Post – 2018-01-31

आर्य और आर्येतर

मुझे अपनी पूर्वलिखित कुछ बातों को दुहराते हुए अपनी बात कहनी होगी। जैसे आज धनाढ्य वैश्यों के लिए श्रेष्ठ (सेठ), श्रेष्ठिन् (सेठी) का प्रयोग होता है और कुछ वंश-परंपराओं में सेठ और सेठी उपनाम बन चुके हैं, ठीक इसी तरह, हड़प्पा काल में अन्य वरिष्ठों के अतिरिक्त धनाढ़्य बनियों के लिए भी ‘आर्य’ का प्रयोग होता था। ऋग्वेद में जिनकी चिन्ताएं सबसे मुखर रूप में व्यक्त हुई हैं, वे वणिक् वर्ग की और विशेषत: सुदूर व्यापार में अग्रणी इन व्यापारियों के ही सरोकार हैं इसलिए ऋग्वेद को वैश्यों का वेद माना गया है। कहते हैं वैश्य वर्ण की उत्पत्ति ऋग्वेद से हुई: ‘ऋग्भ्यः जातं वैश्यं वर्णं आहु:’।

ऋग्वेद में सौ शरद् जीने की जो आकांक्षा है – जीवेम शरद: शतम् …. अदीना: स्याम शरद: शतम्, उसकी विचित्र व्याख्यायें करके यथार्थ से धयान हटाने के प्रयत्न होते रहे। यह कि सर्दी के कारण जाड़े में मौतें बहुत होती थीं, इसलिए वे कामना करते थे कि जाड़े के मौसम से पार पा जाएं। शरद् ऋतु की इससे अनूठी समझ हो नहीं सकती। खैर, यह व्यापारिक यात्राओं और उनसे मालामाल होने का यही उत्साह था जिसके कारण वे सौ शरद जीने और आजीवन आत्मावलंबी रहने की कामना करते थे। बरसात बीतते ही, सबके देना पावना का हिसाब करके वे व्यापार के लिए या खनिज संपदा के दोहन के लिए निकलते थे, इसलिए शरद ऋतु को वैश्यों की ऋतु कहा जाता था – शरद् ऋतु: वै वैश्य ऋतु:।

सुदूर यात्रा पर जाने वाले व्यापारियों की चिन्ता क्या थी? चिन्ता एक हो तो कहें, घर छोड़ते ही चिन्ता के पहाड़:
१. सभी देव प्रसन्न रहें और अनिष्ट से बचाएं – शं नो मित्र:, शं वरुण:, शं नो भवतु अर्यमा ….
२. मौसम ठीक रहे, आंधी, तूफान न आए, जल धाराएं प्रखर न मिलें, राह में पेट भरने के लिए मधर फल-कन्द मिलें …- मधु वाता ऋतायते, मधु क्षरन्ति सिन्धव: । माध्वी: न: सन्तु ओषधी:।…..
३. मेरी जान न चली जाय, लुटेरे या शत्रु हमें बन्दी न बना लें, खाने के लाले न पड. जांय – मा नो वधी: इन्द्र मा परा दा मा नो प्रिया भोजनानि प्रमोषी: ।…
४. हमें भ्रांति न हो, थकान न लगे, तन्द्रा न सताए- न मा तमन् नो श्रमन् न उत तन्द्रन् न वोचाम मा सुनेतेति सोमम् ,
५. हे इन्द्र तुम्हारे सख्य के बूते हमे डर न सताए, सख्ये त इन्द्र वाजिनो मा भेम शवसस्पते ।
६. हे देवताओ, अपने उपासकों को इन निर्मम प्राणघाती हिंसकों से बचाना – त्राध्वं नो देवा निजुरो वृकस्य त्राध्वं कर्तादवपदं यजत्राः ।।
७. कदाशयी बटमार हमारे ऊपर हावी न हो जाएं- मा नः स्तेन ईषत मा अघशंस: ।
८. इंद्र तुम अकूत धन देने वाले, हमें भी मालामाल कर देना -भूरिदा भूरि देहि नो मा दभ्रं भूर्या भर । भूरि घेदिन्द्र दित्ससि ।।
९. हमें किसी दूसरे के असाधारण करतब का लाभ न तो स्वयं लेना पड़े न हमारी आद-औलाद को – मा कस्याद्भुतक्रतू यक्षं भुजेमा तनूभिः । मा शेषसा मा तनसा ।।
१०. आने वाली भोर हमारी रक्षा करे, उफनती हुई नदिया हमारी रक्षा करें – अवन्तु मामुषसो जायमाना अवन्तु मा सिन्धवः पिन्वमानाः ।
११. हमें भूखा न रहना पड़े, दुष्टों के अधीन न होना पड़े, हम देश में रहें या जंगल में, कहीं हमें हिंसा का शिकार न होना पड़े – मा नः क्षुधे मा रक्षसे ऋतावः मा नः दमे मा वन आ जुहूर्थाःहिंसीः ।।
१२. दूसरे के कुकर्म का दंड हमें न भोगना पड़े – मा वो भुजेमान्यजातमेनो मा तत्कर्म वसवो यच्चयध्वे ।।
१३. एक पाप होने पर, दो पाप होने पर, तीन पाप होने पर, या कई पाप हो जायं तो भी, हमारे प्राण न लेना – मा न एकस्मिन्नागसि मा द्वयोरुत त्रिषु । वधीर्मा षूर भूरिषु ।।
१४. सब कुछ देखने, सुनने वाले हे देव तुमसे बिनती करता हूं कि मेरे सेवको और सहायकों को किसी तरह की क्षति न पहुंचने पाए – चक्षुष्मते शृण्वते ते ब्रवीमि मा नः प्रजां रीरिषः मोत वीरान् ।।

ये ही लोग थे जो सन्मार्ग पर उसी तरह निरुपद्रव चलते हुए जैसे सूर्य और चन्द्रमा अपने मार्ग पर चलते है, कल्याण सहित चलते, किसी को चोट पहुंचाए बिना अादान प्रदान करते हुए, जान पहचान बढ़ाते हुए मेले ठेले लगाते हुए विचरण करते थे – स्वस्ति पन्थामनु चरेम सूर्याचन्द्रमसाविव । पुनर्ददताघ्नता जानता सं गमेमहि ।।

और इन्होंने ही दूर पराए देशों में अपने प्रताप से वे प्राचीरवेष्ठित बस्तियां बसाई थीं जिनको वे आर्यों की बस्ती (आर्यस्थान) कहते थे और जिनकी संज्ञा उनकी गतिविधि के पूरे क्षेत्र से जुड़ गई थी – आर्याना (अफगानिस्तान), ईरान, ऐरनवेजो और इन्हीं की नकल पर इनके संपर्क में आने वाले जन भी अपने को आर्य कहने लगे थे – आरी (जर्मन), आर्मीनिया, आयरलैंड में जिनका रहस्य छिपा है। इस तरह एक खास अर्थ में इनको छोड़ कर दूसरे आर्येतर थे।
सहोभिर्विश्वं परि चक्रमू रजः पूर्वा धामानि अमिमिमानाः।
तनूषु विश्वा भुवना नि येमिरे प्रासारयन्त पुरुध प्रजा अनु।।

और इसी के बल पर कहते थे कि हमने समस्त संसार में आर्यव्रत का प्रसार किया है – आर्या व्रता विसृजन्त: अधि क्षमि । पर क्या था यह आर्यव्रत ? यह था जल की उपलब्धता का तरीका निकालना, पशुपालन, उद्यानिकी या बागबानी, कृषि, खनिज पदार्थों की खोज में भागीदारी पर साथ ही था प्रथमत: भाषा और संस्कृति का संचार या ज्ञान का प्रसार – ब्रह्म॒ गामश्वं॑ ज॒नय॑न्त॒ ओष॑धी॒र्वन॒स्पती॑न्पृथि॒वीं पर्व॑ताँ अ॒पः । सूर्यं॑ दि॒वि रो॒हय॑न्तः सु॒दान॑व॒ आर्या॑ व्र॒ता वि॑सृ॒जन्तो॒ अधि॒ क्षमि॑ ॥

संस्कृत का तो नहीं पर वैदिक संपर्क भाषा का प्रसार भारोपीय क्षेत्र में कैसे हुआ था इसे इस सिरे से ही समझा जा सकता है।

Post – 2018-01-31

आर्य और आर्येतर

मुझे अपनी पूर्वलिखित कुछ बातों को दुहराते हुए अपनी बात कहनी होगी। जैसे आज धनाढ्य वैश्यों के लिए श्रेष्ठ (सेठ), श्रेष्ठिन् (सेठी) का प्रयोग होता है और कुछ वंश-परंपराओं में सेठ और सेठी उपनाम बन चुके हैं, ठीक इसी तरह, हड़प्पा काल में अन्य वरिष्ठों के अतिरिक्त धनाढ़्य बनियों के लिए भी ‘आर्य’ का प्रयोग होता था। ऋग्वेद में जिनकी चिन्ताएं सबसे मुखर रूप में व्यक्त हुई हैं, वे वणिक् वर्ग की और विशेषत: सुदूर व्यापार में अग्रणी इन व्यापारियों के ही सरोकार हैं इसलिए ऋग्वेद को वैश्यों का वेद माना गया है। कहते हैं वैश्य वर्ण की उत्पत्ति ऋग्वेद से हुई: ‘ऋग्भ्यः जातं वैश्यं वर्णं आहु:’।

ऋग्वेद में सौ शरद् जीने की जो आकांक्षा है – जीवेम शरद: शतम् …. अदीना: स्याम शरद: शतम्, उसकी विचित्र व्याख्यायें करके यथार्थ से धयान हटाने के प्रयत्न होते रहे। यह कि सर्दी के कारण जाड़े में मौतें बहुत होती थीं, इसलिए वे कामना करते थे कि जाड़े के मौसम से पार पा जाएं। शरद् ऋतु की इससे अनूठी समझ हो नहीं सकती। खैर, यह व्यापारिक यात्राओं और उनसे मालामाल होने का यही उत्साह था जिसके कारण वे सौ शरद जीने और आजीवन आत्मावलंबी रहने की कामना करते थे। बरसात बीतते ही, सबके देना पावना का हिसाब करके वे व्यापार के लिए या खनिज संपदा के दोहन के लिए निकलते थे, इसलिए शरद ऋतु को वैश्यों की ऋतु कहा जाता था – शरद् ऋतु: वै वैश्य ऋतु:।

सुदूर यात्रा पर जाने वाले व्यापारियों की चिन्ता क्या थी? चिन्ता एक हो तो कहें, घर छोड़ते ही चिन्ता के पहाड़:
१. सभी देव प्रसन्न रहें और अनिष्ट से बचाएं – शं नो मित्र:, शं वरुण:, शं नो भवतु अर्यमा ….
२. मौसम ठीक रहे, आंधी, तूफान न आए, जल धाराएं प्रखर न मिलें, राह में पेट भरने के लिए मधर फल-कन्द मिलें …- मधु वाता ऋतायते, मधु क्षरन्ति सिन्धव: । माध्वी: न: सन्तु ओषधी:।…..
३. मेरी जान न चली जाय, लुटेरे या शत्रु हमें बन्दी न बना लें, खाने के लाले न पड. जांय – मा नो वधी: इन्द्र मा परा दा मा नो प्रिया भोजनानि प्रमोषी: ।…
४. हमें भ्रांति न हो, थकान न लगे, तन्द्रा न सताए- न मा तमन् नो श्रमन् न उत तन्द्रन् न वोचाम मा सुनेतेति सोमम् ,
५. हे इन्द्र तुम्हारे सख्य के बूते हमे डर न सताए, सख्ये त इन्द्र वाजिनो मा भेम शवसस्पते ।
६. हे देवताओ, अपने उपासकों को इन निर्मम प्राणघाती हिंसकों से बचाना – त्राध्वं नो देवा निजुरो वृकस्य त्राध्वं कर्तादवपदं यजत्राः ।।
७. कदाशयी बटमार हमारे ऊपर हावी न हो जाएं- मा नः स्तेन ईषत मा अघशंस: ।
८. इंद्र तुम अकूत धन देने वाले, हमें भी मालामाल कर देना -भूरिदा भूरि देहि नो मा दभ्रं भूर्या भर । भूरि घेदिन्द्र दित्ससि ।।
९. हमें किसी दूसरे के असाधारण करतब का लाभ न तो स्वयं लेना पड़े न हमारी आद-औलाद को – मा कस्याद्भुतक्रतू यक्षं भुजेमा तनूभिः । मा शेषसा मा तनसा ।।
१०. आने वाली भोर हमारी रक्षा करे, उफनती हुई नदिया हमारी रक्षा करें – अवन्तु मामुषसो जायमाना अवन्तु मा सिन्धवः पिन्वमानाः ।
११. हमें भूखा न रहना पड़े, दुष्टों के अधीन न होना पड़े, हम देश में रहें या जंगल में, कहीं हमें हिंसा का शिकार न होना पड़े – मा नः क्षुधे मा रक्षसे ऋतावः मा नः दमे मा वन आ जुहूर्थाःहिंसीः ।।
१२. दूसरे के कुकर्म का दंड हमें न भोगना पड़े – मा वो भुजेमान्यजातमेनो मा तत्कर्म वसवो यच्चयध्वे ।।
१३. एक पाप होने पर, दो पाप होने पर, तीन पाप होने पर, या कई पाप हो जायं तो भी, हमारे प्राण न लेना – मा न एकस्मिन्नागसि मा द्वयोरुत त्रिषु । वधीर्मा षूर भूरिषु ।।
१४. सब कुछ देखने, सुनने वाले हे देव तुमसे बिनती करता हूं कि मेरे सेवको और सहायकों को किसी तरह की क्षति न पहुंचने पाए – चक्षुष्मते शृण्वते ते ब्रवीमि मा नः प्रजां रीरिषः मोत वीरान् ।।

ये ही लोग थे जो सन्मार्ग पर उसी तरह निरुपद्रव चलते हुए जैसे सूर्य और चन्द्रमा अपने मार्ग पर चलते है, कल्याण सहित चलते, किसी को चोट पहुंचाए बिना अादान प्रदान करते हुए, जान पहचान बढ़ाते हुए मेले ठेले लगाते हुए विचरण करते थे – स्वस्ति पन्थामनु चरेम सूर्याचन्द्रमसाविव । पुनर्ददताघ्नता जानता सं गमेमहि ।।

और इन्होंने ही दूर पराए देशों में अपने प्रताप से वे प्राचीरवेष्ठित बस्तियां बसाई थीं जिनको वे आर्यों की बस्ती (आर्यस्थान) कहते थे और जिनकी संज्ञा उनकी गतिविधि के पूरे क्षेत्र से जुड़ गई थी – आर्याना (अफगानिस्तान), ईरान, ऐरनवेजो और इन्हीं की नकल पर इनके संपर्क में आने वाले जन भी अपने को आर्य कहने लगे थे – आरी (जर्मन), आर्मीनिया, आयरलैंड में जिनका रहस्य छिपा है। इस तरह एक खास अर्थ में इनको छोड़ कर दूसरे आर्येतर थे।
सहोभिर्विश्वं परि चक्रमू रजः पूर्वा धामानि अमिमिमानाः।
तनूषु विश्वा भुवना नि येमिरे प्रासारयन्त पुरुध प्रजा अनु।।

और इसी के बल पर कहते थे कि हमने समस्त संसार में आर्यव्रत का प्रसार किया है – आर्या व्रता विसृजन्त: अधि क्षमि । पर क्या था यह आर्यव्रत ? यह था जल की उपलब्धता का तरीका निकालना, पशुपालन, उद्यानिकी या बागबानी, कृषि, खनिज पदार्थों की खोज में भागीदारी पर साथ ही था प्रथमत: भाषा और संस्कृति का संचार या ज्ञान का प्रसार – ब्रह्म॒ गामश्वं॑ ज॒नय॑न्त॒ ओष॑धी॒र्वन॒स्पती॑न्पृथि॒वीं पर्व॑ताँ अ॒पः । सूर्यं॑ दि॒वि रो॒हय॑न्तः सु॒दान॑व॒ आर्या॑ व्र॒ता वि॑सृ॒जन्तो॒ अधि॒ क्षमि॑ ॥

संस्कृत का तो नहीं पर वैदिक संपर्क भाषा का प्रसार भारोपीय क्षेत्र में कैसे हुआ था इसे इस सिरे से ही समझा जा सकता है।

Post – 2018-01-31

आर्य और आर्येतर

मुझे अपनी पूर्वलिखित कुछ बातों को दुहराते हुए अपनी बात कहनी होगी। जैसे आज धनाढ्य वैश्यों के लिए श्रेष्ठ (सेठ), श्रेष्ठिन् (सेठी) का प्रयोग होता है और कुछ वंश-परंपराओं में सेठ और सेठी उपनाम बन चुके हैं, ठीक इसी तरह, हड़प्पा काल में अन्य वरिष्ठों के अतिरिक्त धनाढ़्य बनियों के लिए भी ‘आर्य’ का प्रयोग होता था। ऋग्वेद में जिनकी चिन्ताएं सबसे मुखर रूप में व्यक्त हुई हैं, वे वणिक् वर्ग की और विशेषत: सुदूर व्यापार में अग्रणी इन व्यापारियों के ही सरोकार हैं इसलिए ऋग्वेद को वैश्यों का वेद माना गया है। कहते हैं वैश्य वर्ण की उत्पत्ति ऋग्वेद से हुई: ‘ऋग्भ्यः जातं वैश्यं वर्णं आहु:’।

ऋग्वेद में सौ शरद् जीने की जो आकांक्षा है – जीवेम शरद: शतम् …. अदीना: स्याम शरद: शतम्, उसकी विचित्र व्याख्यायें करके यथार्थ से धयान हटाने के प्रयत्न होते रहे। यह कि सर्दी के कारण जाड़े में मौतें बहुत होती थीं, इसलिए वे कामना करते थे कि जाड़े के मौसम से पार पा जाएं। शरद् ऋतु की इससे अनूठी समझ हो नहीं सकती। खैर, यह व्यापारिक यात्राओं और उनसे मालामाल होने का यही उत्साह था जिसके कारण वे सौ शरद जीने और आजीवन आत्मावलंबी रहने की कामना करते थे। बरसात बीतते ही, सबके देना पावना का हिसाब करके वे व्यापार के लिए या खनिज संपदा के दोहन के लिए निकलते थे, इसलिए शरद ऋतु को वैश्यों की ऋतु कहा जाता था – शरद् ऋतु: वै वैश्य ऋतु:।

सुदूर यात्रा पर जाने वाले व्यापारियों की चिन्ता क्या थी? चिन्ता एक हो तो कहें, घर छोड़ते ही चिन्ता के पहाड़:
१. सभी देव प्रसन्न रहें और अनिष्ट से बचाएं – शं नो मित्र:, शं वरुण:, शं नो भवतु अर्यमा ….
२. मौसम ठीक रहे, आंधी, तूफान न आए, जल धाराएं प्रखर न मिलें, राह में पेट भरने के लिए मधर फल-कन्द मिलें …- मधु वाता ऋतायते, मधु क्षरन्ति सिन्धव: । माध्वी: न: सन्तु ओषधी:।…..
३. मेरी जान न चली जाय, लुटेरे या शत्रु हमें बन्दी न बना लें, खाने के लाले न पड. जांय – मा नो वधी: इन्द्र मा परा दा मा नो प्रिया भोजनानि प्रमोषी: ।…
४. हमें भ्रांति न हो, थकान न लगे, तन्द्रा न सताए- न मा तमन् नो श्रमन् न उत तन्द्रन् न वोचाम मा सुनेतेति सोमम् ,
५. हे इन्द्र तुम्हारे सख्य के बूते हमे डर न सताए, सख्ये त इन्द्र वाजिनो मा भेम शवसस्पते ।
६. हे देवताओ, अपने उपासकों को इन निर्मम प्राणघाती हिंसकों से बचाना – त्राध्वं नो देवा निजुरो वृकस्य त्राध्वं कर्तादवपदं यजत्राः ।।
७. कदाशयी बटमार हमारे ऊपर हावी न हो जाएं- मा नः स्तेन ईषत मा अघशंस: ।
८. इंद्र तुम अकूत धन देने वाले, हमें भी मालामाल कर देना -भूरिदा भूरि देहि नो मा दभ्रं भूर्या भर । भूरि घेदिन्द्र दित्ससि ।।
९. हमें किसी दूसरे के असाधारण करतब का लाभ न तो स्वयं लेना पड़े न हमारी आद-औलाद को – मा कस्याद्भुतक्रतू यक्षं भुजेमा तनूभिः । मा शेषसा मा तनसा ।।
१०. आने वाली भोर हमारी रक्षा करे, उफनती हुई नदिया हमारी रक्षा करें – अवन्तु मामुषसो जायमाना अवन्तु मा सिन्धवः पिन्वमानाः ।
११. हमें भूखा न रहना पड़े, दुष्टों के अधीन न होना पड़े, हम देश में रहें या जंगल में, कहीं हमें हिंसा का शिकार न होना पड़े – मा नः क्षुधे मा रक्षसे ऋतावः मा नः दमे मा वन आ जुहूर्थाःहिंसीः ।।
१२. दूसरे के कुकर्म का दंड हमें न भोगना पड़े – मा वो भुजेमान्यजातमेनो मा तत्कर्म वसवो यच्चयध्वे ।।
१३. एक पाप होने पर, दो पाप होने पर, तीन पाप होने पर, या कई पाप हो जायं तो भी, हमारे प्राण न लेना – मा न एकस्मिन्नागसि मा द्वयोरुत त्रिषु । वधीर्मा षूर भूरिषु ।।
१४. सब कुछ देखने, सुनने वाले हे देव तुमसे बिनती करता हूं कि मेरे सेवको और सहायकों को किसी तरह की क्षति न पहुंचने पाए – चक्षुष्मते शृण्वते ते ब्रवीमि मा नः प्रजां रीरिषः मोत वीरान् ।।

ये ही लोग थे जो सन्मार्ग पर उसी तरह निरुपद्रव चलते हुए जैसे सूर्य और चन्द्रमा अपने मार्ग पर चलते है, कल्याण सहित चलते, किसी को चोट पहुंचाए बिना अादान प्रदान करते हुए, जान पहचान बढ़ाते हुए मेले ठेले लगाते हुए विचरण करते थे – स्वस्ति पन्थामनु चरेम सूर्याचन्द्रमसाविव । पुनर्ददताघ्नता जानता सं गमेमहि ।।

और इन्होंने ही दूर पराए देशों में अपने प्रताप से वे प्राचीरवेष्ठित बस्तियां बसाई थीं जिनको वे आर्यों की बस्ती (आर्यस्थान) कहते थे और जिनकी संज्ञा उनकी गतिविधि के पूरे क्षेत्र से जुड़ गई थी – आर्याना (अफगानिस्तान), ईरान, ऐरनवेजो और इन्हीं की नकल पर इनके संपर्क में आने वाले जन भी अपने को आर्य कहने लगे थे – आरी (जर्मन), आर्मीनिया, आयरलैंड में जिनका रहस्य छिपा है। इस तरह एक खास अर्थ में इनको छोड़ कर दूसरे आर्येतर थे।
सहोभिर्विश्वं परि चक्रमू रजः पूर्वा धामानि अमिमिमानाः।
तनूषु विश्वा भुवना नि येमिरे प्रासारयन्त पुरुध प्रजा अनु।।

और इसी के बल पर कहते थे कि हमने समस्त संसार में आर्यव्रत का प्रसार किया है – आर्या व्रता विसृजन्त: अधि क्षमि । पर क्या था यह आर्यव्रत ? यह था जल की उपलब्धता का तरीका निकालना, पशुपालन, उद्यानिकी या बागबानी, कृषि, खनिज पदार्थों की खोज में भागीदारी पर साथ ही था प्रथमत: भाषा और संस्कृति का संचार या ज्ञान का प्रसार – ब्रह्म॒ गामश्वं॑ ज॒नय॑न्त॒ ओष॑धी॒र्वन॒स्पती॑न्पृथि॒वीं पर्व॑ताँ अ॒पः । सूर्यं॑ दि॒वि रो॒हय॑न्तः सु॒दान॑व॒ आर्या॑ व्र॒ता वि॑सृ॒जन्तो॒ अधि॒ क्षमि॑ ॥

संस्कृत का तो नहीं पर वैदिक संपर्क भाषा का प्रसार भारोपीय क्षेत्र में कैसे हुआ था इसे इस सिरे से ही समझा जा सकता है।

Post – 2018-01-30

धारा बहा ले जाती है

आप मार्क्सवादी शल्यक्रिया नहीं कर सकते; राष्ट्रवादी शल्यक्रिया नहीं कर सकते। विशलेषण का काम भी शल्यक्रिया जैसा ही है। यह मामूली सी बात किसी विचारधारा से ग्रस्त इतिहासकार को या किसी अन्य अभियान से जुडे विद्वान को नहीं समझाई जा सकती कि किसी प्रकार के इतर सरोकार के हस्तक्षेप से हमारा ध्यान विश्लेष्य वस्तु से हट जाता है, अपने सरोकार या विचारधारा को सही सिद्ध करने की चिंता प्रधान हो जाती है और जिसे समझना है उसे समझने की जगह उस रूप में ढालने या बदलने का प्रयत्न किया जाता है जिस रूप में रखने पर नतीजा जो भी हो विचारधारा विजयी रहे। दुर्भाग्य से इतिहास का अध्ययन, इतर सरोकारों से मुक्त कभी रह ही नहीं पाया, और इसलिए हम अपनी वर्तमान समस्याओं के समाधान में अपने जातीय या सामूहिक अनुभवों के योगदान से वंचित रहे। इतिहास कतिपय प्रिय पर अधिकांशत: अप्रिय सूचनाओं की लादी बन कर हमारी चेतना पर लदा रहा। हमारे वर्तमान की अधिकांश समस्यायें इतिहास की अधूरी या गलत समझ से पैदा हुई हैं, और इनका समाधान इतिहास की वस्तुपरक व्याख्या से संभव है। इसी स्थिति में इतिहास विज्ञान बन सकता था। मार्क्सवादी इतिहासकारों ने इसका दावा भी किया। पहले जिन सामाजिक अध्ययनों को शास्त्र की कोटि में रखा जाता था उनको समाजविज्ञान की संज्ञा दी जाने लगी। पर विचारधारात्मक आग्रहों ने ऐतिहासिक और समाजशास्त्रीय नासमझी के जैसे नमूने पेश किए उनके सामने मिथक और पुराण भी अधिक विश्वसनीय लगने लगे। ऐसा हुआ क्यों? कैसे?

क्या इसलिए कि विरल अपवादों को छोड़कर कम्युनिस्ट पार्टी में विदेश में शिक्षित नेतृत्व का प्राधान्य रहा जो भारत को विदेशियों की नजर से देखता था, इसलिए उसके मन में न इसकी किसी भाषा के प्रति अनुराग था, न समाज के प्रति सम्मान था, न इसके इतिहास में उनकी रुचि थी, न रीति-नीति से लगाव। इसके बावजूद वे इसे बदलना चाहते थे। यह समझे बिना भी कि यहां की आर्थिक और राजनीतिक शक्तियां क्या हैं, क्रान्ति करना चाहते थे और क्रान्ति यदि रक्तरंजित न हुई तो फिर क्रांति क्या ! उनकी रुचि समझने में कम और अपनी आकांक्षा के अनुसार समाज को कल्पित करके एक वायवीय यथार्थ रच कर उसे बदलने में थी। इसी का परिणाम था मार्क्सवादी दर्शन का मार्क्सवादी विचारधारा में बदल जाना जिसमें विचार से यथार्थ पैदा होता है और यथार्थ पर विचार को आरोपित करके उसे समझा जाता है। यह भौतिकवाद का भाववाद में रूपान्तरण है। भारत में मार्क्सवाद इसी रूप में अवतरित हुआ।

अब कतिपय कल्पनाओं को वस्तुसत्य बनने का नमूना देखें:
भारतीय सन्दर्भ में वर्ण ही वर्ग है। है क्या? अब या तो वर्ग को तीन की जगह चार बनाएं या किसी वर्ण को कम करके समीकरण पूरा करें, पर महत्वपूर्ण बात यह कि अब वर्गसंघर्ष का आर्थिक आधार ही समाप्त हो जाता है क्योंकि वर्ण व्यवस्था में जो सर्वोपरि है वह सर्वहारा है। उसके पास आय का कोई स्रोत नहीं। उसकी सबसे बड़ी समस्या पेट भरने की है। कोसंबी, जिनका यह विचार था, स्वयं ब्राह्मणों की आर्थिक बदहाली का चित्रण किया है। अत: आर्थिक विषमता दूर करके साम्यवादी व्यवस्था कायम करने का संघर्ष बोध के रूपों में बदलाव के मनोवैज्ञानिक विमर्श में बदल जाता है और बदल जाती हैं इसकी अपेक्षाएं जो सार्वजनीन शिक्षा और शोध, विश्लेषण हो जाती हैं जिसके लिए जागरूकता तो अपेक्षित है पर संगठन, आन्दोलन आदि नहीं। आर्थिक दृष्टि से सर्वाधिक सुविधाजनक स्थिति में रहने वाला वैश्य वर्ण के वर्ग बनने पर शूद्र या श्रमिक के सबसे निकट पहुंच जाता है। यदि मेरी समझ में कोई झोल हो तो मैं इसे स्वयं समझना चाहूंगा।
पर मुझे ऐसा लगता है कि इस तरह की भाववादी समझ के चलते मार्क्स का क्रान्तिदर्शन नामत: वही रहते हुए, भारतीय संदर्भ में खुराफात दर्शन में बदल गया। भारतीय समाजव्यवस्था में पाई जाने वाली सभी विकृतियों के लिए ब्राह्मण उत्तरदायी हो गया। हड़प्पा सभ्यता के नगर विदेशी व्यापारियों के अड्डे थे इसीलिए इसकी नदी तटीय नागर बस्तियां थीं। भारत का शेष समाज हैवानियत की अवस्था में था और हड़प्पा के नगरों में बसा पुजारी इन्हीं का शासक था इसलिए आदिम समाज की मूल्य प्रणाली का वर्णसमाज जन्य विकृतियों से लगभग अभेद हो गया और इसलिए हिन्दू समाज के मूल्यों, मानों, सांस्कृतिक प्रतीकों पर प्रहार सामाजिक क्रान्ति की जरूरत बन गई। कलामाध्यमों, संचार माध्यमों, अकादमिक विमर्शों का एक श्लाघ्य ध्येय हिन्दुत्व पर प्रहार बन गया क्योंकि हिन्दुत्व ब्राह्मणवाद का पर्याय बन गया।

अपनी ही सोच पर भरोसा नहीं हो पाता कि यह ठीक भी है या नहीं। पर यदि यह सही है तो इस भाववादी समझ में तथ्यों और प्रमाणों का कोई मतलब ही नहीं रह गया। अपनी इच्छा और जरूरत से उनको उल्टा, बदला और स्थानान्तरित किया जा सकता था। सभी जानते और मानते हैं, आर्य का अर्थ श्रेष्ठ, स्वामी, आप्त, अकाट्य (आर्य सत्य) है, पर इस व्याख्या में वह लुटेरा, हत्यारा, युद्धोन्मादी बना दिया जाता है। भगवतशरण जी की अनमोल पंक्तियां नारी के मुख से सुनिए, “एक नई जाति ने हमारे देश पर आक्रमण किया। उस जाति का नाम उसके आचरण पर प्रभूत व्यंग्य था। वह अपने को ‘आर्य’ कहती थी और संसार के जनों में अपने को सबसे उन्नत मानती थी।” (नारी, खून के धब्बे, प्राचीन भारत के इतिहासकार, १०३)

ऐसे में पांडित्य का, ज्ञान का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता। इबारत और शब्द कुछ भी कहें आपको मानना वह है जो आप चाहते है। भारतीय मार्क्सवादी का भाव सत्य वस्तुसत्य पर भारी पड़ता ही है, मार्क्सवाद पर भी भारी पड़ता है, इतिहास पर तो भारी पड़ेगा ही। सब कुछ को छिन्न-भिन्न करने वाले आज यह समझ नहीं पाते कि वे स्वयं छिन्न-भिन्न होते क्यों चले गए और क्यों वे प्रवृत्तियां प्रबल होती चली गईं जिन्हें वे निर्मूल करना चाहते थे।

Post – 2018-01-30

धारा बहा ले जाती है

आप मार्क्सवादी शल्यक्रिया नहीं कर सकते; राष्ट्रवादी शल्यक्रिया नहीं कर सकते। विशलेषण का काम भी शल्यक्रिया जैसा ही है। यह मामूली सी बात किसी विचारधारा से ग्रस्त इतिहासकार को या किसी अन्य अभियान से जुडे विद्वान को नहीं समझाई जा सकती कि किसी प्रकार के इतर सरोकार के हस्तक्षेप से हमारा ध्यान विश्लेष्य वस्तु से हट जाता है, अपने सरोकार या विचारधारा को सही सिद्ध करने की चिंता प्रधान हो जाती है और जिसे समझना है उसे समझने की जगह उस रूप में ढालने या बदलने का प्रयत्न किया जाता है जिस रूप में रखने पर नतीजा जो भी हो विचारधारा विजयी रहे। दुर्भाग्य से इतिहास का अध्ययन, इतर सरोकारों से मुक्त कभी रह ही नहीं पाया, और इसलिए हम अपनी वर्तमान समस्याओं के समाधान में अपने जातीय या सामूहिक अनुभवों के योगदान से वंचित रहे। इतिहास कतिपय प्रिय पर अधिकांशत: अप्रिय सूचनाओं की लादी बन कर हमारी चेतना पर लदा रहा। हमारे वर्तमान की अधिकांश समस्यायें इतिहास की अधूरी या गलत समझ से पैदा हुई हैं, और इनका समाधान इतिहास की वस्तुपरक व्याख्या से संभव है। इसी स्थिति में इतिहास विज्ञान बन सकता था। मार्क्सवादी इतिहासकारों ने इसका दावा भी किया। पहले जिन सामाजिक अध्ययनों को शास्त्र की कोटि में रखा जाता था उनको समाजविज्ञान की संज्ञा दी जाने लगी। पर विचारधारात्मक आग्रहों ने ऐतिहासिक और समाजशास्त्रीय नासमझी के जैसे नमूने पेश किए उनके सामने मिथक और पुराण भी अधिक विश्वसनीय लगने लगे। ऐसा हुआ क्यों? कैसे?

क्या इसलिए कि विरल अपवादों को छोड़कर कम्युनिस्ट पार्टी में विदेश में शिक्षित नेतृत्व का प्राधान्य रहा जो भारत को विदेशियों की नजर से देखता था, इसलिए उसके मन में न इसकी किसी भाषा के प्रति अनुराग था, न समाज के प्रति सम्मान था, न इसके इतिहास में उनकी रुचि थी, न रीति-नीति से लगाव। इसके बावजूद वे इसे बदलना चाहते थे। यह समझे बिना भी कि यहां की आर्थिक और राजनीतिक शक्तियां क्या हैं, क्रान्ति करना चाहते थे और क्रान्ति यदि रक्तरंजित न हुई तो फिर क्रांति क्या ! उनकी रुचि समझने में कम और अपनी आकांक्षा के अनुसार समाज को कल्पित करके एक वायवीय यथार्थ रच कर उसे बदलने में थी। इसी का परिणाम था मार्क्सवादी दर्शन का मार्क्सवादी विचारधारा में बदल जाना जिसमें विचार से यथार्थ पैदा होता है और यथार्थ पर विचार को आरोपित करके उसे समझा जाता है। यह भौतिकवाद का भाववाद में रूपान्तरण है। भारत में मार्क्सवाद इसी रूप में अवतरित हुआ।

अब कतिपय कल्पनाओं को वस्तुसत्य बनने का नमूना देखें:
भारतीय सन्दर्भ में वर्ण ही वर्ग है। है क्या? अब या तो वर्ग को तीन की जगह चार बनाएं या किसी वर्ण को कम करके समीकरण पूरा करें, पर महत्वपूर्ण बात यह कि अब वर्गसंघर्ष का आर्थिक आधार ही समाप्त हो जाता है क्योंकि वर्ण व्यवस्था में जो सर्वोपरि है वह सर्वहारा है। उसके पास आय का कोई स्रोत नहीं। उसकी सबसे बड़ी समस्या पेट भरने की है। कोसंबी, जिनका यह विचार था, स्वयं ब्राह्मणों की आर्थिक बदहाली का चित्रण किया है। अत: आर्थिक विषमता दूर करके साम्यवादी व्यवस्था कायम करने का संघर्ष बोध के रूपों में बदलाव के मनोवैज्ञानिक विमर्श में बदल जाता है और बदल जाती हैं इसकी अपेक्षाएं जो सार्वजनीन शिक्षा और शोध, विश्लेषण हो जाती हैं जिसके लिए जागरूकता तो अपेक्षित है पर संगठन, आन्दोलन आदि नहीं। आर्थिक दृष्टि से सर्वाधिक सुविधाजनक स्थिति में रहने वाला वैश्य वर्ण के वर्ग बनने पर शूद्र या श्रमिक के सबसे निकट पहुंच जाता है। यदि मेरी समझ में कोई झोल हो तो मैं इसे स्वयं समझना चाहूंगा।
पर मुझे ऐसा लगता है कि इस तरह की भाववादी समझ के चलते मार्क्स का क्रान्तिदर्शन नामत: वही रहते हुए, भारतीय संदर्भ में खुराफात दर्शन में बदल गया। भारतीय समाजव्यवस्था में पाई जाने वाली सभी विकृतियों के लिए ब्राह्मण उत्तरदायी हो गया। हड़प्पा सभ्यता के नगर विदेशी व्यापारियों के अड्डे थे इसीलिए इसकी नदी तटीय नागर बस्तियां थीं। भारत का शेष समाज हैवानियत की अवस्था में था और हड़प्पा के नगरों में बसा पुजारी इन्हीं का शासक था इसलिए आदिम समाज की मूल्य प्रणाली का वर्णसमाज जन्य विकृतियों से लगभग अभेद हो गया और इसलिए हिन्दू समाज के मूल्यों, मानों, सांस्कृतिक प्रतीकों पर प्रहार सामाजिक क्रान्ति की जरूरत बन गई। कलामाध्यमों, संचार माध्यमों, अकादमिक विमर्शों का एक श्लाघ्य ध्येय हिन्दुत्व पर प्रहार बन गया क्योंकि हिन्दुत्व ब्राह्मणवाद का पर्याय बन गया।

अपनी ही सोच पर भरोसा नहीं हो पाता कि यह ठीक भी है या नहीं। पर यदि यह सही है तो इस भाववादी समझ में तथ्यों और प्रमाणों का कोई मतलब ही नहीं रह गया। अपनी इच्छा और जरूरत से उनको उल्टा, बदला और स्थानान्तरित किया जा सकता था। सभी जानते और मानते हैं, आर्य का अर्थ श्रेष्ठ, स्वामी, आप्त, अकाट्य (आर्य सत्य) है, पर इस व्याख्या में वह लुटेरा, हत्यारा, युद्धोन्मादी बना दिया जाता है। भगवतशरण जी की अनमोल पंक्तियां नारी के मुख से सुनिए, “एक नई जाति ने हमारे देश पर आक्रमण किया। उस जाति का नाम उसके आचरण पर प्रभूत व्यंग्य था। वह अपने को ‘आर्य’ कहती थी और संसार के जनों में अपने को सबसे उन्नत मानती थी।” (नारी, खून के धब्बे, प्राचीन भारत के इतिहासकार, १०३)

ऐसे में पांडित्य का, ज्ञान का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता। इबारत और शब्द कुछ भी कहें आपको मानना वह है जो आप चाहते है। भारतीय मार्क्सवादी का भाव सत्य वस्तुसत्य पर भारी पड़ता ही है, मार्क्सवाद पर भी भारी पड़ता है, इतिहास पर तो भारी पड़ेगा ही। सब कुछ को छिन्न-भिन्न करने वाले आज यह समझ नहीं पाते कि वे स्वयं छिन्न-भिन्न होते क्यों चले गए और क्यों वे प्रवृत्तियां प्रबल होती चली गईं जिन्हें वे निर्मूल करना चाहते थे।

Post – 2018-01-30

धारा बहा ले जाती है

आप मार्क्सवादी शल्यक्रिया नहीं कर सकते; राष्ट्रवादी शल्यक्रिया नहीं कर सकते। विशलेषण का काम भी शल्यक्रिया जैसा ही है। यह मामूली सी बात किसी विचारधारा से ग्रस्त इतिहासकार को या किसी अन्य अभियान से जुडे विद्वान को नहीं समझाई जा सकती कि किसी प्रकार के इतर सरोकार के हस्तक्षेप से हमारा ध्यान विश्लेष्य वस्तु से हट जाता है, अपने सरोकार या विचारधारा को सही सिद्ध करने की चिंता प्रधान हो जाती है और जिसे समझना है उसे समझने की जगह उस रूप में ढालने या बदलने का प्रयत्न किया जाता है जिस रूप में रखने पर नतीजा जो भी हो विचारधारा विजयी रहे। दुर्भाग्य से इतिहास का अध्ययन, इतर सरोकारों से मुक्त कभी रह ही नहीं पाया, और इसलिए हम अपनी वर्तमान समस्याओं के समाधान में अपने जातीय या सामूहिक अनुभवों के योगदान से वंचित रहे। इतिहास कतिपय प्रिय पर अधिकांशत: अप्रिय सूचनाओं की लादी बन कर हमारी चेतना पर लदा रहा। हमारे वर्तमान की अधिकांश समस्यायें इतिहास की अधूरी या गलत समझ से पैदा हुई हैं, और इनका समाधान इतिहास की वस्तुपरक व्याख्या से संभव है। इसी स्थिति में इतिहास विज्ञान बन सकता था। मार्क्सवादी इतिहासकारों ने इसका दावा भी किया। पहले जिन सामाजिक अध्ययनों को शास्त्र की कोटि में रखा जाता था उनको समाजविज्ञान की संज्ञा दी जाने लगी। पर विचारधारात्मक आग्रहों ने ऐतिहासिक और समाजशास्त्रीय नासमझी के जैसे नमूने पेश किए उनके सामने मिथक और पुराण भी अधिक विश्वसनीय लगने लगे। ऐसा हुआ क्यों? कैसे?

क्या इसलिए कि विरल अपवादों को छोड़कर कम्युनिस्ट पार्टी में विदेश में शिक्षित नेतृत्व का प्राधान्य रहा जो भारत को विदेशियों की नजर से देखता था, इसलिए उसके मन में न इसकी किसी भाषा के प्रति अनुराग था, न समाज के प्रति सम्मान था, न इसके इतिहास में उनकी रुचि थी, न रीति-नीति से लगाव। इसके बावजूद वे इसे बदलना चाहते थे। यह समझे बिना भी कि यहां की आर्थिक और राजनीतिक शक्तियां क्या हैं, क्रान्ति करना चाहते थे और क्रान्ति यदि रक्तरंजित न हुई तो फिर क्रांति क्या ! उनकी रुचि समझने में कम और अपनी आकांक्षा के अनुसार समाज को कल्पित करके एक वायवीय यथार्थ रच कर उसे बदलने में थी। इसी का परिणाम था मार्क्सवादी दर्शन का मार्क्सवादी विचारधारा में बदल जाना जिसमें विचार से यथार्थ पैदा होता है और यथार्थ पर विचार को आरोपित करके उसे समझा जाता है। यह भौतिकवाद का भाववाद में रूपान्तरण है। भारत में मार्क्सवाद इसी रूप में अवतरित हुआ।

अब कतिपय कल्पनाओं को वस्तुसत्य बनने का नमूना देखें:
भारतीय सन्दर्भ में वर्ण ही वर्ग है। है क्या? अब या तो वर्ग को तीन की जगह चार बनाएं या किसी वर्ण को कम करके समीकरण पूरा करें, पर महत्वपूर्ण बात यह कि अब वर्गसंघर्ष का आर्थिक आधार ही समाप्त हो जाता है क्योंकि वर्ण व्यवस्था में जो सर्वोपरि है वह सर्वहारा है। उसके पास आय का कोई स्रोत नहीं। उसकी सबसे बड़ी समस्या पेट भरने की है। कोसंबी, जिनका यह विचार था, स्वयं ब्राह्मणों की आर्थिक बदहाली का चित्रण किया है। अत: आर्थिक विषमता दूर करके साम्यवादी व्यवस्था कायम करने का संघर्ष बोध के रूपों में बदलाव के मनोवैज्ञानिक विमर्श में बदल जाता है और बदल जाती हैं इसकी अपेक्षाएं जो सार्वजनीन शिक्षा और शोध, विश्लेषण हो जाती हैं जिसके लिए जागरूकता तो अपेक्षित है पर संगठन, आन्दोलन आदि नहीं। आर्थिक दृष्टि से सर्वाधिक सुविधाजनक स्थिति में रहने वाला वैश्य वर्ण के वर्ग बनने पर शूद्र या श्रमिक के सबसे निकट पहुंच जाता है। यदि मेरी समझ में कोई झोल हो तो मैं इसे स्वयं समझना चाहूंगा।
पर मुझे ऐसा लगता है कि इस तरह की भाववादी समझ के चलते मार्क्स का क्रान्तिदर्शन नामत: वही रहते हुए, भारतीय संदर्भ में खुराफात दर्शन में बदल गया। भारतीय समाजव्यवस्था में पाई जाने वाली सभी विकृतियों के लिए ब्राह्मण उत्तरदायी हो गया। हड़प्पा सभ्यता के नगर विदेशी व्यापारियों के अड्डे थे इसीलिए इसकी नदी तटीय नागर बस्तियां थीं। भारत का शेष समाज हैवानियत की अवस्था में था और हड़प्पा के नगरों में बसा पुजारी इन्हीं का शासक था इसलिए आदिम समाज की मूल्य प्रणाली का वर्णसमाज जन्य विकृतियों से लगभग अभेद हो गया और इसलिए हिन्दू समाज के मूल्यों, मानों, सांस्कृतिक प्रतीकों पर प्रहार सामाजिक क्रान्ति की जरूरत बन गई। कलामाध्यमों, संचार माध्यमों, अकादमिक विमर्शों का एक श्लाघ्य ध्येय हिन्दुत्व पर प्रहार बन गया क्योंकि हिन्दुत्व ब्राह्मणवाद का पर्याय बन गया।

अपनी ही सोच पर भरोसा नहीं हो पाता कि यह ठीक भी है या नहीं। पर यदि यह सही है तो इस भाववादी समझ में तथ्यों और प्रमाणों का कोई मतलब ही नहीं रह गया। अपनी इच्छा और जरूरत से उनको उल्टा, बदला और स्थानान्तरित किया जा सकता था। सभी जानते और मानते हैं, आर्य का अर्थ श्रेष्ठ, स्वामी, आप्त, अकाट्य (आर्य सत्य) है, पर इस व्याख्या में वह लुटेरा, हत्यारा, युद्धोन्मादी बना दिया जाता है। भगवतशरण जी की अनमोल पंक्तियां नारी के मुख से सुनिए, “एक नई जाति ने हमारे देश पर आक्रमण किया। उस जाति का नाम उसके आचरण पर प्रभूत व्यंग्य था। वह अपने को ‘आर्य’ कहती थी और संसार के जनों में अपने को सबसे उन्नत मानती थी।” (नारी, खून के धब्बे, प्राचीन भारत के इतिहासकार, १०३)

ऐसे में पांडित्य का, ज्ञान का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता। इबारत और शब्द कुछ भी कहें आपको मानना वह है जो आप चाहते है। भारतीय मार्क्सवादी का भाव सत्य वस्तुसत्य पर भारी पड़ता ही है, मार्क्सवाद पर भी भारी पड़ता है, इतिहास पर तो भारी पड़ेगा ही। सब कुछ को छिन्न-भिन्न करने वाले आज यह समझ नहीं पाते कि वे स्वयं छिन्न-भिन्न होते क्यों चले गए और क्यों वे प्रवृत्तियां प्रबल होती चली गईं जिन्हें वे निर्मूल करना चाहते थे।

Post – 2018-01-29

आप जानते हैं, गलती से, अपनी समझ से सिर्फ इतनी पुरानी तिथि नियत करने के बाद, जिसके विषय में मैक्समुलर का विश्वास था कि यूरोप के अड़ियल सोच के लोग इसे मानने को भी तैयार न होंगे, कहा था कि वेद का रचना काल कम से कम १२०० ख्रिष्टाब्द पूर्व से नीचे नहीं लाया जा सकता। वह बाद में लगातार सफाई देते हुए यह स्वीकार ने के कर रहे थे कि दूसरे राष्ट्रों के मामले में ऐसे ही परिवर्तनों के लिए हम जितनी अवधि रखते है, उससे यह बहुत कम है और इस तरह अपने कालनिर्धारण की आलोचना करने वालों से सहमति जताते हुए मैक्समूलर स्वयं अपने काल निर्धारण को गलत ठहराते रहे। फिर भी आक्रमण के पक्षधर उनके उस काल निर्धारण को अकाट्य मान उसे क्यों दुहराते रहे? क्योंकि संस्कृत केअधिकारी माने जाने वाले दूसरे सभी यूरोपीय विद्वान ऋग्वेद को कम से कम २००० या ढाई हजार साल ईसापूर्व मानते रहे।

आश्चर्य है कि हमारे स्वनामधन्य मार्क्सवादी इतिहासकार भी जो प्राच्यवादी विद्वानों को अविश्वसनीय मानते थे, उनकी मखौल इसलिएउड़ाते रहे क्योंकि इनका रुख जेम्स मिल जैसे रुग्ण साम्राज्यवादियों जैसा नकारात्मक नहीं था।

पर इतना ही काफी नहीं था। मैक्समूलर १२०० ईपू की लघु काल सीमा सुझाने पर लज्जित थे, भारतीय मार्क्सवादी इसे वैज्ञानिक आकलन मान कर जरूरत पड़ने पर पांच सात सौ साल पीछे एक आक्रमण हड़प्पा का ध्वंस कराने के लिए कर सकते थे और वेदों की रचना के लिए एक दूसरा और सभ्यता के प्रसार के लिए एक तीसरा आक्रमण करा सकते थे और वैदिक ऋचाओं का रचना काल सातवीं शताब्दी तक ला सकते थे। “वह (कोसंबी) १७५०, १५००, १२००, १०००, ६०० ईसापूर्व के आर्यों, आर्य प्रभावों, संपर्कों की बात करते हैं, उसके पीछे यह ध्वनि है कि पहले आक्रमणकारी जर्मन थे, दूसरे मध्येशियाई, तीसरे लघुएशियाई, जिनसे भारत का संपर्क बाद में भी बना रहा ।” (देखें, कोसंबी कल्पना से यथार्थ तक, राजकमल, पृ. २११; साथ ही देखें ‘भगवतशरण उपाध्याय’, प्राचीन भारत के इतिहासकार, सस्ता साहित्य मंडल, पृ. १०२)।इतिहास से लेकर वर्तमान तक की इतनी अधकचरी समझ अन्यत्र ढूंढ़े नहीं मिलेगी जैसी भारतीय कम्युनिस्टों और संघियों में मिलती है। अंतर केवल यह कि पहले नासमझी को वैज्ञानिक सोच कहते हैं, दूसरे उसे भारतीय संस्कृति कहते हैं। एक अन्य अन्तर यह कि कम्युनिस्टों को सेकुलरिज्म की आड़ में हुड़दंग मचाने का जितना अवसर मिला वह दूसरे को नसीब नहीं हुआ, पर जब भी जितना भी मिला है इन्होंने यह बोध कराने में संकोच नहीं किया है कि ये हर क्षेत्र में उन्हें पछाड़ सकते हैं, सिवाय वाग्मिता के।

विषय से हट कर यह तुलना इसलिए जरूरी प्रतीत हुई कि जब मैं भारतीय कम्युनिस्टों और सेकुलरिस्टों की नासमझी को उजागर करता हूं तो संघ से जुड़े मेरे मित्रों को यह बदगुमानी न हो जाय कि भारतीय समाज और इतिहास के नाम पर उनके मौलिक उद्गारों का मैं समर्थन करता हूं। किसी अन्य का गलत होना आपके सही होने का प्रमाण नहीं। सही होने के लिए किसी भी विचार या निष्कर्ष को सभी उपलब्ध स्रोतों से परखना और उसकी अन्त:संगति और संभाव्यता या औचित्य परखते हुए आश्वस्त होना पड़ता है और फिर भी किसी नए घटक के सामने आने या छूट गए घटक के उजागर होने पर गलत सिद्ध होने के लिए तैयार रहना होता है। यही विशेषता विज्ञान को विज्ञान बनाती है और इसका अभाव मिथक और विश्वास को मिथक और विश्वास।

हमने जिस बात पर बल देने के लिए यह भूमिका बांधी थी वह यह कि (१) वैदिक साहित्य का गहन अध्ययन करने वालों ने ऋग्वेद को कम से कम दो से ढाई हजार साल पुराना माना था। (२) ऋग्वेद के अनुवादक एच एच विल्सन ने वैदिक अन्त:साक्ष्यों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला था कि वैदिक समाज लगभग वैसा ही था जैसा यूनानियों ने सिकन्दर के आक्रमण के समय में भारत को पाया था।

(३) उससे भी पहले भाषा, संस्कृति, विज्ञान, दर्शन और देवशास्त्र की साझी विरासत के आधार पर जनक समाज सभ्य और उन्नत सिद्ध हो रहा था।

(४) आक्रमण की संभावनाओं पर विचार करते हुए पश्चिमी विद्वानों ने भी प्रदर्शनीय वस्तुपरकता दिखाते हुए कहा था कि ऋग्वेद जो ऐसे मामले में हमारा एकमात्र स्रोत है उससे किसी आक्रमण की पुष्टि नहीं होती।

(५) चरवाही संस्कृति की विशेषता है कि वे किसी एक जानवर का पालन करते हैं। हाल यह कि भेड़ चराने वाले के रेवड़ मे बकरी, या इसके विपरीत नहीं होता। गोरू चराने वाले घोड़ों के जत्थे नहीं पाल सकते इसलिए किसी समाज में इनका और साथ ही दूसरे जानवरों का बाहुल्य पशुधन के मामले में समृद्धि का द्योतक तो है पर यह समाज कृषि, उद्योग और वाणिज्य में उन्नत हो सकता है।

(६) जिस घोड़े पर सवार आक्रामकों की श्रेष्ठता को विजय का आधार बनाया गया था, वह असंभव था, क्योंकि पांचवी शताब्दी ईपू से पहले घोड़े की पीठ पर सवारी नहीं की जाती थी और ऋग्वेद में भी केवल रथों पर सवारी का जिक्र है घोड़े की पीठ पर सवारी का नहीं।

इस तरह की अनगिनत सुसंगत बातें थीं जिनको देखते हुए हड़प्पा सभ्यता का पता चलते ही, बिना किसी विवाद के इसे वैदिक सभ्यता मान लिया जाना चाहिए था। किया ठीक इससे उल्टा गया। ऐसा करने का कारण और परिणाम क्या था, इस पर कल चर्चा करेंगे।