Post – 2019-06-29

तंत्र का ताना-बाना

हमें अपनी चर्चा में सांप और सीढ़ी का खेल खेलना पड़ता है। कुछ छू़टे हुए सूत्रों को उनके सही संदर्भ में रखने की विवशता है। हमें इस बात का ध्यान रखना होगा कि मोहम्मद साहब के इलहाम उनकी जरूरतों के अनुसार आते हैं।
उदाहरण के लिए जब मक्का छोड़कर मदीना जाने का समय आया, तो सूरा कुछ उसी भाव से आया जिसमें तुलसी ने लिखा था “तजहु मन हरि विमुखन को संग/ जा के संग कुबुधि ऊपजत है, परत भजन में भंग:
Follow, [O Muhammad], what has been revealed to you from your Lord – there is no deity except Him – and turn away from those who associate others with Allah.
यह भी एक कारण था जिससे उनकी अवज्ञा करने वाले उन्हें धूर्त कहते थे। परंतु मक्का में रहते उन्हें यह बोध था कि यदि जो कुछ भी होता है, अल्लाह की इच्छा से ही होता है तो यह भी अल्लाह की इच्छा से ही हो रहा होगा, इसलिए किसी दूसरे को, उन्हें, अपनी मर्जी के अनुसार चलाने का अधिकार नहीं:
But if Allah had willed, they would not have associated. And We have not appointed you over them as a guardian, nor are you a manager over them.सूरा 6.107

एक दूसरी बात यह है कि मोहम्मद साहब अपने को लिखने पढ़ने की योग्यता से रहित इसलिए बताते थे कि कहीं लोग यह न मान लें कि वह उन लोगों से कम समझदार हैं जिनके विचारों को दुहरा रहे हैं। इससे यह तो सिद्ध हो ही जाएगा कि यह इंसानी विचार है, अल्लाह का संदेश नहीं है। यदि वह पढ़े लिखे थे ही नहीं तो फिर किसी दूसरे के विचारों को पढ़ते ही कैसे?

उनकी एक जरूरत यह थी की प्राचीन महापुरुषों की परंपरा से अपने को जोड़कर उनसे भी अधिक प्रतिष्ठा प्राप्त करें; दूसरी यह कि यह सिद्ध करें कि वह अल्ला के निरंतर संपर्क में हैं, जिसका सौभाग्य उनसे पहले किसी पैगंबर को नहीं मिला था। इसलिए यहूदी और ईसाई मान्यताओं, उनके आप्त पुरुषों के विषय में भी जानकारियां न तो यहूदियों और ईसाइयों के संपर्क में आने के कारण प्राप्त थीं , न ही उनकी किताबों को पढ़ने के फलस्वरूप। इन्हें उनको वही अल्लाह स्वयं बताता था जिसने उनको पहले भेजा था। मोहम्मद और कुरान में श्रद्धा रखने वालों को इसमें कोई चूक नहीं दिखाई देगी, परंतु कोई अध्येता ऐसे सादृश्यों की उपेक्षा नहीं कर सकता।

मोहम्मद को मदीना जाने के लिए मनाने को 621 में मदीना से 12 लोग आए थे।
622 में 75 (73 पु. 2 म.) आए थे। वफादारी की प्रतिज्ञा के बाद मुहम्मद ने 12 लोगों को आमंत्रित किया। परंतु क्यों?
They stretched their hands forth, and he (pbuh) stretched his hand and they pledged their word by saying, “We pledge ourselves to obey in well and woe, in ease and hardship, and, speak the truth at all times, and that in Allah’s service we would fear the censure of none.” After they gave the pledge Allah’s Messenger (pbuh) said, “Bring me twelve leaders who have charge of their people’s affairs.” They produced nine from al-Khazraj and three from al-Aws. So the Messenger of Allah (pbuh) said to these Nuqaba (leaders), “You are the guardians of your people just as the disciples of ‘Isa, son of Maryam, were responsible to him while I am responsible for my people.” They went back to their beds and then back to their caravan and returned to Madinah. (History, 11 Second pledge of Aqaba : systemofislam.com).

यहां हम इसी परिघटना के दो अन्य पाठांतरों का उल्लेख करना चाहेंगे। पहला:
After that pledge, Al-Abbas ibn Ubadah ibn Nadla said to the Prophet (peace be upon him), ‘‘By Allah Who has sent you with the truth, if you wish, we will attack the people of Mina tomorrow with our swords.’ The Prophet (peace be upon him) said, ‘We have not been ordered to do this, but return to the group you are travelling with.’ Consequently, they returned to their travelling companions.
दूसरा:
To the chiefs of the tribes, he said: ‘I do not wish to force you to anything. Only permit any one who approves of my invitation (to the Faith) to receive it and protect me from being killed, that I may recite to you the book of Allah.’

ये प्रसंग इस्लामी इतिहास में एक नए मोड़ को समझने मे सहायक हो सकते हैं जिनको मुस्लिम इतिहासकार और धर्मवेत्ता न समझ सकते हैं, न समझ गए तो स्वीकार कर सकते हैं, क्योंकि ऐसा करने पर इस्लाम की अनन्यता पर आंच आती है । परंतु उनके आत्मराग से मुक्त होकर देखने वाला कोई भी व्यक्ति निम्न निष्कर्षों पर पहुंचे बिना नहीं कर सकता:
1. अभी तक जो समानधर्मियों का संगठन था, वह राजसत्ता के समानांतर एक धर्मसत्तातंत्र का रूप लेने जा रहा था।

2. मोहम्मद ने इसके लिए पोपतंत्र के ढांचे को अपनाते हुए इस बात का ध्यान रखा कि उनका तंत्र पूरी तरह किसी दूसरे की नकल न लगे।

3. इस तंत्र में सर्वोपरि मोहम्मद और बाद में उनके उत्तराधिकारी खलीफे हैं जिनके नीचे इमाम है और फिर दूसरे अमला जिनके बारे में अपने सीमित ज्ञान के कारण विस्तार से कुछ नहीं कह सकता, परंतु यह निवेदन कर सकता हूं कि यहां से ईसाइयत के ढांचे को मुहम्मद उसी तरह स्वीकार करते हैं जैसे ईसाइयत ने मामूली फेरबदल करते हुए बौद्ध संगठन के ढांचे को स्वीकार किया था।

4. मोहम्मद तब पैदा हुए थे जब ईसा भुला दिए गए थे, पोप ने अपने उनका स्थान ले लिया था, पर मुहम्मद उस संक्रमण बिंदु पर थे, जिसमें ईसा धर्मचेतना का अंग थे।

5. यह कथन सच है कि ईसा मसीह को काठी पर लटकाकर मार दिया गया, परंतु मरे नहीं। जिंदा हो गए। यह ईसा के बारे में भी सच है, मोहम्मद के बारे में भी सच है, गांधी के बारे में भी सच है। जिनके पास विचार है, वे शरीर के मर जाने के बाद भी मरते नहीं हैं, पुनर्जन्म पाते हैं। जानकारी कम है, चौथे किसी व्यक्ति के बारे नहीं जानता, परंतु यहां मैं याद दिलाना चाहता हूं कि अभी तक मोहम्मद काठी पर लटकाए जाने वाले ईसा के आदर्शों पर चल रहे थे। हिंसा में सराबोर कबीलों के बीच शांति के संदेश से अलग कोई क्रांतिकारी संदेश नहीं हो सकता था। मोहम्मद आज तक इसी का पालन कर रहे थे इसे ऊपर के उदाहरणों से समझा जा सकता है। उनके नाम के साथ बार-बार दोहराए जाने वाले ‘वह शांति के आगोश में रहें’, इस समय तक के मोहम्मद के लिए ही सही है। ईश्वर उनकी आत्मा को शांति दे।

परंतु यदि यह इस्लाम है तो इससे विरत हो जाने का दौर, पोप शाही की ईसाईयत का दौर भी इसके बाद मोहम्मद साहब के द्वारा ही आरंभ होता है। उसकी वास्तविकता को समझने के बाद हमारे सामने एक प्रश्नचिन्ह उभरता है। इस्लाम सलामती और शांति का मजहब है जिसका दावा करते हुए मोहम्मद साहब का नाम आते ही piece be upon him दुहराए बिना पहचान पूरी ही नहीं होती, या वह जिसका रास्ता उन्होंने एक विवशता मेें अपनाया था, परंतु वह सारे काम अल्लाह का हुक्म मिलने के बाद करते थे इसलिए उससे बाद के लिए दूसरा कोई रास्ता नहीं रह गया। उस राह के मुसाफिर उस पर चलें इस पर हमें आपत्ति हो तो भी उसे बदलना हमारे वश में नहीं। हम केवल यही निवेदन कर सकते हैं कि उसके बाद से हिंसा , दरिंदगी पर गर्व करने वाले मजहब को शांति और सुकून का मजहब न कहा जाए।

Post – 2019-06-28

धर्म का सत्ता-तंत्र में बदलना

हिजरत के साथ इस्लाम में वे प्रवृत्तियां पैदा हुई, जो मजहबी तंत्र की अनिवार्य आवश्यकताएं है। सत्ता है तो उत्तराधिकार की स्पर्धा भी होगी। यह भी इसके साथ ही आरंभ हो गई । मोहम्मद साहब की उम्र इस समय 52 वर्षा हो रही थी। तत्कालीन कल समाज की सामान्य आयु 60-65 वर्ष की हुआ करती थी। यह भी इसका एक कारण रहा हो सकता है। मुहम्मद के करीबी लोगों में तीन थे। पहला स्थान अली का था, जो उनके अभिभावक अबू तालिब के पुत्र थे, इस्लाम कबूल करने वालों में पहले थे, मुहम्मद के लिए जान देने और जान लेने के लिए तैयार रहते थे, और उनकी पुत्री फातिमा के पति थे। दूसरा स्थान अबू बक्र का था, जो पहले सुशिक्षित और संपन्न व्यक्ति थे जिन्होंने इस्लाम कबूल किया था और जिनकी पुत्री आयशा से मोहम्मद साहब ने स्वयं विवाह किया था और जो उनकी पत्नियों में सबसे अधिक चहेती थीं । एक तीसरा आकांक्षी जईद मोहम्मद भी हो सकता था, जिसे मुहम्मद ने दत्तक पुत्र बनाया था और वल्दियत दी थी। इस ओर हमारा ध्यान न जाता, यदि हिजरत के उन तीन दिनों में जब वे इसी गुफा में अबू बक्र के साथ छिपे हुए थे, अनेक ऐसी कहानियां न जुड़ जातीं जिनमें सभी अबू बक्र और उनके परिवार की मुहम्मद के प्रति भक्तिभाव दर्शाते उन्हें मुहम्मद के बाद दूसरा ‘थानी अथनेन’ उनके नाम के साथ न जुड़ जाता, उन्हें खलीफतुल नबी कहा जाता, कुरेशियों की पकड़ से बचाने के उनकी सलाह पर रात के समय चुपके से मदीना के उल्टी दिशा में आठ किलोमीटर की दूरी पर एक गुफा में छिपे रहने की समझदारी पर मुहम्मद द्वारा सत्यनिष्ठ, ( al-Siddîq, the truthful,” “the upright,” ) कहा जाना ।

यह स्पर्धा इसके बाद से लगातार अनेक निर्णायक मोड़ों पर देखने में आती है. जैसे बद्र की जंग में उनके पुत्र का जिसने अभी इस्लाम नहीं कबूल किया था उन्हें लड़ने के लिए ललकारना और उनका इसके लिए तैयार हो जाना और मुुहम्मद के मना करने पर मानना, मुहम्मद द्वारा 631 में हज को इस्लामी रूप देने के लिए तीन सो मुसलमानों के साथ मक्का भेजना और इसके बाद उनके साथ अमीर-उल-हज बन जाना, अगले साल अबू बक्र का मुहम्मद को लेकर हज के लिए जाना [एक अवसर पर तो मुहम्मद ने खुलकर कहा था कि मेरे ऊपर अबूबक्र के तन-धन से दूसरों से अधिक अहसान हैं और अगर मुझे अपने अनुयायियों में से किसी के खलील (जिगरी दोस्त) चुनना हो तो वही होंगे, लेकिन इस्लाम का बिरादराना भाव ही काफी है। मेरे मरने पर किसी मस्जिद का दरवाजा न खुले सिवाय अबू बक्र के (No doubt, I am indebted to Abu Bakr more than to anybody else regarding both his companionship and his wealth. And if I had to take a Khalil from my followers, I would certainly have taken Abu Bakr, but the fraternity of Islam is sufficient. Let no Door of the Mosque remain open, except the door of Abu Bakr.., सहीह अल-बुखारी. 1.8.456 व 5.58.244 इब्न अब्बास और 5.58.244 द्वारा बकौल विकीपीडिया.उद्धृत्)]

कहीं कोई दुविधा रह जाती है कि खिलाफत की समस्या मुहम्मद के जीवनकाल में ही हल नहीं की जा चुकी थी? परंतु दुविधा तो वहीं पैदा होती है जहां गढ़ने-जोड़ने का प्रयत्न बहुत साफ दिखाई देता है। यह सारी कहानियां अबू बकर के खलीफा बन जाने के बाद अधिकार का औचित्य सिद्ध करने के लिए लिखी गई हैं। और इस बात का भी संदेह किया जा सकता है उन्होंने कुरान का पाठ तैयार कराते हुए अपने पक्ष में आयतें उसमें जोड़ दीं।

शिया इतिहासकार इन्हीं घटनाओं की एक भिन्न व्याख्या देते रहे हैं, उदाहरण से लिए गुफा में छिप कर जान बचाने को अबू बक्र की कायरता सिद्ध करते रहे, दूसरी कहानियों को काल्पनिक बताते रहे।

कुछ ऐसी कहानियां भी हैं जिनसे यह सिद्ध होता है अबू बक्र अपनी व्यापारिक सूझबूझ से अधिक काम लेते थे। मोहम्मद के प्रति उनकी निष्ठा इतनी गहरी और साफ नहीं थी। यह स्पर्धा केवल अली और अबू बक्र के बीच में ही नहीं थी। विद्रोह उमर ने भी उसी समय किया था जब अबू बक्र जनाजे की सारी रस्म अदायगी अपने नियंत्रण में ले कर उन पर हुक्म चला रहे थे।

हमारी जानकारी में एक बात से लगता है जिससे लगे मुहम्मद साहब उन्हें अपना उत्तराधिकारी नहीं बनाना चाहते थे और अबुबक्र ने उनसे मक्कारी की थी। जब वह मरणासन्न थे और अपनी बिदाई काआभास भी दे चुके थे उस समय भी हथियार के बल पर इस्लाम के विस्तार के लिए वह उसी तरह चिंतित थे जैसे मरणासन्न शेरशाह कालिंजर के किले को जीतने के लिए बेताब।

प्रसंग वश यह याद दिला दें कि शेरशाह ने कालिंजर के किले को जीतने के पुख्ता इंतजाम कर लिए थे, परंतु उसके ही हुक्का यंत्र का गोला किले की दीवार से टकराकर वापस लौटा और उसके आघात से शेरशाह क्षत-विक्षत हो गया। प्राण बचे रहे, परंतु जीने की आशा नहीं। हकीम चंदन का लेप करते रहे, इत्र-फुलेल छिड़कते रहे पर राजस्थान की झुलसाने वाली लू में तड़पता हुआ होश और बेहोशी के बीच पल पल मौत के करीब जाते हुए भी शेरशाह विजेता के रूप में मरना चाहता था। उसका हालचाल जानने के लिए जब कोई आता तो उसे लौटा देता, यह इशारा करते हुए कि मोर्चे पर जाओ। वह मरा, परंतु यह समाचार सुनकर कि कालिंजर का अजेय किला जीत लिया गया है।

मोहम्मद के भाग्य में यह नहीं लिखा था।
Mohammed never liked to admit a defeat as final. the defeat at Muta was still remembered, and it was desirable action should be taken to cause it to be forgotten, and so and expedition was formed to proceed against the Byzantines. Usama was placed at the head of it, and so it is called the Sariya of Usama. The Prophet addressed Usama thus: ‘March in the direction of Muta where thy father was slain. Attack the enemy, set fire to their habitation and goods. Make haste to surprise the people before the news reaches them.’ But Muhammad was now seized with his last illness and the expedition did not set forth until after his death, when Abu Bakr directed it to proceed.(Canon Sell, The Life of Muhammad, 222)

परंतु यदि हम यह जानना चाहें कि यह अभियान सफल क्यों न हो पाया तो इसका कारण यह है जो काम शेरशाह के सिपहसालारों ने नहीं किया वह काम अबू बक्र ने नहीं किया। जिस व्यक्ति को इतने भरोसे का बताया जाता है उस अबू बक्र से जब मुहम्मद ने यह सोचकर कि ओसामा की उम्र केवल 18 साल है, उसकी मदद के लिए जाने को कहा, तो अबू बक्र ने उनके आदेश की अनसुनी कर दी। खलीफा बनने के बाद उसने क्या किया, यह मोहम्मद के प्रति उसकी निष्ठा का हिस्सा नहीं बन सकता। [When the fever developed he directed Abu Bakr to go to the war following Usama who was 18, but he mysteriously did not listen and lingered in Madina, Shias say desirous of becoming the successor.] शिया इतिहासकारों का आरोप गलत नहीं लगता।

मोहम्मद की दशा ऐसी थी, परंतु अबू बक्र उनकी तीमारदारी में नहीं लगे थे। उनकी मृत्यु की सूचना पाकर अपने गांव सुन्ना से घोड़े पर सवार हो कर आए (सुन्नी आज तक घोड़े पर ही सवार हैं) :-

When Muhammad died Muslims gathered in Al-Masjid al-Nabawi and there were suppressed sobs and sighs. Abu Bakr came from his house at As-Sunh (a village) on a horse where he had been with his new wife. He dismounted and entered the Prophet’s Mosque, but did not speak to anyone until he entered upon ‘Aa’isha. In Sunni accounts he went straight to Muhammad who was covered with Hibra cloth (a kind of Yemenite cloth). He then uncovered Muhammad’s face and bowed over him and kissed him and wept…

यह कुछ विचित्र लगता है कि मुसलमानों ने भी अपने पैगंबर के साथ वैसा ही विश्वासघात किया जैसा ईसाईयों ने ईसा मसीह के साथ किया था और अपना इल्जाम यहूदियों के सर मढ़ दिया था। मोहम्मद को सूली पर नहीं चढ़ना पड़ा, पर अपने अंतिम दिनों में उन्हें किस वेदना से गुजरना पड़ा होगा इसका अनुमान हम नहीं लगा सकते।

खलीफों का इतिहास, मुस्लिम शासकों का इतिहास, मुस्लिम समुदाय इतिहास अंधविश्वास पर इतना बल इसलिए देता है कि यह अपनों के साथ अपनों के विश्वासघात का इतिहास बन कर रह जाता है। आज के भारत में भी, जब अल्पसंख्यक के नाम पर अधिक उदारता दिखाई गई, खुराफात के सूचकांक में वृद्धि ही देखने में आई। मुसलमानों को, खास कर उनके बुद्धिजीवियों को इस दिशा में ऐसा पर्यावरण तैयार करना चाहिए जिसमें मुसलमान अपनों का और दूसरों का विश्वास अर्जित कर सकें, शांति, सद्भाव और सद्विश्वास से स्वयं भी आगे बढ़ सकें और देश की प्रगति में भी बाधक न बने। मुस्लिम देश भारतीय मुसलमानों से प्रेरणा ले सकें।

Post – 2019-06-27

आला हजरत

राजनीति और इस्लामी परंपरा का खेल मुहम्मद साहब के मदीना जाने के निर्णय के साथ ही आरंभ हो जाता है । पहली बार उन्हें मदीना जाने के लिए निमंत्रित करने के लिए 12 आए थे, उन्होंने जो करार किया था उसमें मुहम्मद साबब को पैगंबर मानना और ईमानदारी, दया, दान आदि नेतिक आचारों को स्वीकार करने का प्रावधान था। “a formal pledge of allegiance at Muhammad’s hand, promising to accept him as a prophet, to worship none but one God, and to renounce certain sins such as theft, adultery, and murder. This is known as the “First Pledge of al-Aqaba.” (विकी) इस नैतिकता के कारण उसे बाद में जनाना करार की सज्ञा दी गई।

दूसरी बार जब 73 पुरुष और दो महिलाएं मुहम्मद को मक्का ले जाने का अनुरोध लेकर उनके पास पहुंचे और उन्होंने एक दूसरे की रक्षा के लिए प्राण निछावर करने की बात की तो यह उनके सोच में एक नया मोड़ था । इससे पहले गलत आचरण करने वाले को दंड देने वाला अल्लाह था, इन्सान द्वारा बदले की कार्यवाई करते हुए जान लेने या जान देने का विचार नहीं आया था। यहां से जिहाद का आरंभ होता है। ‘Yes, by Him Who sent you with the truth (as a Prophet), we will protect you like we protect ourselves and families.’ Therefore, the Prophet (peace be upon him) took his pledge. Al-Baraa continued, ‘By Allah, we are sons of war, and the weapons of war are like toys in our hands; we have inherited this from our forefathers.’
जो लोग कहते हैं जिहाद दो तरह का होता हो, एक अपनी कमजोरियों के विरुद्ध और दूसरा इस्लाम या मुसलमानों की रक्याा के लिए वे हिंदुों को पाठ पढाते हैं, असलियत पर परदा डालते हैं। अक़बा का पहला करार जिसमें आत्मशुद्धि का विधान था वह जिहाद की कोटि में ही नहीं आता। इसे इस्लाम के अधिकारी विद्वान इब्न इशहाक़ की इबारत में रखना चाहेंगे:
The apostle had not been given permission to fight or allowed to shed blood before the second ‘Aqaba.
This second pledge of ‘Aqaba introduced the concept of jihad. ( ibn Ishaq:Sirat Rasul Allah. (A. Guillaume, Trans.) Karachi: Oxford University Press, p208.) cited in Unravelling Islam.com.

मक्का में मुसलमानों की संख्या अधिक नहीं थी। इस्लामीकरण अभियान के छठें साल में उमर इब्न उल खत्ताब के बाद से इस्लाम की स्वीकार्यता में विशेष प्रगति नहीं हुई थी।

अब पैगंबर के सुझाव पर वे सभी मक्का छोड़कर भागने लगे, इससे पहले भी उनको अपने विश्वास की रक्षा के लिए , अबीसीनिया जाना पड़ा था, जिसे पहली हिजरत कहा जाता है ।

दूसरी हिजरत में , अपना मक्का का अपना घर-बार छोड़ कर मदीना जाने की कोशिश में सभी सीधे मदीना नहीं पहुंच थे। हिजरत अकेले मुहम्मद ने नहीं इन सभी ने की थी। वे मक्का से तर-वितर हो गए थे पर सभी मदीना नहीं पहुंच पाए थे, उनका आना मुहम्मद साहब के मदीना पहुंचने के बाद भी जारी रहा। मजहब देश से अधिक प्रिय है, इसकी रक्षा के लिए देश छोड़ा जा सकता है, यहां से जुड़ी है यह सोच कि मुसलमान का देश नहीं होता, केल दीन होता है। यह अधूरा कथन है। मुसलमान के मां, बाप, भाई कोई नहीं होता, केवल दीन होता है, यह समझ भी इसी हिजरत की देन लगती है। अपने समसे खैरख्वाह चचा अबू तालिब से इस्लाम न कबूल करने के कारण मुहम्मद अल्लाह से उनके लिए दुआ करते रहे, पर बाद में उनको जहन्नुम का आग के हवाले कर बैठे।

मुहाजिरों के दुख, त्याग और अपने प्रति निष्ठा के कारण मदीना में सामाजिक स्तरभेद में पहला स्थान मुहाजिरों का था। दूसरा अंसरों का, कहें ऐसे लोगों का जो मदीना के निवासी थे, परंतु समय रहते, अर्थात् बलप्रयोग आरंभ होने से पहले से इस्लाम कबूल कर चुके थे। तीसरा नाममात्र के मुसलमानों का स्तर था जो मुसलमानों की संख्या बढ़ने के साथ इस्लाम न कबूल करने वाले अरबों पर किए जाने वाले अत्याचार के कारण या इसके अंदेशे से इस्लाम कबूल कर बैठे थे। वे दिखावे के लिए मुसलमान थे पर अपने पुराने रीति रिवाज छोड़ने को तैयार नहीं थे और इसलिए जिन पर पूरा भरोसा नहीं किया जा सकता था और जो मौका पाकर विश्वासघात भी कर सकते थे। इस्लाम में सभी एक समान हैं, यह एक भ्रम है। सामाजिक स्तरभेद इसके साथ ही आरंभ हो गया था। आगे कुछ और कसोटियाँ जुड़ती गईं।

यदि आपको यह समझने में कठिनाई होती रही हो की विभाजन के बाद पाकिस्तान में जाने वाले मुसलमान अपने को मुहाजिर क्यों कहते थे और पाकिस्तान पर वहां के निवासियों से ऊपर अपना हक क्यों जताते थे तो इसका उत्तर यहां मिलेगा। वे पाकिस्तान घोषित किए गए भू भाग से अपनी जान बचाकर भारत आने वाले हिंदुओं की तरह शरणार्थी नहीं थे। उन्होंने हिजरत की थी , इसलिए मुहाजिर थे और इस्लामी नियम के अनुसार स्थानीय लोगों से भी ऊपर मुहाजिरों का अधिकार होता है, इसका विधान हजरत मोहम्मद कर चुके थे।

पाकिस्तान के पुराने भू भाग में पहले के सभी निवासियों को इनके पधारने के बाद, अपने घर में रहते हुए भी, बेघर बार होने की पीड़ा क्यों सहनी पड़ी, और पाकिस्तान के आंतरिक विक्षोभ की जड़ें कितनी गहरी हैं इसका उत्तर भी यहीं मिलेगा। भारत से पाकिस्तान गए मुसलमान मुहाजिर हैं, पहले दर्जे के नागरिक, पाकिस्तान के पुराने मुसलमान अंसर हैं, दूसरे दर्जे के मुसलमान।

परंतु आप लाख चाहे तो, मनमोहन सिंह की नालायकी के कारण सोनिया नियंत्रित कांग्रेस के इस फार्मूले का उत्तर नहीं पा सकते कि भारत की परिसंपत्तियों पर सबसे पहला अधिकार अल्पसंख्यकों का है। पूरे इतिहास में इतनी उल्टी सोच वाला कोई राजनेता तलाशे न मिलेगा।

Post – 2019-06-25

सूत्रवत

1. जो लोग आत्म निरीक्षण नहीं कर सकते, आलोचना नहीं झेल सकते, उन्हें किसी की आलोचना करने का अधिकार नहीं है।

2. जो लोग उन किताबों की बात करते हैं, जो किसी भिन्न देश-काल में, किन्ही व्यक्तियों के अनुभव पर, उनकी सही या गलत समझ का निष्कर्ष होती हैं, वे अपने समय को, इसकी समस्याओं को, समझने में ही नहीं, देखने में भी भूल कर सकते हैं। वे उन कथनों का मर्म भी नहीं समझ पाते जिनको दोहराना उनकी आदत बन चुकी होती है। ऐसे लोगों को ज्ञान की गठरी का बोझ ढोने वाली खूटी की संज्ञा दी गई। स्थाणुरयं भारहारः किलाभूत। लगता है ऐसे लोगों से बहुत पुराने समय से चिंतकों का पाला पड़ता रहा है ।

3. चिंतक, अपने समय की समस्याओं को समझने के लिए पुरातन ज्ञान के सार्थक अंशों का उपयोग करता है। स्थाणु उस जगह से टस से मस नहीं होता, और रटे हुए सूत्रों के अनुसार यथार्थ को ही बदल कर अपनी स्वार्थ सिद्धि करना चाहता है, और पूरे समाज के लिए असाध्य समस्याएं पैदा करता चला जाता है।

4. ऐसा व्यक्ति, अपने समाज के लिए, अपनी समस्त ज्ञान संपदा के होते हुए भी व्याधिग्रस्त की तरह होता है और वह भी ऐसे व्याधिग्रस्त की तरह जिस के संपर्क में आने पर व्याधि का संक्रमण होता है ।

5. जिस यथार्थ को मैं देखता हूं उसमें अपने को हिंदू कहने वाले, हिंदू रीति-रिवाज से अपने सभी संस्कार करने वाले या करने की इच्छा रखने वाले, जब अपने विवाह में दूसरे हिंदुओं की तरह घोड़ी पर सवार होकर निकलते हैं तो उन पर हमला कर दिया जाता है। उनको अपमानित किया जाता है। ऐसे असंख्य उदाहरण हैं, रोज देखने और सुनने में आते रहते हैं जिनसे हम सभी परिचित हैें, इसलिए उनकी तालिका प्रस्तुत करने की जरूरत नहीं । इतनी यातना सह कर भी वे अपने को हिंदू कहते रहे, हिंदुत्व की रक्षा में इससे बड़ा बलिदान किस सवर्ण ने दिया है?

6. बंदी बनाए गए , अपना धर्म नहीं छोड़ेंगे, कोई भी यातना सह लेंगे, इस कठिन व्रत का निर्वाह करने वाले, इस व्रत के कारण, यातना देकर भंगी बना दिए गए राजपूतों से किस तरह का व्यवहार किया जाता है। हिंदुत्व की रक्षा के लिए किस ब्राह्मण ने इससे बड़ा त्याग किया- पूरे इतिहास में, पूरे पुराण में?

6. अपने धर्म की रक्षा के लिए इतना बड़ा बलिदान देने वालों को जो सम्मान मिलना चाहिए था ब्राह्मणवाद के कारण उन्हें नहीं मिल पाया और जिस हिंदुत्व की रक्षा के लिए उन्होंने इतना बड़ा बलिदान दिया, वह क्या वर्णवाद था? वह वही मूल्यव्यस्था थी जिसे सनातन मूल्यव्यवस्था कहा जाता है जिसका वर्णवाद/ब्राह्मणवाद से सनातन विरोध है।

7. मैं संवादविमुखता के विषाक्त परिवेश में संवाद जारी रखना चाहता हूं, विवाद को कम करने के लिए, समझ को दुरुस्त करने के लिए।

8. यह एक ऊँची कक्षा है। इसमें प्रवेश की योग्यता जिनमें नहीं है उन्हें स्वयं बाहर हो जाना चाहिए, अन्यथा अपनी आशंकाएं बिंदुवार और अपने सुझाव हर मामले में तर्क का और प्रमाण के साथ, अथवा नम्र जिज्ञासा के रूप में रखना चाहिए। अवांछित लोगों की अहमहमिका से विचारविमर्श प्रदूषित होता है।

Post – 2019-06-24

मुहम्मदन और मुसलमान

घालमेल सभी मजहबों में देखने आता है। यह सामाजिक और राजनीतिक आकांक्षाओं के कारण होता है। हिंदू समाज को ही लें तो ब्राह्मणवाद एक मजहब है। इसके साथ एक व्यवस्था जुड़ी हुई है और उस व्यवस्था में कुछ लोगों के ऐसे हित जुड़े हुए हैं जिनके कारण दूसरों का अहित होता है और फिर भी उसे एक नैतिक व्यवस्था के रूप में प्रस्तुत किया जाता है।

हम धर्म को जिस रूप में जानते हैं और जिसका सहारा लेकर हम हिंदुत्व की श्रेष्ठता सिद्ध करते हैं, वह सामाजिक व्यवस्था और प्रच्छन्न राजनीतिक हितबद्धता से ऊपर समस्त संसार, समस्त मानवता, समस्त प्राणि-जगत के कल्याण के लिए अपेक्षित मूल्यप्रणाली है, जिसे हम सनातन धर्म कहते हैं, और इसके आधार पर प्राणिमात्र ही नहीं प्राकृत पदार्थों के भी खरे पन और खोटे पन की पहचान करते हैं। दाहकता है तो आग है, नहीं है तो आग का भ्रम है।

मामला इतना इकहरा भी नहीं कि हम दोनों के बीच कोई संबंध ही न जोड़ पाएँ।

ब्राह्मणवाद मजहब होने के कारण सनातन धर्म की तरह सर्व कल्याणकारी तो नहीं है, परंतु दुनिया के किसी समाज की तुलना में, ब्राह्मणवादी समाज में सनातन मूल्यों के लिए जितना अवकाश है उतना प्राच्य जगत को छोड़कर अन्यत्र कहीं नहीं पाया जा सकता। अतीत में ही नहीं वर्तमान में भी। विश्व राष्ट्र संघ के दस्तावेजों में इसे उसी तरह स्थान दिया गया है, जैसे ब्राह्मणवाद में, परंतु पालन नहीं हो पाता।

आदर्श एक खयाल है जिस तक पहुंचने की कोशिश में हम किसी न किसी मंजिल पर अटके रह जाते हैं। दुर्भाग्य अटके रह जाने में नहीं है, दुर्भाग्य आगे बढ़ने की आकांक्षा के समाप्त हो जाने में है। हम जहां हैं, जिस दिशा में हैं, उसी में अपने को सही सिद्ध करने की आदत में है। सितारों से आगे के जहां की तलाश करने की इच्छा शक्ति के नष्ट हो जाने में है।

इसी परिप्रेक्ष्य में हम इस्लाम धर्म और मोहम्मदी मजहब के अंतर को समझ सकते हैं और जिस अनुपात में अपनी सीमाओं से ऊपर उठने का प्रयत्न करते हैं उसी अनुपात में दूसरों से ऊपर उठने और आगे बढ़ने की अपेक्षा रख सकते हैं।

दोनों के बीच वैसा ही घालमेल किया जाता है जैसा ब्राह्मणवाद और सनातन धर्म के बीच। सभी मुसलमान इस्लाम के पाबंद नहीं है, जैसे सभी हिंदू सनातन धर्म के पालन करने वाले नहीं हैं।

इस्लाम उनके लिए जीवित है जो शांति और सौहार्द के लिए काम करते हैं । जो स्वयं सोचते हैं और किसी किताब, किसी पैगंबर के मोहताज नहीं रहते। यह उनका धर्म है जो अपने दिमाग से काम लेते हैं, जो अपने समय में रहना चाहते हैं, जो अपने परिवेश से समायोजित हो कर रहना चाहते हैं, जिनकी संख्या कम होती गई है, जिनकी चिंता अपनी संख्या में कमी आने के अनुपात में बढ़ती चली गई है, जो अपने को बचाने के लिए इस्लाम की वापसी चाहते हैं और मुहम्मदी दासता से मुक्त होना चाहते हैं।

जिस कुरान का मुहम्मदन अक्षरशः पालन करना चाहते हैं, वह मुहम्मद साहब के इल्हामों का विश्वसनीय अभिलेख नहीं है। उसे उस्मानी काल में 644 के बाद, अर्थात मोहम्मद साहब के देहावसान के 11 साल बाद, एक विवादास्पद खलीफा उस्मान की जरूरतों के अनुसार तैयार किया गया, या जो पहले से चला आ रहा पाठ था उसमें रद्द-बदल किया गया।

ऐसा सभी प्राचीन अभिलेखों के साथ किया गया है। हमें रामायण के मूल पाठ का पता नहीं है, यद्यपि यह ज्ञान है कि मूल पाठ उपलब्ध रामायण से भिन्न था। हमारी विवशता है कि यह जानते हुए भी कि रामायण या महाभारत अपने मूल पाठ से हट चुके हैं, इसके बाद भी उपलब्ध पाठ पर ही भरोसा करना पड़ता है।

दूसरे ऐसा करते हैं तो हमें उनके विश्वास का सम्मान करना चाहिए। हम केवल इस बात की छूट ले सकते हैं इतिहासकार के रूप में इस सामग्री पर विचार करते हुए उस मूल सत्य तक पहुंचने के साधनों का उपयोग करते हुए, हमारी समझ से सचाई का जो रूप सामने आता है उसे सबके सामने निर्बंध और निसंकोच होकर प्रस्तुत करने का प्रयत्न करें। अपनी ज्ञान सीमा में, कल हम यही करने का प्रयत्न करेंगे।

Post – 2019-06-23

हिजरत (ग)

मोहम्मद साहब अपने विचारों का प्रचार नहीं कर पा रहे थे। काबा में तीर्थ यात्रा के लिए दूरदराज से आने वाले लोगों के बीच ही वह अपने मत का प्रचार कर सकते थे। इसकी छूट स्वयं कुरेशियों ने दी थी। उनके अपने देवी-देवता बचे रहें, दूसरों को वह क्या सिखाते हैं इससे उन्हें कोई मतलब न था। इस प्रतिबंध को छोड़कर उनको, उनके मतावलंबियों को, कोई परेशानी न थी। उनका लक्ष्य इससे पूरा नहीं होता था। यदि प्रचार मक्का से बाहर के लोगों के बीच ही करना था तो उन्हें यथ्रीब से 621 में आए हाजियों का अनुरोध मान कर उनके साथ चला जाना चाहिए था। परंतु वह स्वयं इसलिए नहीं गए कि वहां वे सुरक्षित अनुभव नहीं कर रहे थे। अर्थात् वह मक्का में अधिक असुरक्षित अनुभव कर रहे थे। इसका कारण क्या हो सकता है?

मदीना (यथ्रीब)
यथ्रीब जिसे मोहम्मद साहब के पहुंचने के बाद मदीना नाम प्राप्त हुआ, पहले नखलिस्तान के रूप में जाना जाता था। नख्ल= खजूर, नखलिस्तान= खजूर का प्रदेश। आज भी यहां से 300000 टन खजूर का निर्यात होता है । इसका कारोबार किन लोगों के हाथ में था, इसकी जानकारी हमें नहीं है, परंतु संभव है, इसमें प्रमुख भूमिका यहूदियों की रही हो जिसके कारण वे अधिक समृद्ध थे और स्थानीय अरबों से उनकी तनातनी चलती थी।
मक्का लाल सागर के पूर्वी तट पर दिसावर व्यापार का प्रधान केंद्र था। यूरोप जाने वाला भारतीय माल जहाजों के द्वारा यहां पहुंचता था और यहां से सीरिया और वहां से आगे। मक्का से यथ्रीब साढ़े चार सौ किलोमीटर दूरी पर है। रेगिस्तान के बीहड़ रास्ते में पानी की सुविधा होने के कारण कारवां इससे होकर गुजरा करता था। यथ्रीब के अरब सौदागरी भी करते थे और रहजनी भी कर लिया करते थे। रहजनी को उनके बीच शान की बात समझा जाता था।

मोहम्मद साहब से अपनी जिस खानदानी बहादुरी की डींग उन्होंने भरी थी, वह युद्ध के मैदान से अधिक लूटपाट से जुड़ी थी। इसी को लेकर उनकी आपस में भी ठनती रहती थी । उनकी लूटपाट के शिकार होने वाले काफिले मक्का के सौदागरों के ही होते थे, इसलिए मक्का के लोग यथ्रीब से शत्रुता रखते थे और यथ्रीब के अरब मक्का वालों को शिकार बनाते थे। एक का दुश्मन दूसरे का दोस्त माना जाता था।

मोहम्मद साहब स्वयं व्यापारी यात्राओं पर जाते रहे थे इसलिए इनके विषय में उन्हें अनुभव भी रहा होगा। यही कारण है कि मक्का में अनेक असुविधाओं के होते हुए भी, वह यथ्रीब की तुलना में अधिक सुरक्षित अनुभव कर रहे थे।और अगले साल 622 ई. में जब उन्होंने कसम खाई कि वे उनकी सुरक्षा अपने परिवार के लोगों की तरह ही करेंगे उसके बाद उन्होंने मक्का से मदीना में जाकर बसने का निर्णय किया।

कुरैशियों को मुसलमानों के मक्का छोड़कर जाने से परेशानी नहीं थी। परेशानी इस बात को लेकर पैदा हुई वे उनके दुश्मनों के साथ दोस्ती करने जा रहे हैं और उनसे मिलकर बदला ले सकते हैं। बाद की घटनाओं ने उनकी आशंका को सही सिद्ध किया ।

उनका यह सुनिश्चित करना कि मुहम्मद किसी हालत में मक्का से बाहर न जाने पाएं, इसी का परिणाम था और संभव है इसी कारण उन्होंने मोहम्मद की जान लेने की भी योजना बनाई हो । कहते हैं कि अपने हिज्र की रात को उन्होंने अपनी जगह अली को सोने को राजी कर लिया और इस तरह चकमा देख कर गायब हो गए। निकल भागने के बाद अबू बक्र के साथ 3 दिन तक वह एक गुफा में छिपे रहे। इस बीच उनकी चारों तरफ खोज होती रही। कुछ लोग गुफा के पास भी पहुंचेे परंतु वहां तक पहुंच नहीं पाए । चौथे दिन मोहम्मद मदीना की यात्रा पर रवाना हुए। यह कहानी सूरा तौबा की एक आयत में उतरी लगती है।
If ye help him not, still Allah helped him when those who disbelieve drove him forth, the second of two; when they two were in the cave, when he said unto his comrade: Grieve not. Lo! Allah is with us. Then Allah caused His peace of reassurance to descend upon him and supported him with hosts ye cannot see, and made the word of those who disbelieved the nethermost, while Allah’s Word it was that became the uppermost. Allah is Mighty, Wise. ﴾40﴿

वह एक ऊंटनी पर सवार होकर निकले थे। अपने लंबे सफर में वह कहां कहां रुके यह हमारी चिंता का विषय नहीं परंतु अपने बाल बच्चों को लाने के लिए भी उन्होंने जईद को भेजा । काबा में इस बीच उनके साथ किसी तरह का दुर्व्यवहार नहीं किया गया था। वे सम्मान सहित उनके पास पहुंच गए।

मदीना में उन्होंने अपने को हर तरह के बवाल से अलग रखा। एक मस्जिद कायम की । मस्जिद के पूरब तरफ अपनी पत्नियों के लिए बहुत मामूली किस्म की झोपडियां बनाई ।

मदीना में उन्हें और दूसरे मुसलमानों को जितनी आर्थिक तंगी का सामना करना पड़ा वैसी तंगी उन्होंने इससे पहले कभी नहीं देखी थी। दिनोंदिन उन्हें खजूर खाकरअपने दिन काटने पड़े। परंतु इनका भी हमारे लिए उतना महत्व नहीं है जितना इस बात का कि मदीना में पहुंच कर, धरती पर अमन का पैग़ाम फैलाने वाले पैगंबर के दिन पूरे हो गए। मोहम्मद वही रहा, पर पैगंबर का स्थान सिपहसालार ने ले लिया। अमन का मसीहा जंगजू में बदल गया। यह मेरी खोज नहीं है, इसे कैनन सेल ने बहुत सटीक ढंग से बयान किया है। Mohammed failure at Mecca was that of the prophet; his triumph in Medina was that of the chieftain and the conqueror. मेरी उनसे सहमति मात्र है।

इसमें मैं केवल अपनी ओर से इतना और जोड़ना चाहूंगा कि मक्का में अल्लाह के पैगाम मोहम्मद तक पहुंचते थे, मदीना में मोहम्मद जो चाहता और करता है उसकी ताईद अल्लाह को इल्हाम के रूप में करना पड़ता है।

यदि हम अल्लाह के स्थान पर अंतरात्मा को रखें और इल्हाम को अंतरात्मा की आवाज कहें तो हम कहेंगे अंतरात्मा ने उनका साथ छोड़ दिया या उसकी आवाज कमजोर पड़ गई। उसका स्थान संकल्प शक्ति ने ले लिया। जो ठान लिया वह करना है। जो करते हैं वह गलत नहीं है उसे सही सिद्ध होना ही पड़ेगा। पहले जो दुनिया की नजर में गलत था उससे बचना था मोहम्मद ने जो कुछ किया सही है। सही और गलत का फैसला इस बात से होगा मोहम्मद ने क्या किया और क्या नहीं किया और क्या न करने को कहा।

पहले अल्लाह के फरिश्ते ने मोहम्मद को दबोच कर कहा था, कलमा पढ़, अल्लाह के अलावा कोई अल्लाह नहीं है, अल्लाह से बड़ा कोई नहीं है। मक्का में पैगंबर अल्लाह से छोटा और उसके फरिश्ते का मोहताज था, मदीना में कलमा गलत हो गया। मोहम्मद अल्लाह से बड़ा हो गया। आप अल्लाह की आलोचना कर सकते हैं, मोहम्मद की नहीं। अल्लाह ने जो कुछ बनाया है उसमें गलतियां निकाली जा सकती हैं। मोहम्मद ने जो कुछ कहा या किया या जिस रूप में सुना उसमें कोई गलती नहीं तलाशी जा सकती।

पहले फरिश्ते अल्लाह के ताबेदार थे, अब मोहम्मद के ताबेदार हो गए चाहे तो उन्हें फरिश्ता माने, न चाहे तो शैतान करार दे दे।

यदि मक्का में इस्लाम था, अमन और ईमान का निर्वाह था, तो मदीना में सभी की परिभाषाएं उलट गई। अल्लाह अल्लाह न रहा, अल्लाह के बंदे मोहम्मद के बंदे बनने की प्रतिस्पर्धा में शामिल हो गए। इस्लाम समाप्त हो गया, मोहम्मदवाद आरंभ होगया। विश्व इतिहास की यह सबसे बड़ी दुर्घटना है जिसमें इस्लाम ने सुसाइड कर के मुहम्मदवाद के रूप में नया अवतार लिया। अपने को मुसलमान कहने वालों में मुसलमान कोई नहीं है मुहम्मदन पूरी दुनिया में फैल गए हैं और विश्व मानवता के लिए चुनौती बन गए है।

Post – 2019-06-23

हिजरत (ग)

मोहम्मद साहब अपने विचारों का प्रचार नहीं कर पा रहे थे। काबा में तीर्थ यात्रा के लिए दूरदराज से आने वाले लोगों के बीच ही वह अपने मत का प्रचार कर सकते थे। इसकी छूट स्वयं कुरेशियों ने दी थी। उनके अपने देवी-देवता बचे रहें, दूसरों को वह क्या सिखाते हैं इससे उन्हें कोई मतलब न था। इस प्रतिबंध को छोड़कर उनको और उनके मतावलंबियों में से किसी को से कोई परेशानी न थी। उनका लक्ष्य इससे पूरा नहीं होता था। यदि प्रचार मक्का से बाहर के लोगों के बीच ही करना था तो उन्हें यथ्रीब से 621 में आए हाजियों का अनुरोध मान कर उनके साथ चला जाना चाहिए था। परंतु वह स्वयं इसलिए नहीं गए कि वहां वे सुरक्षित अनुभव नहीं कर रहे थे। अर्थात् वह मक्का में अधिक असुरक्षित अनुभव कर रहे थे। इसका कारण क्या हो सकता है?

मदीना (यथ्रीब)
यथ्रीब जिसे मोहम्मद साहब के पहुंचने के बाद मदीना नाम प्राप्त हुआ, पहले नखलिस्तान के रूप में जाना जाता था। नख्ल= खजूर, नखलिस्तान= खजूर का प्रदेश। आज भी यहां से 300000 टन खजूर का निर्यात होता है । इसका कारोबार किन लोगों के हाथ में था, इसकी जानकारी हमें नहीं है, परंतु संभव है, इसमें प्रमुख भूमिका यहूदियों की रही हो जिसके कारण वे अधिक समृद्ध थे और स्थानीय अरबों से उनकी तनातनी चलती थी।
मक्का लाल सागर के पूर्वी तट पर दिसावर व्यापार का प्रधान केंद्र था। यूरोप जाने वाला भारतीय माल जहाजों के द्वारा यहां पहुंचता था और यहां से सीरिया और वहां से आगे। मक्का से यथ्रीब साढ़े चार सौकिलोमीटर दूरी पर है। रेगिस्तान के बीहड़ रास्ते में पानी की सुविधा होने के कारण कारवां इससे होकर गुजरा करता था। यथ्रीब के अरब सौदागर भी करते थे और रहजनी भी कर लिया करते थे। रहजनी को उनके बीच शान की बात समझा जाता था। मोहम्मद साहब से अपनी जिस खानदानी बहादुरी की डींग उन्होंने भरी थी, वह युद्ध के मैदान से अधिक लूटपाट से जुड़ी थी। इसी को लेकर उनकी आपस में भी ठनती रहती थी । उनकी लूटपाट के शिकार होने वाले काफिले मक्का के सौदागरों के ही होते थे, इसलिए मक्का के लोग यथ्रीब से शत्रुता रखते थे और यथ्रीब के अरब मक्का वालों को। एक का दुश्मन दूसरे का दोस्त माना जाता था। मोहम्मद साहब स्वयं व्यापारी यात्राओं पर जाते रहे थे इसलिए इनके विषय में उन्हें अनुभव भी रहा होगा। यही कारण है कि मक्का में अनेक असुविधाओं के होते हुए भी, वह यथ्रीब की में अधिक सुरक्षित अनुभव कर रहे थे।और अगले साल 622 ई. में जब उन्होंने कसम खाई कि वे उनकी सुरक्षा अपने परिवार के लोगों की तरह ही करेंगे उसके बाद उन्होंने मक्का और मदीना में जाकर बसने का निर्णय किया।

कुरैशियों को मुसलमानों के मक्का छोड़कर जाने के लिए परेशानी नहीं थी। परेशानी इस बात को लेकर पैदा हुई वे उनके दुश्मनों के साथ दोस्त करने जा रहे हैं और उनसे मिलकर बदला ले सकते हैं। बाद की घटनाओं ने उनकी आशंका को सही सिद्ध किया ।

उनका यह सुनिश्चित करना कि मुहम्मद सी हालत में मक्का से बाहर न जाने पाएं इसी का परिणाम था और संभव है इसी कारण उन्होंने मोहम्मद की जान देने की भी योजना बनाई हो । कहते हैं कि अपने कि हिज्र की रात को उन्होंने अपनी जगह अली को सोने को राजी कर लिया और इस तरह चकमा देख कर गायब हो गए। निकल भागने के बाद अबू बक्र के साथ 3 दिन तक वह एक गुफा में छिपे रहे। इस बीच उनकी को चारों तरफ खोज होती रही। गुफा के पास भी पूछे परंतु वहां तक पहुंच नहीं पाए 4 दिन के चौथे दिन मोहम्मद मदीना की यात्रा पर रवाना हुए। यह कहानी सूरा तौबा की एक आयत में उतरी लगती है।
If ye help him not, still Allah helped him when those who disbelieve drove him forth, the second of two; when they two were in the cave, when he said unto his comrade: Grieve not. Lo! Allah is with us. Then Allah caused His peace of reassurance to descend upon him and supported him with hosts ye cannot see, and made the word of those who disbelieved the nethermost, while Allah’s Word it was that became the uppermost. Allah is Mighty, Wise. ﴾40﴿
वह एक ऊंटनी पर सवार होकर निकले थे। अपनी लंबे सफर में वह कहां कहां रुके यह हमारी चिंता का उनसे नहीं परंतु अपने बाल बच्चों को लाने के लिए भी उन्होंने जी को भेजा । काबा में इस बीच उनके साथ किसी तरह का दुर्व्यवहार नहीं किया गया था। 100 सम्मान सहित उनके पास पहुंच गए। मदीना में उन्होंने अपने को हर तरह की बवाल से अलग रखा एक मस्जिद खान की मस्जिद के पूरब तरफ अपनी पत्नियों के लिए बहुत खुश थी यह ऐसी झोपडियां बनाई । यहां उन्हें और दूसरे मुसलमानों को जितनी आर्थिक तंगी का सामना करना पड़ा वैसी तंगी उन्हें इससे पहले कभी नहीं देखी थी। दिनोंदिन उन्हें खजूर अगर अपने दिन काटने पड़े। परंतु इनका भी हमारे लिए उतना महत्व नहीं है जितना इस बात की में पहुंच कर धरती पर अमन का पैग़ाम फैलाने वाले पैगंबर दिन पूरे हो गए। मोहम्मद वही रहा, पर पैगंबर का स्थान सिपहसालार ने ले लिया। अमन का मसीहा जंगजू में बदल गया। यह मेरी खोज नहीं है, इसे सेल ने बहुत सटीक ढंग से बयान किया है। Mohammed failure at Mecca was that of the prophet; his triumph in Medina was that of the chieftain and the conqueror. मेरी उनसे सहमति मात्र है। इसमें मैं केवल अपनी ओर से इतना और जोड़ना चाहूंगा कि मक्का में अल्लाह के पैगाम मोहम्मद तक पहुंचते थे, मदीना में मोहम्मद जो चाहता और करता है उसकी ताईद अल्लाह को इल्हाम के रूप में ताईद करना पड़ता है। यदि हम अल्लाह के स्थान पर अंतरात्मा को रखें और इल्हाम को अंतरात्मा की आवाज कहें तो हम कहेंगे अंतरात्मा ने उनका साथ छोड़ दिया या उसकी आवाज कमजोर पड़ गई। उसका स्थान संकल्प शक्ति ने ले लिया। जो ठान लिया वह करना है। जो करते हैं वह गलत नहीं है उसे सही सिद्ध होना ही पड़ेगा। पहले जो दुनिया की नजर में गलत था उससे बचना था मोहम्मद दे जो कुछ किया सही है, और गलत का फैसला इस बात से होगा मोहम्मद ने क्या किया और क्या नहीं किया और क्या न करने को कहा। पहले अल्लाह के फरिश्ते ने मोहम्मद को दबोच कर कहा था, कलमा पढ़, अल्लाह के अलावा कोई अल्लाह नहीं है, अल्लाह से बड़ा कोई नहीं है। मक्का में पैगंबर अल्लाह से छोटा और उसके फरिश्ते का मोहताज था, मदीना में कलमा गलत हो गया। मोहम्मद अल्लाह से बड़ा हो गया। आप अल्लाह की आलोचना कर सकते हैं, मोहम्मद कि नहीं। अल्लाह ने जो कुछ बनाया है उसमें गलतियां निकाली जा सकती हैं। मोहम्मद ने जो कुछ कहा या किया या जिस रूप में सुना उसमें कोई गलती नहीं तलाशी जा सकती। पहले फरिश्ते अल्लाह के दाबेदार थे, अब मोहम्मद के ताबेदार हो गए चाहे तो उन्हें फरिश्ता माने, न चाहे तो शैतान करार दे दे। यदि मक्का में इस्लाम था, अमन और ईमान का निर्वाह था तो मदीना में सभी की परिभाषाएं उलट गई। अल्लाह अल्लाह न रहा, अल्लाह के बंदे मोहम्मद के बंदे बनने की प्रतिस्पर्धा में शामिल हो गए। इस्लाम समाप्त हो गया, मुहम्मदवाद आरंभ होगया। विश्व इतिहास की या सबसे बड़ी दुर्घटना है जिसमें इस्लाम ने आत्मघात कर के मुहम्मदन पद को उसके समकक्ष रखा। अपने को मुसलमान कहने वालों में मुसलमान कोई नहीं है, मुहम्मदन पूरी दुनिया में फैल गए हैं और विश्व मानवता के लिए चुनौती बन गए है।

Post – 2019-06-22

हिजरत (ख)

खज़राज के 5 यात्रियों ने सन् 620 ( हि. पू. 2) में इस्लाम कबूल किया किया था।

उससे अगले हज पर ( हि.पू.1) में 12 यात्री पहुंचे थे।

मुहम्मद उनके अनुरोध पर स्वयं यथ्रीब नहीं गए थे और उनके साथ अपने एक सूझबूझ वाले अनुयायी, मुसाब बिन उमेर, को भेजा था, जिसकी सक्रियता से अबस कबीले के बहुत से लेगों ने इस्लाम कबूल कर लिया था। परिणाम स्वरूप इस्लाम कबूल कर चुके या इसके प्रति रुझान रखने वालों में यह लालसा भी पैदा हुई कि पैगंबर हमारे बीच ही रहें। यह यहूदियों की मनोवैज्ञानिक श्रेष्ठता से निपटने का भी एक तरीका था। [ “Isn’t it high time we protect Muhammad instead of leaving him forsaken, deserted and stumbling in the hillocks of Makkah?”]अतः अगले हज में उन्हें सभी दृष्टियों से आश्वस्त करके यथ्रीब आने के लिए राजी करने के लिए 73 लोग पहुँचे। इनके अतिरिक्त साथ में दो महिलाएं भी थीं। अगर उनके तर्क काम न आए तो इनके आँसू काम आ जाएंगे।

यह इतिहास का एक नया मोड़ सिद्ध हुआ।

इसके विषय में जो सूचना मिलती है उससे प्रकट होता है कि इस बैठक का आयोजन बहुत गुप्त रूप में किया गया था।
मोहम्मद ने कहा “ हम इस महीने (जिल हज्ज = हज का महीना या साल का आखिरी महीना) की तेरहवीं की रात मे अक़बा की घाटी में, सभी लोगों के सो जाने के बाद, मिलेंगे।”
मिलने के बाद उन्होंने कहा, “ आप लोगों से इस बात की कसम लेना चाहता हूं कि आप लोग मेरी हर तरह तरह हिफाजत करेंगे, जैसे आप अपने बच्चों की, परिवार के लोगों की हिफाजत करते हैं।” यह सुन कर उनमें से एक खड़ा होकर बोला, “हम लड़ने मरने वाले लोग हैं जिन्हें जंगबाज बनाने की सीख दी जाती है। ये खूबियां हमें अपने पुरखों से मिली हैं। हम तो आप से यह वादा चाहते हैं कि हमारे मुसलमान बन जाने के बाद आप हमें छोड़ कर वापस तो नहीं लौट आएंगे?”
पैगंबर ने कहा, “ नहीं, बिल्कुल नहीं। तुम्हारा खून मेरा खून है, तुम्हारे लिए जो पवित्र है वह मेरे लिए पवित्र है। मैं तुम लोगों का हूँ और तुम लोग मेरे हमजिस्म हो । मैं उनके खिलाफ लडूंगा जो तुम्हारे खिलाफ लड़ाई करेंगे और उनके साथ मेल मोहब्बत से रहूंगा जो तुम्हारे साथ मेल मोहब्बत से रहते हैं।”[1]
[1] The Messenger of Allah… said, “No, your blood is my blood, and what is sacred to you is sacred to me; I am of you and you are of me; I will fight against those who fight against you, and be at peace with those at peace with you.” ]
इसके बाद उन्होंने यह कहते हुए अपना हाथ बढ़ाया “वचन देते हैं कि हम सुख और दुख में, तंगहाली और खुशहाली में, संपत में और बिपद में आपका हुक्म मानेंगे, और हमेशा सच बोलेंगे और अल्लाह की खिदमत में किसी की भर्त्सना से डरेंगे नहीं।
They stretched their hands forth, and he stretched his hand and they pledged their word by saying, “We pledge ourselves to obey in well and woe, in ease and hardship, and, speak the truth at all times, and that in Allah’s service we would fear the censure of none.”

इसके बाद पैगंबर ने कहा, “मुझे ऐसे 12 आदमी चाहिए जो अपनी जमात के प्रधान हों।” इसके बाद उन्होंने खराजों में से नव और अबसों में से तीन को पेश किया। मोहम्मद ने कहा, “आप लोग अपनी जमात के वारिस हैं, और मैं अपने लोगों के लिए जिम्मेदार हूँ।”

इसके बाद सभी सोने चले गए और फिर लौटकर मदीना चले गए।

मोहम्मद ने अपने अनुयायियों को चुपचाप, इक्के दुक्के मक्का से यथ्रीब (मदीना) रवाना होने को कहा।

जब मक्का के मुसलमान धीरे धीरे खिसकने लगे तो और इसका रहस्य कुरैशियों को पता चला तो उनके कान खड़े हो गए। जब हो अबू बकर ने रवाना होने की अनुमति चाही मोहम्मद ने कहा घबराओ में हमारे साथ कोई और भी होगा। संकेत से ही उन्हें पता चल पाया दूसरों को भेजने के बाद इस बार मोहम्मद स्वयं भी रवाना होने वाले हैं।

मक्का के निवासियों का स्वभाव और सद्भाव

मक्का के लोग, विशेषतः कुरेशी, व्यापारी थे। व्यापारी शांति चाहता है, झमेले से बचता है और जब तक उसे छेड़ा न जाए वह हिंसा का सहारा नहीं देता।

मोहम्मद साहब स्वयं भी छोटी उम्र से ही व्यापारिक यात्राओं पर जाने लगे थे इसलिए उनका स्वभाव भी हिंसक नहीं था। खदीजा बड़े पैमाने पर व्यापार करती थी इसलिए वह भी हिंसा को प्रोत्साहन नहीं दे सकती थीं ।

अरब कबीलों में शांति-व्यवस्था स्थापित करने वाली कोई शक्तिशाली संस्था नहीं थी, इसलिए उनमें आपसी कलह बना रहता था। इसका एक समाधान उनकी समझ में यह आया था कि कबीलों की अपने देवी-देवता में निष्ठा के कारण उनमें आपसी एकता कायम नहीं हो पा रही है, जबकि एक परमेश्वर (यह्व/ गॉड) में विश्वास और बहुदेववाद से मुक्ति के कारण यहूदियों और ईसाइयों में आपसी एकता है। एक सर्वोपरि अल्लाह की मान्यता अरबों में भी थी, परंतु व्यवहार में परमेश्वर से अधिक निकट उनके अपने देवी देवता लगते थे। अरबो में एक सुशिक्षित वर्ग जो अपने को हनीफ कहता था पहले से ही इब्राहिम से प्रेरित था और बहुदेववाद का विरोधी था। इन्हीं तीनों के मिले-जुले प्रभाव में यह सोच पैदा हुई कि एकेश्वरवाद से ही अरब जगत में शांति स्थापित हो सकती है।

जिस तरह की रुचि जैन और बौद्ध विचारधाराओं में भारतीय व्यापारियों की पैदा हुई थी, और जिन कारणों से पैदा हुई थी, उन्हीं कारण अल्लाह की उपासना का समाधान तलाशा गया था।

इस बात को दोहराना जरूरी है कि यदि इस विचार के साथ कुरेशियों के अपने इष्टदेवों की भर्त्सना अनिवार्य न हो जाती तो उनका मोहम्मद साहब से कोई विरोध नहीं था।

इस्लाम की ओर झुकाव रखने वालों की निंदा, उपेक्षा, असहयोग, के तरीके तो अपनाए गए, परंतु इसके बाद भी इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि
किसी की हत्या की गई। इसलिए मौखिक विरोध, आलोचना दोनों ओर से चलती रही परंतु हिंसा के पक्ष में कोई न था।

मक्का इस बात का प्रमाण था कि बहुदेववाद के बाद भी शांति से रहा जा सकता है और शांति से रहा जा रहा था। खादिजा और उनके प्रभाव में मुहम्मद एक आर्थिक समस्या का आध्यात्मिक समाधान निकालना चाहते थे । किसी ने यह भी नहीं सोचा कि यदि कुरैशियों के मन में देवनिंदा करने वाले मोहम्मद के प्रति इतना गुस्सा आ गया कि वे मोहम्मद की हत्या करने का विचार भी करने लगे तो उनके बीच किसी का साहस क्यों न हुआ। इसके लिए उन्होंने आर्थिक दृष्टि से बदहाल उमर का इस्तेमाल क्यों करना चाहा और उमर के मन में अपने पुराने अपमान का बोध संपन्न लोगों के प्रति क्यों बना रहा जिनके कारण वह खलीफा के पद पर बैठने के बाद भी बदला लेता रहा।

जो भी हो मक्का में रहते हुए मोहम्मद साहब शांति के अग्रदूत बने रहे और उसी भाषा में बात करते रहे जिसमें भारतीय अहिंसावादी और आधुनिक सत्याग्रही बात करते रहे हैंः
If you take retribution, then do so in proportion to the wrong done to you. But if you can bear such conduct with patience, indeed that is best for the steadfast.
And bear with patience, (O Muhammad) – and your patience is only because of the help of Allah – and do not grieve over them, nor feel distressed by their evil plans.
(16:128) For surely Allah is with those who hold Him in fear and do good.124
124. “Allah is with those who fear Him” because they scrupulously refrain from evil ways and always adopt the righteous attitude, for they know that their actions and deeds are not determined by the evils others do to them but by their own sense of righteousness; so they return good for evil.
Surah An-Nahl 16:126-128
जो लोग कहते हैं कि इस्लाम अमन का संदेश है, शान्ति का मजहब है, वे गलत नहीं कहते, पर यह नहीं समझ पाते कि जगह बदलने पर कोई चीज वही नहीं रह जाती। शांति और शांति का पैगाम भी नहीं, फिर भला पैगंबर कैसे रह पाएगा।

Post – 2019-06-20

हिजरत (क)

इस्लाम में कुछ भी सही नहीं है और गलत तो कुछ हो ही नहीं सकता। स्वयं कुरान में अंतर्विरोध इतने और ऐसे हैं जो दूसरी किसी किताब में नहीं दिखाई देते। इनकी ओर दूसरों का ध्यान जाता है, और कुछ ने इसका मजाक भी उड़ाया, पर यकीन करने वालों का ध्यान इस पर नहीं जाता।

हिजरत के विषय में भी कई तरह की कहानियां मिलती हैं । जिन स्रोतों पर भरोसा किया जाता है वे भी ,भरोसे के नहीं, क्योंकि इनको गढ़ कर प्रस्तुत किया जाता है।

उदाहरण के लिए एक पाठ के अनुसार, जिसे विकी के अनुसार कैंब्रिज इनसाइक्लोपीडिया ऑफ इस्लाम में जगह दी गई है, उनके मदीना जाने का कारण बारह कबीलों के प्रतिनिधियों का एक साथ आकर मध्यस्थता के लिए आमंत्रित करना बताया गया है।
[[A delegation from Medina, consisting of the representatives of the twelve important clans of Medina, invited Muhammad as a neutral outsider to serve as the chief arbitrator for the entire community. There was fighting in Yathrib (Medina) mainly involving its Arab and Jewish inhabitants for around a hundred years before 620… (The Cambridge History of Islam (1977), p. 39 …]]

इस शिष्टमंडल ने न केवल यह वचन दिया कि वह और उनके दूसरे नगर निवासी मोहम्मद साहब के फैसले को तो स्वीकार करेंगे ही मदीना में उनकी इस तरह रक्षा करेंगे जैसे वह उनके ही कबीले के हों।
[[The delegation from Medina pledged themselves and their fellow-citizens to accept Muhammad into their community and physically protect him as one of themselves (Alford Welch, Muhammad, Encyclopedia of Islam). ]]

इसके बाद मुहम्मद ने अपने मतावलंबियों मैं से हर एक को मदीना जाने की हिदायत दी। जब वे मक्का छोड़ने लगे तो मक्का के लोग दहशत में आ गए। उन्होंने मुहम्मद साहब की जान तक लेने की योजना बनाई लेकिन मुहम्मद उन को चकमा देकर निकल भागे :
[[Muhammad instructed his followers to emigrate to Medina until virtually all of his followers had left Mecca. Being alarmed at the departure of Muslims, according to the tradition, the Meccans plotted to assassinate him. He fooled the Meccans who were watching him, and secretly slipped away from the town.]]
इसके बाद मक्का छोड़ चुके मुसलमानों की संपत्तियां जब्त कर ली गईं [[Following the emigration, the Meccans seized the properties of the Muslim emigrants in Mecca(Fazlur Rahman (1979), p. 21).
फजलुर रहमान मलिक पाकिस्तान के आधुनिकतावाद इस्लामी विद्वान हैं। आधुनिकतावादियों ने कुछ अधिक ही अनर्थ किया है। यह सच है कि मदीने के अरबों की आपसी कलह एक समस्या थी। यहूदियों का दबदबा, सभी दृष्टियों से उनका अरबों से अधिक उन्नत और संगठित होना, और अरबों से उनका टकराव गंभीर चिंता का विषय था। परंतु दूसरे विवरण गढ़े हुए हैं। इस्लामपरस्त कहां जाते या बसते हैं यह कुरैशियों की चिंता का विषय न था। वे केवल यह चाहते थे कि वे उनके देवी-देवताओं की निंदा न करें।

यहूदियों में भविष्य में एक नए मसीहा के आने का विश्वास था। लंबे समय तक संपर्क में रहने के कारण मदीना के अरबों को उनके धार्मिक विचारों और मान्यताओं के विषय में जानकारी थी। मदीना से तीर्थ यात्रा पर आए हुए अरबों में से खज़राज कबीले के यात्रियों को जब पता चला कि एक अरब अपने को अल्लाह का पैगंबर घोषित कर रहा है तो वे इस सौभाग्य पर गर्व से भर उठे कि वह मसीहा अरबों के बीच में ही पैदा हो चुका है। सूरा अहकाफ (46.9) को इसी का इल्हाम माना जाता है जिसके दो अनुवाद नीचे दिए गए हैं।
If (this Book) be from God, and ye believe it not, and a witness of the children of Israel, witness to its conformity ( with the law) and believe, while ye proudly disdain it. Ah! God guides not the people guilty of such a wrong. 46.9
Say, “I am not something original among the messengers, nor do I know what will be done with me or with you. I only follow that which is revealed to me, and I am not but a clear warner.”46.9
कुरान काव्यात्मक रचना है, और इसलिए व्यंजना और ध्वनि का लाभ उठाते हुए व्याख्याकार अपनी रुचि के अनुसार अर्थ निकालते रहते हैं। इस काव्यात्मक से ही वह भावाकुलता पैदा होती है जिसके कारण एक ही समस्या के उल्टे समाधान निकाले जा सकते हैं ।

जो भी हो, मदीना लौट कर उन्होंन इस बात का उत्साह से प्रचार किया और अगले साल अवश्य उनके प्रचार से प्रभावित हो कर 12 लोग उन्हें मदीना बुलाने के इरादे से आए। इनमें दस बानी/बानू खज़राज और दो बानी/बानू अबस कबीले के थे (जिनसे अब्बासी अपना नाता जोड़ते हैं।) न कि बारह कबीलों के एक एक प्रतिनिधि।

खास बात यह कि इन दोनों में बहुत पुरानी दुश्मनी थी, और इन्हीं के बीच कुछ पहले बाथ की जंग (Battle of Buath) हुई थी जिसमें दोनों ओर से बहुत से लोग मारे गए थे, पर विजय अबस कबीले की हुई थी इसलिए भारतीय उपमहाद्वीप में अब्बासी तो मिलेंगे, खजराज नहीं। अबस/अब्स तथा खज़राज दोनों कबीलों के सहायकों को अन्सर कहा जाता था, इसलिए मिलने को अंसारी भी मिल जाएंगे, यद्यपि उनकी सामाजिक हैसियत आज भी कुछ झंस है। यहां तक कि कुछ यह मान बैठते हैं कि यह कसाइयों का उपनाम है।

केर-बेर दोनों का इस्लाम कबूल करना, मुहम्मद के निर्देशों के अनुसार रहने की प्रतिज्ञा करना और उनके किसी आदेश का उल्लंघन न करने का आश्वासन देना एक नया मोड़ था। इसे आकबा की पहली प्रतिश्रुति कहते हैं। इनके माध्यम से मदीना में इस्लाम का व्यापक प्रचार हुआ। मदीना के मुसलमानों में, जो यहूदी मसीहा के आगमन के प्रचार से किंचित खिन्न थे मोहम्मद से मिलने के बाद इस विचार को बिना किसी तर्क वितर्क के स्वीकार कर बैठे थे कि मोहम्मद वही मसीहा है, और वही सभी समस्याओं का निदान और उपचार है, और वह यहूदियों में नहीं अरबों में पैदा हो चुका है।

इस बात को मक्का के लोग नहीं समझ पा रहे थे, क्योंकि उनके ऊपर किसी तरह का मनोवैज्ञानिक दबाव नहीं था और वे हर मानी में अपने समान मनुष्य से इस बात का प्रमाण चाहते थे कि वह यदि उनसे अलग है तो का कोई प्रमाण प्रस्तुत करे। मुहम्मद साहब के बचपन से लेकर पहले इलहाम तक विचित्र घटनाएं होती रहीं, परन्तु कुरेशियों ने जब उनके सामने चमत्कार दिखाने की चुनौती दी वह उस अपेक्षा की पूर्ति न कर सके, जिनकी पूर्ति फिरऊन की चुनौती के बाद मूसा ने करके दिखाया था और जिसका उल्लेख कुरान में भी है।

कुरेशी बहुदेववादी तो थे, परंतु तार्किक भी थे। इसका कारण तलाशना होगा, क्योंकि यूनान हो या रोम या अरब अथवा इन सबके पुरखे भारतीय, सभी विश्वास के लिए भी तर्क और कारण की तलाश करते थे जिसका ही उन्मेष वैज्ञानिक जिज्ञासा और उसके व्यावहारिक परीक्षण में हुआ, जिन दोनों को मिलाकर विज्ञान की सैद्धांतिकी और अनुप्रयोग का विकास हुआ है।

इसके विपरीत एकेश्वरवाद मानव द्रोही, ज्ञान द्रोही, विज्ञानद्रोही, विचार द्रोही, कला द्रोही और जीवन द्रोही मदांधता के रूप में विस्तार करता रहा। आगे बढ़ने से पहले, मानवता के हित में, हमें एक और बहु, लोकतंत्र या अधिनायकवाद, बहुलता और निषेध के द्वंद पर पुनर्विचार तो करना ही होगा।