Post – 2019-06-22

हिजरत (ख)

खज़राज के 5 यात्रियों ने सन् 620 ( हि. पू. 2) में इस्लाम कबूल किया किया था।

उससे अगले हज पर ( हि.पू.1) में 12 यात्री पहुंचे थे।

मुहम्मद उनके अनुरोध पर स्वयं यथ्रीब नहीं गए थे और उनके साथ अपने एक सूझबूझ वाले अनुयायी, मुसाब बिन उमेर, को भेजा था, जिसकी सक्रियता से अबस कबीले के बहुत से लेगों ने इस्लाम कबूल कर लिया था। परिणाम स्वरूप इस्लाम कबूल कर चुके या इसके प्रति रुझान रखने वालों में यह लालसा भी पैदा हुई कि पैगंबर हमारे बीच ही रहें। यह यहूदियों की मनोवैज्ञानिक श्रेष्ठता से निपटने का भी एक तरीका था। [ “Isn’t it high time we protect Muhammad instead of leaving him forsaken, deserted and stumbling in the hillocks of Makkah?”]अतः अगले हज में उन्हें सभी दृष्टियों से आश्वस्त करके यथ्रीब आने के लिए राजी करने के लिए 73 लोग पहुँचे। इनके अतिरिक्त साथ में दो महिलाएं भी थीं। अगर उनके तर्क काम न आए तो इनके आँसू काम आ जाएंगे।

यह इतिहास का एक नया मोड़ सिद्ध हुआ।

इसके विषय में जो सूचना मिलती है उससे प्रकट होता है कि इस बैठक का आयोजन बहुत गुप्त रूप में किया गया था।
मोहम्मद ने कहा “ हम इस महीने (जिल हज्ज = हज का महीना या साल का आखिरी महीना) की तेरहवीं की रात मे अक़बा की घाटी में, सभी लोगों के सो जाने के बाद, मिलेंगे।”
मिलने के बाद उन्होंने कहा, “ आप लोगों से इस बात की कसम लेना चाहता हूं कि आप लोग मेरी हर तरह तरह हिफाजत करेंगे, जैसे आप अपने बच्चों की, परिवार के लोगों की हिफाजत करते हैं।” यह सुन कर उनमें से एक खड़ा होकर बोला, “हम लड़ने मरने वाले लोग हैं जिन्हें जंगबाज बनाने की सीख दी जाती है। ये खूबियां हमें अपने पुरखों से मिली हैं। हम तो आप से यह वादा चाहते हैं कि हमारे मुसलमान बन जाने के बाद आप हमें छोड़ कर वापस तो नहीं लौट आएंगे?”
पैगंबर ने कहा, “ नहीं, बिल्कुल नहीं। तुम्हारा खून मेरा खून है, तुम्हारे लिए जो पवित्र है वह मेरे लिए पवित्र है। मैं तुम लोगों का हूँ और तुम लोग मेरे हमजिस्म हो । मैं उनके खिलाफ लडूंगा जो तुम्हारे खिलाफ लड़ाई करेंगे और उनके साथ मेल मोहब्बत से रहूंगा जो तुम्हारे साथ मेल मोहब्बत से रहते हैं।”[1]
[1] The Messenger of Allah… said, “No, your blood is my blood, and what is sacred to you is sacred to me; I am of you and you are of me; I will fight against those who fight against you, and be at peace with those at peace with you.” ]
इसके बाद उन्होंने यह कहते हुए अपना हाथ बढ़ाया “वचन देते हैं कि हम सुख और दुख में, तंगहाली और खुशहाली में, संपत में और बिपद में आपका हुक्म मानेंगे, और हमेशा सच बोलेंगे और अल्लाह की खिदमत में किसी की भर्त्सना से डरेंगे नहीं।
They stretched their hands forth, and he stretched his hand and they pledged their word by saying, “We pledge ourselves to obey in well and woe, in ease and hardship, and, speak the truth at all times, and that in Allah’s service we would fear the censure of none.”

इसके बाद पैगंबर ने कहा, “मुझे ऐसे 12 आदमी चाहिए जो अपनी जमात के प्रधान हों।” इसके बाद उन्होंने खराजों में से नव और अबसों में से तीन को पेश किया। मोहम्मद ने कहा, “आप लोग अपनी जमात के वारिस हैं, और मैं अपने लोगों के लिए जिम्मेदार हूँ।”

इसके बाद सभी सोने चले गए और फिर लौटकर मदीना चले गए।

मोहम्मद ने अपने अनुयायियों को चुपचाप, इक्के दुक्के मक्का से यथ्रीब (मदीना) रवाना होने को कहा।

जब मक्का के मुसलमान धीरे धीरे खिसकने लगे तो और इसका रहस्य कुरैशियों को पता चला तो उनके कान खड़े हो गए। जब हो अबू बकर ने रवाना होने की अनुमति चाही मोहम्मद ने कहा घबराओ में हमारे साथ कोई और भी होगा। संकेत से ही उन्हें पता चल पाया दूसरों को भेजने के बाद इस बार मोहम्मद स्वयं भी रवाना होने वाले हैं।

मक्का के निवासियों का स्वभाव और सद्भाव

मक्का के लोग, विशेषतः कुरेशी, व्यापारी थे। व्यापारी शांति चाहता है, झमेले से बचता है और जब तक उसे छेड़ा न जाए वह हिंसा का सहारा नहीं देता।

मोहम्मद साहब स्वयं भी छोटी उम्र से ही व्यापारिक यात्राओं पर जाने लगे थे इसलिए उनका स्वभाव भी हिंसक नहीं था। खदीजा बड़े पैमाने पर व्यापार करती थी इसलिए वह भी हिंसा को प्रोत्साहन नहीं दे सकती थीं ।

अरब कबीलों में शांति-व्यवस्था स्थापित करने वाली कोई शक्तिशाली संस्था नहीं थी, इसलिए उनमें आपसी कलह बना रहता था। इसका एक समाधान उनकी समझ में यह आया था कि कबीलों की अपने देवी-देवता में निष्ठा के कारण उनमें आपसी एकता कायम नहीं हो पा रही है, जबकि एक परमेश्वर (यह्व/ गॉड) में विश्वास और बहुदेववाद से मुक्ति के कारण यहूदियों और ईसाइयों में आपसी एकता है। एक सर्वोपरि अल्लाह की मान्यता अरबों में भी थी, परंतु व्यवहार में परमेश्वर से अधिक निकट उनके अपने देवी देवता लगते थे। अरबो में एक सुशिक्षित वर्ग जो अपने को हनीफ कहता था पहले से ही इब्राहिम से प्रेरित था और बहुदेववाद का विरोधी था। इन्हीं तीनों के मिले-जुले प्रभाव में यह सोच पैदा हुई कि एकेश्वरवाद से ही अरब जगत में शांति स्थापित हो सकती है।

जिस तरह की रुचि जैन और बौद्ध विचारधाराओं में भारतीय व्यापारियों की पैदा हुई थी, और जिन कारणों से पैदा हुई थी, उन्हीं कारण अल्लाह की उपासना का समाधान तलाशा गया था।

इस बात को दोहराना जरूरी है कि यदि इस विचार के साथ कुरेशियों के अपने इष्टदेवों की भर्त्सना अनिवार्य न हो जाती तो उनका मोहम्मद साहब से कोई विरोध नहीं था।

इस्लाम की ओर झुकाव रखने वालों की निंदा, उपेक्षा, असहयोग, के तरीके तो अपनाए गए, परंतु इसके बाद भी इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि
किसी की हत्या की गई। इसलिए मौखिक विरोध, आलोचना दोनों ओर से चलती रही परंतु हिंसा के पक्ष में कोई न था।

मक्का इस बात का प्रमाण था कि बहुदेववाद के बाद भी शांति से रहा जा सकता है और शांति से रहा जा रहा था। खादिजा और उनके प्रभाव में मुहम्मद एक आर्थिक समस्या का आध्यात्मिक समाधान निकालना चाहते थे । किसी ने यह भी नहीं सोचा कि यदि कुरैशियों के मन में देवनिंदा करने वाले मोहम्मद के प्रति इतना गुस्सा आ गया कि वे मोहम्मद की हत्या करने का विचार भी करने लगे तो उनके बीच किसी का साहस क्यों न हुआ। इसके लिए उन्होंने आर्थिक दृष्टि से बदहाल उमर का इस्तेमाल क्यों करना चाहा और उमर के मन में अपने पुराने अपमान का बोध संपन्न लोगों के प्रति क्यों बना रहा जिनके कारण वह खलीफा के पद पर बैठने के बाद भी बदला लेता रहा।

जो भी हो मक्का में रहते हुए मोहम्मद साहब शांति के अग्रदूत बने रहे और उसी भाषा में बात करते रहे जिसमें भारतीय अहिंसावादी और आधुनिक सत्याग्रही बात करते रहे हैंः
If you take retribution, then do so in proportion to the wrong done to you. But if you can bear such conduct with patience, indeed that is best for the steadfast.
And bear with patience, (O Muhammad) – and your patience is only because of the help of Allah – and do not grieve over them, nor feel distressed by their evil plans.
(16:128) For surely Allah is with those who hold Him in fear and do good.124
124. “Allah is with those who fear Him” because they scrupulously refrain from evil ways and always adopt the righteous attitude, for they know that their actions and deeds are not determined by the evils others do to them but by their own sense of righteousness; so they return good for evil.
Surah An-Nahl 16:126-128
जो लोग कहते हैं कि इस्लाम अमन का संदेश है, शान्ति का मजहब है, वे गलत नहीं कहते, पर यह नहीं समझ पाते कि जगह बदलने पर कोई चीज वही नहीं रह जाती। शांति और शांति का पैगाम भी नहीं, फिर भला पैगंबर कैसे रह पाएगा।