Post – 2019-01-31

विचित्रताओं का देश

विचित्रता के जिन आशयों से हम परिचित हैं, उनसे अलग इसका एक अर्थ है घोर पिछड़ापन। विचित्रता के कारण भी अनेक देशों की छवि पिछड़ेपन से जुड़ जाती है। इसका एक उदाहरण अफ्रिका, अमेरिका या ऑस्ट्रेलिया के विषय में गोरों के द्वारा पेश किए विवरणों हैं। आत्मरति के कारण पश्चिम अपने से भिन्न देशों, समाजों, मूल्यों और रीतियों को अरुचि और पिछड़ेपन से जोड़कर देखता रहा है। परंतु क्या यह सच होते हुए भी एक बहाना नहीं है?

आज भी भारत की छवि अनेक देशों के बीच यही बनी हुई है। इसका कुछ आधार भी है। हमने अपनी परंपरा का उतनी निकटता से परीक्षण और संशोधन नहीं किया जितना अपेक्षित था। यदि किसी एक मामले में भारतीय और अभारतीय दृष्टिकोण में निकटता पाई जाती है तो वह है, दोनों के द्वारा भारत को विचित्र देश या दुनिया से अलग किस्म का देश मानना।

हम विष्णु पुराण के उस विवरण परिचित हैं जिसमें भारतीय भूभाग को सारी दुनिया से अलग और उत्कृष्ट सिद्ध किया गया है जिसके कारण स्वर्गीय देवता भी पुण्य क्षीण हो जाने के बाद इसी भूभाग में जन्म लेना चाहते हैं, क्योंकि यहीं पर वह साधना और सिद्धि संभव है जिससे स्वर्ग पहुंचा जा सकता है। इसकी महिमा स्वर्ग से भी अधिक – स्वर्गादपि गरीयसी -सिद्ध करने वाले मुहावरे हमें आज भी प्रेरित करते हैं।

भारत के विषय में यूनानियों में सबसे अच्छी जानकारी मेगास्थनीज की है। दूसरों ने अपनी राय भारत के व्यापारियों या भारत से परिचित दूसरे व्यक्तियों से सुनकर बनाई थी इसलिए उनमें नितांत अविश्वसनीय और हास्यास्पद बातें मिले तो यह हैरानी की बात नहीं है, परंतु मेगास्थनीज ने भी जितना देखा और जाना था उससे अधिक दूसरों से सुनकर अपनी राय बनाई थी। देखा हुआ पक्ष उन्हें, उनके देखे और जाने हुए संसार की तुलना में, अनन्य लगता था, और इसलिए विचित्र न होते हुए भी कुछ विचित्र था। परंतु दूसरों के माध्यम से सुना हुआ विवरण अनुपात का ज्ञान न होने के कारण, जहां सच है वहां भी विचित्र लगता है और फिर तो कोई भी बात जो अविश्वसनीय है. वह भारत के विषय में संभव लगती है। ऐसी कुछ विचित्रताओं पर हम नजर डाल सकते हैं:

भारत में उड़ने वाले बिच्छू होते हैं, इनका आकार बहुत बड़ा होता है। यदि आकार की कोई सूचना न होती तो हम आसानी से मान सकते थे कि संभवत: यह लाल या काले ततैया के विषय में हो पर वह आकार में काफी बड़ा होता है, यह सुनी सुनाई बातों के आधार पर किया गया वर्णन है। आकार को देखते हुए, लगता है इसमें चमगादड़ (गादुर) और काले ततैये के विषय में मिली सूचना का मिश्रण हो गया है।

इसी तरह उड़ने वाले सांप विषखोपड़ा या गोह के विषय में मिली जानकारी पर आधारित लगता है ।

बंदर मनुष्य की नकल करते हुए बहुत से काम कर सकते हैं, और उनसे अभिनय तो कराया ही जाता रहा है, जो दूसरे लोगों को हैरान करता है। परंतु बंदर अपना पीछा करने वालों को पत्थर मारते हैं, इसमें कल्पना का योग दिखाई देता है।

सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि एकशृंग पशु का सबसे अधिक प्रभावशाली अंकन हड़प्पा की मुहरों पर हुआ है, जिसका अर्थ यह भी हो सकता है कि इसका बाहुल्य था, पर जिससे मिलता जुलता कोई जानवर न मिलने के कारण इसे एक ओर तो काल्पनिक माना जाता रहा है और दूसरी ओर, यदा कदा, गैड़े का अंकन मान लिया जाता रहा है। मेगास्थनीज के समय तक यह लुप्त नहीं हुआ था। लगता है लंबे समय तक इसका लगातार आखेट किया जाता रहा, जिसके कारण यह समाप्त हो गया।

अंतःपुर में राजा की रक्षा का काम महिलाएं करती थीं पुरुष अंगरक्षक महल के बाहर रक्षा का काम संभालते थे, यह विचित्र लग सकता है, पर इसका कारण समझना कठिन नहीं है।

यह बात सही है कि भारत में अधिकांश लेनदेन जबानी हुआ करता था, क्योंकि इस बात की नौबत बहुत कम आती लोग थी कि लोग झूठ बोलेंगे या लेकर मुकर जायेंगे, परंतु यह सही नहीं है कि ब्याज पर ऋण लेते ही नहीं थे। सच्चाई यह है कि धन डूबने के अंदेशे को ध्यान में रखते हुए ब्याज की दर अधिक होती थी। महाजनी प्रथा जो बैंक प्रणाली का आदिम रूप है, ऋग्वेद के समय से ही प्रचलित दिखाई देती है। एक ऋषि का नाम ही है कुशीदी अर्थात ब्याज पर पैसा देने वाला, सूदखोर, काण्व है। यह दूसरी बात है भारत में इसे सम्मानजनक पेशा माना जाता था क्योंकि इसके बिना व्यापारिक तंत्र का उन्नत विकास हो ही नहीं सकता था।

जीवन मरण के संबंध में और परलोक को अधिक महत्व देने का भारतीयों का दृष्टिकोण, सभी को चकित करता रहा है, हमारे लिए चकित करने वाली बात यह है कि इस दृष्टिकोण के बाद भी भारत अपने इतिहास के अधिकांश चरणों पर भौतिक दृष्टि से भी उन्नत बना रहा।

परंतु उनके लिए एक आश्चर्य यह था कि तत्व चिंतन के अनेकानेक मामलों में भारतीयों के विचार यूनानियों जैसे थे। इनमें सबसे आश्चर्य की बात यह है कि पृथ्वी गोल है, इस सत्य को यूरोप के लोग पंद्रहवीं शताब्दी में पूर्व से संपर्क के बाद जान पाए, क्योंकि वे अपनी परंपरा से कट गए थे, जबकि भारत को और यूनानियों को इस तथ्य का पता बहुत पहले से था। इस समानता का रहस्य क्या है, यह न उन्हें मालूम था, न भारतीयों को। क्योंकि जैसे ईसाइयत के प्रकोप से यूरोप अपने अतीत से कट गया था, उसी तरह भारत बहुत पहले आए एक प्राकृतिक प्रकोप के लंबे दौर से गुजरने के कारण अपने सुदूर अतीत से कट चुका था।

एक अन्य तथ्य जो ध्यान देने का है, वह है सर्वदेववाद। इस पक्ष पर अब तक जो चर्चा होती रही है वह उल्टे सिरे से होती रही है और जानबूझकर, सचाई को दबाते हुए लगातार जारी रखी गई है। सर्वदेववाद भी यूनान में मान्य था, यहां इतना जानना ही पर्याप्त है।

विचित्रताओं में सबसे विचित्र भारत का ब्राह्मण रहा है। उसके विषय में यूनानी लेखकों के विवरण सचाई के निकट भी हैं और व्यावहारिकता के विपरीत भी। क्या विश्वास किया जा सकता है कि किसी सम्राट को इशारों पर नचाने वाला, उसके सुख-भोग की व्यवस्था करने वाला स्वयं कुटिया में रह सकता है और सत्तू खा कर अपनी गरिमा के साथ रह सकता है। एक समृद्ध अर्थव्यवस्था मैं सब कुछ त्याग कर सत्य साधना के लिए उंछ वृत्ति अपना सकता है? समस्त प्रलोभनों को ठुकराता हुआ एक ऐसी अवस्था में पहुंच सकता है जिसमें लाभ-लोभ-भय का कोई अर्थ नहीं रह जाता यह किसे विस्मित न करेगा। पहले मैं यह समझता था सिकंदर और एक साधक का आमना सामना होने की कहानी आर्यसमाजियों द्वारा कल्पित है, परंतु अब समझ में आया कि यह भी यूनानी लेखकों के विवरणों पर आधारित है जिसमें सिकंदर ने हार मानी थी।

Post – 2019-01-29

शेष वर्ग और अशेष प्रश्न

चौथा वर्ग शिल्पकारों का है। इनमें आयुध निर्माण करने वाले और किसानों तथा दूसरे व्यवसायों के उपयोग में आने वाले उपकरण तैयार करने वाले लोग आते हैं। इस वर्ग को किसी तरह का कर नहीं देना पड़ता। उल्टे इनके निर्वाह का भार सरकार उठाती है।
The fourth caste consists of the artisans. Of these some are armourers, while others make the implements which husbandmen and others find useful in their different callings. This class is not only exempted from paying taxes, but even receives maintenance from the exchequer.

पांचवां वर्ग सेनानियों का है। यह बहुत संगठित है और युद्ध के लिए तत्पर रहता है। संख्या की दृष्टि से यह दूसरे नंबर आता है। शांतिकाल में यह मौजमस्ती करता है। पूरे सैन्यबल – इसके सशस्त्र सैनिक, सामरिक घोड़े, युद्ध के उपयोग के हाथी – का प्रबंध सरकारी खर्च पर होता है।
The fifth caste is the military. It is well organised and equipped for war, holds the second position in point of numbers, and gives itself to idleness and amusement in the times of peace. entire force– men- at- arms, war-horses, war-elephants, and all are maintained at the king’s expense.

छठां वर्ग पर्यवेक्षकों का है। इनका काम है भारत में जो कुछ भी हो रहा है उसकी खोजबीन करना, उस पर नजर रखना और राजा को इसकी सूचना देना। यदि कहीं राजा नहीं है, तो धर्माधिकारी (मजिस्ट्रेट) को सूचित करना।
The sixth caste consists of the overseers. it is their province to inquire into and superintend all that goes on in India, and make report to the king, or, where there is not a king, The magistrate.

सातवाँ वर्ग पार्षदों और आकलनकर्ताओं – जनहित के कार्यों पर सोच विचार करने वालों – का है । संख्या की दृष्टि से यह सबसे छोटा परंतु अपने सदस्यों के चरित्र और उनकी बुद्धिमत्ता के कारण सर्वाधिक सम्मानित वर्ग है, क्योंकि राजा के सलाहकार, और राज्य के कोषाध्यक्ष और न्यायाधीश, सेनापति, (महाधर्माधिकारी) या महान्यायाधीश भी सामान्यतः इसी वर्ग के होते हैं।
The 7th caste consists of councilors and assessors,– of those Who deliberate on public affairs. It is the smallest class, looking to number, but the most respected, on account of the character wisdom of its members; for From there ranks the advisors of the king are taken, and treasurers of the state, and the arbiters who settle disputes. The generals of the army also, and the chief of magistrates, usually belong to this class.

भारतीय समाज सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक दृष्टि से बंटा और भाषा तथा वर्ण व्यवस्थाजन्य पृथकताओं की मजबूती के कारण इतना जटिल है कि इस पर किसी एक दृष्टि से है तैयार किया गया वर्गीकरण विफल हो जाता है। मेगास्थनीज तो विदेशी होने, पदीय गरिमा की सीमाओं, तथा भाषा की कठिनाइयों के कारण इसे समझ ही नहीं सकते थे, भारतीय समाजशास्त्रियों और नृतत्वविदों को भी इसकी वास्तविकता समझ में नहीं आती। वे नितांत काल्पनिक और निराधार विभाजन रेखाओं के माध्यम से एक ओर तो इसे आर्य, द्रविड़ और दक्षिण देशीय (कोल, मुंडा आदि) में विभाजित करके समझने चलते हैं और दूसरी ओर वर्ण व्यवस्था के माध्यम से। इसलिए न तो प्राचीन शास्त्र और शास्त्रविद इसे समझने में हमारी मदद करते हैं, न ही आधुनिक अध्येता – वे देसी हों या कलमी। इसलिए हम मेगास्थनीज की सीमाओं को समझ सकते हैं पर इसके लिए उसका उपहास नहीं कर सकते।

समाज को सात वर्गों में बांटने के बाद भी बहुत से महत्वपूर्ण पहलुओं की ओर उनका ध्यान नहीं गया है। यहां तक की इस विवरण में व्यापारी वर्ग छूट गया जिसका आर्थिक और प्रशासनिक दोनों दृष्टियों से महत्व था। ब्राह्मणों का कर्तव्य बताते हुए उनका ध्यान शिक्षा और ज्ञान की ओर गया ही नहीं। उपभोक्ता वस्तुओं का निर्माण और आपूर्ति करने वाले उद्योगों और साधनों की ओर भी उनका ध्यान नहीं जा सका।

इसके बाद भी कुछ पहलुओं को हम उनके माध्यम से अधिक स्पष्टता से समझ पाते हैं, जिनको दूसरे अध्ययनों में छिपा या दबा दिया गया है। उदाहरण के लिए शास्त्र का लेखन ब्राह्मण करते रहे इसलिए उन्होंने ज्ञान पक्ष, आचार पक्ष, दान दक्षिणा और यज्ञ पर तो ध्यान दिया, परंतु इस बात को रेखांकित करने से रह गए कि ब्राह्मण का देवत्व और उसकी आय का साधन मुख्य रूप से उस कर्म से जुड़ा हुआ था जिसके लिए महापात्रों को याद किया जाता है। इसी अधिकार के बल पर वह दूसरे आंदोलनों को कुचलकर बार बार विजेता सिद्ध होता रहा है। ज्ञान का लाभ उसी तक सीमित था, और इसकी व्यवस्था दूसरे – बौद्ध और जैन — आंदोलनों ने भी की थी। पर संस्कारों की ओर उनका ध्यान नहीं गया, विशेषतः जीवन को क्षण-भंगुर और मरणोत्तर जीवन को शाश्वत मानने वाले पर्यावरण में अंत्येष्टि और प्रेतकर्म की व्यवस्था दूसरों में न होने के कारण।

एक दूसरा पहलू, विभिन्न कौशलों से जुड़े हुए लोगों को दिए जाने वाले राजकीय संरक्षण का है। आज जब सभी को शूद्र कह कर, समाज द्वारा शोषित और उत्पीड़ित होने और सिद्ध करने का राजनीतिक लाभ बढ़ गया है, मेगास्थनीज के माध्यम से यह याद दिलाना प्रासंगिक हो सकता है, कि उन्हें सबसे अधिक छूट और राजकीय संरक्षण प्राप्त था। एक अन्य स्थल (पृ.71) पर मेगास्थनीज ने यह भी बताया है कि यदि कारीगरों को किसी के द्वारा कोई भी क्षति पहुँचाई गई तो उसे कठोरतम दंड दिया जाता था।

यहां हम उन पहलुओं की चर्चा कर सकते हैं जिसको समझने में मेगास्थनीज से इसलिए भूल हुई कि उनके समरूप पश्चिमी जगत में थे ही नहीं। गुलामी-प्रथा से परिचित और भारतीय दास-प्रथा से अपरिचित के कारण वह नहीं समझ सका कि भारत में उससे मिलती-जुलती कोई संस्था है।

हमारे विद्वानों का भी कमाल है, उन्होंने गुलामी और दास प्रथा को एक जैसा मान लिया। ये दोनों दो संस्थाएं हैं। दोनों का ताना-बाना अलग है। गुलाम युद्ध बंदियों को बनाया जाता था, या बाद में जानवरों की तरह फंसा कर या जानवरों की तरह खरीद कर जानवरों के रूप में रखा जाता था, जानवर माना जाता था, इसलिए उनकी संतानों और परिवारों पर भी स्वामी का स्वामित्व होता था। यह दूसरी बात है कि गुलामी प्रथा में स्वामियों के अपने निजी लगाव या कमजोरियों के कारण गुलामों से कई बार बहुत आत्मीय रिश्ता बन जाता था। परन्तु वह व्यवस्थाजन्य न था।

भारतीय दास प्रथा में कारण भी भिन्न थे , व्यवहार भी भिन्न था, और ऋण मुक्ति की व्यवस्था थी। दासता एक तरह से धन के अभाव में किसी ऋण को उतारने के लिए अपने या अपने किसी स्वजन के श्रम या आज्ञा पालन द्वारा भुगतान करने की व्यवस्था थी। इसके फंदे में कई बार बाजी बदने, या होड़ में, जुए में, धनी मानी लोग भी, यहां तक कि शास्त्रार्थ में पराजित विद्वान भी, आ जाते थे।

यहां तीन मुख्य बातों पर ध्यान देना होगा।
पहला यह की दासता की अवधि होती थी, उस अवधि से पहले भी साधन सुलभ होने पर उऋण होने की व्यवस्था थी।
दूसरा यह, कि दास के खानपान, हारी-बीमारी का पूरा उत्तरदायित्व स्वामी पर होता था और स्वामी अपने सेवकों के खाने-पीने के बाद ही भोजन करता था।
तीसरा यह, कि स्वामी सेवक के साथ कोई अपमानजनक व्यवहार नहीं कर सकता था। ऐसी चेष्टा करने के साथ ही दास ऋण-मुक्त और स्वतंत्र हो जाता था।

इसलिए दास और स्वामी का संबंध आज के सेवक और स्वामी के संबंध से मिलता जुलता था। इसलिए मेगास्थनीज इसे लक्ष्य कर ही नहीं सकता था। सचाई तो यह है कि हमारे कुर्सी-पकड़ विद्वानों की भी समझ में यह समस्या नहीं आई।

Post – 2019-01-28

को बड़ छोट कहत अपराधू

तीसरा वर्ग निषादों और गड़रियों और दूसरे चरवाहों का है, जो न तो नगर में स्थाई बस्ती बसाकर रहते हैं, न देहातों में। ये कहीं भी डेरा जमा लेते हैं। ये हानिकारक पक्षियों और जानवरों से देश को मुक्त करते रहते हैं। ये बड़ी लगन से अपने काम में जुटे रहते हैं, इसलिए ये भारत को हानिकारक कीट- पतंग से, जिनकी यहां बहुतायत है, मुक्त रखते हैं और ऐसे पक्षियों और साथ ही जंगली जानवरों से भारत को मुक्त रखते हैं, जो किसानों के बीज और फसल को खा जाते हैं।

यहां और अन्यत्र भी यह बहुत स्पष्ट है, कि मेगास्थनीज की नजर जन्मजात श्रेष्ठता या कनिष्ठता, अर्थात् जाति पर नहीं, अपितु कर्म या व्यवसाय पर है, जिसमें अस्पृश्यता के लिए भी स्थान नहीं है। यह जानकारी की कमी के कारण भी हो सकता है, और दृष्टिकोण की भिन्नता के कारण भी। फिर भी शिकारियों और पशुपालकों को एक श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। दृष्टि के इस इकहरेपन के कारण पशुधन में भारत की समृद्धि में पशुपालकों की भूमिका का और उनके द्वारा दिए जाने वाले राज-भाग का उल्लेख होने से रह गया।

Ancient India as Described by Megasthanese का संपादक अपनी पादटिप्पणी में याद दिलाता है कि निषाद हिंदू वर्णों में नहीं आते, संभवत: ये अहीरों की तरह एक जनजाति ( ड्राइव) थे, परंतु मेगास्थनीज के सामने हिंदू समाज है ही नहीं। उसके सामने भारतीय समाज है, भारतीय राज्य है, और भारतीय शासन व्यवस्था है।

एक दूसरी बात कि प्राचीन भारत में और बाद में भी मध्येशिया से पशुपालकों के जत्थे भारत में प्रवेश करते रहे हैं जिनके सबसे नए नमूने गूजर हैं, जो भारतीय समाज में रच-पच गए हैं, फिर भी कुछ चारणजीवी भी रह गए हैं। भारतीय पशुपालक (ब्राहुई) मध्येशिया तक विचरण करते रहे हैं। परंतु पशुपालन भारत में इनके साथ आरंभ नहीं हुआ।

गुजरात, जो पशु धन की दृष्टि से हड़प्पा काल से चर्चा में रहा है, उसमें हड़प्पा के नागर चरण से बहुत पहले से पशुपालन के प्रमाण मिलते हैं । हड़प्पा सभ्यता के पशुधन में गुजरात का बहुत बड़ा योगदान है। जिन सांड़ों का अंकन हड़प्पा की मुद्राओं पर हुआ है, वे आज भी गुजरात में पहचाने जा सकते हैं।

ऋग्वेद में पशुपालक यादवों (याद्वानां पशु:) का उल्लेख है। यजुर्वेद में अजपाल और अविपाल समुदायों का उल्लेख है। मैं जिस पक्ष पर ध्यान केंद्रित करना चाहता हूं, वह यह कि मानवीय बलबूते पर किया जाने वाला उत्पादन दो शाखाओं में विभक्त दिखाई देता है। एक खेती-बारी जिससे आधुनिक सभ्यता का विकास हुआ। दूसरा पशुपालन, जो इस सूझ से पैदा हुआ कि जिन शावकों का शिकार किया जाता या पकड़ा जाता है और अनुकूल मौसम में उनकी संख्या अधिक हो जाने पर उनको घेर कर रखा जाता है और उनमें से कुछ उसी अवधि में प्रजनन करके अपनी संख्या बढ़ाने लगते हैं, यदि इनको पाल-पोष कर रखा जाए तो शिकार करने की झंझट से मुक्ति मिल सकती है ।

जिस सूझ से आहार के लिए जुगाई जाने वाली वन्य औषधियों को अपने प्रयत्न से सुनियोजित ढंग से उत्पादित करने की पहल हुई थी, वही आखेटजीवियों में रेवड़बन्दी से पैदा हुई थी। इसकी ओर समुचित ध्यान नहीं दिया गया। गो, पशुपालन में विकास की अधिक संभावनाएं नहीं थीं।

एक विचार यह था कि वही समाज पहले शिकार से पशुपालन की ओर अग्रसर हुआ और उसके बाद वन्य अनाजों को उत्पादित करने की सूझ पैदा हुई। दूसरा विचार यह है कि पहले खेती आरंभ हुई और उसके बाद पशुपालन आरंभ हुआ। इसके समर्थन में कॉलिन रेनफ्रू ने जो तर्क दिए हैं उन्हें दोहराने का अवसर यहां नहीं है, परंतु यहां प्रश्न पूर्वापर का नहीं है, दो समानांतर विकासों की बात है।

शिकार पर अधिक निर्भर करने वाला समाज पशुपालन की ओर अग्रसर हुआ और वानस्पतिक भंडार से अपना आहार चुंगने वाला कृषि की ओर। किसने किसको प्रेरित किया यह तय करना जिस गहन और व्यापक अध्ययन की अपेक्षा करता है, वह मेरे पास नहीं है।

परंतु पशुचारण और पशुपालन को आदिम मानना, जनजातीय मानना, वस्तुस्थिति को समझने से इन्कार करने का पर्याय है। भारतीय प्राकृतिक संपदा और अर्थव्यवस्था में दोनों के लिए पर्याप्त अवसर था, यद्यपि इस पर अन्तिम रूप से कुछ कहने से बचना होशियारी हो सकती है, समझदारी नहीं। यदि हम रेन्फ्रू पर ध्यान दें तो पशुपालन खेती के बाद ही संभव था, इसलिए अन्यत्र रेवड़बंदी होती रही और कृषि के सफल प्रयोग से प्रेरित होकर पशुपालन आरंभ हुआ जिसका आधार भारत में था।

सही सिद्ध होने से मुझे डर लगता है। मैं चाहता हूं मेरी गलतियों पर ध्यान दिया जाए जिससे मेरे सोचने में यदि इकहरापन बना रह गया हो, वह दूर हो और मेरी समझ में भी सुधार आए।

Post – 2019-01-27

नहीं भूखा रहा जो दूसरों का पेट भरता है

मेगास्थनीज के अ्नुसार दूसरा वर्ग किसानों का है, जो संख्या में दूसरों की तुलना में बहुत अधिक है। इनको युद्ध करने या दूसरे सरकारी कामकाज में लगाए जाने से मुक्ति मिली रहती है, इसलिए ये अपनी पूरी शक्ति खेती पर लगाते हैं। कोई दुश्मन भी आक्रमण करते समय इस बात का ध्यान रखता है कि किसान को कोई असुविधा न होने पाए, क्योंकि इस वर्ग के लोगों को लोक हितकारी माना जाता है। इसलिए इस बात का ध्यान रखा जाता है इनको कोई खरोंच तक न आने पाए। इस तरह सभी दृष्टियों से निरापद होने के कारण यह बहुत अच्छी फसल पैदा करते हैं और यह भारत के निवासियों को मौज मस्ती के सारे जरूरी सामान प्रदान करते हैं।

किसान और उसकी पत्नी और बच्चे देहात में रहते हैं और ये नगर में आने से कतराते हैं। ये राजा को भूमि का लगान चुकाते हैं, क्योंकि पूरा भारत राजा की संपत्ति है। इस लगान के अतिरिक्त ये धरती की उपज का एक चौथाई राजकोष में देते हैं।

यहां मेगास्थनीज से कुछ भूल हुई लगती है। लगान उत्पाद का राजभाग या कर है। वह चौथाई था यह भी सच है। किसी भौगोलिक क्षेत्र की सभी तरह की संपदा राजा के अधिकार में आती है, क्योंकि वह सभी की रक्षा करता है। जिस संपदा पर किसी का निजी दावा नहीं है – जंगल, पहाड़, जलाशय — वह भी राजा की संपत्ति मानी जाती थी। यदि कोई व्यक्ति बिना किसी उत्तराधिकारी के मर जाए तो उसकी संपदा भी राजा की हो जाती थी। परंतु अपनी संपदा में वह जो वृद्धि करता था, वह सुरक्षा होने के कारण ही कर पाता था, इसलिए उसमें भी राजा का अंश होता था। इस नियम से उसके राज्य में बसने वाला प्रत्येक व्यक्ति जो कुछ अर्जित करता था उसमें राजा का भाग होता था। इसी के आधार पर राजा अपनी सत्ता कायम रखता था। इसी तर्क से राजा को जनभक्ष (सत्रासाहो जनभक्षो जनंसह श्च्यवनो युध्मो अनु जोषं उक्षितो ) कहा जाता था।

परंतु कृषिभूमि पर अधिकार उस व्यक्ति का है जिसने उसे साफ किया और समतल बनाया है। राजा अपनी पहल से भी जमीन की सफाई करा सकता था जिसे राजा की भूमि या सीता कहा जाता था। इस निजी भूमि पर ही दोनों प्रकार के कर लेता रहा हो सकता है, एक भूमि के बदले और दूसरा सुरक्षा के बदले।

हमारे लिए विशेष महत्व की सूचना यह है युद्ध के समय या सैनिकों के अभियान के समय इस बात का पूरा ध्यान रखा जाता था किसान को किसी तरह की सुविधा न होने पाए और उसकी संपत्ति पर कोई आंच न आने पाए। इस नियम का पालन शेरशाह सूरी भी करता था परंतु उससे आगे या पीछे का कोई दूसरा मध्यकालीन शासक इसका ध्यान नहीं रखता था।

जहां तक किसानों के उत्पीड़न और सुविधा का सवाल है औरंगजेब जिसकी धार्मिक क्रूरता के विषय में बहुत सी बातें सही है, परंतु उसके विषय में यह जानकर आश्चर्य होगा कि वह शाहजहां और जहांगीर से अधिक मानवीय शासक था। शेरशाह के बाद वह पहला शासक था जो इस बात का ध्यान रखता था कि किसानों को अधिक तकलीफ न होने पाए। इस बात का ध्यान मराठों ने भी नहीं रखा और इस दृष्टि से औरंगजेब मराठाें से अधिक मानवीय था। शाहजहां के शासन में जितने हिंदुओं को इस्लाम कबूल करने के लिए बाध्य किया गया, उतने हिंदुओं का धर्मांतरण औरंगजेब के कारण नहीं हुआ।

पहली बार, स्वतंत्र भारत में, किसान की कीमत पर औद्योगिक विकास पर इकहरा बल देने और किसानों में से कुछ को कर्जखोरी की आदत डालने से यह स्थिति पैदा की गई कि वह आत्महत्या कर रहा है। रोटी को लाले पड़ जाने पर मशीन का उत्पादन भी ठहर जाता है, रोटी मशीन और उसको चलाने वाले, दोनों पैदा करती है, इसे समझना होगा।

हमारा समाज वस्तुपूजक है, उपयोगी वस्तुओं का देवोपम सम्मान करने का आदी है। मेरे बचपन में किसान जमीन पर पड़े एक दाने को भी ‘अन्न ही ब्रह्म है’ वाली श्रद्धा से उठाकर माथे लगाता था। जिस समय का चित्र मेगास्थनीज ने प्रस्तुत किया है, उसमें किसान को भी समाज इसी तरह जमीन से उठाकर माथे लगाता था। प्राकृतिक विपर्यय का कोई निदान नहीं, पर अकाल कम पड़ते थे, क्योंकि लोग नई फसल का अनाज नहीं एक साल पहले का अनाज खाते थे और एक अनावृष्टि झेलने की ताकत रखते थे जो खत्म होकर हैंड टु माउथ वाली दशा तक आ पहुंची है।

Post – 2019-01-26

समाज विभाजन

मेगास्थनीज ने भारतीय समाज के विषय में जो धारणा बनाई वह निम्न प्रकार है:
“समूचा भारतीय समाज सात वर्गों में विभाजित है। इनमें सबसे पहले उस समुदाय का स्थान है जो संख्या में सबसे कम है, परंतु सम्मान की दृष्टि से सबसे ऊपर हैं। यह है दार्शनिकों का समुदाय। दूसरे सभी इनसे नीचे माने जाते हैं। यह न तो किसी का मालिक है न किसी के अधीन। इनको कोई काम करने को नहीं कहा जा सकता। परंतु यजमान इनको जीवन काल में यज्ञ आदि के लिए और मरने के बाद अंत्येष्टि के निमित्त काम पर लगाते हैं और ये मृत व्यक्ति के परवर्ती संस्कार करते हैं, क्योंकि ऐसा विश्वास किया जाता है यह प्रेतों के विषय में अच्छी जानकारी रखते हैं। इन सेवाओं के लिए उनको प्रचुर दान दक्षिणा मिलती है। भारतीय जनों के लिए यह एक बहुत बड़ी सेवा यह करते हैं कि वर्ष के आरंभ में लोगों को इकट्ठा करके उनको अगले साल के अनावृष्टि और वृष्टि और हारी- बीमारी की जानकारी कराते हैं इसलिए सामान्य जनों से लेकर राजा तक आने वाली आपदाओं का मुकाबला करने की तैयारी कर लेते थे और अभाव के दिनों के लिए अपनी जरूरत का सामान जुटा कर रख लेते थे।”
The whole population of India is divided in seven castes, of which the first is formed by the collective body of philosophers which in point of number is inferior to other classes, but in point of dignity preempted over all. For the philosophers, being exempted from all public duties, are neither the masters nor the servants of others. They are, however, engaged by private persons to offer sacrifices due in lifetime, and celebrate the obsequies of the dead: for they are believed to be the most conversant with matters pertaining to the Hades. In requital of such services they receive valuable gifts and privileges. To the people of India at large they also render great benefits, when gathered together at the beginning of the year they forewarn the assembled multitudes about the droughts and wet weather, and also about propitious, winds and diseases, and other topics capable of profiting the hearers. Thus the people and sovereign learning beforehand what is to happen always make adequate provision against a coming deficiency.

यह मेगास्थनीज के लेखह का मैक्क्रिंडल द्वारा किया गया अनुवाद है जिसका अनुवाद हमने अपने ढंग से किया है। यहां हम दो बातों की ओर ध्यान दिलाना चाहेंगे। मैक्क्रिंडल ने अपने अनुवाद में सामाजिक विभाग के लिए कास्ट का प्रयोग किया है। यह दो कारणों से गलत है। कास्ट शब्द पुर्तगाली भाषा का है, मेगास्थनीज इसका प्रयोग नहीं कर सकता था।

दूसरे, मैक्क्रिंडल भारतीय समाज के वर्गीकरण को वर्ण-व्यवस्था के अभाव में समझ ही नहीं सकता था, क्योंकि उसके सामने साहित्य और शास्त्र था। हमारे सामने भी शास्त्रीय विधान होते हैं इसलिए हम भी नजर से काम नहीं लेते, शास्त्र लिखित को प्रमाण मानकर अपने को उसके अनुसार ढालने का प्रयत्न करते हैं। मेगस्थनीज के सामने शास्त्र नहीं था समाज था। वह उसे देख रहा था और समझने का प्रयत्न कर रहा था। प्रयत्न सराहनीय है इसके बावजूद जरूरी नहीं कि यह सटीक भी हो।

एक दूसरा पक्ष हमारे अपने विद्वानों की ज्ञान सीमा का है। हजारी प्रसाद द्विवेदी का मत है कि भारत ने फलित ज्योतिष का ज्ञान युनानियों से प्राप्त किया, जबकि यहां में जो साक्ष्य मिल रहा है वह एक यूनानी द्वारा है जो भारतीय ज्योतिष और वर्षफल को एक आश्चर्य के रूप में दर्द कर रहा है।

प्रसंगवश याद दिला दें कि द्विवेदी जी ने यवनिका शब्द के आधार पर यह नतीजा निकाला था कि नाटकों में पर्दे का प्रयोग यूनानी प्रभाव का द्योतक है, जबकि यूनानी रंगमंच खुले हुआ करते थे उनमें पर्दे का प्रयोग होता ही न था। इस पर हमने अन्यत्र अपना मत रखा है, इसलिए इसके विस्तार में नहीं जाएंगे।

उन्होंने अंग्रेजी आवर hour और ज्योतिष के होरा चक्र के बीच संबंध देखते हुए अपनी कल्पना से एक सत्य का आविष्कार कर दिया, जो लंगड़ा है। भोजपुरी में ‘होरहा’ अर्थ है सीधे आग पर भुना हुआ चने या मटर का गट्ठर से उसकी फली से होता है। ‘होलिका’ उस आदिम अवस्था का पर्व है जब मनुष्य पाक शास्त्र से अपरिचित था, पात्रों का विकास नहीं हुआ था, वह सीधे आग पर भूनकर, हथेली से मसल कर अनाज खाया करता था। आगे चलकर होला या होलिका कई चरणों के बाद, कथाओं, उपकथाओं मे लिपटकर रहस्य में हो गया। होलना- जलाना किस बोली से आया है यह हमें भी नहीं पता, परंतु होराचक्र का संबंध वर्ष चक्र से है जो फाल्गुनी पूर्णमासी या वार्त्रघ्नी पूर्णमासी है, और इसमें वृत्र का वध इस नाम के राक्षस का वध नहीं है, वर्ष चक्र का अंत है। वृत्र का अर्थ यहां वर्तन करने वाला, घूमने वाला है। यही होराचक्र है।
समाज के अन्य विभागों पर कल।

Post – 2019-01-25

समाज व्यवस्था और वर्णव्यवस्था

जब मैं कह रहा था कि हम अपने को पूरी तरह नहीं देख पाते हैं, उसके कुछ पक्ष हमारी आंखों से ओझल रह जाते हैं, जब कि एक परदेसी की नजर में वे आ जाते हैं तो उनमें से एक पक्ष भारतीय समाज की बनावट से संबंध रखता है।

हम सामान्यतः भारतीय समाज को चार वर्णों में बांटकर देखने के आदी हैं। परंतु, इससे पूरे समाज का चित्र सामने नहीं आ पाता। हमें चार वर्णों से अलग एक पांचवें वर्ण की कल्पना करनी होती है जिसे हम अंत्यज या पंचम वर्ण कहते हैं। उसके बाहर फिर भी कुछ लोग बचे रह जाते हैं, जिनको किसी वर्ण में नहीं रखा जा सकता।

उदाहरण के लिए वर्ण समाज के भीतर आने वाले कायस्थों को ही लें
जो बहुत प्राचीन काल से ब्राह्मणों के प्रतिस्पर्धी रहे हैं, और उनके कर्मकांड की व्यर्थता का उपहास करते हुए – आज की परिभाषा के अनुसार – धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण अपनाते रहे हैं, उनके लिए वर्ण व्यवस्था में कोई स्थान नहीं है। सन् याद नहीं, पर कोलकाता हाई कोर्ट के एक फैसले के अनुसार उनको शूद्र बताया गया था। ये थे कायस्थ।

हमारे पास कायस्थों की जन्मपत्री में जाने का अवकाश नहीं है, परंतु यह बताने का समय जरूर है कि कायस्थ कार्यस्थ अर्थात् प्रशासनिक पदों पर नियुक्त होने वाले लोगों की संज्ञा थी, जो उन वर्णों से निकल कर आते थे जिनको शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार था, अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य।

यह समाज या समुदाय अभिज्ञान के मामले में स्वयं सबसे अधिक भ्रमित है। जो प्रतिबंध दूसरे वर्णों के लिए लगाए गए हैं, उनमें से एक (असगोत्र विवाह) का तिरस्कार यहां देखने को मिलता है। कायस्थों में वर्मा वर्मा से ही शादी विवाह का संबंध रखेगा, श्रीवास्तव श्रीवास्तव के भीतर ही संबंध रखेगा। यही दूसरों के विषय में भी लागू है।

सुदूर अतीत का आग्रह कि हम ब्राह्मण हैं, क्षत्रिय, वैश्य हैं, एकमेक होने के बाद भी बना रह गया। वर्ण व्यवस्था की दीवारें इतनी मजबूत हैं, कि हम अपना वर्ण भूल जाएं तो भी वर्ण सीमा बनी रहती है। धर्म बदल लें तो भी नहीं जाती। परन्तु यदि आपकी आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक स्थिति ऐसी है कि आप वर्ण समाज के विधान को रीतिनिर्वाह मान कर विद्रोह नहीं करते तो भी हीनभावना पैदा नहीं होती तो उसका भी यह एक नमूना है।

जो लोग इस व्यवस्था की जड़ों को समझने से पहले समाज को बदलना चाहते हैं, उन्हें इसका अध्ययन करना चाहिए। समझ के बिना बदलाव नहीं किया जा सकता, विध्वंस अवश्य किया जा सकता है। अपनी नासमझी को भी एक उपलब्धि मानते हुए जो लोग, जो जी में आए वह करते हुए, समाज को बदलना चाहते हैं वे समाज का विध्वंस कर सकते हैं पर न तो समाज में सही बदलाव ला सकते हैं, न ही पलायन से अपने को बचा सकते हैं, क्योंकि बचाव सबके साथ ही संभव होता है।

मैं इस प्रश्न पर उस विदेशी की समझ की दाद देता हूं जिसने वर्ण व्यवस्था के अनुसार भारतीय समाज को समझने की चेष्टा नहीं की, अपितु जैसा देखा, जैसा समझ में आया, वैसा बयान किया। इसके कारण ही उसके आलोचक यह आरोप लगाते रहे कि उसे भारतीय समाज की समझ नहीं थी। वे मानते थे कि भारतीय समाज चार वर्णों में बटा हुआ है और जो इस बात को नहीं मानता वह भारतीय समाज को नहीं समझता।

इसके विपरीत हम यह कहना चाहते हैं कि मेगास्थनीज को भारतीय समाज की जितनी अच्छी समझ थी, उतनी हमें भी नहीं है, हमारे शास्त्रों को भी नहीं थी, उसके आलोचकों को भी नहीं थी। उसने भारतीय समाज को सात भागों में विभाजित किया था। यह विभाजन भारतीय समाज को समझने में किसी भी अन्य विभाजन की तुलना में अधिक सटीक और अधिक वस्तुपरक है। परन्तु इसे आज तो नहीं बताया जा सकता।

Post – 2019-01-25

समाज व्यवस्था और वर्णव्यवस्था

जब मैं कह रहा था कि हम अपने को पूरी तरह नहीं देख पाते हैं, उसके कुछ पक्ष हमारी आंखों से ओझल रह जाते हैं, जब कि एक परदेसी की नजर में वे आ जाते हैं तो उनमें से एक पक्ष भारतीय समाज की बनावट से संबंध रखता है।

हम सामान्यतः भारतीय समाज को चार वर्णों में बांटकर देखने के आदी हैं। परंतु, इससे पूरे समाज का चित्र सामने नहीं आ पाता। हमें चार वर्णों से अलग एक पांचवें वर्ण की कल्पना करनी होती है जिसे हम अंत्यज या पंचम वर्ण कहते हैं। उसके बाहर फिर भी कुछ लोग बचे रह जाते हैं, जिनको किसी वर्ण में नहीं रखा जा सकता।

उदाहरण के लिए वर्ण समाज के भीतर आने वाले कायस्थों को ही लें
जो बहुत प्राचीन काल से ब्राह्मणों के प्रतिस्पर्धी रहे हैं, और उनके कर्मकांड की व्यर्थता का उपहास करते हुए – आज की परिभाषा के अनुसार – धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण अपनाते रहे हैं, उनके लिए वर्ण व्यवस्था में कोई स्थान नहीं है। सन् याद नहीं, पर कोलकाता हाई कोर्ट के एक फैसले के अनुसार उनको शूद्र बताया गया था। ये थे कायस्थ।

हमारे पास कायस्थों की जन्मपत्री में जाने का अवकाश नहीं है, परंतु यह बताने का समय जरूर है कि कायस्थ कार्यस्थ अर्थात् प्रशासनिक पदों पर नियुक्त होने वाले लोगों की संज्ञा थी, जो उन वर्णों से निकल कर आते थे जिनको शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार था, अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य।

यह समाज या समुदाय अभिज्ञान के मामले में स्वयं सबसे अधिक भ्रमित है। जो प्रतिबंध दूसरे वर्णों के लिए लगाए गए हैं, उनमें से एक (असगोत्र विवाह) का तिरस्कार यहां देखने को मिलता है। कायस्थों में वर्मा वर्मा से ही शादी विवाह का संबंध रखेगा, श्रीवास्तव श्रीवास्तव के भीतर ही संबंध रखेगा। यही दूसरों के विषय में भी लागू है।

सुदूर अतीत का आग्रह कि हम ब्राह्मण हैं, क्षत्रिय, वैश्य हैं, एकमेक होने के बाद भी बना रह गया। वर्ण व्यवस्था की दीवारें इतनी मजबूत हैं, कि हम अपना वर्ण भूल जाएं तो भी वर्ण सीमा बनी रहती है। धर्म बदल लें तो भी नहीं जाती। परन्तु यदि आपकी आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक स्थिति ऐसी है कि आप वर्ण समाज के विधान को रीतिनिर्वाह मान कर विद्रोह नहीं करते तो भी हीनभावना पैदा नहीं होती तो उसका भी यह एक नमूना है।

जो लोग इस व्यवस्था की जड़ों को समझने से पहले समाज को बदलना चाहते हैं, उन्हें इसका अध्ययन करना चाहिए। समझ के बिना बदलाव नहीं किया जा सकता, विध्वंस अवश्य किया जा सकता है। अपनी नासमझी को भी एक उपलब्धि मानते हुए जो लोग, जो जी में आए वह करते हुए, समाज को बदलना चाहते हैं वे समाज का विध्वंस कर सकते हैं पर न तो समाज में सही बदलाव ला सकते हैं, न ही पलायन से अपने को बचा सकते हैं, क्योंकि बचाव सबके साथ ही संभव होता है।

मैं इस प्रश्न पर उस विदेशी की समझ की दाद देता हूं जिसने वर्ण व्यवस्था के अनुसार भारतीय समाज को समझने की चेष्टा नहीं की, अपितु जैसा देखा, जैसा समझ में आया, वैसा बयान किया। इसके कारण ही उसके आलोचक यह आरोप लगाते रहे कि उसे भारतीय समाज की समझ नहीं थी। वे मानते थे कि भारतीय समाज चार वर्णों में बटा हुआ है और जो इस बात को नहीं मानता वह भारतीय समाज को नहीं समझता।

इसके विपरीत हम यह कहना चाहते हैं कि मेगास्थनीज को भारतीय समाज की जितनी अच्छी समझ थी, उतनी हमें भी नहीं है, हमारे शास्त्रों को भी नहीं थी, उसके आलोचकों को भी नहीं थी। उसने भारतीय समाज को सात भागों में विभाजित किया था। यह विभाजन भारतीय समाज को समझने में किसी भी अन्य विभाजन की तुलना में अधिक सटीक और अधिक वस्तुपरक है। परन्तु इसे आज तो नहीं बताया जा सकता।

Post – 2019-01-24

निर्वासित

हँसते हुए कहता था ‘कहीं कोई गम नहीं!
लगता था उसके गम की कोई इन्तहा नहीं।
‘हम कितने खुश थे, देखिए, उस बाग में मगर
वह बाग कहीं होगा सिर्फ उसमें हम नहीं ।।’
***
मर गए देखिए सितम वाले
नामलेवा तलक बचा न रहा।।
खिलजी, तुगलक कहीं ढूढ़े न मिले
लोदी गायब हैं, मुगल भी न रहा ।।

Post – 2019-01-24

दो दिन से मैं ऊपर से सामान्य रहने के प्रयत्न के बाद भी भीतर से व्यग्र हूँ। कारण अग्निशेखर द्वारा जम्मू के हाल पर भेजा गया एक लिंक है। आप को सलाह है कि चैन की नींद लेने के लिए आप उसे देखने से बचें। पर पता न दें तो आप यह कैसे समझेंगे कि किसे देखने से बचना है।

Post – 2019-01-23

हया को भी हया आ जाए लेकिन…

हम सभी भारत से अतीत काल में परिचित और इसके विषय में जानकारी देने वाले लेखकों में मेगस्थनीज के विचारों की मोटी जानकारी रखते हैं, क्योंकि इतिहासकार अपनी पुस्तकों में प्राय: इनके हवाले देते रहे हैं। परन्तु अधिकांश जानकारियां तत्कालीन समाज की नैतिकता और शासन व्यवस्था के विषय में होती हैं और इनमें कुछ इबारतों को ही बार बार इस तरह दुहराया जाता है मानो अधिकांश लेखकों ने पुस्तकों में उद्धृत वाक्यों पर भरोसा करके उन्हें ही दुहरा दिया हो।

कोई भी विदेशी लेखक किसी देश और समाज की बहुत अंतरंग और गहन जानकारी नहीं रख सकता और उससे कुछ पहलू छूट जाएं यह प्राचीन ही नहीं आधुनिक विदेशी लेखकों के विषय में सच है जिन्हें परिवहन, सूचना के माध्यमों और किसी भी पहलू पर उपलब्ध साहित्य की सुविधाएं प्राप्त हैं।

परन्तु विदेशी लेखक की नजर अल्प परिचय के बाद भी हमारे कतिपय ऐसे पहलुओं की ओर जा सकती है जिससे अति परिचय के कारण ध्यान ही नहीं देते। ये हमारी उपलब्धियां भी हो सकती हैं और सामाजिक विकृतियां भी। इसलिए हमारे लिए कोई भी विदेशी लेखक पूरी तरह भरोसे का नहीं हो सकता, उसका महत्व पूरक के रूप में ही हो सकता है।

परन्तु हमारा देश जो सूचना और ज्ञान के मामले में विदेशी ‘सेवकों’ पर निर्भर करता है उसे अपने स्रोतों से उपलब्ध सूचनाओं से अधिक भरोसा विदेसियों पर हो तो इस पर हैरान होने का कोई कारण इसलिए भी नहीं कि जहां तक प्राचीन साहित्य का प्रश्न है, हमारे इतिहासकारों को उसका पता ही नहीं और जितना कयास, आभास और अनुवाद से जान पाते हैं, वे उसे समझने से अधिक उसका सत्यानाश करने के प्रयत्न में रहते हैं और इस झक में उन्होंने जो तोड़फोड़ की है उससे विदेशी यात्रियों के वर्णन अप्रभावित रहे हैं।

मेगास्थनीज के भारत विषयक ज्ञान को इसी परिदृश्य में रख कर देखा जाना चाहिए और इस दृष्टि से वह यूनानी लेखकों में सबसे विश्वसनीय और अन्यथा भी बहुत भरोसे के हैं क्योंकि:
1. तत्कालीन भारतीय समाज और मूल्यों के विषय में जो मत व्यक्त किए हैं वे चीनी यात्रियों के विवरणों से मेल खाते हैं;
2. भारत के भौगोलिक यथार्थ के अनुरूप हैं;
3. भारतीय साहित्य में उपलब्ध सूचनाओं से अनमेल नहीं हैं; और
4. तहस नहस किए जाने के लाख प्रयत्नों और दमन, उत्पीड़न, अतिदोहन जनित दुरवस्था के बाद भी वे मूल्य हिन्दू समाज में ही नहीं अवशिष्ट रह गए हैं, किसी न किसी रूप में भारतीय भूभाग में बसने वाले दूसरे समुदायों में भी तलाशे जा सकते हैं जिनके कारण भारत के पारसी, मुसलमान, ईसाई अपने अभारतीय मजहबी लोगों से अलग पहचाने जा सकते हैं।

मेगास्थनीज ने भारत के विषय में जो सूचनाएं प्रस्तुत की हैं उनको संक्षेप में भी रखना चाहें तो वह कई पन्नों में पूरा होगा। हम इसे सार रूप में रखना चाहेंगे:
1. भारत एक विशाल देश है जो तीन ओर से समुद्र से और उत्तर में हिमालय से घिरा है। इसको आयताकार मानना एक ऐसी मामूली भूल है जिसे दक्षिण की ओर जाती तटरेखा और उस युग की सीमा में नाविकों से उपलब्ध सूचनाओं को ध्यान में रखते हुए सटीक मानना होगा। ध्यान रहे कि यह तुर्कों और मुगलों के हिंदुस्तान से और मनु के आर्यावर्त से विशाल है, विष्णुपुराण के अनुरूप है।
1.1. इसमें अनेक पर्वत हैं, जिनको उनसे निकलने वाली अनगिनत नदियां काटती हैं। इसकी सबसे विशाल, बहुत चौड़ी, बहुत गहरी और पवित्र नदी गंगा है, जिसके समकक्ष नील, दजला, फरात, डेन्यूब कोई नहीं।
1.2. इसमें कई उर्वर भूभाग हैं, सिंचाई की सुविधाएं हैं, साल में दो बार बरसात होती है, साल में दो फसलें उगाई जाती हैं, इसलिए अन्न का बाहुल्य है।
1.3. मीठे कन्द नैसर्गिक रूप में पैदा होते हैं(अन्य कन्दों के साथ शकरकन्द को याद रखें), अपार खुशहाली है ।
1.4. सभी तरह के फलदार पेड़ों के बाग-बगीचे हैं. सभी तरह के पशु-पक्षी हैं और हाथी तो इतने विशाल और इतने अधिक, कि उनके सामने लीबिया के हाथी कुछ नहीं। और इनको पकड़कर पालतू बनाया जाता है प्रशिक्षित किया जाता है और युद्ध के काम में लाया जाता है जिससे ये किसी युद्ध का पासा पलट सकते हैं। इनके ही कारण सिकंदर का साहस गंंगा प्रदेश की ओर बढ़ने का नहीं हुआ, जबकि वह इसके निकट पहुंच चुका था।
1.5. यहां लोहा, तांबा, सोना,, चांदी, हीरा,जस्ता, टिन और दूसरी धातुओं के भंडार हैं, जिनसे विविध प्रकार के समान आभूषण, औजार, और हथियार बनते हैं। इस तरह यह सभी प्रकार से समृद्ध देश है जैसा दुनिया में कोई नहीं।
1.6 इसमें सभी तरह की कलाओं में दक्षता रखने वाले कलाकार और कारीगर हैं।

इसके साथ ही उसने ऊंचे आदर्शों और नैतिक मूल्यों और सर्वोत्तम शासन व्यवस्था नागरिकों की सच्चरित्रता, विद्वानों के पांडित्य, उनकी दार्शनिक चिंतन पद्धति, उनके ज्योतिर्वैज्ञानिक पूर्वकथन नागरिकों के स्वाभिमान, डील-डौल और तेजस्विता की बातें की है जिनमें से अधिकांश को इतनी बार दोहराया जाता रहा है उसका उल्लेख करना समय का अपव्यय होगा।

हम यहां भारत देश महान है का राग अलापने के लिए ऊपर के विवरण नहीं दे रहे थे। हम केवल यह याद दिलाना चाहते हैं जिन ग्रीक लेखकों ने भारत के विषय में लिखा है उनमें से जो सूचना के मामले में मेगस्थनीज को सबसे सही मानते हैं, उन्होंने भी उसकी उसकी विश्वसनीयता को संदिग्ध कह कर दुष्प्रचारित किया है:
The ancient writers, whenever they judge of those who have written on Indian matters, are without doubt wont to reckon Megasthenese among those writers who are given to lying and least worthy of credit, and to rank him almost on a par with Ktesias.

क्यों? एक ओर वे यह मानते हैं भारत के विषय में उनकी जानकारी बहुत कम है, इस मामले में सबसे भरोसे की मेगास्थनीज है और इसके बावजूद वे अविश्वसनीय भी ठहराते हैं। जिस सिकंदर ने दारा को परास्त करके केवल उसके साम्राज्य को अपना बना कर विश्वविजेता होने का दावा किया था, उसके शौर्य और साहस पर गर्व करने वालों को भारत के समक्ष अपनी यह तौहीन बर्दाश्त नहीं थी। वे मेगास्थनीज को ही झूठा सिद्ध करके अपनी लाज बचा रहे थे।

वह स्वयं झूठ बोल रहे थे, पोरस से सिकंदर की पराजय को छुपाते हुए झूठा इतिहास गढ़ रहे थे। यह विवाद का विषय हो सकता है की जीत पोरस की हुई थी या सिकंदर की, परंतु यह तो सच है कि मगध के सैन्यबल का अनुमान करके विश्व विजेता भाग खड़ा हुआ था।

बात केवल ग्रीक इतिहासकारों और यूरोपीय लेखकों की होती तो समझी जा सकती थी। सचाई को लगातार बदलकर भारतीय इतिहासकार भी पेश करते रहे। अपने को उसके सामने नगण्य पाकर प्राचीन भारत के गौरव को मिटाने की जितनी दुराग्रह पूर्ण चेष्टा मिल में मिलती है , उतनी यूरोप के दूसरे किसी इतिहासकार में भी नहीं पाई जाती। और वही स्टुअर्ट मिल हमारे मार्क्सवादी इतिहासकारों का शलाका पुरुष बना रहा और वह उसके मॉडल को वैज्ञानिक इतिहास की कसौटी मानते रहे।
धिक् तान् च, तं च, कुप्रं च इमान् जनान् च।