Post – 2019-04-30

यह तुकबंदी कश्मीरी पंडितों पर नहीं है।

वहां से निकले तो आंसू बहा के निकले थे
सहेज पाए थे क्या, क्या गवां के निकले थे
हिसाब इसका न मांगो, हिसाब है ही नहीें
तड़पते चीखते सबको बता के निकले थे।।
खुल्द से निकले थे आदम सुना है हमने भी
अपनी हौवा की आबरू बचा के निकले थे।।
जिसको जो नाम दिया आज तक बचा है वही
हम अपना नाम पता तक मिटा के निकले थे।
हम वतनबद्र हुए, ला-वतन नहीं है पर
चलते चलते भी दिया एक जला के निकले थे।।
बचा रहे न बुझे आंधियों में तूफां में
मंत्र पढ़ सकते न थे, बुदबुदा के निकले थे।।

Post – 2019-04-30

डर सवालों से नहीं , और जवाबों से नहीं।
डर कातिलों के इरादों से, बवालों से नहीं।
आप धमकाते हैं तो उतना डर नहीं लगता,
चुप लगा जाते हैं बेसाख्ता डर लगता है।।
जुल्म का हाशिया मालूम है पहले से मुझे
अमन अमान के नारों से ही डर लगता है।
आपके हुस्न के चर्चे तो सुने थे मैैने
देख कर हुश्न के साए से भी डर लगता है।
क्या कहूं, किससे कहूं, कौन सुनेगा मेरी
सोचते हैं तो इशारों से भी डर लगता है।।
दुश्मनों से तो सजग था कभी डरता ही न था
परिचितों से नहीं यारों से भी डर लगता है।।

Post – 2019-04-29

पहेली

सामी मजहबों में जो बात अर्थव्यवस्था की दृष्टि से ध्यान देने योग्य है वह यह कि मूलतः ये पशुपालक थे। इनका गठन कबीलाई था। ये खानाबदोश थे। कबीलों का एक ही सरदार हो सकता है, जिसके आदेश की अवज्ञा नहीं हो सकती थी। इस तरह का ढांचा दूसरे जीवों जंतुओं में भी पाया जाता है इसलिए इसे अंतःप्रवृत्ति चालित माना जा सकता है। इनको चलाने वाले नियम इनके धर्म थे। कबीले के निर्वाह के लिए ये पर्याप्त थे।

कबीले न तो दूसरे कबीलों में मिलना चाहते थे, न दूसरों को अपने मे मिलाना चाहते थे, इसलिए उनको किसी ऐसे ही नियम या व्यवस्था की जरूरत नहीं थी जिसे बड़े पैमाने पर लागू किया जा सके। फिर भी अभाव, संकट और आधि- व्याधि से रक्षा के लिए उनको किसी अति माननीय सत्ता की सहायता की जरूरत थी, और उन्होंने इसके लिए अपने तरह की देवी देवताओं की कल्पना कर रखी थी। यह बहुदेववाद उस बहुदेववाद से भिन्न था जो प्राकृतिक शक्तियों के प्रति सम्मान प्रकट करने के लिए मानवीकरण करने से पैदा हुआ था। भारत में दोनों के बहुदेववाद थे क्योंकि भारतीय समाज रचना में और भारतीय अर्थव्यवस्था में दोनों का समावेश हुआ था।

एक दूसरी बात जो सामी मतों में देखने में आती है वह है पुराण कथा के मामले में सभी का यहूदी पुराण कथाओं के प्रति गहरा सम्मान है। उसे पूरे आदर भाव से ईसाइयत ने भी स्वीकार किया और इस्लाम ने भी। इसका कारण लगता है कि सभी मजहबों को अपनी आप्तता के लिए प्राचीनता की भी आवश्यकता होती है, और इतिहास के समर्थन की भी। आदर भाव के बाद इनमें एक दूसरे के प्रति उतना ही गहरा सम्मान होना चाहिए । इसके विपरीत नकली कारण ढूंढ कर वे एक दूसरे से नफरत करते रहे हैं।

इनका आपसी गुंफन कितना गहरा है इस समझाने की जगह कुछ प्रश्न करला चाहता हूं। क्या आपने रफी की आवाज में शम्मी कपूर की खास अदा के साथ ‘याहू’ का उच्चारण सुना है जिसकी पिछली इबारतें तो मुझे भी याद नहीं। इसमें जो सबसे बेतुका प्रयोग लगता है वह ‘याहू’ है, क्योंकि हम इसका अर्थ नहीं जानते। दूसरी भाषाओं के टुकड़ों को – सायों नारा सायों नारा की तरह – फिल्मी गानों में प्रयुक्त होते देखकर लगता है, गाना लिखने वाले ने कमाल करने के लिए बेतुके जुमले जड़ दिए हैं।

यदि आपने शम्मी कपूर के याहू का मतलब नहीं समझा तो एक कव्वाली में अल्लाहू अल्लाहू के टेक को तो यह सोचकर टाल गए होंगे कि इसमें अल्लाह के अंतिम अक्षर में ऊकार जोड़ दिया गया है। सामी लिखावट में स्वरों का महत्व ही नहीं है इसलिए एक ही लिखित शब्द को इलाही, इल्लाह, इलाह, अल्लाह अल्ला अल्लाहू रूपों में पढ़ा जा सकता है ।

इसे समझे बिना तो आप इलाहाबाद का मतलब भी नहीं समझ सकते और यह तो समझ ही नहीं सकते कि यह प्रयागराज से अधिक सम्मानजनक शब्द है, हिंदू विश्वास परंपरा के अनुसार है, और ऐसा नामकरण अपने बाद के दिनों में केवल अकबर ही कर सकता था।

प्रयागराज में कर्मकांड का महत्व है, कहते हैं, भरत दौष्यंति ने बहुत बड़ा अश्मेवध किया था जिससे यह सोज्ञा मिली। इसका उस विश्वास के सामने क्या महत्व है जिसमें यह बताया जाता रहा है कि सृष्टि यहीं से आरंभ हुई। इसकी प्रतिष्ठा के कारण ही अश्वमेध के लिए इसको भी चुना होगा।

अकबर ने प्रयागराज का इस्लामीकरण नहीं किया था, इसकी महिमा के सामने अपना सम्मान प्रकट किया था। प्रयागराज का पुराना नाम क्या रहा होगा नहीं जानते, परंतु अकबर ने प्रयागराज का अपमान नहीं किया था, यह काम इलाहाबाद को प्रयागराज बनाने वाले महंतों, पंडों और पुजारियों ने किया है।

‘याहू’ ‘यह्व’ का उच्चारभेद है, जिससे यहूदी नाम का संबंध है। स्वर की अनुपस्थिति के कारण इसके लिपिबद्ध रूप को यह्व, जह्व, जेहोवाह्, वहवे, यह्वे, जहवेह् आदि अनेक रूपों में पढ़ा जा सकता है। सही उच्चारण क्या था यह इसलिए पता नहीं कि यहूदी इसे उतना पवित्र मानते थे कि इसका उच्चारण तक न करते थे।

इसका अर्थ था सर्वदर्शी, सर्वशक्तिमान, सर्वोपरि, अनन्य स्रष्टा और जगत का आस्थायोग्य प्रशासक। यह 300 ई.पू. में चलन में आया। जाहिर है इसकी किसी मूल से व्युत्पत्ति संभव नहीं। इस संकल्पना के साथ भावनाओं के जुड़ने के साथ इसका अर्थोत्कर्ष होता गया।

हमारे लिए हैरानी की बात यह है कि ऋग्वेद में यह्व, यह्वी का प्रयोग अनेक बार हुआ है और यहूदी परंपरा से दो हजार साल पहले – दुर्निवार, विक्षोभकारी, सर्वोपरि आदि आशयों में हुआ है। (1) तरन्तं यह्वतीरपः,1.105.11 (2) स नो राधांस्या भर ईशानः सहसो यह्व, 7.15.11; (3) अक्तुं न यह्वमुषसो पुरोहितं तनूनपातमरुषस्य निंसते, 10.92.2, (4) त्वं देवानामसि यह्व होता स एनान्यक्षीषितो यजीयान् ।। 10.110.3

संभवतः बहु यह्व का अपभ्रंश हो या यह्व बहु का कौरवी प्रभाव में संस्कृतीकरण।
इसका रहस्य क्या है? क्या इब्राहिम के मत के उत्थान में लघु एशिया मे बसे वैदिक आध्यात्मिक ऊहापोह का हाथ नहीं था?

Post – 2019-04-28

धर्मदृष्टि और धर्मांधता

अर्थ का अर्थ होता है, आहार। विकासक्रम में इसका विस्तार उपभोग की वस्तुओं तक हो जाता है। अर्थव्यवस्था पर किसका अधिकार होता है, वह दुनिया को अपने इशारे पर चलाता है।

दुनिया का कोई कारोबार ऐसा नहीं जो अर्थतंत्र से प्रेरित या प्रभावित न हो। कोष पूर्वा समारंभाः। धर्म चेतना भी इससे मुक्त नहीं रह सकती।

धर्म के विषय में आज हमारा दृष्टिकोण अधिक उलझा हुआ है। इसे एक ऐसी बुराई के रूप में देखा जाता है जिससे मुक्त होकर ही मानवता शांति और सद्भाव से रह सकती है, जबकि धर्म की आवश्यकता इसलिए हुई कि मनुष्य के स्वभाव को अधिक मानवीय बनाया जा सके।

मनुष्य के आचरण को विशेष योजना के अनुसार चलाने के लिए भय और लाभ, दंड और पुरस्कार की जरूरत होती है। इसीलिए ईश्वर, स्वर्ग नरक आदि की कल्पना की गई।

मनुष्य का स्वभाव अपने प्राकृतिक परिवेश से, अर्थात् उसमें उपलब्ध जीवन निर्वाह के साधनों से प्रभावित होता है। उदार प्राकृतिक परिवेश में, आहार के मामले में निश्चिंत मनुष्य ही अहिंसा की बात सोच सकता था। खुशहाली आने के साथ अपनी क्रूरता के लिए कुख्यात पश्चिम भी जानवरोे के प्रति क्रूरता के विषय में संवेदनशील हो उठा है।

जहां उत्पादन संभव था वहीं पर उत्पादन के लिए धैर्य, श्रम, अध्यवसाय जैसे गुणों का विकास हो सकता था। यदि हम कहें कि इन गुणों का विकास कृषिकर्म के आरंभ के साथ हुआ तो गलत नहीं होगा।

आदिम अवस्था में जब औजारों का विकास नहीं हुआ था या वे कामचलाऊ किस्म के थे, बीज बोने के लिए जमीन को खरोचने, सिंचाई के लिए पानी जुटाने मैं कितना श्रम लगता था इसका अनुमान हम नहीं कर सकते। दूसरे जानवरों और जंगली जत्थों से खेती को बचाने के लिए जितनी जागरूकता, जितना साहस और आपसी सहयोग जरूरी था, इसका भी सही अनुमान नहीं लगाया जा सकता।

बीज बोने से लेकर फसल तैयार होने तक लगातार कितने धैर्य से देखभाल करनी होती थी, इसका कुछ अनुमान अवश्य कर सकते हैं। आरंभ में उत्पाद बहुत अधिक नहीं हो सकता था। बीच में अभाव के दिनों में भी अगली फसल के लिए बचा कर रखे हुए बीजों को हाथ न लगाना, संयम और लोभ पर नियंत्रण के बिना संभव नहीं था।

इन मानवीय मूल्यों का विकास ऐसे समुदायों में नहीं हो सकता था, जिन्होंने किसी भी कारण कृषि से बचना चाहा और जो कुछ मिला पेट भरकर मौजमस्ती में समय विताते रहे, यद्यपि कलाओं के विकास में उनका योगदान नकारा नहीं जा सकता।

इन मानवीय मूल्यों का विकास ऐसे समुदायों में नहीं हो सकता था, जो ऐसे प्राकृतिक परिवेश में रहते थे जिसमें कृषि उत्पादन संभव ही नहीं था। वहां ऐसे किसी तरीके को अनुचित नहीं माना जा सकता था जिसका सहारा लिए बिना जीवन निर्वाह संभव ही नहीं था। जीववध, धोखाधड़ी, दुस्साहस, लूटपाट आदि की प्रवृत्तियों का विकास जो कृषिजीवी समाज में दुर्गुण मानी जाती हैं, उनके लिए जरूरी था।

हमें अपने नियंत्रण में रखने वालों ने, हमारे भीतर आत्म निषेध की भावना को महिमामंडित कर के दासमूल्यों का इतना आदी बना दिया कि हम अपने अतीत के सच को स्वीकार करते हुए भी घबराते हैं कि कहीं इसे आत्मरति का प्रमाण न मान लिया जाए।

कल्पना कीजिए, एक ओर तो पूरा यूरोप है, जिसके उस भाग को छोड़कर जो लघु एशिया में वर्चस्व स्थापित करने वाले भारतीय भाषाभाषियों के संपर्क में आए, शेष भाग ईसा के बाद की शताब्दियों में भी बर्बरता की अवस्था में था.। उसमें न तो किसी में मानक भाषा का विकास हुआ था, न साहित्य का। जिस छोटे से भाग में जागरूकता आई थी उसकी भाषा दर्शन, साहित्य, ज्ञान-विज्ञान सभी पर भारतीय छाप मुहर की तरह दिखाई देती है। इन्हीं में से एक रोम के साम्राज्य विस्तार से यूरोप के दूसरे भागों में में सुगबुगाहट पैदा हुई। इसके बाद भी पिछले कुछ सौ सालों की अग्रता के बल पर पश्चिमी विद्वान अपनी सांस्कृतिक पराजय को छिपाने के लिए इतिहास को उलटते हुए यह सिद्ध करने के लिए धूर्ततापूर्ण कुतर्क गढ़ते हुए दावा करते रहे कि भाषा, संस्कृति, दर्शन, देव शास्त्र सब कुछ पश्चिम से भारत को पहुंचा है। मजा यह कि साक्ष्यों के दबाव में उन्हें यह भी स्वीकार करना पड़ रहा था की वैदिक भाषा अन्य भाषाओं की तुलना में अधिक प्राचीन है, देव शास्त्र और पुराण कथा के मूल रूप भारत में पाए जाते हैं पश्चिम की दिशा में बढ़ते हुए उनमें इतनी विकृति आ जाती है कि वे अपने मूल रूप के मखौल बनकर रह जाते हैं।

इस प्रकट अंतर्विरोध के बावजूद हमारे विश्व-विख्यात विद्वान विश्व-विख्यात इसलिए हुए उन्होंने अपने दिमाग से काम ही न लिया सिर्फ मालिक की बात मानते रहे और मिल्कियत हासिल करते रहे।

अच्छे गुलाम बेअदबी नहीं करते, जबान नहीं लड़ाते, बढ़ बढ़ कर नहीं बोलते। हमांरे विद्वानों ने मोल आंकने वालों को निराश नहीं किया। उन्हीं के द्वारा तैयार किए गए अकादमिक मानकों पर सही उतरने का प्रयत्न करते हुए न वे अपने इतिहास का सामना कर सके, न वर्तमान। वे आज भी स्वतंत्र होकर सोचने की जगह पश्चिमी अकैडमी दबाव में अपनी मान्यताओं को अनुकूलित करने का निरंतर प्रयत्न करते जा रहे हैं।

हमें अपने अध्ययन और चिंतन के क्रम लगातार इस बात का ध्यान रखना होगा, कि सभ्यता में आवयविकता या अंगांगीभाव होता है, गेस्टाल्ट होता है। एक प्रक्रिया से होकर उस तक पहुंचना होता है। समृद्धि इसका आधार होती है।

ये सारी शर्तें भारत पूरा करता था, तीन फसलें साल में भारत के सिंधु गंगा के उर्वर भूभाग में उगाई जाती थी, तथाकथित उर्वर चंद्रलेखा में नहीं। कृषि क्रांति के आरंभ के साथ दो मूल्य प्राणियों का रक्तरंजित संघर्ष जिसे हम देवासुर के नाम से जानते हैं, भारतीय पुराण कथाओं का हिस्सा है। पश्चिमी जगत की पुराण कथाओं के अनुसार हुई ईडन गार्डेन या आनंद उद्यान कहीं पूरब में था। समुद्र यात्रियों ने इसे लंका में ‘पहचान’ भी लिया। अरब की कथाओं में हिंदुस्तान जन्नतनिशां के रूप में याद किया जाता रहा। कृषि क्रांति के साथ जैसा हमने ऊपर बताया पैदा होने वाली मूल्य प्रणाली भारत में मान्य है। यह है वह सांस्कृतिक आवयविकता जिससे सभ्यता के जन्म, प्रसार, विस्तार, संपर्क सूत्र और आज तक के इतिहास को समझा जा सकता है।

भूखा आदमी धर्म का पालन नहीं कर सकता। भौतिक निर्वाह में अक्षम व्यक्ति बौद्धिक और आध्यात्मिक उत्थान नहीं कर सकता। यह चेतना भारतीय मनीषा में शास्त्रों से लेकर जन विश्वास तक में फैली है। मनुष्य को मनोवैज्ञानिक तरीकों से सभ्य बनाए रखने के लिए, आचरण को मर्यादित करने के लिए जिस धर्मदृष्टि का जन्म भारत में हुआ उसका उसका चरित्र पश्चिम में पहुंचने के बाद क्यों इतना हो गया कि उसने धर्मांधता का रूप ले लिया इसे समझने के लिए उसकी अर्थ व्यवस्था को समझना होगा।

Post – 2019-04-27

आदमी वह भी खूब था साहब
कहता था मैं भी आदमी ही हूं।।

Post – 2019-04-27

हंसो, ठठा के हंसो
आसमान फट जाए
अपनी धरती का जो होगा
वह देखा जाएगा।।

Post – 2019-04-26

जो पी थी कभी वह तो खिजां में उतर गई
यह मौसमे बहार की रंगत का नशा है।

Post – 2019-04-26

संपादन के क्रम में

ईसा के जन्म से 900 साल पहले वेटिकन से मिली लिंग की प्रतिमा (पिछली पोस्टें देखें) इस विषय में किसी तरह का संदेह नहीं रहने देती कि मातृदेवी और लिंग – सृष्टि के मूल- की उपासना का, पश्चिमी जगत में, प्रसार भारत से हुआ था।

इसका इतिहास की व्याख्या में महत्व यह है कि हड़प्पा के जिस व्यापारिक तंत्र के माध्यम से संस्कृत भाषा, देव समाज, और ज्ञानविज्ञान का भारोपीय क्षेत्र में प्रसार हुआ था उसमें दो स्तरो के लोग सम्मिलित थे। एक व्यापारी वर्ग और दूसरा उसकी सेवा में लगे हुए लोग जो परिवहन पशुपालन, नौचालन और मालवहन का काम करते थे, घरेलू स्तर पर औद्योगिक उत्पादन में भी इन्हीं का हाथ था। ये आपस में अपनी बोलियां बोलते थे, अपनी रीति रिवाज और विश्वास का निर्वाह करते थे और व्यापक संपर्क के लिए उस भाषा का प्रयोग करते थे जिसका साहित्यिक रूप ऋग्वेद में मिलता है।

इसका ही परिणाम है कि जिस कुर्गान क्षेत्र में आर्य भाषियों की सुरक्षित बस्तियों की पहचान की गई थी उसी में द्रविड़ और मुंडारी बोलियों के प्रचलन का प्रमाण मिला। जिस लघु एशिया में आर्यभाषा बोलने वाले अभिजात वर्ग की पहचान की गई उसी के अश्वचालन पर पुस्तक लिखने वाला किक्कुली था जो मुंडारी है।

पहली नजर में हमारा ध्यान केवल संस्कृत भाषा और ऋग्वेद के देवताओं की ओर गया, जबकि जमीनी स्तर पर उर्वरता की पूजा करने वाले भी अपनी भाषा, अपने देवी देवताओं और विश्वासों के साथ उपस्थित थे।

यही कारण है की यूरोप की भाषाओं में द्रविड़ और मुंडारी के शब्दों की ओर दृष्टि जाने पर विद्वानों की समझ में नहीं आया कि वे उन भाषाओं में कैसे पहुंचे। इस समस्या के समाधान का कभी प्रयत्न नहीं किया गया।

मातृदेवियां और शिव आज भी पिछड़ी जनजातियों के विश्वास का हिस्सा हों, या हड़प्पा के नागर संदर्भ में उन के प्रमाण मिलें. अथवा भारत से लेकर इटली तक मातृ देवो की उपासना देखने में आए, इसे समझने में विद्वानों ने चूक की है, अतः सभ्यताविमर्श को सही संदर्भ में रख नहीं पाए हैं।

यूरोपीय विद्वानों की अपनी विवशता थी, भारतीय विद्वान यूरोपीय पांडित्य से निर्देशित थे।

*क्रांति करने वाले तात्कालिक सफलता में विश्वास करते हैं। उसके लिए गर्हित तरीके अपनाने के लिए तैयार रहते हैं। गर्हित तरीके यदि इच्छित परिणाम लाएं तो उन पर गर्व भी करते हैं। बंदूक की नली से निकलने वाली क्रांति की तरह। बंदूक की नली से निकलने वाली क्रांति इंसान की जबान से टपकती राल तक का सामना नहीं कर पाती, इसे आधुनिक जगत के इतिहास से परिचित लोग जानते हैं, भले वे इन दोनों के बीच के रिश्ते को न पहचानते हों।

*अंतःप्रकृति या चेतना का, महाप्रकृति – भौतिक जगत या पंचमहाभूतों के प्रपंच से, अविभाज्य संबंध है। एक में आया अंतर दूसरे को भी प्रभावित करता है। यह भारतीय चिंताधारा की लोकविदित मान्यता है, इसे ‘जैसा अन्न वैसा मन’ मुहावरे में भी देखा जा सकता है, और माया-ब्रह्म के द्वेताद्वैत में भी। पश्चिम को इसका पता उसके ‘विज्ञान-युग’ में भी बहुत बाद में मिल पाया इसलिए उसकी चिंताधारा में इसे जगह न मिल पाई।

मुहम्मद साहब और उनसे पहले के लोगों से क्या शिकायत जब कि अपनी स्थापनाओं को वैज्ञानिक बनाने के लिए सतर्क मार्क्स के लेखन में यह कमी रह ही गई जिसे सुधारने की कोशिश करने की जगह विज्ञान को ही फरेब सिद्ध करना आरंभ कर दिया गया। इसका परिणाम? अंतःप्रकृति महाप्रकृति पर भारी पड़ी। लोग कहते हैं काउ ब्वाएज जीन्स की चाहत ने क्रांति को क्रांति के लिफाफे में बदल दिया।

Post – 2019-04-25

खुदा उनका गुनाह माफ करे
मुझको जो अब भी याद करते हैं।

Post – 2019-04-25

तुकबंदी तो आखिर तुकबंदी है

खयालों से आगे खयालों की दुनिया।
मिली भी तो बस आसमानों की दुनिया।।
जमीं पांव रखने को भी मिल न पाई
मिली तोहमतों की बवालों की दुनिया।।
जिसे हम समझते थे अपनी, नहीं है
है जिनकी वे परचम हैं, इंसां नहीं हैं
छिदरते सिहरते जमानों की दुनिया
यही बच रही है बचाने को दुुनिया।।
यह दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है
यह दुनिया अगर मिट भी जाए तो क्या है।

इसे गर्क होने दो, खुद को बचाओ
जलालत से शर्मिंदगी से बचाओ
यही है हमारे ठिकानों की दुनिया
यही रह गई नौनिहालों की दुनिया।
मेरे पास आओ, मेरे साथ आओ।
यही बस है अगले जमानों की दुनिया
तलाशो नया रंग कोई तलाशो
है बदरंग, रंगों की होली मचा दो
नई कल्पनाओं की ख्वाबों की दुनिया।
हर इक प्रश्न के सौ जवाबों की दुनिया।।
यह दुनिया बची है तो हम भी बचे है
जमींदोज सौ आसमानों की दुनिया।