Post – 2018-06-30

#आइए_शब्दों_से_खेलें(१०)

जब लिपि का विकास नहीं हुआ था ज्ञान और संचार का एक मात्र माध्यम श्रवण था। आज के अर्थ मे विद्वान को सुश्रुत, बहुश्रुत, श्रुतवान आदि कहा जाता था। ऋग्वेद में सुनने के लिए श्रू मूल से व्युत्पन्न शब्दों का ही प्रयोग हुंआ है: शृणुतं, शृणुहि, शृणुष्व, शृणुधी, श्रुत, श्रणवं आदि। आगे संस्कृत में भी ऐसे ही प्रयोग चलते रहे। परन्तु देववाणी में यह प्रयोग चल ही नही सकता था। इसके लिए भोजपुरी और हिन्दी में सुनना चलता है। संस्कृत में अन्य सन्दर्भों में इससे मिलते जुलते रूप चलते रहे: स्वर, स्वन, श्वान, शुन(होत्र), यूरोपीय भाषाओं में सोनो-, सॉनॉरिटी, सोनोग्राफ़ी, सोनोरस, सोनैंट, साउंड आदि प्रयोग मिलते हैं जिनमें कहीं ‘र’-कार का हस्तक्षेप नहीं है।

इसके दो निष्कर्ष निकलते हैं:
१. भोजपुरी सुनल, हिं. सुनना, श्रवण का अपभ्रंश नहीं, तत्सम है, संस्कृतीकृत श्रवण उसका तद्भव है, और जिस समय साहित्यिक वैदिक में श्रू, श्रव, श्रवण आदि का प्रयोग हो रहा था, उस दौर में भी आम बोलचाल की भाषा में देववाणी का रूप चलन में था।
वैदिक व्यापारिक तन्त्र के माध्यम से जिस भाषा का प्रचार-प्रसार भारोपीय जगत में हुआ वह साहित्यिक नहीं अपितु बोलचाल की भाषा थी। फारसी का शुनीदन भोजपुरी के सुनने से संबन्ध रखता है।

२. इस रूपान्तरण की प्रक्रिया काे काफी दूर तक पुन: रचा जा सकता है। इसमें पहले दो स्थानीय भाषाई समुदायों द्वारा दो रूप बने। एक में दन्त्य स बचा रहा। सुन का संप्रसारण हुआ और सारस्वत प्रभाव में असवर्ण संयोग करते हुए स्वरलोप किया गया और जिससे स्वर, स्वन आदि बने। दूसरे में दन्त्य स को तालव्य बनाया गया जो ‘शुनीदन’ में दिखाई देता है। फिर तालव्य वाले वैकल्पिक रूप मे उकार शुन अन्तस्थ ‘र’-कार का आगम करते हुए श्रू, और उकार को संप्रसारित करते हुए श्रवण बना।

बोलचाल में स्वन और स्वनन का व्यवहार होता रहा। देशान्तर यह स्वन ही पहुंचा। परन्तु भिन्न भाषाई परिवेश अर्थभ्रम की संभावना इसलिए बढ़ जाती है क्योकि उनमें शब्द संकुल के रूप मे नहीं पहुुंचे, एकल पहुँचते हैं इसलिए उनका आर्थी आधार प्रायः धूमिल या उलझा रहता है। भारत में शुन या श्वान का आधार स्वन या आवाज था। यह गढ़ा हुआ शब्द है। यूरोपीय भाषाओं में कुत्ते के लिए उसकी आवाज के अनुनादी नैसर्गिक शब्द थे इसलिए उन्होंने इसका प्रयोग शूकर के लिए आरंभ कर दिया, जिसका परिणाम है अनेकानेक यूरोगीय भाषाओं में स्वाइन का सूअर के लिए प्रयोग।
Old English swin “pig, hog, wild boar,” from Proto-Germanic *swinan (source also of Old Saxon, Old Frisian Middle Low German, Old High German swin, Middle Dutch swijn, Dutch zwijn, German Schwein, Old Norse, Swedish, Danish svin), neuter adjective (with suffix *-ino-) from PIE *su- “pig” (see sow (n.)). The native word, largely ousted by pig.

भो. और हिदी सुनसान – नीरव, ध्वनि करने वाले जीवों जन्तुओं से रहित, वीरान, भोजपुरी का सुन्नगुन न होना- किसी तरह की आवाज या गतिविधि से रहित होना, भटकसुन्न – बेखबर रहने वाता, सुनवाई, सुनावल – कठोर प्रतिवाद, सुनी, अनसुनी, जैसी सर्जनात्मकता वाले लाक्षणिक शब्द श्रू /श्रवण से नहीं बनाए जा सकते यद्यपि उपसर्ग और प्रत्यय और समास के सहारे इससे नई आवश्यकताओं के अनुसार काफी शब्द गढ़े जा सकते हैं ।

Post – 2018-06-30

जब लिपि का विकास नहीं हुआ था ज्ञान और संचार का एक मात्र माध्यम श्रवण था। आज के अर्थ मे विद्वान को सुश्रुत, बहुश्रुत, श्रुतवान आदि कहा जाता था। ऋग्वेद में सुनने के लिए श्रू मूल से व्युत्पन्न शब्दों का ही प्रयोग हुंआ है: शृणुतं, शृणुहि, शृणुष्व, शृणुधी, श्रुत, श्रणवं आदि। आगे संस्कृत में भी ऐसे ही प्रयोग चलते रहे। परन्तु देववाणी में यह प्रयोग चल ही नही सकता था। इसके लिए भोजपुरी और हिन्दी में सुनना चलता है। संस्कृत में अन्य सन्दर्भों में इससे मिलते जुलते रूप चलते रहे: स्वर, स्वन, श्वान, शुन(होत्र), यूरोपीय भाषाओं में सोनो-, सॉनॉरिटी, सोनोग्राफ़ी, सोनोरस, सोनैंट, साउंड आदि प्रयोग मिलते हैं जिनमें कहीं ‘र’-कार का हस्तक्षेप नहीं है। इसके दो निष्कर्ष निकलते हैं: १. भोजपुरी सुनल, श्रवण का अपभ्रंश नहीं, तत्सम है, संस्कृतीकृत श्रवण उसका तद्भव है, और जिस समय साहित्यिक वैदिक में श्रू, श्रव, श्रवण आदि का प्रयोग हो रहा था, उस दौर में भी आम बोलचाल की भाषा में देववाणी का रूप चलन में था। वैदिक व्यापारिक तन्त्र के माध्यम से जिस भाषा का प्रचार-प्रसार भारोपीय जगत में हुआ वह साहित्यिक नहीं अपितु बोलचाल की भाषा थी। फारसी का शुनीदन भोजपुरी के सुनने से संबन्ध रखता है। २. इस रूपान्तरण की प्रक्रिया का काफी दूर तक पुन: रचा जा सकता है। इसमें पहले दो स्थानीय भाषाई समुदायों द्वारा दो रूप बने। एक में दन्त्य स बचा रहा। सुन का संप्रसारण हुआ और सारस्वत प्रभाव में असवर्ण संयोग करते हुए स्वरलोप किया गया और जिससे स्वर, स्वन आदि बने। दूसरे में दन्त्य स को तालव्य बनाया गया जो ‘शुनीदन’ में दिखाई देता है। फिर तालव्य वाले वैकल्पिक रूप मे उकार शुन अन्तस्थ ‘र’-कार का आगम करते हुए श्रू, और उकार को संप्रसारित करते हुए श्रवण बना। बोलचाल में स्वन और स्वनन का व्यवहार होता रहा। देशान्तर यह स्वन ही पहुंचा।
परन्तु भिन्न भाषाई परिवेश अर्थभ्रम की संभावना इसलिए बढ़ जाती है क्योकि उनमें शब्द संकुल के रूप मे नहीं पहुुंचे, एकल पहुँचते हैं इसलिए उनका आर्थी आधार प्रायः धूमिल या उलझा रहता है। भारत में शुन या श्वान का आधार स्वन या आवाज था। यह गढ़ा हुआ शब्द है। यूरोपीय भाषाओं में कुत्ते के लिए उसकी आवाज के अनुनादी नैसर्गिक शब्द थे इसलिए उन्होंने इसका प्रयोग शू-कर के लिए आरंभ कर दिया, जिसका परिणाम है अनेकानेक यूरोगीय भाषाओं में स्वाइन का सूअर के लिए प्रयोग।
Old English swin “pig, hog, wild boar,” from Proto-Germanic *swinan (source also of Old Saxon, Old Frisian Middle Low German, Old High German swin, Middle Dutch swijn, Dutch zwijn, German Schwein, Old Norse, Swedish, Danish svin), neuter adjective (with suffix *-ino-) from PIE *su- “pig” (see sow (n.)). The native word, largely ousted by pig.

Post – 2018-06-30

#तुकबन्दियाँ

नहीं, नहीं, यह सत्य तुम्हारा सच से कम है।
घाल-मेल से अधिक नरम या अधिक गरम है

Post – 2018-06-29

#आइए_शब्दों_से_खेलें (9)

नाक, मुंह

नाक के लिए तमिल में ’मूक्कु’ और मुंह के लिए ’वाय्’ का प्रयोग होता है। जो लोग तमिल को हिंदी और सं. से अलग रख कर समझना चाहते हैं वे यह नहीं समझ सकते कि हिन्दी में केवल मुंह फैलाने के लिए ही ’बाना’ का क्यों प्रयोग होता है, न ही यह समझ सकते हैं कि मुख और नाक का संकल्पनात्मक आधार क्या है।

नाक के लिए सं. शब्द नासा या नासिका है जो अं. में नोज (Old English nosu, from Proto-Germanic *nusus (source also of Old Norse nös, Old Frisian nose, Dutch neus, Old High German nasa, German Nase), from PIE root *nas- “nose.”, https://www.etymonline.com ) के रूप में मिलता है। तमिल में ’ना’/’नाक्कु’ जिह्वा के लिए, और ’नाय्’- कुत्ते के लिए प्रयोग में आता है। दोनों में कोई संबन्ध हो सकता है तो यह कि कुत्ता जीभ निकाले रहता है परन्तु यह एक खतरनाक सुझाव है और केवल विनोद में सुझाया जा सकता है।

जो भी हो, यह अवश्य विचारणीय है कि ’नाक ’ के लिए ’मूक्कु ’, ’नाक्कु ’, ’ना ’, ’नाय् ’ और ’वाय् ’, ’वाक्कु ’ (सं. वाक्) = शब्द के बीच आभासिक संबंध है या किसी बहुत पुराने संपर्क और लेन-देन का सूचक। तमिल में संस्कृत के बहुत से शब्द (लगभग 40 प्रतिशत) लिए गए हैं जिन्हें इस रूप में पहचाना भी गया है। इनमें लगभग सभी के रूप में परिवर्तन तो ध्वनिसीमा के कारण है, बहुतों में अर्थविचलन भी पाया जाता है। कुछ ऐसे भी हैं जिनको द्रविड़ मूल का माना गया है ओर उनमें मामूली अर्थविचलन भी है जो सं. से नहीं प्राकृत से गए हैं। ऐसा ही एक शब्द ’नाण’= शालीनता है। यह ’ज्ञान’ का अपभ्रंश है जिससे, हिन्दी और अन्य भाषाओं में प्रचलित, ’अनाड़ी’ का संबंध है।

हमारी समझ से ’मूक्कु ’, ’नाक्कु ’, ’ना ’, ’नाय् ’ और ’वाय् ’, ’वाक्कु ’ (सं. वाक्) = शब्द के बीच साम्य संकल्पना पर आधारित है, और बहुत पुराना है – आहार संग्रह की उस अवस्था का जब छोटे छोटे मानवयूथ या कुल पारस्परिक संपर्क में आते थे। मुंह, कान, नाक तीन ज्ञानेन्द्रियों को विवर के रूप में कल्पित किया गया- मुख विवर, नासा रंध्र और कर्ण कुहर या गह्वर। सच तो यह है कि आँख को भी छिद्र के रूप में कल्पित किया गया जिसके कारण अक्ष का एक अर्थ छिद्र है। पहिए के नाभि या उस रंध्र को जिसमें धुर के सिरे घुसे होते हैं, अक्ष कहा जाता है और आँख के गर्त के लिए ’अक्षिकोटर’।

कान

यदि देवों के पास कान भी था और उसके लिए कोई संज्ञा भी थी तो वह कर्ण नहीं हो सकती थी। ऐसी दशा में हम यह सोच भी नहीं सकते कि कान कर्ण का अपभ्रंश है। मानना यह होगा कि कर्ण कान का संस्कृतीकरण अर्थात् कान का तद्भव है और यह अपनी प्राथमिक अवधारणा से दूर चला गया है और इस भ्रान्ति का असर भोजपुरी पर भी पड़ा है। कान का संबंध उसी कन्/कण से है जो तमिल के ’कण्’/’कन्’ अर्थात् आँख में पाया जाता है। आँख और कान दोनों सूचना और ज्ञान के प्राथमिक स्रोत हैं, रसना का स्वाद ग्रहण और नाक की घ्राणशक्ति क्षीण हो जाए तो उतनी क्षति नहीं होती, जितनी इन दोनों मे से किसी के न होने या अशक्त होने पर। आँख का नाम लेते ही कान का ध्यान आता है।
विश्वं शृणोति पश्यति,
अक्षण्वन्तो कर्णवन्तो सखायो
नृचक्षसो दृशये कर्णयोनयः
भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः

मूल संकल्पना में सुनना देखना एक जैसा है जैसे, जैसा कि हम बहुत पहले देख आए है, पीना और खाना एक जैसा है और बाहर से किसी चीज का ग्रहण या तो खाना है या पीना। हम हवाखोरी करते हैं और धूम्रपान करते हैं।

कान का कन्/कण् से संबंध भोजपुरी के अकनना= ध्यान से सुनना में सुरक्षित रह गया है। संस्कृतीकरण के बाद कर्ण हो जाने के बाद इसका संबंध ज्ञान से कट गया और यह मात्र छिद्र रह गया। कुछ लोग इसका भी मतलब नहीं समझते और कान को अपने अर्थ के अनुरूप बनाने के लिए कान छेदवा लेते हैं।

Post – 2018-06-28

#आइए_शब्दों_से_खेलें (8)

हमने कल पलक और बरौनी पर बात करते हुए यह तो बताया कि संस्कृत में इन्हें स्थान नहीं मिला, पर सच यह है कि वेद में भी स्थान नहीं मिला। मिला तो निमिष को और वह भी जागरूकता के सन्दर्भ में अथवा गति के सन्दर्भ में यह नीचे के अंशों से समझा जा सकता है:
इमा आपो अनिमिषं चरन्ति (ये जलधाराएं एक पल को भी रुके बिना चलती रहती हैं।
अस्वप्नजा अनिमिषा (अनिद्र, अपलक)
दामेव वत्सात् वि मुमुग्ध्यंहो नहि त्वदारे निमिषश्चन ईशे, (जैसे बछड़ से पगहे को हटाते हैं उसी तरह मुझे परेशानियों से मुक् करो, प्रभु मैं तुम्हारे बिना निमिष मात्र को भी जिवित नहीं रह सकता। )
मित्रः कृष्टीरनिमिषाभिचष्टे ( मित्र मनुष्यों को अपलक देखते रहते हैं।)
ऽनिमिषं नृम्णं पान्ति (धनधान्य की अपलक रखवाली करते रहते हैं)
अनिमिषं रक्षमाणा: (अपलक रक्षा करते रहने वाले)
निमिषश्चित् जवीयसा रथेना यातमश्विना। (निमिषमात्र में पहुंचने वाले रथ से अश्विनीकुमार आन पहुंचें।)

माल की रक्षा, जान की सुरक्षा, और जल्द से जल्द गन्तव्य तक पहुंच जाना। कहें, निमिष का प्रयोग पलक के लिए नहीं पलमात्र के लिए हुआ है। सब कुछ जल्द से जल्द या अप्रमाद होना चाहिए। ऋग्वेद में यह जल्दबाजी कई रूपों में देखने में आती है। पलक के लिए ऋग्वेद में एक रोचक संज्ञा है। यह हैं अक्षिपत् । इसका अर्थ पत् को पट के रूप में पढ़ने पर स्पष्ट हो जाएगा। अर्थात् अंग्रेजी के आईलिड का जनक।

संस्कृत के प्रकांड पंडितों को भी ऋग्वेद को समझने में इसलिए कठिनाई होती रही कि उनके सामने उपादान संस्कृति का सही खाका नहीं था इसलिए जो भौतिक था उसका भी आध्यात्मीकरण करना पड़ता था और इस तरह भौतिक के समानान्तर आधिभौति्क और आध्यात्मिक का लोक तैयार हो गया था जिसमें ज्ञानीजनों का इस हद तक आध्यात्मीकरण हो गया था कि वे सिर्फ रोटी के लिए उससे निकल कर भौति्क जगत में आते थे और उसे भी ब्रह्म समझ कर खाते थे और फिर अध्यात्मलोक में वापस चले जाते थे जिसमेो नेति नेति का इतना भूलभुलैया है कि वे क्या हासिल कर सके यह बता नहीं पाते और जिस भूतजगत में रहने के आदी नहीं उसकी व्याख्या करते हैं ते हमारे पल्ले जो उनकी मदद के बिना समझ मे आ भी सकता था वह हवा हवाई हो जाता है।

विषयान्तर होने का खतरा उठा कर भी यह याद दिलाना जरूरी है कि ऋग्वेद वैश्यों का वेद है। इसमें प्रमुख रूप से वैश्यों की चिन्ताएं व्यक्त हें। यदि कृषिकर्म भूी वैश्यों के जिम्मे था तो उसकी भी चिन्ता तेो रहेंगी ही, परन्तु किसान जमीन से इस तरह बँ)धे होते है कि शादी व्याह तक के लिए झुलसती गर्मी के महीने-दो महीने की अवधि की प्रतीक्षा रहती है जब खेती के काम से थोड़ी फुरसत मिलती है। इसलिए वह दौड़ भाग, चरैवेति चरैवेति, जान माल और हारी बीमारी , भूख-प्यास, की चिन्ताएं और इसके बाद भी शौर्य के वे कारनामे जो सभी आत्मरक्षापरक हैं धन की लालसा में खतरा मोल ले कर सुदूर यात्रा पर निकलने वाले उन व्यापारियों के हैं जिनका वैदिक काल में प्रभुत्व था। ऋग्वेद में राजा बताए गए यदि सभी नहीं तो अधिकांश चरित्र नगर सेठ हैं। क्षत्रिय और ब्राहमण अपनी शक्ति और युक्ति से उनकी ही रक्षा में तत्पर उनके आश्रित दिखाई देते हैं।

जब डचों, पौर्तगालियों, अंग्रेजों और फ्रांसिसियों ने अपनी कंपनियां खोली थी तो एकाधिकार के दूसरे झगड़ों के साथ तस्करी को उन्होंने इसलिए बढ़ावा दिया था कि इसका एक प्रयोजन था प्रतिस्पर्धी के रास्ते में अडंगे डालना जिससे उनका जहाज पहले पहुंच सके। पहले पहुचने वाले अपना माल मुंहमांगे मोल बेच लेते थे, और पिछड़ जाने वालों की वह दशा हो जाती भी जिसके लिए कौड़ियों के मोल बेचने का मुहावरा गढ़ा गया है।

इस तथ्य को समझे बिना ऋग्वेद की ” अश्वावती प्रथमं गोषु गच्छति” जैसे सरल पदों का अर्थ नही समझ सकते।

ऋग्वेद में निमिष का प्रयोग काल की इकाई से अधिक इस त्वरा के कारण है। इस त्वरा के लिए ही दूसरी अनेक उक्तियों का चलन देखने में आता है, और ऐसे प्रयोग संकटनिवारण के लिए सहायकों और देवी देवताओं के आपहुंचने के लिए तो आवश्यक होंगे ही। दृष्टि के वेग से पहुंचना (अक्षुरंहसो यजत्रा ), वायवेग से चलने वाले अश्व (वातरंहसो दिव्यासो अत्याः), सूर्य की रश्मयों की गति से पहुंचने वाले रथ (अतः रथेन सुवृता न आ गतं साकं सूर्यस्य रश्मिभिः) जिसका एक अर्थ भोर की किरण फूटने के साथ ही पहुंचने से भी किया जा सकता है। मन की गति से चलने वाले (मनोजवा वृषणा मुदच्युता, मनोजवसा वृषणा स्वस्ति) ।

निमिष का इसी त्वरा के सन्दर्भ में प्रयोग हुआ है, इसके बाद भी इससे इतना तो पता चलता ही है कि ऋग्वेद के समय तक इस संकल्पना और संज्ञा का चलन हो रहा था और पलक को यदि त्यागा नहीं तो किनारे किया जा चुका था। यह ब्निद मिष का मिष ही जिसकी आख मीचने के मुहावरे में प्रयोग किया जाता है। क्या यह संभव नहीं कि यह भी देववाणी का शब्द हो जो सारस्वत प्रभाव से मिष बन गया हो और इसमें नि उपसर्ग नितान्त के अर्थ में आदि इकार के संकट निवारण क् लिए लगाया गया हो। मुझे इसमें सन्देह नहीं है।

Post – 2018-06-28

#विषयान्तर

राजनीति में कुछ भी गलत नहीं है, सिवाय पराजय के।

समाज में कुछ भी सही नहीं जो उसे किसी रूप में विकृत करे।

सर्जक और चिंतक की राजनीति के केन्द्र में समाजदृष्टि होनी चाहिए, किसी दल की हार या जीत नहीं।

जीतने के लिए जितने तरह के जहर समाज में घोले जाते हैं वे जहर घोलने वालों की विफलता के बाद भी बने रहते और स्थाई विकृतियां पैदा करते हैं।

इनसे आगाह करना सर्जक और चिंतक की राजनीतिक पहचान है। इसके अभाव में वह किसी का टहलुआ कुत्ता बन कर रह जाता है।

Post – 2018-06-27

आइए_शब्दों_से_खेलें (7)

पलक
पलक का अर्थ है पालक या रक्षक। इसे आंख को ढकने की भूमिका के कारण पालक या रक्षक माना गया? पलक, उसी पल से बना है जिससे द्वार का पल्ला, पाली (वह भाषाजिसमें बुद्ध के संदेशों की रक्षा की गई)। मूल इसका भी जल है, यह प्ल/पल से प्रकट है और इसलिए इसका प्रयोग पानी (पल्लव=पोखर)> ठंढ(पाला), दूध (त. पाल्, ते. पालु= दूध) > १.पालक= रक्षक, पोषक,२. पालना= पोषण करना, २. बच्चे का झूला> पालकी= झूले जैसा वाहन, ३. पल्ला= गोद, आँचल, ४.पल्लू आँचल का छोर) >पलस्ति = श्वेतकेश (वृद्ध), से प्रकट है। पल्ला/पलक= आवरण या ढक्कन, पाली = पिटारी प्रकाश के विलोम के कारण जल से संबंध रखते हैं।

पलक गिरने या गिराने के लिए पलक झपकना / झपकाना प्रयोग चलता है। इसका शाब्दिक अर्थ है ढकना या ढक्कन बन्द करना। भोजपुरी में मूज और कुश के गाभे से बुनी पिटारी को झांपी कहते थे। झपना उसके ऊपरी ढक्कन को कहते थे। इसी से झेंपना लज्जित अनुभव करना, सामना न कर पाना, नजर झुका कर बात करना मुहावरा बना है। झांसा देना भी इसी कड़ी में आता है, और झंप =नींद और झांपना भी, यद्यपि झपटना और झपट्टा का संबंध सन्दिग्ध है।

पलक में तीनों अक्षर स्वरान्त हैं इसलिए यह सारस्वत मूल का नहीं हो सकता, न ही सारस्वत रुचि के अनुरूप था। संस्कृत में पलक के लिए अक्षिच्छद मिलता है। अंग्रेजी में इसी अवधारणा पर आईलिड (eyelid) का प्रयोग मिलता है। झेंप में आरंभ ही सघोष महाप्राणता से है इसलिए इसके विषय में भी यही कहा जा सकता है। भोजपुरी में भी ‘झ’ की ध्वनि किसी अन्य भाषाई समुदाय के समावेश का परिणाम है, जिसका एक जत्था कभी पश्चिम की ओर भी पहुंचा था। झज्झर, झंग, कंझावला जैसे स्थान नाम इसकी याद दिलाते हैं। हिंदी में पलक और झेंपना दोनों देववाणी/ भोजपुरी के माध्यम से पहुँचे हैं।

बरौनी
बरोनी में बर तो बाल का सामासिक रूप है, जो वैदिक में भी पहुँचा था यह हम देख आए हैं, परंतु यह संस्कृत में स्वीकार्य न हुआ। बरौनी में भी पश्चिमी प्रभाव है। संस्कृत में इसे स्थान न मिला। इसमें औनी (अउनी) अवली है जिससे दीपावली में पाते हैं। सं. में इसके लिए पक्ष्म और अक्षिलोम का प्रयोग मिलता है। पक्ष्म का भाव है, जिस तरह पक्षी के डैने के पंख में पंखदंड से रोमावली निकली होती है उस बनावट जैसी(रोमावली)। पक्ष्म की कोमलता का विस्तार पशम में हुआ है, जो फारसी में भी पहुंचा है। पशमीना इसी से निकला है। वार/बाल की तरह पशु के रोम के लिए प्रयोग के कारण इसका अर्थ ह्रास हो गया जिससे ‘पशम बराबर’ समझने या न समझने के मुहावरे निकले हैं। अंग्रेजी में बरौनी के लिए आईलैश का प्रयोग मिलता है। मेरी बात कोई मानेगा नहीं, पर आँख मारने की आदत लोगों को अंग्रेजी के आई लैश से परिचित होने के बाद ही पड़ी होगी। वैसे सुना है, घर में बोरिया तक न हो और कोई प्रिय व्यक्ति आ जाए तो लोग पलकों से कुर्सी का काम भी लेते हैं और कोई बहुत सम्मानित व्यक्ति पधार जाए तो यह रेड कार्पेट का भी काम देती हैं।

Post – 2018-06-27

#तुकबन्दियाँ

कुछ न पाया, मैं कहीं था ही नहीं
आईने को करीब से देखा।

Post – 2018-06-26

#आइए_शब्दों_से_खेलें (7)

भौंह
भौंह के लिए संस्कृत में भ्रू का प्रयोग होता है जो अंग्रेजी में महाप्राणता के लोप के कारण ब्रू (brow) हो गया है। कोई चूक न होने पाए इसलिए इससे पहले आई (eye) लगाना जरूरी समझा गया। पर दोनों के योग से और भौंह की आकृति से यह भ्रम हो सकता है कि ब्राउ का सगोत कहीं बाउ=धनुष न हो, जिससे इसकी तुलना की जाती है। भ्रू का वैकल्पिक रूप भृकुटि है। इसमें कुटि का कुटीर उद्योग से कोई संबन्ध नहीं, कुटिलता से अवश्य है जिसके लिए कौटिल्य को जाना जाता है।

भौंहों को लेकर इतने मुहावरे हैं कि उनसे ही पता चल जाता हैं कि इनका आंखों से निकट का नाता है। जो भी हो भ्रू और भृकुटि दोनों में से कोई, देववाणी में क्या भोजपुरी तक में नहीं चल सकता। इसके बाद भी घोष-महाप्राणता के कारण यह मानना होगा कि इसका निर्गमन देववाणी से ही हुआ हो सकता है। देववाणी में हिन्दी की भौंह तक का प्रवेश नहीं, उसमें ऐ, औ की ध्वनि ही नहीं। भोजपुरी में भउहां और भउहीं दोनों चलते हैं।

संस्कृत पर्यायों को यह संज्ञा क्यों मिली इसका पता नहीं चलता, पर भउहाँ और भउहीं के भउ को आप भउरा और भउरी की मदद से समझ सकते हैं। भउ का अर्थ मद्धिम ताप की आग जो भूसी, सूखी पत्ती आदि जलाने से पैदा होती है और रा/री=वाला, वाली। ये र/रा/री देववाणी के प्रत्यय हैं जो यूरोप तक पहुंचे हैं: राउ=राजा, समक्ष उपस्थित आदरणीय व्यक्ति। राउर =आपका, you>your.अत: भउ=मद्धिम आंच, भउरा=मद्धिम आँचवाला, भउरी= मद्धिम आँच पर पकाई हुई। इसका नतीजा यह कि आप आँखों से आग बरसा सकते हैं पर भौंहें सिकोड़ कर भी नाराजगी जताने से आगे नहीं बढ़ सकते।

खैर हम पाते हैं कि (१) मूलत: यह संज्ञा, देववाणी की है जिसके भउ और र/रा दोनों का कचूमर करने से संस्कृत का भ्रू बना है, (२) आंखों के पड़ोस का लाभ यह कि इसका भी प्रकाश का सीधा नाता न सही, भावप्रकाशन का नाता तो है ही।

Post – 2018-06-26

#तुकबन्दियाँ
वह जिन्दगी नहीं थी जिसे खोजता रहा
एक ख्वाब था जो अपनी खिजाँ ढूँढ़ रहा है।
दर दर भटक रहा है उधर क्यों जुनूने इश्क
मैं इस तरफ हूँ मुझको कहाँ ढूँढ़ रहा है।।