of meeting a wise person called Krishna, who seemed like a person far above our world of today,” Che Guevara wrote in his report to his boss in Cuba.
“He (Krishna) with his simplicity and humility, a characteristic of his people, talked to us for quite some time, stressing the need for using the entire resources and technical capacity of the world for peaceful use of the nuclear energy. He strongly condemned the absurd politics of those who dedicate themselves to storing hydrogen bombs in their international discussions,” Che Guevara wrote about Krishna in his report.
एक महिला पत्रकार जिसने उनके नेहरू से हुए वार्तालाप की रपट तैयार की थी अहिंसावादी तरीके की प्रशंसा सुन कर उनसे प्रश्न किया, “आप तो सशस्त्र क्रांति के वाहक हैं फिर आप अहिंसावादी तरीके के कायल कैसे हो गए थे?”

चे गुआरा ने उत्तर में कहा था, “हमारे यहाँ गांधी और नेहरू नहीं हुए, हमारा काम शस्त्रबल के बिना नहीं चल सकता।”

कृष्ण की व्यक्ति रूप में पहचान जो भी हो, उनकी(with his simplicity and humility, a characteristic of his people) सही पहचान हिंदुत्व है, जिसमें बीसवीं शताब्दी के कम्युनिज्म प्रेरित ‘प्रगतिशीलों के बीभत्स उपहास के दौर में भी, seemed like a person far above our world of today.

परंतु सामान्यतः जिसे अहिंसा वादी परंपरा मान लिया जाता है यह उसकी ताकत नहीं है यह उस शास्त्रार्थ परंपरा की ताकत है जिसमें ही अहिंसा भी संभव थी। शास्त्र और शस्त्र दोनों का अर्थ एक है या कहें विचार स्वयं हथियार है और अपनी मान्यता को विरोधी विचारों और मान्यताओं से अधिक श्रेयस्कर सिद्ध करके दूसरे सभी लोगों को उनको मानने को बाध्य किया जा सकता है। अहिंसा का अपना तर्क है और उसे बदल कर शक्ति प्रयोग और अनिवार्य होने पर वध को सही ठहराया जा सकता है।
हम इस बात को रेखांकित करना चाहते हैं कि आत्मालोचन के प्रति इस स्वागत भाव के कारण लंबे समय तक हिंदुओं की समझ में नहीं आया उनकी कुरीतियों की आलोचना नहीं की जा रही है, अपितु उन्हें किसी की तुलना में गर्हित सिद्ध करने का प्रयत्न किया जा रहा है। उनकी आलोचना नहीं की जा रही, उनका उपहास किया जा रहा है और दिखावा यह किया जा रहा है कि सामाजिक परिष्कार करके इसे उज्ज्वल बनाया जा रहा है। गली कूचोें में घूम कर सोने के गहने चमकाने वाले ठग जिस तरह एसिड के घोल से सोना ही उड़ा लेते है उसी तरह यहाँ घिसते हुए मुलम्मा नहीं धातु ही साफ की जा रही है।

निष्कलुष बनाने यह कैसा अभियान कि जिन मूल्यों पर हिंदू समाज गर्व करता आया था उनको इस तरह खत्म किया जाय कि केवल कलुष ही बचा रह जाए, हिंदू समाज ही गायब हो जाए। हिन्दू शब्द, सनातन मानव मूल्य, सांस्कृतिक प्रतीक, पर्व, व्रत, मान्यताएँ, वेश, ध्वज, धज, हिंदुओं की भाषा, उस भाषा की लिपि तक, उसका रंग सब कुछ गर्हित और इतना गर्हित कि नाम लेते ही इनमें से किसी लक्षण के किसी व्यक्ति में नजर आते ही वह उपहास का पात्र हो जाता है और इसी अनुपात में अपनी विवेकहीनता के लिए, कट्टरता और नृशंसता के लिए कुख्यात समुदाय, और उसका गुंडा और अपराधी तक बिना किसी टिप्पणी के न केवल आदर्श बना दिया जाता है बल्कि वह हिंदुओं में अधिक उदार और धर्मनिरपेक्ष व्यक्ति कौन है इसका प्रमाण पत्र भी देने लगता है।

यहीं पर दाल में कुछ काला दिखाई देता है और उस काले के स्रोत को समझने की चुनौती पैदा होती है।