Post – 2017-10-31

अग्निभिक्षा

चार पांच साल का बच्चा क्या कर सकता है इसे आप नहीं जान सकते। उससे क्या काम लिया जा सकता है यह काम लेने वाले जानते हैं। मुझे जो दो काम याद आते हैं उनका संबंध भिक्षाटन से है। भिक्षा देना और भिक्षा के लिए भटकना।

बीसवीं शताब्दी के आरंभ में भारत की आबादी तीस करोड़ से करोड़ से कुछ कम थी। जब बंकिम बाबू ने त्रिंश कोटि कल कल निनाद कराले लिखा था तब कुछ और कम रही होगी। इसका एक कारण यह रहा हो सकता है कि देवताओं की संख्या तैंतीस करोड़ थी इसलिए मनुष्यों के लिए जगह कम पड़ जाती रही होगी।

मेरे जन्म से घबरा कर अंग्रेजों ने जनगणना करा डाली कि कहीं मनुष्यों और देवताओं का अनुपात और बिगड़ने तो नहीं जा रहा। उन्हे पता चला कि हुआ उल्टा है, भारतीय इतिहास में पहली बार मनुष्यों की संख्या देवताओं से आगे चली गई है। अपनी प्रशंसा अपने मुंह से करते हुए संकोच होता है, पर आप चाहें तो कह सकते हैं कि मेरे जन्म के साल में मनुष्यता देवत्व पर भारी पड़ी। भारत की आबादी ३५ करोड़ हो गई थी। उससे चार पांच साल बाद जब के भिक्षाटन की बात कर रहा हूं आबादी अधिक से अधिक ३६ करोड़ रही होगी । फिर भी भिखारियों की बाढ़ सी आई रहती।
Inclusion of new area Actual increase of population
1881 253,896,330 1872-81 47,733,970 33,139,081 14,594,889 23.2
1891 287,314,671 1881-91 33,418,341 5,713,902 27,704,439 13.2
1901 294,361,05 1891-01 7,046,385 2,62,077 4,374,308 2.5
1911 315,156,396 1901-11 20,795,340 1,793,365 19,001,975 7.1
1921 318,942,480 1911-21 3,786,084 86,633 3,699,451 1.2
1931 352,837,778 1921-31 33,895,268 35,058 33,860,240 10.6

Total 1881-31 98,941,448 10,301,035 88,640,413 39.0

आबादी तब के भारत का दो तिहाई रह जाने के बाद भी उससे तीन गुने से अधिक हो चुकी है फिर भी आज गांवों में भीख मागने के लिए कोई नहीं आता, जब कि तब कोई घंटा खाली नहीं जाता था जब एक दो भिखारी हाजिर न हो जाते । उनका एक पैटर्न था, जिसमे यदि वे भीख के लिए मेरे घर का रुख करते और कोई दूसरा याचक द्वार पर खड़ा दिखाई दे जाता तो कन्नी काट कर दूसरी ओर चले जाते और कुछ समय लगाकर फिर उपस्थित होते। इसी तरह वे कई दिनों का अंतराल देकर आते, पर यदि उनके एक जत्थे की कल्पना करें तो वह सौ सवा सौ से अधिक का नहीं रहा होगा, जिसके इलाके में हमारा गांव आता था, इसलिए धीरे धीरे लोग उनके चेहरे और स्वभाव से परिचित हो जाते।

भिखारी कुछ पाने से पहले कुछ देता भी था, चाहे वह जयकार के रूप में हो या आशीर्वाद के रूप में या संगीत और भजन, गायन के रूप में। सबसे मार्मिक होता योगियों का सारंगीवादन और उसके साथ भरथरी का चरितगान। वे कुछ मागते नहीं थे। दरवाजे पर खड़े होकर पूरी तल्लीनता से सारंगी बजाते करुण रस का संचार करने लगते। कई बार तो महिलाएं ड्योढ़ी में पल्ले की ओट लेकर उनका गायन सुनने को इकट्ठा हो जातीं और यह भांप कर कि उनका गायन सुना जा रहा है वे देर तक गान करते रहते जैसे भिक्षा उनका पहला सरोकार न हो। यही हाल तमूरे पर सूर के पद गाने वालों का था ।

ये बातें मैने बाद में लक्ष्य कीं, परन्तु शैशव में योगियों से बहुत डर लगता । उनमें एक तो उस समय पहाड़ जैसा ऊंचा लगता। तामई रंग, बढ़े हुए बाल, लहराती दाढ़ी, नीचे से ऊपर तक गेरुआ बाना, कंधे से टखने तक सिले हुए गेरुआ गुद्दड़ का भारी धोकरा और ऊपर से बच्चों को डराने के लिए धोकरकसवा की कहानियॉं, जो लगता डराने वालों के लिए भी निरा कल्पित न थीं। वे मानतीं कि एकान्त में यदि कोई बच्चा मिल जाय तो वे जड़ी सुंघाकर उसे धोकरे में कस लेते हैं और ले जाकर उसे जोगी बना देते हैं। यह धारणा गलत थी, पर आशंका निराधार न थी। बच्चों को चुराकर बलि तक देने के प्रचलन उन्नीसवीं सदी में अधिक रहे हों, पर आज भी सुनने को मिलते हैं।

नर बलि के सबसे जघन्य कालों में उस पैमाने पर नरबलि न होती थी जितनी आज हो रही है। क्या कोई बता सकता है कि प्रतिवर्ष कितने हजार या लाख बच्चे गायब हो रहे हैं? कितने हजार विदेशी अंग प्रत्यारोपण के लिए भारत आते हैं जिनके कारण भारत चिकित्सा का नाभिक्षेत्र या हब बना हुआ है? कितने अनचाहे बच्चों का बोझ ढोने में अक्षम परन्तु देह धरे के दबाव में उनके जन्म को रोक न पाने के कारण उन्हें दो तीन सालों की उम्र में अपने पांवों पर खड़े होने के लिए खुला छोड़ देने वाले उनके वापस न आ पाने पर भारमुक्त अनुभव करते हैं और उनके लापता होने की रपट तक नहीं लिखवाते कि उनके मिल जाने की दशा में उनका भार झेलना होगा, यह मैं भी बता नहीं सकता, जब कि इसे अपनी जानकारी में घटित होते मैंने देखा है।

पहले जो कुछ अज्ञान और अन्धविश्वास के कारण, या मानसिक विकृति के कारण बहुत छोटे पैमाने पर होता था वही आज शिक्षित, पेशेवर चिकित्सकों के अधिक धनी होने का लालसा से पनपी अपराधीकरण के चलते दहला देने वाले पैमाने पर हो रहा है।

जो भी हो, जोगी के लंबे और नीचे भीख के अनाज से कुछ फैले धोकरे को देख कर मुझे लगता, हो सकता है उसमें किसी बच्चे को बेहोश करके डाल रखा हो और मौका मिले तो मुझे भी डाल लेगा, उसे भीख की डलिया पकड़ाते हुए मैं बहुत सावधान रहता था। इस कार्य में मैं माई के सहायक का काम करता। आवाज सुनकर एक हाथ में अनाज की डलिया और दूसरे हाथ से मुझे पकड़े ड्योढ़ी तक आती और फिर डलिया मुझे पकड़ा कर किल्ली खोल कर बाहर जाने पर डलिया मुझे थमा देती इसलिए आश्वस्त रहता कि वह मुझे नहीं पकड़ेगा।

भिखारियों को भीख बड़े आदर के साथ दिया जाता, फिर भी मैं समझता था भीख मांगना गर्हित काम है। इसके बाद भी मुझे स्वयं अग्निभिक्षा पर निकलना पड़ता।

यह बात मेरी समझ में कभी नहीं आई कि यह काम सन्ध्या को ही क्यों करना पड़ता। सुबह के लिए यदि पूरी रात आग जिला कर रखी जा सकती थी तो शाम के लिए ऐसा क्यों नहीं किया जा सकता था।

कभी इस बात पर भी ध्यान नहीं दिया कि जगदीशका को कभी यही काम क्यों नहीं करना पड़ा। अब सोचता हूं तो लगता है काकी आग जिला कर रखती थीं परंतु माई को उनसे आग मांगने का साहस नहीं होता था। हो सकता है कभी किसी बहाने इन्कार करने के कारण अपमानित अनुभव किया हो, और अपमान से बचने के लिए उसे किसी दूसरे के घर से आग मंगाना पड़ता था। यह नित्य का क्रम था या कभी कभी यह होता था, यह कहना कठिन है , पर होता इतनी बार था कि मैं कोशिश करता कि जिस घर में इससे पहले गया था उसके यहां इतनी जल्द न जाऊं।

अग्निभिक्षा के लिए घर से कोई पात्र ले कर नहीं निकलता। रास्ते में ही कहीं खपड़ा नरिया चुनना होता। गावों में उन दिनों इनकी कमी न होती। बरसात से पहले खपरैल की मरम्मत के समय जो टुकड़े निकलते उनको ओरियानी के नीचे डाल दिया जाता जिससे बरसात में पानी की धार सीधे मिट्टी पर न गिर कर इन पर गिरे और नीचे गड्ढा न हो।

माई तो अग्निभिक्षा के अपमान से बच जाती पर मुझे प्राय: अपमानित होना पड़ता । कुछ घरों से तो सीधे लौटा दिया जाता, कुछ में माई को इस लापरवाही के लिए कोसने के बाद एक टुकड़ा सुलगता हुआ उपला मिल जाता। कहीं कहीं महिलाएं मुझे स्नेह से बैठा लेती और माई मेरे साथ कैसा बरताव करती है इसे कई बहानों से पता लगाने का प्रयत्न करतीं।

ऐसे अवसर पर मेरे मन में परिवार का स्वाभिमान जाग जाता, किसी के सम्मुख दैन्य न प्रकट करने का अभिमान जाग जाता और साथ ही एक काइंयापन भी जाग जाता कि यदि किसी से भी माई की शिकायत की तो यह खबर उस तक पहुंचेगी जरूर और फिर मेरी जो दुर्गति होगी उसकी कल्पना से सहमा रहता। इन तीनों का मिला जुला भाव ही रहता जिसमें मैं माई की बड़ाई करता।

सबसे तीखी झिड़की बचानी की मां से मिलती। वह दिन भर अपने दो कमरों के के आगे दो ओर से ऊंची छल्ली से घिरे मकान में रहतीं और किसी से न तो मिलतीं न कोई उनके पास जाता। दरवाजा चेचरे का था। मैने चेचरे को खटकाया और वह प्रकट हुईं और आग की याचना की तो उन्होंने झिड़कते हुए मना कर दिया और चेंचरा बंद कर लिया। मैं लौटने लगा तो चेंचरा खुला और उन्होंने वापस बुलाया। भीतर ले गईं। देर तक बड़बड़ाते हुए माई को लापरवाही के लिए कोसने के बाद आग दी।

कोसते तो सभी माई को ही लेकिन सुनना और अपमानित होना मुझे पड़ता था। उसे लौट कर यह भी बता न सकता था कि औरतें उसे कैसी खरी-खोटी सुनाती हैं।

मेरी सबसे अधिक दुर्गति तब होती जब हवा चलने से आग दहक जाती और खपरैल इतना गर्म हो जाता कि संभालना मुश्किल हो जाता । अब समस्या किसी दूसरे खपरैल की तलाश की हो जाती और आग के उस पर पलटने की। एक बार की याद है जब खपरैल हाथ से छूट गई और आग नीचे गिर कर बिखर गई । बड़ी मुश्किल से एक टुकड़ा घर तब जीता जागता पहुंचा पाया। जुगत क्या बैठाई थी यह याद नहीं।

अपने परिवार से बाहर के समाज से मेरा परिचय इस अग्निभिक्षा के माधयम से आरंभ हुआ था। यह एक तरह की मुठभेड़ थी। इसी के चलते बचानी की मां जिनके कर्कश स्वभाव के कारण सभी डरते, उनका दरवाजा मेरे लिए खुल गया और मेरे साथ जगदीशका, चन्नर का और शायद झीनक का भी शाम ढले उनके पास कहानियां सुनने जाने लगे थे। एक दो किस्से सुनाने के बाद वह कहतीं, ‘अब भगवान का जोड़ुआ खिस्सा होगा। मैं जो कुछ सूझता जोड़ता फिर कुछ ठिठकता हुआ जाने क्या क्या कहता और वह पूरे धीरज से सुनतीं, जहां रुकता वहां हौसला बढ़ाने के लिए वह उकसाती भी।

अब सन्दहवादियों को यह यह विश्वास दिलाना तो कठिन है कि मैंने अक्षरज्ञान से पहले अग्निभिक्षा अभियान में अपना पहला अनुसंधान पूरा कर लिया था और यह था आग किसी और के यहां मिले या नहीं, हुक्का पीने वाली महिलाओं के घरों में अवश्य मिल जाएगी, और अक्षर ज्ञान से पहने मैं कहानीकार भी बन चुका था। अनिश्चय सिर्फ एक बात को ले कर है कि बचानी की मां ने मेरी प्रतिभा की खोज की या मुझे अपने प्रयत्न से कहानीकार बनाया ।

पर मेरी विफलता यह कि मैंने न कहानी गढ़ने में दक्षता पाई, न बातें गढ़ने में। मै जोड़आ कहानीकार बना और जोड़ुआ विद्वान। एक बात में जानें कितनी बातें जुड़ती चली जाती हैं।

Post – 2017-10-31

न दिल अपना रहा ना ही जबाँ है।
कहा मैंने नहींं, सबने सुना है ।।
वह पत्थर दिल नहीं है जानता हूँ
बनाया दिल वह पत्थर का बना है
हसीनों से महज़ तकरार मुमकिन
जो टकराया वह पत्थर बन गया है.

Post – 2017-10-29

मैं शायरी से बचता हूँ. जुमले शेर बन कर सवार हो जाते हैं तो अब दर्ज कर लेता हूँ . ऐसा ही एक शेर था जिसे साझा कर दिया और एक मित्र ने सुझाव रखा कुछ और शेर होते तो गजल बन जाती. आज की पोस्ट समय से पहले पूरी हो गई तो सोचा तुकबंदी कर के तो देखें . जो बना वह यूँ है पर इसका श्रेय उसको जाता है जिसने यह मांग रखी:

हम खुद भी गिरफ्तार थे, तेरी अदा को देख।
अपनी नज़र को देख, हमारी कजा को देख।।
यह भी समझ न आये, हमारी सलाह मान
यह कर्बला नहीं है मगर कर्बला को देख ।।
दुनिया कहां रुकी थी कहों पर पहुंच गयी
तू अपने कारकुन को देख कारवां को देख ।।
हम तुझको मनाते हुए बर्वाद हो गए
अपनी सिफ़त बयान कर, अपनी शिफा को देख।।
जन्नत भी बनाई तो गलाजत से भरी क्यों
अपने ख़याल देख और अपने जहां को देख ।।
मिट्टी में बुलंदी के आसमान छिपे हैं
तू खुद का आसमान बना कर खुदा को देख।।

Post – 2017-10-29

झिझिया

हमारी चर्चा मेरे ज्ञान का प्रसार नहीं, अपितु क्षीण और धुंधली स्मृतिरेखाओं को आयास पूर्वक निखारते हुए अपने अतीत जीवन और परिवेश को समझने का प्रयास है । आप की टिप्पणियां भूली हुई कड़ियों को उजागर करने में भी सहायक हो सकती हैं और उन सांस्कृतिक गुत्थियों को समझने समझाने में सहायक भी जिनका तर्क, हो सकता है, उनकी समझ में न आया हो जिनकी स्मृति अधिक स्वच्छ है। मुझे ऎसी दो टिप्पणिया मिली जिनका इस दृष्टि से विशेष महत्त्व है.

अत्रि अंतर्वेदी के अनुसार “राजस्थान में हीड़, हरयाणा में सांझी, ब्रज व बुन्देलखण्ड में झिझिया और टेसू ये सभी एक जैसे अनुष्ठान के रूप हैं।“ आगे उन्होंने यह कहते हुए एक लिंक दिया है, “सांझी के विषय में आप इसे देख सकते हैं।”

उन्होंने एक सर्वे पर आधारित जिस विवरण का लिंक दिया है वह कई दृष्टियों से बहुत रोचक है, परंतु उसका अन्नकूट, गोधन, परिवा, भैया दूज और पिंडिया-झिझिया से कोई संबंध नहीं।

दृष्टि का मुख्य अंतर यह है कि ये पौराणिक परंपरा – मुख्यतः महाभारत की कथाओं के लौकिक सर्तजनात्मक संस्करण और श्रीनिवासन के शब्दों में कहें तो उसका संस्कृतीकरण है। गोधन से गुंथे आयोजनों का भी संस्कृतीकरण करने के अर्थात् राम और कृष्ण से जोड़ने के जोरदार प्रयास हुए हैं परंतु इनकी प्रकृति भिन्न है।

दोनों का फर्क यह है कि संस्कृतीकरण ब्राह्मणों के द्वारा किया गया। अपने आतंककारी आडंबर के बाद भी यह भोंड़ा, अतर्क्य, अविश्वसनीय है, और इसका ऐतिहासिक मूल्य शून्य है, जब कि लोकपरंपरा की सांस्कृतिक अभिव्यक्तियां यथार्थवादी हैं, गहरे निजी और सामाजिक सरोकारों से उत्पन्न हैं इसलिए मर्मस्पर्शी हैं और इनको आधार बनाकर इतिहास लिखा जा सकता है या इतिहासलेखन में इनका पूरक साक्ष्यों के रूप में उपयोग किया जा सकता है। इसके बाद भी लोक के पास शास्त्र पहुँच कर कैसे गीली मिट्टी बन जाता है और लोक की सर्जनात्मकता को किस तरह उत्तेजित करता है जिससे एक लौकिक पुराण कथा का समानांतर विकास होता है, इसके अध्ययन के लिए यह बहुत उपयोगी है, परन्तु वः हमारे आज के सरोकार से बाहर है।

दूसरी टिप्पणी सनातन कालयात्री की है जो भी एक लंबे कथाबंध में पिरोई हुई है , परंतु इसमें दो तीन सूचनाएं बहुत उपयोगी लगीं जिनसे मेरी आशंकाओं का भी निवारण हुआ। पहला यह कि गोधन परिवा के अगले दिन मनाया जाता है, और पूर्वांचल में भाईदूज का यही रूप है। दूसरा गोधन में काँटों को रखने को लेकर था। यह इतना अटपटा लग रहा था कि मुझे लगा मेरी याददाश्त में ही कहीं कोई घालमेल हो रहा है। भटकटैया का तो मैं नाम ही भूल गया था।

इसमें एक नया तत्व जो जुड़ गया वह भाइयों को सरापते हुए उनका अनिष्ट कामना का है जिसका मुझे अब भी स्मरण नही, पर इसका औचित्य भी समझ में आता है और इससे इसकी प्रमाणिकता भी सिद्ध होती है।

कहाँ पश्चिमी क्षेत्र में इस्सी उपलक्ष्य में मनाया जाने वाला भैया दूज, और कहाँ भाई को सरपते हुए उसके अमंगल की कामना और गत्ते बताशे और चीनी के घोड़े हाथी चढाने के साथ ही कांटे बिछाकर कुटाई करना और बाद के पिंडिया और झिझिया के आयोजन।

उस बीच के प्रभावशाली, हाथ ऊपर उठाए चित्र के हाथों पर सधे ΔΔΔΔ का अर्थ भी अधिक स्पष्ट हो जाता है।

इसके बाद भी मैं जो कुछ कहने जा रहा हूँ वह कल्पना के योग से इतिहास और संस्कृति का पुनराविष्कार ही है, जिससे किसी को असहमति हो तो भी मेरे लिए यही इतिहास का सच है। कुछ बातों को सर रूप में रखते हुए अपनी बात रखूं तो :

1. दीपावली दरिद्रता और अभाव से मुक्ति और समृद्धि का पर्व है जिसके साथ सभी अपनी जीविका के साधनों की सिद्धि के लिए कृतसंकल्प होते हैं। दलिद्दर भगाने का आयोजन उसी सिक्के का दूसरा पहलू है। चोरी, डकैती, जुआ, अभिचार जैसे समाज निन्दित प्रयासों को छोड़ दें तो समाज की दृष्टि में श्लाघ्य प्रयत्नों से जुड़ी हैं आगे की कड़ियाँ।

2. खेती, व्यापार और राज्यविस्तार सभी का आरंभ पर इसमें सुदूर व्यापार पर विशेष बल था इसलिए सैनिक या सार्थ या बेड़े के साथ जाने वाले तरुणों या बहनों के भाइयों के जीवन से लेकर धन के लिए संकटों की चिता भी थी।

3. यदि एक ओर केंद्रीय चित्रांकन में हाथों सधा मालताल है तो उसी के साथ तरह तरह के कांटे बाधाओं और संकटों के प्रतीक ।

4. सरापना और अमंगल के साथ यह भाव कि यदि बुरा चाहने पर भी बुरा न हुआ तो अब कोई अनिष्ट नहीं हो सकता। जो अनिष्टकर है उसे कूट कर मार्ग को निष्कंटक, ऋग्वेद की भाषा में कहें तो अनृक्षर बनाने का प्रयास भी है। परन्तु यह सरापने का किंचित् इकहरा पाठ हुआ। इसे अपनी उस जातीय चेतना से भी जोड़ कर देखें जिसमें मौत से बचाने के लिए जन्म लेते ही बच्चे का कान छेद दिया जाता था, नाक छेद दी जाती थी, घूरे पर पत्तल रख कर सुला दिया जाता था, बघनखा पहना दिया जाता था, कौड़ियों के दाम बेच दिया जाता था, जिसमें एक दबा हुआ विश्वास था कि हम जो चाहें उससे उल्टा ही होता है, उसमें कल्याण के लिए ऐसा विधान विस्मय की बात नहीं।

५. पिड़या के अंकन में गोबर के पिंडियों को लंबवत चिकाया जाता था
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इस तरह के अंकन हड़प्पा की मुहरों पर भी पाए जाते हैं। वहां उनका आशय जो भी हो, पिड़या के सन्दर्भ में क्या यह उस जत्थे का अंकन हो सकता है जिसके साथ उसे यात्रा करनी है और रेखाएं क्या मानवाकृतियां हो सकती हैं? मैंने जैसा कहा पंक्तियों की संख्या और एक पंक्ति में कितली लकीरें बनती थीं, इसकी गिनती न की थी।

६. इसी तरह छिद्रित कलश में दीपक क्या यात्रा पर गए भाइयों को रास्ता दिखाने या लौट रहे बेड़े को तट का संकेत देने के प्रतीक थे ? स्वाभाविक है ऐसे अवसर पर जयशंकर प्रसाद की आकाशदीप कहानी की याद आए।

७. यदि हमारे ऊपर के समीकरण सही हैं तो सिंध, गुजरात और राजस्थान जो प्राचीनतम चरण से विदेश व्यापार में अग्रणी रहे हैं, उनमें इस पर्वशृंखला का लोप क्यों?

८ हमें ऐसा लगता है कि पश्चिमी दिशा का व्यापार फीनीशियनों, रोमनों और अरबों के हाथ में चले जाने के बाद पहल भारतीयों के हाथ से निकल गया था । कंबोडिया, सुमात्रा, जावा आदि तक व्यापारिक और उसके साथ ही सास्कृतिक प्रसार का कारण भी यही बना और उस दशा में गंगा मार्ग तथा पूर्व का तटीय भारत – बंगाल, ओडिशा, आंध्र यहां तक तमिल नाडु पर्यन्त भाग – अधिक सक्रिय हो गया। इस व्यापार से होने वाला अकूत लाभ एक ओर मन में असाधारण आकर्षण पैदा करता था तो, दूर गए जनों को लेकर चिन्ता का भी कोई अंत न था।

९. एक विश्वास कवच के रूप में बना हुआ था कि यदि मनुष्य सदाचार का पालन करे तो उसका अनिष्ट नहीं हो सकता। यदि वह त्रिरत्न – सत्य, अहिंसा, अस्तेय – का पालन करें तो उसका अनिष्ट नहीं हों सकता। यदि उसके परिवार के जन सदाचरण करें तो उनके दूर गए स्वजन कष्ट से बचे रहेंगे । इसी विश्वास के चलते सत्य बाबा के माहात्म्य या सत्यनारायण व्रत और कथा का भी चलन हुआ।बंगाल के जिन हिन्दुओं ने इस्लाम ग्रहण कर लिया वे सत्यपीर के रूप में उसका निर्वाह करते रहे। पिड़िया का, व्रत वाला पक्ष , उसी से संबंधित हो सकता है ।

10 देवोत्थान और संक्रान्ति तक अन्य शुभ कार्यों पर रोक के पीछे भी इसका हाथ है या नहीं, यह विचारणीय है।

11. जहां यह तय करना हो कि कौन सी रीतियां और विश्वास पंडितों द्वारा प्रचारित हैं और किनकी जड़ें लोक में है भाषा हमारी काफी दूर तक सहायता कर सकती है। लोक की सर्जनात्मकता में आदिम जनों की भूमिका प्रधान रही है। नाटक, संगीत, नृत्य सभी में अपनी असाधारण दक्षता के लिए किरात, गंधर्व, यक्ष आदि पर्वतीय जन विख्यात रहे हैं, और समय समय पर. विशेषतः जाड़ों में वे मैदानी भाग में उतरते रहे है। मातृसत्ताक होने के कारण इनके बीच उस तरह की वर्जनाएं न थीं जैसी उन्नत खेती की ओर अग्रसर समाज में। इन्हीं से उन अप्सराओं का संबंध रहा है जिनका काव्यों और पुराणकथाओं मे उल्लेख मिलता है। महिलाओं ने पुरुष सत्ताक समाज के प्रतिबंधों के बीच अपनी मुक्ति के चोर दरवाजे के रूप में इनकी विशेषताओं को अपनी विरासत बनाई और इस लिए जिन आयोजनों में नाचं गाना, अभिनय, किंचित भदेसपन मिलता है वे लोक परम्परा की देन हैं, और जिनमे पूजा, पाठ, कर्मकांड आदि कि भूमिका प्रधान है वे पंडितों द्वारा हधे और थोपे गए हैं.

Post – 2017-10-28

हम खुद भी गिरफ्तार थे, तेरी अदा को देख।
अपनी नज़र को देख, हमारी कजा को देख।।
यह भी समझ न आये, हमारी सलाह मान
यह कर्बला नहीं है मगर कर्बला को देख ।।
दुनिया कहां रुकी थी कहों पर पहुंच गयी
तू अपने कारकुन को देख कारवां को देख ।।
हम तुझको मनाते हुए बर्वाद हो गए
अपनी सिफत बयान कर, अपनी शिफा को देख।।
जन्नत भी बनाया तो गलाजत से भरा क्यों
अपने ख़याल देख और अपने जहां को देख ।।
मिट्टी में बुलंदी के आसमान छिपे हैं
तू खुद का आसमान बना कर खुदा को देख।।

Post – 2017-10-27

बाबा के कोठारे साठी धान, नर सुग्गा

गोधन के चित्रांकन में केंद्रीय आरेख एक बलिष्ठ व्यक्ति का था जो इस अर्थ में सबसे मोटा था कि उसकी जांघें आजू बाजू फैली, और पांव घुटने से मुड कर नीचे लंबवत लटक कर आधाररेखा रहित चतुर्भुज जैसे थे। धड़ के लिए एक सीधी रेखा जिससे पांवों की तरह ही आजू-बाजू फैली भुजाएं और कोहनी से ऊपर को तने हाथ। धड़ की रेखा उठ कर गले तक जाती और उसके ऊपर सिर के नाम पर गोबर का सबसे बड़ा गोलाकार पिंड। ऊपर तने हाथों के ऊपर एक दूसरे से जुड़े त्रिकोणों के गोबर रेख जो सर की तरह बीच में भरे न थे।

यदि अनाज की ढेर का आरेख बनाएं तो ऐसा ही होगा।

ढेर किस बोली का शब्द है इसे हम नही जानते। यहाँ तक की इसका अर्थ भी ह्रास का शिकार हो गया है। इसका मूल अर्थ था पहाड़। ढेरी का अर्थ था पहाडी। टीला।

जब हम मंडी में अनाज की ढेरी की बात करते है तो अनाज के टीले की बात करते हैं और ढेरों की की बात करते समय ढेलों से भी इसका कोई संबंध हो सकता है यह भूल जाते हैं।

ढेली और ढेरी में भी कोई नाता हो सकता है इसका ध्यान तो रख ही नहीं सकते।

पत्थर की चट्टान तोड़ते समय कई बार घन चोट करने से हल्की दरार पड़ती है, याने चट्टान रंच भर खिसकती या ढीली पड़ती है उससे ढीला पड़ना, ढील देने का जातक शायद आप को दिखाई न दे। और उसके टूट कर गिरने से किसी के ढेर होने के मुहावरे का संबंध है, इसका ध्यान आप को न रहा होगा यह मैं दावे के साथ कह सकता हूं क्योंकि इससे पहले मुझे स्वयं इनका ज्ञान न था।

मैं जानने के लिए लिखता हूं, जो कुछ जानता हूं और लिखने के क्रम जो पता है उसे जांचने के लिए लिखता हूं, और लिखने के बाद भी आप की आलोचनात्मक टिप्पणियों को आमंत्रित करते हुए अपने को बदलने के लिए लिखता हूँ। मैं मसीहा नहीं हूँ व्याधिग्रस्त हूँ। व्याधिग्रस्त सम्माज का सदस्य। जैसे सब कुछ साझा करता हूँ वैसे ही अपनी व्याधियों की पहचान और उनसे मिक्त होने के उपाय भी आपसे साझा करना चाहता हूँ । पूर्ण ज्ञान, अकाट्य मान्यता पर पहुंचे लोग मेरे मित्र नहीं हो सकते। वे अपनी बीमारी तक से प्यार करते हैं और स्वस्थ होने की कल्पना से भी घबराते हैं.

यदि आप कहें कि यह कैसा आदमी है जी बात तो गोवर्धन की करता है और बहकने लगता है तो मैं यह बताना चाहूंगा कि लिखना आरम्भ करने से पहले मैं स्वयं नही जानता कि किन सवालों से टकराना होगा। मैं गोबर पर नहीं उन समस्याओं से टकराने के लिए लिखता हूँ जिनका फलक व्यापक है। आप को अपने साथ ले चलना चाहता हूँ, चल सकें तो

अर्थविचार में जिस कामचलाऊपन का सहारा लेना पड़ता है उसमे सांड के डील या ककुह/ककुभ का एक अन्य अर्थ पहाड़ की चोटी और आकाश का सिरा भी होता है। नए शब्द गढ़ना नया मकान बनाने से भी अधिक कठिन काम है, इसलिए एक ही शब्द के तम्बू में उसके मूल अर्थ के विरोधियों को शरण देनी पड़ती है।

कूट का अर्थ जमाव, संहति, पहाड़ की चोटी और इसे ही कूटने. तोड़ने, छल-कपट के आशय में प्रयोग में लाना पड़ता है। भाषा एक कामचलाऊ व्यवस्था है जिसके माध्यम से न तो हम अपने विचारों को संतोषजनक ढंग से व्यक्त कर सकते हैं, न संवेदनों को, न अनुभूतियों को। परन्तु यदि यह भी न रह जाय तो हमारे पास न विचार रह जाएंगे, न संवेदन, न अनुभूतियां। हम दहाड़ने वाले अंध-आवेग-चालित पशुओं में बदल जाएंगे ।

काठक संहिता का एक कथन है, ‘वाचा ह वै मनुष्या अजायन्त।‘ वाणी से मनुष्य पैदा हुए। हम इसका भाष्य करते हुए कह सकते हैं कि भाषा की मर्यादा की रक्षा करते हुए ही मनुष्यता की और अपने सम्मान की रक्षा की जा सकती है। दुर्भाग्य से आज भाषा की गरिमा और मनुष्यता की गरिमा उनके द्वारा नष्ट की जा रही है जिन पर इनकी रक्षा का भार था। वे ही नहीं जानते कि वे क्या कर रहे हैं।

पर इलाज तो मेरा भी नहीं है, बिन पिए ही बहकता और गिरता रहता हूं। बताने चला था कि गोधन का वह केंद्रीय चित्र जो आढ्यता का मूर्त रूप था, जिसने ढेर के ढेर अन्न संचित कर रखे थे, क्या उसका चित्रण था जिसके आधार पर कृष्ण द्वारा गोवर्धन उठाने की कथा की प्रेरणा मिली। क्या लंगड़ बाबा जिसका अंकन ठीक इसके सामने हुआ था दरिद्रता का प्रतीक था।

ये दोनों चिन्ह और साथ ही स्वस्तिक और बिच्छू का अंकन सैंधव मुद्राओं पर भी मिलता है। उनमें भी इनका यही आशय था या नहीं हम नहीं जानते। गोधन के चित्रलेखन पर हड़प्पा के चिन्हों का प्रभाव पड़ा था या नहीं, हम नहीं जानते। एक वृद्धा ब्राह्मणी इस चित्रांकन के सहारे पूर्ववृत्त समझाती। वह मैने न सुनी पर इस बात का पक्का भरोसा है कि उसे इन बातों का पता न रहा होगा।

सबसे विचित्र बात यह कि कथा सुनने और खील बताशा आदि अर्पित करने के अतिरिक्त इस चित्रांकन को बेर आदि के कांटों से ढक दिया जाता था। कहना चाहें तो कहें खील बताशे आदि के साथ कांटे भी अर्पित किए जाते ।

इसके बाद कूट का दूसरा अर्थ प्रकट होता, अर्थात् मूसल से इस चित्ररचना की कुटाई होती और फिर कूट के बाद लूट, वह भी गोबर की।

इस लूट के गोबर से ही ल़ड़कियां पिड़िया सजातीं। ये एक तरह से गोबर चिपका कर बनाए गए बार या लकीरें थीं जिनकी एक पंक्ति के नीचे दूसरी तीसरी कई पंक्तियां थीं। ठीक कितनी इस पर कभी ध्यान नहीं दिया। सच तो यह है कि पिंडिया और झिझिया शुद्ध रूप से लड़कियों के आयोजन थे, जिसमें उनका नाच गाना चलता। परंतु इसका जो पक्ष सबकी नजरों में आए बिना रह नहीं सकता था, वह था झिझिया का मटका । इसे सिर पर रखे समवयस्क किशोरियों एक दूसरे के घर गाना गाते हुए जाती और फिर जहां पिंड़िया सजी है वहां नाचना गाना। जिस मटके को वे सिर पर संभाले गाती चलतीं उसमें छिद्र बने होते और मटके के भीतर दिया जलता रहता। सांझ के धुंधलके में दिए जगमगाहट और उनके झुंड पर पड़ती झिलमिल रोशनी तिलस्मी प्रभाव डालती और गाना रोशनी का हिस्सा बन जाता। गाने की केवल एक पंक्ति स्मृति मे टंकी रह गईः

बाबा के कोठारे साठी धान, नर सुग्गा।

अब जिस पक्ष पर ध्यान जाता है, वह यह कि यह भी समृद्धि से जुड़ा और तोता-मैना जैसी संवादशैली में रचा गया गाना था। तब जिस बात से उलझन पेश आती थी वह साठी शब्द को लेकर थई। साठी धान का अर्थ मैं साठ साल पुराना धान समझ बैठा था । सोचता इतना पुराना धान कोठार में भरा था तो बाद का अनाज कहां रखा जाता रहा होगा। अपनी समझ पर भरोसा न था, बड़े लोगों से सहमा रहता इसलिए किसी से जिज्ञाषा नहीं की ।
(बाकी कल)

Post – 2017-10-27

अरविंद जी की पोस्ट पर प्रतिक्रियाः

कहानीकार, कवि भी आज दीगर काम करते हैं ।
मुफत में मीडिया को लोग क्यों बदनाम करते हैं।
जो अपने घर में रहते हैं जो अपना काम करते हैं।
वही कुछ काम करते, तान कर आराम करते हैं।
भला उनका हो जो रोने की आदत पाल बैठे हैं।
वे उनके सोग में शामिल हैं जो हर काम करते हैं।
बुरे दिन में बुरों का साथ देते हैं, सदाकत है
भला होने लगे अपना गरेबां चाक करते हैं ।।

Post – 2017-10-25

लंगड़ बाबा

मेरी यादें अधूरी, धुंधली और कई तरह से एक दूसरी में घुली हैं, जहाँ बाद की सूचना या ज्ञान से उनको गलत पाता हूँ वहाँ भी उनका दृश्य चित्र बदलने से इनकार करता है। इसका उल्टा भी होता है। बहुत बाद का अर्जित ज्ञान अतीत की स्मृतियों पर हावी होकर उनको नया अर्थ देने लगता है। दबाव इतना प्रबल होता है कि यह जानते हुए भी कि यह कृत्रिम है स्मृतिचित्र से इसे निकाल नहीं पाता। सचेत क्षणों में इसकी व्याख्या का प्रयतन निबंध का रूप ले लेता है पर निबंध भी भरोसे का नहीं रहता। स्मृति-विस्मृति, तथ्य, अनुमान के इसी संघात से मेरी चेतना का निर्माण हुआ है इसलिए इसका अविश्वसनीय भी सत्य है।

मैं अन्नकूट की जिस आकृति को स्मरण कर पाता हूँ उसके लिए अल्पना, ऐपन, चौक पूरना सभी प्रयोग गलत लगते हैं। सही शब्द होगा, पर मुझे उनका ज्ञान नहीं और मेरे लिए उसकी जरूरत नहीं, क्योंकि उस सूचना से भी वह चित्र तो बदलने से रहा। उसक चौखटे का साम्य हड़प्पा के ताम्बे के टिक्कलों (copper tablets) से बैठता है और फिर काठक संहिता में आए विश्वज्योति इष्टकों का, यज्ञ के कर्मकांड में कतिपय ऋचाओं के परिलेखन का हवाला, चित्रलेखन करने वाले चित्रगुप्त के आयु लेख के समानांतर भाग्य लिखने वाले ब्रह्मा के गूढ़ टंकन (भाल पट्ट पर) करने वाले ब्रह्मा के नाम से ब्राह्मी के नामकरण पर विस्मय (क्योंकि ब्रह्मा का लेख तो गूढ़ होता है और यहाँ एक एक अक्षर स्पष्ट) और उसका कारण जानने की कोशिश, इन सबके घोल से बनती है वह अजबजाहट जिससे मेरे समाधान निकलते है और उन पर मुझे इतना दृढ विश्वास होता है कि किताबी समाधान और किताबी धौलागिरी उठाने का तमाशा करते चलने वालों को विनोद की चीज़ मानता हूँ क्योंकि ज्ञान का धौलागिरि उठाने के बाद भी उनका ज्ञान इतना रिक्त-बोध होता है कि वे उसे भरने के लिए पश्चिम पर निर्भर करते है, जिसका काम रिक्तता को और, उसके साथ, पश्चिम निर्भरता को बढ़ाता है. बौद्धिक गुलामी के तौक को ताज की महिमा प्रदान करता है।

यदि आप समझते है कि मैं प्रकारांतर से अपनी प्रशस्ति कर रहा हूँ तो प्रतीक्षा करे और जवाब स्वयं दें. पहले परिलेखन का अर्थ समझें. ज्ञानमंडल के कोश में परिलेख का अर्थ है : रेखाचित्र. परिलेखन का अर्थ है ‘वेदी के चारों ओर रेखाएं बनाना’.

अब काठक संहिता के इस अंश को पढ़ें, इसके लिए संस्कृत का आधिकारिक ज्ञान भी जरूरी नही:
… रक्षसामपहन्त्यै तिसृभिः परिलिखति …. कविवाजपतिः इति गायत्र्या परिलिखति, … परि त्वाग्ने पुरं वयं इति अनुष्टुभा…. त्वमग्ने द्युभिरिति त्रिष्टुभा….

यहां ऋचाएं परिलिखित की जा रही हैं। संभव है यज्ञ के अवसर पर रेखांकन प्रतीकात्मक होता रहा हो जैसे वस्त्रं समर्पयामि के नाम पर कुछ धागे अर्पित कर दिए जाते हैं, पर यह जैसे वस्त्र के प्रचलन का प्रमाण है वैसे ही परिलेखन लेखन की अव्याहत परम्परा का प्रमाण है। प्रमाणों से बोझिल नही करना चाहता पर वे है और आज तक किसी न किसी स्तर पर अधिक दक्षता से प्रयोग में लाए जाते है।

इसी अन्तःसलिला से जुड़े थे वे चिन्ह जिन्हें मैंने गोधन के चित्रांकन में लंगड़ बाबा, बिच्छू, स्वस्तिक और कतिपय दूसरे अंकनों में पाकर मन में बेचैनी अनुभव की थी कि ऐसे शुभ अवसर पर इनका क्या अर्थ । जहां तक याद गोबर से यूँ भी, आप कल्पना कर सकते है, चित्र नहीं बनाए जा सकते, रेखांकन अवश्य संभव है. ऐसे में जब सनातन काल यात्री की पोस्ट में चित्र देखे तो उनके श्रम पर संदेह तो हो न सकता था। वह क्षेत्रीय अनुसंधान करते हैं और उसका दृश्य-श्रव्य अभिलेखन भी करते है। चिंता इस बात को लेकर होती है कि सत्तर पचहत्तर साल के भीतर ही विविध कारणों से कितना बदलाव आ गया है और इस चेतावनी को यदि हम समझ सकें तो पूरी तरह नष्ट होने से पहले हमें इन्हें अभिलेख बद्ध करना चाहिए, व्योंकि ह्यनि होती रहेंगी, और रीति रहेगी, उसका तर्क और औचित्य लुप्त हो जाएगा, जैसे शब्द बचे रहें, उनका अर्थ खो जाए, जैसा निरर्थक प्रतीत होने वाले स्थाननामों आदि के मामले में देखने में आता है।.

Post – 2017-10-25

इसकी शुरुआत जब भी हुई, सरकार को दोष नहीं दिया जा सकता। सरकार धोखे में आ सकती है। जनजातियों में यह प्रयोग हुआ जहां ईसाई सक्रियता को प्रोतसाहित किया जा रहा था, इसलिए यह धोखा नजर न आया। यह आज भी जारी है। बिल गेट्स बार बार आता है। उसकी संस्था की सक्रियता पर रोक लगनी चाहिए। उसके प्रयोग के भुक्तभोगियों के लिए भारी हर्जाने की माग की जानी चाहिए। बिल गेट्स को भारत प्रवेश की अनुमति न दी जानी चाहिए और इसे राजनीति का खेल न बनाते हुए सभी बुद्धिजीवियों को सभी मंचों से एक जुट होकर यह अभियान चलाना चाहिए।

(एक रोचक बात यह हुई कि पहले बीबीसी की जिस लिंक को मैंने गूगल से उठाया था उसे अपनी टिप्पणी में लिंक किया तो पहले मेल नहीं खुला. फिर गूगल पर उसे खोल कर केवल इबारत नकल कर चस्पा किया तो कुछ समय दिखाई दिया फिर वह भी अदृश्य हो गया. जो भी हो bill Gates १९९७ में देव गौड़ा के समय से ही भारत आता रहा है पर तब यह धंधा न शुरू हुआ था. दवाओं और इन्जेकशनों के प्रयाग का कारोबार मार्च २०११ में आरम्भ हुआ, उसके बाद के वर्षों में बिल गेट्स बार बार आता रहा है और कैंसर से लेकर दूसरी खतरनाक दवाओं के प्रयोग उनको नीरोग करने वाले शॉट्स के रूप में आजमाए जाते रहे हैं जिससे उन्हें भारी क्षति हुई है. स्थान बदलते रहने के कारण धोखाधड़ी चलती रही है। वह मोदी का भी प्रशंसक है। अब सूना बिहार की बारी है। यह एक गंभीर मसला है। एक खतनाक युद्ध जिसमे चुप रहने का मतलब हमलावरों का साथ देने जैसा है।)

Post – 2017-10-25

क्या इसका कारण यह है कि इसकी आड़ में भाजपा और मोदी को घेरा नहीं जा सकता क्योंकि यह २०११ में शुरू हुआ था?