धर्मदृष्टि और धर्मांधता
अर्थ का अर्थ होता है, आहार। विकासक्रम में इसका विस्तार उपभोग की वस्तुओं तक हो जाता है। अर्थव्यवस्था पर किसका अधिकार होता है, वह दुनिया को अपने इशारे पर चलाता है।
दुनिया का कोई कारोबार ऐसा नहीं जो अर्थतंत्र से प्रेरित या प्रभावित न हो। कोष पूर्वा समारंभाः। धर्म चेतना भी इससे मुक्त नहीं रह सकती।
धर्म के विषय में आज हमारा दृष्टिकोण अधिक उलझा हुआ है। इसे एक ऐसी बुराई के रूप में देखा जाता है जिससे मुक्त होकर ही मानवता शांति और सद्भाव से रह सकती है, जबकि धर्म की आवश्यकता इसलिए हुई कि मनुष्य के स्वभाव को अधिक मानवीय बनाया जा सके।
मनुष्य के आचरण को विशेष योजना के अनुसार चलाने के लिए भय और लाभ, दंड और पुरस्कार की जरूरत होती है। इसीलिए ईश्वर, स्वर्ग नरक आदि की कल्पना की गई।
मनुष्य का स्वभाव अपने प्राकृतिक परिवेश से, अर्थात् उसमें उपलब्ध जीवन निर्वाह के साधनों से प्रभावित होता है। उदार प्राकृतिक परिवेश में, आहार के मामले में निश्चिंत मनुष्य ही अहिंसा की बात सोच सकता था। खुशहाली आने के साथ अपनी क्रूरता के लिए कुख्यात पश्चिम भी जानवरोे के प्रति क्रूरता के विषय में संवेदनशील हो उठा है।
जहां उत्पादन संभव था वहीं पर उत्पादन के लिए धैर्य, श्रम, अध्यवसाय जैसे गुणों का विकास हो सकता था। यदि हम कहें कि इन गुणों का विकास कृषिकर्म के आरंभ के साथ हुआ तो गलत नहीं होगा।
आदिम अवस्था में जब औजारों का विकास नहीं हुआ था या वे कामचलाऊ किस्म के थे, बीज बोने के लिए जमीन को खरोचने, सिंचाई के लिए पानी जुटाने मैं कितना श्रम लगता था इसका अनुमान हम नहीं कर सकते। दूसरे जानवरों और जंगली जत्थों से खेती को बचाने के लिए जितनी जागरूकता, जितना साहस और आपसी सहयोग जरूरी था, इसका भी सही अनुमान नहीं लगाया जा सकता।
बीज बोने से लेकर फसल तैयार होने तक लगातार कितने धैर्य से देखभाल करनी होती थी, इसका कुछ अनुमान अवश्य कर सकते हैं। आरंभ में उत्पाद बहुत अधिक नहीं हो सकता था। बीच में अभाव के दिनों में भी अगली फसल के लिए बचा कर रखे हुए बीजों को हाथ न लगाना, संयम और लोभ पर नियंत्रण के बिना संभव नहीं था।
इन मानवीय मूल्यों का विकास ऐसे समुदायों में नहीं हो सकता था, जिन्होंने किसी भी कारण कृषि से बचना चाहा और जो कुछ मिला पेट भरकर मौजमस्ती में समय विताते रहे, यद्यपि कलाओं के विकास में उनका योगदान नकारा नहीं जा सकता।
इन मानवीय मूल्यों का विकास ऐसे समुदायों में नहीं हो सकता था, जो ऐसे प्राकृतिक परिवेश में रहते थे जिसमें कृषि उत्पादन संभव ही नहीं था। वहां ऐसे किसी तरीके को अनुचित नहीं माना जा सकता था जिसका सहारा लिए बिना जीवन निर्वाह संभव ही नहीं था। जीववध, धोखाधड़ी, दुस्साहस, लूटपाट आदि की प्रवृत्तियों का विकास जो कृषिजीवी समाज में दुर्गुण मानी जाती हैं, उनके लिए जरूरी था।
हमें अपने नियंत्रण में रखने वालों ने, हमारे भीतर आत्म निषेध की भावना को महिमामंडित कर के दासमूल्यों का इतना आदी बना दिया कि हम अपने अतीत के सच को स्वीकार करते हुए भी घबराते हैं कि कहीं इसे आत्मरति का प्रमाण न मान लिया जाए।
कल्पना कीजिए, एक ओर तो पूरा यूरोप है, जिसके उस भाग को छोड़कर जो लघु एशिया में वर्चस्व स्थापित करने वाले भारतीय भाषाभाषियों के संपर्क में आए, शेष भाग ईसा के बाद की शताब्दियों में भी बर्बरता की अवस्था में था.। उसमें न तो किसी में मानक भाषा का विकास हुआ था, न साहित्य का। जिस छोटे से भाग में जागरूकता आई थी उसकी भाषा दर्शन, साहित्य, ज्ञान-विज्ञान सभी पर भारतीय छाप मुहर की तरह दिखाई देती है। इन्हीं में से एक रोम के साम्राज्य विस्तार से यूरोप के दूसरे भागों में में सुगबुगाहट पैदा हुई। इसके बाद भी पिछले कुछ सौ सालों की अग्रता के बल पर पश्चिमी विद्वान अपनी सांस्कृतिक पराजय को छिपाने के लिए इतिहास को उलटते हुए यह सिद्ध करने के लिए धूर्ततापूर्ण कुतर्क गढ़ते हुए दावा करते रहे कि भाषा, संस्कृति, दर्शन, देव शास्त्र सब कुछ पश्चिम से भारत को पहुंचा है। मजा यह कि साक्ष्यों के दबाव में उन्हें यह भी स्वीकार करना पड़ रहा था की वैदिक भाषा अन्य भाषाओं की तुलना में अधिक प्राचीन है, देव शास्त्र और पुराण कथा के मूल रूप भारत में पाए जाते हैं पश्चिम की दिशा में बढ़ते हुए उनमें इतनी विकृति आ जाती है कि वे अपने मूल रूप के मखौल बनकर रह जाते हैं।
इस प्रकट अंतर्विरोध के बावजूद हमारे विश्व-विख्यात विद्वान विश्व-विख्यात इसलिए हुए उन्होंने अपने दिमाग से काम ही न लिया सिर्फ मालिक की बात मानते रहे और मिल्कियत हासिल करते रहे।
अच्छे गुलाम बेअदबी नहीं करते, जबान नहीं लड़ाते, बढ़ बढ़ कर नहीं बोलते। हमांरे विद्वानों ने मोल आंकने वालों को निराश नहीं किया। उन्हीं के द्वारा तैयार किए गए अकादमिक मानकों पर सही उतरने का प्रयत्न करते हुए न वे अपने इतिहास का सामना कर सके, न वर्तमान। वे आज भी स्वतंत्र होकर सोचने की जगह पश्चिमी अकैडमी दबाव में अपनी मान्यताओं को अनुकूलित करने का निरंतर प्रयत्न करते जा रहे हैं।
हमें अपने अध्ययन और चिंतन के क्रम लगातार इस बात का ध्यान रखना होगा, कि सभ्यता में आवयविकता या अंगांगीभाव होता है, गेस्टाल्ट होता है। एक प्रक्रिया से होकर उस तक पहुंचना होता है। समृद्धि इसका आधार होती है।
ये सारी शर्तें भारत पूरा करता था, तीन फसलें साल में भारत के सिंधु गंगा के उर्वर भूभाग में उगाई जाती थी, तथाकथित उर्वर चंद्रलेखा में नहीं। कृषि क्रांति के आरंभ के साथ दो मूल्य प्राणियों का रक्तरंजित संघर्ष जिसे हम देवासुर के नाम से जानते हैं, भारतीय पुराण कथाओं का हिस्सा है। पश्चिमी जगत की पुराण कथाओं के अनुसार हुई ईडन गार्डेन या आनंद उद्यान कहीं पूरब में था। समुद्र यात्रियों ने इसे लंका में ‘पहचान’ भी लिया। अरब की कथाओं में हिंदुस्तान जन्नतनिशां के रूप में याद किया जाता रहा। कृषि क्रांति के साथ जैसा हमने ऊपर बताया पैदा होने वाली मूल्य प्रणाली भारत में मान्य है। यह है वह सांस्कृतिक आवयविकता जिससे सभ्यता के जन्म, प्रसार, विस्तार, संपर्क सूत्र और आज तक के इतिहास को समझा जा सकता है।
भूखा आदमी धर्म का पालन नहीं कर सकता। भौतिक निर्वाह में अक्षम व्यक्ति बौद्धिक और आध्यात्मिक उत्थान नहीं कर सकता। यह चेतना भारतीय मनीषा में शास्त्रों से लेकर जन विश्वास तक में फैली है। मनुष्य को मनोवैज्ञानिक तरीकों से सभ्य बनाए रखने के लिए, आचरण को मर्यादित करने के लिए जिस धर्मदृष्टि का जन्म भारत में हुआ उसका उसका चरित्र पश्चिम में पहुंचने के बाद क्यों इतना हो गया कि उसने धर्मांधता का रूप ले लिया इसे समझने के लिए उसकी अर्थ व्यवस्था को समझना होगा।