को बड़ छोट कहत अपराधू
तीसरा वर्ग निषादों और गड़रियों और दूसरे चरवाहों का है, जो न तो नगर में स्थाई बस्ती बसाकर रहते हैं, न देहातों में। ये कहीं भी डेरा जमा लेते हैं। ये हानिकारक पक्षियों और जानवरों से देश को मुक्त करते रहते हैं। ये बड़ी लगन से अपने काम में जुटे रहते हैं, इसलिए ये भारत को हानिकारक कीट- पतंग से, जिनकी यहां बहुतायत है, मुक्त रखते हैं और ऐसे पक्षियों और साथ ही जंगली जानवरों से भारत को मुक्त रखते हैं, जो किसानों के बीज और फसल को खा जाते हैं।
यहां और अन्यत्र भी यह बहुत स्पष्ट है, कि मेगास्थनीज की नजर जन्मजात श्रेष्ठता या कनिष्ठता, अर्थात् जाति पर नहीं, अपितु कर्म या व्यवसाय पर है, जिसमें अस्पृश्यता के लिए भी स्थान नहीं है। यह जानकारी की कमी के कारण भी हो सकता है, और दृष्टिकोण की भिन्नता के कारण भी। फिर भी शिकारियों और पशुपालकों को एक श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। दृष्टि के इस इकहरेपन के कारण पशुधन में भारत की समृद्धि में पशुपालकों की भूमिका का और उनके द्वारा दिए जाने वाले राज-भाग का उल्लेख होने से रह गया।
Ancient India as Described by Megasthanese का संपादक अपनी पादटिप्पणी में याद दिलाता है कि निषाद हिंदू वर्णों में नहीं आते, संभवत: ये अहीरों की तरह एक जनजाति ( ड्राइव) थे, परंतु मेगास्थनीज के सामने हिंदू समाज है ही नहीं। उसके सामने भारतीय समाज है, भारतीय राज्य है, और भारतीय शासन व्यवस्था है।
एक दूसरी बात कि प्राचीन भारत में और बाद में भी मध्येशिया से पशुपालकों के जत्थे भारत में प्रवेश करते रहे हैं जिनके सबसे नए नमूने गूजर हैं, जो भारतीय समाज में रच-पच गए हैं, फिर भी कुछ चारणजीवी भी रह गए हैं। भारतीय पशुपालक (ब्राहुई) मध्येशिया तक विचरण करते रहे हैं। परंतु पशुपालन भारत में इनके साथ आरंभ नहीं हुआ।
गुजरात, जो पशु धन की दृष्टि से हड़प्पा काल से चर्चा में रहा है, उसमें हड़प्पा के नागर चरण से बहुत पहले से पशुपालन के प्रमाण मिलते हैं । हड़प्पा सभ्यता के पशुधन में गुजरात का बहुत बड़ा योगदान है। जिन सांड़ों का अंकन हड़प्पा की मुद्राओं पर हुआ है, वे आज भी गुजरात में पहचाने जा सकते हैं।
ऋग्वेद में पशुपालक यादवों (याद्वानां पशु:) का उल्लेख है। यजुर्वेद में अजपाल और अविपाल समुदायों का उल्लेख है। मैं जिस पक्ष पर ध्यान केंद्रित करना चाहता हूं, वह यह कि मानवीय बलबूते पर किया जाने वाला उत्पादन दो शाखाओं में विभक्त दिखाई देता है। एक खेती-बारी जिससे आधुनिक सभ्यता का विकास हुआ। दूसरा पशुपालन, जो इस सूझ से पैदा हुआ कि जिन शावकों का शिकार किया जाता या पकड़ा जाता है और अनुकूल मौसम में उनकी संख्या अधिक हो जाने पर उनको घेर कर रखा जाता है और उनमें से कुछ उसी अवधि में प्रजनन करके अपनी संख्या बढ़ाने लगते हैं, यदि इनको पाल-पोष कर रखा जाए तो शिकार करने की झंझट से मुक्ति मिल सकती है ।
जिस सूझ से आहार के लिए जुगाई जाने वाली वन्य औषधियों को अपने प्रयत्न से सुनियोजित ढंग से उत्पादित करने की पहल हुई थी, वही आखेटजीवियों में रेवड़बन्दी से पैदा हुई थी। इसकी ओर समुचित ध्यान नहीं दिया गया। गो, पशुपालन में विकास की अधिक संभावनाएं नहीं थीं।
एक विचार यह था कि वही समाज पहले शिकार से पशुपालन की ओर अग्रसर हुआ और उसके बाद वन्य अनाजों को उत्पादित करने की सूझ पैदा हुई। दूसरा विचार यह है कि पहले खेती आरंभ हुई और उसके बाद पशुपालन आरंभ हुआ। इसके समर्थन में कॉलिन रेनफ्रू ने जो तर्क दिए हैं उन्हें दोहराने का अवसर यहां नहीं है, परंतु यहां प्रश्न पूर्वापर का नहीं है, दो समानांतर विकासों की बात है।
शिकार पर अधिक निर्भर करने वाला समाज पशुपालन की ओर अग्रसर हुआ और वानस्पतिक भंडार से अपना आहार चुंगने वाला कृषि की ओर। किसने किसको प्रेरित किया यह तय करना जिस गहन और व्यापक अध्ययन की अपेक्षा करता है, वह मेरे पास नहीं है।
परंतु पशुचारण और पशुपालन को आदिम मानना, जनजातीय मानना, वस्तुस्थिति को समझने से इन्कार करने का पर्याय है। भारतीय प्राकृतिक संपदा और अर्थव्यवस्था में दोनों के लिए पर्याप्त अवसर था, यद्यपि इस पर अन्तिम रूप से कुछ कहने से बचना होशियारी हो सकती है, समझदारी नहीं। यदि हम रेन्फ्रू पर ध्यान दें तो पशुपालन खेती के बाद ही संभव था, इसलिए अन्यत्र रेवड़बंदी होती रही और कृषि के सफल प्रयोग से प्रेरित होकर पशुपालन आरंभ हुआ जिसका आधार भारत में था।
सही सिद्ध होने से मुझे डर लगता है। मैं चाहता हूं मेरी गलतियों पर ध्यान दिया जाए जिससे मेरे सोचने में यदि इकहरापन बना रह गया हो, वह दूर हो और मेरी समझ में भी सुधार आए।