क्या आप जानते हैं कि हम कितना कुच्छ खाकर भी भूखे रह जाते हैं? हम रोटी, चावल, पानी, हवा, चप्पल, जूता, चोट, डंडा, ग़म, ख़म, रहम, तरस, हवा, रिश्वत/ घूस, सिर, जान, चक्कर, धोखा, सदमा, झटका, नमक, ज़हर, सब कुछ खाते हैं. यहाँ कि हम देवताओं कि तरह, नाक से खाते या नोश फरमाते हैं, हमारी भूख कब मिटेगी?
यह सम्पदा बोलियों में भरपूर है, फारसी में उससे कम, संस्कृत में उससे भी कम, यूरोप की भाषाओँ में नदारद. जिसे हम भारोपीय कहते हैं उसका मूलाधार क्या है?
क्या कभी सोचा कि भारत की भाषा वह है जिसकी पहचान सूफियों ने की या वह जिसे सस्कृत या अरबी फारसी के प्रेम ने नष्ट कर दिया. कभी सोचा कि हमारी आज की हिंदी या उर्दू नक़ली क्यों लगाती हैं और अंग्रेजी की स्वीकार्यता के पीछे हमारी नासमझी और ज़िद का भी हाथ है?
कभी सोचा है कि वाग्विनोद के क्षणों में कभी कभी ऐसी पहेलियों पर भी बात करनी चाहिए?
Month: February 2015
Post – 2015-02-22
क्या आप जानते हैं कि हम कितना कुच्छ खाकर भी भूखे रह जाते हैं? हम रोटी, चावल, पानी, हवा, चप्पल, जूता, चोट, डंडा, ग़म, ख़म, रहम, तरस, हवा, रिश्वत/घुस, सिर, जान, चक्कर, धोखा, सदमा, झटका, नमक, ज़हर, सब कुछ खाते हैं. यहाँ कि हम देवताओं कि तरह, नाक से खाते या नोश फरमाते हैं, हमारी भूख कब मिटेगी?
यह सम्पदा बोलियों में भरपूर है, फारसी में उससे कम, संस्कृत में उससे भी कम, यूरोप की भाषाओँ में नदारद. जिसे हम भारोपीय कहते हैं उसका मूलाधार क्या है?
कभी सोचा है कि वाग्विनोद के क्षणों में कभी कभी ऐसी पहेलियों पर भी बात करनी चाहिए?
Post – 2015-02-19
हँसते हुए कहते थे कि हम हंस नहीं सकते
रोते हुए कहते हैं कि इसका भी मज़ा है
जुड़ते हुए कोशिश थी दूरियाँ तो छिपा लें
हटते हुए तू ही मेरी जन्नत दिलो-जां है
यारब जो अरब के हैं न रब के हैं मगर हैं
ईनाम है उनका भी क्या उनकी भी सजा है
सिर अपना कटाने के लिए फिरते थे देखो
मालूम न था हमसे डरा करती क़ज़ा है.