आ बैल मुझे मार
राजनीति पर कुछ लिखने की योग्यता मुझमें नहीं है। सर्वज्ञ होने को मितज्ञ होने से बड़ी उपलब्धि नहीं मानता। मन में इस बात की ग्लानि बनी रहती है कि मैं साहित्य, भाषाविज्ञान, वैदिक मीमांसा, पुरातत्व, इतिहास, सभी में अड़ंगाबाजी क्यों करता हूं। क्यों नहीं इनमें से किसी एक तक अपने को सीमित रखकर अंति गहराई तक पहुंचने का संयम बरत सका।
आधुनिक विषयों पर भी समय-समय पर टिप्पणी करने के लिए लाचार हुआ। संभवतः इस दबाव में कि यह बता सकूं जगत गति मुझे भी व्यापती है, परंतु मन में इस आकांक्षा के साथ मेरी सोच में यदि कोई चूक है तो इसे सुधारने में मित्रगण सहायक होंगे।
मैं जो कुछ लिखता हूं, वह प्रशंसा के लिए नहीं होता। यह काम मैं स्वयं कर लेता हूं। यदि आपने कभी मेरी गर्वोक्तियों पर ध्यान दिया हो तो आप मानेंगे, कि मैं झूठ नहीं बोल रहा हूं। इसके बाद ऐसा कुछ बचता ही नहीं है जो मेरे विषय में कोई दूसरा कह सके, इसलिए मैं हमेशा उन लोगों का अधिक आदर करता हूं जो मेरी कमियां बताते हैं। जो बहुत फैला होता है उसमें छिद्र बहुत अधिक होते हैं, और यदि उसके पाठक उन्हें जानने में उसकी सहायता कर सकें तो यह उपकार करने के समान है। प्रशंसा तो कोई वैसी कर नहीं सकता जितनी मैं खुद अपने आप कर लेता हूं। प्रशंसकों से मुझे कुछ नहीं मिलता, जो कुछ मिलता है, वह आलोचकों से ही मिलता है। आज भी वहीं खतरा उठाना चाहता हूं और चाहता हूं आप मुझसे सहमत हों, परंतु स्नेहवश दूसरों से सहमत होने की आदत से भी बचने का प्रयास करें, और विरोध के लिए विरोध नहीं, गंभीरता से सोच कर मुझसे असहमति प्रकट करें जिससे मैं अपनी गलतियां सुधार सकूं।
यह शुभ है कि युद्धोन्माद का पारा कुछ नीचे आया है। परमाणविक आयुधों के के बाद दुनिया का कोई परमाणु-आयुध-संपन्न देश किसी दूसरे परमाणु-आयुध-संपन्न देश से अपनी छेड़छाड़ को उस सीमा तक नहीं पहुंचा सकता जिसमें अंतिम विकल्प परमाणु शक्ति का प्रयोग ही रह जाता है। प्रश्न यह नहीं है कि किसके पास कितने आयुध हैं। प्रश्न यह है कि आपको परमाणु शक्ति संपन्न होने की धौंस के कारण, कोई ब्लैकमेल कर रहा है, और आप उससे बचने के लिए लगातार पीछे हट रहे हैं या अंतिम जोखम का निर्णय करके उस की दबंगई को कम करते हैं और शांति का माहौल तैयार करने में अपनी भूमिका निभाते हैं।
पहली स्थिति का लाभ अपनी दबंगई के बल पर सोवियत संघ के विरुद्ध अमेरिका ने उठाया, और शांति प्रेम मे सोवियत संघ झुकने को विवश होता रहा। सामरिक तैयारी में उपभोक्ता वस्तुओं की कमी ने उसे जमीन पर ला दिया और इस दुहरी चिंता में गोर्बाचेव ने अमेरिका के सामने समर्पण कर दिया। अपने मानवतावादी सरोकारों के कारण परमाणु युद्ध को टालने का काम सोवियत संघ ने न ले लिया होता, तो अमेरिका को अपनी धमकी से पीछे हटना ही होता। कारण, परमाणु आयुधों के बाद उनके तुलनात्मक भंडार था प्रश्न ही बेमानी हो गया था। किसी के पास इतने कम परमाणु बम नहीं है कि दूसरे की भारी तबाही न कर सके, शर्त एक ही है कि उसे अपने सर्वनाश की कीमत पर ही यह जोखम उठाना होगा। जिस देश पर वह आक्रमण करता है वह देश जवाबी आक्रमण तो करेगा ही, दुनिया के दूसरे परमाणु शक्ति संपन्न देश भी ऐसे उन्मादी देश को धरती से मिटाने के लिए अपने बल का प्रयोग करेंगे। परमाणविक युद्ध अकेला ऐसा है, जिसमें युद्ध दो देशों के बीच सीमित रह ही नहीं सकता। यह अकेला युद्ध है जिसमें आक्रांता का सर्वनाश होना निश्चित है। आक्रांत उसके विनाश के बाद भी बचा रह सकता है। इसलिए परमाणविक युद्ध छेड़ना विश्वहित में तो है ही नहीं, छेड़ने वाले के सर्वनाश चुनाव है।
परमाणु-आयुध-संपन्नता कूटनीतिक दबाव का अंग बन चुका है। इसका लाभ लगातार पाकिस्तान लेता रहा, क्योंकि उसने अपने को एक गुंडा राज्य के रूप में पेश करने का तरीका अपनाया था। इसके सामने अधिक जिम्मेदार होने के कारण, भारत को लगातार पाकिस्तान के सम्मुख दीन हीन पॉलिसी अपनाने को विवश कर दिया था, जिसमें पाकिस्तान का समर्थन करने वाले भारतीय सिरफिरों को रिश्वत दी जाती थी कि वे कुछ कम उग्र रहें।
पहली बार नरेंद्र मोदी ने केवल पाकिस्तान के साथ दोस्ती का ही हर संभव प्रयास नहीं किया, कश्मीर का भी विकास करते हुए उससे सैन्य नियंत्रण को कम करने का आश्वासन दिया परंतु वह रिश्वत न दी जो पहले दी जाती थी। मोदी ने यह जानते हुए कि पीडीपी अलगाववादी मानसिकता से ग्रस्त है, लोकतंत्र को अपना करिश्मा करने का एक अवसर दिया । यह एक बहुत बड़ा प्रयोग था और इसकी क्रमिक विफलताओं के बाद भी अधिकतम अवसर दिया कि यह अपनी ग़लतियों से कुछ सीखें, और जब लगा गलतियां तक उसे अपनी उपलब्धियों प्रतीत हो रही हैं, तो नाता भंग करने पर बाध्य हुआ।
ठीक यही नीति उसने दूसरे अलगाववादियों और नौजवानों के साथ अपनाई। आगे का इतिहास मुझसे अधिक इस इलाके में ऊधम मचाने वाले हमारे मित्र जानते हैं, इसलिए हाल में घटित हुई घटनाओं को दुहराने का कोई अर्थ नहीं है।
संक्षेप में मेरी धारणाएं निम्न प्रकार हैं:
इस परिघटना के काल और भावी चुनाव को देखते हुए इसके कई तरह के अर्थ निकाले जा सकते हैं। ये अर्थ वस्तुस्थिति से अधिक हमारे पूर्वाग्रहों पर निर्भर करते हैं। कई की नजर में इसके कई लाभ होंगे इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता, परंतु सुरक्षित यही है कि इन्हें विवाद से अलग रखा जाए।
इस घटना क्रम में जो कुछ हुआ है उसका एक लाभ तो यह है कि कि जो लोग भारत में बैठकर अलगाव की बातें करते थे और जिन पर अंकुश लगाना अभी तक संभव नहीं था अब पहली बार उनको दबाव मैं लिया जा सका है। उनकी आवाज और तेवर में अंतर आएगा।
पाकिस्तान जो अपने को किसी भी नैतिक प्रतिबंध से बाहर मानता था, और यह दावा करता था कि वह बिना कोई सूचना दिए परमाणु आयुधों का विकल्प अपना सकता है, उसे पहली बार यह बोध हुआ है, कि यह बच्चों का खेल नहीं है और खिलौना मान कर मनमानी करना शत्रु देश पर जितना भारी पड़ेगा उससे अधिक उसी पर भारी पड़ सकता है।
इमरान खान को मैं एक क्रिकेट खिलाड़ी के रूप में जानता था, जो बाल के साथ छेड़छाड़ करके भी विजय पाने के लिए कृत संकल्प रहा करता था। एक राजनीतिज्ञ के रूप में इमरान खान से मुझे अधिक उम्मीद नहीं थी। बल्कि मैं उसे राजनीति के लिए अवांछित व्यक्ति समझता था। मेरी समझ में बदलाव आया है। पाकिस्तान इमरान खान की मुट्ठी में नहीं है। वह सेना से चलता है, परंतु इमरान खान अब तक के पाकिस्तानी जनप्रतिनिधियों की तुलना में बहुत ऊंचा स्थान रखता है । उसे यह सौभाग्य प्राप्त हुआ कि सेना ने पहली बार यह अनुभव किया कि अब भारत को ब्लैकमेल नहीं किया जा सकता, और कोई खतरा उठाना आत्महत्या के समान होगा। संभव है अब सेना नागरिक शासन को अधिक सम्मान की दृष्टि से देख सके।
नरेंद्र मोदी की भाषा मुझे पसंद नहीं है, उनकी भाव भंगिमा भी मुझे पसंद नहीं है, परंतु उनके कारनामे अभी तक के भारतीय इतिहास में अलग दिखाई देते हैं। सारी चर्चा या तो मोदी के विरोध में होती है या मोदी के पक्ष में। मोदी भारतीय चिंतन के केंद्र में हैं, और जब तक हैं तब तक शायद ही कोई उन्हें पराजित कर सके। वह अपने विरोधियों के अधिक शुक्रगुजार हैं, बनिस्बत अपने समर्थकों के जो आए दिन अपना असंतोष जाहिर करते हुए उटपटांग बातें करते रहते हैं।
मुझे अपनी सीमित समझ के भीतर किसी को उपदेश देने का अधिकार नहीं है, परंतु यह निवेदन करने का अधिकार तो है कि जैसे परमाणु युग में युद्ध के परिणामों को समझा जाना चाहिए, उसी तरह युद्ध उन्मादी भाषा, रिटोरिक, और आवेश से भी बचा जाना चाहिए।
सलाह तो मुझे भी आप ही देंगे।