जाली भाषा, जाली भाषाविज्ञान(४)
संस्कृत जाली भाषा थी यह संस्कृत से परिचित कोई नहीं मान सकता था। स्टीवर्ड ऐसा सोच सके क्योंकि उनको संस्कृत का ज्ञान नहीं था, पर संस्कृत के विषय में उपलब्ध सूचनाओं के आधार पर वह यह मानते थे कि संस्कृत, ग्रीक और लातिन के बीच जितनी निकटता है वह एक ही भाषा से उत्पन्न भाषाओं में नहीं हो सकती। या तो संस्कृत का प्रसार यूरोप तक हुआ हो, या ग्रीक का प्रसार भारत तक। संस्कृत भाषियों का यूरोप तक पहुंचने का कोई प्रमाण न था, जब कि ग्रीकों के भारत पहुंचने का और रोमनों के व्यापारिक संपर्क का ऐतिहासिक प्रमाण था, इसलिए वह अविश्वसनीय पाते हुए भी इसी पर जोर दे रहे थे।
परन्तु बात इतनी ही नहीं थी। वह यह भी जानते थे कि भारत में पौराणिक वृत्तों में हूणों, चीनियों, यवनों आदि को व्रतच्युत क्षत्रियों की सन्तान बताया गया। पौराणिक विवरणों में सुदूर इतिहास का बीज सत्य तो बचा रहता है परन्तु जिस कथा के, या कहें जिन कथाओं के कलेवर में उन्हें समेटा जाता रहा है वे बहुत अतिरंजित और कई बार हास्यास्पद हुआ करती थीं। उदाहरण के लिए हूणों, चीनियों, यवनों के देश में और भारत के ही आर्यावर्त से बाहर जाने को किसी चरण पर प्रवेशवर्ज्य करार दे दिया गया। ऐसा करने वालों व्रतच्युत या व्रात्य माना जाने लगा। वर्ण समाज में दुबारा स्वीकार्यता के लिए प्रायश्चित करना पड़ता था ।
ऐतिहासिक साक्ष्य यह कि दक्षिण भारत में पांड्य और चोल राजा जिन्होंने ब्राह्मणों को आमंत्रित किया अपनी वंश परंपरा उत्तर के क्षत्रिय राजंशों से जोड़ते थे इसके बाद उन्हीं के आश्रय में पलने वाले इन ब्राह्मणों ने उन्हें शूद्र ही माना। यही बात उत्तर कुरु, उत्तर मद्र, बाह्लीक, सूर्यवंशा /सूरी या हुर्रि, मित्र या मितन्नी, खत्ती या हत्ती के विषय में कही जा सकती है। उन उन क्षेत्रों में बसे लोगो के बीच भारत से जाने वाले जनों की प्रभावशाली उपस्थिति दिखाई देती है यह बीज सत्य है। अब इसी क्षीण स्मृति को कई पुराण कथाओं में दुहराया गया है। पहली विश्वामित्र के अवज्ञाकारी पचास पुत्रों के निर्वासन द्वारा, दूसरा मनु के व्रतच्युत क्षत्रियों द्वारा, तीसरा विश्वामित्र को दंडित करने के लिए वसिष्ठ की गाय की योनि से।
तीनों में किसी से उन परिस्थितियों का सही पता नहीं चलता जिनमें संस्कृतभाषी वहां पहुंचे थे। यदि वैदिक देवोपासकों की उपस्थिति का पुरातात्विक प्रमाण न होता और लगभग डेढ़ हजार सालों तक उनके दबदबे के संकेत न मिलते और यह सच न होता कि होमर एशिया माइनर की ग्रीक में अपने महाकाव्य की रचना न कर रहे थे तो ग्रीक के रूपान्तरण का वह चित्र समझ न आता जिसकी शर्तों को, वस्तु स्थितिसे अवगत हुए बिना ही स्टीवर्ट ने पूरे विश्वास से रखा था।
परन्तु वह राष्ट्रवादी थे, स्काट राष्ट्रीयता के आनदोलनकारी थे जिसके कारण उनके छात्रों के अतिरिक्त अनुयायियों की भी बड़ी संख्या थी और उनके द्वारा किसी निर्णय पर पहुंच जाने के बाद सामान्य शिक्षित जनों के बीच वह वज्रलेख की तरह उतर जाता था।
हमने स्टीवर्ट को इतने विस्तार से, कुछ बातों को दहराते हुए इसलिए केन्द्र में रखा कि:
१. भाषा की प्रकृति और विकास पर उनका चिन्तन किसी अन्य भाषावैज्ञानिक से अधिक गहन था;
२. उन्होंने उस परिवार की संभावना को खारिज किया था जिसकी कल्पना विलियम जोंस ने की थी और जिसे अंतत: इंडोयूरोपियन (भारोपीय) की संज्ञा मिली;
३. इस पारिवारिकता के कारण आगे का सारा काम औचित्य स्थापन का भगीरथ प्रयत्न बन कर रह गया, फिर भी कोई ऐसा सुझाव या हल सामने न आया जो स्वयं यूरोपीय विद्वानों को सर्वमान्य हुआ हो।
४. वे सभी सचाई से परिचित थे और सभी इस बात के लिए प्रयत्नशील रहे कि भारत की ओर निगाह न जाने पाए, इसलिए यह दुहराते रहे कि भारत पर बहुत विचार किया जा चुका, अब उस पर विचार करने की जरूरत नहीं, जब कि हम देख आए हैं कि निकटता की प्रथम स्वीकृति के साथ सारा प्रयत्न भारत से मुक्ति पाने की रही और एक बार को भी पीछे लौट कर नहीं देखा गया। हां चेतना में जोंस की घोषणा से पहले कोई दूसरा विकल्प नहीं सूझ रहा था और आज तक बना हुआ है, अन्यथा कम से कम अनेक संभावनाओं मे से एक संभावना के रूप भारत को नकारने का प्रयत्न न होता।
यहां हम एक विचित्र सचाई का सामना करने को बाध्य होते हैं। यह है ज्ञान के विरुद्ध, उसे नकारने के लिए, एक शास्त्र की रचना, जिसका मान बढ़ाने के लिए जब तब विज्ञान कह लिया जाता था, पर अन्त में बे आबरू करके उसे बाहर कर दिया गया फिर भी बिना अनुमति घुसने की और भाषाविज्ञान में इसे शामिल मानने की आदत नहीं जाती।
अब हमारे पास वैज्ञानिक खोज या सत्यान्वेषण के नाम पर तीन काम बच रहते हैं:
१. जालसाजी के तारों की जांच करना, न कि तुलनातमक और ऐतिहासिक भाषाविज्ञान के नाम पर जो कुछ पढ़ाया जाता है उसके फरेब में आना।
२. कारसाजी के बावजूद इसे मान्य बनाने के लिए जिन कड़ियों की छानबीन की गई है उनको समझते और उनकी सीमाओं का ध्यान रखते हुए उनका उपयोग करना। कहें अर्धसत्य के सत्यांश का आंकड़ो के रूप में उपयोग करना। उदाहरण के लिए इतने श्रम से तैयार किए गए ध्वनि नियमों को न तो अकाट्य मान सकते हैं, न उनकी उपेक्षा कर सकते हैं, क्योंकि संस्कृत के ध्वनिनियम द्रविड मे ही काम नहीं करते। ये नियम न होकर प्रवृत्तियां हैं जिनका एक सीमा तक निर्वाह होता है और उसके बाद नहीं चल पाते। दसरे ये प्रवृत्तियां भी एक निश्चित भाषिक पर्यावरण के अनुरूप होती हैं, इन्हें प्रवृत्ति के रूप मे भी सार्विक नहीं बनाया जा सकता। उदाहरण के लिए भारतीय वैयाकरणों ने समान आशयों और लगभग समान ध्वनियों वाले शब्दों के सर्वनिष्ठ बीज ध्वनि को धातु की संज्ञा दी। इसी की तर्ज पर यूरोपीय भाषाओ के बहुनिष्ठ ध्वनि को स्टेम की संज्ञा दी। ये यूरेपीय भाषाओं में प्राप्त शब्दों को समझने में सहायक तो हो सकते हैं पर संस्कृत की धातुओं या शब्दों को समझने में सहायक नहीं । कारण संस्कृत की ध्वनियों का उच्चारण ईरानी और यूरोपीय जन अपनी ध्वनिसीमा में कर रहे थे।
3. इनकी आड़ में जो जाली इतिहास रचा गया उसको सही करना और साथ ही यह भी समझना की भारतीय इतिहासकारों ने स्वयं औपनिवेशिक इतिहास को जारी रखने के लिए अपनी विश्वसनीयता तक दांव पर लगा दी।