Post – 2017-12-28

जाली भाषा, जाली भाषाविज्ञान(४)

संस्कृत जाली भाषा थी यह संस्कृत से परिचित कोई नहीं मान सकता था। स्टीवर्ड ऐसा सोच सके क्योंकि उनको संस्कृत का ज्ञान नहीं था, पर संस्कृत के विषय में उपलब्ध सूचनाओं के आधार पर वह यह मानते थे कि संस्कृत, ग्रीक और लातिन के बीच जितनी निकटता है वह एक ही भाषा से उत्पन्न भाषाओं में नहीं हो सकती। या तो संस्कृत का प्रसार यूरोप तक हुआ हो, या ग्रीक का प्रसार भारत तक। संस्कृत भाषियों का यूरोप तक पहुंचने का कोई प्रमाण न था, जब कि ग्रीकों के भारत पहुंचने का और रोमनों के व्यापारिक संपर्क का ऐतिहासिक प्रमाण था, इसलिए वह अविश्वसनीय पाते हुए भी इसी पर जोर दे रहे थे।

परन्तु बात इतनी ही नहीं थी। वह यह भी जानते थे कि भारत में पौराणिक वृत्तों में हूणों, चीनियों, यवनों आदि को व्रतच्युत क्षत्रियों की सन्तान बताया गया। पौराणिक विवरणों में सुदूर इतिहास का बीज सत्य तो बचा रहता है परन्तु जिस कथा के, या कहें जिन कथाओं के कलेवर में उन्हें समेटा जाता रहा है वे बहुत अतिरंजित और कई बार हास्यास्पद हुआ करती थीं। उदाहरण के लिए हूणों, चीनियों, यवनों के देश में और भारत के ही आर्यावर्त से बाहर जाने को किसी चरण पर प्रवेशवर्ज्य करार दे दिया गया। ऐसा करने वालों व्रतच्युत या व्रात्य माना जाने लगा। वर्ण समाज में दुबारा स्वीकार्यता के लिए प्रायश्चित करना पड़ता था ।

ऐतिहासिक साक्ष्य यह कि दक्षिण भारत में पांड्य और चोल राजा जिन्होंने ब्राह्मणों को आमंत्रित किया अपनी वंश परंपरा उत्तर के क्षत्रिय राजंशों से जोड़ते थे इसके बाद उन्हीं के आश्रय में पलने वाले इन ब्राह्मणों ने उन्हें शूद्र ही माना। यही बात उत्तर कुरु, उत्तर मद्र, बाह्लीक, सूर्यवंशा /सूरी या हुर्रि, मित्र या मितन्नी, खत्ती या हत्ती के विषय में कही जा सकती है। उन उन क्षेत्रों में बसे लोगो के बीच भारत से जाने वाले जनों की प्रभावशाली उपस्थिति दिखाई देती है यह बीज सत्य है। अब इसी क्षीण स्मृति को कई पुराण कथाओं में दुहराया गया है। पहली विश्वामित्र के अवज्ञाकारी पचास पुत्रों के निर्वासन द्वारा, दूसरा मनु के व्रतच्युत क्षत्रियों द्वारा, तीसरा विश्वामित्र को दंडित करने के लिए वसिष्ठ की गाय की योनि से।

तीनों में किसी से उन परिस्थितियों का सही पता नहीं चलता जिनमें संस्कृतभाषी वहां पहुंचे थे। यदि वैदिक देवोपासकों की उपस्थिति का पुरातात्विक प्रमाण न होता और लगभग डेढ़ हजार सालों तक उनके दबदबे के संकेत न मिलते और यह सच न होता कि होमर एशिया माइनर की ग्रीक में अपने महाकाव्य की रचना न कर रहे थे तो ग्रीक के रूपान्तरण का वह चित्र समझ न आता जिसकी शर्तों को, वस्तु स्थितिसे अवगत हुए बिना ही स्टीवर्ट ने पूरे विश्वास से रखा था।

परन्तु वह राष्ट्रवादी थे, स्काट राष्ट्रीयता के आनदोलनकारी थे जिसके कारण उनके छात्रों के अतिरिक्त अनुयायियों की भी बड़ी संख्या थी और उनके द्वारा किसी निर्णय पर पहुंच जाने के बाद सामान्य शिक्षित जनों के बीच वह वज्रलेख की तरह उतर जाता था।

हमने स्टीवर्ट को इतने विस्तार से, कुछ बातों को दहराते हुए इसलिए केन्द्र में रखा कि:
१. भाषा की प्रकृति और विकास पर उनका चिन्तन किसी अन्य भाषावैज्ञानिक से अधिक गहन था;
२. उन्होंने उस परिवार की संभावना को खारिज किया था जिसकी कल्पना विलियम जोंस ने की थी और जिसे अंतत: इंडोयूरोपियन (भारोपीय) की संज्ञा मिली;
३. इस पारिवारिकता के कारण आगे का सारा काम औचित्य स्थापन का भगीरथ प्रयत्न बन कर रह गया, फिर भी कोई ऐसा सुझाव या हल सामने न आया जो स्वयं यूरोपीय विद्वानों को सर्वमान्य हुआ हो।
४. वे सभी सचाई से परिचित थे और सभी इस बात के लिए प्रयत्नशील रहे कि भारत की ओर निगाह न जाने पाए, इसलिए यह दुहराते रहे कि भारत पर बहुत विचार किया जा चुका, अब उस पर विचार करने की जरूरत नहीं, जब कि हम देख आए हैं कि निकटता की प्रथम स्वीकृति के साथ सारा प्रयत्न भारत से मुक्ति पाने की रही और एक बार को भी पीछे लौट कर नहीं देखा गया। हां चेतना में जोंस की घोषणा से पहले कोई दूसरा विकल्प नहीं सूझ रहा था और आज तक बना हुआ है, अन्यथा कम से कम अनेक संभावनाओं मे से एक संभावना के रूप भारत को नकारने का प्रयत्न न होता।

यहां हम एक विचित्र सचाई का सामना करने को बाध्य होते हैं। यह है ज्ञान के विरुद्ध, उसे नकारने के लिए, एक शास्त्र की रचना, जिसका मान बढ़ाने के लिए जब तब विज्ञान कह लिया जाता था, पर अन्त में बे आबरू करके उसे बाहर कर दिया गया फिर भी बिना अनुमति घुसने की और भाषाविज्ञान में इसे शामिल मानने की आदत नहीं जाती।

अब हमारे पास वैज्ञानिक खोज या सत्यान्वेषण के नाम पर तीन काम बच रहते हैं:
१. जालसाजी के तारों की जांच करना, न कि तुलनातमक और ऐतिहासिक भाषाविज्ञान के नाम पर जो कुछ पढ़ाया जाता है उसके फरेब में आना।
२. कारसाजी के बावजूद इसे मान्य बनाने के लिए जिन कड़ियों की छानबीन की गई है उनको समझते और उनकी सीमाओं का ध्यान रखते हुए उनका उपयोग करना। कहें अर्धसत्य के सत्यांश का आंकड़ो के रूप में उपयोग करना। उदाहरण के लिए इतने श्रम से तैयार किए गए ध्वनि नियमों को न तो अकाट्य मान सकते हैं, न उनकी उपेक्षा कर सकते हैं, क्योंकि संस्कृत के ध्वनिनियम द्रविड मे ही काम नहीं करते। ये नियम न होकर प्रवृत्तियां हैं जिनका एक सीमा तक निर्वाह होता है और उसके बाद नहीं चल पाते। दसरे ये प्रवृत्तियां भी एक निश्चित भाषिक पर्यावरण के अनुरूप होती हैं, इन्हें प्रवृत्ति के रूप मे भी सार्विक नहीं बनाया जा सकता। उदाहरण के लिए भारतीय वैयाकरणों ने समान आशयों और लगभग समान ध्वनियों वाले शब्दों के सर्वनिष्ठ बीज ध्वनि को धातु की संज्ञा दी। इसी की तर्ज पर यूरोपीय भाषाओ के बहुनिष्ठ ध्वनि को स्टेम की संज्ञा दी। ये यूरेपीय भाषाओं में प्राप्त शब्दों को समझने में सहायक तो हो सकते हैं पर संस्कृत की धातुओं या शब्दों को समझने में सहायक नहीं । कारण संस्कृत की ध्वनियों का उच्चारण ईरानी और यूरोपीय जन अपनी ध्वनिसीमा में कर रहे थे।
3. इनकी आड़ में जो जाली इतिहास रचा गया उसको सही करना और साथ ही यह भी समझना की भारतीय इतिहासकारों ने स्वयं औपनिवेशिक इतिहास को जारी रखने के लिए अपनी विश्वसनीयता तक दांव पर लगा दी।

Post – 2017-12-27

कुछ न लिख पाया पर घिसी तो कलम
यूं भी रोटी का इंतजाम किया।
कौन कहता कि कुछ करता नहीं
आज भगवान ने क्या काम किया।।

Post – 2017-12-27

तुम्हारा हुश्न है कोई नहीं है
यह मैं कहता हूं, हां, कोई नहीं है
बताओ हुश्न है किस काम का यह
जहां है हुश्न पर कोई नहीं है ।।

Post – 2017-12-27

जन्नत की बात क्यों करो, वह हो कि नहीं हो
धरती को ही दोजख न बनाओ तो बहुत है।

Post – 2017-12-27

मैंने न उसकी बात सुनी उसने न मेरी
मुंह कान पास पास थे पर सिर फिरे से थे।।

Post – 2017-12-27

व्यर्थताबोध
‘men make their own history, and what they can know is what they have made.’

अकेला योद्धा अपना शौर्य दिखा सकता है, समर नहीं जीत सकता। शौर्य प्रदर्शन (अनन्य सिद्ध होने की कामना) मनुष्य को उसकी हैसियत से छोटा बनाता है। कोई महान उद्देश्य निजी नहीं हो सकता, सामाजिक होना उसकी अनिवार्य शर्त है। कोई भी महान उद्देश्य मानवद्रोही नहीं हो सकता। उससे विनम्र और समर्पित भाव से ही जुड़ा जा सकता है और उसकी सिद्धि से बड़ी कोई उपलब्धि नहीं और उसकी कीमत पर कोई भी सिद्धि तुच्छ है। एक लेखक यदि योद्धा नहीं है तो लेखक नहीं वाग्विलासी है। पर उसका मैदान मानव चेतना है और हथियार कलम। वह अपने लेखन से अपने पाठकों की सोच में कितना बदलाव ला सका है यही उसकी सार्थकता का पैमाना हो सकता है।
आज से पचास साल पहले परिस्थितिवश औपनिवेशिक मानसिकता के विरुद्ध मोर्चा संभाला था और प्रतिश्रुति के रूप में वह कविता लिखी थी जो मेरी प्रेरणा का स्रोत रही है जिसकी पंक्तियां थीः
तुम देखना
बेकार नहीं जाएगी मेरी फुसफुसाहट
नही, तोड़ूंगा कुछ नहीं
सिर्फ परिभाषा बदल दूंगा
और आसमान में तने कंगूरे हवामुर्ग में बदल जाएंगे
सच है फुसफुसाहट व्यर्थ न गई, पर क्या यह चेतना तक जगा पाया कि हमें औपनिवेशिक मानसिकता से बाहर निकलना होगा? क्या यह तक समझा पाया कि कम्युनिज्म के नाम पर, सेकुलरिज्म के नाम पर, राष्ट्रवाद के नाम पर सारी गुत्थमगुत्थ औपनिवेशिक खेल का हिस्सा है। औपनिवेशिक सोच के विरुद्ध मेरी पहली पुस्तक 1973 में आई थी, एडवर्ड सईद की पुस्तक ओरिएंटलिज्म 1978 में। कुछ विलंब से ही सही, इस पुस्तक की तो धूम इस देश में भी मची थी । मात्र ज्ञानयज्ञ के लिए! क्या इन इबारतों का असर चेतना पर भी पड़ा?
Taking the late eighteenth century as the starting point Orientalism can be discussed and analyzed as the corporate institutions for dealing with the orient – dealing with it by making statements about it, authorizing views of it, describing it, ruling over it: in short, Orientalism as a Western style for dominating, restructuring and having authority over it. … European culture was able to manage – and even produce – the Orient politically, sociologically, militarily, ideologically, scientifically, and imaginatively during the post-Enlightenment period.

ये पंक्तियां पूर्व के विषय में पश्चिम के लेखकों द्वारा लिखे गए और लिखे जा रहे समस्त लेखन के विषय में सही है।
A second qualification is that ideas, cultures, and histories cannot seriously be understood or studied without their force, or more precisely their configurations of power, also being studied. 5
कोई दूसरा आप के लिए आप का काम नहीं करता। बुद्धिजीवियों को राजनीतिज्ञों का काम छोड़कर अपना काम करना चाहिए, यह सीधी बात तक समझा पाना कितना कठिन है।

Post – 2017-12-26

जाली भाषा, जाली भाषाशास्त्र, जाली इतिहास (३)

इस बात पर कभी किसी ने ध्यान नहीं दिया कि तुलनात्मक भाषाविज्ञान का आरंभ ही अटकलबाजी से हुआ और यह लगातार कयासों के सहारे आगे बढ़ता रहा। इसकी भूमिका तो कुछ पहले से तैयार हो रही थी परंतु यह युरोप की भाषाओं तक सीमित थी और नितांत बचकानी थी। उदाहरण के लिए जूसेप स्कैलिजेरो Giuseppe Scaligero (1540-1609) ने यूरोप की भाषाओं के वर्गीकरण के लिए उनमें पाए जाने वाले गाड के पर्यायों को आधार बनाया और इनके चार वर्ग किए, 1. “deus-languages” (Latin and the Romance languages); 2. “gott-languages” (the Germanic group); 3. “boge-languages” (the Slavic group), और 4. Greek, जिसमें “god” के लिए theos का प्रयोग किया जाता है (Comparative and Historical Linguistics – Ranko Matasović, 3) उन्होंने इन भाषाओं के बीच किसी तरह का संबंध तलाशने की जगह उन्हें भिन्न व्यवस्थाओं या संयोजनों (matrices) की संज्ञा दी।

संस्कृत से परिचय ने यूरोप की भाषाओं से भारतीय भाषाओं से संबंध को ही उजागर नहीं किया था, अपितु यूरोप की भाषाओं को देखने का नजरिया बदल दिया था। उदाहरण के लिए अभी तक जो पृथक व्यवस्थाएं प्रतीत हो रही थीं वे अब ऐसे ऐसे तंत्र से जुड़ी दिखाई दे रही थीं जिसमे उनकी जितनी निकटता अपने पड़ोस की भाषा से थी उससे अधिक निकटता संस्कृत से थी, और पारस्परिक निकटता संस्कृत के कारण थी। कहें यूरोप की भाषाएं संस्कृत के हाथ की कठपुतलियों या संस्कृत के उपग्रहों में बदल गई थीं। उदाहरण के लिए
deus समूह और ग्रीक theos यदि सं. देव और द्यौस से जुड़ते थे तो boge भग् और भर्ग से। भारतीय भाषाओं से परिचय के बाद एक नई मैट्रिक्स ईरानी की भी चर्चा में आ गई थी जिसमें अहुरमज्दा का प्रयोग होता था। इसका संबंध असुर महान (त्वमग्ने असुरो महाँ असि) अग्नि से है

उस समय तो अधिक गहराई से विचार करने का समय नहीं आया था परंतु हम यह देख सकते हैं कि क्यों ऋग्वेद में सभी देवों को अग्नि का ही रूप बताया, सभी में अग्नि को ही व्याप्त बताया । वही देव है, वही सूर्य है, वही अर्यमा, वरुण, विष्णु, मित्र और भग है, वही द्यौस्पितर है, रुद्र, वही ब्रह्म है और उसी के किसी नाम और रूप को संस्कृत के प्रसार क्षेत्र में परमेश्वर के रूप में स्वीकार किया गया। पर रोचक यह है । वह अग्नि एक में देव बन कर पूजा जाता है और महासुर या महिषासुर बन कर जघन्य हो जाता है और दूसरे में अहुर मज्दा बन कर समादृत होता है, पर देव जघन्य बन जाता है। कुछ और पश्चिम में देव के दोनों आशयों के दर्शन होते हैं। एक अंग्रेजी के डीटी और संभवत: डेविड जैसे नाम में तो दूसरा डेविल में। यदि तुलनात्मक और ऐतिहासिक भाषाविज्ञान सत्यान्वेषण की दिशा में बढ़ता तो इन शब्दों की व्याख्या के माध्यम से उस काल के सामाजिक संबंधों और प्रतिस्पर्धा करने वाले समुदायों का इतिहास भी पता चलता और भाषा के विकास का भी पता चलता और कुछ ऐसे संबंधों का भी पता चलता जिनको विचार की परिधि से बाहर रख कर भाषा परिवारों की बात की गई । तब पता चलता कि देव शब्द उस भाषा समूह का है जिसमें घोष और महाप्राण ध्वनियों का अभाव था। देव का जन्म दी (दीप, दीदा, दीदार) से हुआ था जो पहले ती (तिथि, तिलक, प्र-तीक, तेज) था और एक मूर्धन्य उच्चारण वाले समुदाय में टी (टिकठी, टीका, टिक्कल, टिकुली) बना, अपनी ज्ञान सीमा के कारण यह सोचता हूं कि अंग्रेजी के टिक-ठीक, टिकिट में भी शायद वही हो। अब आर्य, द्रविड़ की पॉथकता के झमेले समाप्त हो जाते ।

जो भी हो संस्कृत भाषा से परिचय पश्चिम के लिए एक अवसर था जिससे मानविकी को भी वैज्ञानिक स्तर तक उठाया जा सकता था। आखिर जब मन और मेधा को विज्ञान का विषय बनाया जा सकता है, फिर मानव को क्यों नहीं? परन्तु आत्मरक्षा की चिन्ता और वर्चसव की कामना में उन्होंने उसे खो दिया। ज्ञानलोक में मानवता पराजित हो गई, भौतिक अग्रता के लिए कुछ भी करने वालों को अब तक लाभ ही मिला है, पर उसी असंतुलन ने हमें वहां पहुंचा दिया है कि केल यह तय करना बाकी रह गया है कि भण् की आवाज कौन पैदा करेगा। एक से हिरण्यगर्भ का विस्फोट हुआ था और सृष्टि हुई थी दूसरे से महाविनाश हो सकता है।

कल मैंने अपनी पोस्ट देने की जगह राधावल्लभ जी को टैग कर दिया। यह बहुत पहले उनके लिखे संस्कृत साहित्य के इतिहास का एक अंश था। इसमें कुछ भी गलत न था। इतिहास में तथ्यों को प्रस्तुत किया जाय यह जरूरी है और यही उसकी विश्वसनीयता का आधार। जो गलत नहीं होता वह होता ही नहीं है, होते वे हैं जिनको सही मान कर वह संकलित कर देता है, पर गलत सिद्ध होने का खतरा नहीं उठाता। लिखे को दुहराने वाले ज्ञानोपासक होते है, जाने को जानने वाले ज्ञानी भी, पर समझदार नहीं। समझ अपनी समस्याओं से सीधे टकराने और समाधान के क्रम में कुछ गलतियां करने और उन गलतियों से बचते हुए सही समाधान तक पहुंचने की एक सरणी है।

आंकडों या जमीनी सचाई के बिना सोचना खयाली पुलाव है, आंकड़ों से बंध कर रह जाना जड़ता है। हमारा समाज इन दो अतियों का शिकार है जिसके बुद्धिव्यवसायियों को यह समझाना तक कठिन होता है कि मैं इतिहास पर बात नहीं कर रहा हूं, इतिहास के झरोखे से वर्तमान को देखने और दिखाने का प्रयत्न कर रहा हूं और यह बताते हुए कर रहा हूं कि हो सकता है मेरी नजर कमजोर हो, आप अपनी नजर से देखिए और मुझे भी मेरी कमी बताइए ताकि हम सचाई के अधिक निकट पहुंच सकें। सही लोगोंकी भीड़ है, गलत होने का खतरा उठाने वाले नजर नहीं आते। हमारे लिए सोचने का काम आज भी दूसरे कर रहे है, हम सही बने रहने की चिंता में उनसे शुद्ध ज्ञान ग्रहण कर रहे हैं। सचेत राष्ट्र की जगह झोला राष्ट्र बन गए हैं। आईडिया लुप्त है, आइईडियालोजी सवार। हमें सत्कार की नहीं, वैचारिक तकरार की जरूरत है।

Post – 2017-12-25

अटकलबाजी का विज्ञान

इस बात पर कभी किसी ने ध्यान नहीं दिया गया तुलनात्मक भाषाविज्ञान का आरंभ ही अटकलबाजी से हुआ और यह लगातार कयासों के सहारे आगे बढ़ता रहा। इसकी भूमिका तो कुछ पहले से तैयार हो रही थी परंतु यह युरोप की भाषाओं तक सीमित थी और नितांत बचकानी थी। उदाहरण के लिए
Giuseppe Scaligero (1540-1609) used the word for “God”, thereby classifying the languages of Europe into “deus-languages” (Latin and the Romance languages) “gott-languages” (the Germanic group), “boge-languages” (the Slavic
group), and Greek, in which the word for “god” is theos. (LINGUISTIC ANTHROPOLOGY –Comparative and Historical Linguistics – Ranko Matasović, 3) उन्होंने भाषाओं के बीच किसी तरह का संबंध तलाशने की जगह उन्हें भिन्न व्यवस्थाओं या संयोजनों (matrices) की संज्ञा दी। संस्कृत से परिचय ने यूरोप की भाषाओं से भारतीय के संबंध को ही उजागर किया था, अपितु यूरोप की भाषाओं को देखने का नजरिया बदल दिया था। उदाहरण के लिए अभी तक जो पृथक व्यवस्थाएं प्रतीत हो रही थीं वे अब ऐसे धागों से जुड़ी दिखाई दे रही थीं और ये धागे संस्कृत से जुड़े थे। कहें यूरोप की भाषाएं संस्कृत के हाथ की कठपुतलियों या संस्कृत के उपग्रहों में बदल गई थीं-

संस्कृत से Gottfried Wilhelm Leibniz (1646-1716) came very close to recognizing
the fundamental relatedness of (Indo-European) languages of Europe, most of which he
classified as “Celto-Schytian”.

Sanskrit
dev/dyaus
bhag/bharg
asuro mahan
(>mahishasur)

Greek, in which the word for “god” is theos
“deus-languages” (Latin and the Romance
Iranian
ahur mzda
“boge-languages” (the Slavic
gott-languages” (the Germanic group

In the eighteenth century information about Sanskrit, the learned language of India, became known among the learned circles in Europe. This was mostly due to the work of Christian missionaries in India, such as the French Pierre de Coeurdoux, or the Croat-Austrian Filip Vezdin (a. k. a. Paulinus a Sancto Bartholomaeo, 1748-1806), who published the first European grammar of Sanskrit. While many scholars had thought that the similarities of major European languages could be explained as the result of language contact, the obvious similarities of basic Sanskrit words with their synonyms in the classical languages required a different explanation. It was highly unlikely that the similarity between, e. g., Sanskrit pitar- “father”, mātar- “mother”, and bhrātar-
“brother” with Latin pater, mater, and frater could have been the result of borrowing. It was not long before William Jones (1746-1794) proposed that Sanskrit, Greek, Latin, and several other languages we now call Indo-European, had “sprung from some common source, which, perhaps, no longer exists.”

Post – 2017-12-25

काटी नहीं है जी है हर एक पल की जिन्दगी
आईना भी बोला, ‘कहीं कोई शिकन नहीं’ ।।