#आइए_शब्दों_से_खेलें(१०)
जब लिपि का विकास नहीं हुआ था ज्ञान और संचार का एक मात्र माध्यम श्रवण था। आज के अर्थ मे विद्वान को सुश्रुत, बहुश्रुत, श्रुतवान आदि कहा जाता था। ऋग्वेद में सुनने के लिए श्रू मूल से व्युत्पन्न शब्दों का ही प्रयोग हुंआ है: शृणुतं, शृणुहि, शृणुष्व, शृणुधी, श्रुत, श्रणवं आदि। आगे संस्कृत में भी ऐसे ही प्रयोग चलते रहे। परन्तु देववाणी में यह प्रयोग चल ही नही सकता था। इसके लिए भोजपुरी और हिन्दी में सुनना चलता है। संस्कृत में अन्य सन्दर्भों में इससे मिलते जुलते रूप चलते रहे: स्वर, स्वन, श्वान, शुन(होत्र), यूरोपीय भाषाओं में सोनो-, सॉनॉरिटी, सोनोग्राफ़ी, सोनोरस, सोनैंट, साउंड आदि प्रयोग मिलते हैं जिनमें कहीं ‘र’-कार का हस्तक्षेप नहीं है।
इसके दो निष्कर्ष निकलते हैं:
१. भोजपुरी सुनल, हिं. सुनना, श्रवण का अपभ्रंश नहीं, तत्सम है, संस्कृतीकृत श्रवण उसका तद्भव है, और जिस समय साहित्यिक वैदिक में श्रू, श्रव, श्रवण आदि का प्रयोग हो रहा था, उस दौर में भी आम बोलचाल की भाषा में देववाणी का रूप चलन में था।
वैदिक व्यापारिक तन्त्र के माध्यम से जिस भाषा का प्रचार-प्रसार भारोपीय जगत में हुआ वह साहित्यिक नहीं अपितु बोलचाल की भाषा थी। फारसी का शुनीदन भोजपुरी के सुनने से संबन्ध रखता है।
२. इस रूपान्तरण की प्रक्रिया काे काफी दूर तक पुन: रचा जा सकता है। इसमें पहले दो स्थानीय भाषाई समुदायों द्वारा दो रूप बने। एक में दन्त्य स बचा रहा। सुन का संप्रसारण हुआ और सारस्वत प्रभाव में असवर्ण संयोग करते हुए स्वरलोप किया गया और जिससे स्वर, स्वन आदि बने। दूसरे में दन्त्य स को तालव्य बनाया गया जो ‘शुनीदन’ में दिखाई देता है। फिर तालव्य वाले वैकल्पिक रूप मे उकार शुन अन्तस्थ ‘र’-कार का आगम करते हुए श्रू, और उकार को संप्रसारित करते हुए श्रवण बना।
बोलचाल में स्वन और स्वनन का व्यवहार होता रहा। देशान्तर यह स्वन ही पहुंचा। परन्तु भिन्न भाषाई परिवेश अर्थभ्रम की संभावना इसलिए बढ़ जाती है क्योकि उनमें शब्द संकुल के रूप मे नहीं पहुुंचे, एकल पहुँचते हैं इसलिए उनका आर्थी आधार प्रायः धूमिल या उलझा रहता है। भारत में शुन या श्वान का आधार स्वन या आवाज था। यह गढ़ा हुआ शब्द है। यूरोपीय भाषाओं में कुत्ते के लिए उसकी आवाज के अनुनादी नैसर्गिक शब्द थे इसलिए उन्होंने इसका प्रयोग शूकर के लिए आरंभ कर दिया, जिसका परिणाम है अनेकानेक यूरोगीय भाषाओं में स्वाइन का सूअर के लिए प्रयोग।
Old English swin “pig, hog, wild boar,” from Proto-Germanic *swinan (source also of Old Saxon, Old Frisian Middle Low German, Old High German swin, Middle Dutch swijn, Dutch zwijn, German Schwein, Old Norse, Swedish, Danish svin), neuter adjective (with suffix *-ino-) from PIE *su- “pig” (see sow (n.)). The native word, largely ousted by pig.
भो. और हिदी सुनसान – नीरव, ध्वनि करने वाले जीवों जन्तुओं से रहित, वीरान, भोजपुरी का सुन्नगुन न होना- किसी तरह की आवाज या गतिविधि से रहित होना, भटकसुन्न – बेखबर रहने वाता, सुनवाई, सुनावल – कठोर प्रतिवाद, सुनी, अनसुनी, जैसी सर्जनात्मकता वाले लाक्षणिक शब्द श्रू /श्रवण से नहीं बनाए जा सकते यद्यपि उपसर्ग और प्रत्यय और समास के सहारे इससे नई आवश्यकताओं के अनुसार काफी शब्द गढ़े जा सकते हैं ।