तंत्र का ताना-बाना
हमें अपनी चर्चा में सांप और सीढ़ी का खेल खेलना पड़ता है। कुछ छू़टे हुए सूत्रों को उनके सही संदर्भ में रखने की विवशता है। हमें इस बात का ध्यान रखना होगा कि मोहम्मद साहब के इलहाम उनकी जरूरतों के अनुसार आते हैं।
उदाहरण के लिए जब मक्का छोड़कर मदीना जाने का समय आया, तो सूरा कुछ उसी भाव से आया जिसमें तुलसी ने लिखा था “तजहु मन हरि विमुखन को संग/ जा के संग कुबुधि ऊपजत है, परत भजन में भंग:
Follow, [O Muhammad], what has been revealed to you from your Lord – there is no deity except Him – and turn away from those who associate others with Allah.
यह भी एक कारण था जिससे उनकी अवज्ञा करने वाले उन्हें धूर्त कहते थे। परंतु मक्का में रहते उन्हें यह बोध था कि यदि जो कुछ भी होता है, अल्लाह की इच्छा से ही होता है तो यह भी अल्लाह की इच्छा से ही हो रहा होगा, इसलिए किसी दूसरे को, उन्हें, अपनी मर्जी के अनुसार चलाने का अधिकार नहीं:
But if Allah had willed, they would not have associated. And We have not appointed you over them as a guardian, nor are you a manager over them.सूरा 6.107
एक दूसरी बात यह है कि मोहम्मद साहब अपने को लिखने पढ़ने की योग्यता से रहित इसलिए बताते थे कि कहीं लोग यह न मान लें कि वह उन लोगों से कम समझदार हैं जिनके विचारों को दुहरा रहे हैं। इससे यह तो सिद्ध हो ही जाएगा कि यह इंसानी विचार है, अल्लाह का संदेश नहीं है। यदि वह पढ़े लिखे थे ही नहीं तो फिर किसी दूसरे के विचारों को पढ़ते ही कैसे?
उनकी एक जरूरत यह थी की प्राचीन महापुरुषों की परंपरा से अपने को जोड़कर उनसे भी अधिक प्रतिष्ठा प्राप्त करें; दूसरी यह कि यह सिद्ध करें कि वह अल्ला के निरंतर संपर्क में हैं, जिसका सौभाग्य उनसे पहले किसी पैगंबर को नहीं मिला था। इसलिए यहूदी और ईसाई मान्यताओं, उनके आप्त पुरुषों के विषय में भी जानकारियां न तो यहूदियों और ईसाइयों के संपर्क में आने के कारण प्राप्त थीं , न ही उनकी किताबों को पढ़ने के फलस्वरूप। इन्हें उनको वही अल्लाह स्वयं बताता था जिसने उनको पहले भेजा था। मोहम्मद और कुरान में श्रद्धा रखने वालों को इसमें कोई चूक नहीं दिखाई देगी, परंतु कोई अध्येता ऐसे सादृश्यों की उपेक्षा नहीं कर सकता।
मोहम्मद को मदीना जाने के लिए मनाने को 621 में मदीना से 12 लोग आए थे।
622 में 75 (73 पु. 2 म.) आए थे। वफादारी की प्रतिज्ञा के बाद मुहम्मद ने 12 लोगों को आमंत्रित किया। परंतु क्यों?
They stretched their hands forth, and he (pbuh) stretched his hand and they pledged their word by saying, “We pledge ourselves to obey in well and woe, in ease and hardship, and, speak the truth at all times, and that in Allah’s service we would fear the censure of none.” After they gave the pledge Allah’s Messenger (pbuh) said, “Bring me twelve leaders who have charge of their people’s affairs.” They produced nine from al-Khazraj and three from al-Aws. So the Messenger of Allah (pbuh) said to these Nuqaba (leaders), “You are the guardians of your people just as the disciples of ‘Isa, son of Maryam, were responsible to him while I am responsible for my people.” They went back to their beds and then back to their caravan and returned to Madinah. (History, 11 Second pledge of Aqaba : systemofislam.com).
यहां हम इसी परिघटना के दो अन्य पाठांतरों का उल्लेख करना चाहेंगे। पहला:
After that pledge, Al-Abbas ibn Ubadah ibn Nadla said to the Prophet (peace be upon him), ‘‘By Allah Who has sent you with the truth, if you wish, we will attack the people of Mina tomorrow with our swords.’ The Prophet (peace be upon him) said, ‘We have not been ordered to do this, but return to the group you are travelling with.’ Consequently, they returned to their travelling companions.
दूसरा:
To the chiefs of the tribes, he said: ‘I do not wish to force you to anything. Only permit any one who approves of my invitation (to the Faith) to receive it and protect me from being killed, that I may recite to you the book of Allah.’
ये प्रसंग इस्लामी इतिहास में एक नए मोड़ को समझने मे सहायक हो सकते हैं जिनको मुस्लिम इतिहासकार और धर्मवेत्ता न समझ सकते हैं, न समझ गए तो स्वीकार कर सकते हैं, क्योंकि ऐसा करने पर इस्लाम की अनन्यता पर आंच आती है । परंतु उनके आत्मराग से मुक्त होकर देखने वाला कोई भी व्यक्ति निम्न निष्कर्षों पर पहुंचे बिना नहीं कर सकता:
1. अभी तक जो समानधर्मियों का संगठन था, वह राजसत्ता के समानांतर एक धर्मसत्तातंत्र का रूप लेने जा रहा था।
2. मोहम्मद ने इसके लिए पोपतंत्र के ढांचे को अपनाते हुए इस बात का ध्यान रखा कि उनका तंत्र पूरी तरह किसी दूसरे की नकल न लगे।
3. इस तंत्र में सर्वोपरि मोहम्मद और बाद में उनके उत्तराधिकारी खलीफे हैं जिनके नीचे इमाम है और फिर दूसरे अमला जिनके बारे में अपने सीमित ज्ञान के कारण विस्तार से कुछ नहीं कह सकता, परंतु यह निवेदन कर सकता हूं कि यहां से ईसाइयत के ढांचे को मुहम्मद उसी तरह स्वीकार करते हैं जैसे ईसाइयत ने मामूली फेरबदल करते हुए बौद्ध संगठन के ढांचे को स्वीकार किया था।
4. मोहम्मद तब पैदा हुए थे जब ईसा भुला दिए गए थे, पोप ने अपने उनका स्थान ले लिया था, पर मुहम्मद उस संक्रमण बिंदु पर थे, जिसमें ईसा धर्मचेतना का अंग थे।
5. यह कथन सच है कि ईसा मसीह को काठी पर लटकाकर मार दिया गया, परंतु मरे नहीं। जिंदा हो गए। यह ईसा के बारे में भी सच है, मोहम्मद के बारे में भी सच है, गांधी के बारे में भी सच है। जिनके पास विचार है, वे शरीर के मर जाने के बाद भी मरते नहीं हैं, पुनर्जन्म पाते हैं। जानकारी कम है, चौथे किसी व्यक्ति के बारे नहीं जानता, परंतु यहां मैं याद दिलाना चाहता हूं कि अभी तक मोहम्मद काठी पर लटकाए जाने वाले ईसा के आदर्शों पर चल रहे थे। हिंसा में सराबोर कबीलों के बीच शांति के संदेश से अलग कोई क्रांतिकारी संदेश नहीं हो सकता था। मोहम्मद आज तक इसी का पालन कर रहे थे इसे ऊपर के उदाहरणों से समझा जा सकता है। उनके नाम के साथ बार-बार दोहराए जाने वाले ‘वह शांति के आगोश में रहें’, इस समय तक के मोहम्मद के लिए ही सही है। ईश्वर उनकी आत्मा को शांति दे।
परंतु यदि यह इस्लाम है तो इससे विरत हो जाने का दौर, पोप शाही की ईसाईयत का दौर भी इसके बाद मोहम्मद साहब के द्वारा ही आरंभ होता है। उसकी वास्तविकता को समझने के बाद हमारे सामने एक प्रश्नचिन्ह उभरता है। इस्लाम सलामती और शांति का मजहब है जिसका दावा करते हुए मोहम्मद साहब का नाम आते ही piece be upon him दुहराए बिना पहचान पूरी ही नहीं होती, या वह जिसका रास्ता उन्होंने एक विवशता मेें अपनाया था, परंतु वह सारे काम अल्लाह का हुक्म मिलने के बाद करते थे इसलिए उससे बाद के लिए दूसरा कोई रास्ता नहीं रह गया। उस राह के मुसाफिर उस पर चलें इस पर हमें आपत्ति हो तो भी उसे बदलना हमारे वश में नहीं। हम केवल यही निवेदन कर सकते हैं कि उसके बाद से हिंसा , दरिंदगी पर गर्व करने वाले मजहब को शांति और सुकून का मजहब न कहा जाए।