आज से मैं भाषा पर अपनी पोस्टों को पुस्तक का आकार देने के लिए संपादन का काम करूंगा।
Month: July 2018
Post – 2018-07-29
वह दीखता नहीं है जो हरदम है मेरे साथ
कब दोस्त बने कब बने दुश्मन पता नहीं।
Post – 2018-07-28
कितना सादा बयान है फिर भी
हर इबारत जवाब है अपना।
Post – 2018-07-27
आइए शब्दों से खेलें (२७)
जानु जो फारसी में पहुंच कर जानू हो गया, उसी क्न/ग्न/ज्न मूल से निकला है जिससे जुड़ने, देखने, चमकने, जानने, गांठ आदि की शब्दावली निकली है। इसकी एक छवि हम पहले उकेर आए हैं। इसका प्रयोग यदि जांघ और घुटने दोनों के लिए हुआ तो अचरज की बात यदि कोई हो सकती है तो यह कि इसका प्रयोग जांघ के लिए किस आधार पर होता रहा। सं. का ऊरु शब्द भी टांगों के फैलने से संबंध रखता है, उस भाग से नहीं जिसके लिए रान या अंग्रेजी के थाई का होता है। जानु लातिन में जेनु genu हो गया और अं. में क्नी knee, जिसके उच्चारण में क (k) दबा दिया जाता है। वैदिक में यह ‘जानु’ और ‘ज्ञु’ दो रूपों में मिलता है। घुटने के बल झुक कर प्रणमन को, जिसके लिए जानुपात का प्रयोंग होता था, ऋग्वेद में ज्ञुबाध शब्द का प्रयोग हुआ है (तं त्वा वयं दम आ दीदिवांसमुप ज्ञुबाधो नमसा सदेम ।) तथा उकडू बैठने के लिए आच्या जानु (आच्या जानु दक्षिणतो निषद्य इमं यज्ञं अभि गृणीत विश्वे ) का।
घुटने से नीचे पिंडलियों के लिए संस्कृत मे किस शब्द का प्रयोग होता था यह हमें नहीं मालूम। ऋग्वेद में शायद इसी के लिए कुल्फ /गुल्फ का प्रयोग हुआ है। यह घुटने से टखने या फिल्ली तक का हिस्सा है। कुल्फ, गुल्फ का अर्थ क्या है यह मेरे सामने स्पष्ट नहीं है, एक चिप्पी के रूप में जिस अंग पर इसे चिपकाया गया है, उसे हम जानते हैं पर उसके औचित्य का निश्चय नहीं कर सकते। एक दुस्साहसिक अनुमान करते हुए हम यह सुझाना चाहते हैं कि कुलुप का अर्थ ताला है। ताले का आविष्कार नया है। पहले सुरक्षा के लिए केवल किल्ली/ किल्ला लगाया जाता था। कुलुप इस किल्ले का नाम रहा लगता है और किल्ला/ किल्ली इसी से निकले लगते हैं। इसके खड़े और बेंड़े दो रूप थे। पहले में कपाट के बन्द होने वाले भाग के ऊपर और नीचे बनें खांचों में डंडा लगाया जाता था, दूसरे में दोनों बाजुओं में बनें खांचों में, या पल्ले से जुड़े कीले को घुमा कर दूसरी ओर फंसाया जाता था। बाद में दो पल्लों के कपाट बनें तो इनमें उसके अनुसार बदलाव किया गया। आज तक तिजौरियों तक में इन्हीं विधियों का प्रयोग किया जाता है। कप् का अर्थ ढकना है। यह कपाल, कपट, कपाट, कर्पट, कर्पर (खप्पड़ > खपड़ा/खपड़ैल) सभी में लक्ष्य किया जा सकताहै।
यदि हमारा अनुमान सही है तो फिल्ली भी किल्ली का रूपभेद है और हो सकता है यह किल्ली का पूर्वरूप भी हो। ऐसी स्थिति में कुल्फ फिल्ली की बनावट के आधार पर किल्ली या किल्ले के रूप में कल्पित की गई और यदि कुल्फ का प्रयोग उसी के लिए हुआ तो यह ऐंकल या पिंडली के आशय में प्रयुक्त नहीं हो सकता जब कि विद्वानों और कोशकारों ने इसका यही अर्थ किया है।
पांव के निचले भाग को ऐंड़ी, तलवा और पंजा तीन भागों में बंटा कल्पित किया गया है, या इनके लिए पृथक और अर्थभेदक शब्द मिलते हैं।
ऋग्वेद में और बाद की सं. में भी एड़ी के लिए पार्ष्णि का प्रयोग देखने में आता है। हाथ के लिए पाणि और पांव की एंड़ी के लिए पार्ष्णि। अर्थ में भी कुछ समानता देखी जा सकती है? पाणि का अर्थ तोड़ने, मसलने वाला। यह टूटने की ध्वनि से निकला शब्द है जो ऋ. में पण, पणि (अबुध्यमानाः पणयः ससन्तु, न रेवता पणिना सख्यमिन्द्रो), पणन आदि निकले हैं। ऋग्वेद में (हिरण्यपाणि, सुपाणि) यह उस प्राथमिक आशय से जिसमें कतिपय अनाजों के छिल्क् को हाथ से मसल कर खाया जाता था। बांग्ला में पंड जिसका अर्थ नष्ट करना है, पण से ही निकला है। यदि आपने एंड़ी से मसलने की उक्ति सुनी हो तो समझ सकते हैं कि पार्ष्णि का आशय समझ में आ जाएगा। परन्तु समस्या यह है कि इन संकल्पनाओं का आधार बहुत पुराना है इसलिए इन्हें देववाणी में होना ही चाहिए जब कि ण ध्वनि उसमें थी ही नहीें और असवर्ण व्यंजन संयोग उसकी प्रकृति के विपरीत था। आप स्वयं तय करें कि इनके पूर्वरूप क्या रहे हो सकते हैं।
ताल/तालु का तीन अंगों के लिए प्रयोग होता है और तीनो जगहों पर आशय है, “नीचे वाला।’
मुख के तालु के विषय में हम अक्षरों के उच्चारण स्थलों पर विचार करते समय हम अपना मत रख आए है। अंग्रेजी में इसके लिए पैलेट का प्रयोग चलता है। हाथ के तालु/करताल को गदोरी कहते हैं। जब ताली बजाने की जरूरत पड़ने पर ही याद आता है कि गदोरी तालु या नीचे का भाग है पर क्यों इसे समझने के लिए घुटनों चलने वाली अवस्था की ओर लौटना होगा। पांव के तालु का हिंदी और बोलियों में तालु और तलवा दोनों रूपों में सामान्य प्रयोग होता है, परन्तु संस्कृत में पद लगाने के बाद ही इसका बोध हो पाता है। स्रोत इनका तर/तल=जल ही है जो ताल और ताल-आब में भी दृष्टिगम्य है।
पंजे का नामकरण पाँव की पांच उंगलियों पर आधारित है अत: हाथ के अग्रभाग और पांव के अग्रभाग के लिए प्रयोग में आता है। परन्तु संस्कृत में यदि इसका चलन था तो वैसा स्थल मुझे याद नहीं आ रहा।
नख की आवश्यकता नैसर्गिक हथियार के रूप में थी और इसके चलते इसे काटने की जरूरत नहीं पड़ती थी। यह घिसता और बढ़ता रहता था। आदमी को पंजा मारने वाले जानवरों जैसा नख और दांत मिला होता तो वह आदमी न बन पाता। इन दोनों की दुर्बलता ने उसे अपने बचाव के तरीके निकालने के लिए दिमाग पर जोर देने की लाचारी पैदा की और वह आदमी बन गया। दिमाग से काम लेने वाला समसे खतरनाक प्राणी। इस रहस्य को न जानने वाले दिमाग वाले प्राणी को लाठी वाला प्राणी बना कर दिमाग का इस्तेमाल करने वाले प्राणी से बाजी मारना चाहते हैं और वह सभी साधनों से वंचित होकर भी इनकी बोलती बन्द किए रहता है।
मुहावरा नखशिख वर्णन का है, मुझे शिख नख वर्णन करना पड़ा।
Post – 2018-07-27
आइने आइनों से लड़ते हैं
दस्तो खंजर नजर नहीं आता।
खून से रंग उठी हैं दीवारें
पर सितमगर नजर नहीं आता।
Post – 2018-07-26
कितनी यातना से गुजरने के बाद व्यक्ति सत्य का साक्षात्कार करता है! कितने साहस की जरूत होती है उसे कहने के लिए! और यदि उसने कह ही दिया उस सच को तो वे लोग उसके खून के प्यासे हो जाते हैं जो समाज मे सत्य के ठेकेदार होते हैं, क्योंकि सबसे पहले उससे वे नंगे होतें हैं।
Post – 2018-07-26
आइए शब्दों से खेलें (२6)
Post – 2018-07-26
मत कहो मुझको कुछ मिला ही नहीं
तुम मिले दर्द बेहिसाब मिला।
जिसको मोती के जल से धोते रहे
ऐसा हीरा मुझे जनाब मिला।
Post – 2018-07-26
लाख ढूंढ़ा कहीं मिला ही नहीं,
शब्द उसके मेरी तलाश में थे।
Post – 2018-07-24
दूर, हर चीज़ दूर है अब तो
मेरा साया तलक पकड़ से दूर।
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कुछ कहते हुए डरते हैं सुन ले न कोई
सुनते हुए डरते हैं कोई जान न ले।
अब देखते हैं आसपास कोई नहीे
डरते हैं बचे हम हैं कोई मान ले।