Post – 2017-12-26

जाली भाषा, जाली भाषाशास्त्र, जाली इतिहास (३)

इस बात पर कभी किसी ने ध्यान नहीं दिया कि तुलनात्मक भाषाविज्ञान का आरंभ ही अटकलबाजी से हुआ और यह लगातार कयासों के सहारे आगे बढ़ता रहा। इसकी भूमिका तो कुछ पहले से तैयार हो रही थी परंतु यह युरोप की भाषाओं तक सीमित थी और नितांत बचकानी थी। उदाहरण के लिए जूसेप स्कैलिजेरो Giuseppe Scaligero (1540-1609) ने यूरोप की भाषाओं के वर्गीकरण के लिए उनमें पाए जाने वाले गाड के पर्यायों को आधार बनाया और इनके चार वर्ग किए, 1. “deus-languages” (Latin and the Romance languages); 2. “gott-languages” (the Germanic group); 3. “boge-languages” (the Slavic group), और 4. Greek, जिसमें “god” के लिए theos का प्रयोग किया जाता है (Comparative and Historical Linguistics – Ranko Matasović, 3) उन्होंने इन भाषाओं के बीच किसी तरह का संबंध तलाशने की जगह उन्हें भिन्न व्यवस्थाओं या संयोजनों (matrices) की संज्ञा दी।

संस्कृत से परिचय ने यूरोप की भाषाओं से भारतीय भाषाओं से संबंध को ही उजागर नहीं किया था, अपितु यूरोप की भाषाओं को देखने का नजरिया बदल दिया था। उदाहरण के लिए अभी तक जो पृथक व्यवस्थाएं प्रतीत हो रही थीं वे अब ऐसे ऐसे तंत्र से जुड़ी दिखाई दे रही थीं जिसमे उनकी जितनी निकटता अपने पड़ोस की भाषा से थी उससे अधिक निकटता संस्कृत से थी, और पारस्परिक निकटता संस्कृत के कारण थी। कहें यूरोप की भाषाएं संस्कृत के हाथ की कठपुतलियों या संस्कृत के उपग्रहों में बदल गई थीं। उदाहरण के लिए
deus समूह और ग्रीक theos यदि सं. देव और द्यौस से जुड़ते थे तो boge भग् और भर्ग से। भारतीय भाषाओं से परिचय के बाद एक नई मैट्रिक्स ईरानी की भी चर्चा में आ गई थी जिसमें अहुरमज्दा का प्रयोग होता था। इसका संबंध असुर महान (त्वमग्ने असुरो महाँ असि) अग्नि से है

उस समय तो अधिक गहराई से विचार करने का समय नहीं आया था परंतु हम यह देख सकते हैं कि क्यों ऋग्वेद में सभी देवों को अग्नि का ही रूप बताया, सभी में अग्नि को ही व्याप्त बताया । वही देव है, वही सूर्य है, वही अर्यमा, वरुण, विष्णु, मित्र और भग है, वही द्यौस्पितर है, रुद्र, वही ब्रह्म है और उसी के किसी नाम और रूप को संस्कृत के प्रसार क्षेत्र में परमेश्वर के रूप में स्वीकार किया गया। पर रोचक यह है । वह अग्नि एक में देव बन कर पूजा जाता है और महासुर या महिषासुर बन कर जघन्य हो जाता है और दूसरे में अहुर मज्दा बन कर समादृत होता है, पर देव जघन्य बन जाता है। कुछ और पश्चिम में देव के दोनों आशयों के दर्शन होते हैं। एक अंग्रेजी के डीटी और संभवत: डेविड जैसे नाम में तो दूसरा डेविल में। यदि तुलनात्मक और ऐतिहासिक भाषाविज्ञान सत्यान्वेषण की दिशा में बढ़ता तो इन शब्दों की व्याख्या के माध्यम से उस काल के सामाजिक संबंधों और प्रतिस्पर्धा करने वाले समुदायों का इतिहास भी पता चलता और भाषा के विकास का भी पता चलता और कुछ ऐसे संबंधों का भी पता चलता जिनको विचार की परिधि से बाहर रख कर भाषा परिवारों की बात की गई । तब पता चलता कि देव शब्द उस भाषा समूह का है जिसमें घोष और महाप्राण ध्वनियों का अभाव था। देव का जन्म दी (दीप, दीदा, दीदार) से हुआ था जो पहले ती (तिथि, तिलक, प्र-तीक, तेज) था और एक मूर्धन्य उच्चारण वाले समुदाय में टी (टिकठी, टीका, टिक्कल, टिकुली) बना, अपनी ज्ञान सीमा के कारण यह सोचता हूं कि अंग्रेजी के टिक-ठीक, टिकिट में भी शायद वही हो। अब आर्य, द्रविड़ की पॉथकता के झमेले समाप्त हो जाते ।

जो भी हो संस्कृत भाषा से परिचय पश्चिम के लिए एक अवसर था जिससे मानविकी को भी वैज्ञानिक स्तर तक उठाया जा सकता था। आखिर जब मन और मेधा को विज्ञान का विषय बनाया जा सकता है, फिर मानव को क्यों नहीं? परन्तु आत्मरक्षा की चिन्ता और वर्चसव की कामना में उन्होंने उसे खो दिया। ज्ञानलोक में मानवता पराजित हो गई, भौतिक अग्रता के लिए कुछ भी करने वालों को अब तक लाभ ही मिला है, पर उसी असंतुलन ने हमें वहां पहुंचा दिया है कि केल यह तय करना बाकी रह गया है कि भण् की आवाज कौन पैदा करेगा। एक से हिरण्यगर्भ का विस्फोट हुआ था और सृष्टि हुई थी दूसरे से महाविनाश हो सकता है।

कल मैंने अपनी पोस्ट देने की जगह राधावल्लभ जी को टैग कर दिया। यह बहुत पहले उनके लिखे संस्कृत साहित्य के इतिहास का एक अंश था। इसमें कुछ भी गलत न था। इतिहास में तथ्यों को प्रस्तुत किया जाय यह जरूरी है और यही उसकी विश्वसनीयता का आधार। जो गलत नहीं होता वह होता ही नहीं है, होते वे हैं जिनको सही मान कर वह संकलित कर देता है, पर गलत सिद्ध होने का खतरा नहीं उठाता। लिखे को दुहराने वाले ज्ञानोपासक होते है, जाने को जानने वाले ज्ञानी भी, पर समझदार नहीं। समझ अपनी समस्याओं से सीधे टकराने और समाधान के क्रम में कुछ गलतियां करने और उन गलतियों से बचते हुए सही समाधान तक पहुंचने की एक सरणी है।

आंकडों या जमीनी सचाई के बिना सोचना खयाली पुलाव है, आंकड़ों से बंध कर रह जाना जड़ता है। हमारा समाज इन दो अतियों का शिकार है जिसके बुद्धिव्यवसायियों को यह समझाना तक कठिन होता है कि मैं इतिहास पर बात नहीं कर रहा हूं, इतिहास के झरोखे से वर्तमान को देखने और दिखाने का प्रयत्न कर रहा हूं और यह बताते हुए कर रहा हूं कि हो सकता है मेरी नजर कमजोर हो, आप अपनी नजर से देखिए और मुझे भी मेरी कमी बताइए ताकि हम सचाई के अधिक निकट पहुंच सकें। सही लोगोंकी भीड़ है, गलत होने का खतरा उठाने वाले नजर नहीं आते। हमारे लिए सोचने का काम आज भी दूसरे कर रहे है, हम सही बने रहने की चिंता में उनसे शुद्ध ज्ञान ग्रहण कर रहे हैं। सचेत राष्ट्र की जगह झोला राष्ट्र बन गए हैं। आईडिया लुप्त है, आइईडियालोजी सवार। हमें सत्कार की नहीं, वैचारिक तकरार की जरूरत है।