Post – 2017-04-28

देववाणी (सत्रह)
बोलियां और साहित्यिक भाषाएं

बोलियां धरती की तरह नम्र, अनगढ़, उर्वर है जो नए रूपों में ऊर्जस्वित होती रहती है। साहित्यिक भाषाएँ पकी ईंट की तरह सधी, ठोस, सांचे में ढली और अल्पायु होती हैं। इनमे अधिक से अधिक काई या फफूंद लग सकती है, इनको लेप और रंग से चमकाया जा सकता है और इनका विराट निर्मितियों में उपयोग हो सकता है परन्तु ये टूटने के बाद सिर्फ मलबे में बदलती हैं।

जैसा हमने पीछे देखा बोलियां अनंत काल से लगातार जनता के व्यवहार में आती रही हैं । यह बात सभी बोलियों पर लागू होती है। जहाँ तक उत्तर भारत का प्रश्न है बिलकुल सटे पड़ोस की दो बोलियों को जिनमे अधिक अंतर न रहा होगा हमने पाली और प्राकृत में साहित्यिक भाषाओँ में बदलते और अपनी बोलियों से और साथ ही एक दूसरे से अलग होते देखा है। इनका उदभव जिसकी भी झक से हुआ हो, ये वे भाषाएँ नहीं हो सकतीं जिनमे बुद्ध और महावीर ने अपने विचारों का प्रचार किया था। ये अखिल भारतीय प्रसार सूरसेन क्षेत्र में आ कर ही पा सकी थी और यहीं उनका कायाकल्प भी हुआ। इनका संबन्ध बोलियों से जुड़ा ही नहीं।

संस्कृत सहित सभी साहित्यिक बोलियों की आयु बोलियों की दीर्घजीविता और अतिजीविता को देखते स्वल्प रहा है। संस्कृत के तद्भव रूप, प्राकृत और अपभ्रश के ध्वनि परिवर्तनों से बने तद्भव इन साहित्यिक भाषाओं के जानकारों के माध्यम से बोलियों में पहुंच सके और ऐसे शब्दों को अपने रंग में रंगकर उन्होंने अपना लिया जिनके लिए उनके पास अपने शब्द न थे। अपनी जरूरत से प्रायः इनको एक नया अर्थ भी दे दिया जाता रहा। हमे यह न भूलना होगा की बोलियां वन्य आहारसंग्रह से आगे बढ़ी है और उनमे से ही कोई साहित्य, विचार और शासन की जरूरतों से व्यापक सम्पर्क की भाषा बन कर अमूर्तन, संकरण और मानकीकरण की समस्याओं से जूझती हुई एक भिन्न स्तर पर विकसित होती रही। इस विकास का लाभ जनसाधारण को और उनकी भाषाओँ को भी मिला।

उदाहरण के लिए गणना को ही लें। आहार संग्रही को न जोड़ने को कुछ था न गिनने को। उसके लिए तीन सबसे बड़ी संख्या थी। एक मैं, दूसरी पत्नी, तीन सब, इसके बाद बाद सीधे पांच उँगलियों के कारण। पांच = सब, और ५; सस्त (षष्ट) = फैला हुआ, संभवतः यही हस्त भी बना, सप्त, अस्त (अष्ट) = अंतिम संख्या या सबसे बड़ी संख्या और फिर दस= सबसे बड़ी संख्या। चार और नव सांख्यिकीय ज़रूरतों से कुछ बाद में गढ़े गए होंगे। ध्यान दें सस्त, सप्त, सत और इसके वर्ण विपर्यय से बने तस (दस) को तो सबसे बड़ी संख्या के लिए एक ही शब्द का प्रयोग हुआ है और इनमें अंतःस्रगों के द्वारा फर्क किया गया है। यह भौतिक आवश्यकता, तकनीकी विकास और बौद्धिक उत्थान तथा संवेदनात्मक परिष्कार की प्रक्रिया है जिसमें दोनों स्तरों पर नई अवधारणाओं और क्रियाओं और वस्तुओं के लिए शब्द गढ़े और आपस में लिए दिए जाते रहे। कर्मक्षेत्र जनता से जुड़ा रहा है इसलिए शब्द सम्पदा दोनों स्तरों पर जुटती रही। बोलियों ने प्राकृतों आदि से भी जो कुछ लिया उसे नए रूप में लौटाया भी।

उदाहरण के लिए ज्ञान के उपसर्ग युक्त रूप प्रज्ञा को लें। प्राकृत में यह पण्णा बनी। बोलियों ने उसे पंडा बना कर ग्रहण किया फिर प्रज्ञ माने जाने वाले या होने का दावा करने वाले पांड़े हो गए। उन्होंने अपना नया संस्कार करके अपने को पांडेय या पांडे बनाया । अब जब ब्राह्मण के संपर्क में यह शब्द आ गया तो इसकी नई व्याख्या तो होनी ही थी इसका संस्कृतीकरण भी जरूरी था। व्याख्या वैसे तो मूल शब्द प्रज्ञा के अनुरूप ही थी जो पंडा पर लाद दी गई : पंडा तु विवेकवती बुद्धिः और इसे भी धातुवत ठहरा कर पंडित, पांडित्य और बोली में पंडिताई, पंडितानी आदि शब्द गढ़े गए।

बोलियों का, उन बोलियों का भी जिनका उत्थान साहित्यिक भाषा में हुआ और जो अपने समाज से भी ऊपर उठ कर कुछ समय के लिए मुकुटधारिणी बन गईं, उनके साहित्यिक रूप से अप्रभावित या नाममात्र को प्रभावित और प्रवाहमान रहीं हैं और यदि उन्होंने साहित्यिक भाषा से दो चार शब्द लिए हैं तो उन्हें जो कुछ लौटाया है वह साहित्य भाषा के हवाई ससार में एक से अनेक बन कर फैलता रहा है। दूसरे शब्दों में कहें साहित्यिक भाषाओँ ने आपस में लेन देन अधिक किया। भाषाओँ से कम लिया। इसके पीछे शिक्षितों का अहंकार था। बोलियों ने अपने नम्र स्वाभिमान के साथ साहित्यिक भाषाओँ से कुछ लेना जरुरी नहीं समझा।

विचार और संवेदना के स्तर में जीवंतता और कलाबाजी का जो अंतर् था उसके कारण यदि इनके प्रयोग शिष्ट जनों को भदेस लगते थे तो शिष्ट जगत की कलाकारी हार्दिकता से शून्य लगती थी। वे अपने ही कलारूपों, अपनी ही कला विधाओं में अपनी ही भाषा गढ़ते, शैली विकसित करते अपनी रचनाएं करते रहे जिसमें कथा सुनाने वाला स्वयं कथाकर बन जाता, गीत गाने वाला गीतकार बन कर अपनी ओर से जोड़ लेता, काव्य गायन करने वाला, मिसाल के लिए आल्हा या लोरिकायन गाने वाला समय पर अपनी ओर से रचना करता उसी प्रवाह में सुनाता रहता और इन कारणों से लोकभाषा और लोक साहित्य में माधुर्य ही नहीं प्राणवत्ता भी शिष्ट भाषा और साहित्य से अधिक रही है। असाधारण मेधा के कलाकार और साहित्यकार ही इसकी समझ रखते और अपनी रचनाओं में लोक का स्पर्श भरते आश्चर्यजनक प्रयोग कर सके है।

अब हम फिर उन कुछ शब्दों के लोकभाषा में प्रवेश को लें जिनमे अनाड़ी भी आता है। प्राकृत में अपनी झक में ध्वनि परिवर्तन करते हुए संस्कृत को ही प्राकृत और पाली बनाया जाता रहा इस लिए इन रचनाओं को पुनः ध्वनिपरिवर्तन से संस्कृत बनाया जा सकता था। इस तरह ही त्यागी को चाई, केश वपन की जगह लुंचन करने वालों के लिए लुच्चा, लुच्ची, नग्न या दिगंबर के लिए नंगा आदि को जैन मत से खीझे हुए ब्राह्मणों ने उनके प्रति वितृष्णा पैदा करने के लिए गालियों के रूप में प्रचारित करना आरम्भ किया और उनको बार बार दुहराए जाने के कारण जगह मिल गई। ये उसके लिए फालतू शब्द थे। गालिया तो जरूरत पड़ने पर वे खुद गढ़ लेते है। आंदोलन विरोध के रहे हों या भाव या विचार के, जैसे, सिद्ध, संत, भक्ति, अथवा आज के विचारधारात्मक आंदोलन,और प्रशाशनिक जरूरत के वे शब्द जिनके असर से वे बच नहीं सकते हैं, बोलियों का अंग बनते रहे हैं पर बोलियों का जन्म इनमे से किसी से नहीं हुआ यह बात हमारे सामने बहुत स्पष्ट होनी चाहिए।