#आइए_शब्दों_से_खेलें (9)
नाक, मुंह
नाक के लिए तमिल में ’मूक्कु’ और मुंह के लिए ’वाय्’ का प्रयोग होता है। जो लोग तमिल को हिंदी और सं. से अलग रख कर समझना चाहते हैं वे यह नहीं समझ सकते कि हिन्दी में केवल मुंह फैलाने के लिए ही ’बाना’ का क्यों प्रयोग होता है, न ही यह समझ सकते हैं कि मुख और नाक का संकल्पनात्मक आधार क्या है।
नाक के लिए सं. शब्द नासा या नासिका है जो अं. में नोज (Old English nosu, from Proto-Germanic *nusus (source also of Old Norse nös, Old Frisian nose, Dutch neus, Old High German nasa, German Nase), from PIE root *nas- “nose.”, https://www.etymonline.com ) के रूप में मिलता है। तमिल में ’ना’/’नाक्कु’ जिह्वा के लिए, और ’नाय्’- कुत्ते के लिए प्रयोग में आता है। दोनों में कोई संबन्ध हो सकता है तो यह कि कुत्ता जीभ निकाले रहता है परन्तु यह एक खतरनाक सुझाव है और केवल विनोद में सुझाया जा सकता है।
जो भी हो, यह अवश्य विचारणीय है कि ’नाक ’ के लिए ’मूक्कु ’, ’नाक्कु ’, ’ना ’, ’नाय् ’ और ’वाय् ’, ’वाक्कु ’ (सं. वाक्) = शब्द के बीच आभासिक संबंध है या किसी बहुत पुराने संपर्क और लेन-देन का सूचक। तमिल में संस्कृत के बहुत से शब्द (लगभग 40 प्रतिशत) लिए गए हैं जिन्हें इस रूप में पहचाना भी गया है। इनमें लगभग सभी के रूप में परिवर्तन तो ध्वनिसीमा के कारण है, बहुतों में अर्थविचलन भी पाया जाता है। कुछ ऐसे भी हैं जिनको द्रविड़ मूल का माना गया है ओर उनमें मामूली अर्थविचलन भी है जो सं. से नहीं प्राकृत से गए हैं। ऐसा ही एक शब्द ’नाण’= शालीनता है। यह ’ज्ञान’ का अपभ्रंश है जिससे, हिन्दी और अन्य भाषाओं में प्रचलित, ’अनाड़ी’ का संबंध है।
हमारी समझ से ’मूक्कु ’, ’नाक्कु ’, ’ना ’, ’नाय् ’ और ’वाय् ’, ’वाक्कु ’ (सं. वाक्) = शब्द के बीच साम्य संकल्पना पर आधारित है, और बहुत पुराना है – आहार संग्रह की उस अवस्था का जब छोटे छोटे मानवयूथ या कुल पारस्परिक संपर्क में आते थे। मुंह, कान, नाक तीन ज्ञानेन्द्रियों को विवर के रूप में कल्पित किया गया- मुख विवर, नासा रंध्र और कर्ण कुहर या गह्वर। सच तो यह है कि आँख को भी छिद्र के रूप में कल्पित किया गया जिसके कारण अक्ष का एक अर्थ छिद्र है। पहिए के नाभि या उस रंध्र को जिसमें धुर के सिरे घुसे होते हैं, अक्ष कहा जाता है और आँख के गर्त के लिए ’अक्षिकोटर’।
कान
यदि देवों के पास कान भी था और उसके लिए कोई संज्ञा भी थी तो वह कर्ण नहीं हो सकती थी। ऐसी दशा में हम यह सोच भी नहीं सकते कि कान कर्ण का अपभ्रंश है। मानना यह होगा कि कर्ण कान का संस्कृतीकरण अर्थात् कान का तद्भव है और यह अपनी प्राथमिक अवधारणा से दूर चला गया है और इस भ्रान्ति का असर भोजपुरी पर भी पड़ा है। कान का संबंध उसी कन्/कण से है जो तमिल के ’कण्’/’कन्’ अर्थात् आँख में पाया जाता है। आँख और कान दोनों सूचना और ज्ञान के प्राथमिक स्रोत हैं, रसना का स्वाद ग्रहण और नाक की घ्राणशक्ति क्षीण हो जाए तो उतनी क्षति नहीं होती, जितनी इन दोनों मे से किसी के न होने या अशक्त होने पर। आँख का नाम लेते ही कान का ध्यान आता है।
विश्वं शृणोति पश्यति,
अक्षण्वन्तो कर्णवन्तो सखायो
नृचक्षसो दृशये कर्णयोनयः
भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः
मूल संकल्पना में सुनना देखना एक जैसा है जैसे, जैसा कि हम बहुत पहले देख आए है, पीना और खाना एक जैसा है और बाहर से किसी चीज का ग्रहण या तो खाना है या पीना। हम हवाखोरी करते हैं और धूम्रपान करते हैं।
कान का कन्/कण् से संबंध भोजपुरी के अकनना= ध्यान से सुनना में सुरक्षित रह गया है। संस्कृतीकरण के बाद कर्ण हो जाने के बाद इसका संबंध ज्ञान से कट गया और यह मात्र छिद्र रह गया। कुछ लोग इसका भी मतलब नहीं समझते और कान को अपने अर्थ के अनुरूप बनाने के लिए कान छेदवा लेते हैं।