Post – 2019-04-29

पहेली

सामी मजहबों में जो बात अर्थव्यवस्था की दृष्टि से ध्यान देने योग्य है वह यह कि मूलतः ये पशुपालक थे। इनका गठन कबीलाई था। ये खानाबदोश थे। कबीलों का एक ही सरदार हो सकता है, जिसके आदेश की अवज्ञा नहीं हो सकती थी। इस तरह का ढांचा दूसरे जीवों जंतुओं में भी पाया जाता है इसलिए इसे अंतःप्रवृत्ति चालित माना जा सकता है। इनको चलाने वाले नियम इनके धर्म थे। कबीले के निर्वाह के लिए ये पर्याप्त थे।

कबीले न तो दूसरे कबीलों में मिलना चाहते थे, न दूसरों को अपने मे मिलाना चाहते थे, इसलिए उनको किसी ऐसे ही नियम या व्यवस्था की जरूरत नहीं थी जिसे बड़े पैमाने पर लागू किया जा सके। फिर भी अभाव, संकट और आधि- व्याधि से रक्षा के लिए उनको किसी अति माननीय सत्ता की सहायता की जरूरत थी, और उन्होंने इसके लिए अपने तरह की देवी देवताओं की कल्पना कर रखी थी। यह बहुदेववाद उस बहुदेववाद से भिन्न था जो प्राकृतिक शक्तियों के प्रति सम्मान प्रकट करने के लिए मानवीकरण करने से पैदा हुआ था। भारत में दोनों के बहुदेववाद थे क्योंकि भारतीय समाज रचना में और भारतीय अर्थव्यवस्था में दोनों का समावेश हुआ था।

एक दूसरी बात जो सामी मतों में देखने में आती है वह है पुराण कथा के मामले में सभी का यहूदी पुराण कथाओं के प्रति गहरा सम्मान है। उसे पूरे आदर भाव से ईसाइयत ने भी स्वीकार किया और इस्लाम ने भी। इसका कारण लगता है कि सभी मजहबों को अपनी आप्तता के लिए प्राचीनता की भी आवश्यकता होती है, और इतिहास के समर्थन की भी। आदर भाव के बाद इनमें एक दूसरे के प्रति उतना ही गहरा सम्मान होना चाहिए । इसके विपरीत नकली कारण ढूंढ कर वे एक दूसरे से नफरत करते रहे हैं।

इनका आपसी गुंफन कितना गहरा है इस समझाने की जगह कुछ प्रश्न करला चाहता हूं। क्या आपने रफी की आवाज में शम्मी कपूर की खास अदा के साथ ‘याहू’ का उच्चारण सुना है जिसकी पिछली इबारतें तो मुझे भी याद नहीं। इसमें जो सबसे बेतुका प्रयोग लगता है वह ‘याहू’ है, क्योंकि हम इसका अर्थ नहीं जानते। दूसरी भाषाओं के टुकड़ों को – सायों नारा सायों नारा की तरह – फिल्मी गानों में प्रयुक्त होते देखकर लगता है, गाना लिखने वाले ने कमाल करने के लिए बेतुके जुमले जड़ दिए हैं।

यदि आपने शम्मी कपूर के याहू का मतलब नहीं समझा तो एक कव्वाली में अल्लाहू अल्लाहू के टेक को तो यह सोचकर टाल गए होंगे कि इसमें अल्लाह के अंतिम अक्षर में ऊकार जोड़ दिया गया है। सामी लिखावट में स्वरों का महत्व ही नहीं है इसलिए एक ही लिखित शब्द को इलाही, इल्लाह, इलाह, अल्लाह अल्ला अल्लाहू रूपों में पढ़ा जा सकता है ।

इसे समझे बिना तो आप इलाहाबाद का मतलब भी नहीं समझ सकते और यह तो समझ ही नहीं सकते कि यह प्रयागराज से अधिक सम्मानजनक शब्द है, हिंदू विश्वास परंपरा के अनुसार है, और ऐसा नामकरण अपने बाद के दिनों में केवल अकबर ही कर सकता था।

प्रयागराज में कर्मकांड का महत्व है, कहते हैं, भरत दौष्यंति ने बहुत बड़ा अश्मेवध किया था जिससे यह सोज्ञा मिली। इसका उस विश्वास के सामने क्या महत्व है जिसमें यह बताया जाता रहा है कि सृष्टि यहीं से आरंभ हुई। इसकी प्रतिष्ठा के कारण ही अश्वमेध के लिए इसको भी चुना होगा।

अकबर ने प्रयागराज का इस्लामीकरण नहीं किया था, इसकी महिमा के सामने अपना सम्मान प्रकट किया था। प्रयागराज का पुराना नाम क्या रहा होगा नहीं जानते, परंतु अकबर ने प्रयागराज का अपमान नहीं किया था, यह काम इलाहाबाद को प्रयागराज बनाने वाले महंतों, पंडों और पुजारियों ने किया है।

‘याहू’ ‘यह्व’ का उच्चारभेद है, जिससे यहूदी नाम का संबंध है। स्वर की अनुपस्थिति के कारण इसके लिपिबद्ध रूप को यह्व, जह्व, जेहोवाह्, वहवे, यह्वे, जहवेह् आदि अनेक रूपों में पढ़ा जा सकता है। सही उच्चारण क्या था यह इसलिए पता नहीं कि यहूदी इसे उतना पवित्र मानते थे कि इसका उच्चारण तक न करते थे।

इसका अर्थ था सर्वदर्शी, सर्वशक्तिमान, सर्वोपरि, अनन्य स्रष्टा और जगत का आस्थायोग्य प्रशासक। यह 300 ई.पू. में चलन में आया। जाहिर है इसकी किसी मूल से व्युत्पत्ति संभव नहीं। इस संकल्पना के साथ भावनाओं के जुड़ने के साथ इसका अर्थोत्कर्ष होता गया।

हमारे लिए हैरानी की बात यह है कि ऋग्वेद में यह्व, यह्वी का प्रयोग अनेक बार हुआ है और यहूदी परंपरा से दो हजार साल पहले – दुर्निवार, विक्षोभकारी, सर्वोपरि आदि आशयों में हुआ है। (1) तरन्तं यह्वतीरपः,1.105.11 (2) स नो राधांस्या भर ईशानः सहसो यह्व, 7.15.11; (3) अक्तुं न यह्वमुषसो पुरोहितं तनूनपातमरुषस्य निंसते, 10.92.2, (4) त्वं देवानामसि यह्व होता स एनान्यक्षीषितो यजीयान् ।। 10.110.3

संभवतः बहु यह्व का अपभ्रंश हो या यह्व बहु का कौरवी प्रभाव में संस्कृतीकरण।
इसका रहस्य क्या है? क्या इब्राहिम के मत के उत्थान में लघु एशिया मे बसे वैदिक आध्यात्मिक ऊहापोह का हाथ नहीं था?