अग्निभिक्षा
चार पांच साल का बच्चा क्या कर सकता है इसे आप नहीं जान सकते। उससे क्या काम लिया जा सकता है यह काम लेने वाले जानते हैं। मुझे जो दो काम याद आते हैं उनका संबंध भिक्षाटन से है। भिक्षा देना और भिक्षा के लिए भटकना।
बीसवीं शताब्दी के आरंभ में भारत की आबादी तीस करोड़ से करोड़ से कुछ कम थी। जब बंकिम बाबू ने त्रिंश कोटि कल कल निनाद कराले लिखा था तब कुछ और कम रही होगी। इसका एक कारण यह रहा हो सकता है कि देवताओं की संख्या तैंतीस करोड़ थी इसलिए मनुष्यों के लिए जगह कम पड़ जाती रही होगी।
मेरे जन्म से घबरा कर अंग्रेजों ने जनगणना करा डाली कि कहीं मनुष्यों और देवताओं का अनुपात और बिगड़ने तो नहीं जा रहा। उन्हे पता चला कि हुआ उल्टा है, भारतीय इतिहास में पहली बार मनुष्यों की संख्या देवताओं से आगे चली गई है। अपनी प्रशंसा अपने मुंह से करते हुए संकोच होता है, पर आप चाहें तो कह सकते हैं कि मेरे जन्म के साल में मनुष्यता देवत्व पर भारी पड़ी। भारत की आबादी ३५ करोड़ हो गई थी। उससे चार पांच साल बाद जब के भिक्षाटन की बात कर रहा हूं आबादी अधिक से अधिक ३६ करोड़ रही होगी । फिर भी भिखारियों की बाढ़ सी आई रहती।
Inclusion of new area Actual increase of population
1881 253,896,330 1872-81 47,733,970 33,139,081 14,594,889 23.2
1891 287,314,671 1881-91 33,418,341 5,713,902 27,704,439 13.2
1901 294,361,05 1891-01 7,046,385 2,62,077 4,374,308 2.5
1911 315,156,396 1901-11 20,795,340 1,793,365 19,001,975 7.1
1921 318,942,480 1911-21 3,786,084 86,633 3,699,451 1.2
1931 352,837,778 1921-31 33,895,268 35,058 33,860,240 10.6
Total 1881-31 98,941,448 10,301,035 88,640,413 39.0
आबादी तब के भारत का दो तिहाई रह जाने के बाद भी उससे तीन गुने से अधिक हो चुकी है फिर भी आज गांवों में भीख मागने के लिए कोई नहीं आता, जब कि तब कोई घंटा खाली नहीं जाता था जब एक दो भिखारी हाजिर न हो जाते । उनका एक पैटर्न था, जिसमे यदि वे भीख के लिए मेरे घर का रुख करते और कोई दूसरा याचक द्वार पर खड़ा दिखाई दे जाता तो कन्नी काट कर दूसरी ओर चले जाते और कुछ समय लगाकर फिर उपस्थित होते। इसी तरह वे कई दिनों का अंतराल देकर आते, पर यदि उनके एक जत्थे की कल्पना करें तो वह सौ सवा सौ से अधिक का नहीं रहा होगा, जिसके इलाके में हमारा गांव आता था, इसलिए धीरे धीरे लोग उनके चेहरे और स्वभाव से परिचित हो जाते।
भिखारी कुछ पाने से पहले कुछ देता भी था, चाहे वह जयकार के रूप में हो या आशीर्वाद के रूप में या संगीत और भजन, गायन के रूप में। सबसे मार्मिक होता योगियों का सारंगीवादन और उसके साथ भरथरी का चरितगान। वे कुछ मागते नहीं थे। दरवाजे पर खड़े होकर पूरी तल्लीनता से सारंगी बजाते करुण रस का संचार करने लगते। कई बार तो महिलाएं ड्योढ़ी में पल्ले की ओट लेकर उनका गायन सुनने को इकट्ठा हो जातीं और यह भांप कर कि उनका गायन सुना जा रहा है वे देर तक गान करते रहते जैसे भिक्षा उनका पहला सरोकार न हो। यही हाल तमूरे पर सूर के पद गाने वालों का था ।
ये बातें मैने बाद में लक्ष्य कीं, परन्तु शैशव में योगियों से बहुत डर लगता । उनमें एक तो उस समय पहाड़ जैसा ऊंचा लगता। तामई रंग, बढ़े हुए बाल, लहराती दाढ़ी, नीचे से ऊपर तक गेरुआ बाना, कंधे से टखने तक सिले हुए गेरुआ गुद्दड़ का भारी धोकरा और ऊपर से बच्चों को डराने के लिए धोकरकसवा की कहानियॉं, जो लगता डराने वालों के लिए भी निरा कल्पित न थीं। वे मानतीं कि एकान्त में यदि कोई बच्चा मिल जाय तो वे जड़ी सुंघाकर उसे धोकरे में कस लेते हैं और ले जाकर उसे जोगी बना देते हैं। यह धारणा गलत थी, पर आशंका निराधार न थी। बच्चों को चुराकर बलि तक देने के प्रचलन उन्नीसवीं सदी में अधिक रहे हों, पर आज भी सुनने को मिलते हैं।
नर बलि के सबसे जघन्य कालों में उस पैमाने पर नरबलि न होती थी जितनी आज हो रही है। क्या कोई बता सकता है कि प्रतिवर्ष कितने हजार या लाख बच्चे गायब हो रहे हैं? कितने हजार विदेशी अंग प्रत्यारोपण के लिए भारत आते हैं जिनके कारण भारत चिकित्सा का नाभिक्षेत्र या हब बना हुआ है? कितने अनचाहे बच्चों का बोझ ढोने में अक्षम परन्तु देह धरे के दबाव में उनके जन्म को रोक न पाने के कारण उन्हें दो तीन सालों की उम्र में अपने पांवों पर खड़े होने के लिए खुला छोड़ देने वाले उनके वापस न आ पाने पर भारमुक्त अनुभव करते हैं और उनके लापता होने की रपट तक नहीं लिखवाते कि उनके मिल जाने की दशा में उनका भार झेलना होगा, यह मैं भी बता नहीं सकता, जब कि इसे अपनी जानकारी में घटित होते मैंने देखा है।
पहले जो कुछ अज्ञान और अन्धविश्वास के कारण, या मानसिक विकृति के कारण बहुत छोटे पैमाने पर होता था वही आज शिक्षित, पेशेवर चिकित्सकों के अधिक धनी होने का लालसा से पनपी अपराधीकरण के चलते दहला देने वाले पैमाने पर हो रहा है।
जो भी हो, जोगी के लंबे और नीचे भीख के अनाज से कुछ फैले धोकरे को देख कर मुझे लगता, हो सकता है उसमें किसी बच्चे को बेहोश करके डाल रखा हो और मौका मिले तो मुझे भी डाल लेगा, उसे भीख की डलिया पकड़ाते हुए मैं बहुत सावधान रहता था। इस कार्य में मैं माई के सहायक का काम करता। आवाज सुनकर एक हाथ में अनाज की डलिया और दूसरे हाथ से मुझे पकड़े ड्योढ़ी तक आती और फिर डलिया मुझे पकड़ा कर किल्ली खोल कर बाहर जाने पर डलिया मुझे थमा देती इसलिए आश्वस्त रहता कि वह मुझे नहीं पकड़ेगा।
भिखारियों को भीख बड़े आदर के साथ दिया जाता, फिर भी मैं समझता था भीख मांगना गर्हित काम है। इसके बाद भी मुझे स्वयं अग्निभिक्षा पर निकलना पड़ता।
यह बात मेरी समझ में कभी नहीं आई कि यह काम सन्ध्या को ही क्यों करना पड़ता। सुबह के लिए यदि पूरी रात आग जिला कर रखी जा सकती थी तो शाम के लिए ऐसा क्यों नहीं किया जा सकता था।
कभी इस बात पर भी ध्यान नहीं दिया कि जगदीशका को कभी यही काम क्यों नहीं करना पड़ा। अब सोचता हूं तो लगता है काकी आग जिला कर रखती थीं परंतु माई को उनसे आग मांगने का साहस नहीं होता था। हो सकता है कभी किसी बहाने इन्कार करने के कारण अपमानित अनुभव किया हो, और अपमान से बचने के लिए उसे किसी दूसरे के घर से आग मंगाना पड़ता था। यह नित्य का क्रम था या कभी कभी यह होता था, यह कहना कठिन है , पर होता इतनी बार था कि मैं कोशिश करता कि जिस घर में इससे पहले गया था उसके यहां इतनी जल्द न जाऊं।
अग्निभिक्षा के लिए घर से कोई पात्र ले कर नहीं निकलता। रास्ते में ही कहीं खपड़ा नरिया चुनना होता। गावों में उन दिनों इनकी कमी न होती। बरसात से पहले खपरैल की मरम्मत के समय जो टुकड़े निकलते उनको ओरियानी के नीचे डाल दिया जाता जिससे बरसात में पानी की धार सीधे मिट्टी पर न गिर कर इन पर गिरे और नीचे गड्ढा न हो।
माई तो अग्निभिक्षा के अपमान से बच जाती पर मुझे प्राय: अपमानित होना पड़ता । कुछ घरों से तो सीधे लौटा दिया जाता, कुछ में माई को इस लापरवाही के लिए कोसने के बाद एक टुकड़ा सुलगता हुआ उपला मिल जाता। कहीं कहीं महिलाएं मुझे स्नेह से बैठा लेती और माई मेरे साथ कैसा बरताव करती है इसे कई बहानों से पता लगाने का प्रयत्न करतीं।
ऐसे अवसर पर मेरे मन में परिवार का स्वाभिमान जाग जाता, किसी के सम्मुख दैन्य न प्रकट करने का अभिमान जाग जाता और साथ ही एक काइंयापन भी जाग जाता कि यदि किसी से भी माई की शिकायत की तो यह खबर उस तक पहुंचेगी जरूर और फिर मेरी जो दुर्गति होगी उसकी कल्पना से सहमा रहता। इन तीनों का मिला जुला भाव ही रहता जिसमें मैं माई की बड़ाई करता।
सबसे तीखी झिड़की बचानी की मां से मिलती। वह दिन भर अपने दो कमरों के के आगे दो ओर से ऊंची छल्ली से घिरे मकान में रहतीं और किसी से न तो मिलतीं न कोई उनके पास जाता। दरवाजा चेचरे का था। मैने चेचरे को खटकाया और वह प्रकट हुईं और आग की याचना की तो उन्होंने झिड़कते हुए मना कर दिया और चेंचरा बंद कर लिया। मैं लौटने लगा तो चेंचरा खुला और उन्होंने वापस बुलाया। भीतर ले गईं। देर तक बड़बड़ाते हुए माई को लापरवाही के लिए कोसने के बाद आग दी।
कोसते तो सभी माई को ही लेकिन सुनना और अपमानित होना मुझे पड़ता था। उसे लौट कर यह भी बता न सकता था कि औरतें उसे कैसी खरी-खोटी सुनाती हैं।
मेरी सबसे अधिक दुर्गति तब होती जब हवा चलने से आग दहक जाती और खपरैल इतना गर्म हो जाता कि संभालना मुश्किल हो जाता । अब समस्या किसी दूसरे खपरैल की तलाश की हो जाती और आग के उस पर पलटने की। एक बार की याद है जब खपरैल हाथ से छूट गई और आग नीचे गिर कर बिखर गई । बड़ी मुश्किल से एक टुकड़ा घर तब जीता जागता पहुंचा पाया। जुगत क्या बैठाई थी यह याद नहीं।
अपने परिवार से बाहर के समाज से मेरा परिचय इस अग्निभिक्षा के माधयम से आरंभ हुआ था। यह एक तरह की मुठभेड़ थी। इसी के चलते बचानी की मां जिनके कर्कश स्वभाव के कारण सभी डरते, उनका दरवाजा मेरे लिए खुल गया और मेरे साथ जगदीशका, चन्नर का और शायद झीनक का भी शाम ढले उनके पास कहानियां सुनने जाने लगे थे। एक दो किस्से सुनाने के बाद वह कहतीं, ‘अब भगवान का जोड़ुआ खिस्सा होगा। मैं जो कुछ सूझता जोड़ता फिर कुछ ठिठकता हुआ जाने क्या क्या कहता और वह पूरे धीरज से सुनतीं, जहां रुकता वहां हौसला बढ़ाने के लिए वह उकसाती भी।
अब सन्दहवादियों को यह यह विश्वास दिलाना तो कठिन है कि मैंने अक्षरज्ञान से पहले अग्निभिक्षा अभियान में अपना पहला अनुसंधान पूरा कर लिया था और यह था आग किसी और के यहां मिले या नहीं, हुक्का पीने वाली महिलाओं के घरों में अवश्य मिल जाएगी, और अक्षर ज्ञान से पहने मैं कहानीकार भी बन चुका था। अनिश्चय सिर्फ एक बात को ले कर है कि बचानी की मां ने मेरी प्रतिभा की खोज की या मुझे अपने प्रयत्न से कहानीकार बनाया ।
पर मेरी विफलता यह कि मैंने न कहानी गढ़ने में दक्षता पाई, न बातें गढ़ने में। मै जोड़आ कहानीकार बना और जोड़ुआ विद्वान। एक बात में जानें कितनी बातें जुड़ती चली जाती हैं।