Post – 2019-02-22

#इतिहास_दुबारा_लिखो
इतिहास और पुराण की प्राचीन भारतीय समझ

इतिहास की इस परिभाषा पर ध्यान देंः
discovery, collection, organization, and presentation of information about past events. History can also mean the period of time after writing was invented (the beginning of recorded history)।

इस परिभाषा का पहला वाक्य जितना सटीक है, दूसरा उतना ही भ्रामक।

भारतीय चिंतक यह मानते रहे हैं कि इतिहास और पुराण की सहायता से ही ज्ञान का सम्यक विस्तार किया जा सकता हैः
इतिहासपुराणाभ्यां वेदं समुपबृंहयेत्। विभेत्यल्पश्रुताद्वेदो मामयं प्रहरेदिति।
यहां एक चेतावनी देना चाहेंगे। ज्ञान को विकृत करके अपने उपयोग में लाने वाले ब्राह्मणों और मार्क्सवादियों के कुपाठ से बचाया जा सके तो ही हम ज्ञान का अर्थ और ज्ञान संपदा की रक्षा कर सकते हैं, उसी दशा में इतिहास, पुराण और वेद का आशय समझ सकते हैं।

ब्राह्मण ज्ञान को चारो वेदों, पुराण को अठारह पुराणों की सीमा में रखकर समझना चाहेगा, जिन पर उसने कब्जा जमा रखा है और भारतीय मार्क्सवादी इन सबको बकवास बताते हुए यह सिद्ध कर देगा कि ज्ञान वह फसल है जो भारत की जलवायु में उग ही नहीं सकती थी। यहां हैवान बसते थे, इंसान यहां बाहर से आए, और जलवायु का असर ऐसा कि कुछ दिनों के बाद वे भी हैवानों में बदल जाते थे, और इससे सभ्यता का ऐसा निर्वात पैदा होता था जो अपने को भरने के लिए इंसानों को बाहर से खींच लाता था ।

ऐसे समाज में जिसमें इन दोनों का ही किसी न किसी रूप में बोलबाला रहा हो कितना मुश्किल है यह समझा पाना कि यहां समस्या लिखित ग्रंथों को न जानने या जानने और पढ़ने की नहीं है, अल्पश्रुत और सुश्रुत होने की है, जिसमें यह लिखित ग्रंथ भी कुछ दूर तक हमारी सहायता कर सकते हैं, क्योंकि जो लिखा था उसका भी अधिकांश श्रुत ज्ञान पर आधारित था और इससे अलग भी श्रुत परंपरा में बहुत कुछ था जो आज तक लिपिबद्ध नहीं हो पाया।

इतिहास और पुराण में क्या अंतर है इसे समझने के लिए G.H.Wells की The Outline of History, subtitled either “The Whole Story of Man” or “Being a Plain History of Life and Mankind”,पर नजर डाल सकते हैं। इसमें इतिहास को विकास को उस आदिम चरण से आरंभ किया गया है जिसमें मनुष्य का अस्तित्व तक नहीं था। इतिहास की प्राचीन भारतीय कल्पना उसे भी पीछे जाती है और यह समझने और समझाने का प्रयत्न करती है सृष्टि कहां से आरंभ हुई, इसका विस्तार कैसे हुआ कि ब्रह्मांड का पूरा दृश्य सामने आया। इसे हम प्रकृति का इतिहास कह सकते हैं। वह कितना सही या गलत था इसका दावा तो आउटलाइन आफ हिस्ट्री के विषय में भी नहीं कर सकते।

पितरों और मनीषियों ने इस प्रकृति में अपने प्रयत्न से जो भी परिवर्तन किए, उसका ज्ञान पुराण है।

इन्हीं दोनों का समन्वित रूप हमारा ज्ञान जगत है। इसे ऋग्वेद की एक ऋचा में सूत्रबद्ध किया गया है परंतु यह दोनों उस समय तक श्रुत माध्यम से ही उपलब्ध हैं और वेद की अन्तर्वस्तु यह श्रुत ज्ञान है इसलिए उसका एक नाम श्रुति है :
द्वे स्रुती अशृणवं पितॄणामहं देवानामुत मर्त्यानाम् । ताभ्यामिदं विश्वमेजत्समेति यदन्तरा पितरं मातरं च ॥
ऋ.10.88.15.
मैंने पितरों से दो परिपाटियों को जाना है। पहली का संबंध देवों या सृष्टिविस्तार से है और दूसरी मनुष्यों की। इन्हीं में समस्त गतिविधियां समाहित हैं, इन्हीं के अंतर्गत हमारे पितर अर्थात् आज के अर्थ में हमारा अपना इतिहास भी आ जाता है।