Post – 2020-04-30

#शब्दवेध (22)
एक कदम आगे दो कदम पीछे

भाषाविज्ञान का विकास जिस यांत्रिक रूप में हुआ उसमें भाषा की उत्पत्ति के विषय में छान बीन बहुत की गई, परंतु मूलभूत सिद्धांतों का ध्यान नहीं रखा गया। यह तब और विचित्र लगता है जब हम पाते हैं कि येस्पर्सन (Otto Jesperson) जैसी विभूतियाँ इस दिशा में प्रयत्नशील थीं। उन्होंने स्वयं अपने द्वारा उठाई गई आपत्तियों में भी सतहीपन से काम लिया।

भाषा की उत्पत्ति की समस्या प्रखर होकर 19वीं शताब्दी में तब सामने आए जब यह माना जाने लगा समस्त विश्व आधुनिक संचार और यातायात के साधनों के माध्यम से एक दूसरे से इतना जुड़ चुका है कि विश्व में एक सर्वस्वीकार्य भाषा का प्रयोग करें तो एक न्यायपूर्ण विश्व व्यवस्था कायम की जा सकती है। इसमें बाधक था विविध यूरोपीय देशों का अपना अहंकार और स्वार्थ। किसी दूसरे की भाषा को कोई अपने लिए स्वीकार्य नहीं मानता था। ऐसी स्थिति में कुछ विज्ञानियों के दिमाग में यह ख्याल आया कि यदि एक कृत्रिम भाषा ऐसी तैयार की जाए जिसमें वर्तमान भाषाओं की व्याकरण और उच्चारण संबंधी दुरूहताएं न हों, शब्द भंडार अधिकतम यूरोपीय भाषाओं के अनुरूप हो तो उसे संपर्क भाषा के रूप में सभी स्वीकार कर लेंगे और भविष्य में स्थापित होने वाली विश्व संस्था की भाषा वही होगी।

इस भाषा को गढ़ने के लिए उन्होंने इस समस्या पर बहुत गंभीरता से विचार करना आरंभ किया कि भाषा की उत्पत्ति हुई कैसे, जिससे वह उन्हीं सिद्धांतों का पालन करते हुए नई भाषा तैयार कर सकें। भाषा का आरंभ कैसे हुआ इसके लिए शिशुओं की भाषा सीखने पर जितना ध्यान दिया गया, वह पर्याप्त नहीं था। यह मानते हुए कि आदिम समाज की भाषा आरंभिक अवस्था के अधिक निकट है इसलिए वह उत्पत्ति को समझने में सहायक हो सकती है, परंतु इसे यथेष्ट नहीं पाया गया । प्राकृतिक ध्वनियों की नकल से भाषा की उत्पत्ति को समझने का प्रयास भी इसी क्रम में किया गया।

यह तो सर्वविदित है कि बहुत सारे शब्द जीव जंतुओं की आवाज की नकल हैं। परंतु यहां समस्या यह थी कि सभी भाषाओं में उन्हीं ध्वनियों की नकल अलग अलग की गई है। दूसरे इस नियम को हम कुछ ही शब्दों पर लागू पाते हैं। वह शब्दावली भी केवल संज्ञा तक सीमित है। भाषा का जटिल ढांचा जिसमें संज्ञा के साथ क्रिया, सर्वनाम, विशेषण, क्रिया विशेषण, प्रत्यय, उपसर्ग, रुपावली, सभी का विकास शामिल है, उसकी व्याख्या प्राकृतिक ध्वनियों के माध्यम से संभव नहीं है। और सबसे बड़ी आपत्ति यह थी कि यदि भाषा का उद्भव प्राकृतिक ध्वनियों की नकल से हुई होती तो पूरे मानव समाज एक भाषा होनी चाहिए थी। दुनिया में इतनी भाषाएँ उस दशा में नहीं सकती थी।

इसलिए में से किसी की भूमिका को पूरी तरह नकारना संभव नहीं था, इसलिए उन्होंने सोचा भाषा की उत्पत्ति और विकास में इन सभी की कुछ न कुछ भूमिका थी और इसलिए है सभी यूरोपीय भाषाओं से कुछ न कुछ लेते हुए उन्होंने जिस भाषा को कर तैयार किया वह मेरी जानकारी में, यूरो-केंद्रित होती हुई भी, दुनिया की सबसे सरल, सबसे नियमित, सबसे समृद्ध भाषा तैयार की जिसका नाम है एस्पैरांतो।[1]

[1] उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम दशकों में ‘यूनिवर्सल लैंग्वेज तैयार करने पर अनेक विद्वान सक्रिय थे जिन्होंने उन्हें अलग अलग नाम दे रखे थे (डॉ. निकोलस- स्पोकिल Spokil ; स्पित्जर – पार्ला; बोलैक – ला लैंगू व्लूए la langue bleue), यामेनोव (Zamenhof) की एस्पेरांतो इन्हीं में से एक थी। इनमें से कोई दूसरे की गढ़ी भाषा को भाव देने को तैयार न था। (येस्पर्सन, सेलेक्टेड राइटिंग्स, एलेन ऐंड अनविन, 744-45)

इसमें ऐसे ही शब्दों को जो यूरोप के अधिकांश भाषाओं में प्रयोग में आते थे लातिन की सहायता से कुछ बदलते हुए स्वीकार कर लिया गया। ऐन आन्सर – रेस्पोंडो, आर्मी – आर्मेदो, आर्ट- आर्तो, ऐरेस्ट – ऐरेस्तो, बैक- दोर्सो, बिफोर – ऐंताऊ, बिलो – सब, कार्ड- कार्तो, फ्लड- इनुंदो, नेटिव – इंडिजेनो, द नेचर – ला नैचुरा इत्यादि। नए शब्द गढ़ते समय लातिन से निकटता का ध्यान रखा गया था – नेटिव कंट्री – पैत्रोलांदो। उच्चारण सभी ध्वनियों का स्पष्ट, खूल कर किया जाता था। इसमें वक्ता या लेखक अपनी जरूरत के अनुसार नई व्यंजनाओं के लिए आसानी से शब्द गढ़ सकता था। इन सभी विशेषताओं के बाद भी इसे विश्व राष्ट्र संघ से एक भाषा के रूप में स्वीकार किए जाने और कुछ देशों , जैसे शाहकालीन ईरान से राजकीय प्रोत्साहन मिलने के बाद और सर्वमान्य संपर्कभाषा की आवश्यकता अनुभव करते हुए भी, यह भाषा उपेक्षित ही रह गई ।

यह भाषा चल नहीं पाई। कारण क्या है। एक कारण तो यही कि व्यापारिक और राजनीतिक धाक बनाए रखने के लिए संपर्क भाषा के रूप में भी इसे कोई स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं था। परंतु इसके अतिरिक्त भाषा की उत्पत्ति और बनावट संबंध में भाषाविज्ञानियों की समझ भी गलत थी और वे अपने असाधारण श्रम के बाद भी जल्दबाजी में काम कर रहे थे। किसी पहलू की गहराई से छानबीन नहीं कर रहे थे इसलिए भाषा की प्रकृति को समझने में उनसे चूक हुई थी। (आज कंप्यूटर ने किसी भी भाषा को किसी भी भाषा में कामचलाने लायक अनुवाद प्रस्तुत करके इस समस्या का एक नया हल निकाल लिया है जिसमें सब कुछ बचा रह गया है और इसके बाद भी सभी से संपर्क संभव है।)

मनुष्य के काम करने के नियम अलग होते हैं। वह सांचों में ढाल कर एक जैसी वस्तुएं बना सकता है, अधिक सुथरी चीजें बना सकता है, परंतु एक भी नई चीज उत्पन्न नहीं कर सकता। -प्रकृति असंख्य चीजें उत्पन्न कर सकती है और कोई दो चीज- एक ही पेड़ की दो पत्तियां तक एक जैसी नहीं हो सकती, फिर भी उसकी हर रचना का एक आंतरिक नियम होता है जिससे वह परिचालित होती है। मनुष्य निर्मित किसी वस्तु में आंतरिक विकास की क्षमता नहीं होती इसलिए उसे बनाया जा सकता है, उपयोग किया जा सकता है, परंतु वह स्वयं किसी चीज को उत्पादित नहीं कर सकता, अपने जैसे को भी नहीं।

भाषा विज्ञानियों ने आषा की उत्पत्ति के विषय में एक सार्वभौमिक नियम को समझा होता और उसी पर काम करते रहते तो और कुछ करते या नहीं भाषा की उत्पत्ति और भाषाओं के अंतर्संबंध की बहुत मार्मिक व्याख्या कर सकते थे और उस व्याख्या से उन सभी विसंगतियों का निराकरण हो गया होता जो सतही समझ के कारण दिखाई दे रही थी।

भाषा का यह सिद्धांत है कि हम जैसा सुनते हैं वैसा ही बोलते हैं। जो सुन नहीं सकते, वह बोल नहीं सकते। गूंगा बच्चा बहरा होता है। बहरा होने के कारण वह उस नाद जगत से भी अप्रभावित रह जाता है जिसे सुनकर एक शिशु अपनी ओर से वैसा ही बोलने के प्रयत्न मे अपने एकांत में तरह-तरह की ध्वनियाँ निकालता है जिसे हम शिशु संगीत कह सकते हैं। इसी क्रम में उसके सुनने की क्षमता में भी विकास होता है और बोलने की क्षमता भी पैदा होती है। जिसे जेनरेटिव ग्रामर ने एक रहस्यवाद में बदल दिया, मनुष्य में निसर्ग जात भाषिक क्षमता की कल्पना कर ली, वह एकांत में परिवेश ही संगीत का यही अनुकरण है जिसके सध जाने पर कुछ ही सालों के भीतर एक शिशु का अपनी भाषा पर बहुत अच्छा अधिकार हो जाता है।

यदि उन्होंने आदिम भाषाओं में अनुकारी शब्दों और व्यंजनाओं के बारे में गहराई से सोचा होता तो पता चल जाता कि विकसित भाषाओं की तुलना में आदिम भाषाएं अधिक समृद्ध क्यों है, और इसी गति से यदि हम पीछे चलें तो उनकी पूरी भाषा की बनावट समझ में आ जाती, अनुकारी शब्दों की संख्या क्रमशः बढ़ते हुए समग्र भाषा अनुकारी ध्वनियों का संजाल बन जाती।
गूँगों की सीमाओं को जानते हुए भी उन्होंने उससे सही शिक्षा ग्रहण नहीं की।

भाषाओं की प्राथमिक निजी संपदा बहुत सीमित थी, और सबकी प्राकृतिक परिवेश के कारण, अथवा प्रयत्न की भिन्नता के कारण अथवा जावट के अतर के कारण, सभी में भिन्नताएँ थीं और जहां ऐसी भिन्नता न हो वहां भी एक ही प्राकृतिक नाद का कई रूपों में उच्चारण किया जाता है और किया जाता रहा। भाषा के विकास में सबसे प्रधान भूमिका वायु और जल की है ताप और शीत का है। ऐसे ही दूसरे अनेक कारण हैं जिनमें से सभी का न तो हम ध्यान रख सकते हैं नहीं हमें ज्ञान है, परंतु सभी की व्याख्या इसी एक नियम से हो जाती है। भाषा के सभी घटकों की उत्पत्ति प्राकृतिक नाद के अनुनादन से संभव है और भारोपीय भाषा के संदर्भ में इसका विवेचन हम अपने आगे की चर्चा में करते रहेंगे।

Post – 2020-04-30

ज्ञानसाधना

न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते ।
तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ॥ गीता

संसार में ज्ञान से पवित्र कोई दूसरी वस्तु नहीं है। यदि लंबे समय तक मनोयोग पूर्वक आप किसी क्षेत्र में काम करते रहे हैं तो समय आने पर आपके भीतर से ही उस विषय का ज्ञान से पैदा होगा। जो बात इसमें निहित है वह यह कि ज्ञान, या तत्व दर्शन, किसी ग्रंथ या गुरु से नहीं प्राप्त हो सकता। किसी बाहरी स्रोत से उपलब्ध होने वाला ज्ञान सूचना और निर्देश मात्र है, ज्ञान नहीं हैं। इसकी सिद्धि करनी होती है ।

यदि ज्ञान से पवित्र कोई चीज नहीं है, तो ज्ञान प्रदर्शन से अपवित्र भी कोई दूसरी चीज नहीं होती।

भाषा के विषय में मैं जिस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं, उसने 40 बरस लगे हैं। काल दीर्घता से अधिक फर्क नहीं पड़ता, न यह इस बात की गारंटी है आप जिसे आज सत्य मान रहे हैं उसमें कोई सुधार संभव नहीं, परंतु अभी तक भाषा के चरित्र के विषय में, उत्पत्ति के विषय में, जो शंकाएं पैदा होती रही हैं, जिन्हें विचलित करने वाला मानकर उपेक्षा कर दी जाती रही है, उन सभी के उत्तर यदि किसी व्यवस्था में मिल जाएँ तो यह आश्वस्ति पैदा होती है कि हमने समस्या का हल पा लिया है ।

मैं बार-बार यह दोहराता आया हूं कि इस विषय पर पहले से प्रचलित मान्यताओं का मुझे ज्ञान है, परंतु उनकी सीमाएं पहचान लेने के कारण मैंने कभी उस पद्धति को अपनाने और उसमें निष्णात होने का प्रयत्न नहीं किया। यही मेरी शक्ति है, क्योंकि परिपाटीगत साधना की सबसे बड़ी सीमा यह है उसे अपर्याप्त पाने के बाद भी जब उससे आप अलग हटना चाहते हैं तो भी अधिक दूर होने का साहस नहीं जुटा पाते हैं। सब कुछ छोड़कर नए रास्ते पर पहुंचना, अब तक जो कुछ भी जुटाया था उसे लुटा कर कंगाल बनने का पर्याय बन जाता है। आरंभ में उन सीमाओं को पहचान लेने से आपको ऐसा रास्ता तलाशना होता है जिसमें खोने को कुछ नहीं है पाने की संभावना रहती है।

इस लेखमाला को पढ़ने वाले अधिकांश लोग उन विचारों और मान्यताओं से अवगत होंगे जो संस्कृत की महिमा अथवा आधुनिक भाषा विज्ञान की महिमा की कहानियों से पैदा हुई हैं। पुरानी परिपाटी से अवगत अथवा उनमें निष्णात व्यक्तियों के लिए है यह आसान नहीं है कि वे किसी ऐसी ही विचार पद्धति का सम्मान कर सकें जो उनकी परिचित अध्ययन-विधि से बिल्कुल अलग पड़ती हो। हमारे लिए उनकी सार्थकता केवल इसी बात में है कि वे जो कुछ जानते हैं और जिसे सही मानते हैं उससे अर्जित अंतार्दृष्टि से हमारे तर्कों प्रमाणों की कमियां निकाले और हमें भी उन पर पुनर्विचार करने का अवसर दें। इससे आगे बढ़कर पुरानी बातों को किसी रूप में दौरा ना ज्ञान प्रदर्शन है और जैसा कि हमने निवेदन किया, यह उतना ही अपवित्र काम है जितनी ज्ञान साधना पवित्र है। ऐसे लोगों की टिप्पणियों का उत्तर देने से खीझ पैदा होती है, विषय से विचलित होने का अंदेशा भी बना रहता है, काम में बाधा तो पड़ती ही है। ऐसी टिप्पणियों पर हम ध्यान नहीं देंगे और उन्हें निकाल देंगे।

Post – 2020-04-29

#शब्दवेध(21)
भाषा का महावट

अभी तक विद्वानों ने इधर का उधर का, कुछ भी, समेटते हुए भाषा की समस्याओं को, विशेषतः भाषा की उत्पत्ति को समझने का प्रयत्न किया है। महिमा विविधताओं का संचय नहीं होती, विविधता की संभावनाएँ उसके भीतर होती हैं। पैदा होने को बटवृक्ष मात्र एक क्षुद्र बीज से पैदा होता है और उसकी समस्त संभावनाएँ – यद् भूतं यच्च भव्यम् – बीज में ही निहित होती हैं।

ठीक यही हाल नाद से उत्पन्न भाषा का है। पर, यहाँ एक अंतर है. भाषा प्राकृत और कृत्रिम नाद का नैसर्गिक विकास नहीं है। मनुष्य द्वारा उन नादों काे, अपनी बोली की ध्वनि सीमा के कारण, जिस रूप में सुना गया है यह उसका वाचिक अनुकरण तो है, पर इसमें उसकी अपनी रुचि या भावना के अनुसार हस्तक्षेप का भी देखने में आता है (कृष्ण एक साथ कान्हा, कन्हाई, कन्नन, कनू कितने रूपों में पुकारे जाते हैं)। वही नाद बोली की ध्वनिमाला में भेद के कारण अनेक रूपों में सुना और बोला जा सकता था और एक बार उस रूप में अपना लिए जाने के बाद मनुष्य की अपनी भावना के अनुसार कई रूपों में बदला और समझा जा सकता है।

कल्पना करें कि आग पैदा करने के लिए अरणि मंथन से जो ध्वनि पैदा होती है उसे एक ही समय में चार ऐसी बोलियाें के लोग सुन रहे हैे जिन्हें वह क्रमशः ची ची, ती ती, दी दी, धी धी सुनाई देती है, या एक ने इसके लिए इनमें से कोई ध्वनि अपना रखी है और उसके गहन संपर्क में आने पर दूसरे समुदाय उसे अपनाते तो हैं पर उसे उन उन रूपों में सुनते और उच्चरित करते हैं जिसका आभास इनसे मिलता है। जब उन सभी का एक समुदाय में विलय हो जाता है तो एक ओर तो उस भाषा में इन सभी ध्वनियों का समावेश हो जाता है।

पहले इन ध्वनियों से आग के जलने के लिए जो आवर्ती ध्वनि और क्रिया और संज्ञा रूप चलन में आ गए थे वे सभी इस साझी भाषा में चलते रहते या ‘सही’ माने जाते हैं और फिर यह सूझता है कि इतने पर्यायों की आवश्यकता नहीं, क्यों न इनका विशेष अर्थ में प्रयोग करें । अब अनेक शब्द नए आशयों के लिए प्रयोग में आने लगते है।

जो शब्द नए अर्थ में रूढ़ हो जाते हैं उनके पहले के सभी प्रयोग बदले नहीं जा सकते थे, इसलिए इसके मूल अर्थ अनेक प्रयोगों में बचे रहते हैं जिनसे हम आश्वस्त हो पाते हैं कि पहले इस शब्द का प्रयोग आग के लिए होता था।

समस्या यहीं ठहरी नहीं रहती। किसी चरण पर वे ऐसे समाजों के संपर्क में आता है जिनकी ध्वनि माला में क्रमशः त और च की ध्वनि न थी, अपितु ट और स की ध्वनियाँ थीं। इसके मिलने के साथ ट की ध्वनि और दूसरी समीकृत बोलियों की धोष और महाप्राण के प्रभाव से कुछ नए रूप बनते हैं और इनको भी उस भाषा की संपदा में जगह मिल जाती हैं परंतु यह समुदाय पहले चरण पर संपर्क में नहीं आया था इसलिए इससे पैदा होने वाली शब्दावली अपेक्षाकूत कम होगी, और अमूर्त आशयों को ही प्रकट करेगी।

अब इस थका देने वाले सिद्धांत निरूपण को स्पष्ट और सूत्रबद्ध और उदाहृत करें तो वह निम्न प्रकार होगा:
भाषा का पहला चरण प्राकृत नाद या संगीत का वाचिक संगीत में ढालने का था, इसलिए यदि लय बनी रहे तो वाचिक ध्वनि कोई भी क्यों न हो, इससे अंतर नहीं पड़ता था।
यह संगीत आवर्ती ध्वनियों का अर्थात् क्रिया की बिशेषता को प्रकट करता था, इसलिए भाषा का आरंभ संज्ञा या क्रिया से नहीं क्रिया विशेषण से हुआ। संज्ञा अर्थात् वह वस्तु जिससे यह नाद फूटा, और क्रिया, जिससे यह नाद संभव हुआ उसका भी यह क्रिया विशेषण ही था।
आवर्ती ध्वनियों में आवर्तन को हटा कर, एकल बना कर संज्ञा और क्रिया का साझा पद बना – पानी – जल; पानी – (क)पानी बरस रहा है; (ख) पानी पिलाओ, (ग) आगे पानी है, बचो आदि। व्यंजना और आदेश कथन में आज भी इसका प्रयोग किया जाता है।
हमने अरणि मंथन (यह मेरी कल्पना है जो गलत सिद्ध हो सकती है) से उत्पन्न नाद के कारण हो या जैसे भी हम चिनगारी (चीं चीं> चिन्> +कार>कारी > चिनगारी, चिन+आर, चिनार- आग वाला, चिनचिनाहट, चिन्+ह (सं.चिह्न नहीं बोली का चीन्हल – पहचानना, चिन्हार – परिचित, चीन्हा – चिन्ह अधिक शुद्ध है)।
त. ती- आग, (माना जाता है कि तमिल में यह शब्द सं. से लिया गया है) , पर यह शब्द संस्कृत में दी था या धी यह तय करना होगा। नियम है कि सं. में जिन शब्दों मे घोष अल्पप्राण ध्वनियाँ पाई जाती हैं वे अधिकतर महाप्राणित रही हैं, धार-धार> धाधार > सं. दाधार, धाति > दाति (वे. दाति वारम्) अतः मूल *धी- आग था, जिसको बुद्धि, ध्यान, धारणा की दिशा में कई रूपों में स्थिर और रूढ़ कर दिया गया, परन्तु “धिकवल” – गर्म करना; धिक्कार – आग लगे या भाड़ में जाओ के आशय में प्रयुक्त भर्त्सना में आग का भाव बचा रहा। पूर्वी में ही इसका एक रूप दी चलता था जो दिकदिककाह – गर्म, देव आदि से प्रकट है। कौरवी प्रभाव में दी > द्य (द्याव- आकाश), द्यु -आदि बने। दी – दिवस, द्यौस़,दीप्ति, दीपक, द्युति आदि का जनक बना।
यहाँ रोचक है ‘ती’ जो संस्कृत से उस बोली में दी/धी के पहुँचने के बाद का रूप है वह सं. में भी वापस आता है ,अर्थात् संस्कृत के निर्माण क्षेत्र से सटे या उसके संपर्क में उस बोली का प्रयोग होता था जिसे आज केवल तमिल ने बचा रखा है। अतः दिवस का पर्याय *ति-ति > तिथि, और विकास तिलक,
तीत> तिक्त, लिलमिलाहट, प्र-तीक, तिग्म आदि रूप सामने आते है।
ट ध्वनि वाला समूह कुछ विलंब से संपर्क में आता है और इसलिए टीकुर – सूखी जमीन, टिकरी – सीधे आग पर सेंकी गई रोटी, टीस, को छोड़ कर शेष शब्दावली ज्ञानपरक – टीका, टीप, टिप्पणी, सटीक, ठीक आदि में ही दिखाई देती है।

Post – 2020-04-29

अभी आया जरा ठहरो
जरा ठहरो अभी आया
यही कहता गया है पर
कभी वापस न आएगा।।

Post – 2020-04-27

#शब्दवेध(20)
शीर्षासन से बचते हुए

सिर से अधिक काम लेने वाले समस्याओं को सिर के बल खड़ा करके अपने बुद्धिबल से चलाना चाहते हैं। बुद्धि पर कम भरोसा करने वालों को उन्हें पाँव पर खड़ा करना होता है।

कभी-कभी यह सोचकर आश्चर्य होता है कि इतने प्रकांड विद्वान जिनमें से कुछ इस बात को लेकर चिंतित भी थे कि ऐतिहासिक और तुलनात्मक भाषा विज्ञान गलत दिशा में जा रहा है, प्रयत्न करके भी उस मामूली बात को क्यों न सुधार पाए जिसके बाद सारी ऊहापोह स्वतः समाप्त हो जाती।

आरंभ में भाषा के विकास का जो जीवविज्ञानी समाधान निकालने का प्रयत्न किया गया था उसकी सीमाओं को लक्ष्य करके क्षेत्रीय सिद्धांत और भाषाई भूगोल के माध्यम से भी इस गुत्थी को सुलझाने का विचार कुछ लोगों के दिमाग में आया था। वास्तव में वे भाषा की उत्पत्ति को नहीं, भारोपीय के प्रसार की गति-विधि (डाइनैमिक्स को समझना चाहते थे। उसका कुछ प्रभाव लगता है माधव देशपांडे पर भी हुआ है। वह जिस उम्मीद को लेकर इस अध्ययन से उत्साहित थे, वह उन्हीं के अनुसार निम्न प्रकार है:
Hypotheses on Indian vocabulary.
The following hypotheses govern the semantic clustering attempted in this lexicon.
I. It is possible to re-construct a proto-Indian idiom or lingua franca of circa the centuries traversed by the Sarasvati-Sindhu doab civilization (c. 2500 to 1700 B.C.).
I. India is a linguistic area nurtured in the cradle of the Sarasvati-Sindhu doab civilization.

नहीं। ये पूर्वानुमान भाषा की उत्पत्ति और विकास की दिशा को समझने में संपादक की असमर्थता को प्रकट करते हैं। लगता है उत्साह सामान्य बोध पर भारी पड़ा है। इससे जो इकहरापन और असंतुलन पैदा हुआ है, वह किसी आलोचक के फूँक से भी धराशायी हो सकता है और इतने परिश्रम से जुटाई गई सामग्री वह भूमिका भी प्रस्तुत करने में विफल रह सकती है, जिसका अधिकार अन्यथा इसे था। सचाई की तलाश को छोड़कर किसी आशय से किया जाने वाला अनुसंधान, चाहे वह कितना भी पवित्र हो, दृष्टि को वर्णांध बना देता है, और उपलब्ध आंकड़ों में चुनाव, उनके वर्गीकरण और विश्लेषण सभी को प्रभावित करता है। हर एक खोज के पीछे एक दृष्टि और प्रेरणा होती है उसी से अनुसंधाता को दिशा भी मिलती है परंतु विवेचन के समय उसे अपने को निरपेक्ष और निर्वैयक्तिक बनाना होता है।

जब हम किन्ही भाषाओं की उत्पत्ति की बात कर रहे हैं तो यह काम शब्दावली से नहीं किया जा सकता, धातु तक के सिरे से नहीं किया जा सकता, इसके लिए हमें उन शब्दों और धातुओं के स्रोत तक पहुंचना होता है जहां से वह नाद पैदा होता है। इसका ध्यान न तो बरो और इमैनो ने रखा, न ही उन अध्येताओं ने – ब्लॉख, सिल्वयाँ लेवी, प्रित्सलुस्की, बागची और चटर्जी ने रखा जिनके निबंध प्री-आर्यन एंड प्री-ड्रैविडियन इन इंडिया- मैं संकलित है और जो संस्कृत के धातुपाठ से प्रेरित और बरो तथा इमेनो के प्रेरक रहे हो सकते हैं, और जो ही उनके कामों के लद्धड़पन के कारण बने लगते हैं। देशपांडे ने उनकी सीमाओं से कुछ नहीं सीखा और अनेक बातों में असावधानी बरती जिसकी उनके जैसे प्रबुद्ध विद्वान से अपेक्षा नहीं थी।

वह यह कैसे मान सके कि प्रोटो इंडियन से भारत के सभी भाषा-परिवारों की आदि भाषाएँ और उनसे उनकी बोलियां निकली, जिनमें से एक की बोलियां पूरब में मेगानेशिया (Maganesia) – जावा-सुमात्रा – तक और पश्चिमोत्तर में उक्रेन और फिनलैंड तक फैल गई, दूसरी एलाम (Mac Alpin, David W. 1974 Dravidian and Elamite: A Real Break-through ? JAOS,Vol. 93, No.3, 384-85 Elamite and Dravidian: Further Evidence of Relationship, Current Anthropology, Vol.16, No.1, 105-15) तक जा पहुँची।

इसके बाद भी उनका कोश इस दृष्टि से बहुत उपयोगी है कि पहली बार इतनी विपुल शब्दावली (8000) भाषा-परिवारों की सीमा पार करके इतने प्राचीन चरण पर साझी संपदा के रूप में पेश की गई है।

इस दल को इस सीधे सादे प्राकृतिक नियम का और विकासवादी संकेतों का ध्यान रखना चाहिए था किआरंभिक आहारसंग्रही चरण पर बड़े जत्थों का एक साथ निर्वाह नहीं हो सकता था। यदि भाषाओं में विविधता है तो वह आरंभिक चरण से रहा होगा। जैसे छोटे समुदायों के परस्पर मिलने से विशाल समाज की रचना होती है उसी तरह उन समुदायों की बोलियों के मिलने से बहुत बड़े संपर्क क्षेत्र में समझी और बोली जा सकने वाली उन्नत भाषाओं का प्रसार, बोलियों के ऊपर होता है । इसकी भी एक लंबी सामाजिक-आर्थिक प्रक्रिया है जिसका चरम बिंदु शहरीकरण है। पारस्परिक मिलन और विलय बहुत पहले से होता रहा होता है। भाषा के विकास को सामाजिक- आर्थिक विकास क्रम से अलग रखकर देखने वाले हमेशा गलती करेंगे और यही आज तक होने वाली गलतियों का प्रधान कारण है।

इस दल से ठीक वही चूक हुई जो उनसे पहले त्रांबेत्ती से हुई थी। जो साझेदारी प्राकृतिक आपदा (हिमयुगीन) के कारण भारत में असंख्य जत्थों के संगम में लक्ष्य की जानी थी उसे उन्होंने भारत से बिखराव के रूप में देखा। जो साझेदारी भारतीय बोलियों में कृषि के आरंभ से लेकर शहरीकरण तक के आर्थिक विकास के क्रम में पैदा हुई उसे इन्होंने उलट कर देखा और एक आद्य भारतीय भाषा से भारत की सभी भाषाओं की उत्पत्ति दिखा दी। पूरी तस्वीर ही उल्टी पेश कर दी।

हमारा अपना योगदान उल्टे को सीधा खड़ा करने का है। उल्टे सिरे से सहारा देने पर जो खड़ा दीखता था पर डाँवाडोल रहता था पर चल नहीं सकता था, सीधा खड़ा करने पर वही चलने ही नहीें दौडने भी लगता है और कहीं ठोकर नहीं खाता।

Post – 2020-04-26

#शब्दवेध (19)
मामला गड़बड़ है

तुलनात्मक और ऐतिहासिक भाषा विज्ञान की कोई कड़ी ऐसी नहीं है जो एक दूसरे से जुड़ती हो। अपनी जरूरत के कारण जिन लोगोे के द्वारा इन कड़ियों को गढ़ा गया वे यह जानते हुए भी कि ये एक दूसरे से जुड़ नहीं पा रही हैं, इन्हें पास पास सटा कर इस तरह रखा गया कि इनसे एक श्रृंखला का भ्रम पैदा हो सके ।

उदाहरण के लिए विलियम जॉन्स को पता था संस्कृत का पूर्वरूप भारत के बाहर कहीं भी नहीं मिलता। इसके बाद भी जबरदस्त के ठेंगे की तरह यह विचार भारतीय संस्कृतविदों पर प्रलोभन, प्रशस्ति, और सत्ता के प्रयोग के बल पर लादने में समर्थ रहे कि न केवल संस्कृत, बल्कि संस्कृत बोलने वाले ब्राह्मण भी, भारत में अपनी भाषा लिए बाहर से आए हैं। इसके साथ ही वह यह विश्वास भी दिला सके कि सबसे प्राचीन और सभी दृष्टियों से लातिन और ग्रीक से श्रेष्ठ सिद्ध होते हुए भी, संस्कृत उनकी जननी नहीं है।

अपने अंतिम प्रस्ताव में वह गलत नहीं थे, व्यंग्य यह कि सही भी नहीं थे। जिस संस्कृत से वह परिचित थे, वह पाणिनीय व्याकरण द्वारा अनुशासित और जानबूझकर दुरूह बनाई गई भाषा थी, जिसे दुरूह बनाया ही गया इस इरादे से था कि सामान्य जन इसे बोलना तो दूर, समझने मे भी कठिनाई अनुभव करें। इसका साहित्य 500 ईसा पूर्व से पहले का नहीं हो सकता था। यह सचमुच केवल ब्राह्मणों के भीतर बीच प्रचलित भाषा थी। इसका प्रसार हुआ ही नहीं था। जिस काल मे मूल भाषा का पूरे भारोपीय क्षेत्र में प्रसार हुआ था वह इससे 2000 साल या इससे भी पहले था और वह इसका पूर्वरूप और कई दृष्टियों से इससे भिन्न भाषा थी।

अपनी खोज में वह जिस मूल भाषा को इन सभी भाषाओं की जननी सिद्ध करना चाहते थे उसे तलाशते हुए नोआ की संतानों तक पहुंच गए और अंत में घोषित कर दिया वह भाषा तो मिली नहीं। किसी मान्यता कि इससे बड़ी विडंबना क्या हो सकती है। परंतु वह बड़ी विडंबना भी इस रूप में घटित हुई लगभग 200 साल तक लोग उस बेतुकी मान्यता को इतिहास का सच मानकर इतिहास कि आप्तता को उसकी कसौटी पर कसते रहे। इसे मान्य बनाने के लिए तुलनात्मक भाषा विज्ञान के सिद्धांत बनाए जाते रहे. ध्वनि-नियम तैयार किए जाते रहे, कल्पित भाषा के शब्दों मूलों के कोश तैयार किए जाते रहे।, मूल देश कौन सा था इस पर अटकलें लगाते हुए ठिकाने बदले जाते रहे, केवल भारत को विचार की परिधि से बाहर रखा जाता रहा और भारतीय बोलियों का संस्कृत से क्या संबंध है इसे लेकर सुझाव बदले जाते रहे।

विलियम जोंस के समय अपनी विकसित भाषा और संस्कृति लेकर आने वाले सज्जन निर्मम, असभ्य, युद्धोन्मादियों में बदले जाते रहे। वे सभ्य से असभ्य और फिर सभ्य ( जरूरत पड़ने पर सभ्य असभ्य दोनों एक साथ) सिद्ध किए जाते रहे और इतिहास की इस बेमिसाल हुड़दंग के बीच वह निराधार अटकलबाजी इतनी अचल बनी रही कि तिळक जैसा देशाभिमानी विद्वान तक इसके झाँसे में ही न आ गया, इस हुड़दंग में शामिल भी हो गया।

गड़बड़ इतनी कि इसके समर्थन मे खड़े होने वाले किन्हीं दो विद्वानों के विचार सभी बातों में एक जैसे नहीं मिलते, जिसे इबारत बदल कर कहें तो सभी मानते हैं कि कहीं कुछ गड़बड़ है और इसी परिधि में कुछ दाएँ बाएँ हो कर सुधारने का प्रयत्न करते हुए वह एक नई गड़बड़ी पैदा करके हाथ खड़े कर देते रहे हैं।

जहाँँ बुनियाद ही टेढ़ी हो वहाँ इमारत को खंभों और बल्लियो के जोर से सीधा नहीं किया जा कसता। टेढ़ी नींव के कोण पर उसकी गहराई में उतर कर भी बनावट की कमी को न तो समझ सकते हैं।

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मैक्स मूलर ने या सुझाव दिया था ऐतिहासिक भाषाविज्ञान की जरूरी शर्त है कि वह आदि भाषा तक पहुँचे। बायोग्राफी ऑफ वर्ड्स में उन्होंने स्वयं भी इसका प्रयत्न किया और संभवतः असाध्य मानकर छोड़ दिया। उसके बाद तीन साहसिक प्रयत्न किए गए और तीनों मोटे तौर पर एकमूलीयता (monogenesis) सिद्धांत के शिकार बन गए, जो ऐतिहासिक भाषाविज्ञान के चिंतन में आरंभ से ही हावी रहा है।

हमारी दृष्टि में इनमें सबसे साहसिक और, एकमूलीयता के बाद भी वास्तविकता के सबसे निकट अलफ्रेडो त्रांबेत्ती ( Alfredo Trombetti) का (L’unità d’origine del linguaggio, 1905) का यह मंतव्य था कि विश्व की सभी भाषाएं भारत से निकली हैं। इसके समर्थन में उन्होंने भाषा के विविध तत्वों की तुलना करते हुए यह दिखाया था की भाषा परिवार की सीमा को लाँघते हुए संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण आदि सभी मामलों में मिलते जुलते शब्द दूसरी भाषाओं में पाए जाते हैं और इनका केंद्र भारत है। यह मान्यता आधी सच और आधी गलत है। सचाई के सबसे निकट क्यों है इसे अलग से बताने की जरूरत नहीं। हम विगत हिम युग में भारत को सबसे सुरक्षित शरण स्थल पाकर यहां लंबे समय तक आपस में टकराते हुए बसने वाले असंख्य समुदायों की बात हम कर चुके हैं।

दूसरी मान्यता जो लगभग ठीक उसी आसपास आई थी उसे होल्गर पीटरसन (Holger Pedersen) ने तुर्की भाषा पर विचार करते हुए अपने एक लेख में प्रस्तुत की थी जिसके सार को उनके ही शब्दों में रखे तो वह निम्न होगा:
Very many language stocks in Asia are without doubt related to the Indo-Germanic one; this is perhaps valid for all those languages which have been characterized as Ural–Altaic. I would like to unite all the language stocks related to Indo-Germanic under the name “Nostratic languages.” The Nostratic languages occupy not only a very large area in Europe and Asia but also extend to within Africa; for the Semitic-Hamitic languages are in my view without doubt Nostratic.

प्रोटो नोस्त्रातिक (Proto-Nostratic) ‘हमारी आद्य भाषा’ के विषय में उनका ख्याल था कि यह (15,000 -12,000 BCE) में विगत हिमयुग के अंतिम काल में बोली जाती थी। पीडरसन ने अपनी मान्यता का विधिवत प्रतिपादन नहीं किया इसलिए यह सिद्धांत भी चर्चा में तब आया जब रूसी विद्वान इल्यिच स्वित्यच ( Illich-Svitych) और दोग्लोपोल्स्की (Dolgopolsky) ने 1960 के दशक में इसका विस्तार से प्रतिपादन किया।
इसके विषय में अधिक विस्तार में जाने की जरूरत इसलिए नहीं है, कि इसे भाषाविज्ञानियों के बीच स्वीकार्यता नहीं प्राप्त हो सकी।

तीसरा साहसिक प्रयत्न इमेनो ने इंडिया ऐज ए लिंग्विस्टिक एरिया(1956) में किया था जिसमें उन्होंने यह तो स्वीकार किया था कि भारतीय भाषाओं के पारिवारिक विभाजन का तिरस्कार करते हुए अनेक प्रयोग, जिनके कुछ केंद्र हैं, पूरे भारतीय भूभाग में फैल जाते हैं और भारतीय, आज के शब्दों में कहें तो, दक्षिणी एशियाई भौगोलिक सीमाओं को पार नहीं कर पाते। इमेनो इससे अधिक का साहस नहीं कर सकते थे, क्योंकि वह आर्यों की जाति और भारत पर उसके आक्रमण के, या किसी न किसी रूप में भारत में प्रवेश के, दुराग्रह से बाहर नहीं आ सके थे। बरो के साथ द्रविडियन एटीमोलॉजिकल डिक्शनरी के संकलन और संपादन के क्रम में फिर वही समस्या पेश आई और इसका एक काम चलाऊ हल निकाल कर संतोष कर लिया।

जहां पहुंचकर इमेनो रुक जाते हैं, उससे आगे बढ़ने का प्रयास माधव देशपांडे ने इंडियन लेक्सिकन के माध्यम से करने का प्रयास किया है जिसकी प्रस्तावना Discovering the language of India circa 3000 B.C. की कुछ पंक्तियां यथातथ्य देना सही होगा:
This is a comparative study of lexemes of all the languages of India (which may also be referred to, in a geographical/historical phrase, as the Indian linguistic area).
This lexicon seeks to establish a semantic concordance, across the languages or numraire facile of the Indian linguistic area: from Brahui to Santali to Bengali, from Kashmiri to Mundarica to Sinhalese, from Marathi to Hindi to Nepali, from Sindhi or Punjabi or Urdu to Tamil. A semantic structure binds the languages of India, which may have diverged morphologically or phonologically as evidenced in the oral tradition of Vedic texts, or epigraphy, literary works or lexicons of the historical periods. This lexicon, therefore, goes beyond, the commonly held belief of an Indo-European language and is anchored on proto-Indian sememes.
The work covers over 8,000 semantic clusters which span and bind the Indian languages. The basic finding is that thousands of terms of the Vedas, the Munda languages (e.g., Santali, Mundarica, Sora), the so-called Dravidian languages and the so-called Indo-Aryan languages have common roots. This belies the received wisdom of cleavage between, for example, the Dravidian or Munda and the Aryan languages.

यहां तक लेखक के विचार से हमारी कुछ दूर तक सहमति है, परंतु जब एक आद्यभाषा से भारत की सभी भाषाओं की उत्पत्ति का प्रस्ताव रखते हैं तो एकमूलीयता की उसी व्याधि के शिकार हो जाते हैं जिसके शिकार भाषापरिवार की अवधारणा से ग्रस्त एक आद्यभाषा से बहुत सी भाषाओं की उत्पत्ति की कल्पना करने वाले रहे हैं। इसके बाद भी यह अध्ययन उस संपर्क भाषा को समझने में हमारे लिए बहुत उपयोगी सिद्ध होता है जिसका प्रयोग वैदिक काल का औद्योगिक और व्यापारिक गतिविधियों में लगा हुआ वर्ग करता था।

Post – 2020-04-25

#शब्दवेध(18)

किसी भी व्यवधान के कारण विषय पर पूनः लौटते समय पिछली कड़ी से जुड़ पाना मेरे लिए आसान नहीं होता। बीच में अपनी अध्ययन विधि के उन पहलुओं के विषय में अपनी स्थिति स्पष्ट करते रहना होता है, जिनके विषय में, मेरे अनुमान के अनुसार, पाठकों के मन में आशंकाएं पैदा होती होगी। दो कारण हैं, पहला यह कि मैं पेशेवर भाषाविज्ञानी नहीं हूँ। मुझे तुलनात्मक और ऐतिहासिक भाषा विज्ञान के क्षेत्र में किए गए काम की जितनी जानकारी है उससे अधिक, उसकी विकास दिशा उस क्षेत्र में किए गए कामों से असहमति है। और मैं भी जानता हूं कि मेरी तर्क और प्रमाण जितने भी निर्णायक क्यों न हों, बीच-बीच में उनकी विश्वसनीयता को देखकर पाठकों के मन में संदेह होना स्वाभाविक है, और इसे दूर करना मेरी जरूरत भी है।

हमने शब्द विचार करते हुए सोचा क्यों न यह चर्चा ‘शब्द’ की उत्पत्ति से आरंभ की जाए और फिर मुख से उच्चरित होने वाली कुछ अन्य ध्वनियों को लेकर भी यह दिखाया कि जितने भी शब्द हैं, भले वे पहली नजर में अनुकारी न प्रतीत हों, वे हैं अनुकार-परक ही। भाषा के दूसरे पर्यायों – वाक्, वाणी, वाशी, भणिति, के साथ भी ऐसा ही है। इनकी उत्पत्ति का भी संक्षिप्त उल्लेख करना होगा। इससे भी पाठकों के मन में बेचैनी हो सकती है कि 99.9 प्रतिशत पढ़े लिखे लोग अपने शब्द भंडार से इतने संतुष्ट होते हैं और शब्द के मर्म को समझने को इतना नीरस पाते हैं कि मामूली संदेह होने पर भी, सामने कोश पड़ा हो तो भी, उसमें शब्दों का अर्थ नहीं देखते, फिर क्या इस लेखमाला को ऊब कर बेहोश होने तक हमें इस ‘फालतू’ चर्चा में उलझे रहेंगे। उन्हें संशय होगा कि क्या हम एक नए किस्म का व्युत्पत्तिपरक शब्दकोश का निर्माण करना चाहते हैं चाहते है?

हमारा लक्ष्य कोश निर्माण नहीं है, मात्र यह दिखाना है कि हमारी आधारभूत समग्र शब्दावली प्राकृतिक नाद के वाचिक अनुनादन या अपनी ध्वनि सीमा में अनुकरण से पैदा हुई है। हम बहुत पहले कह आए हैं कि चिर आदिम अवस्था में मनुष्य को जितने सीमित संसार और गतिविधियों में सिमटा रहना पड़ता था उसमें उसका काम इक्के दुक्के व्यंजनों और स्वरों से चल सकता था। ये अक्षर आरंभ में किस रूप में उच्चरित हुए और होते रहे थे, इसका सही अनुमान आज नहीं लगाया जा सकता। परंतु अपना काम चलाने के लिए हम उनके उस वर्ण या वर्णों की पहचान वर्णमाला के किसी अक्षर को इसके लिए चुन सकते हैं भले वह अल्पप्राण या महाप्राण या विविध यूथों में कुछ भिन्न। स्वरों में ई और ऊ की भूमिका अधिक स्पष्ट रही लगती है। यह भी मात्र अनुमान है क्योंकि नितांत पिछड़ी अवस्था में ठहरी रह गई आदिम बोलियों से जिस चरण पर हमारा परिचय होता है, उस समय तक वे कई बोलियों के संपर्क में आकर पहले की अपेक्षा बहुत बदल चुकी और समृद्ध हो चुकी रहती हैं।

जब हम आदिम शब्दावली की बात करते हैं तो हमारा अभिप्राय भाषा के घटकों के जोड़-तोड़ से शब्दनिर्माण से पहले के चरण की भाषा से होता है जिसके भी कई चरण समुदायों के मिश्रण और नई ध्वनियों और शब्दों के समावेश के अनुसार हो सकते हैं। प्रकृति के नियमों को समझते और उसके साथ छेड़छाड़ ने क्रम में जहाँ से अपने जोड़-तोड़ से नए औजार बनाने लगा वहीं भाषा के आदिम चरण के घटकों या शब्दों के जोड़तोड़ से न कि प्राकृत ध्वनियों अनुकरण से नए शब्दों का निर्माण करना आरंभ किया।

यह भी एक काम चलाऊ स्पष्टीकरण है, क्योंकि उस अवस्था तक वह प्राकृत ध्वनि में एक आध अक्षर जोड़कर, बदलकर, नई वस्तुओं, क्रियाओं, भावों आदि के लिए शब्द गढ़ लिया करता था, परंतु ये अक्षर सार्थक शब्द नहीं हुआ करते थे, जबकि दूसरी अवस्था में पुरानी युक्ति से तो काम लेता ही रहा, पुराने सार्थक शब्दों को भी जोड़ कर नए शब्द बनाने लगा। इस अंतर को हमने विस्तार से आर्य-द्रविड़ भाषाओं की मूलभूत एकता (1973, अब ‘आर्य-द्रविड़ भाषाओं के अंतःसंबंध स्पष्ट करना उपयोगी होगा:
प्राकृत अवस्था
पत्
पत्ते के गिरने से उत्पन्न ध्वनि > पात > पातर > पतरी > सं- पात्र >अ. पॉट> पॉटरी (pot> pottery); पट, पटु, पटल (अं. पेटल, बाटल) आदि।
पानी की बूँद की आवाज > भो. पत = पानी, पातर = सांद्रता में क्षीण> पन> पानी, आदि।
पाँव के जमीन पर पड़ने की आवाज> पत/ पद/ पाद > पथ/पाथ > पथ्य => पाथेय, आदि।
पक्षी के पंख फड़फड़ाने का आवाज, *पत- पंख, पतत्रि. पताका, पतन – उड़ान आदि।

कृत्रिम
प्रा. पाती, सं. पत्र> ताम्रपत्र> पत्राचार; पटवारी/पटेल/पाटिल, आदि।
*पत> पतवार, *पथ/पाथ > पाथोज, *पद> पद्म; *पन – पानी आदि।
पदाति, पादप, पदवी, पद्य, पाद्य, पादुका आदि।
पतंग, पतत्रि = पक्षी; पतत्रिन् =तीर, पताकिन= ध्वजवाहक

हम केवल यह दिखाना चाहते हैं की भाषा के सभी प्रथमिक शब्द और घटक प्राकृत संगीत – सूनृता वाक – के स्फुट नादों के वाचिक अनुनादन से उत्पन्न हुए हैं और उनके ही जोड़-तोड़ से हम आज भी आवश्यकता होने पर नई शब्दावली गढ़ कर तैयार करते हैं।

यह बात केवल हम नहीं कह रहे हैं। भाषा की उत्पत्ति की समस्या पर विचार करने वाले सभी भाषाविज्ञानी सिद्धांत रूप में इसे मानते हुए भी इसके लिए पर्याप्त प्रमाण जुटा न पाने के कारण हार कर यह नतीजा निकाल लेते रहे हैं कि अनुनादन या अनुकरण से एक सीमित शब्दावली ही निकली है (इमेनाे, इंडिया ऐज ए लिंग्विस्टिक एरिया रीविजिटेड, 1956), इसलिए वे इस समस्या को असाध्य मानकर चुप लगा जाते रहे हैं।

हाल के वर्षों में कुछ अध्येता भाषा परिवार पुरानी अवधारणाओं को अपर्याप्त और दोषपूर्ण मान कर नया समाधान तलाश तो रहे हैं पर वे किसी प्रोटो लैंग्वेज से भाषाओं की ग्रंथि से मुक्ति न पाने के कारण गलत दिशा में चले जाते हैं। ऐसे ही एक अध्येता मिशिगन विश्वविद्यालय में एमेरिटस प्रोफेर माधव देशपांडे हैं जिनकी चर्चा हम कल करेंगे।

Post – 2020-04-24

#अरे_इन_दोउन…(3)

लेखक का काम अपने पाठकों को उत्तेजित करना नहीं होता, उनके आवेगों को उभारना नहीं होता, अपने पूर्वाग्रहों को उन पर लादना भी नहीं होता। लिखते समय उसे आत्मबद्धता के दृश्य अदृश्य सभी आवरणों से बाहर निकल कर, यथासंभव यंत्रवत निरपेक्ष हो कर, आकलन करने का प्रयत्न करना होता है, जिससे वह अपने पाठकों को क्षुब्ध नहीं, प्रबुद्ध बना सके जिससे वे अधिक संतुलित होकर, वस्तु स्थिति पर विचार करते हुए, अपने निर्णय ले सकें। कम से कम मैं इसे ही अपने लेखन की सार्थकता , मानता हूँ और जहां ऐसा नहीं कर पाता वहां अपने लेखन को विफल मानता हूं। यह आसान काम नहीं है, और यांत्रिक पूर्णता के साथ इसका निर्वाह भी नहीं किया जा सकता, केवल प्रयत्न किया जा सकता है। वह मैं अवश्य करता हूं।

इसके लिए मैं जो सावधानी बरतता हूँ वह यह कि मैं किसी घटना के घटित होते ही अपनी कोई प्रतिक्रिया नहीं देता सूचना के सभी स्रोतों से मिलने वाले संकेतों के आधार पर मैं उसी घटित को देखने समझने और निश्चित करने का प्रयत्न करता हूं। मैंने पाया है कि अपने को अनुकरणीय मानने वाले अधिकांश मित्र इतने धैर्य और तटस्थता का निर्वाह नहीं करते। बी पहले से अपनाए गए किसी मत के अनुकूल पड़ने वाले तर्कों और प्रमाणों को, उनके लचर होने के बाद भी स्वीकार कर लेते हैं, और उनके विपरीत पड़ने वाले प्रमाण और तर्क यदि इतने निर्णायक हों कि उनका प्रतिवाद न किया जा सके, तो भी उन्हें स्वीकार करने की जगह चुप लगा जाते हैं, या पढ़ना और सुनना बंद कर देते हैं, या उत्तेजित हो जाते हैं। गलत होने से उन्हें डर लगता है। मैं यह मान कर चलता हूं गलतियां मुझसे होंगी और उन्हें जानने समझने और उनके अनुसार अपने विचारों में परिवर्तन करने के लिए तैयार रहता हूं। यही मेरा कवच है, और कवच भी ऐसा जो अभेद्य है। गलती जानने के बाद सुधार कर लेने वाले को आप गलत नहीं सिद्ध कर सकते।

कोई धारणा बनाने से पहले अपनी योग्यता और सुविधा के अनुसार पूरी पड़तात करने का प्रयत्न करता हूँ जो प्रायः लेखमाला का रूप ले लेता है। इसके बाद जो मत स्थिर होता है उसे सुविचारित मत, परंतु अंतिम सत्य नहीं मानता। कल रात लिंकन के जीवन चरित के नोट पढ़ने में लगाया और अपनी पोस्ट पूरी न कर सका। कुछ पंक्तियाँ बहुत प्रेरक और मेरी प्रकृति के अनुकूल और आज की बहस के लिए सार्थक लगींः
“I am slow to learn and slow to forget. My mind is like a piece of steel – very hard to scratch anything on it, and almost impossible after you get it there to rub it out.”
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politicians [“and intellectuals affiliated to realpolitik”, BS] are lower breed, more often tricky than honest.
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The republican candidate for governor of Illinois, saying on stump, “I know some folks are asking, who is old Abe? I guess they will soon find out. Old Abe is a plain sort of a man, about six feet four inches in his boots, and every inch of him Man. I recollect two years ago at a little party a very tall man went up to Lincoln and said, ‘Mr. Lincoln, I think I am as tall as you are.’ Lincoln began to straighten himself up and up, until his competitor was somewhat staggered, “Well, I thought I was,’ said he, now doubtful. ‘‘But’ says Lincoln, straightening himself still higher, there’s a good deal of coming up in me,’ and he came out two inches the higher.
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In the day’s mail for Lincoln came letters cursing him for an ape and a baboon, who had brought the country evil. Also letters told him, he was a satyr, a Negro, a buffon, a monster, an idiot; he could be flogged, burned, hanged, tortured… some letters were specific that a rifle shot would reach him before he reached Washington for the ceremony of the inauguration as President.
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Hanna Armstrong…”They will kill you Abe!”
“Hanna, if they do kill me, I shall never die another death.”

सबसे डरावनी, तोप से भी अधिक चूर चूर करने वाली गालियाँ । सच वही कह सकता है जो अपमान से न डरे। मुझे प्रेरित करने वाली पंक्तियाँ मनुस्मृतिकार की हैं:
सम्मानाद्ब्राह्मणो नित्यं उद्विजेत विषादिव । अमृतस्येव चाकाङ्क्षेदवमानस्य सर्वदा. (बुद्धिजीवी को सम्मान से इस तरह उद्विग्न होना चाहिए मानो यह विष हो और अपमान के लिए इस तरह तैयार रहना चाहिए मानो यह अमृत है।)

जब मैंने अपने लंबे अन्वेषण के बाद यह पाया कि हिंदू समाज संकटग्रस्त समाज है, कुछ समय तक मैं भी संशय मे रहा कि इसे इस रूप में रखना क्या समाज की मानसिकता के लिए हितकर होगा। और फिर प्रतिवाद आया इस पर पर्दा डालना, गफलत में पड़े रहना, समाज की मानसिकता और सुरक्षा के लिए हितकर होगा? और मैंने इसे बहुत पहले कारण और परिणाम, तर्क और प्रमाण देते हुए सार्वजनिक किया।

जिस घटना ने मेरे संयम को दुबारा झकझोर कर रख दिया कि मैं अपनी लेखमाला से हट कर इसके आयामों को समझने और सार्वजनिक करने को बाध्य हुआ वह भारतीय इतिहास की अनन्य और यहूदी निर्मूलन की याद दिलाने वाली घटना है:

1. वे साधु किसी गलती या अफवाह के कारण नहीं अपनी हिंदू पहचान के कारण यातनावध के शिकार हुए, क्योंकि उनके यातनावध से पहले उनका पूरा परिचय मिल चुका था।

2. भीड़ प्रायोजित थी, पर पहले उन्मत्त नहीं थी। उसे एक मामूली महिला सरपंच ने समझा बुझा कर दो घंटे तक उत्तेजित माहौल में भी रोक रखा था।
उनकी असुरक्षा उनकी सुरक्षा के लिए आई पुलिस के साथ बढ़ी यह कहना भी आधा सच है, यह काशीनाथ के (संभवतः यह जानने के बाद कि अभी तक कुछ हुआ क्यों नहीं) स्वयं पहुँचने के बाद, उनका नाम लेते हुए, (अर्थात् जिसने भेजा था वह स्वयं आ गया अब तो कुछ करना ही होगा) इतना प्रचंड हुई।

3. पुलिस को क्या किसी ने संकेत किया कि तुम बीच में न आओ और उसके बाद पुलिस जो अपनी सुरक्षा में आए साधुओं को – तीन ही तो थे -अपनी गाडी में लेकर घटना स्थल से रवाना हो सकती थी या भीड़ को तितर बितर करने के लिए जरूरी कर्रवाई कर सकती थी, उसने अपने संरक्षण में आ चुके साधुओं को स्वयं धक्का दे कर भीड़ को सौंप दिया।
इस पूरे दौरान वह नेता वहीं रहा, पुलिस वहीं रही, और तमाशे का मजा लेती रही। किसी ने लाशों पर डंडे बरसाने वालों को हाथ के इशारे से भी रोकने का प्रयत्न नहीं किया।

4. जो सबसे आश्चर्यजनक है वह किसी के नाखून के गलत कट जाने पर इसे इतिहास की सबसे बड़ी त्रासदी के रूप में पेश करने की होड़ लगा लेने वाले बुद्धिजीवी और चैनल, किसी भी हत्या या अपराध के लिए बिना किसी ठोस जानकारी या पड़ताल के अपराधी तय करके उसको जल्द से जल्द फाँसी पर चढ़ाने के लिए हंगामा करते रहे हैं कि कहींं जाँच पूरी होने पर शिकार हाथ से न निकल जाए, उनकी चुप्पी या उल्टी व्याख्याएँ।

5. परन्तु जो उससे भी चिन्ताजनक स्थिति है वह यह कि आप इसकी शिकायत नहीं कर सकते, किया तो माना जाएगा आप समाज में घृणा का प्रचार कर रहे हैं। जिन्होंने घृणित काम किया है उनके सभी गुनाह माफ करने वाले घृणा का प्रचारक कह कर उसका गुनाह आप के सिर डाल कर आप की हत्या कर देंंगे। आतंकवादियों को बचाने वाले हिंदू टेरर पैदा करते रहे हैं, आगे बहुत कुछ करते रहेंगे और अपना चेहरा नंगा कर देने के बाद शिफर भी होते जाएंगे। इतिहास के महारथ का पहिया अकड़ कर रास्ते में आने वालों को पीसता आगे बढ़ जाता है।

Post – 2020-04-24

#अरे_इन_दोउन -2
जो नया लगता है वह नया नहीं है। इसकी जड़ें गहरी हैे। क्या आपने इस डाक टिकट को, जब यह 1982 में एशियाई खेल के अवसर पर जारी किया गया था पटके जाने वाले की चोटी और पटकने वाले की दाढ़ी पर गौर किया था?? क्या कहीं कोई जुंबिश हुई। मुझे सुनाई पड़ती है आप की आवाज, इसमें क्या रखा है? यह तो चलता ही रहता है।

Post – 2020-04-24

#अरे_इन_दोउन राह न पाई
एक
कुछ घटनाएँ, सुखद या दुखद होने के साथ एक संदेश होती है, और यदि वह संदेश आप तक न पहुँचे तो भारी से भारी मूल्य चुकाने के बाद आप के हाथ अपमान और ग्लानि ही आती है। हिंदू समाज लगातार भारी मूल्य चुकाकर अपमान और ग्लानि ही जुटाता रहा है और इसने ऐसी आदत का रूप ले लिया है कि उसके भीतर अपने को सर्वाधिक समझदार और मुखर मानने वाला वर्ग इसे ही हिंदुत्व की पहचान मान चुका।

उसे इसकी तलब किसी दूसरे से और किसी दूसरे नशे से अधिक उग्र हो कर उभरती है और वह स्वयं ऐसी परिस्थितियाँ पैदा करता रहता है कि उसे उसकी खूराक मिल जाए और कुछ समय तक वह उसी में आनंद-मूर्छित रहे – हिन्दू समाज के लिए सबसे बड़ा खतरा यही है, जैसे किसी बाहरी शत्रु से अधिक खतरनाक आपकी व्याधि होती है।

इसे यदि किसी दूसरे दौर में न समझा गया तो कोरोना के दौर में तो समझ ही लिया जाना चाहिए कि कुछ बीमारियाँ दुख ही नहीं देती, जान भी लेती हैं; संपर्क में आने वालों में फैलती भी हैं, और इस अंतिम की पहचान के बाद अपनी सुरक्षा की चिंता करने वालों की नजर में उसकी लाश को भी इतना डरावना बना देती हैं कि कोई उसे हाथ नहीं लगाना चाहता और वह सम्मानजनक अन्त्येष्टि तक से वंचित रह जाता है।

हमारे बुद्धिजीवी और वे जिन संस्थाओं और दलों से जुड़े रहे हैं, केवल उनको ही इस व्याधि से गुजरना नहीं पड़ा है, उनके हिंदू समाज का अंग होने के कारण, हिन्दू समाज को भी इसकी क्षति उठानी पड़ी है।

उन की प्रतिक्रिया में एक ऐसे हिंदुत्व की शक्ति बढ़ी है जिसमें मजहबी मानसिकता प्रधान है और हिंदुत्व की चेतना तक का अभाव है।

मैं मजहबीपन को, और मजहबी अर्थ में अधिक अच्छा हिन्दू या मुसलमान या ईसाई होने को उस समाज के लिए और साथ ही मानव जाति के लिए दुर्भाग्यपूर्ण मानता हूँ।

हिंदू समाज को इन दोनों से खतरा है।

क्रोध किसी पर नहीं आता, तरस दोनों पर आता है।