Post – 2017-10-25

लंगड़ बाबा

मेरी यादें अधूरी, धुंधली और कई तरह से एक दूसरी में घुली हैं, जहाँ बाद की सूचना या ज्ञान से उनको गलत पाता हूँ वहाँ भी उनका दृश्य चित्र बदलने से इनकार करता है। इसका उल्टा भी होता है। बहुत बाद का अर्जित ज्ञान अतीत की स्मृतियों पर हावी होकर उनको नया अर्थ देने लगता है। दबाव इतना प्रबल होता है कि यह जानते हुए भी कि यह कृत्रिम है स्मृतिचित्र से इसे निकाल नहीं पाता। सचेत क्षणों में इसकी व्याख्या का प्रयतन निबंध का रूप ले लेता है पर निबंध भी भरोसे का नहीं रहता। स्मृति-विस्मृति, तथ्य, अनुमान के इसी संघात से मेरी चेतना का निर्माण हुआ है इसलिए इसका अविश्वसनीय भी सत्य है।

मैं अन्नकूट की जिस आकृति को स्मरण कर पाता हूँ उसके लिए अल्पना, ऐपन, चौक पूरना सभी प्रयोग गलत लगते हैं। सही शब्द होगा, पर मुझे उनका ज्ञान नहीं और मेरे लिए उसकी जरूरत नहीं, क्योंकि उस सूचना से भी वह चित्र तो बदलने से रहा। उसक चौखटे का साम्य हड़प्पा के ताम्बे के टिक्कलों (copper tablets) से बैठता है और फिर काठक संहिता में आए विश्वज्योति इष्टकों का, यज्ञ के कर्मकांड में कतिपय ऋचाओं के परिलेखन का हवाला, चित्रलेखन करने वाले चित्रगुप्त के आयु लेख के समानांतर भाग्य लिखने वाले ब्रह्मा के गूढ़ टंकन (भाल पट्ट पर) करने वाले ब्रह्मा के नाम से ब्राह्मी के नामकरण पर विस्मय (क्योंकि ब्रह्मा का लेख तो गूढ़ होता है और यहाँ एक एक अक्षर स्पष्ट) और उसका कारण जानने की कोशिश, इन सबके घोल से बनती है वह अजबजाहट जिससे मेरे समाधान निकलते है और उन पर मुझे इतना दृढ विश्वास होता है कि किताबी समाधान और किताबी धौलागिरी उठाने का तमाशा करते चलने वालों को विनोद की चीज़ मानता हूँ क्योंकि ज्ञान का धौलागिरि उठाने के बाद भी उनका ज्ञान इतना रिक्त-बोध होता है कि वे उसे भरने के लिए पश्चिम पर निर्भर करते है, जिसका काम रिक्तता को और, उसके साथ, पश्चिम निर्भरता को बढ़ाता है. बौद्धिक गुलामी के तौक को ताज की महिमा प्रदान करता है।

यदि आप समझते है कि मैं प्रकारांतर से अपनी प्रशस्ति कर रहा हूँ तो प्रतीक्षा करे और जवाब स्वयं दें. पहले परिलेखन का अर्थ समझें. ज्ञानमंडल के कोश में परिलेख का अर्थ है : रेखाचित्र. परिलेखन का अर्थ है ‘वेदी के चारों ओर रेखाएं बनाना’.

अब काठक संहिता के इस अंश को पढ़ें, इसके लिए संस्कृत का आधिकारिक ज्ञान भी जरूरी नही:
… रक्षसामपहन्त्यै तिसृभिः परिलिखति …. कविवाजपतिः इति गायत्र्या परिलिखति, … परि त्वाग्ने पुरं वयं इति अनुष्टुभा…. त्वमग्ने द्युभिरिति त्रिष्टुभा….

यहां ऋचाएं परिलिखित की जा रही हैं। संभव है यज्ञ के अवसर पर रेखांकन प्रतीकात्मक होता रहा हो जैसे वस्त्रं समर्पयामि के नाम पर कुछ धागे अर्पित कर दिए जाते हैं, पर यह जैसे वस्त्र के प्रचलन का प्रमाण है वैसे ही परिलेखन लेखन की अव्याहत परम्परा का प्रमाण है। प्रमाणों से बोझिल नही करना चाहता पर वे है और आज तक किसी न किसी स्तर पर अधिक दक्षता से प्रयोग में लाए जाते है।

इसी अन्तःसलिला से जुड़े थे वे चिन्ह जिन्हें मैंने गोधन के चित्रांकन में लंगड़ बाबा, बिच्छू, स्वस्तिक और कतिपय दूसरे अंकनों में पाकर मन में बेचैनी अनुभव की थी कि ऐसे शुभ अवसर पर इनका क्या अर्थ । जहां तक याद गोबर से यूँ भी, आप कल्पना कर सकते है, चित्र नहीं बनाए जा सकते, रेखांकन अवश्य संभव है. ऐसे में जब सनातन काल यात्री की पोस्ट में चित्र देखे तो उनके श्रम पर संदेह तो हो न सकता था। वह क्षेत्रीय अनुसंधान करते हैं और उसका दृश्य-श्रव्य अभिलेखन भी करते है। चिंता इस बात को लेकर होती है कि सत्तर पचहत्तर साल के भीतर ही विविध कारणों से कितना बदलाव आ गया है और इस चेतावनी को यदि हम समझ सकें तो पूरी तरह नष्ट होने से पहले हमें इन्हें अभिलेख बद्ध करना चाहिए, व्योंकि ह्यनि होती रहेंगी, और रीति रहेगी, उसका तर्क और औचित्य लुप्त हो जाएगा, जैसे शब्द बचे रहें, उनका अर्थ खो जाए, जैसा निरर्थक प्रतीत होने वाले स्थाननामों आदि के मामले में देखने में आता है।.