धारा बहा ले जाती है
आप मार्क्सवादी शल्यक्रिया नहीं कर सकते; राष्ट्रवादी शल्यक्रिया नहीं कर सकते। विशलेषण का काम भी शल्यक्रिया जैसा ही है। यह मामूली सी बात किसी विचारधारा से ग्रस्त इतिहासकार को या किसी अन्य अभियान से जुडे विद्वान को नहीं समझाई जा सकती कि किसी प्रकार के इतर सरोकार के हस्तक्षेप से हमारा ध्यान विश्लेष्य वस्तु से हट जाता है, अपने सरोकार या विचारधारा को सही सिद्ध करने की चिंता प्रधान हो जाती है और जिसे समझना है उसे समझने की जगह उस रूप में ढालने या बदलने का प्रयत्न किया जाता है जिस रूप में रखने पर नतीजा जो भी हो विचारधारा विजयी रहे। दुर्भाग्य से इतिहास का अध्ययन, इतर सरोकारों से मुक्त कभी रह ही नहीं पाया, और इसलिए हम अपनी वर्तमान समस्याओं के समाधान में अपने जातीय या सामूहिक अनुभवों के योगदान से वंचित रहे। इतिहास कतिपय प्रिय पर अधिकांशत: अप्रिय सूचनाओं की लादी बन कर हमारी चेतना पर लदा रहा। हमारे वर्तमान की अधिकांश समस्यायें इतिहास की अधूरी या गलत समझ से पैदा हुई हैं, और इनका समाधान इतिहास की वस्तुपरक व्याख्या से संभव है। इसी स्थिति में इतिहास विज्ञान बन सकता था। मार्क्सवादी इतिहासकारों ने इसका दावा भी किया। पहले जिन सामाजिक अध्ययनों को शास्त्र की कोटि में रखा जाता था उनको समाजविज्ञान की संज्ञा दी जाने लगी। पर विचारधारात्मक आग्रहों ने ऐतिहासिक और समाजशास्त्रीय नासमझी के जैसे नमूने पेश किए उनके सामने मिथक और पुराण भी अधिक विश्वसनीय लगने लगे। ऐसा हुआ क्यों? कैसे?
क्या इसलिए कि विरल अपवादों को छोड़कर कम्युनिस्ट पार्टी में विदेश में शिक्षित नेतृत्व का प्राधान्य रहा जो भारत को विदेशियों की नजर से देखता था, इसलिए उसके मन में न इसकी किसी भाषा के प्रति अनुराग था, न समाज के प्रति सम्मान था, न इसके इतिहास में उनकी रुचि थी, न रीति-नीति से लगाव। इसके बावजूद वे इसे बदलना चाहते थे। यह समझे बिना भी कि यहां की आर्थिक और राजनीतिक शक्तियां क्या हैं, क्रान्ति करना चाहते थे और क्रान्ति यदि रक्तरंजित न हुई तो फिर क्रांति क्या ! उनकी रुचि समझने में कम और अपनी आकांक्षा के अनुसार समाज को कल्पित करके एक वायवीय यथार्थ रच कर उसे बदलने में थी। इसी का परिणाम था मार्क्सवादी दर्शन का मार्क्सवादी विचारधारा में बदल जाना जिसमें विचार से यथार्थ पैदा होता है और यथार्थ पर विचार को आरोपित करके उसे समझा जाता है। यह भौतिकवाद का भाववाद में रूपान्तरण है। भारत में मार्क्सवाद इसी रूप में अवतरित हुआ।
अब कतिपय कल्पनाओं को वस्तुसत्य बनने का नमूना देखें:
भारतीय सन्दर्भ में वर्ण ही वर्ग है। है क्या? अब या तो वर्ग को तीन की जगह चार बनाएं या किसी वर्ण को कम करके समीकरण पूरा करें, पर महत्वपूर्ण बात यह कि अब वर्गसंघर्ष का आर्थिक आधार ही समाप्त हो जाता है क्योंकि वर्ण व्यवस्था में जो सर्वोपरि है वह सर्वहारा है। उसके पास आय का कोई स्रोत नहीं। उसकी सबसे बड़ी समस्या पेट भरने की है। कोसंबी, जिनका यह विचार था, स्वयं ब्राह्मणों की आर्थिक बदहाली का चित्रण किया है। अत: आर्थिक विषमता दूर करके साम्यवादी व्यवस्था कायम करने का संघर्ष बोध के रूपों में बदलाव के मनोवैज्ञानिक विमर्श में बदल जाता है और बदल जाती हैं इसकी अपेक्षाएं जो सार्वजनीन शिक्षा और शोध, विश्लेषण हो जाती हैं जिसके लिए जागरूकता तो अपेक्षित है पर संगठन, आन्दोलन आदि नहीं। आर्थिक दृष्टि से सर्वाधिक सुविधाजनक स्थिति में रहने वाला वैश्य वर्ण के वर्ग बनने पर शूद्र या श्रमिक के सबसे निकट पहुंच जाता है। यदि मेरी समझ में कोई झोल हो तो मैं इसे स्वयं समझना चाहूंगा।
पर मुझे ऐसा लगता है कि इस तरह की भाववादी समझ के चलते मार्क्स का क्रान्तिदर्शन नामत: वही रहते हुए, भारतीय संदर्भ में खुराफात दर्शन में बदल गया। भारतीय समाजव्यवस्था में पाई जाने वाली सभी विकृतियों के लिए ब्राह्मण उत्तरदायी हो गया। हड़प्पा सभ्यता के नगर विदेशी व्यापारियों के अड्डे थे इसीलिए इसकी नदी तटीय नागर बस्तियां थीं। भारत का शेष समाज हैवानियत की अवस्था में था और हड़प्पा के नगरों में बसा पुजारी इन्हीं का शासक था इसलिए आदिम समाज की मूल्य प्रणाली का वर्णसमाज जन्य विकृतियों से लगभग अभेद हो गया और इसलिए हिन्दू समाज के मूल्यों, मानों, सांस्कृतिक प्रतीकों पर प्रहार सामाजिक क्रान्ति की जरूरत बन गई। कलामाध्यमों, संचार माध्यमों, अकादमिक विमर्शों का एक श्लाघ्य ध्येय हिन्दुत्व पर प्रहार बन गया क्योंकि हिन्दुत्व ब्राह्मणवाद का पर्याय बन गया।
अपनी ही सोच पर भरोसा नहीं हो पाता कि यह ठीक भी है या नहीं। पर यदि यह सही है तो इस भाववादी समझ में तथ्यों और प्रमाणों का कोई मतलब ही नहीं रह गया। अपनी इच्छा और जरूरत से उनको उल्टा, बदला और स्थानान्तरित किया जा सकता था। सभी जानते और मानते हैं, आर्य का अर्थ श्रेष्ठ, स्वामी, आप्त, अकाट्य (आर्य सत्य) है, पर इस व्याख्या में वह लुटेरा, हत्यारा, युद्धोन्मादी बना दिया जाता है। भगवतशरण जी की अनमोल पंक्तियां नारी के मुख से सुनिए, “एक नई जाति ने हमारे देश पर आक्रमण किया। उस जाति का नाम उसके आचरण पर प्रभूत व्यंग्य था। वह अपने को ‘आर्य’ कहती थी और संसार के जनों में अपने को सबसे उन्नत मानती थी।” (नारी, खून के धब्बे, प्राचीन भारत के इतिहासकार, १०३)
ऐसे में पांडित्य का, ज्ञान का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता। इबारत और शब्द कुछ भी कहें आपको मानना वह है जो आप चाहते है। भारतीय मार्क्सवादी का भाव सत्य वस्तुसत्य पर भारी पड़ता ही है, मार्क्सवाद पर भी भारी पड़ता है, इतिहास पर तो भारी पड़ेगा ही। सब कुछ को छिन्न-भिन्न करने वाले आज यह समझ नहीं पाते कि वे स्वयं छिन्न-भिन्न होते क्यों चले गए और क्यों वे प्रवृत्तियां प्रबल होती चली गईं जिन्हें वे निर्मूल करना चाहते थे।