देववाणी की विकास प्रक्रिया (अठारह)
भाषा में जो श्रुत है वही वाच्य है, कान और जबान के बीच यह निराला रिश्ता है।
विभिन्न संकेत प्रणालियों में जिनमें वाचिक संचार की आवश्यकता नहीं होती, उनका हम उपयोग भी करते हैं परन्तु इनमें से कुछ का उपयोग जीव जगत में हमसे अधिक दक्षता से होता है। हम उसमें से कुछ में अपनी ओर से जोड़ते भी है परन्तु वह सकेत प्रणाली जिसमे हम मनचाहे ढंग से कुछ जोड़ बदल सकते हैं उसकी पहुंच केवल उस दायरे में सिमट कर रह जाती है जिसे इसे समझाया गया है, जैसे परियात के संकेत या दूसरे प्रतीक जिनमें बिल्ल, तमगा, यूनिफॉर्म, पदसूचक प्रतीक, हॉर्न, झंडा , इत्यादि आते हैं। इनका संचार त्वरित होता हैं क्योंकि इनमें प्रतीकात्मकता होती हैं अमूर्तन नहीं होता। नैसर्गिक संचार जैसे दृष्टि संकेत में शिक्षा की आवश्यकता नहीं होती। इनका बहुत कुछ स्वचालित होता हैं और इसका बोध शिशु में भी होता हैं। इसमें भी अमूर्तन की उतनी संभावना नहीं होती कि वे वस्तु से लेकर विचार और संवेदन तक की अभिव्यक्ति कर सकें और अनुपस्थित को उपस्थित और निराकार को कथ्य बनाते हुए सृष्टि के समानान्तर एक वाचिक संचार रच सकें जिसके माध्यम से किसी भी वस्तु या परिघटना को समझा भी जा सके।
भाषा की समझ अमूर्तन की इस प्रक्रिया की समझ से जुड़ी हुई है!
पाश्चात्य अध्येताओं ने संस्कृत से आतंकित हो कर व्युत्पत्तियों को समझने के प्रयास में आरंभ से ही गलत रास्ता अपनाया और उससे उबर न सके। उसी आधार पर उन्होंने स्वयं शब्दों के बहुनिष्ठ घटकों को निर्धारित करके उनमें ध्वनिगत और अर्थगत साम्य के आधार पर अपने आद्य रूप नियत किये जो संस्कृत धातुओं की तरह उपयोगी भी हैं और उन्हीं की तरह एक सीमा के बाद मूक हो जाते हैं। सबसे बड़ी कमी यह कि उनसे यह पता नही चलता कि उस विशेष ध्वनि से वह अर्थ जुड़ा कैसे और यदि इसमें कोई तुक है तो फिर उससे उल्टे अर्थ उसी से क्यों और कैसे निकलने लगे। जैसे पूत पवित्र और सड़ा हुआ, पुरीष पानी और विष्टा दोनों आशयों में कैसे प्रयोग में आने लगा।
भारतीय भाषाओं को समझने के लिए भी जिन्होंने काम किया काल्डवेल, गुंडर्ट, किटेल, ब्लाख, सिल्वियांलेवी, बरो, इमेनो, टर्नर पिता पुत्र, क्विपर, साउथवर्थ, कृष्णमूर्ति सभी ने अपने काम, कोश, निबन्ध या संकलनों में इसी पद्धति को अपनाया जो प्रथम दृष्टि में बहुत प्रभावशाली लगती है परन्तु फिर भी कुछ उलझनें बनी रह जाती हैं, जिनको वे या तो यह या वह, या तो संस्कृत से द्रविड़ में या मुंडा से संस्कृत में या इसके विपरीत का एक अनिर्णीत क्षेत्र मेडालकर अपनी मुश्किल आसान कर लेते हैं ।
जैसे जिगसा पजल में होता है, यदि एक भी कड़ी सही नहीं बैठती तो पूरा संयोजन ही बदल जाता हैं वैसे ही सत्य के अनुसन्धान के सभी मामलों में होता हैं, वह अपराध से जुड़ा हो या विज्ञानं से । इस बात का ध्यान नहीं रखा गया। सीमाएं तोडने वाले तथ्यों की अनदेखी की जाती रही। यहां तो साझी विरासत का मामला हैं। परन्तु जब एक ही शब्द में विपरीत अर्थ या भिन्न अर्थ आ जाते हैं तो इनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती, कोई न कोई समाधान देना होगा. पर छिन्नमूल भाषाओँ के माध्यम से मूल की तलाश सम्भव नहीं इसलिए लीपापोती की जाती रही। यह बात यूरोपीय भाषाओँ पर ही लागू नहीं होती, संस्कृत पर भी लागू होती हैं क्योंकि देववाणी शब्द तो बचा रहा, परन्तु संस्कृतज्ञों को भी यह पता न था कि यह थी क्या चीज और उससे संस्कृत का सम्बन्ध क्या हैं।
सही व्युत्पत्ति के लिए संकेत प्रणाली के विकास, भाषा के विकास, और मनुष्य और उसकी सामाजिकता के विकास की प्रक्रिया को सामने रखें तभी हम सही समाधान पा सकते हैं।
हम पहले एक भिन्न संदर्भ में ज्ञान और प्रज्ञा पर विचार कर आए हैं अब मन से व्युत्पन्न शब्दशृंखला पर विचार करेंगे।
देववाणी का प्रयोग करनेवाला समाज विकास के प्राथमिक चरण पर था जिसमें मनुष्य द्वारा प्रकृति में छेड़छाड़ से उत्पन्न ध्वनिया लगभग नहीं थीं। औजारों और हथियरों का और उनके चलने से पैदा होने वाली ध्वनियों का विस्तार और भाषा में उनका समावेश इसके बाद बहुत मंद गति से हुआ ।
देवसमाज का आदिम ध्वनि परिवेश मुख्यतः अपने हर्षविषाद की ध्वनियों, पशुओं पक्षियों की ध्वनियों और स्वतः गतिशील तत्वों – जल और वायु के विभिन्न वेगो, अवरोधों और परिमाणों के अनुसार उनसे उत्पन्न ध्वनियों से ही बना था। इसे हम ऋग्वेद की भाषा में सूनृता वाक् कह सकते हैं जिसकी परिभाषा करते हुए सायण ने कहा है – पशुपक्षिमृगादीणां भाषा या उनका ध्वनि संसार । उनसे चूक इनती ही कि उनका ध्यान जल और वायु की ओर नहीं गया।
हम अपनी व्याख्या में पाते हैं कि देववाणी की नब्बे प्रतिशत शब्दावली जल से व्युत्पन्न है क्योंकि उसकी ध्वनि वायु की अपेक्षा अधिक स्पष्ट और अनन्त है। इसलिए किसी भी ऐसी वस्तु, क्रिया, भाव या विशेषता की जिससे ध्वनि पैदा नहीं होती संज्ञा उसे जल से उत्पन्न ध्वनि के आधार पर मिली है। इस सिद्धाान्त की परख के लिए हम मन शब्द पर विचार करेंगें।
मन से कोई ध्वनि पैदा नहीं होती इसलिए इसे अपने संज्ञा जलवाची आशय से मिला होगा। अतः हम मान लें कि मन का अर्थ जल है। यह जल से जुड़े किसी द्रव या खाद्य वस्तु से के लिए प्रयोग में भी मिल जाएगा। आदिम संकल्पना में खाना, पीना, सूंघना सबका अर्थ मिलता जुलता था। आज भी हम हवा खाने निकलते हैं और सिगरेट पीते हैं।
मन का अर्थ पानी था यह मंडा अर्थात हंड़िया के उूपर निथरे हुए पेय से प्रकट है। यही मांड या चावल के उतराए हुए पानी को जिसे यदि अधिक हो गया तो पसा कर अलग कर दिया जाता है और अभावग्रस्त जन उस मांड में ही नमक डाल कर मांड़ भात खा भी लेते थे ।
इस मांड से सादृश्य सम्बन्ध के कारण सूख रहे ऐसे पोखर आदि में सूअर या भैस आदि के लौटने से पैदा कीचड़ को मड़िया कहते हैं। उसमे लोट पॉट करने को मड़िया मारना कहते हैं । इस मड़िया का कोई संबंध अंग्रेजी के मड और मडल से है या नहीं इसे आप विचारिएगा।
मंडा और मांड़ की तरह उूपर आ जाने या छा जाने वाले या होने वाले भाव, पदार्थों के लिए भी मंड से अपनी संज्ञाएं और क्रियाएं मिली हैं । कुछ शब्दों पर विचार करें मांड़ना, मंडन, मंडूक, मढ़ना, मढाई, मंडित, मुंड, मुंडेर आदि!
पानी के गुण, धर्म, साहचर्य, विरोध, सायुज्य आदि के कारण अन्य अनेक संज्ञाओं का जन्म हुआ हैं । इसका एक गुण हैं चमकना । चमकने का प्रकाश से सायुज्य और प्रकाश का ज्ञान से इसलिए यह चमकने, प्रकशित करने वाले आशय में मन का और अंग्रेजी माइंड, मनस्वी या मनु, मनुष्य के लिए और चन्द्रमा जिसका एक नाम मन था और चमकने वाले क्रिस्टल, या मणिभ और अधिक चमकने वाले पत्थर मणि, माणिक्य आदि के लिए प्रयोग में आया ।
मन का अर्थ कभी चन्द्रमा था यह वैदिक काल तक बिसरने लगा था इसलिए कहा गया हैं मनो वै चन्द्रमा या चन्द्रमा मनसो जातः (मन ही चन्द्रमा है या चन्द्रमा मन से पैदा हुआ ) कारन इस समय तक यह चन, द्र और मन तीन जलवाची शब्दों के योग से बनने लगा था, संभवतः यह तीन भाषाओँ के शब्द थे और अपनी बोलियों में तीनों का प्रयोग चाँद के लिए होता था. इनमे चन को हम चान मामा में पहचान सकते हैं. द्र के विषय में यही दावा करने का प्रमाण नहीं हैं इसलिए इसे निपात मान सकते हैं, पर मन का मस के रूप में प्रयोग करने वाला समुदाय अवश्य अलग रहा होगा। मन बोलचाल में वैदिक समाज में भी प्रचलित रहा होगा, इसके आभाव में यह मून के रूप में और लून के रूप में अन्य बोलियों में न पहुँचता। अंग्रेजी मंथ मन से , संस्कृत मास, फ़ारसी माह / मह मस से व्युत्पन्न हैं, यह कहने की आवश्यकता नहीं।
जिस तर्क से मंड, मंडप, और मुंड बना उसी से सर्प के फणि के पर्याय मणि का प्रयोग सांप के सर के लिए ्और इसी तर्क से मणि का प्रयोग शिश्नाग्र के लिए हुआ लगता हैं। न का ण में परिवर्तन उस बोली के प्रभाव से हैं जिसके कारण तमिल में मानव माणवन बनता हैं और एक भिन्न अर्थ में प्रयुक्त होता हैं ।
(शेष कल )