शेष वर्ग और अशेष प्रश्न
चौथा वर्ग शिल्पकारों का है। इनमें आयुध निर्माण करने वाले और किसानों तथा दूसरे व्यवसायों के उपयोग में आने वाले उपकरण तैयार करने वाले लोग आते हैं। इस वर्ग को किसी तरह का कर नहीं देना पड़ता। उल्टे इनके निर्वाह का भार सरकार उठाती है।
The fourth caste consists of the artisans. Of these some are armourers, while others make the implements which husbandmen and others find useful in their different callings. This class is not only exempted from paying taxes, but even receives maintenance from the exchequer.
पांचवां वर्ग सेनानियों का है। यह बहुत संगठित है और युद्ध के लिए तत्पर रहता है। संख्या की दृष्टि से यह दूसरे नंबर आता है। शांतिकाल में यह मौजमस्ती करता है। पूरे सैन्यबल – इसके सशस्त्र सैनिक, सामरिक घोड़े, युद्ध के उपयोग के हाथी – का प्रबंध सरकारी खर्च पर होता है।
The fifth caste is the military. It is well organised and equipped for war, holds the second position in point of numbers, and gives itself to idleness and amusement in the times of peace. entire force– men- at- arms, war-horses, war-elephants, and all are maintained at the king’s expense.
छठां वर्ग पर्यवेक्षकों का है। इनका काम है भारत में जो कुछ भी हो रहा है उसकी खोजबीन करना, उस पर नजर रखना और राजा को इसकी सूचना देना। यदि कहीं राजा नहीं है, तो धर्माधिकारी (मजिस्ट्रेट) को सूचित करना।
The sixth caste consists of the overseers. it is their province to inquire into and superintend all that goes on in India, and make report to the king, or, where there is not a king, The magistrate.
सातवाँ वर्ग पार्षदों और आकलनकर्ताओं – जनहित के कार्यों पर सोच विचार करने वालों – का है । संख्या की दृष्टि से यह सबसे छोटा परंतु अपने सदस्यों के चरित्र और उनकी बुद्धिमत्ता के कारण सर्वाधिक सम्मानित वर्ग है, क्योंकि राजा के सलाहकार, और राज्य के कोषाध्यक्ष और न्यायाधीश, सेनापति, (महाधर्माधिकारी) या महान्यायाधीश भी सामान्यतः इसी वर्ग के होते हैं।
The 7th caste consists of councilors and assessors,– of those Who deliberate on public affairs. It is the smallest class, looking to number, but the most respected, on account of the character wisdom of its members; for From there ranks the advisors of the king are taken, and treasurers of the state, and the arbiters who settle disputes. The generals of the army also, and the chief of magistrates, usually belong to this class.
भारतीय समाज सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक दृष्टि से बंटा और भाषा तथा वर्ण व्यवस्थाजन्य पृथकताओं की मजबूती के कारण इतना जटिल है कि इस पर किसी एक दृष्टि से है तैयार किया गया वर्गीकरण विफल हो जाता है। मेगास्थनीज तो विदेशी होने, पदीय गरिमा की सीमाओं, तथा भाषा की कठिनाइयों के कारण इसे समझ ही नहीं सकते थे, भारतीय समाजशास्त्रियों और नृतत्वविदों को भी इसकी वास्तविकता समझ में नहीं आती। वे नितांत काल्पनिक और निराधार विभाजन रेखाओं के माध्यम से एक ओर तो इसे आर्य, द्रविड़ और दक्षिण देशीय (कोल, मुंडा आदि) में विभाजित करके समझने चलते हैं और दूसरी ओर वर्ण व्यवस्था के माध्यम से। इसलिए न तो प्राचीन शास्त्र और शास्त्रविद इसे समझने में हमारी मदद करते हैं, न ही आधुनिक अध्येता – वे देसी हों या कलमी। इसलिए हम मेगास्थनीज की सीमाओं को समझ सकते हैं पर इसके लिए उसका उपहास नहीं कर सकते।
समाज को सात वर्गों में बांटने के बाद भी बहुत से महत्वपूर्ण पहलुओं की ओर उनका ध्यान नहीं गया है। यहां तक की इस विवरण में व्यापारी वर्ग छूट गया जिसका आर्थिक और प्रशासनिक दोनों दृष्टियों से महत्व था। ब्राह्मणों का कर्तव्य बताते हुए उनका ध्यान शिक्षा और ज्ञान की ओर गया ही नहीं। उपभोक्ता वस्तुओं का निर्माण और आपूर्ति करने वाले उद्योगों और साधनों की ओर भी उनका ध्यान नहीं जा सका।
इसके बाद भी कुछ पहलुओं को हम उनके माध्यम से अधिक स्पष्टता से समझ पाते हैं, जिनको दूसरे अध्ययनों में छिपा या दबा दिया गया है। उदाहरण के लिए शास्त्र का लेखन ब्राह्मण करते रहे इसलिए उन्होंने ज्ञान पक्ष, आचार पक्ष, दान दक्षिणा और यज्ञ पर तो ध्यान दिया, परंतु इस बात को रेखांकित करने से रह गए कि ब्राह्मण का देवत्व और उसकी आय का साधन मुख्य रूप से उस कर्म से जुड़ा हुआ था जिसके लिए महापात्रों को याद किया जाता है। इसी अधिकार के बल पर वह दूसरे आंदोलनों को कुचलकर बार बार विजेता सिद्ध होता रहा है। ज्ञान का लाभ उसी तक सीमित था, और इसकी व्यवस्था दूसरे – बौद्ध और जैन — आंदोलनों ने भी की थी। पर संस्कारों की ओर उनका ध्यान नहीं गया, विशेषतः जीवन को क्षण-भंगुर और मरणोत्तर जीवन को शाश्वत मानने वाले पर्यावरण में अंत्येष्टि और प्रेतकर्म की व्यवस्था दूसरों में न होने के कारण।
एक दूसरा पहलू, विभिन्न कौशलों से जुड़े हुए लोगों को दिए जाने वाले राजकीय संरक्षण का है। आज जब सभी को शूद्र कह कर, समाज द्वारा शोषित और उत्पीड़ित होने और सिद्ध करने का राजनीतिक लाभ बढ़ गया है, मेगास्थनीज के माध्यम से यह याद दिलाना प्रासंगिक हो सकता है, कि उन्हें सबसे अधिक छूट और राजकीय संरक्षण प्राप्त था। एक अन्य स्थल (पृ.71) पर मेगास्थनीज ने यह भी बताया है कि यदि कारीगरों को किसी के द्वारा कोई भी क्षति पहुँचाई गई तो उसे कठोरतम दंड दिया जाता था।
यहां हम उन पहलुओं की चर्चा कर सकते हैं जिसको समझने में मेगास्थनीज से इसलिए भूल हुई कि उनके समरूप पश्चिमी जगत में थे ही नहीं। गुलामी-प्रथा से परिचित और भारतीय दास-प्रथा से अपरिचित के कारण वह नहीं समझ सका कि भारत में उससे मिलती-जुलती कोई संस्था है।
हमारे विद्वानों का भी कमाल है, उन्होंने गुलामी और दास प्रथा को एक जैसा मान लिया। ये दोनों दो संस्थाएं हैं। दोनों का ताना-बाना अलग है। गुलाम युद्ध बंदियों को बनाया जाता था, या बाद में जानवरों की तरह फंसा कर या जानवरों की तरह खरीद कर जानवरों के रूप में रखा जाता था, जानवर माना जाता था, इसलिए उनकी संतानों और परिवारों पर भी स्वामी का स्वामित्व होता था। यह दूसरी बात है कि गुलामी प्रथा में स्वामियों के अपने निजी लगाव या कमजोरियों के कारण गुलामों से कई बार बहुत आत्मीय रिश्ता बन जाता था। परन्तु वह व्यवस्थाजन्य न था।
भारतीय दास प्रथा में कारण भी भिन्न थे , व्यवहार भी भिन्न था, और ऋण मुक्ति की व्यवस्था थी। दासता एक तरह से धन के अभाव में किसी ऋण को उतारने के लिए अपने या अपने किसी स्वजन के श्रम या आज्ञा पालन द्वारा भुगतान करने की व्यवस्था थी। इसके फंदे में कई बार बाजी बदने, या होड़ में, जुए में, धनी मानी लोग भी, यहां तक कि शास्त्रार्थ में पराजित विद्वान भी, आ जाते थे।
यहां तीन मुख्य बातों पर ध्यान देना होगा।
पहला यह की दासता की अवधि होती थी, उस अवधि से पहले भी साधन सुलभ होने पर उऋण होने की व्यवस्था थी।
दूसरा यह, कि दास के खानपान, हारी-बीमारी का पूरा उत्तरदायित्व स्वामी पर होता था और स्वामी अपने सेवकों के खाने-पीने के बाद ही भोजन करता था।
तीसरा यह, कि स्वामी सेवक के साथ कोई अपमानजनक व्यवहार नहीं कर सकता था। ऐसी चेष्टा करने के साथ ही दास ऋण-मुक्त और स्वतंत्र हो जाता था।
इसलिए दास और स्वामी का संबंध आज के सेवक और स्वामी के संबंध से मिलता जुलता था। इसलिए मेगास्थनीज इसे लक्ष्य कर ही नहीं सकता था। सचाई तो यह है कि हमारे कुर्सी-पकड़ विद्वानों की भी समझ में यह समस्या नहीं आई।