Post – 2018-06-28

#आइए_शब्दों_से_खेलें (8)

हमने कल पलक और बरौनी पर बात करते हुए यह तो बताया कि संस्कृत में इन्हें स्थान नहीं मिला, पर सच यह है कि वेद में भी स्थान नहीं मिला। मिला तो निमिष को और वह भी जागरूकता के सन्दर्भ में अथवा गति के सन्दर्भ में यह नीचे के अंशों से समझा जा सकता है:
इमा आपो अनिमिषं चरन्ति (ये जलधाराएं एक पल को भी रुके बिना चलती रहती हैं।
अस्वप्नजा अनिमिषा (अनिद्र, अपलक)
दामेव वत्सात् वि मुमुग्ध्यंहो नहि त्वदारे निमिषश्चन ईशे, (जैसे बछड़ से पगहे को हटाते हैं उसी तरह मुझे परेशानियों से मुक् करो, प्रभु मैं तुम्हारे बिना निमिष मात्र को भी जिवित नहीं रह सकता। )
मित्रः कृष्टीरनिमिषाभिचष्टे ( मित्र मनुष्यों को अपलक देखते रहते हैं।)
ऽनिमिषं नृम्णं पान्ति (धनधान्य की अपलक रखवाली करते रहते हैं)
अनिमिषं रक्षमाणा: (अपलक रक्षा करते रहने वाले)
निमिषश्चित् जवीयसा रथेना यातमश्विना। (निमिषमात्र में पहुंचने वाले रथ से अश्विनीकुमार आन पहुंचें।)

माल की रक्षा, जान की सुरक्षा, और जल्द से जल्द गन्तव्य तक पहुंच जाना। कहें, निमिष का प्रयोग पलक के लिए नहीं पलमात्र के लिए हुआ है। सब कुछ जल्द से जल्द या अप्रमाद होना चाहिए। ऋग्वेद में यह जल्दबाजी कई रूपों में देखने में आती है। पलक के लिए ऋग्वेद में एक रोचक संज्ञा है। यह हैं अक्षिपत् । इसका अर्थ पत् को पट के रूप में पढ़ने पर स्पष्ट हो जाएगा। अर्थात् अंग्रेजी के आईलिड का जनक।

संस्कृत के प्रकांड पंडितों को भी ऋग्वेद को समझने में इसलिए कठिनाई होती रही कि उनके सामने उपादान संस्कृति का सही खाका नहीं था इसलिए जो भौतिक था उसका भी आध्यात्मीकरण करना पड़ता था और इस तरह भौतिक के समानान्तर आधिभौति्क और आध्यात्मिक का लोक तैयार हो गया था जिसमें ज्ञानीजनों का इस हद तक आध्यात्मीकरण हो गया था कि वे सिर्फ रोटी के लिए उससे निकल कर भौति्क जगत में आते थे और उसे भी ब्रह्म समझ कर खाते थे और फिर अध्यात्मलोक में वापस चले जाते थे जिसमेो नेति नेति का इतना भूलभुलैया है कि वे क्या हासिल कर सके यह बता नहीं पाते और जिस भूतजगत में रहने के आदी नहीं उसकी व्याख्या करते हैं ते हमारे पल्ले जो उनकी मदद के बिना समझ मे आ भी सकता था वह हवा हवाई हो जाता है।

विषयान्तर होने का खतरा उठा कर भी यह याद दिलाना जरूरी है कि ऋग्वेद वैश्यों का वेद है। इसमें प्रमुख रूप से वैश्यों की चिन्ताएं व्यक्त हें। यदि कृषिकर्म भूी वैश्यों के जिम्मे था तो उसकी भी चिन्ता तेो रहेंगी ही, परन्तु किसान जमीन से इस तरह बँ)धे होते है कि शादी व्याह तक के लिए झुलसती गर्मी के महीने-दो महीने की अवधि की प्रतीक्षा रहती है जब खेती के काम से थोड़ी फुरसत मिलती है। इसलिए वह दौड़ भाग, चरैवेति चरैवेति, जान माल और हारी बीमारी , भूख-प्यास, की चिन्ताएं और इसके बाद भी शौर्य के वे कारनामे जो सभी आत्मरक्षापरक हैं धन की लालसा में खतरा मोल ले कर सुदूर यात्रा पर निकलने वाले उन व्यापारियों के हैं जिनका वैदिक काल में प्रभुत्व था। ऋग्वेद में राजा बताए गए यदि सभी नहीं तो अधिकांश चरित्र नगर सेठ हैं। क्षत्रिय और ब्राहमण अपनी शक्ति और युक्ति से उनकी ही रक्षा में तत्पर उनके आश्रित दिखाई देते हैं।

जब डचों, पौर्तगालियों, अंग्रेजों और फ्रांसिसियों ने अपनी कंपनियां खोली थी तो एकाधिकार के दूसरे झगड़ों के साथ तस्करी को उन्होंने इसलिए बढ़ावा दिया था कि इसका एक प्रयोजन था प्रतिस्पर्धी के रास्ते में अडंगे डालना जिससे उनका जहाज पहले पहुंच सके। पहले पहुचने वाले अपना माल मुंहमांगे मोल बेच लेते थे, और पिछड़ जाने वालों की वह दशा हो जाती भी जिसके लिए कौड़ियों के मोल बेचने का मुहावरा गढ़ा गया है।

इस तथ्य को समझे बिना ऋग्वेद की ” अश्वावती प्रथमं गोषु गच्छति” जैसे सरल पदों का अर्थ नही समझ सकते।

ऋग्वेद में निमिष का प्रयोग काल की इकाई से अधिक इस त्वरा के कारण है। इस त्वरा के लिए ही दूसरी अनेक उक्तियों का चलन देखने में आता है, और ऐसे प्रयोग संकटनिवारण के लिए सहायकों और देवी देवताओं के आपहुंचने के लिए तो आवश्यक होंगे ही। दृष्टि के वेग से पहुंचना (अक्षुरंहसो यजत्रा ), वायवेग से चलने वाले अश्व (वातरंहसो दिव्यासो अत्याः), सूर्य की रश्मयों की गति से पहुंचने वाले रथ (अतः रथेन सुवृता न आ गतं साकं सूर्यस्य रश्मिभिः) जिसका एक अर्थ भोर की किरण फूटने के साथ ही पहुंचने से भी किया जा सकता है। मन की गति से चलने वाले (मनोजवा वृषणा मुदच्युता, मनोजवसा वृषणा स्वस्ति) ।

निमिष का इसी त्वरा के सन्दर्भ में प्रयोग हुआ है, इसके बाद भी इससे इतना तो पता चलता ही है कि ऋग्वेद के समय तक इस संकल्पना और संज्ञा का चलन हो रहा था और पलक को यदि त्यागा नहीं तो किनारे किया जा चुका था। यह ब्निद मिष का मिष ही जिसकी आख मीचने के मुहावरे में प्रयोग किया जाता है। क्या यह संभव नहीं कि यह भी देववाणी का शब्द हो जो सारस्वत प्रभाव से मिष बन गया हो और इसमें नि उपसर्ग नितान्त के अर्थ में आदि इकार के संकट निवारण क् लिए लगाया गया हो। मुझे इसमें सन्देह नहीं है।