Post – 2020-04-24

#अरे_इन_दोउन…(3)

लेखक का काम अपने पाठकों को उत्तेजित करना नहीं होता, उनके आवेगों को उभारना नहीं होता, अपने पूर्वाग्रहों को उन पर लादना भी नहीं होता। लिखते समय उसे आत्मबद्धता के दृश्य अदृश्य सभी आवरणों से बाहर निकल कर, यथासंभव यंत्रवत निरपेक्ष हो कर, आकलन करने का प्रयत्न करना होता है, जिससे वह अपने पाठकों को क्षुब्ध नहीं, प्रबुद्ध बना सके जिससे वे अधिक संतुलित होकर, वस्तु स्थिति पर विचार करते हुए, अपने निर्णय ले सकें। कम से कम मैं इसे ही अपने लेखन की सार्थकता , मानता हूँ और जहां ऐसा नहीं कर पाता वहां अपने लेखन को विफल मानता हूं। यह आसान काम नहीं है, और यांत्रिक पूर्णता के साथ इसका निर्वाह भी नहीं किया जा सकता, केवल प्रयत्न किया जा सकता है। वह मैं अवश्य करता हूं।

इसके लिए मैं जो सावधानी बरतता हूँ वह यह कि मैं किसी घटना के घटित होते ही अपनी कोई प्रतिक्रिया नहीं देता सूचना के सभी स्रोतों से मिलने वाले संकेतों के आधार पर मैं उसी घटित को देखने समझने और निश्चित करने का प्रयत्न करता हूं। मैंने पाया है कि अपने को अनुकरणीय मानने वाले अधिकांश मित्र इतने धैर्य और तटस्थता का निर्वाह नहीं करते। बी पहले से अपनाए गए किसी मत के अनुकूल पड़ने वाले तर्कों और प्रमाणों को, उनके लचर होने के बाद भी स्वीकार कर लेते हैं, और उनके विपरीत पड़ने वाले प्रमाण और तर्क यदि इतने निर्णायक हों कि उनका प्रतिवाद न किया जा सके, तो भी उन्हें स्वीकार करने की जगह चुप लगा जाते हैं, या पढ़ना और सुनना बंद कर देते हैं, या उत्तेजित हो जाते हैं। गलत होने से उन्हें डर लगता है। मैं यह मान कर चलता हूं गलतियां मुझसे होंगी और उन्हें जानने समझने और उनके अनुसार अपने विचारों में परिवर्तन करने के लिए तैयार रहता हूं। यही मेरा कवच है, और कवच भी ऐसा जो अभेद्य है। गलती जानने के बाद सुधार कर लेने वाले को आप गलत नहीं सिद्ध कर सकते।

कोई धारणा बनाने से पहले अपनी योग्यता और सुविधा के अनुसार पूरी पड़तात करने का प्रयत्न करता हूँ जो प्रायः लेखमाला का रूप ले लेता है। इसके बाद जो मत स्थिर होता है उसे सुविचारित मत, परंतु अंतिम सत्य नहीं मानता। कल रात लिंकन के जीवन चरित के नोट पढ़ने में लगाया और अपनी पोस्ट पूरी न कर सका। कुछ पंक्तियाँ बहुत प्रेरक और मेरी प्रकृति के अनुकूल और आज की बहस के लिए सार्थक लगींः
“I am slow to learn and slow to forget. My mind is like a piece of steel – very hard to scratch anything on it, and almost impossible after you get it there to rub it out.”
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politicians [“and intellectuals affiliated to realpolitik”, BS] are lower breed, more often tricky than honest.
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The republican candidate for governor of Illinois, saying on stump, “I know some folks are asking, who is old Abe? I guess they will soon find out. Old Abe is a plain sort of a man, about six feet four inches in his boots, and every inch of him Man. I recollect two years ago at a little party a very tall man went up to Lincoln and said, ‘Mr. Lincoln, I think I am as tall as you are.’ Lincoln began to straighten himself up and up, until his competitor was somewhat staggered, “Well, I thought I was,’ said he, now doubtful. ‘‘But’ says Lincoln, straightening himself still higher, there’s a good deal of coming up in me,’ and he came out two inches the higher.
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In the day’s mail for Lincoln came letters cursing him for an ape and a baboon, who had brought the country evil. Also letters told him, he was a satyr, a Negro, a buffon, a monster, an idiot; he could be flogged, burned, hanged, tortured… some letters were specific that a rifle shot would reach him before he reached Washington for the ceremony of the inauguration as President.
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Hanna Armstrong…”They will kill you Abe!”
“Hanna, if they do kill me, I shall never die another death.”

सबसे डरावनी, तोप से भी अधिक चूर चूर करने वाली गालियाँ । सच वही कह सकता है जो अपमान से न डरे। मुझे प्रेरित करने वाली पंक्तियाँ मनुस्मृतिकार की हैं:
सम्मानाद्ब्राह्मणो नित्यं उद्विजेत विषादिव । अमृतस्येव चाकाङ्क्षेदवमानस्य सर्वदा. (बुद्धिजीवी को सम्मान से इस तरह उद्विग्न होना चाहिए मानो यह विष हो और अपमान के लिए इस तरह तैयार रहना चाहिए मानो यह अमृत है।)

जब मैंने अपने लंबे अन्वेषण के बाद यह पाया कि हिंदू समाज संकटग्रस्त समाज है, कुछ समय तक मैं भी संशय मे रहा कि इसे इस रूप में रखना क्या समाज की मानसिकता के लिए हितकर होगा। और फिर प्रतिवाद आया इस पर पर्दा डालना, गफलत में पड़े रहना, समाज की मानसिकता और सुरक्षा के लिए हितकर होगा? और मैंने इसे बहुत पहले कारण और परिणाम, तर्क और प्रमाण देते हुए सार्वजनिक किया।

जिस घटना ने मेरे संयम को दुबारा झकझोर कर रख दिया कि मैं अपनी लेखमाला से हट कर इसके आयामों को समझने और सार्वजनिक करने को बाध्य हुआ वह भारतीय इतिहास की अनन्य और यहूदी निर्मूलन की याद दिलाने वाली घटना है:

1. वे साधु किसी गलती या अफवाह के कारण नहीं अपनी हिंदू पहचान के कारण यातनावध के शिकार हुए, क्योंकि उनके यातनावध से पहले उनका पूरा परिचय मिल चुका था।

2. भीड़ प्रायोजित थी, पर पहले उन्मत्त नहीं थी। उसे एक मामूली महिला सरपंच ने समझा बुझा कर दो घंटे तक उत्तेजित माहौल में भी रोक रखा था।
उनकी असुरक्षा उनकी सुरक्षा के लिए आई पुलिस के साथ बढ़ी यह कहना भी आधा सच है, यह काशीनाथ के (संभवतः यह जानने के बाद कि अभी तक कुछ हुआ क्यों नहीं) स्वयं पहुँचने के बाद, उनका नाम लेते हुए, (अर्थात् जिसने भेजा था वह स्वयं आ गया अब तो कुछ करना ही होगा) इतना प्रचंड हुई।

3. पुलिस को क्या किसी ने संकेत किया कि तुम बीच में न आओ और उसके बाद पुलिस जो अपनी सुरक्षा में आए साधुओं को – तीन ही तो थे -अपनी गाडी में लेकर घटना स्थल से रवाना हो सकती थी या भीड़ को तितर बितर करने के लिए जरूरी कर्रवाई कर सकती थी, उसने अपने संरक्षण में आ चुके साधुओं को स्वयं धक्का दे कर भीड़ को सौंप दिया।
इस पूरे दौरान वह नेता वहीं रहा, पुलिस वहीं रही, और तमाशे का मजा लेती रही। किसी ने लाशों पर डंडे बरसाने वालों को हाथ के इशारे से भी रोकने का प्रयत्न नहीं किया।

4. जो सबसे आश्चर्यजनक है वह किसी के नाखून के गलत कट जाने पर इसे इतिहास की सबसे बड़ी त्रासदी के रूप में पेश करने की होड़ लगा लेने वाले बुद्धिजीवी और चैनल, किसी भी हत्या या अपराध के लिए बिना किसी ठोस जानकारी या पड़ताल के अपराधी तय करके उसको जल्द से जल्द फाँसी पर चढ़ाने के लिए हंगामा करते रहे हैं कि कहींं जाँच पूरी होने पर शिकार हाथ से न निकल जाए, उनकी चुप्पी या उल्टी व्याख्याएँ।

5. परन्तु जो उससे भी चिन्ताजनक स्थिति है वह यह कि आप इसकी शिकायत नहीं कर सकते, किया तो माना जाएगा आप समाज में घृणा का प्रचार कर रहे हैं। जिन्होंने घृणित काम किया है उनके सभी गुनाह माफ करने वाले घृणा का प्रचारक कह कर उसका गुनाह आप के सिर डाल कर आप की हत्या कर देंंगे। आतंकवादियों को बचाने वाले हिंदू टेरर पैदा करते रहे हैं, आगे बहुत कुछ करते रहेंगे और अपना चेहरा नंगा कर देने के बाद शिफर भी होते जाएंगे। इतिहास के महारथ का पहिया अकड़ कर रास्ते में आने वालों को पीसता आगे बढ़ जाता है।