Post – 2017-04-30

देववाणी की विकास प्रक्रिया (अठारह)

भाषा में जो श्रुत है वही वाच्य है, कान और जबान के बीच यह निराला रिश्ता है।

विभिन्न संकेत प्रणालियों में जिनमें वाचिक संचार की आवश्यकता नहीं होती, उनका हम उपयोग भी करते हैं परन्तु इनमें से कुछ का उपयोग जीव जगत में हमसे अधिक दक्षता से होता है। हम उसमें से कुछ में अपनी ओर से जोड़ते भी है परन्तु वह सकेत प्रणाली जिसमे हम मनचाहे ढंग से कुछ जोड़ बदल सकते हैं उसकी पहुंच केवल उस दायरे में सिमट कर रह जाती है जिसे इसे समझाया गया है, जैसे परियात के संकेत या दूसरे प्रतीक जिनमें बिल्ल, तमगा, यूनिफॉर्म, पदसूचक प्रतीक, हॉर्न, झंडा , इत्यादि आते हैं। इनका संचार त्वरित होता हैं क्योंकि इनमें प्रतीकात्मकता होती हैं अमूर्तन नहीं होता। नैसर्गिक संचार जैसे दृष्टि संकेत में शिक्षा की आवश्यकता नहीं होती। इनका बहुत कुछ स्वचालित होता हैं और इसका बोध शिशु में भी होता हैं। इसमें भी अमूर्तन की उतनी संभावना नहीं होती कि वे वस्तु से लेकर विचार और संवेदन तक की अभिव्यक्ति कर सकें और अनुपस्थित को उपस्थित और निराकार को कथ्य बनाते हुए सृष्टि के समानान्तर एक वाचिक संचार रच सकें जिसके माध्यम से किसी भी वस्तु या परिघटना को समझा भी जा सके।

भाषा की समझ अमूर्तन की इस प्रक्रिया की समझ से जुड़ी हुई है!

पाश्चात्य अध्येताओं ने संस्कृत से आतंकित हो कर व्युत्पत्तियों को समझने के प्रयास में आरंभ से ही गलत रास्ता अपनाया और उससे उबर न सके। उसी आधार पर उन्होंने स्वयं शब्दों के बहुनिष्ठ घटकों को निर्धारित करके उनमें ध्वनिगत और अर्थगत साम्य के आधार पर अपने आद्य रूप नियत किये जो संस्कृत धातुओं की तरह उपयोगी भी हैं और उन्हीं की तरह एक सीमा के बाद मूक हो जाते हैं। सबसे बड़ी कमी यह कि उनसे यह पता नही चलता कि उस विशेष ध्वनि से वह अर्थ जुड़ा कैसे और यदि इसमें कोई तुक है तो फिर उससे उल्टे अर्थ उसी से क्यों और कैसे निकलने लगे। जैसे पूत पवित्र और सड़ा हुआ, पुरीष पानी और विष्टा दोनों आशयों में कैसे प्रयोग में आने लगा।

भारतीय भाषाओं को समझने के लिए भी जिन्होंने काम किया काल्डवेल, गुंडर्ट, किटेल, ब्लाख, सिल्वियांलेवी, बरो, इमेनो, टर्नर पिता पुत्र, क्विपर, साउथवर्थ, कृष्णमूर्ति सभी ने अपने काम, कोश, निबन्ध या संकलनों में इसी पद्धति को अपनाया जो प्रथम दृष्टि में बहुत प्रभावशाली लगती है परन्तु फिर भी कुछ उलझनें बनी रह जाती हैं, जिनको वे या तो यह या वह, या तो संस्कृत से द्रविड़ में या मुंडा से संस्कृत में या इसके विपरीत का एक अनिर्णीत क्षेत्र मेडालकर अपनी मुश्किल आसान कर लेते हैं ।

जैसे जिगसा पजल में होता है, यदि एक भी कड़ी सही नहीं बैठती तो पूरा संयोजन ही बदल जाता हैं वैसे ही सत्य के अनुसन्धान के सभी मामलों में होता हैं, वह अपराध से जुड़ा हो या विज्ञानं से । इस बात का ध्यान नहीं रखा गया। सीमाएं तोडने वाले तथ्यों की अनदेखी की जाती रही। यहां तो साझी विरासत का मामला हैं। परन्तु जब एक ही शब्द में विपरीत अर्थ या भिन्न अर्थ आ जाते हैं तो इनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती, कोई न कोई समाधान देना होगा. पर छिन्नमूल भाषाओँ के माध्यम से मूल की तलाश सम्भव नहीं इसलिए लीपापोती की जाती रही। यह बात यूरोपीय भाषाओँ पर ही लागू नहीं होती, संस्कृत पर भी लागू होती हैं क्योंकि देववाणी शब्द तो बचा रहा, परन्तु संस्कृतज्ञों को भी यह पता न था कि यह थी क्या चीज और उससे संस्कृत का सम्बन्ध क्या हैं।

सही व्युत्पत्ति के लिए संकेत प्रणाली के विकास, भाषा के विकास, और मनुष्य और उसकी सामाजिकता के विकास की प्रक्रिया को सामने रखें तभी हम सही समाधान पा सकते हैं।

हम पहले एक भिन्न संदर्भ में ज्ञान और प्रज्ञा पर विचार कर आए हैं अब मन से व्युत्पन्न शब्दशृंखला पर विचार करेंगे।

देववाणी का प्रयोग करनेवाला समाज विकास के प्राथमिक चरण पर था जिसमें मनुष्य द्वारा प्रकृति में छेड़छाड़ से उत्पन्न ध्वनिया लगभग नहीं थीं। औजारों और हथियरों का और उनके चलने से पैदा होने वाली ध्वनियों का विस्तार और भाषा में उनका समावेश इसके बाद बहुत मंद गति से हुआ ।

देवसमाज का आदिम ध्वनि परिवेश मुख्यतः अपने हर्षविषाद की ध्वनियों, पशुओं पक्षियों की ध्वनियों और स्वतः गतिशील तत्वों – जल और वायु के विभिन्न वेगो, अवरोधों और परिमाणों के अनुसार उनसे उत्पन्न ध्वनियों से ही बना था। इसे हम ऋग्वेद की भाषा में सूनृता वाक् कह सकते हैं जिसकी परिभाषा करते हुए सायण ने कहा है – पशुपक्षिमृगादीणां भाषा या उनका ध्वनि संसार । उनसे चूक इनती ही कि उनका ध्यान जल और वायु की ओर नहीं गया।

हम अपनी व्याख्या में पाते हैं कि देववाणी की नब्बे प्रतिशत शब्दावली जल से व्युत्पन्न है क्योंकि उसकी ध्वनि वायु की अपेक्षा अधिक स्पष्ट और अनन्त है। इसलिए किसी भी ऐसी वस्तु, क्रिया, भाव या विशेषता की जिससे ध्वनि पैदा नहीं होती संज्ञा उसे जल से उत्पन्न ध्वनि के आधार पर मिली है। इस सिद्धाान्त की परख के लिए हम मन शब्द पर विचार करेंगें।

मन से कोई ध्वनि पैदा नहीं होती इसलिए इसे अपने संज्ञा जलवाची आशय से मिला होगा। अतः हम मान लें कि मन का अर्थ जल है। यह जल से जुड़े किसी द्रव या खाद्य वस्तु से के लिए प्रयोग में भी मिल जाएगा। आदिम संकल्पना में खाना, पीना, सूंघना सबका अर्थ मिलता जुलता था। आज भी हम हवा खाने निकलते हैं और सिगरेट पीते हैं।

मन का अर्थ पानी था यह मंडा अर्थात हंड़िया के उूपर निथरे हुए पेय से प्रकट है। यही मांड या चावल के उतराए हुए पानी को जिसे यदि अधिक हो गया तो पसा कर अलग कर दिया जाता है और अभावग्रस्त जन उस मांड में ही नमक डाल कर मांड़ भात खा भी लेते थे ।

इस मांड से सादृश्य सम्बन्ध के कारण सूख रहे ऐसे पोखर आदि में सूअर या भैस आदि के लौटने से पैदा कीचड़ को मड़िया कहते हैं। उसमे लोट पॉट करने को मड़िया मारना कहते हैं । इस मड़िया का कोई संबंध अंग्रेजी के मड और मडल से है या नहीं इसे आप विचारिएगा।

मंडा और मांड़ की तरह उूपर आ जाने या छा जाने वाले या होने वाले भाव, पदार्थों के लिए भी मंड से अपनी संज्ञाएं और क्रियाएं मिली हैं । कुछ शब्दों पर विचार करें मांड़ना, मंडन, मंडूक, मढ़ना, मढाई, मंडित, मुंड, मुंडेर आदि!

पानी के गुण, धर्म, साहचर्य, विरोध, सायुज्य आदि के कारण अन्य अनेक संज्ञाओं का जन्म हुआ हैं । इसका एक गुण हैं चमकना । चमकने का प्रकाश से सायुज्य और प्रकाश का ज्ञान से इसलिए यह चमकने, प्रकशित करने वाले आशय में मन का और अंग्रेजी माइंड, मनस्वी या मनु, मनुष्य के लिए और चन्द्रमा जिसका एक नाम मन था और चमकने वाले क्रिस्टल, या मणिभ और अधिक चमकने वाले पत्थर मणि, माणिक्य आदि के लिए प्रयोग में आया ।

मन का अर्थ कभी चन्द्रमा था यह वैदिक काल तक बिसरने लगा था इसलिए कहा गया हैं मनो वै चन्द्रमा या चन्द्रमा मनसो जातः (मन ही चन्द्रमा है या चन्द्रमा मन से पैदा हुआ ) कारन इस समय तक यह चन, द्र और मन तीन जलवाची शब्दों के योग से बनने लगा था, संभवतः यह तीन भाषाओँ के शब्द थे और अपनी बोलियों में तीनों का प्रयोग चाँद के लिए होता था. इनमे चन को हम चान मामा में पहचान सकते हैं. द्र के विषय में यही दावा करने का प्रमाण नहीं हैं इसलिए इसे निपात मान सकते हैं, पर मन का मस के रूप में प्रयोग करने वाला समुदाय अवश्य अलग रहा होगा। मन बोलचाल में वैदिक समाज में भी प्रचलित रहा होगा, इसके आभाव में यह मून के रूप में और लून के रूप में अन्य बोलियों में न पहुँचता। अंग्रेजी मंथ मन से , संस्कृत मास, फ़ारसी माह / मह मस से व्युत्पन्न हैं, यह कहने की आवश्यकता नहीं।

जिस तर्क से मंड, मंडप, और मुंड बना उसी से सर्प के फणि के पर्याय मणि का प्रयोग सांप के सर के लिए ्और इसी तर्क से मणि का प्रयोग शिश्नाग्र के लिए हुआ लगता हैं। न का ण में परिवर्तन उस बोली के प्रभाव से हैं जिसके कारण तमिल में मानव माणवन बनता हैं और एक भिन्न अर्थ में प्रयुक्त होता हैं ।
(शेष कल )

Post – 2017-04-29

कलाकार के पास विचार नहीं होता, आवेग होता है। जो सूझ गया. आलोकित हो गया. अवचेतन के जोग जुगत से शिल्प और भाषा के साथ उपस्थित हो गया उसे वह हतने विश्वास से कहता है कि लगता है अन्तिम सत्य कह रहा है। कलाकारोें की रचनाओं में असंख्य अंनितम भावसत्य होते हैं जो आग पैदा कर सकते हैं प्रकाश नहीं दे सकते। विचार के मामले में कलाकारों पर भरोसा करना खतरनाक है। कला सम्मोहित और हतचेत करती है। हमारे समय का सबसे बड़ा दुर्भाग्य है की कलाकारों ने चिंतक और मर्दर्शक की भी भूमिका अपना ली। स्वयं भी भटके और समाज को भी भटकाया। विचार के लिए राग और आवेग से मुक्ति और धीरज की जरूरत होतीं है। वर्तमान से लेकर इतिहास तक से जरुरी सूचनाएं एकत्र करके पीछे हट जाना होता है और उन आंकड़ों को बोलने की छूट देनी होती है। तथ्य बोलेंगे हम नहीं मर्म खोलेंगे तथ्य ही ।

Post – 2017-04-29

व्यर्थताबोध
मैं मानता हूं लेखक का काम रोगनिदान करने वाले से लेकर चिकित्सक और शिक्षक तक की कई भूमिकाओं से जुड़ा है। आप चाहें तो इसमें मोर्चे पर खड़े सैनिक और या ऐसे सैनिकों को किसी भुलावे में डाल कर सत्ता पर कब्जा जमाने को आतुर विचारधारा या व्यक्ति की भूमिका से भी जोड़ सकते हैं जिसे मोर्चे पर खड़ा होने का साहस तक नहीं। मैंने अपने लिए जो रास्ता चुना है वह है स्वस्थ काया के लिए स्वस्थ मन होना चाहिए। समर्थ समाज के लिए ग्रन्थिमुक्त नागरिकों की संख्या का विस्तार होना चाहिए और उन्हें विषाक्त ज्ञान से मुक्त चेतना से संपन्न होना चाहिए। मेरा लेखन उसी कार्य को समर्पित है।
मैं नाम कमाने वाले लेखकों से बिदकता हूं नामी बनाने वाले तरीकों और व्यक्तियों को अपना नही मान पाता । इस बात का पूरा ध्यान रखता हूँ कि मेरे किसी कथन. कार्य या भंगिमा से कोई अपमानित न अनुभव करे। हो सकता है शैशव और बचपन में जो अपमान झेलना पड़ा उसी का उदात्तीकरण हो। मैं स्वयं नहीं जानता ऐसा क्यों है, यह पता है, और यह ऐसे लोगों को अविश्वसनीय लगेगा जो मुझे निकट से नहीं जानते । जो जानते हैं उन्हें समय लगेगा इस दावे की समीक्षा करने में और इसे सच मानने में । मैं उस व्यक्ति की प्रतीक्षा करूँगा जो यह याद दिला सके कि ऐसा उसके मामले में हुआ था।

मैं अपना अपमान झेल सकता हूं। अपना अपमान करने वाले का भी अपमान करने में मुझे पीड़ा होती है। अपना अपमान पसन्द नहीं करता पर यह सोचकर अगला व्यक्ति अहंकारी या नादान है उसे क्षमा कर देता हूं] बिना उसकी ओर से किसी क्षमायाचना के और इसकी परख यह कि यदि वह उसके बाद मेरा अनिष्ट भी करे तो उसका अहित करने का विचार तक मन में नहीं आता] न ही उसके विषय में किसी अप्रिय समाचार को सुन कर सन्तोष होता है। यह भाव बना रहता है कि क्या उसे उस स्थिति से उबारने में मुझसे कुछ संभव हो सकता है
परन्तु यदि उससे क्षुब्ध होकर कुछ ऐसा कर बैठू जिससे दूसरे को अपमानित अनुभव करना पड़े तो व्यग्र हो जाता हूं। यह मेरी निजी समस्या है] यह असामान्यता से हट कर अ&सामान्यता है जिसका विश्वास दूसरों को नहीं दिला सकता न इसकी जरूरत समझता हूं। इसे किसी पर प्रकट करना दुर्बलता मानता हूं इसलिए जब भी मेरे मित्र संपादकों ने अपने बारे में या अपने लेखन के उद्देश्य के बारे में अपनी पत्रिका के लिए कुछ लिखने को कहा तो मैं न लिख पाया। सच कहें तो मैं उलझन में पड़ जाता हूं।
मुझे जीवन में दो व्यक्ति ऐसे मिले जिनको अपने लिए, एक व्यक्ति के रूप में प्रेरक मानता रहा, एक मेरे साथ चपरासी के रूप में काम करने वाले राम सिंह थे और दूसरे अनुपम मिश्र । इनकी समकक्षता में कभी नहीं आ पाउूगा। इनका परिचय न दूंगा, विषयान्तर होगा।
परन्तु अपने बारे में बात करने की जिस कमजोरी से बचने के प्रयत्न से] जो कुछ हूं उससे छोटा बन जाने के डर से] बचता रहा उसे आज इसलिए उठाना पड़ा कि यदि मेरा लिखा पढ़ कर लोग तारीफ कर बैठें पर उनके जीवन और कर्म में वह सुधार न आ पाये जिसकी उन्होंने तारीफ की तो लगता है लिखना व्यर्थ गया।

फेसबुक अपने को जांचने और कसने का अद्भुत मंच है। एक खुला हम्माम लिसमें लोग नंगे हो जाते हैं इसलिए लोगों को समझने का और खुद अपने आप को समझने का, अपनी सार्थकता और व्यर्थता को समझने का इससे अच्छी होई प्रयोगशाला नहीं। खतरा केवल एक कि यह मंच या हम्माम जिस देश के कब्जे में है उसके सामने पूरी दुनिया का एक एक व्यक्ति जो इन मंचों से जुड़ा है उससे अधिक नंगा है जितना हम भाषा के माध्यम से जान पाते हैं।

खैर जिस व्यर्थतावोध के कारण मैं इन पंक्तियों को लिखने को या अपने दुख को बांटने को तत्पर हुआ वह यह कि मैंने कई बार कई उदाहरणों से कठारे शब्दों से और खास करके गालियों से बचने का इसलिए अनुरोध किया था कि कि जिसे गाली दी जा रही है उसका इससे कोई नुकसान नहीं होता, या लेशमात्र होता है परन्तु आपका अपमान तत्काल, गाली बकने के साथ ही, होजाता है। आप सुनने या पढ़ने वाले की नजर में गिर जाते हैं, आप जिन संस्थाओं से जुड़े हैं उनके बारे में, आपके परिवार और सामाजिक स्तर के बारे में इन गालियों को सुनने के साथ ही सुनने वाला अपनी राय बना लेता है। कहें गाली देना अपने को गाली देना होता है,। यह इतनी मोटी बात है जिसे समझना कठिन नहीं, इसलिए बहुतों ने पसन्द भी किया, पर मैं यह देखता हूं कि जिन्होंने इसे पसन्द किया क्या वे अब भी गालियां देते हैं। अपने लेखन की व्यर्थता की अनुभूति इस अनुभव से ही जुड़ी है

जिस बात पर आपको इतना क्रोध आरहा है कि आप अपना संतुलन खो दे रहे हैं, उनका खंडन कैसे करेंगे यदि आप क्रोध से कांपने काटर कांपते हुए मुंह के बल गिरने लगे तो।

गालियां हमेशा उस व्यक्ति के पक्ष में रंती हैं जिससे आप क्षुब्ध हैं। वे व्यवहार में हों या वाणी में।

जो अपनी आदत नहीं बदल सकते हैं वे मुझे पढ़ना तो छोड़ ही सकते हैं पढ़ ही लिया तो पसन्द करना तो छोड़ ही सकते हैं कि झूठी आशा न पैदा हो कि कम से कम इतने लोगों में मैं अपने लेखन के माध्यम से उनका आत्माभिमान जाग्रत कर सका। (incomplete).

Post – 2017-04-28

खुदा अपना नहीं था
फिर भी था तो।
खुदा वालों का दफ्तर
था खुला तो ।
खुदा के वास्ते
इनको न छेड़ो
कहा मैंने नहीं
तुमने सुना तो ।
गजब की जिद है
यह हिन्दोस्तां है
कहीं पर है नहीं
वह है यहां तो ।
मिटाने और
मिटने लिए हैं
लुढ़कने के
घिसटने के लिए हैं
यही मकसद है
अपनी जिन्दगी का
मुकद्दस काम
मैंने कर दिया तो ।

Post – 2017-04-28

देववाणी (सत्रह)
बोलियां और साहित्यिक भाषाएं

बोलियां धरती की तरह नम्र, अनगढ़, उर्वर है जो नए रूपों में ऊर्जस्वित होती रहती है। साहित्यिक भाषाएँ पकी ईंट की तरह सधी, ठोस, सांचे में ढली और अल्पायु होती हैं। इनमे अधिक से अधिक काई या फफूंद लग सकती है, इनको लेप और रंग से चमकाया जा सकता है और इनका विराट निर्मितियों में उपयोग हो सकता है परन्तु ये टूटने के बाद सिर्फ मलबे में बदलती हैं।

जैसा हमने पीछे देखा बोलियां अनंत काल से लगातार जनता के व्यवहार में आती रही हैं । यह बात सभी बोलियों पर लागू होती है। जहाँ तक उत्तर भारत का प्रश्न है बिलकुल सटे पड़ोस की दो बोलियों को जिनमे अधिक अंतर न रहा होगा हमने पाली और प्राकृत में साहित्यिक भाषाओँ में बदलते और अपनी बोलियों से और साथ ही एक दूसरे से अलग होते देखा है। इनका उदभव जिसकी भी झक से हुआ हो, ये वे भाषाएँ नहीं हो सकतीं जिनमे बुद्ध और महावीर ने अपने विचारों का प्रचार किया था। ये अखिल भारतीय प्रसार सूरसेन क्षेत्र में आ कर ही पा सकी थी और यहीं उनका कायाकल्प भी हुआ। इनका संबन्ध बोलियों से जुड़ा ही नहीं।

संस्कृत सहित सभी साहित्यिक बोलियों की आयु बोलियों की दीर्घजीविता और अतिजीविता को देखते स्वल्प रहा है। संस्कृत के तद्भव रूप, प्राकृत और अपभ्रश के ध्वनि परिवर्तनों से बने तद्भव इन साहित्यिक भाषाओं के जानकारों के माध्यम से बोलियों में पहुंच सके और ऐसे शब्दों को अपने रंग में रंगकर उन्होंने अपना लिया जिनके लिए उनके पास अपने शब्द न थे। अपनी जरूरत से प्रायः इनको एक नया अर्थ भी दे दिया जाता रहा। हमे यह न भूलना होगा की बोलियां वन्य आहारसंग्रह से आगे बढ़ी है और उनमे से ही कोई साहित्य, विचार और शासन की जरूरतों से व्यापक सम्पर्क की भाषा बन कर अमूर्तन, संकरण और मानकीकरण की समस्याओं से जूझती हुई एक भिन्न स्तर पर विकसित होती रही। इस विकास का लाभ जनसाधारण को और उनकी भाषाओँ को भी मिला।

उदाहरण के लिए गणना को ही लें। आहार संग्रही को न जोड़ने को कुछ था न गिनने को। उसके लिए तीन सबसे बड़ी संख्या थी। एक मैं, दूसरी पत्नी, तीन सब, इसके बाद बाद सीधे पांच उँगलियों के कारण। पांच = सब, और ५; सस्त (षष्ट) = फैला हुआ, संभवतः यही हस्त भी बना, सप्त, अस्त (अष्ट) = अंतिम संख्या या सबसे बड़ी संख्या और फिर दस= सबसे बड़ी संख्या। चार और नव सांख्यिकीय ज़रूरतों से कुछ बाद में गढ़े गए होंगे। ध्यान दें सस्त, सप्त, सत और इसके वर्ण विपर्यय से बने तस (दस) को तो सबसे बड़ी संख्या के लिए एक ही शब्द का प्रयोग हुआ है और इनमें अंतःस्रगों के द्वारा फर्क किया गया है। यह भौतिक आवश्यकता, तकनीकी विकास और बौद्धिक उत्थान तथा संवेदनात्मक परिष्कार की प्रक्रिया है जिसमें दोनों स्तरों पर नई अवधारणाओं और क्रियाओं और वस्तुओं के लिए शब्द गढ़े और आपस में लिए दिए जाते रहे। कर्मक्षेत्र जनता से जुड़ा रहा है इसलिए शब्द सम्पदा दोनों स्तरों पर जुटती रही। बोलियों ने प्राकृतों आदि से भी जो कुछ लिया उसे नए रूप में लौटाया भी।

उदाहरण के लिए ज्ञान के उपसर्ग युक्त रूप प्रज्ञा को लें। प्राकृत में यह पण्णा बनी। बोलियों ने उसे पंडा बना कर ग्रहण किया फिर प्रज्ञ माने जाने वाले या होने का दावा करने वाले पांड़े हो गए। उन्होंने अपना नया संस्कार करके अपने को पांडेय या पांडे बनाया । अब जब ब्राह्मण के संपर्क में यह शब्द आ गया तो इसकी नई व्याख्या तो होनी ही थी इसका संस्कृतीकरण भी जरूरी था। व्याख्या वैसे तो मूल शब्द प्रज्ञा के अनुरूप ही थी जो पंडा पर लाद दी गई : पंडा तु विवेकवती बुद्धिः और इसे भी धातुवत ठहरा कर पंडित, पांडित्य और बोली में पंडिताई, पंडितानी आदि शब्द गढ़े गए।

बोलियों का, उन बोलियों का भी जिनका उत्थान साहित्यिक भाषा में हुआ और जो अपने समाज से भी ऊपर उठ कर कुछ समय के लिए मुकुटधारिणी बन गईं, उनके साहित्यिक रूप से अप्रभावित या नाममात्र को प्रभावित और प्रवाहमान रहीं हैं और यदि उन्होंने साहित्यिक भाषा से दो चार शब्द लिए हैं तो उन्हें जो कुछ लौटाया है वह साहित्य भाषा के हवाई ससार में एक से अनेक बन कर फैलता रहा है। दूसरे शब्दों में कहें साहित्यिक भाषाओँ ने आपस में लेन देन अधिक किया। भाषाओँ से कम लिया। इसके पीछे शिक्षितों का अहंकार था। बोलियों ने अपने नम्र स्वाभिमान के साथ साहित्यिक भाषाओँ से कुछ लेना जरुरी नहीं समझा।

विचार और संवेदना के स्तर में जीवंतता और कलाबाजी का जो अंतर् था उसके कारण यदि इनके प्रयोग शिष्ट जनों को भदेस लगते थे तो शिष्ट जगत की कलाकारी हार्दिकता से शून्य लगती थी। वे अपने ही कलारूपों, अपनी ही कला विधाओं में अपनी ही भाषा गढ़ते, शैली विकसित करते अपनी रचनाएं करते रहे जिसमें कथा सुनाने वाला स्वयं कथाकर बन जाता, गीत गाने वाला गीतकार बन कर अपनी ओर से जोड़ लेता, काव्य गायन करने वाला, मिसाल के लिए आल्हा या लोरिकायन गाने वाला समय पर अपनी ओर से रचना करता उसी प्रवाह में सुनाता रहता और इन कारणों से लोकभाषा और लोक साहित्य में माधुर्य ही नहीं प्राणवत्ता भी शिष्ट भाषा और साहित्य से अधिक रही है। असाधारण मेधा के कलाकार और साहित्यकार ही इसकी समझ रखते और अपनी रचनाओं में लोक का स्पर्श भरते आश्चर्यजनक प्रयोग कर सके है।

अब हम फिर उन कुछ शब्दों के लोकभाषा में प्रवेश को लें जिनमे अनाड़ी भी आता है। प्राकृत में अपनी झक में ध्वनि परिवर्तन करते हुए संस्कृत को ही प्राकृत और पाली बनाया जाता रहा इस लिए इन रचनाओं को पुनः ध्वनिपरिवर्तन से संस्कृत बनाया जा सकता था। इस तरह ही त्यागी को चाई, केश वपन की जगह लुंचन करने वालों के लिए लुच्चा, लुच्ची, नग्न या दिगंबर के लिए नंगा आदि को जैन मत से खीझे हुए ब्राह्मणों ने उनके प्रति वितृष्णा पैदा करने के लिए गालियों के रूप में प्रचारित करना आरम्भ किया और उनको बार बार दुहराए जाने के कारण जगह मिल गई। ये उसके लिए फालतू शब्द थे। गालिया तो जरूरत पड़ने पर वे खुद गढ़ लेते है। आंदोलन विरोध के रहे हों या भाव या विचार के, जैसे, सिद्ध, संत, भक्ति, अथवा आज के विचारधारात्मक आंदोलन,और प्रशाशनिक जरूरत के वे शब्द जिनके असर से वे बच नहीं सकते हैं, बोलियों का अंग बनते रहे हैं पर बोलियों का जन्म इनमे से किसी से नहीं हुआ यह बात हमारे सामने बहुत स्पष्ट होनी चाहिए।

Post – 2017-04-27

कल बात ज्ञान की करने चले थे और भूमिका ने अपने दबाव में दिशा कुछ जरुरी जानकारियों की और मोड़ दी। अच्छा ही रहा । मैं यह कहना चाहता था कि जिनके पास ज्ञान शब्द नहीं होता उनके पास भी ज्ञान तो होता ही है। यहाँ तक कि जिनके पास भाषा नहीं होती उन जीवों जंतुओं तक को ज्ञान होता है.
हम सोच सकते हैं ऋग्वेद में ज्ञान के लिए वेद का प्रयोग होता था। संस्कृत में इसे विद धातु से व्युत्पन्न किया जाता है । यदि भोज. में बिद से जुड़ी कोई कड़ी होती तो हम कहते कि ज्ञान के लिए पुराना शब्द बेद है। न तो यह कड़ी है न ज्ञान शब्द है। बिद्या और ग्यान दोनों संस्कृत से लिए गए शब्द है। भोज. में य और व का उच्चारण हिंदी के कारण चलन में आए हैं। इसके बाद भी, भोजपुरीभाषी शिक्षित लोगों द्वारा भी शब्द के आरंभ में इनके उच्चारण में चूक होती है। ज और ञ का सयुक्ताक्षर तो उस चवर्ग प्रेमी समुदाय के लिए भी कष्टसाध्य है जिससे देववाणी में चवर्गीय ध्वनियां पहुची थी। ऋग्वेद में भी वेद ज्ञान के आशय में नही अपितु जानने वाले के आशय में ही आया है (विद्मा हि त्वा वृषन्तम; य ईं चकार न सो अस्य वेद ). फिर वेद धन सम्पत्ति के लिए भी प्रयोग में आया जिसके लिए बाद में वित्त का प्रयोग होने लगा (तेषाम् नो वेद आभर ). विद्वान और विदान दोनों का प्रयोग लगभग एक ही अर्थ में है, भाव जानकार का है, परन्तु ऐसे स्थल भी हैं जिनसे पांडित्य का आभास मिलता है (समानेन क्रतुना संविदाने )।
किसी वि षय का आधिकारिक ज्ञान रखने वाले व्यक्ति को विद्वान भी कहा जा सकता था, परन्तु एक ऐसे दौर में जब लेखन भले चलन में आ गया हो, ग्रन्थों का अभाव था, पुस्तकीय ज्ञान और इसके लिए किसी की ख्याति का कोई मतलब न था।
बहुज्ञ के लिए श्रुतज्ञ, श्रुतवान, और विचारक के लिए द्रष्टा, ऋषि, कण्व, अक्षण्वन्त, कर्णवन्त आदि शब्दों का प्रयोग होता था।
ज्ञान के मूल में भी कान है ।
यदि देववाणी में असवर्ण संयोग नहीं होता था तो मानना होगा कि या तो उसमें कान के लिए कोई शब्द न था, या था तो कान था, जिसे कौरवी प्रभाव में कर्ण बना दिया गया।
कन् का तमिल में अर्थ है आंख। सं. कनीनिका का अर्थ है आंख की पुतली और हिन्दी, भोज. काना का अर्थ आप जानते हैं।
कान और आंख ज्ञान के प्रधान स्रोत हैं। कान को अपनी संज्ञा इसी कारण मिली लगती है। इसिलए भोज . में अकनल का अर्थ है , बहुत ध्यान से सुनना। कन् देखना, जानना से बना वचक्नु जिसका अर्थ हुआ वाक्कुशल या वाग्विद। गार्गी को वाचक्नवी कहा गया है, वचक्नु की पुत्री । हो सकता है वाग्विदा आशय न समझ में आने पर इसे अपत्यार्थक बनाया गया हो।
जो भी हो यह क्न हमें अंग्रेजी के know और knowledge में मिल जायेगा । इसकी व्युत्पत्ति में इसे लातिन के ग्नोस् से निकला बताया जाएगा।
हम इसके लुप्त रूपों की कल्पना करते हुए यह दावा कर सकते हैं कि कन् के चवर्ग प्रेमी और घोषप्रेमी संपर्क में कन, गन और जन तीन रूप प्रचलित हुए जिनका विकास (अ)कनना, गनना, जनना/जनाना/ जानना में हुआ। इनका संस्कृतीकरण क्न, ग्न, ज्न में हुआ। ज्न के न को च के सान्निध्य के कारण चवर्ग का अनुनासिक बनाया गया िजससे ज्ञ संयुक्ताक्षर बना और जान ज्ञान बन गया ।
इस तरह सं. ज्ञान भले देववाणी मे न मिले इसका प्राथमिक रूप देववाणी में तो मिलता ही है यूरोप में केल्टिक स्रोत से पहुंचे क्न और अनातोलियन स्रोत से लातिन और ग्रीक में पहुंचे ग्न: जिसे ग्नोस बना लिया गया, में भी मिलता है । इन तीनों का रहस्य देववाणी में खुलता है। रोचक बात यह कि संस्कृत के आचार्यों ने भी क्नूयी/ ग्नूयी धातुओ की कल्पना कर ली थी इस लिए क्न/ क्नु/ क्नवी की हमारी व्याख्या यदि किन्ही लोगों को दूर की कौड़ी लगी हो तो वे इससे सन्तुष्ट हो जाएंगे ऐसी आशा है ।
मैक्समूलर ने सस्कृत के महत्त्व पर बात करते हुए कहा था कि जर्मन. ग्रीक, लैटिन जहा एक दूसरे से नहीं मिलती वहां सभी का समाधान संस्कृत से हो जाता है. हम कह सकते हैं कि जहाँ संस्कृत भी कुछ गुत्थियों का समाधान नही कर पाती और लगता है कि अधिक पुराना या उतना ही पुराना रूप तो यूरोपियन शाखाओं में से किसी के पास है तो उनके पीछे का इतिहास देववाणी के पास है.
यदि यह पता चलने के बाद कि ध्वनि नियमों से जिस ध्वनिमाला का अनुमान होता है वह तो भोजपुरी में सुरक्षित है और उसी श्रम से इसका अध्ययन किया गया होता तो PIE की फर्जी कवायद से बच कर भारोपीय समुदाय की भाषाओँ को अधिक गहराई से समझा जा सका होता.
परन्तु न तो सुचना माध्यमों को अपनी साख की चिंता है न ही ज्ञानशास्त्रीय संस्थाओं और पंडितों को अपनी साख की चिंता रही है और जैसे प्रचार माध्यमों का लक्ष्य अपनी गलत बात को भी सही मनवाना रहा है वैसे ही प्रकाशन माध्यमों का लक्ष्य पश्चिम का वर्चस्व स्थापित करना रहा है और इसके लिए वे अपनी साख की भी चिंता न करते रहे हैं, न करना चाहते थे, न करना चाहते हैं और हम अपना सर उनके फंदे में दे कर यह मान बैठे हैं कि लो बिना कुछ किये कराये हमे सब कुछ बना बनाया मिल रहा है. यही है हमारा कुशिक्षित बौद्धिक वर्ग। हमें इससे भी लड़ना है, उनसे भी लड़ना है और यह सुचना पाकर तालियां बजाकर खुश होने वाले दिवालिये संस्कृतिवादी उपद्रवियों से भी लड़ना है। साथ कोई नहीं सम्बल सत्य का जिसकी ऐसी व्याख्याए भी सम्भव हैं कि सत्य की रक्षा के लिए सबसे पहले आप के ही गले की माप ली जाए।

Post – 2017-04-27

कल बात ज्ञान की करने चले थे और भूमिका ने अपने दबाव में दिशा कुछ जरुरी जानकारियों की और मोड़ दी। अच्छा ही रहा । मैं यह कहना चाहता था कि जिनके पास ज्ञान शब्द नहीं होता उनके पास भी ज्ञान तो होता ही है। यहाँ तक कि जिनके पास भाषा नहीं होती उन जीवों जंतुओं तक को ज्ञान होता है.

हम सोच सकते हैं ऋग्वेद में ज्ञान के लिए वेद का प्रयोग होता था। संस्कृत में इसे विद धातु से व्युत्पन्न किया जाता है । यदि भोज. में बिद से जुड़ी कोई कड़ी होती तो हम कहते कि ज्ञान के लिए पुराना शब्द बेद है। न तो यह कड़ी है न ज्ञान शब्द है। बिद्या और ग्यान दोनों संस्कृत से लिए गए शब्द है। भोज. में य और व का उच्चारण हिंदी के कारण चलन में आए हैं। इसके बाद भी, भोजपुरी भाषी शक्षित लोगों द्वारा भी शब्द के आरंभ में इनके उच्चारण में चूक होती है। ज और ञ का सयुक्ताक्षर तो उस चवर्ग प्रेमी समुदाय के लिए भी कष्टसाध्य है जिससे देववाणी में चवर्गीय ध्वनियां पहुची थी। ऋग्वेद में भी वेद ज्ञान के आशय में नही अपितु जानने वाले के आशय में ही आया है (विद्मा हि त्वा वृषन्तम; य ईं चकार न सो अस्य वेद ). फिर वेद धन सम्पत्ति के लिए भी प्रयोग में आया जिसके लिए बाद में वित्त का प्रयोग होने लगा (तेषाम् नो वेद आभर ). विद्वान और विदान दोनों का प्रयोग लगभग एक ही अर्थ में है, भाव जानकार का है, परन्तु ऐसे स्थल भी हैं जिनसे पांडित्य का आभास मिलता है (समानेन क्रतुना संविदाने )।

किसी वि षय का आधिकारिक ज्ञान रखने वाले व्यक्ति को विद्वान भी कहा जा सकता था, परन्तु एक ऐसे दौर में जब लेखन भले चलन में आ गया हो, ग्रन्थों का अभाव था, पुस्तकीय ज्ञान और इसके लिए किसी की ख्याति का कोई मतलब न था।

बहुज्ञ के लिए श्रुतज्ञ, श्रुतवान, और विचारक के लिए द्रष्टा, ऋषि, कण्व, अक्षण्वन्त, कर्णवन्त आदि शब्दों का प्रयोग होता था।
ज्ञान के मूल में भी कान है ।

यदि देववाणी में असवर्ण संयोग नहीं होता था तो मानना होगा कि या तो उसमें कान के लिए कोई शब्द न था, या था तो कान था, जिसे कौरवी प्रभाव में कर्ण बना दिया गया।

कन् का तमिल में अर्थ है आंख। सं. कनीनिका का अर्थ है आंख की पुतली और हिन्दी, भोज. काना का अर्थ आप जानते हैं।

कान और आंख ज्ञान के प्रधान स्रोत हैं। कान को अपनी संज्ञा इसी कारण मिली लगती है। इसिलए भोज . में अकनल का अर्थ है , बहुत ध्यान से सुनना। कन् देखना, जानना से बना वचक्नु जिसका अर्थ हुआ वाक्कुशल या वाग्विद। गार्गी को वाचक्नवी कहा गया है, वचक्नु की पुत्री । हो सकता है वाग्विदा आशय न समझ में आने पर इसे अपत्यार्थक बनाया गया हो।

जो भी हो यह क्न हमें अंग्रेजी के know और knowledge में मिल जायेगा । इसकी व्युत्पत्ति में इसे लातिन के ग्नोस् से निकला बताया जाएगा।

हम इसके लुप्त रूपों की कल्पना करते हुए यह दावा कर सकते हैं कि कन् के चवर्ग प्रेमी और घोषप्रेमी संपर्क में कन, गन और जन तीन रूप प्रचलित हुए जिनका विकास (अ)कनना, गनना, जनना/जनाना/ जानना में हुआ। इनका संस्कृतीकरण क्न, ग्न, ज्न में हुआ। ज्न के न को च के सान्निध्य के कारण चवर्ग का अनुनासिक बनाया गया िजससे ज्ञ संयुक्ताक्षर बना और जान ज्ञान बन गया ।

इस तरह सं. ज्ञान भले देववाणी मे न मिले इसका प्राथमिक रूप देववाणी में तो मिलता ही है यूरोप में केल्टिक स्रोत से पहुंचे क्न और अनातोलियन स्रोत से लातिन और ग्रीक में पहुंचे ग्न: जिसे ग्नोस बना लिया गया, में भी मिलता है । इन तीनों का रहस्य देववाणी में खुलता है। रोचक बात यह कि संस्कृत के आचार्यों ने भी क्नूयी/ ग्नूयी धातुओ की कल्पना कर ली थी इस लिए क्न/ क्नु/ क्नवी की हमारी व्याख्या यदि किन्ही लोगों को दूर की कौड़ी लगी हो तो वे इससे सन्तुष्ट हो जाएंगे ऐसी आशा है ।

मैक्समूलर ने सस्कृत के महत्त्व पर बात करते हुए कहा था कि जर्मन. ग्रीक, लैटिन जहा एक दूसरे से नहीं मिलती वहां सभी का समाधान संस्कृत से हो जाता है. हम कह सकते हैं कि जहाँ संस्कृत भी कुछ गुत्थियों का समाधान नही कर पाती और लगता है कि अधिक पुराना या उतना ही पुराना रूप तो यूरोपियन शाखाओं में से किसी के पास है तो उनके पीछे का इतिहास देववाणी के पास है.

यदि यह पता चलने के बाद कि ध्वनि नियमों से जिस ध्वनिमाला का अनुमान होता है वह तो भोजपुरी में सुरक्षित है और उसी श्रम से इसका अध्ययन किया गया होता तो PIE की फर्जी कवायद से बच कर भारोपीय समुदाय की भाषाओँ को अधिक गहराई से समझा जा सका होता.

परन्तु न तो सुचना माध्यमों को अपनी साख की चिंता है न ही ज्ञानशास्त्रीय संस्थाओं और पंडितों को अपनी साख की चिंता रही है और जैसे प्रचार माध्यमों का लक्ष्य अपनी गलत बात को भी सही मनवाना रहा है वैसे ही प्रकाशन माध्यमों का लक्ष्य पश्चिम का वर्चस्व स्थापित करना रहा है और इसके लिए वे अपनी साख की भी चिंता न करते रहे हैं, न करना चाहते थे, न करना चाटते हैं और हमने अपना सर उनके फंदे में दे कर यह मान बैठे हैं की लो बिना कुछ किये कराये हमे सब कुछ बना बनाया मिल रहा है. यही है हमारा कुशिक्षित बौद्धिक वर्ग. हमें इससे भी लड़ना है, उनसे भी लड़ना है और यह सुचना पाकर तालियां बजाकर खुश होने वाले दिवालिये संस्कृतिवादी उपद्रवियों से भी लड़ना है. साथ कोई नहीं सम्बल सत्य का जिसकी ऐसी व्याख्याए भी सम्भव हैं कि सत्य की रक्षा के लिए सबसे पहले आप के ही गले की माप ली जाए,

Post – 2017-04-27

अभी पुराने नोट उलट रहा था. नजर लुडलो के एक अंश पर पड़ी और यह विचार आया कि भारत को पूरी ताकत से नकारने कि प्रवृत्ति १८५७ के डरावने अनुभवों के बाद आरम्भ हुआ:
John Malcolm Ludlow, India, Its Races and Its History, 1857, Apendix E

When I compare Greek mythology with Hindoo, I am always reminded of the saying of the old Egyptian priest, that from Bitish the Greek were mere children; so immensely deeper does the Hindoo mind appear to me to go in sounding mysteries of the universe, of our own selves. P 44
The Hindu religion, in itself, as I have intimated, full of glimpses into the profoundest truths, has gathered round it a whole civilization. It is embedded in a language, the earliest cultivated, as I have said, of the whole Indo-Germanic group, spreading from India westwards to the Atlantic, and across it now and the whole of American continent, to the Pacific, a language, if we may trust its students , copious, flexible, philosophic, musical beyond all measure…. P. 45

Post – 2017-04-26

देववाणी (सोलह )

ज्ञान की बात

भाषा एक ऐसा बैंक है जिसमें अच्छी बुरी, पवित्र अपवित्र सभी चीजें जमा की जा और निकाली जा सकती हैं। दो लोग अपनी गुप्त भाषा तैयार कर के अपनी शर्त रखते हुए बात कर सकते है, पर इस सामाजिक बैंक या महाकोश में जो भी चीज किसी कारण से कुछ लोगों को भा गई और वे उसका प्रयोग करने लगे तो वह कृत्रिम हुआ तो भी चलन में आ जायेगा। प्राकृत और अपभ्रंश में तो साहित्य तक रचा जाने लगा था इसलिए उनमे जो एक ख़ास झक में ध्वनि परिवर्तन से रचा जाने लगा उसका भी कुछ अंश बोलियों में आया । इससे यह नहीं माना जा सकता कि वे उस समय की उस अंचल की भाषा बन गई थीं इसका सबसे अच्छा जवाब विद्यापति और भोजराज हैं। विद्यापति ने संस्कृत में भी रचना की, प्राकृत में भी और मैथिली में भी। प्राकृत संस्कृत कि ध्वनियों में शूरसेन या महाराष्ट्र में इस अनुमान पर कि यदि कोई अनपढ़ संस्कृत की उसी रचना को पढ़े तो अमुक रूप में उच्चारण करेगा, गढ़ कर तैयार की गई, साहित्यिक भाषा थी।

कहें वही कवि दो तरह की संस्कृत लिख रहा है, एक शिक्षितों की संस्कृत और दूसरी गवारों की संस्कृत। पर गवांरो की संस्कृत भी अपने क्षेत्र के गंवार की नहीं दूर शूरसेन या महाराष्ट्र के प्राकृत लेखकों द्वारा कल्पित अपने क्षेत्र के गंवारों की संस्कृत । परन्तु शूरसेन और महाराष्ट्र की प्राकृतों में गहरी समानता है। दोनों क्षेत्रों के गंवारों की भाषाओँ में भारी अंतर था! इसलिए हम कह सकते हैं कि पूरे देश के संस्कृत जानने वालों की जैसे एक भाषा थी वैसे ही पूरे देश के गंवारों के लिए एक कल्पित भाषा प्राकृत के रूप में तैयार हुई जिसमें भूल चूक से ही स्थनीय ध्वनि के अनुसार कोई परिवर्तन मिलता है और इन्ही के नाम पर प्राकृतों के अन्य भेद कर लिए गए।

मिथिला में मैथिल बोली जाती थी न कि संस्कृत या प्राकृत । जो लोग संस्कृत समझते थे वे ही प्राकृत समझ सकते थे परन्तु संस्कृत प्राकृत की अपेक्षा अधिक आसानी से समझ सकते थे। जैसे संस्कृत भारत में कहीं भोली नहीं जाती थी उसी तरह प्राकृत भी और इसी तर्क से अपभ्रंश भी कहीं नहीं बोली जाती थी पर इस कृत्रिम साहित्यिक भाषा को संस्कृत जानने वाले पुरे भारत में समझ सकते थे और इसमें रचना कर सकते थे।

देववाणी के विकास के कई चरणों में भी इसका संपर्क तो जन से बना रहा और यह स्थिति ऋग्वेद के समय तक बनी रही पर भारत का यह दुर्भाग्य है कि संस्कृत के बाद कोई भाषा जमीन से जुडी नहीं रही। संस्कृत, प्राकृत, पाली, अपभ्रंश सभी किसी क्षेत्र में नहीं बोली जाती थीं, परन्तु साहित्यिक भाषा के रूप में एक विशाल क्षेत्र में शिक्षित अल्पमत के द्वारा समझी और बोली जाती रहीं और उनमे साहित्य भी रचा जाता रहा।

इस दृष्टि से भोजपुरी, अवधी ब्रज, कौरवी, पंजाबी आदि सभी बोलियां संस्कृत और वैदिक से अधिक पुरानीं हैं और मामूली भिन्नता के साथ लगातार बोली जाती रहीं । यही हाल द्रविड़ और मुंडा समुदाय में आने वाली बोलियों का है। यद्यपि विगत आठ-दस हज़ार सालों के दौरान इनमे साहित्यिक बालियों और समाज-रचना में बद्लाव और तकनिकी व उद्योग में विकास के कारण इनका चरित्र इतना बदला है और इन्होने एक दुसरे से इतना लेने देने अपनी निजता की रक्षा के प्रयत्न के बाद भी किया है कि हम इनके आदिम स्वरुप की कल्पना भी नही कर सकते। इतना दावे के साथ अवश्य कह सकते हैं कि ये किसी आद्य भाषा के ह्रास या बिखराव से पैदा हुई संताने नहीं हैं न ही इनको किसी एक परिवार या अलग परिवारों में रखना सही है।

इनमें जो समानताएं हैं वे कई कारणों से पैदा हुई है, जिनमें से एक है आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक या सांस्कृतिक कारणों किसी भाषा का कुछ समय का वर्चस्व जिसका इतिहास तलाशना हमेशा संभव नहीं होता।

जिस समय भाषाविज्ञानी भारोपीय समुदाय की भाषाओं का वंशवृक्ष तैयार कर रहे थे और भारोपीय परिवार का दायरा तय कर रहे थे तब तक किसी भाषा के प्रसार का कोई ऐसा कारण नहीं दीख रहा था जिसके माध्मम से इस प्रसार को संभव माना जा सके इसलिए उन्हें आक्रमण की कल्पना करनी पड़ी, इसकी उनहोंने तलाश भी की पर हाथ यह आया कि भारतीय साहित्य में किसी आक्रमण का प्रमाण है ही नहीं। परन्तु इसकी उपेक्षा कर दी गई ।

जहाँ से वे आक्रमणकारियों को निकल कर भारत की ओर बढ़ते दिखाते थे वह चरवाही की अवस्था में था। चरवाहे अपना ढोर गोरु संभालते हैं। वह एक बड़ा और चौबीस घंटे का काम होता है। वे अपने जानवरों का झुण्ड लिए जाने किन किन इलाकों में घूम आते हैं और यदि कहीं पहुँच कर चरागाह का आभाव न दीखा तो उसी में विचरण करते हैं कोई रोकने टोकने वाला नहीं होता।

पाकिस्तान में ब्राहुई की पहाड़िया हैं। इनमे निवास करने वाले लोगो की भाषा में बहुत से द्रविड़ शब्द हैं। ये चरवाहे है और जिस समय के इतिहास का मुझे पता है उसमें ये सर्दियों में पंजाब के मैदान में आ जाते थे और गर्मियों में मध्येशिया तक का चक्कर लगा आते थे, पाकिस्तान बनने के बाद भी ऐसा ही करते होंगे । अपने देश में जाट, गूजर आदि कब आये कैसे आये किसी को पता ण चला, पर उनको अपने रेवड के साथ घुसने के लिए उन्हें युद्ध या आक्रमण नहीं करना पड़ा। जो बस गए वे बस गए जो पशुचारण करते रहे उन्हें एक इलाके से दुसरे में जाने के लिए कभी न आक्रमण करना पड़ता है, न वे किसी के लिए कोई समस्या खड़ी करते है।

फिर जहाँ से आक्रान्ताओं के चरवाहों के आक्रमण की कहानी गढ़ी गई वहाँ तो घोड़े पाले जाते थे, गोरू तो वहां पाले जाते न थे। गजब का विद्रूप पैदा किया गया:
तेज दौड़ने वाले घोड़ों पर तलवार ताने हमलावरों का सामना करने वाला कोई था नहीं इसलिए वे मारने, काटने, लूटने को स्वतंत्र थे ही। यही उन्होंने किया पर ईसा के ५०० सौ से पहले घोड़े की पीठ पर सवारी नही होती थी, क्योंकि वन्य घोडा या तार्पान की रीढ़ इतनी मजबूत न थी! उसका उपयोग रथों में ही संभव था।

अब झमेले दो तरह के थे: तेज गति से चलने वाले आक्रमणकारी हिन्दू कुश को अपने रथों के साथ कैसे पार कर सके?

घोड़ो पर सवार चरवाहे गोरुओं को उसी गति से हांक कर कैसे भारत में प्रवेश कर सके?

हम कहें कि इन सारी अनर्गलताओं को उन्होंने स्वयम स्वीकार किया और फिर भी इन्हें चलाते रहे तो इसका कारण यह था कि यह उनकी ऐतिहासिक जरूरत थी। तुमने हमला कर के यहाँ के आदिवासियों को अधीन किया उसी तर्क से हमने तुम्हें परास्त कर के अपना अधिकार जमाया। यही तर्क मुस्लिम आक्रान्ताओं के वंशज होने का दावा करने वालों का था, इसलिए आर्य आक्रमण का खंडन हो जाय तो भी वे इसे किसी ण किसी बहाने की तलाश करके मानेंगे नहीं।

हम यह कहना चाहते है कि जिस सूचना संसार में आर्य आक्रमण की कहानी रची गई उसमे बहुत से अन्तर्विरोध थे परन्तु इनको नजरंदाज किया गया . इसी ज्ञान जगत में वे सारी कहानिया इतिहास का तथ्य बना दी गई और आगे की खोजो के लिए इन्हें निकष बना कर उन्हें स्वीकार्य और त्याज्य बनाया जाता रहा. इसी तर्क से उत्तर भारत की बोलियों को बाहर से आई संस्कृत की संताने बता कर इन्हें भारतीय आर्य भाषा परिवार की मान्यता को बल दिया गया जो सरासर गलत है क्योंकि संस्कृत स्वयं उहाँ की एक बोली की प्रपौत्री है न कि किसी की जननी।

यदि पहले नही तो हडप्पा सभ्यता और इसके विदेशी अड्डों का पता चलने पर पुनर्विचार जरूरी था जो नहीं किया गया। उलटे इसका उल्टा पाठ किया जाता रहा। अब जब आर्य आक्रमण भी खंडित हो गया है और यह सिद्ध हो गया है कि वैदिक साहित्य के रचयिता हडप्पा की उपादान संस्कृत के निर्माता ही थे तो भी वे भाषा वैज्ञानिक दलीलों की आड़ में पुराने राग ही अलापते ।

हमें इतिहास के फरेब से बाहर आने के लिए इस सचाई को जानना जरूरी है कि जिसे भाषाविज्ञान बताया जाता है उसके विज्ञान में कलाकारी अधिक है और इसे समझने में साहित्यिक भाषाएँ नही हमारी बोलिया अधिक सहायक हैं और अधिक प्राचीन भी। पाश्चात्य परिकल्पनाएं पोर पोर टूटती और बिखरती जाती है पर प्रचार साधनों के बल पर जिन्दा रखी जाती है। वर्चस्य के लिए वे यह खर्च करते हैं और हम उनके पत्रों और सेमिनारों के सामने निरस्त्र अनुभव करते हैं। हमारा रक्षाकवच है हमारा आत्मविश्वास जो जरूरी होकर भी उसी तरह हमारे पास नहीं है जैसे भारत चीन युद्ध में भारतीय सैनिकों के पास बर्फ में काम आने वाले जूते और कपडे तक नहीं थे।

Post – 2017-04-26

यह दुर्भाग्य की बात है कि लोग ज्योतिष जैसे विज्ञान और फेस बुक जैसे एक एक सेकंड की खबर रखने वाले खोजी की बातों पर भी विश्वास नही करते. फेसबुक की यह भविष्यवाणी निराधार नही है. उनके गहरे खोज का नतीजा है. विश्वास न हो तो मेरी फेस बुक पर काफी दिन पहले पोस्ट की गई कविता तलाश कर पढ़ें. अपने साए से भी कुछ हट कर खड़ी है शायद. पर मैंने उस सुंदरी से अर्ज किया था कि तुझे इतनी जल्दी क्या है. थोडा और रुक जा. कुछ और काम बाकी है. इसलिए बारात कि तैयारी जितनी देर से हो उतनी ही रौनक रहेगी. और जहाँ तक उसके फिल्म स्टार होने की बात है तो हाल की यह तुकबंदी:
जमीं पर जब सितारे कुछ परेशां थे तो हम भी थे
सितारों की परेशानी के कुछ हकदार हम भी थे।
जमी पर आ गए कैसे हैं अपना आसमां खोकर
यह तेवर देख कुर्बानी की कुछ कुर्बान हम भी थे।
सितारों फूल बरसाओ अगर हो फूल हासिल तो
जमीं पर आ भी जाओ कह के खुद हैरान हम भी थे।
समझने में लगी गुद्दत सितारे कागजी हैं ये
सरे बाजार बिकते, उनके पर दिलदार हम भी थे।