Post – 2019-02-28

आ बैल मुझे मार

राजनीति पर कुछ लिखने की योग्यता मुझमें नहीं है। सर्वज्ञ होने को मितज्ञ होने से बड़ी उपलब्धि नहीं मानता। मन में इस बात की ग्लानि बनी रहती है कि मैं साहित्य, भाषाविज्ञान, वैदिक मीमांसा, पुरातत्व, इतिहास, सभी में अड़ंगाबाजी क्यों करता हूं। क्यों नहीं इनमें से किसी एक तक अपने को सीमित रखकर अंति गहराई तक पहुंचने का संयम बरत सका।

आधुनिक विषयों पर भी समय-समय पर टिप्पणी करने के लिए लाचार हुआ। संभवतः इस दबाव में कि यह बता सकूं जगत गति मुझे भी व्यापती है, परंतु मन में इस आकांक्षा के साथ मेरी सोच में यदि कोई चूक है तो इसे सुधारने में मित्रगण सहायक होंगे।

मैं जो कुछ लिखता हूं, वह प्रशंसा के लिए नहीं होता। यह काम मैं स्वयं कर लेता हूं। यदि आपने कभी मेरी गर्वोक्तियों पर ध्यान दिया हो तो आप मानेंगे, कि मैं झूठ नहीं बोल रहा हूं। इसके बाद ऐसा कुछ बचता ही नहीं है जो मेरे विषय में कोई दूसरा कह सके, इसलिए मैं हमेशा उन लोगों का अधिक आदर करता हूं जो मेरी कमियां बताते हैं। जो बहुत फैला होता है उसमें छिद्र बहुत अधिक होते हैं, और यदि उसके पाठक उन्हें जानने में उसकी सहायता कर सकें तो यह उपकार करने के समान है। प्रशंसा तो कोई वैसी कर नहीं सकता जितनी मैं खुद अपने आप कर लेता हूं। प्रशंसकों से मुझे कुछ नहीं मिलता, जो कुछ मिलता है, वह आलोचकों से ही मिलता है। आज भी वहीं खतरा उठाना चाहता हूं और चाहता हूं आप मुझसे सहमत हों, परंतु स्नेहवश दूसरों से सहमत होने की आदत से भी बचने का प्रयास करें, और विरोध के लिए विरोध नहीं, गंभीरता से सोच कर मुझसे असहमति प्रकट करें जिससे मैं अपनी गलतियां सुधार सकूं।

यह शुभ है कि युद्धोन्माद का पारा कुछ नीचे आया है। परमाणविक आयुधों के के बाद दुनिया का कोई परमाणु-आयुध-संपन्न देश किसी दूसरे परमाणु-आयुध-संपन्न देश से अपनी छेड़छाड़ को उस सीमा तक नहीं पहुंचा सकता जिसमें अंतिम विकल्प परमाणु शक्ति का प्रयोग ही रह जाता है। प्रश्न यह नहीं है कि किसके पास कितने आयुध हैं। प्रश्न यह है कि आपको परमाणु शक्ति संपन्न होने की धौंस के कारण, कोई ब्लैकमेल कर रहा है, और आप उससे बचने के लिए लगातार पीछे हट रहे हैं या अंतिम जोखम का निर्णय करके उस की दबंगई को कम करते हैं और शांति का माहौल तैयार करने में अपनी भूमिका निभाते हैं।

पहली स्थिति का लाभ अपनी दबंगई के बल पर सोवियत संघ के विरुद्ध अमेरिका ने उठाया, और शांति प्रेम मे सोवियत संघ झुकने को विवश होता रहा। सामरिक तैयारी में उपभोक्ता वस्तुओं की कमी ने उसे जमीन पर ला दिया और इस दुहरी चिंता में गोर्बाचेव ने अमेरिका के सामने समर्पण कर दिया। अपने मानवतावादी सरोकारों के कारण परमाणु युद्ध को टालने का काम सोवियत संघ ने न ले लिया होता, तो अमेरिका को अपनी धमकी से पीछे हटना ही होता। कारण, परमाणु आयुधों के बाद उनके तुलनात्मक भंडार था प्रश्न ही बेमानी हो गया था। किसी के पास इतने कम परमाणु बम नहीं है कि दूसरे की भारी तबाही न कर सके, शर्त एक ही है कि उसे अपने सर्वनाश की कीमत पर ही यह जोखम उठाना होगा। जिस देश पर वह आक्रमण करता है वह देश जवाबी आक्रमण तो करेगा ही, दुनिया के दूसरे परमाणु शक्ति संपन्न देश भी ऐसे उन्मादी देश को धरती से मिटाने के लिए अपने बल का प्रयोग करेंगे। परमाणविक युद्ध अकेला ऐसा है, जिसमें युद्ध दो देशों के बीच सीमित रह ही नहीं सकता। यह अकेला युद्ध है जिसमें आक्रांता का सर्वनाश होना निश्चित है। आक्रांत उसके विनाश के बाद भी बचा रह सकता है। इसलिए परमाणविक युद्ध छेड़ना विश्वहित में तो है ही नहीं, छेड़ने वाले के सर्वनाश चुनाव है।

परमाणु-आयुध-संपन्नता कूटनीतिक दबाव का अंग बन चुका है। इसका लाभ लगातार पाकिस्तान लेता रहा, क्योंकि उसने अपने को एक गुंडा राज्य के रूप में पेश करने का तरीका अपनाया था। इसके सामने अधिक जिम्मेदार होने के कारण, भारत को लगातार पाकिस्तान के सम्मुख दीन हीन पॉलिसी अपनाने को विवश कर दिया था, जिसमें पाकिस्तान का समर्थन करने वाले भारतीय सिरफिरों को रिश्वत दी जाती थी कि वे कुछ कम उग्र रहें।

पहली बार नरेंद्र मोदी ने केवल पाकिस्तान के साथ दोस्ती का ही हर संभव प्रयास नहीं किया, कश्मीर का भी विकास करते हुए उससे सैन्य नियंत्रण को कम करने का आश्वासन दिया परंतु वह रिश्वत न दी जो पहले दी जाती थी। मोदी ने यह जानते हुए कि पीडीपी अलगाववादी मानसिकता से ग्रस्त है, लोकतंत्र को अपना करिश्मा करने का एक अवसर दिया । यह एक बहुत बड़ा प्रयोग था और इसकी क्रमिक विफलताओं के बाद भी अधिकतम अवसर दिया कि यह अपनी ग़लतियों से कुछ सीखें, और जब लगा गलतियां तक उसे अपनी उपलब्धियों प्रतीत हो रही हैं, तो नाता भंग करने पर बाध्य हुआ।

ठीक यही नीति उसने दूसरे अलगाववादियों और नौजवानों के साथ अपनाई। आगे का इतिहास मुझसे अधिक इस इलाके में ऊधम मचाने वाले हमारे मित्र जानते हैं, इसलिए हाल में घटित हुई घटनाओं को दुहराने का कोई अर्थ नहीं है।

संक्षेप में मेरी धारणाएं निम्न प्रकार हैं:
इस परिघटना के काल और भावी चुनाव को देखते हुए इसके कई तरह के अर्थ निकाले जा सकते हैं। ये अर्थ वस्तुस्थिति से अधिक हमारे पूर्वाग्रहों पर निर्भर करते हैं। कई की नजर में इसके कई लाभ होंगे इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता, परंतु सुरक्षित यही है कि इन्हें विवाद से अलग रखा जाए।

इस घटना क्रम में जो कुछ हुआ है उसका एक लाभ तो यह है कि कि जो लोग भारत में बैठकर अलगाव की बातें करते थे और जिन पर अंकुश लगाना अभी तक संभव नहीं था अब पहली बार उनको दबाव मैं लिया जा सका है। उनकी आवाज और तेवर में अंतर आएगा।

पाकिस्तान जो अपने को किसी भी नैतिक प्रतिबंध से बाहर मानता था, और यह दावा करता था कि वह बिना कोई सूचना दिए परमाणु आयुधों का विकल्प अपना सकता है, उसे पहली बार यह बोध हुआ है, कि यह बच्चों का खेल नहीं है और खिलौना मान कर मनमानी करना शत्रु देश पर जितना भारी पड़ेगा उससे अधिक उसी पर भारी पड़ सकता है।

इमरान खान को मैं एक क्रिकेट खिलाड़ी के रूप में जानता था, जो बाल के साथ छेड़छाड़ करके भी विजय पाने के लिए कृत संकल्प रहा करता था। एक राजनीतिज्ञ के रूप में इमरान खान से मुझे अधिक उम्मीद नहीं थी। बल्कि मैं उसे राजनीति के लिए अवांछित व्यक्ति समझता था। मेरी समझ में बदलाव आया है। पाकिस्तान इमरान खान की मुट्ठी में नहीं है। वह सेना से चलता है, परंतु इमरान खान अब तक के पाकिस्तानी जनप्रतिनिधियों की तुलना में बहुत ऊंचा स्थान रखता है । उसे यह सौभाग्य प्राप्त हुआ कि सेना ने पहली बार यह अनुभव किया कि अब भारत को ब्लैकमेल नहीं किया जा सकता, और कोई खतरा उठाना आत्महत्या के समान होगा। संभव है अब सेना नागरिक शासन को अधिक सम्मान की दृष्टि से देख सके।

नरेंद्र मोदी की भाषा मुझे पसंद नहीं है, उनकी भाव भंगिमा भी मुझे पसंद नहीं है, परंतु उनके कारनामे अभी तक के भारतीय इतिहास में अलग दिखाई देते हैं। सारी चर्चा या तो मोदी के विरोध में होती है या मोदी के पक्ष में। मोदी भारतीय चिंतन के केंद्र में हैं, और जब तक हैं तब तक शायद ही कोई उन्हें पराजित कर सके। वह अपने विरोधियों के अधिक शुक्रगुजार हैं, बनिस्बत अपने समर्थकों के जो आए दिन अपना असंतोष जाहिर करते हुए उटपटांग बातें करते रहते हैं।

मुझे अपनी सीमित समझ के भीतर किसी को उपदेश देने का अधिकार नहीं है, परंतु यह निवेदन करने का अधिकार तो है कि जैसे परमाणु युग में युद्ध के परिणामों को समझा जाना चाहिए, उसी तरह युद्ध उन्मादी भाषा, रिटोरिक, और आवेश से भी बचा जाना चाहिए।

सलाह तो मुझे भी आप ही देंगे।

Post – 2019-02-27

#इतिहास_दुबारा_लिखो

विजेता-लिखित इतिहास

विजेता यदि आप का इतिहास लिखे तो उसका प्रयत्न होगा उसकी विजय स्थाई रहे। इसके लिए वह आपके अभेद्य माने जाने वाले शक्ति केंद्रों को नष्ट करेगा। भौतिक विजय के बाद मनोवैज्ञानिक विजय सत्ता को बनाए रखने के लिए जरूरी है।

जिस व्यक्ति ने भारत का पहला इतिहास लिखा, वह भारत का इतिहास नहीं लिख रहा था। उसकी पुस्तक का नाम था ‘हिस्ट्री ऑफ ब्रिटिश इंडिया’। वह ब्रिटिश इंडिया का इतिहास लिख रहा था। इसमें उसे अंग्रेजों के शासन को सबसे अच्छा सिद्ध करना था, जबकि यही वह दौर है जिसमें भारत को लगातार इतनी निर्ममता से लूटा जाता रहा कि यह एक संपन्न देश से कंगाल देश में बदल गया।

लुटेरे पहले भी आते रहे, परंतु वे किसी शहर या मंदिर की संपदा को लूट कर वापस चले जाते थे। मध्यकाल में भारत का आर्थिक दोहन होता तो रहा, परंतु वह अय्याशी में इस देश के भीतर खर्च होता रहा, इसलिए भारत की समग्र संपन्नता अधिक प्रभावित नहीं हुई थी। ऐसा पहली बार हुआ, कि लूट का सारा धन लगातार साल दर साल ब्रिटेन को जाता रहा। पहली बार देश को लूटा नहीं जा रहा था, इसका खून चूसा जा रहा था।

यदि अधोगति की इस पराकाष्ठा को भारतीय इतिहास की सबसे बड़ी उपलब्धि सिद्ध करना था तो जाहिर है इस के वैभव काल को दुर्भाग्यपूर्ण बताना जरूरी था। यह काम उस व्यक्ति ने किया था जिसने प्राच्य निरंकुशता ( ओरिएंटल डेसपोटिज्म) का सिद्धांत प्रतिपादित किया था और जिसे मार्क्स ने भी मिल जैसों के माध्यम से उपलब्ध अधकचरी जानकारी के कारण सत्य स्वीकार कर लिया। यह वही लेखक है जिसने यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया था कि समस्त ज्ञान, समस्त सिद्धांत यूरोप में पैदा हुए हैं और यहां से पूर्वी देशों की ओर फैले हैं इसलिए जो पश्चिम के जितना ही अधिक निकट है वह अपने पूर्ववर्ती देश की तुलना में उतना ही अधिक सभ्य है।

वह जिस यूरोप को सभ्यता का जन्मदाता मान रहा था उस यूरोप का हाल यह है की ग्रीस और रोम को छोड़कर दूसरे किसी देश के पास न तो ईसापूर्व की
शताब्दियों में अपने इतिहास का सही बोध था, न किसी तरह का साहित्य था और न ही कोई ऐसा वैचारिक योगदान था जिसके लिए किसी विचारक को याद किया जा सके।सभी का विस्तार से उल्लेख करना जरूरी नहीं है। उदाहरण के लिए हम निम्न अंशों पर नजर डाल सकते हैं:

जर्मनी
The Germans are a Germanic people, who as an ethnicity emerged during the Middle Ages. Originally part of the Holy Roman Empire, around 300 independent German states emerged during its decline after the Peace of Westphalia in 1648 ending the Thirty Years War.

ब्रिटेन
The Germanic-speakers in Britain, themselves of diverse origins, eventually developed a common cultural identity as Anglo-Saxons.

इंग्लैंड
The area now called England was first inhabited by modern humans during the Upper Palaeolithic period, but takes its name from the Angles, a Germanic tribe deriving its name from the Anglia peninsula, who settled during the 5th and 6th centuries. England became a unified state in the 10th century, and since the Age of Discovery, which began during the 15th century, has had a significant cultural and legal impact on the wider world

स्कॉटलैंड
The recorded history of Scotland begins with the arrival of the Roman Empire in the 1st century, when the province of Britannia reached as far north as the Antonine Wall. .
फ्रांस
In the later stages of the Roman Empire, Gaul was subject to barbarian raids and migration, most importantly by the Germanic Franks. The Frankish king Clovis I united most of Gaul under his rule in the late 5th century, setting the stage for Frankish dominance in the region for hundreds of years. Frankish power reached its fullest extent under Charlemagne. The medieval Kingdom of France emerged from the western part of Charlemagne’s Carolingian Empire, known as West Francia, and achieved increasing prominence under the rule of the House of Capet, founded by Hugh Capet in 987.

ग्रीस और रोम
Over the course of the 1st millennium BC the Greeks, Romans and Carthaginians established colonies on the Mediterranean coast and the offshore islands. The Roman Republic annexed southern Gaul as the province of Gallia Narbonensis in the late 2nd century BC, and Roman forces under Julius Caesar conquered the rest of Gaul in the Gallic Wars of 58–51 BC. Afterwards a Gallo-Roman culture emerged and Gaul was increasingly integrated into the Roman Empire.

ग्रीस हो या रोम, किसी के पास हरदोतस से पहले का कोई ऐतिहासिक आलेख नहीं था। पुराणवृत्त नाम मात्र को था और जो था वह किंचित हास्यास्पद था। गोरे रंग को सर्वोपरि और यूरोप को सभ्यता का जनक सिद्ध करने पर कटिबद्ध और इसके कारण ईसाइयत से पहले की सभी सभ्यताओं को नकारने वाले सिरफिरे विद्वान को प्राचीन भारत के विषय में विलियम जोन्स के उद्गारों से चोट पहुंची थी, भारत की इस श्रेष्ठता को वह कंपनी के हित के विरुद्ध पा रहा था।

कंपनी ने मुसलमानों से सत्ता छीनी थी, और उन्हें परास्त करने के बाद उस ओर से वे निश्चिंत थे। परंतु भारत के विषय में पादरियों की रपटों से जो कुछ मालूम हुआ होगा उसने यह सचाई उसे अवश्य बता रही होगी कि हिंदू मुस्लिम शासन के अंतर्गत भी गौ मांस भक्षी होने के कारण मुसलमान शासकों तक को अस्पृश्य मानते थे, और उसी कारण, चाकरी करने के बावजूद, अपने अंग्रेज मालिकों को भी ओछी नजर से देखते हैं।

जेम्स मिल भारत का इतिहास नहीं लिख रहा था, अंग्रेजों को सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करने के लिए, सांस्कृतिक स्तर पर हिंदुओं को पराजित करना चाहता था । वह हिंदुओं से सीधी लड़ाई नहीं लड़ रहा था अपितु विलियम जोंस से पंगा ले रहा था, जिन्होंने प्राचीन भारतीय सांस्कृतिक श्रेष्ठता को विनम्रता से स्वीकार किया था।

परंतु इसे इस रूप में भी प्रस्तुत किया जा सकता है कि वह विलियम जॉन्स के अधूरे काम को कुछ अधिक उजड्डता से पूरा कर रहा था, क्योंकि उसको परिवर्ती अंग्रेज इतिहासकारों का भी विरोध सहना पड़ा था।

याद रहे कि विलियम जॉन्स और जेम्स मिल दोनों एक ही काम कर रहे थे। विलियम जोंस ने संस्कृतज्ञों को खुश करते हुए संस्कृत के उद्गम क्षेत्र को भारत से बाहर ईरान में केंद्रित करके गोरे यूरोपियों को काले बंगालियों की संतान सिद्ध होने से बचा लिया था। और उनके द्वारा स्वीकृत प्राचीन भारत की श्रेष्ठता से यूरोप को, विशेषतः ब्रिटेन को और कंपनी शासन को मुक्ति दिलाने का बाकी काम जेम्स मिल कर रहे थे। जबान का अंतर था, पालन पोषण का भी रहा होगा, और इसलिए इतिहासकार के रूप में उन्हें अंग्रेजों द्वारा भी भुला दिया गया, परंतु प्रशासकीय मिजाज की जरूरत के कारण, उनका इतिहास आईसीएस के प्रत्याशियों के पाठ्यक्रम का हिस्सा बना रहा।

मिल के इतिहास का नाम ‘हिस्ट्री ऑफ ब्रिटिश इंडिया’ था और यदि उन्होंने ब्रिटिश इंडया का ही इतिहास लिखा होता, पृष्ठभूमि के रूप में मुगल काल के अंतिम दौर को भी ले लिया होता तो यह विषय के अनुरूप होता और उनकी कृति अपने दोषों को छिपा ले जाती। विवेचन भी तर्कसंगत होता। परंतु उनका मुख्य लक्ष्य ब्रिटिश इंडिया का इतिहास लिखना नहीं था, हिंदुओं को सांस्कृतिक रूप में परास्त करना था। कोई पूछे कि मुसलमानों को सांस्कृतिक स्तर पर पराजित करना क्यों नहीं चाहते थे तो इसका एक ही समाधान दिखाई देता, कि सामी मूल्य व्यवस्था के कारण उनसे कोई टकराव नहीं था। जीवनशैली अभी तक मुगलों की अपनाई जा रही थी और अनेक अंग्रेज तो अपने हरम तक बसाने लगे थे। ईसाइयों को यह रास आता था, यदि धर्मांतरण से नहीं तो इस तरीके से ईसाइयत का प्रचार हो रहा था।

प्राचीन भारत के विषय में उनकी जानकारी संस्कृत साहित्य के छुद्रतम अंश तक ही हो पाई थी, जबकि उस समय तक यूरोपीय विद्वानों को यह पता चल चुका था संस्कृत का साहित्य विपुल है। उसका बहुत छोटा सा भाग ही तब तक अनूदित हो पाया था। इसके आधार पर भारत के अतीत के विषय में कोई राय नहीं बनाई जा सकती था। इसलिए मिल को सामान्य स्थिति में उस पर हाथ डालना ही नहीं चाहिए था। जरूरत असामान्य थी और काम भी इतना असामान्य कि यदि उन्हीं जैसे बदहवास इतिहासकार, मार्क्सवादी चोला पहनकर, उन्हें शिरोधार्य न कर लेते तो इतिहासकार के रूप में वह दिवंगत हो चुके थे।

Post – 2019-02-25

बाणों की सेज पर भी कोई चैन से सोए
सोना पड़ा तो भीष्म मुझे कुछ गलत लगे।

Post – 2019-02-24

#इतिहास_दुबारा_लिखो
इतिहास होता नहीं है, रचा जाता है

अतीत की घटनाएं इतिहास नहीं है। उनकी स्मृति इतिहास है। स्मृति बिखरे हुए अनुभव बिंबों का संयोजन है। याद संजोई जाती है। इतिहास रचा जाता है।

किसी अवसर पर जब हम अपने विषय से संबंधित स्मृति-खंडों को वांछित रूप में संयोजित नहीं कर पाते हैं, तो बेतुकी बातें करते हैं। सुनने वाले व्यग्र हो जाते हैं। हम ज्ञान बघारते हैं और वे यातना के दौर से गुजरते हैं। ऐसा ही अधकचरे इतिहास को सही मान कर उसे सही सिद्ध करने की हमारी कोशिशों से भी होता है। अधूरे और असंबद्ध ( असंगतियों और विसंगतियों पर के बाद भी सत्ता के समर्थन से खड़े और लादे) गए इतिहास को पढ़ने वाले समाज के साथ भी यही होता है।

हमारे व्यक्तिगत अनुभव बिंब हमारी चेतना में बिखरे होते हैं। जातीय अनुभव खंड उन स्रोतों में में बिखरे होते हैं जिनका हमारे जीवन से वास्ता होता है परंतु सही वक्त पर जिनमें से सभी की ओर हमारा ध्यान नहीं जा पाता और हम जिन को पूरी तरह संयोजित नहीं कर पाते। इसलिए इतिहास उन स्रोतों की खोज, उनमें बची रह गई यादों को निकालने और उनकी अपनी युक्ति के अनुसार, न कि अपनी योजना के अनुसार, जोड़कर, एक निर्मिति तैयार करने जैसा काम है।

ध्यान रखें आप उन्हें जैसे चाहे वैसे जोड नहीं सकते, वे जहां जुड़ सकते हैं, जैसे जुड़ सकते हैं, वैसे ही जोड़ कर, उनकी चिंदियो का भी पूरा सम्मान करते हुए, उन्हें उनकी जगह पर रखते हुए ही, आप जहां तक संभव है, उनका पूर्वरूप तैयार कर सकते हैं।

पुरातत्वविदों को मलबा मिलता है, कृतियां नहीं मिलतीं, उनको जोड़ कर कल्पना से वह एक यथार्थ तैयार करते हैं जो लगता यथार्थ है पर यथातथ्य हो नहीं पाता, फिर भी जब तक किसी भांड के टुकड़े एकत्र मिल जाते हैं, और उनको जोड़कर वे उसका पूर्वरूप तैयार कर देते हैं।

यह साधारण काम नहीं है। आपने ब्लाक-बिल्डिंग पहेलियों में खंडों को सही-सही जोड़कर, पूर्ण आकार देने की चुनौती का सामना किया होगा। पुरातत्वविद का यह काम उसकी तुलना में कई गुना कठिन काम है। ऐतिहासिक पुनर्निर्माण इससे भी अधिक चुनौती भरा काम है।

लोग खास करके इतिहास का अपने लिए उपयोग करने के लिए व्यग्र लोग इतिहास को समझना नहीं चाहते। उसे समझे बिना उसका सही उपयोग नहीं हो सकता। परंतु इतिहास की समझ उनके इरादों के अनुकूल नहीं पड़ती, इसलिए वे सोचते हैं कि उनको अपनी जरूरत के अनुसार, जहां जी आए वहां जोड़ सकते हैं। सभी टुकड़े जुटाने की भी जरूरत नहीं समझते। वे अपने बेतुके जोड़ से पैदा होने वाली खाली जगहों को छोड़ सकते हैं। इससे इतिहास की समझ पैदा हो या न हो, उनका काम चल जाएगा ।

परंतु सचाई यह है कि इतिहास का जो सही बोध हो सकता है उसका तो वे सत्यानाश करते ही हैं, जिन प्रयोजनों के लिए अपने बेतुके इतिहास का इस्तेमाल करते हैं, उनका भी अहित करते हैं। परिणाम को अपनी अपेक्षा के विपरीत देखकर खीझते भी हैं कि यह हो क्या रहा है? हो कैसे रहा है?

इतिहास रचा तो जाता है , परंतु हमारी इच्छा के अनुसार नहीं, बल्कि बिखरे हुए स्मृति खंडो की अपनी शर्तों के अनुसार। यह रचना नहीं है, पुनर्संयोजन है। इतिहास की समझ उन महान इतिहासकारों और सिद्धांत कारों में भी गायब मिलती है जिनसे हम इतिहास की परिभाषा और इतिहास का ज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं। जरूरत इतिहास को दुबारा लिखने की ही नहीं, नए सिरे से परिभाषित करने की भी है जिसके बाद वह सचमुच विज्ञान बन सकता है।

Post – 2019-02-23

#इतिहासः_दुबारा_लिखो
इतिहास की नशाखोरी

इतिहास का ज्ञान हमारी मनोरचना को इस सीमा तक प्रभावित करता है कि इतिहास का ऐसा पाठ तैयार किया जा सकता है जिसको पढ़ कर आप अपने आप से घृणा करने लगें या एक भिन्न पाठ से दूसरा इस पर इतना गर्व करे कि वह आत्मरति से ग्रस्त होकर अपनी परछाईं को देखता हुआ मर जाए। यह संभव है कि दोनों तरह के इतिहासकार अपनी गलती को न पहचानते हुए, दूसरे की गलती को असह्य मानते हुए, उसे सुधारने के लिए एक ही समाज में इन दोनों विरोधी प्रतीत होने वाली प्रवृत्तियों को बढ़ावा दें और यह भी न समझ सकें कि इनमें विरोध है ही नहीं।

विष कड़वा हो या मीठा हो, उसका प्रधान गुण कड़वापन या मिठास नहीं है, अपितु उसकी मारक क्षमता है। नशीला पदार्थ रासायनिक हो या वानस्पतिक दोनों का परिणाम एक ही होता है, बदहवासी के रूप भले अलग हों। यथार्थ में कुछ जोड़कर उसे महिमा मंडित किया जाए, या कुछ छोड़ कर उसे विकृत किया जाए, दोनों स्थितियों में सत्य को नष्ट किया जाता है,और असत्य को स्थापित किया जाता है।

सत्य को नष्ट करने वाले, झूठ का प्रचार करने वाले, अपने ही समाज को गुमराह करने वाले, अपनी समझ पर विश्वास करने वालों के साथ विश्वासघात करने वाले, उनके हितैषी नहीं हो सकते। ये दोनों ज्ञान का नहीं नशे का कारोबार करते हैं और हमारे दुर्भाग्य से हमारे पास ये दोनों कारोबारी ही हमारे सलाहकार बने रहे हैं।

नशीले द्रव्य से मुक्ति का एक ही उपाय है कि हम जिसके आदी हैं उससे परहेज करें। हम उस इतिहास की तलाश करें जिसका बहुत कुछ छोड़ दिया गया है और जो बच रह गया है उसी से सभी नतीजे निकाले गए हैं। कहना चाहें तो कह सकते हैं कि हमें अपने निहित स्वार्थों के लिए इतिहास का अंग भंग करते हुए उसे लुंज पुंज बनाने वालों को अपराधियों की कतार में खड़ा करना चाहिए और उपेक्षित या तिरस्कृत या बहिष्कृत तथ्यों और सूचना के स्रोतों का उपयोग करते हुए एक स्वस्थ, आत्मनिर्भर, पूर्णांग इतिहास की प्रस्तुति करनी चाहिए।

इसे दुहराना जरूरी है कि इतिहास हमारे निजी और सामाजिक मानस के निर्माण का सांचा है , दुर्भाग्य से इस सांचे को समाज का अहित करते हुए अपना हित साधने वालों ने जगह जगह से तोड़ा है जिससे विकलांग इतिहास. विकल समझ, विकलांग समाज पैदा होता है । इस सांचे को जहां जहां से तोड़ा गया है, सही करना होगा और सही करने का एक ही तरीका है – उन तथ्यों पर ध्यान देना जिनको जो़ड़ा या
छोड़ा गया है, सूचना के उन स्रोतों का उपयोग करना जिनको किन्ही कारणों से दरकिनार कर दिया गया और जिनके उपयोग से ही हम इतिहास को जान सकते हैं।

विश्व इतिहास को भारत में उपलब्ध स्रोतों के अभाव में समझा ही नहीं जा सकता। इन स्रोतों की उपेक्षा की गई, यह मैं आज पूरे विश्वास से बता सकता हूं; किस सीमा तक उपेक्षा की गई, यह भी बता सकता हूं; परंतु यह नहीं बता सकता कि जिन कारणों से उपेक्षा की गई उनके पीछे समझ की खोट कितनी और नीयत की खोट कितनी थी। हां यह अवश्य बता सकता हूं कि खोट के दोनों रूपों का लगातार उपयोग किया गया जिसके कारण हमें विकसित विज्ञान और पंगु मानवता मिली।

भारत में जो उपलब्ध है और जो अन्यत्र कहीं भी उपलब्ध नहीं है वह है पौराणिक परंपरा अर्थात् समृद्ध श्रुत परंपरा, उन बोलियों के भीतर बचे हुए वे आद्य रूप जिनमें से किसी एक के उत्थान से भाषा का वह क्रमिक उत्थान हुआ था जिसे हम संस्कृत के रूप में पाते हैं परंतु जिसका प्रसार संस्कृत के अस्तित्व में आने से पहले किसी चरण पर पूरे भारोपीय परिदृश्य में हो चुका था, वे कालातीत हो चुके रीतिविधान, कर्मकांड, वेशविन्यास, खान-पान और वे पर्व और प्रतीक जो अन्यत्र या तो थे ही नहीं या जिस भी अनुपात में थे, संदर्भहीन होने के कारण या ईसाई या इस्लामी उन्माद में नष्ट कर दिए गए।

Post – 2019-02-22

यातनाओं का मांगिए न हिसाब
वे अगर हैं तो मैं भी हूं साहब।।
पूछते हैं कि है गुजरी कैसे
सलाह दें कि क्या कहूं साहब।।
चुप लगाना भी हो साजिश में शुमार
चुप रहूं या कि कुछ कहूं साहब?
मौत मांगें तो ज़िन्दगी हाजिर
मिल गई इसका क्या करूं साहब।।
जिंदगी से मिली फटी चादर
काम बस एक था रफू साहब
दूरियां फिर भी मिट नहीं पाईं
मैं हूं मै और तू है तूं साहब।ॉ

Post – 2019-02-22

#इतिहास_दुबारा_लिखो
इतिहास और पुराण की प्राचीन भारतीय समझ

इतिहास की इस परिभाषा पर ध्यान देंः
discovery, collection, organization, and presentation of information about past events. History can also mean the period of time after writing was invented (the beginning of recorded history)।

इस परिभाषा का पहला वाक्य जितना सटीक है, दूसरा उतना ही भ्रामक।

भारतीय चिंतक यह मानते रहे हैं कि इतिहास और पुराण की सहायता से ही ज्ञान का सम्यक विस्तार किया जा सकता हैः
इतिहासपुराणाभ्यां वेदं समुपबृंहयेत्। विभेत्यल्पश्रुताद्वेदो मामयं प्रहरेदिति।
यहां एक चेतावनी देना चाहेंगे। ज्ञान को विकृत करके अपने उपयोग में लाने वाले ब्राह्मणों और मार्क्सवादियों के कुपाठ से बचाया जा सके तो ही हम ज्ञान का अर्थ और ज्ञान संपदा की रक्षा कर सकते हैं, उसी दशा में इतिहास, पुराण और वेद का आशय समझ सकते हैं।

ब्राह्मण ज्ञान को चारो वेदों, पुराण को अठारह पुराणों की सीमा में रखकर समझना चाहेगा, जिन पर उसने कब्जा जमा रखा है और भारतीय मार्क्सवादी इन सबको बकवास बताते हुए यह सिद्ध कर देगा कि ज्ञान वह फसल है जो भारत की जलवायु में उग ही नहीं सकती थी। यहां हैवान बसते थे, इंसान यहां बाहर से आए, और जलवायु का असर ऐसा कि कुछ दिनों के बाद वे भी हैवानों में बदल जाते थे, और इससे सभ्यता का ऐसा निर्वात पैदा होता था जो अपने को भरने के लिए इंसानों को बाहर से खींच लाता था ।

ऐसे समाज में जिसमें इन दोनों का ही किसी न किसी रूप में बोलबाला रहा हो कितना मुश्किल है यह समझा पाना कि यहां समस्या लिखित ग्रंथों को न जानने या जानने और पढ़ने की नहीं है, अल्पश्रुत और सुश्रुत होने की है, जिसमें यह लिखित ग्रंथ भी कुछ दूर तक हमारी सहायता कर सकते हैं, क्योंकि जो लिखा था उसका भी अधिकांश श्रुत ज्ञान पर आधारित था और इससे अलग भी श्रुत परंपरा में बहुत कुछ था जो आज तक लिपिबद्ध नहीं हो पाया।

इतिहास और पुराण में क्या अंतर है इसे समझने के लिए G.H.Wells की The Outline of History, subtitled either “The Whole Story of Man” or “Being a Plain History of Life and Mankind”,पर नजर डाल सकते हैं। इसमें इतिहास को विकास को उस आदिम चरण से आरंभ किया गया है जिसमें मनुष्य का अस्तित्व तक नहीं था। इतिहास की प्राचीन भारतीय कल्पना उसे भी पीछे जाती है और यह समझने और समझाने का प्रयत्न करती है सृष्टि कहां से आरंभ हुई, इसका विस्तार कैसे हुआ कि ब्रह्मांड का पूरा दृश्य सामने आया। इसे हम प्रकृति का इतिहास कह सकते हैं। वह कितना सही या गलत था इसका दावा तो आउटलाइन आफ हिस्ट्री के विषय में भी नहीं कर सकते।

पितरों और मनीषियों ने इस प्रकृति में अपने प्रयत्न से जो भी परिवर्तन किए, उसका ज्ञान पुराण है।

इन्हीं दोनों का समन्वित रूप हमारा ज्ञान जगत है। इसे ऋग्वेद की एक ऋचा में सूत्रबद्ध किया गया है परंतु यह दोनों उस समय तक श्रुत माध्यम से ही उपलब्ध हैं और वेद की अन्तर्वस्तु यह श्रुत ज्ञान है इसलिए उसका एक नाम श्रुति है :
द्वे स्रुती अशृणवं पितॄणामहं देवानामुत मर्त्यानाम् । ताभ्यामिदं विश्वमेजत्समेति यदन्तरा पितरं मातरं च ॥
ऋ.10.88.15.
मैंने पितरों से दो परिपाटियों को जाना है। पहली का संबंध देवों या सृष्टिविस्तार से है और दूसरी मनुष्यों की। इन्हीं में समस्त गतिविधियां समाहित हैं, इन्हीं के अंतर्गत हमारे पितर अर्थात् आज के अर्थ में हमारा अपना इतिहास भी आ जाता है।

Post – 2019-02-21

‘अंतकाल निज रूप दिखावा।’
किसने?
सुरजेवाला ने या कांग्रेस ने?

Post – 2019-02-21

इजाजत हो तो हम भी मुस्करा कर देख लें साहब
सुना है मुस्कराने पर चटक कर फूल खिलते हैं
सुना है आप भी हैं मुस्कुराते और हंसते भी
मगर गमगीन हो जाते हैं जो भी लोग मिलते हैं।।
सुना है आप के दफ्तर में है हर चीज हाजिर पर
पहुंच जिनकी है उनको ही सही सामान मिलते हैं।
यह तुकबंदी तो यूं ही बैठे ठाले हो गई लेकिन
कहा जाता है ऐसे भी हजारों राज खुलते हैं।।

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इबादत की जरूरत तो न थी, आदत का क्या कीजे
खुदा खुद को समझकर, आईने को सर झुकाते हैं।